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अध्यात्म-मशन गच्छना भेद बहु नयण निहालना तत्त्वनी वात करतां न लाजे । उदरभरणादि निजकाज करतां थका, मोहनडिया कलिकाल राजे॥
धार० ॥३॥ अर्थ गच्छो (उपसम्प्रदायो) के बहुत-से भेद प्रत्यक्ष देखते दर भी अफमोम है, इन लोगो को तत्त्व की बातें बघारते हुए जरा भी गर्म नहीं आती। ऐसा मालूम होता है, उदरभरण, वगैरह (वड़िया खाने-पीने, पहनने का सामान
और रहने के लिए आलीशान भवन, एवं सम्मान आदि अपने मनमाने (स्वाय) कार्य करते हुए ये यदाग्रही लोग कलियुग मे मोह मे घिरे हुए सुशोभित हो हो रहे हैं।
भाष्य
तत्त्वज्ञान बघारने वालों को परमात्ममेवा पूर्वगाथा मे ज्ञानहीन क्रियावादी लोगो के द्वारा परमात्मनेवा का निराकरण किया था, इसमे ज्ञानवादी लोगो द्वारा परमात्मनेवा के ढोग की कलई श्रीआनन्दघनजी ने खोल दी है। परमात्मनेवा कितनी दुर्लभ है ? यह गच्छो, पथो और सम्प्रदायो के पृथक्-पृथक भेदो को देखते हुए स्पष्ट मालूम हो जाता है। जिनमे परमात्मसेवा की मच्ची लगन है, उनमे गन्छ, मत, पय और सम्प्रदाय के विभिन्न भेद पैदा करने, भोली जनता के सामने अपने गच्छ, मत, पथ या सम्प्रदाय की बडाई और मच्चाई की डीग हारने और दूसरो के इन गच्छादि की निन्दा और उन्हें मिथ्या कहने और लोगो को अपने गच्छादि मे खीचने का झूठा आग्रह हो ही नहीं सकता। जहाँ इस प्रकार की खीचानान है, मताग्रह है, मेरा ही मत, पय या गच्छ सच्चा हे, हमारे मत, गच्छ, या पथ के माधक भगवान् की आज्ञा के अनुसार चलते है, हमारा पथ या गच्छ ही प्रभु का पय या गच्छ है, इस प्रकार जाने गच्छ या पयादि की महत्ता जमाने के लिए आकाश-पाताल एक किया जाता है, ऐसे गाधको के मुंह म तत्त्वज्ञान की बातें शोभा नहीं देती। उन्हें शर्म नहीं आती है कि हम एक ओर तो अनेकान्त की बातें बघार कर सब धर्मो, पथो, मतों एव दर्शनो में परम्पर समन्वय, मापेक्षता और सहिष्णुता पैदा करके विरोध मिंटाने और