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________________ वीतराग परमात्मा के चरण-उपासक ४६१ त्मिक शास्त्र की रचना करने की इच्छा हो सकती है, इत्यादि गुणो से आकपित हो कर सम्पग्यदृष्टि तो [निश्चय से] नहीं, परन्तु सम्यग्दृष्टि के पूर्वाभास के रूप मे मार्गानुसारी तो मान ही लिये हैं। परन्तु इतना निश्चित है कि दोनो दर्शन आत्मा के अस्तित्व (Existance) का स्वीकार करते हैं, जो बुनियादी बात है। इसीलिए श्रीआनन्दघनजी ने कहा -"आतम-सत्ता-विवरण करतां, लहो दुग अग अखेदे रे " 'अखेदे' को अग के साथ भी जोड कर भी कई लोग अर्थ करते हैं-इन दोनो दर्शनो का खेदरहित अग-पैर को मानो । जो पैर थकान एव खेद से रहित होते हैं, वे ही मजबूती से खडे व जमे रह सकते हैं। 'लहो' के साथ 'अखेद' को जोडने से अर्थ निकलता है-विना किसी खेद [चिन्ता] या सकोच के इन दोनो को अंग [चरणयुगल] मान लो। यह अर्थ विशेष उचित लगता है । सत्ता का अर्थ अस्तित्व भी होता है, शक्ति भो । आत्मा की शक्तियो का विवरण दोनो दर्शन प्रस्तुत करते हैं, यह कहना भी यथार्थ है। किन्तु ये दोनो दर्शन व्यवहार से भी आत्मा को अकर्ता मानते हैं, वहां जैन दर्शन के साथ इनका विरोध आता है। फिर जनदर्शन मे हठयोग का स्थान विल्कुल नगण्य है, जबकि योगदर्शन इसे अधिक महत्व देता है, तथापि राजयोग को दोनो स्वीकार करते हैं। ___इस प्रकार परमतसहिष्ण जैनदर्शन के अनुसार जिनकल्पवृक्ष के एक देशीय तत्व (अमुक दृष्टि से सत्य) को ग्रहण करने वाले आत्मवादी साख्ययोग दर्शनो को जिन भगवान के या वीतराग तत्वज्ञानरूप कल्पवृक्ष के पैर (मूल] के स्थान पर स्थापित किया है । ___ अगली गाथा मे आत्मा के अन्य रूपो के उपासक दो दर्शनो का समन्वय जनतत्वज्ञान के साथ करते हुए कहते हैं भेद-अभेद-सुगत-मीमांसक, जिनवर दोय कर भारी रे। . लोकालोक आलम्बन भजिये, गुरूमुखथी अवधारी रे॥ षड्० ॥३॥ अर्थ सुगत=बौद्धदर्शन आत्मा की भेदरूप-(पृथक पृथक्] मानता है, और
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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