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वीतराग परमात्मा का साक्षात्कार
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अश्रद्धा, अविश्वास, मिथ्यावासना, अजान, सम्मोह आदि चाहे जितने भरे हो, आपके दर्शन (परमात्मस्वरूपदर्शन) होते ही आत्मविकास मे बाधक ये तमाम विघ्न नष्ट हो जाते हैं। आत्मा स्वाभाविक रूप से निर्मल हो जाती है। उसके लिए कुछ भी प्रयत्न नहीं करना पडता। सशय अपने आप मिट जाता है और निर्मल सम्यग्दर्शन प्रगट हो जाता है। 'संशयात्मा विनश्यति, इस कहावत के अनुसार जो व्यक्ति अधिक शकाशील संशयात्मा होता है, उसका जीवन नष्ट हो जाता है, परन्तु अगर वह वीतराग-परमात्मा का सम्यग्दर्शन (आत्मस्वरूप-दर्शन) प्राप्त कर ले तो उसका तमाम सशय भाग जाता है। उसकी आत्मा मे सम्यग्ज्ञान का प्रकाश हो जाता है । परमात्मा के दर्शन का यह तात्कालिक फल है। चारो ओर से विरोध और अवरोध (विघ्न) पैदा हो रहे हो, वे भी आपके यथार्थ दर्शन से मिट जाते है।
वास्तव मे वीतराग परमात्मा के यथार्थस्वरूप का दर्शन ही उनका दर्शन है, उस दर्शन के होते ही, उस पर दृढ आस्था के कारण नि.सशर्य प्रतीति हो जाती है कि' मुझे अवश्य ही परमानन्द-प्राप्ति होगी। निश्चयनय की दृष्टि से प्रभु के और मेरे स्वरूप मे कोई अन्तर नहीं है , इस बारे में परमात्मा के स्वस्पदर्शन होने पर साधक को कोई शका नहीं रहती। यह तो हुई परमात्मा के सूक्ष्म (आत्मस्वरूप) दर्शन के साक्षात्फल की बात । अब अगली गाथा मे परमात्मा के स्यूलदर्शन का साक्षात्फल बताते हुए श्रीआनन्दघनर्जी कहते है
अमियभरी मूरति रची रे, उपमा न घटे कोय। दृष्टि सुवारस झीलती रे, निरखत तृप्ति न होय ॥
॥ विमल० ॥६॥
अर्थ
अमृत से भरी आपकी आकृति (परम औदारिक शरीरात्मक) (शुमनामकर्म के कारण) रची हुई, है, ससार को किसी वस्तु के साथ जिमको उपमा (तुलना) नहीं की जा सकती। वह रागद्वेष की उष्णता से रहित (शान्त), परमकारुण्यसुधारस से ओतप्रोत है । जिमे चर्मचक्षु या ज्ञानचक्षु से देखने पर तृप्ति हो नहीं होती।