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अध्यात्म-दर्शन
आगमबलियो की भी यह परवाह नहीं मारना, तो सामान्य साधको की बात ही क्या ? आर्द्र कुमार, नन्दीपेण, आपाभूति आदि मुनियो की जीवनी इस वात की साक्षी है। इनी कारण उपाध्याय बमोविजयजी को भी पहना पदा कि ५ "मनरूपी चचल बदर चारित्र नार योगरूपी घलो योगदम उलटा करके सारा का सारा शमस्पी रस नीचे गिरा देता है, तब बचाग मुनिन्पी समतारसवणिक क्या कर सकता है ? वह भी मन के आगे लाचार बन जाता है। मीलिए तो अगनी गाया मे श्रीमानन्दधनजी मन की चाह न पा सकने की अपनी आप बीती सुनते हैं
जो ठग कहूँ ता ठगतो न देखू, शाहूफार पण नाहि । सर्वमाहे ने सह थी अलगु, ए अचरज मन माहि, हो।
कुन्यु० ॥ मनडु०॥५॥
अर्थ
अगर मन को मे [किनोवक्त ] ठग या धूर्त वहूं, तो इसे पिसी को ठगते हुए देखता नहीं, परन्तु जहां तक मेरा अनुभव है, यह ईमानदार साहकार भी नहीं है । माश्चर्य है यह सब बातों में अपनी टांग अडाता है, परन्तु रहता है सबसे अलग, अयवा प्रत्येक कार्य मे भाग लेता है, परन्तु अलग का अलग है । अथवा जैनतत्त्वज्ञान की दृष्टि से नन श्रोनादिक सभी इन्द्रियों मे है और इन सभी इन्द्रियो से अलग भी है , ऐसी विरोधी । तिविधि देख कर मेरे मन मे आश्चर्य होता है ,
मन की परस्पर विरोधी आश्चर्यजनक गतिविधि पूर्वगाथा में मन के वशीकरण की बात बडे-बडे थ तधरो के लिए अशक्य बता कर यह शका पैदा कर दी कि आखिर मन ऐना कौन सा पदार्थ है, जो
१. चरणयोगघटान् प्रविलोठयन् शमरस सकलं विकिरत्यघ । चपल एव मन पिरुच्चक रसवणिक् विद्धातु मुनिम्तु किम् ?
"-अध्यात्मसार