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________________ अध्यात्म का आदर्श आत्मरामी परमात्मा २३३, भाव आने के बाद से नैगमनय से अध्यात्म माना जा सकता है। अप्रमत्त भाव से ले कर १४वें अयोगीकेवली गुणस्थान तक तो परमनिश्चयनय का भाव-अध्यात्म कहा जा सकता है । उसी के उतार-चढाव के ये अनेक भेद है । अब अगली गाथा मे शब्द और अर्थ की दृष्टि से अध्यात्म का विश्लेपण करते है शब्द-अध्यातम अर्थ सुणी ने, निर्विकल्प आदरजो रे । शब्द-अध्यातमभर्जना जारणी, हान-ग्रहण-मति धरजो रे ॥ श्रीध यांस० ॥०॥ अर्थ जय अध्यात्मशब्दमात्र जान कर उसका यथार्थ अर्थ सुनो और फिर समस्त . विकल्प छोड कर भावार्थ का स्वीकार करो। शन्दमात्र-अध्यात्म मे यथार्थता (सत्यता) हो भी सकती है, नही भी हो सकती है। यो समझ कर जिसमे आत्मसिद्धि होने मे शका हो, किसी प्रकार का कल्याण न होता हो, वैसे नामादि अध्यात्म का त्याग करो और जिस भाव-अध्यात्म से अपने निजात्म गुणो मे रमणता होने से स्वरूपसिद्धि होती हो, वहां उसे ग्रहण करो। भाष्य निर्विकल्प शब्द-अध्यात्म ही उपादेय है इस गाथा मे पुन निर्विकल्प भाव-अध्यात्म को अच्छी तरह ठोक-वजा कर अपनाने की बात कही है कि अध्यात्मशब्द को मुनते ही एकदम चौक मत पडो । सभव है, तुम्हे लम्बे-चौडे अध्यात्मशास्त्र के पोथो की अपेक्षा एक छोटे-से वाक्य मे अध्यात्म का सार मिल जाय । परन्तु सुनने के बाद उस पर विचार करो, उसे जाँचो-परखो और उसमे मे शुद्ध आत्मा के अतिरिक्त विकल्पमात्र को दूर करके उसे निर्विकल्पक रूप में अपनाओ। यह जरूर देखो कि उस अध्यात्म के साथ कही आगे-पीछे कोई परपदार्थ का (म्बार्थ, अभिमान दम्भ, द्रोह, मोह कामना आदि का) विकल्प तो नहीं लगा है ? जब तुम वास्तविक अध्यात्म का अर्थ समझ कर उसे अपनाओगे तो तुम्हे सच्चा आनन्द भाएगा, जिगकी तुलना में दुनिया की कोई भी वस्तु नहीं है। परन्तु आयात्म
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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