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अध्यात्म-दर्शन
तिलाजलि दे कर उनसे बिलनुल उदागीन, जनागम या निगा रहा है। जो वास्तविक मुनि या श्रमण है, वे अपने गुणाअगादि दाविध प्रमणमा अथवा नानादि आत्मगुणो-मे रगण करने है। वे गाधुगणो में मस्त रह कर उनको अनुहा ही रावको उपदेश देते है। यद्यपि गुनि भी अगी तागाधा है, वे मिट्ट या मुक्त नहीं हुए, नव ना गराारी है, नयापि चे अपने साम्य पान, निन्तन, शक्ति, वाणी आदि का उपयोग मागिक गुणो-शान, दर्णन, नारित
और वीर्य-गे करते है, रागार में रहते हुए भी आत्मिकगुणों (अथवा यनिधर्म) मे रगण गारते हैं। उनमें और गामाग गगारी जीव मे यह अन्तर है।
इसके बावजूद भी मुनियो (अथवा साधु-गन्यागियों के वेष) गे भी बहन-गे पुद्गन्नानन्दी, इन्द्रियासक्त होते हैं, उन्हें आत्मरागी मानना यथार्य नहीं है। जिनके मन-वचन-काया के योग इन्द्रियों के अन्दादिविपयो गे निरपेा, अनाक व नि गृह रह कर ग्चरवरून जपया जानादि गुणगय आत्मा गे की गण गरते है, उन्हे ही मुच्यनया आत्गरागी गमाना नागि। पत्र जगली गाया में श्रीआनन्दधनजी परमात्मा मे जो गच्ने जETrr का गुण पूणनया विगिता है, उग अध्यात्म की कगोटी बनाते हैं
निजस्वरूप जे किरिया साधे, ते अध्यातम लहीये रे। जे किरिया करी चउगति साधे, ते न अध्यातम कहीये रे ।।
श्रीश्रेयांस० ॥३॥
अर्थ जिस क्रिया से सच्चे अर्थ मे निजस्वरूप को प्राप्त करने या स्वरूप मे स्थिर होने की साधना की जाती है, वह अध्यात्म-क्रिया है। परन्तु जिस क्रिया के करने से नरकादि चारो गतियो मे से कोई एक गति मिलती हो, उसे अध्यात्म मत समझो।
'अध्यात्म' की कसौटी वहुत-से लोग 'अध्यात्म' के नाम से अनेक प्रकार की कठोर क्रियाएँ करते हैं, उनकी उन क्रियामओ को देख कर साधारण लोग, यहाँ तक कि