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अध्यात्म-दर्शन
श्री आनन्दघनजी का कहने का आगय यह शिम मानो या न मानो, चेतन का अवश्य ही परिणगन होगा , घोर जब तक जीव गगारी, नय तक गुभ या अशुभ मंबन्धन भी होगा ही , या जिगने जंगे गर्म कि होंगे, उसे तदनुसार पल भी मिलेगा, जो उग अन्य दो भांगना पडेगा। इसम राई रत्तीभर भी फर्क पढ़ने वाला नहीं। सनिा चपनी आत्मा को भलीभांति रामना लो। अन्य लोगों को भी गह बात भी गांति हयगम कग दो।
चेतन और अचेतन में यही अन्तर है कि नेतन आत्मा या निजी महभाची गुण है, पुद्गल या जड को या किसी भी जड़दम को यह विज्ञान नहीं मिलता । कर्म के साथ चेतना जुटती है, उस समय जसे अध्यवसाय या परिणाम होते हैं, तदनुसार कर्मवन्ध होता है । चेतन के सम्बन्ध में कोई प्रिय या अप्रिय घटना हो तो समझ लेना चाहिए कि अवश्य ही यह मेरे किसी पूर्वकृत शुभ या अशुभ कर्म का फल है। कर्म करते समय तथा कर्मफल भोगते समय तीर्थकर परमात्मा की तरह राग-द्वेप, आतक्ति, घृणा, द्रोह-मोह आदि भाव नही रखने चाहिए , यही इसका फलिनार्थ है।
आत्मा के सम्बन्ध मे वास्तविक ज्ञान और उमने प्राप्त होने वाले अनिर्वचनीय आनन्द के सम्बन्ध मे श्रीआनन्दघनजी अन्तिम गाथा में कहते है
आतमज्ञानी श्रमण कहावे, वीजा तो द्रालगी रे। घस्तुगते जे वस्तु प्रकाशे, आनन्दघन-मतसंगी रे ।।
वासु० ॥६॥
अर्थ
आत्मा के सम्बन्ध मे विविध पहलुओ और दृष्टियो से ज्ञान प्राप्त करने वाला श्रमण कहलाता है। इसके अतिरिक्त और सब केवल मुनिवेषधारी द्रलिंगी हैं । जो वस्तु जिस रूप मे हो, उसे उसी रूप में जानें, समझें ओर प्रगट करे (कहे) वे ही आनन्दघन (सच्चिदानन्द परमात्मा) के, शुद्ध आत्मस्वरूप के अथवा जहाँ आनन्दसमूह है, उस मोक्ष के ज्ञान (मत) के सत्सगी (वादी या प्राप्त करने वाले) हैं।
भाष्य