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________________ परमात्मभक्त का अभिन्नप्रीतिरूप धर्म ३०५ गुरु, शाम् एव गुरुगम ही है। गुरुप्रेरणा मे परतन्त्रता की कल्पना बिलकुल न करो। गुरुदेव तुम्हे युक्तियुक्त महाव, परामर्श, मार्गदर्शन , कई उलझनो के हल द्वारा तुम्हारी गुत्यियो को सुलझाने की कोशिश करेगे । इसके कारण प्रभुप्रोनिल धर्ग की प्रतीति तुम्हारे लिए अत्यन्त जासान और निकट हो जायगी । इमीतिए कहा-"प्रेमनीन विचारो टू कडो, गुरुगम लेजो जोड ।२ निष्कर्ष यह है कि मुमुक्ष उक्त साधन को छोड कर अपने मन कल्पित साधनो में दीड न लगाए, तया ययार्थ उपासना और यथार्थ ज्ञान से स्वरूपानुसधान करें। परन्तु परमात्मप्रीतिरूप धर्मपालन के लिए श्रीआनन्दघनजी साधक को एकपक्षी प्रीति छोड कर उभयपक्षी प्रीति-सम्पादन के लिए अगली गाथा मे प्रेरणा करते हैंएफपखी किम प्रीति परवड़े, उभय मिल्या हाय सधि, जिनेश्वर ! हुँ रागी, हु मोहे फदीयो, तुनीरागी निरबन्ध, जिनेश्वर ॥ धर्म० ॥५॥ अर्थ जिनेश्वर प्रभो | अब मैं समझा कि एकतरफी प्रीति कैसे पोसा सकती है, सही जा सकती है ? क्योकि मेल (सन्धि-जोड) दो के मिलने पर ही होता है, क्योकि मैं रागी (कषायवान) हूँ, मोह के फदे मे फंसा हुआ हूँ और आप वीतराग (पादिदोपरहित) एव कर्मवन्धरहित हैं । १ जैसा कि आचारागसूत्र में कहा है-'सहसमियाए पयवागरणेण अन्नेसि वा अंतिए सोच्चा। दोडियो का अर्थ दोडना करने पर मतलव निकलता है कि जगन्नाथ परमात्मा को अन्तश्चक्षु मे देखते ही तुरन्त गुरुगम साथ मे ले कर तुम्हारी आत्मा मे जितना विकास हुआ हो, उसके वलानुसार जितने जोर से दौडा जा सके, उतने जोर से परमात्मा तक पहुँचने के लिए दोडते ही रहना, अर्थात् आत्मविकास मे आगे बढ़ते ही रहना। ऐसा करने पर तुम्हारी ओर से परमात्मा मे हुई प्रीति की प्रतीति तुम्हे अविलम्ब ही समझ में आ जायगी। अगर साथ मे गुरुगम नही रखोगे तो आगे चल कर भूल होते ही उनशमयणी के पथ पर चढ जाओगे, जहाँ से वापिस लौटना होगा। अत एक वार अप्रमत्तभाव पाते ही भावमन-आत्मा की जितनी शक्ति और तीव्रता हो, तदनुसार दौड लगाओगे तो याये बढ कर परमात्मपद-प्रीति कर सकोगे, अन्यथा प्रमत्तभाव मे आना पड़ेगा।
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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