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विविध चेतनाओ की दृष्टि से परम आत्मा का ज्ञान
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अध्यात्मज्ञा नरसिक ही श्रमण हैं पूर्वोक्त मतानुसार जो अध्यात्मज्ञानी, (विविध पहलुओ रो आत्गा के ज्ञाता) हैं , जो आत्मविज्ञान के रसिक हैं। जो अपने जीवन में प्रत्येक प्रवृत्ति या क्रिया आत्मा को, या आत्मस्वरूप को लक्ष्य मे रख कर करते है। इसके अतिरिक्त जो पेट भरने के लिए अध्यात्मज्ञान वधारते हैं, जो अध्यात्मज्ञान के बहाने शब्दजाल रचते है या आत्मज्ञान की ओट मे स्वार्थमय व्यापार या स्पृहाओ का जाल बिछाते हैं, वे श्रमण के वेप मे नकली श्रमण है, वेपधारी है। वे नकली अध्यात्मज्ञानी हैं, भावपूर्वक अध्यात्मज्ञानी नहीं है। ऐसे लोग साधु, सन्यासी, श्रमण या मुनि का वेप पहिन कर आत्मज्ञान मे पुरुपार्थ करना छोड कर सिर्फ खानपान, ऐश-आराम, शारीरिक सुख-सुविधा, पद-प्रतिष्ठा आदि की लिप्सा मे पड जाते है। वे खाना, पीना और मौज उडाना ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लेते है। देखिये, मुनि का लक्षण ज्ञानसार मे वताया है
मन्यते यो जगत्तत्व स मुनि. परिकीर्तित ।
सम्यक्त्वमेव तन्मौनं, मौन सम्यक्त्वमेव च ॥ जो जगत् के तत्त्वो पर भलीभांति मनन करता है, वही मुनि कहलाता है। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय मे अनुगत जो' सम्यक्त्व (सत्यता) है, वही मौन = मुनित्व है और जो मुनित्व है, वही इस प्रकार का सम्यक्त्व है। जिसमे आत्मा का सम्यक् ज्ञान है, उरामे ही मुनित्व समझो, जिसमे मुनित्व है, उसमे ही सम्प्रग्नान समझो, जो आत्मज्ञान में मस्त हो, जो जडचेतन का भेद, आत्मा का स्वरूप, गुणो और शक्तियो का रहस्य भलीभांति जानता हो, वही सच्चा साधु है । जिसकी दृष्टि मे राजा और रक का, गरीव-अमीर का कोई भेद न हो, समस्त प्राणियो मे निहित आत्मगुण या शुद्ध आत्मत्व (चैतन्य) दृष्टि से जो देखता हो, वही मुनि है, वही श्रमण है, समन है। ऐसी आत्मदृष्टि होने पर उसकी दृष्टि मे जड या पर पदार्थों का
'ज सम्मति पासह, त मोणति पासह , ज मोणति पासह, तं सम्मति पासह ।'
—आचारागसूत्र