SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 272
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५० अध्यात्म-दर्शन वह जरा भी नहीं चूकती , चाहे वह पनिष्ट दु परमानामागे घिरी , चाहे जैसी विचित्र परिणमनमा हो, चाहे वेवन आन्मानन काही अनुभव करती हो । नभी अन्बानो मे, मशाल म र ग ग सातमा अपने चैतन्य को कभी छोड़ नहीं सकती। वास्तव ग वन नीनो कान में चेनग ही रहता है । उमे जो मुखदु सादि होते है, ये तो मिग पा र परिणाम है। आत्मा के ८ रुचकप्रदेश तो हमेगा ने ररने है। उन पर T T कोई अनर नही होता। जन निश्वरनय की दृष्टि ने आत्मा गर्म या कर्मा नहीं है। पर उसे जो मुख-दुख भोगने पड़ते हैं, वे का फल हैं। यह बात वीतराग परमात्मा (जिननन्द्र) करते है । वह रह कर श्रीआनन्दपनजी अपनी नम्रता प्रदर्शित करते है और कहते हैं कि यह बात मैं अपने गा मे कल्पित नहीं कह रहा हूँ , श्री वीतगगयेष्ट परमात्मा इसे कहते है। यहाँ निश्चय और व्यवहार दोनो नयो की दृष्टि से जात्मा के विविधम्पो का प्रतिपादन किया है । अत्र आत्मा की उपयुक्त नीन चेतनाओ ना लक्षण सक्षेप मे बताते हैं। परिणामी चेतन परिणामो, ज्ञान-करम-फल भावी रे। ज्ञानकर्मफल-चेतन कहीए, ले जो तेह मनावो रे ॥वासु० ५।। अर्थ चेतन (आत्मा) विविध अवग्थाओ मे अपनी चेतना परिणमन करता है। इसलिए आत्मा अपने आप में परिणामी है । इसी कारण वह ज्ञानरूप मे, कर्मरूप मे या भविष्यकालिक फर्मफलरूप में परिणत होती हैं। इसी को क्रमश जानचेतना, कर्मचेतना और कर्मफलचेतना कहते हैं। इन तीनो चेतनाओ को तुम मनाना, दूसरो को मनाना, अथवा तुम्हारी खुद को आत्मा को, वीतराग परमात्मा की तरह ठीक उपयोग करने हेतु मना लेना । भाष्य चेतना को त्रिधारा और इसका सदुपयोग ___ वीतराग परमात्मा चैतन्यरूप है । चैतन्य में सर्वन सामान्यरूप से अमन्य आत्मप्रदेश व्याप्न हैं । आत्मा परिणामस्वरूप है । वह जब जिग रूप में परि. णमन करती है, नर तदनुरूप या जाती है। ये परिणाम तीन पातर के हे
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy