SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 393
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मनोविजय के लिए परमात्मा से प्रार्थना ३७१ के समक्ष निवेदन की हे- 'कुथुजिन | मनहुँ किम हि न बाझे।' और उसके बाद मन के सम्बन्ध में ऊहापोह करने के पश्चात् अन्त मे प्रभु के सामने वे फिर वही पुकार करते है । वे कहते हैं, मन अत्यन्त कठिनता से वश मे आता है, यह बात हम अनुभव और महापुरुषो के वचनो पर मे जानते हैं। इसी स्तुति की पूर्वगाथाओ मे मन की दुराराध्यता का वर्णन भी कर चुके है। परन्तु हे प्रभो । आपने तो बडी मुश्किली से वश में हो सकने वाले मन को अपने काबू मे कर लिया है, यह वात मैं अपनी मन कल्पित नहीं कह रहा हूं। मैने आगम पढे है, और उन आगमो से तो यह बात मैंने बुद्धि मे उतार ली है, जान ली है । अर्थात् आपने अतिदुर्गम्य दु साध्य मन को साध लिया है, इस बात को मैंने आगमप्रमाण से तो जान ली है, किन्तु प्रत्यक्षप्रमाण से भी जानना चाहता हूँ कि आपने मन को वश मे कर लिया है या नहीं। आगमो के प्रति मेरी श्रद्धा है, क्योकि सम्यक् वी को आगमो की बात पर श्रद्धा अवश्य होनी वाहिये। इसलिए आगमो के अध्ययन, पठन, श्रवण एव चिन्तन पर से तो मैं इतना मानने को तैयार हूं कि आपने अपने दुराराध्य मन को जीत लिया है । आपका जीवन चरित्र सुनने से यह बात सत्य प्रतीत होती है कि मन को वश मे करना आवश्यक था, अत आपने अपने मन को वश मे कर लिया, परन्तु हे आनन्द के घन । मैं इस बात को प्रत्यक्ष प्रमाण से तभी सच्ची मानू गा, जब कि आप मेरे मन को काबू में कर देंगे, यानी मेरा मन मेरे वश मे कर देंगे। आप चाहे जिस उपाय से कृपा करके मेरे मन को मेरे अधीन बना दे, तो प्रत्यक्षप्रमाण से भी आपके द्वारा मन को वश मे करने की वात सिद्ध हो जाय और ऐसा होने से मेरा काम भी सिद्ध हो जाय । वीतराग प्रभु से अपने मन के वशीकरण की प्रार्थना का रहस्य यहाँ प्रश्न यह होता है कि वीतराग प्रभु न किमी का मन विषयो मे भटकाते है और न किसी के मन को वश मे कर देते हैं। वे तो निरजन निराकार परमात्मा है, उन्हे किसी से लागलपेट (राग) या (हप) नही है। तव फिर योगी आनन्दघनजी ने वीतरागभ से ऐसी प्रार्थना की, उसके पीछे क्या रहस्य है ? इसका समाधान यह है कि श्रीआनन्दधनजी तत्वज्ञ ये, और वे इस बात को भलीभांति जानते थे कि वीतरागप्रभु किसी से कुछ लेते देते नहीं , वे रागढप ने, मासारिक मोहमाया से बिलकुल रहित है, परन्तु भक्ति
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy