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परमात्मपथ का दर्शन
बोजा जिनतपो रे
नाथ भगवान् वा मार्ग नीहार रहा हूँ । देखना नही है, अपितु जगत् में प्रचलित
'मैं दूसरे तीर्थकर वीतराग परमात्मरूप श्रीअजितनीहारने का अर्थ सामान्यरूप से ही अनेकविध परमात्मपथो का विश्लेषण करते हुए अन्तर मे डुबकी लगा कर यथार्थ परमात्मपथ को देख जान-विचारसमझ कर हटता से निर्णय करके उनमें तन्मय हो जाना है । इसमें निरीक्षण करने के साथ-साथ उस पथ को अन्तर में उतारने और तदनुनार गति - प्रगति करने का माग हृदय में निर्धारित करने की बात भी गतार्थ है ।
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परमात्मप्राप्ति का मार्ग हे गुट आत्मभाव-प्राप्ति का मार्ग कह या मोक्ष कहे, बात एक ही है। इसलिए केवल जान देना (ज्ञान) ही परमात्मप्राप्ति का मार्ग नही है, दर्शन (हृदय से श्रद्धापूर्वक धारण करना) और चारित्र ( तदनुसार आचरण करना) भी मार्ग है । निष्कर्ष यह है कि भौतिकता की चकाचौध में साधक की दृष्टि आध्यात्मिकता के मार्ग से हट जाती है, वह अपनी नजर भौतिकता में गडा लेता है, इसीलिए अध्यात्मयोगी साधक आध्यात्मिकता की मजिल, अध्यात्म के चरमशिखररूप परमात्मा के समीप जाने के लिए आध्यात्मिकता के मार्ग में अपनी दृष्टि स्थिर करना चाहता है ।
राग, द्वेष आदि अनेक चोर,
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शत्रु विजेता परमात्मा के मार्ग मे शत्रुओ मे विजित साधक के अन्तर की पुकार जब परमात्ममाग का पथिक साधक अन्तर मे डुबकी लगा कर परमात्मा के मार्ग का अवलोकन करता है तो उसके अन्तर से पुकार उठती है - 'हे - अजितनाथ ( रागद्वेषादि शत्रुओ से अविजित ) परमात्मन् | आपके पास पहुचने के मार्ग मे तो काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, , डाकू, लुटेरे, शत्रु के रूप मे आत्मधन का हरण करने के लिए खडे हैं, आपने तो उन सबको जीत लिया है, इसलिए आपका 'अजित' नाम तो सार्थक है, परन्तु वे कामादि शत्रु,, जिन्हें आपने जीत लिया था, वे अब मुझे जीत रहे हैं, या पराजित कर देते है, में जब आपके द्वारा प्ररूपित या अभ्यस्त मार्ग को देख कर चलने के लिए तत्पर होता हूँ तो अनेक शत्रु आ कर उस रास्ते मे खडे हो जाते है । मैं उन सबने हार कर घबरा जाता है । अपनी पुरुषार्थहीनता पर मुझे तरन आती हैं, मैं मोचने लगता हूँ, जब आप पुरुष हो कर वीतरागता