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________________ परमात्म-दर्शन की पिपासा कौन मे उपाय है? यह बात भी उन्होंने इस स्तुति मे दिल खोल कर प्रभु के समक्ष रख दी। परन्तु अन्त मे हार-थक कर वे परमात्मा के सामने घुटने टेक कर कहते है--'आपका दर्शन तो दुर्लभ है, परन्तु हे आनन्दमूर्ति देव । आपकी कृपा से मुलभ भी है। मतलब यह है कि श्रीआनन्दधनजी मानो अपना बौनापन जाहिर करते हुए कहते है-दर्शनरूपी अमृतफल जो परमात्मास्पी तरु मे लगे हुए है, पाने तो है, पर मै तो अभी उन्हे पाने मे अक्षम हूँ, वीना हूँ। मुझ पर परमात्मा की कृपा हो जाय तो दुर्लभ दर्शन भी सुलभ हो सकता है। निष्कर्ष यह है कि श्रीआनन्दधनजी से यह अमृतफल छोडा भी नहीं जाता, किन्तु साथ ही पाने की दुर्लभता भी है,। दर्शन की महत्ता के साथ-साथ उसकी दुर्लभता भी प्रतीत होती है । मगर वे इस दुर्लभता को सुलभता मे परिणत करने के लिए कटिबद्ध हैं, 'परमात्म-कृपा द्वारा । देखना यह है कि वह परमात्मकृपा कैसे प्राप्त होती है ? यह बात आत्म-अर्पण के सन्वन्ध मे की गई अगली (सुमतिनाथ प्रभु की) स्तुति मे स्पष्ट की गई है। आनन्दघन-परमात्मा की कृपा क्या व कैसे ? __प्रभुकृपा से दुर्लभ दर्शन सुलभ होने की बात पर विचार कर लेना आवश्यक है, क्योकि जिस धर्म या दर्शन में ईश्वर को सृष्टिकर्ता माना जाता है, वहाँ ईश्वर-अनुगह या प्रभुकृपा से किसी भी वस्तु की प्राप्ति होने की बात मानी जा सकती है, परन्तु सृष्टि को अनादि मानने वाले जैनदर्शन मे परमात्मा की कृपा को क्या स्थान हो सकता है ? यह विचारणीय प्रश्न है । वीतराग परमात्मा तो पर कर्ता-हर्ता है नही, न कुछ लेते-देते हैं। फिर भी जैन दृष्टि से प्रत्येक कार्य के होने मे निमित्तकारणो मे जो ५ कारण-समवाय आवश्यक माने है, उनके अतिरिक्त भी अनेक निमित्तकारण हो सकते है, वैसे निमित्तकारणो मे से एक कारण 'परमात्मा' हो सकते है। ऐसा मानने मे सैद्धान्तिक दृष्टि मे कोई आपत्ति भी नहीं है । सभी प्राणी एक साथ तो मोक्ष मे जाते ही नही हैं , परन्तु परमात्मा की कृपा तो सवको मोक्ष में ले जाने की है ; और रही है । आवश्यकनियुक्ति मे सिद्धो (परमात्मा) और आत्मा के गुणो का गाश्वतभाव वर्णित है । सिद्ध (परमात्मा) की उपकारकता शाश्वतभाव को ले कर है । इग तत्त्वदृष्टि गे प्रभुकृपा को आगम में अनिगहत्वपूर्ण स्थान दिया गया है।
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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