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परमात्मा से पूर्णवीरता की प्रार्थना
५४७ मार्गदर्शन है। इन सबके प्रकाश मे जब हम श्रीआनन्दघनजी द्वारा निर्दिष्ट आलम्बन, साधन, परपरिणति आदि आत्मा से भिन्न परवस्तु के त्याग पर विचार करते हैं तो वात सोलहो आने सही मालूम होती है।
वास्तव मे साधक जितने ही अधिक साधनो, आलम्बनो, सहायको, धर्मोरकरणो या आहारादि परवस्तुओ या परभावो को अधिक अपनाता है, उतनी ही अधिक परिग्रहवृत्ति बढती है, राग-द्वेष, अहकार, लोभ, इच्छाएँ आदि वढती जाता है और मनुष्य अशान्त, बेचैन, सक्लिष्ट, अस्वस्थ और असतुष्ट रहता है। उसकी भौतिक और आत्मिक दोनो प्रकार की वीर्य शक्ति का ह्रास हो जाता हैं, जो उसके तन, मन और आत्मा पर परिलक्षित हो जाता है। इमलिए पूर्ण आत्मवीरता के अभिलाषी साधक को परभावो एव परवस्तुओ से जितना नाता तोड सके, तोडना चाहिए, तभी उसमे वीरता जागृत और स्थिर होगी।
सारांश भ० महावीर परमात्मा की इस स्तुति मे वीरप्रभु से आध्यात्मिक वीरता की माग की गई है, परन्तु आगे चल कर श्रीआनन्दघनजी ने वीर्य की आत्मप्रदेशो मे व्यापकता, वीर्य की स्थिरता, वीरतापूर्वक आत्मोपयोग का फल, वीरता का मूल अधिष्ठान, वीरता की अभिव्यक्ति मे विघ्नकारक आलम्बनादि का त्याग आदि की सागोपाग और अभिनव विचारधारा जैनदर्शन के परिप्रेक्ष्य मे प्रस्तुत की है । मतलब यह है कि शारीरिक वीर्य की अपेक्षा आत्मिक वीर्य का महत्व कई गुना अधिक है । ससार के दूसरे दर्शन जहां सप्तधातुओ मे से अन्तिम धातु वीर्य को ही सर्वस्व मानते हैं, वहां वीतरागदर्शन आत्मिक वीर्य को महत्व देता है, शारीरिक बल, उत्साह, साहस आदि सबका आधार आत्मवीर्य है । यद्यपि शरीर, मन, बुद्धि, वीर्य (शुक्र) आदि जरूर मदद करते हैं, लेकिन इन सबका प्रेरणास्रोत केन्द्र तो आत्मा ही है। बहुत-से लोग शरीर से दुर्बल होते हुए भी बडे-बडे साहसपूर्ण काम कर बैठते हैं, जबकि शरीर से सशक्त हृष्टपुष्ट लोग साहस के काम करने से डरते हैं, हिम्मत हार जाते हैं, इसमे मूल कारण आत्मवीरता की कमी है, इसी चीज की परमात्मा से श्रीआनन्दघनजी ने याचना की है।