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यध्यात्म-दर्शन
परमात्मा के स्यूलदर्शन और उनका माक्षात्कल पूर्वगाथा मे वीतराग परमात्मा के गृष्मदर्शन में ताकानि फन का वर्णन था, इसमे श्रीआनन्दघनजी ने परमात्मा के म्यूलदर्शन का मावात्पल बताया है। वीतरागप्रभु के भूदमदर्शन का तत्कालफत नो बहुत ही जनुपम है, किन्तु उनके म्यूलदर्शन का भी पल कम नही है।
वीतरागपरमात्मा के स्यूलदर्शन दो प्रकार में हो सकते है-एगा नो उनके जीवनकाल में उनकी औदारिक देहाकृति के वर्णन, दूसरे उनके निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त हो जाने के बाद इस लोक मे उनके स्वलदान की पूर्ति के रूप में (यानी उनकी औदारिक देहाकृति को ऐवज में) उनकी प्रतिकृति (मूनि) को भावपूर्वक दर्शन।
यद्यपि परमात्मा के स्थलदर्शन के साथ भी आत्मस्वस्पभाव होना आबश्यक है, अन्यथा परमात्मा की स्यूल देह या उनकी प्रतिमा के देखने पर भी दर्शक का कोई वास्तविक प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा।
स्थलदर्शन के पहले प्रकार में श्रीआनन्दधनजी (साधक) कहते हैं"वीतराग प्रभो । (विमलनाथ तीर्थ कर) आपकी आकृति ही अमृतरम से लबालब भरी हुई है, जिसे नामकर्मरूपी चित्रकार सबके शरीर को रचता है, परन्तु आपकी देहाकृति परम उत्कृष्ट, शुभवर्ण, शुभगन्ध, शुभरस, शुभस्पर्श, शुभ सहनन-सस्थान आदि मे निमित है, जिसकी उपमा के लायक समार में कोई उपमेय पदार्थ नहीं है। यद्यपि सूर्य, चन्द्र, मेह आदि पदार्थ सुन्दर जरूर हैं, किन्तु थापके साथ इनमे से किसी की उपमा घटित नही हो सकती , क्योकि इनमे से कोई भी पदार्थ शान्तसुधारस का धारण नहीं करते, और अधिक समय तक देखने पर नेत्रो को कप्ट देते हैं। इसलिए उनमे अरुचि पैदा होजाती है, जवकि आपकी देहाकृति मे परमकरुणामय शान्तमुधारस छलक रहा है । इस कारण कोई भी सम्यग्दृष्टि आपको देखता है तो उसकी तृप्ति नहीं होती बल्कि आपके वारवार दर्शन करने वाले को आनन्द होता है। इसी भाव को, द्योतिन करते हुए भक्तामरस्तोत्र मे कहा है-'शान्तरम में रंगे हुए जिन पर१ देखिये 'भक्तामरस्तोत्र' मे
ये. शान्तरागरुचिभि. परमाणुमिस्त्व । निमापितस्त्रिभुवनकललामभूत तावन्त एव खलु तेऽप्यणव. पृथिव्यां, यत्त समानपरं नहि रुपमस्ति ॥
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