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________________ परमात्मा से आत्मतत्त्व की जिज्ञासा ४२६० है ? अथवा शुद्ध आत्मतत्त्व को आपने कैसे जाना था ? मैं उसे कैसे जान सकता हूँ ? इस प्रश्न मे 'कयु' शब्द से यह भी द्योतित होता है कि आत्मा के सम्बन्ध मे उस युग मे विभिन्न मान्यताएं (या दर्शन व मत) प्रचलित थी, उन्हे देखते हुए वीतरागप्रभु को निष्पक्ष वक्ता मान कर उन्हे न्यायाधीश के रूप मे समझ कर उनसे निर्णय मांगा गया है कि कौन-सा आत्मतत्त्व यथार्थ है ? यानी आत्मा के सम्बन्ध मे प्रचलित विभिन्न दर्शनो के मतो को देखते हुए आपने कौन-सा मत (तत्त्व) ययार्थ जाना है? वास्तव में श्रीआनन्दधनजी ने तत्त्वज्ञान के एक मूल सिद्धान्त (Fundamental Point) जिज्ञासा के रूप मे प्रस्तुत किया है। इसी के सन्दर्भ में वे अगली माथाओ मे विभिन्न दार्शनिको के मन्तव्य क्रमश प्रस्तुत कर रहे हैं कोई अबन्ध आतमतत माने, किरिया करतो दीसे । किरियातरण फल कहो कुरण भोगवे, इम पूछ्यु चित्त रीसे ।मु०२ जड़चेतन ते आतम एक ज, स्थावरजंगम सरिखो। सुख-दु.ख-संकर दूषरण आवे, चित्त विचार जो परिखो ।मु०॥३॥ एक कहे नित्य ज आतमतत, आतमदरसरण लीनो। कृतविनाश अकृतागम दूषण, नवि देखे मतिहीणो ।मु० ॥४॥ सौगतमतरागी कहे वादी, क्षणिक जे आतम जारणो। बन्ध-मोक्ष, सुख-दुख नवि घट, एह विचार मन आणो ।मु०॥५॥ भूतचतुष्कवजित आतमतत सत्ता अलगी न घटे। अंघ शकट जो नजर न देखे, तो शु कोजे शकटे ? |मु०॥६॥ अर्थ कोई-कोई दार्शनिक (वेदाती और साख्यमतवादी) आत्मतत्त्व को कर्मबन्धरहित (अवन्ध) मानते हैं, फिर भी वे शुभाशुभ मानसिफ आदि क्रियाएँ (जप, तप, दान, सेवा आदि) करते देखे जाते हैं। जब उनसे पूछा जाता है कि बताइए, जव आमा बन्धरहित है तो, इन क्रियाओ का फल कौन भोगता है ? . तब वे मन मे गुस्से हो (कुढ़) जाते हैं ।।२।।
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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