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परमात्मा से पूर्णवीरता की प्रार्थना
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का कुछ भी भला या बुरा नहीं कर सकते। योगो की ध्रवता (स्थिरता या निरोध) का लक्षण यह है कि वह जव पराकाष्ठा पर होता है, तब मन चाहे जो काम करे, वचन चाहे जो वोले, काया भी यथेच्छ काम करे, किसी प्रकार का कर्मबन्धन नही कराते, न होता है, सर्वक्रियाएं रुक जाती हैं। जैसे आठ रूचकप्रदेशो को कर्म लगते नही, वैसे ही आत्मा जव उत्कृष्ट वीर्य प्रस्फुटित करता है, उस समय उक्त त्रियोग किसी प्रकार का कर्मवन्ध नहीं करते । यह उत्कृष्ट वीय का ही परिणाम है कि आत्मा जव उत्कृष्ट वीर्य-स्फोट करता है, तव किमी प्रकार का कर्मबन्धन नहीं होता। आत्मशक्ति जरा भी घटती नही। निष्कर्ष यह है कि पूर्ण वीरता की प्राप्ति के लिए आत्मा को उत्कृष्ट वीर्य प्रस्फुटित करना चाहिए, ताकि योगो की स्थिरता हो जाय और आत्मा कर्मबन्धन से रहित हो कर अपने में आत्मवीर्य को स्वतन्त्र और स्वाभाविक होने से अनन्त आत्मसुख का उपभोग कर सके। श्रीआनन्दधनजी उपयुक्त विवरण द्वारा वीतरागप्रभु से अपनी हार्दिक प्रार्थना ध्वनित कर देते है कि "प्रभो । ऐमा उत्कृष्ट वीरत्व (आत्मवीर्य) मुझ मे प्रगट हो, मैं अपने उत्कृष्ट वीर्य का उपयोग कर सकू, ऐसी स्फुरणा या प्रेरणा अथवा अन्त शक्ति दीजिए।"
कामवीर्य-वशे जेम भोगी, तेम आतम थयो भोगी रे । शूरपरणे आतम उपयोगी, थाय तेह अयोगी रे ॥वीर० ५॥
अर्थ
जिस प्रकार इन्द्रिय विषयासक्त कामभोग करने वाला भोगी कामोर्यकामभोग स्पद्रियसुखभोग मे उपयोगी शारीरिक वीर्य (शुक्रनाम के धातु से प्राप्त शारीरिक शक्ति) के वश हो जाता है, आत्मा मैथुनसुसा भोगने में उत्कटता से तत्पर हो जाता है। उसी प्रकार यात्मा (अपना आत्मगुण) भी उतनी ही वीरता के साथ (आत्मा की अनन्तशक्तिपूर्वक) आत्मा के ज्ञाताद्रष्टीरूप गुण अथवा उपयोग में जुट कर पूरे आत्मवल के साथ अपने शुद्ध स्वभाव का भोगी बन जाता है। वही आत्मा मन वचन-काया के योगों से रहित (अयोगी), शुद्ध आरमस्वरूपी होता है ।