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________________ परमात्मपथ का दर्शन बात किस'नय की दृष्टि से कही गई है ? पूर्वापरविरोधी बाते किस अपेक्षा से कही गई है ? यह समझ मे नही आता । इसलिए आगम के अथाह समुद्र मे डुबकी लगा कर परमात्मा का मार्ग ढूंढना बडा दुष्कर कार्य है। और फिर आगमो के द्वारा मिर्फ मार्ग का अवलोकन (निरीक्षण) करना हो तो वह प्रचलित आगमो व शास्त्रो के बारबार स्वाध्याय, अध्ययन एव परिशीलन (अभ्यास) से बहुत कुछ सम्पन्न हो सकता है, मार्ग कैसा है ? क्या है ? इसका रहन्य क्या है ? आदि वाते समझ मे आ सकती हैं, लेकिन यहाँ कोरे (वन्ध्य) अवलोकन को परमात्मपथ के नीहारने मे स्थान नही है, ऐसा अवलोकन तो उत्तराध्ययनसूत्र की 'ज सोच्चा पडिवज्जति तव ख तिमहिसय' उक्ति के अनुसार थोथा व निष्फल है। त्यागभाव से रहित ज्ञान, आचरण से रहित ज्ञान वन्ध्य है। परमात्मपथ का निश्चय करने के लिए शास्त्रज्ञान के अनुसार आचरण का कदम बढाना आवश्यक है। इसलिए परमात्मपथ को निहारने का अर्थ-प्रभु मार्ग को देख-समझ-जान कर उस पर चलना है, प्रभुपथ पर चले विना, उसका सम्यग्ज्ञान या अनुभव नहीं हो सकता। 'चरण धरण नहिं ठाय' का रहस्य इसीलिए श्रीआनन्दवनजी ने पूर्वोक्त कारणो को ले कर स्पष्ट कर दिया कि आगम (शास्त्र) के द्वारा परमात्मा के पथ की असलियत का विचार करें तो उस पर चरण टिकाने को या चारित्र का आचरण करने को कोई स्थान ही नही रहता । वह अत्यधिक कठोर लगता है। इस दृष्टि से 'चरण धरण' के तीन रहस्य प्रतीत होते हैं । प्रथम तो यह है कि आगमो मे कथित प्रभु द्वारा आचरित व्यवहार (स्थूल) दृष्टि के चारित्र (क्रियाकाण्ड) को ही प्रभुपथ समझ लेने से स्वरुपरमणरूप निश्चयचारित्र मे स्थिर रहना साधक के लिए कठिन हो जाता है, इस कारण स्वरूपरमणल्प चरित्र पर कदम रखना दुष्कर है। दूसरा रहस्य यह है-शास्त्रो मे कथित बातो मे परस्परविरुद्ध तथा कई जगह असगत वातो को देख कर बुद्धि के चकरा जाने से कौन-सा परमात्म-पथ है ? किसका अनुसरण किया जाय ? इस प्रकार बुद्धिभ्रम हो जाता है और साधक परमात्मा के असली मार्ग को पहिचान ही नही पाता । उस पर कदम रखना तो दूर की बात है।
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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