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नध्यात्म-दशान
गुनहगार सावित हो, उन्हे अपनाने से दापरूप परिणाम ही आता हो तो उन्हें निकाल देने मे सच्ची शोभा है । 'सेवक किम नगगीए' के बदले यहाँ 'सेवक किम अव गणीए' यो पाठ हो तो उसको अर्थ सगत हो जाता है ।क दोपी सिद्ध हो जाने के बाद अब सेवक कैसे गिना (समझा जा सकता है ? __ अथवा इस गाथा का एक और पहलू रो भो अर्थ किया जाता हैहे मल्लिनाथ भगवान् । मैं आपका मेवक हूँ। आप मेरे स्वामी हैं, फिर भी आप मेरे प्रति उपेक्षा क्यो करते हैं ? आप जैसे सुज्ञ पुरुप मुझ सरीखे सेवा करने वाले की अवगणना क्यो करते हैं ? क्या इसमे आपकी कुछ शोभा या महत्ता वढ जाती है ? मैं जानता हूँ कि आप महान् विजेता हैं, क्योकि आपने ससार के सभी दुखो को देने वाले राग-द्वेपादि शत्रु ओ को जीत लिए हैं और उन राग-द्वे पादि के नीचे दबी हुई अपनी अनन्त चतुष्टयरूपी लक्ष्मी को प्राप्त कर ली। आपको इस प्रकार की शोभास्पद एव सर्वोच्च होते हुए भी आप मेरे सरीखे एक सेवक की अवगणना करे, उपेक्षा करें, क्या आपके लिए यह मोभारूप है ? यह तो सर्वविदित है कि स्वामी को जब विशेष लाभ या जय मिलता है तो सेवक को कुछ इनाम मिलता है, परन्तु आप तो सेवक की अवगणना (निरस्कार) कर रहे हैं ?
इस गाथा के प्रारम्भ मे 'सेवक किम अवगणोए, के बदले जब 'सेवक किम अब गणीए पंढते हैं तो इसका समाधान हो जाता है, शायद धीमानन्दघनजी उसी बात को हृदय मे रख कर कहते हो कि 'भगवन् ! आप ऐमे सेवक को कव सेवक गिन (समझ) सकते है, जो आपके शत्रुओ को अपनाता हो, आदर देता हो ? आपके प्रति भक्तिभावना से मुझे अपनी एक भूल नजर आती है कि आपने जव अनन्त काल के सायी वैभाविक गुणो-राग-द्वेष, कान, क्रोध, तृष्णा आदि को निर्मूल कर दिया है, उन्हीं राग-द्वैपादि को मैंने अपना रखे हैं, उन्हे मेरे जैसे अनेक जीवो ने आदर दे रखा है, दे रहे हैं, तब उस नामधारी तथाकथित सेवक (मेरे जमे मेवक) को आप कैसे आदर दे सकते है ? जहां तक अज्ञानी जीव मे इन दुर्गुणो के माय मेल रहे, वहां तक आप सरीखे पूर्ण गुणी के साथ उनका मेल कैसे बैठ सकता है ?
इस प्रकार भक्ति के आवेश मे श्रीमानन्दघनजी द्वारा वीतरागप्रभु