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परमात्म-पथ का दर्शन
करनी आवश्यक है। इसी दृष्टि से योगी श्रीआनन्दघनजी अन्तर से पुकार उठने हैं
"वीतरागप्रभो । समय परिपक्व होते ही आत्मशक्ति (काललब्धि) प्राप्त होने पर मैं अवश्य आपके पथ का दर्शन करूँगा, इसी आशा---प्रतीक्षा का अवलम्बन ले कर मैं जी रहा हूँ। वास्तव मे, मेरी आत्मा तो उसी दिन को देखने के लिए उत्सुक है, जिस दिन मुझे परमात्मपथ के दर्शन होंगे, उसी दिन -मेरी यह आत्मसाधना सफल होगी।
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काललब्धि का अवलम्बन क्या और कैसे ? जैनदर्शन में प्रत्येक कार्य के लिए काल, स्वभाव, नियति, कर्म और पुरुषार्थ, पाँच कारणसमवाय को अनिवार्य बता कर उपयुक्त स्थान दिया गया है, यही वात आत्मविकास के लिए है । इस दृष्टि से आत्मविकास के लिए दूसरे चार कारणो की तरह काल का परिपाक भी होना चाहिए । समय पकने, पर ही अमुक कार्य होता है। आम अमुक समय आने पर ही पकता है । गर्भ नौ महीने का होने पर ही दालक का प्रसव होता है, फसल अमुक समय पर ही पकती है। इसी तरह दिव्यज्ञान के लिए अमुक काल का लाभ या प्राप्ति काललब्धि कहलाती है। स्वभावरमण में पुरुषार्थ करते-करते जिस समय आत्मशक्ति इंतनी वट जायगी कि दिव्यज्ञान-आत्मप्रत्यक्षज्ञान होते देर नहीं लगेगी, उसी समय को काललब्धि१(समय का परिपाक) कहना चाहिये। __शास्त्र मे ५ प्रकार की लब्धियां बताई गई हैं—(१) काललब्धि, (२) 'भावलब्धि, (६) करणलब्धि, (४) उपशमलब्धि और (५) क्षायिकलब्धि । काललब्धि भी आत्मशक्ति-विशेप मे ही प्राप्त होने वाला एक नामर्थ्य है, एक प्रकार की योग्यता है, जिसके प्राप्त होने पर परमात्मपथ का स्पष्ट दर्शन हो जाता है। इमलिए श्रीआनन्दघनजी ने काललब्धि को ही परमात्मपथ-दर्शन की याशा का अन्तिम आधार मान कर उसी के महार जीने व तव तक प्रतीक्षारत रहने की बात-अभिव्यक्ति की है।
१-'पाडयमह महण्णवो' मे लब्धि के क्षयोपशम, सामर्थ्य विशेष, अहिना, लाभ, प्राप्ति और योग्यता आदि अर्थ किये गये हैं। -