________________
१०: श्रीशीतलनाथ-जिन-स्तुति--
परस्परविरोधी गुणों से युक्त परमात्मा (तर्ज-गुणह विशाला मंगलिक माला, राग धन्याधी गोडी) शीतल जिनपति ललित त्रिभंगी, विविध भंगो मन मोहे रे । करुणा, कोमलता, तीक्षणता, उदासीनता सोहे रे ॥
शीतल० ॥१॥
दसवें तीर्थकर श्रोशीतलनाय जिनेन्द्र परमात्मा की विविध सुन्दरमगियो पर चितन करने पर वे मन को मुग्ध कर देती हैं। वीतराग-परमात्मा में एक ओर अहिंसकमाव होने के कारण फरणा और कोमलता [नम्रता है, तो दूसरी ओर इनसे विरोधी तीक्ष्णता [भरता] और उदासीनता [उपेक्षाभाव] से वे सुशोभित हैं।
भाष्य
परमात्मा के जीवन के विविध पहलू पूर्वन्तुति में परमात्मपूजा के सम्बन्ध में विस्तृतरूप गे कहा गया , लेकिन सवाल यह होता है कि परमात्मा का वास्तविक बला क्या है ? उनमें कई बार परम्परविरोधी गुणो का निवान भी होता है, जिन्हे देख कर पूजक (भक्त), चाकर में पड़ जाता है कि किग गुण बाते प्रभु गो आदर्ग व पूज्य माना जाय ?
जैनधर्म परमात्मा के बाह्य रूप की अपेक्षा आन्तरिक म्प को ही पूज्यता या उसकी पूजा का आधार मानता है । अन्य सम्प्रदायो में जहां आत्मिया गुणो के वैभव की ओर ध्यान न दे कर शारीरिक वाह्यवभव, आभूपण एव पोशाक आदि वाह्य रूपो से ही, स्यूलप्रभुता से ही अपने माने हुए तथाकथित प्रभुओ या भगवानो को पूज्य मान कर उनकी पूजा-भक्ति पर जोर दिया जाता है, वहाँ जैनधर्म वाह्यरूपो, वैभव, पौगावा, आभूपणादि ठाठ-बाठ व बाह्य चमत्कारो पर से ही किमी की पूज्यता का मापदड नहीं मानता, न उसे पूज्य