________________
१६०
अध्यात्म-वान
अघहर एर जबमोचन है । आप अपने अनन्त आत्मगुणो के धनी है, अथवा जगत् के धणी खामी हैं, मानिक है। तीर्थकगे को सभी लोग स्वामी मानते है । आप मुत्तिरप परमपद मायाह है। सनार के समस्त ताप का शमन करने वाला, एकान्तगुग का धाम मोक्ष है, जहां जनम-जरा-गरण नही, आधि-व्यावि-उपाधि नहीं है, उस परमसुखरूप मोक्ष को प्राप्त करने में आपसार्थवाह की तरह साथ देने वाले-सहायगा है । इस प्रकार पूर्वोन्नत गाथाओ मे वीतराग परमात्मा के 'शिव' गे लेकर 'गुक्तिपरमपदसाय' तक कुल ४५ मुख्य-मुख्य मार्थक नाम वताए हैं, और भी अनेका नाम उनके हो सकते हैं। ' इसलिए श्रीजानन्दघनजी अन्तिम गाथा मे कहते हैं-'एम अनेक अभिधा घरे' यानी हम परमात्मा के नाम यहाँ तक गिनाएँ ? उनके अनेको नाम हो मरते हैं । जो साधक जिम गुण का अपनी आत्मा मे अनुभव करना चाहता है, वह उस गुण से युक्त नाम को ले कर प्रभु का स्मरण करता है-उस, गुण पर विचार करता है तो उसके लिए वह नाम अनुभवगम्य हो जाता है । अथवा परमात्मा का रूप विचारपूर्वक अनुभव से ही जाना जा सकता है। जिस गुग का अनुभव जिसे हो गया है, वह यदि उसे अपना ध्येय बना कर विचारपूर्वक ध्यान करता है तो वह ध्याता आनन्दघनरूप हो जाता है, वह अपने जीवन का अवतरण आनन्दमय बना लेता है, अथवा अपनी आत्मा को आनन्दघनरूप - मांचे में ढाल लेता है। मतलब यह है कि उपयुक्त गुणो से परिपूर्ण प्रभु का जो भलीभांति जानता है, उनका ध्यान करता है, वह तद्रप हो जाता है, सच्चिदानन्दमय बन जाता है।
सारांश इस प्रकार इस स्तुति में वन्दनीय परमात्मा के गुणनिप्पन्न नाम बताने के साथ-साथ अन्त मे परमात्म-वन्दना का फन भी बतला दिया है, जिसे भलीभांति जान कर प्रभु की वन्दना-नमन-स्तुति-भक्ति-सेवा करके अपना जीवन सफल करना चाहिए।