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विविध चेतनाओ की दृष्टि से परम आत्मा का ज्ञान
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ज्ञानरूप, कर्मरूप और कर्मफलरूप । जव आत्मा का शुद्ध परिणमन, अर्थात् अपने ज्ञानादि गुणों मे परिणमन होता है, तब वह ज्ञानचेतना कहलाती है, जो कि शुद्ध और भूतार्थ है । जव आत्मा कर्म के रूप मे परिणमन करती है, तब वह कर्मचेतना कहलाती है और जब वह कर्मफल के रूप में परिणत होती है, तब कर्मफलचेतना कहलाती है। ये दोनो चेतनाएँ 'पर' के निमित्त मे होती है। इनमें आत्मा रागादिपरिणाम (भाव) वाली हो जाती है। इसलिए ये दोनो चेतनाएँ अभूतार्य अशुद्ध और अनानचेतना है। स्व-स्वरूप के ज्ञान के सिवाय अन्य मे 'यह मै करता हूं' , इस प्रकार कर्म के कर्तृत्व में आत्मा का लीन होना कर्मचेतना है। इसी तरह स्वात्मज्ञान के सिवाय अन्च मे 'मैं इसे भोगता हूं', इस प्रकार कर्म के भोक्तत्व मे आत्मा को तद्रूप बना लेना कर्मफलचेतना है। मगर ज्ञानचेतना की तरह कर्मचेतना और कर्मफलचेतना मे भी चेतन का ही परिणमन है। यह बात अपने आपको और दूसरो को अवश्य समझा लो। यही बात विभिन्न अध्यात्मग्रन्यो । मे वताई है।
१. ज्ञानाख्या चेतना बोध , कर्माख्या द्विष्टरक्तता।।
जन्तो कर्मफलाख्या सा, वेदना व्यपदिश्यते ॥ -अध्यात्मसार वोध ज्ञानचेतना है, रागद्वेप कर्मचेतना है, प्राणी के कर्मों के अनुसार फन कर्मफलचेतना है , जिमे वेदना भी कहा जाता है। 'परिणमदि जेण दव्य, तक्काल तम्मयत्ति पणत'
-प्रवचनसार जो द्रव्य जिस काल मे जिस भाव में परिणत होता है, उस काल मे वह द्रव्य तद्रूप हो जाता है। अप्पा परिणाममप्पा, परिणामो णाण-कम्म-फल-भावी । तम्हा णाण कम्म फलं च आदा मुगेदवो ॥१२५॥ परिणमदि चेयणाएं आदी पूण चेतणा तिधाऽभिमदा। सा पुण णाणे कम्मे फलम्मि वा कम्मणो भणिदा ॥१२३॥ णाण, अछवियप्पो कम्म जीवेण ज समारद्ध । तमणेगविधं भणिद फन ति सोख व दुक्ख वा ॥१२४ ॥--प्रवचनसार अर्य-आत्मा परिणामस्वरूप है परिणाम ज्ञानरूप मे, कर्मरूप मे और कर्मफललरुप मे होने वाले त्रिविध हैं। इसलिए आत्मा को ज्ञानरूप, कर्मरूप और कर्मफलरूप मानना चाहिए। आत्मा स्वचेतना के द्वारा परिणमन करती है । चेतना तीन प्रकार की मानी गई हैं--कपश वह हैज्ञानविपयक, कर्मविपयक और कर्मफलविपयक । समस्त विकरप (वस्तुग्रहण व्यापार) ज्ञान है, जीव के द्वारा प्रारम्भ किये गये कार्य कग है, जो आठ प्रकार के होते है । गुम्ख और दुसम्म कफिन हैं। जिसे अनेक प्रकार का कहा है।"