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१४ : श्रीअनन्तनाथ-जिन-स्तुति---
वीतराग परमात्मा को चरणसेवा (तर्ज विमल कुलकमलना हस तु जीवडा, राग, कारणा, गमगिरि) धार तरवारनी सोहली दोहली, चदमा जिनतगी चरणसेवा । धार पर नाचता देख बाजीगरा, सेवनाधार पर रहे न देवा पार॥१॥
अर्थ तलवार को धार पर चलना सरल (तु म) है, किन्तु चौदहवें जिन (वीतराग प्रभु) को चरणसेवा दुर्लभ (दुप्फर) है । तलवार को धार पर नाचते हुए कुशल वाजीगर दिखाई देते हैं । किन्तु वीतराग की चरणसेवा की धाग पर भवनपति आदि देव भी नहीं टिक सकते, मनुष्यो का तो कहना ही यया?
भाव्य
परमात्मा की चरणसेवा का रहस्य तेरहवे तीर्थकर परमात्मा की शुनि के अन्त में श्रीजानन्दघनजी ने प्रभु मे चरणव मल की सेवा की याचना की है, उनमे किली यो शया हो मयती है, कि आखिर उन्होंने ऐसा क्या मांग लिया? प्रभु की मेवा नो मांगे बिना ही मिन नकती है। इस शका के निवारण करने के लिए चौदहवें तीर्थकर की स्तुति के माध्यम मे इस स्तुति में बताया गया है कि वीनरागप्रभु की चरणमेवा आमान नहीं है । वह तलवार की धार पर चलने से भी बडकर दुष्कर है।
वीतराग-परमात्मा की चरणमेवा' का अर्थ वास्तव में व्यवहारदृष्टि से मामायिक आदि चारियपालन की आना का परिपालन है। माँग में कहे तो भगवान् की आज्ञा की आराधना ही उनकी मेवा है । स्वय तीर्थकर महावीर
१. वीतराग स्तुति करते हुए आचार्य हेमचन्द्र ने कहा-'तब सपर्यास्तवाजा
परिपालनम्' (आपको आज्ञा का परिपालन हो आपकी सेवा है )