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अध्यात्म-दर्शन
नेतना (गक्ति) प्रभु का मुखचन्द्र देखने में पावट डाल रही थी कि उने गम्बोधन करके कहना पडा-सपी, मने देखण दे। __इसके उत्तर गे यही गाहा जा गलना है कि आत्मा अब तक अनेक गतिमा
और योनियो में जननबार गरिनमण पर आई, पर नहीं तो जात्मा को शुद्ध (मान) चेतना पर नना गाट आवरण आ गया था कि प्रमुरे, मुखनन मा दान ना दूर नहा, उसकी कामना भी नहीं हो साती थी, कही वरपना तो हो सकती थी. पर उग पर भी आवरण या। वहीं सोडा आवरण था, तो भी मिध्यान्वये गाद तिमिर ने सारण आत्मा रगंन नही कर गकी। पही कारण है कि जब नका आत्मा नी नेतना ही भमुम के दर्शन करने में बाधक बनी रही । अब गनुष्यजन्म में सम्यग्दर्शन प्राप्त हान पर बहन-सगो मे वर अनुकूल बनी है, नीलिए श्रीआनन्दधनजी आत्मा की हिनैपिणी गद्ध (गाग) चेतनास्पी राखी द्वारा जाब-नेतनासती से करलान --गाय तो मुझो चन्द्र-पभु (परमात्मा) ने गुरुवन्दना दान न न द । अब नो दशन म अन्तराग गा टालावत जन्मोनका तुने गरी आमा को जघर मे रखा, उसके ज्ञान नेनो पर पर्दा डाल दिया, जिनगे वह परगात्मा के उज्ज्वलमुखचन्द्र को देख न गयी। अव वीतराग परमात्मा के मुराचन्द्र को दवन की मेरी इच्छा तीन वनी है, और प्रभु ने वातविक गुपचन्द्र पा भलीभांति दर्शन करने मे तू ही बाधक हो रही है। मेरी बाधाला कारण इन वाह्यनेत्रो में मैं अब तक प्रभमुख देगने का प्रयत्न करती रही, परन्तु परमात्मा के असली मुखचन्द्र के दर्शन नहीं कर गयी। अगर मैं इन मनुष्यजन्म मे और इतने उत्तमधर्म, गम्यग्दर्शन एवं समस्त उत्तम निमित्त-एवं अवसर को पा कर भी परमात्मा के यथार्थ मुखचन्द्र को नहीं देख सकी, तो मेरा जन्म वृथा हो जायगा । पता नहीं, फिर ऐना शुभ अवसर मिलेगा या नहीं । अन तु मुझे परमात्मा के मुखचन्द्र के दर्शन इस जन्म मे तो अवश्य करने दे।"
यहाँ वार-बार 'देखण दे' गब्द का प्रयोग करना पुनरनिदोप न हो कर कविता का गुण है, यहां बार-बार 'देखण दे' शब्द का प्रयोग परमात्मा के मुन- . चन्द्र के दर्गन की आतुरता, या तीवेच्छा को सूचित करता है।
परमात्म-मुखदर्शन की आतुरता क्यो ? सवाल यह होता है कि जगत् मे मातापिता, भाई, परिवार में अपने से