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अध्यात्म-दर्शन
है और उपयोग तो उनमे स्वत प्रवृत्त होता है, उन्हे उपयोग लगाना नहीं पडता, मत वे उपयोगरहित भी है।
इस प्रकार पांचवी गुणनिगगी भी चीतरागमभ मे गनी भांति पटिन हो जाती है।
उनके सिवाय और भी गम्परविरोधी गुणनिमगिया चीतरागमन में घटित हो सकती है. इग वात को बनाने के लिए अन्तिम गाण में श्रीआनन्दघनजी कहते है--
इत्यादिक बहुभगत्रिभंगी, चमत्कार चित्त देतो रे। अचरजकारी चित्रविचित्रा, आनन्दघनपद, लेतो रे॥
शीतल ॥६॥
अर्थ ये और इस प्रकार को और भी बहुत-मे भगो (भेदो-विकल्पों) वाली विभगियाँ चित्त मे चमत्कार पैदा करती हैं। मामान्य व विशेष दोनो तरह से विचित्र प्रकार की आश्चर्यकारी ये गुणत्रिभंगियों आत्मानन्द-ममूहरूप पद (मोक्ष) को प्राप्त कर लेती हैं यानी इन आत्मस्वरूपमूलका बिनगियो मे मग्न हो जाने से केवलज्ञान प्राप्त हो कर अन्त मे सच्चिदानन्दपद (परमात्मपद) प्राप्त हो जाता है।
भाष्य
परमात्म-गुण चिन्तन मे आनन्दघनमत-पद की प्राप्ति यहां एक सवाल उठता है कि आखिर परमात्मा मे इन जटपटी गुणत्रिपूटियो का चितन करने का चिंतन करने लाभ क्या है ? इसका कोई प्रयोजन भी तो होना चाहिए। इसके उत्तर में श्रीआनन्दघनजी कहते है.-सवसे पहला लाभ तो यह है कि इन गुणनिपुटियो का चिन्तन चित्त में शुद्ध आत्मा की गुणमयी शक्तियो का चमत्वार पैदा करता है। परमात्मभात १ इस प्रकार हमने अपनी बुद्धि मे इन गुणत्रिभगियो के परस्परविरोधी
भाव को दूर करके एक माथ प्रभु मे होने की मगति विठाई है । इनके सिवाय और भी किसी तरह में घटित हो गकती हो तो वहथतज्ञानी के सहयोग मे घटित करने का पाठक प्रयत्न करे। -~भाष्यकार