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________________ २१६ अध्यात्म-दर्शन अर्थ प्रभुवीतगग मे अनन्त जात्मवीर्यस्प शाक्ति है, जो कि समस्त आत्माओं मे सामान्यरूप में होती है, फिर भी ज्ञानादि गुणों की अभिव्यक्ति में प्रभु का अपना अलग व्यक्तित्व है । तथा एक ओर उनकी तीनो लोकों के समान प्राणियो पर स्वामित्व (प्रिलोकप्रभुता या त्रिभुवनपूज्यता) है; जवकि मगे ओर वे निर्ग्रन्थ (अकिंचन) हैं । इसी प्रकार प्रभु मोक्ष के माय जोडने (योग करने) वाले गुणो को अथवा मन-वचन-कायास्प रियोग को धारण करते हैं, इसलिए वे योगी है, जबकि इसके विपरीत वे भोगी भी हैं। यानी वे आत्मगुणो का स्वय भोग (अनुगव) करते हैं। एक ओर वे द्वादशागीप प्रवचन करते हैं। इसलिए वक्ता हैं, जबकि दूसरी ओर मीनी भी है सावधभाषा बोलने तथा पापकर्म का उपदेश देने मे वे मौन रहते हैं। वे केवल-दर्शनी हैं, इसलिए निराकार उपयोगी होने से उपयोग नहीं लगा सकते-निरुपयोगी हैं, तवैव केवलज्ञानी होने से साकार उपयोग वाले होने से वे उपयोगी है। साथ ही इन पांचो जोड़ो के साथ सयोग होने से एक-एक भग और जुट जायगा. प्रत्येक को प्रिभंगी हो जायगी। भाष्य परमात्मा मे परस्पर विरोधी पांच गुण-त्रिभंगियां साधारणतया परमात्मा के परम्पर विरोधी को आम आदमी समझ नहीं पाता वह तो उन्हे उलझनभरे और परम्परविरोधी समझ कर छोड़ देता है। माहित्यशास्त्र में इसे विरोधभास अलकार कहा लाता है । जो विचार करने पर ठीक समझ में आता है। परमात्मा मे निम्नलिगित तीन-तीन भग हो सकते है(१) शक्ति, व्यक्ति और शक्ति-व्यक्ति-रहित(२) त्रिभुवनप्रभुता, निर्गन्यता और त्रिभुवनप्रभुता-निर्ग्रन्थतारहित, (३) योगी, भोगी और योग भोग-रहित, (४) वक्ता, मौनी और वक्तृत्व-मान-रहित और (५) उपयोगवान, अनुपयोगी और उपयोग-अनुपयोगरहित । ये पाँचों गुणत्रिभगियां, परस्पर विरोधी हैं, लेकिन इन पर गहराई से विचार करने पर स्पष्ट हो जाता है कि प्रत्येक विभगी वीतराग-परमात्मा मे एक साथ रह सकती है। उदाहरण के तौर पर पहली निशगी मे तीन गुण
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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