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अध्याग-दर्शन
की सिद्धि हो, उगे साधा जा गो, उमेदारी उगे अपना कर उगमें तत्काल जुट पहो। अपनी आत्मा को उगाने जोरदो!
____ चूंकि पूर्वोक्त नामादि तीन प्रकार मायाम का अपना ई आत्मिक लाभ नही हो, नाला, गसार फे. जन्मगरण : गपूरकर निरजन-निराकार निति उनमें प्राण नहीं तो गनी। गागलय गोवागमन या परमात्मपद-प्राप्ति है, जो भान अध्यात्म अपनाने में जीनामा है। भाव-अध्यात्म माव्याय, ध्यान, नप, मपम तथा जानोगता है, जो मोक्षमार्ग के कारणगून । जनीलिा धीआनानी नाग, स्थापना और द्रव्य-अध्याना को बाहर निर्फ भाव-अध्यानाम वाली नगाने पर जोर दे रहे है, बारतव गे भाव-अध्यात्म ही अन्दर-बाहर गी कि सरीखी रह कर अपने अमिरगुणो में प्रवृनि कग कर ले मागगुणों का प्रगट कराता है। उन्ही गे रगण नाराता है। गीता भाग-नागी उपाय है. उसी मे जीवन की सपाता।।
परन्तु यहां एक बात की चेतावनी परिचित होती है कि जो बाहर में भाव-अध्यात्म प्रतीत होता हो, लेकिन जो निजगुण नहीं साध मन, उन्न भाव-अध्यात्म मत रामझो और उग अध्यात्मागास के पीछे मत पड़े।
भाव-अध्यात्म की गी, ऊंची-नीची कई धेणियां होती है। उन्न-उस श्रेणी पर गहुँचने के बाद नीचे-नीचे की श्रेणियाँ छोडनी जावश्या जहाँ तक उच्च श्रेणी पर नहीं पहुँचे, वहाँ ना जिग श्रेणी (भूमिका) पर भात्मा स्थित हो, उन श्रेणी की गाधना दृढतापूर्वक पारनी चाहिए, जिससे उगायेगी प्राप्त हो जाय।
भाव-अध्यात्म की यथार्थ शुरूआत तो सम्यग्दर्शन की प्राप्नि में ही हो जाती है, परन्तु आरमविकास का उद्देश्य सिद्ध करने के लिए 'पचाऽऽचारचरिया' यानी पाँच आचारो के आचरण मे इसकी शुरूआत मानी जाती है, जिमे एवं भतनय से अध्यात्म माना जा सकता है। मैत्री आदि भावनाओ ने जब मन वासित होने लगे, तव नसूनय से 'अध्यात्म' समझना चाहिए । अन्तिम प्रगलगरावर्तन गे प्रविष्ट आदि धार्मिक जीव गे असुनबंधक या राकृतवन्धक