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अध्यात्म-गर्जन
बाद में इस भापा को क्षम्य माना जाता है। जब अपना कोई बस नहीं चलता है, तो भक्त प्रभु का ही आश्रय लेना है। यह जानता है कि वेमे प्रभु दूसरो के कर्ता-धर्ता-हर्ता नहीं बनने, किन्तु अगर मेरे पुष्प प्रबल हो, मंग शुभ कर्मोदय हो तो कदाचित् प्रभु प्रबल निमित्त उन सकते हैं । मनको वा में करने का पुग्पायं मुझे ही करना है, मेरे बदले प्रभु पुरचार्य नहीं करेंगे, न मेग हाथ पकड़ कर प्रभु मेरा मन वश में सरायगे, लेकिन में जो कुछ पुन्चार्य करू उसमे वे प्रवल निमित्त, प्रेरक एव महायक तो बन ही मरते हैं। क्योंकि प्रम अनन्तशक्तिमान है, आनन्दघनमय है, इसलिए प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रेरणा तो दे ही सकते हैं, मेरे अन्दर अन्त म्फुरणा तो जगा ही गाते हैं। मेरे परोक्ष सहायक तो वन ही सकते है, मेरे प्रवन पुरुपायं में प्रोत्साहनल्प आशीवाद तो उनकी अन्तरात्मा से मिल सकते हैं। इसलिए व्यवहारदृष्टि से इस पक्ति की अर्यनगति यो की जा सकती है कि मेरे मन को वश (अधीन) करने में आप सहायक बनें, प्रेरक वनें, मुझमे इस प्रकार की आत्मशक्ति जगा दे कि मैं अपने मन को वश मे कर सकू । अयवा में अपने मन को मापने स्वल्प मे लीन करना चाहता हूँ, आप कृपा करके मेरे अन्दर कोई अन्त स्कुरणा या आत्मशक्ति जगा दे कि मेरा मन नापके स्वल्प मे लग जाय, जिससे मेरा जन्ममरण का चक्कर समाप्त हो जाय ।
निश्चयदृष्टि से इस प्रकार की अर्थमगति हो सकती है-'हे लानन्दघन प्रमो । मेरा चचल मन नापके शुद्धस्वरूप में लग जाय और मैं भी आत्मानन्द परमानन्दघन वन जाऊ और सदा-सवंदा अनन्त आनन्द [ख] मे रमण करता रहूँ ! आपकी कृपा से या मेरे पुरुपायं से) मंरा आत्मलक्ष्य न छूटे, आपके स्वरूप में लगा हुआ मेरा मन विपयो में इधर-उधर न भटके, वह मेरी आत्मा में ही लीन हो जाय, तभी यह प्रत्यक्ष प्रमाणित हो जायेगा कि मैंने आपकी आराधना की और दुराराध्य मन को भलीभाँति साध लिया । वस्तुत निश्चयप्टि से ऐमा निवेदन अपनी आत्मा के प्रति अतीव मगत है कि श्रीआनन्दवनजी अनन्तशक्तिमान अपनी आत्मा से प्रार्थना करे कि 'आत्मा । तू अनन्त शक्तिमान है, आनन्दघन है, इसलिए अपनी आत्मशक्तियो के पुज पर विचार करके समस्त पोद्गलिक आसक्ति का त्याग कर अपने दुराराध्य मन को अपने वश मे करके बता। तभी तेरा अनन्तशक्तिमत्ता को मैं प्रत्यक्ष जान सकू गा, आगमप्रमाण से तो मैं तेरा