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________________ १५ : श्री अरहनाथ-जिन-स्तुति - वीतराग परमात्मा के धर्म को पहिचान (तर्ज- ऋषभनो वश रयणायरो, राग-परज या मार) धरम परम अरहनाथनो किम जाणु भगवंत रे। स्व परसमय समझावीए, महिमावत महंत रे । घरम०॥१॥ अर्थ हे भगवन् ! में श्री अरहनाय नामक वीतराग-परमात्मा का जो उत्कृष्ट (स्वभावस्वरूप) धर्म है, उसे किस प्रकार समझू कैसे जान सकता हूँ? उसके लिए महामहिम महान् प्रमो । आप मुझ पर कृपा करके स्वसमय (स्वधर्म) और परसमय) परधर्म या केवलज्ञान से पहले की निविपल्प ध्यानस्य आत्मा की दशा=स्वसमय और • ससे अतिरिक्त दशा- परसमय अयो आत्मा का जिनेश्वरो द्वारा प्रकाशित निर्गन्य सिद्धान्त एव निथेतर सिद्धान्त, दोनो के वारे मे समझाइए। सर्वोत्कृष्ट वीतरागधर्म की जिज्ञासा पूर्वस्तुति में मन को वश में करने की प्रार्थना परमात्मा में की थी, किन्तु मन को वश में करने का एक कारण धर्म है। धर्म को भलीभांति जाने समझे विना उसमे प्रवृति नहीं हो सकती और प्रवृत्ति के बिना सफल परिणाम नहीं आ सकता। इसलिए श्रीआनन्दघनजी वीतराग परमात्मा के धर्म को जानने-समझने की दृष्टि से कहते हैं-'धरम परम अरहनाथनो किम जाणु भगवन्त रे ।' ससार मे अनेकविध धर्म हैं । कई धर्म तो परस्पर इतने विरोधी है कि उनमे पता लगाना कठिन हो जाता है कि कौन मा धर्म ययार्थ, सच्चा, हिनकारक और सुम्ब्रदायका या तारक है और कौन-मा अन्यया, वर्तमान मे अहित कर, व क्षणिक सुखदाता है ? समार मे धर्मो का जगल इतना लवा-चौडा है कि उसमे पता लगाना कठिन हो जाता है कि कौन-सा धर्म औपधरूप है, सजीवनी
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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