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________________ परमात्मा की सेवा ५६ ठिठक जाता है , वह इस आनन्दानुभूति या उपलब्धि को प्राप्त नहीं कर सकता। इस सम्बन्ध में तीन चीटियो का उदाहरण दिया जाता है-कुछ चीटियाँ ऐसी होती है, जो चलते-चलते कील, चट्टान या दीवार जैसी कोई रुकावट आ जाय तो घबरा कर वही से वापस लौट जाती है। कुछ ऐमी होती हैं, जो माहस करके रुकावट डालने वाली कील, चट्टान या दीवार पर चढ तो जाती हैं, किन्तु वही ठिठक जाती है, आगे नहीं बढ़ पाती। किन्तु तीसरे प्रकार की कुछ चीटियाँ ऐसी भी होती हैं, जो कील आदि को छोड कर आगे बढ जाती हैं। इसी प्रकार जो व्यक्ति दर्शनमोहनीयकर्म के भारी-भरकम पुंज को देखते ही घबरा कर वापस लौट जाते हैं, वे यथाप्रवृत्तिकरणी की कोटि मे आते हैं।' जो उम दर्शनमोहनीयकर्मपुंज से साहम करके भिड जाते है, उसमे निहित रागद्वेष की ठोम और कठोर गाठ को तोड डालते हैं, वे अपूर्वकरणी की कोटि मे आते हैं, परन्तु रागद्वेप की निविडग्रथी का भेदन करके वहाँ से जो आगे बढते है, वे अनिवृत्तिकरण के अधिकारी बनते है । अर्धपुद्गलपरावर्तकाल तक ससार मे स्थिति वाकी रहती है, तब जीव अपूर्वकरण करता है। जवकि चरमकरण में चरमपुद्गलपरावर्त काल तक का ससार-भ्रमण रहता है । इसमे मोक्षयात्रा की ओर जीव की दीड गुरू हो जाती है। तीसरी उपलब्धि : भवपरिणतिपरिपाक साधक को परमात्ममेवा की प्रथमभूमिका प्राप्त होने के बाद जब चरमपुद्गलपरावर्त और चरमकरण की उपलब्धि हो जाती है तो यह स्वाभाविक है कि उसकी परिणति यानी रुचि या आदत परभावो मे रमण के कारण ससार मे-जन्ममरणरूप परिभ्रमण मे, या परभावो-पौदगलिक पदार्थों को अपने मान कर उनमे आसक्त होने, व आनन्द मानने आदि भव यानी सासारिक वाती की ओर से हट कर मोक्ष की ओर हो जाय। क्योकि आत्मा का मूल स्वभाव तो अनन्तज्ञान-दर्शन-चारित्रमय है । रागद्वेप की परिणति (भवपरिणति) के कारण उमका मूल स्वभाव, दव गया है या वह अपने असली स्वभाव मे भटक गया है । परभावरमणता या परपरिणति में दिलचस्पी जीव की समार, यात्रा का दिग्दर्शन है , मगर जव उमे परमात्ममेवा की प्रथम भूमिका प्राप्त
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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