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वीतराग परमात्मा के धर्म की पहिचान
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हो जाता है, क्योकि इसमे कुछ भी हाथ नहीं आता ; जवकि शुद्ध (निश्चय) नय की स्थापना (अभेदस्थापना) के नेवन करने से (आत्मसाक्षात्कार हो जाता है), किती प्रकार की दुविधा मशय) (कर्ममलरहित) आत्मा के साथ नहीं रहती।
भाष्य
व्यवहारनय और निश्चयनय से लाभालाभ पूर्वगाथा में व्यवहारनय और निश्चयनय दोनो के पात्र कौन-कौन हैं तथा वे इनका उपयोग किस-किस तरह से करते हैं ? दोनो की अपने-अपने स्थान मे गोण-मुख्यरूप मे क्या उपयोगिता है ? यह घोतित किया गया है, लेकिन दोनो नयो से क्या-क्या लाभ-अलाम हैं ? इस जिज्ञासा का समाधान नही हुआ, वह इस गाथा द्वारा किया गया है ।
वस्तुत गम्भीरता से सोचा जाय तो व्यवहारनय का अवलम्बन लेने पर साधक नाना पर्यायो और विकल्पो मे इतना भटक और वहक जाता है कि मूल लक्ष्य छूट जाता है, साधक आत्मा के विविध पर्यायो के भवरजाल में फंस कर आत्मा के अभेद-एकत्व को पाना ही भूल जाता है। न ही वह आत्मा को व्यवहारनय के द्वारा पूर्णरूप से साध पाता है। उसके पल्ले केवल ऊपर के छिलके ही हाथ आते हैं, आत्मारूपी फल का जो असली तत्व या सारभून पदार्थ है, वह हाथ नहीं आता। इसीलिए श्रीआनन्दघनजी जैसे अध्यात्मयांगी को कहना पडा-"व्यवहारे लख दोहिलो" अर्थात् व्यवहारनय का आधार लेने पर लक्ष्य मिलना दुर्लभ हो जाता है। व्यवहारनय से शुद्ध आत्मस्वरूप का साक्षात्कार व कर्मपरमाणु से रहित आत्मा की सिद्धि नहीं होती । व्यवहार से चाहे जितनी क्रियाएं की जाय, चाहे जैसा वेश पहना जाय, चाहे जितन कर्मकाण्ड किये जाय, उसमे आत्मल य सिद्ध नहीं होता। कारण यह है कि व्यवहारदृष्टि में मन, वचन, काया के योगो की चपलता रहती है, और योग कर्मबन्ध का कारण है , इसलिए व्यवहारनय का आश्रय लेने वाले आखिरकार अपने आप को केवल शारीरिक कष्ट में ही डालते हैं, क्योंकि उससे कर्मवन्ध सर्वथा समाप्त न होने से भले ही देवलोक आदि सुगति में मनुष्य गया, उनमे उसे अनेक सुखसुविधाएँ मिली, खूब ऐश-आराम मिला, लेकिन उससे जन्म