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________________ २६० अध्यात्म-दर्शन देव-गुरु-धर्मनी शुद्धि कहो रहे केस रहे शुद्धश्रद्वान आणा, शुद्ध श्रद्धानविण सर्वकिरिया फरी, छार पर लीपण तेह जागो।, धार०॥५॥ अर्थ ऐसे निरपेक्षवचनवादी लोगो से देव, गुर और धर्म को शुद्धि (पवित्रता) या शुद्धिभक्ति कैसे सुरक्षित रह सकती है ? और इस तत्त्वत्रयो को शुद्धि या शुद्धभक्ति के बिना शुद्ध श्रद्धान फैसे लाया जा सकता है ? तथा शुद्ध श्रद्धा के विना यह समझ लो कि समस्त क्रियाएँ राख (धूल) के ढेर पर लोपने के समान है। भाष्य देव-गुरु-धर्म पर शुद्ध श्रद्धा से रहित किया का फल बहुत से मत-पथवादी या नास्तिक विचारधारा वाले लोग अपने-अपने पथो, गच्छो, सम्प्रदायो या मतो की विचारधारा का आग्रह रख कर अपनी परम्परा (फिर चाहे वह समार वढाने वाली क्रिया या प्ररूपणा से सम्बन्धित हो) से एक इंच भी इधर-उधर नही हटना चाहते । अपनी लौकिका या भौतिक फलाकाक्षा के वशीभूत हो कर वे अपने माने हुए देवी-देवो या अवतारो को भी उसी रग मे रग लेते है , देवीदेवो या अवतारों को भगवान्-भगवती या विश्वमाता का रूप दे कर उन्ही के नाम से सभी तत्फलावलम्बी क्रियाएँ करते रहते हैं, वैसी ही लौकिक ससारवृद्धि करने वाली प्ररूपणा करते हैं या श्रद्धा रखते हैं, तव जो वीतराग वीतदोप देव है, कचनकामिनी के त्यागी महा व्रती सच्चे गुरु (साधु) हैं, अथवा मोक्षमार्गदर्शक अथवा कर्म मुक्तिदर्शक शुद्धात्मरमणरूप धर्म है, उन पर शुद्ध श्रद्वा कैसे रह सकती है ? या उनकी विचारधारा, श्रद्धा, प्ररूपणा या क्रिया मे जो दोप है, उसकी शुद्धि कैसे होगी? वहुत-से लोग अपने अशुद्ध विचारो का निरूपण करते हुए सच्चे देव, सद्गुरु और सद्धर्म पर आस्या उखाडने की कोशिश करते है। वे सामान्य लोगो को भी इन सबसे ऊपर उठ कर सोचने की, इनको हृदय से निकालने की जोरशोर से प्रेरणा करते है । इसका नतीजा यह होता है कि वे वेचारे या तो चमत्कारो या उक्त विचारको के मायाजाल मे फस जाते है, या लौकिक -
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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