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मनोविजय के लिए परमात्मा से प्रार्थना
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अनन्तशक्तिमत्ता को जानता ही हूँ। मन को वशमे करने का उपाय अब तेरे ही हाथ मे है । अपने आपको इतना सक्षम, इतना शक्तिशाली, आत्मवली बना कि मन तेरे आगे स्वयमेव झुक जाय, तेरा दास बन जाय, तेरे इशारो पर चले ।'
. सारांश . . . . . . . इस महत्वपूर्ण स्तुति मे श्रीकुन्थुनाथ वीतरागप्रभु से मनोविजय के लिए लिए प्रारम्भ से ले कर अन्त तक जोरशोर से प्रार्थना की गई है। शुरूआत मे मन की शिकायत प्रभु से की है, अपने साथ मन के होने वाले विविध सघर्षों का बयान किया है- रात-दिन, आकाश-पाताल, बस्ती उजाड सर्वत्र मन की अवाघगति है । बडे बडे मुमुक्ष साधक, तपस्वी, ज्ञानी, ध्यानी मन को वश मे करने के लिए पच पच कर थक गये, परन्तु मन किसी के काबू मे नही आता। यहां तक कि वडे बडे आगमवली भी मन को अकुश मे न ला सके, जबरदस्ती करने पर भी मन काव मे नही आता, न किसी भी, वात को सुनतामानता है, यहां तक कि देव, मानव, पण्डित सभी ने समझा लिया, फिर भी स्वच्छन्दकारी मन किसी की एक नही मानता, नपुसकलिंगी , होते हुए भी वडे-बडे जामर्दो को यह पछाड देता है, अन्य वातो मे समर्थ भी मन के आगे असमर्थ हो जाते हैं। इसलिए अन्त मे वे इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि सर्वप्रथम और सबसे बडी बात है- मन को साधना । इसको साध लेने से सभी वाते सध जायेगी । अत वे वर्तमान स्थिति मे मन को वश में करने मे अपने आपको दुर्वल जान कर प्रवल अनन्तशवितधर वीतराग प्रभु से प्रार्थना करते है कि आपने अपने मन को पूर्णतया वश मे कर लिया, आगम-प्रमाणित यह बात तभी सच्ची मानी जा सकती है, जब मेरे मन को वश मे ला दें, या वश करने मे आप प्रवल निमित्त बन जाए। इस प्रकार आध्यात्मिक साधना मे सर्वोपरि मनोविजय पर श्रीआनन्दधनजी ने जोर दिया है और इसके लिए प्रबल पुरुषार्थ करने की बात भी ध्वनित कर दी है।