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________________ परमात्मा का मुखदर्शन १६६ प्रभुमुखदर्शन नहीं किये। मैं इन सब जगहो मे मारा-मारा भटकता फिरा, लेकिन प्रभु-मुख दर्शन से विहीन ही रहा। । कोई कह सकता है कि श्रीआनन्दघनजी अवधिज्ञानी या केवलज्ञानी, अथवा जातिस्मरणज्ञानी तो थे नही, उन्हे यह सब कैमे मालूम हुआ कि “मै अमुक-अमुक जगह एकेन्द्रिय से ले कर पवेन्द्रिय तक मे गया, लेकिन कही भी प्रभु-मुख-दर्शन नहीं कर सका ?" इसी शका का समाधान करने हेतु श्री आनन्दघनजी नम्रतापूर्वक कहते है-'आगमथी मत जाणीए""" यह बात मैं अपने किसी प्रत्यक्षज्ञान या जातिस्मरणज्ञान के बल पर या कपोलकल्पित व मनगढत नही कह रहा हूँ, अपितु आगम (आप्त वीतरागपुरुषो के वचन) के आधार पर कह रहा हूँ। कोई भी सुविहित सुदृष्टि पुरुप जिनप्ररूपित आगमो से इस (उक्त) मान्यता का मिलान कर सकता है , क्योकि साधु के लिए२ आगम ही नेत्र है। परमात्ममुखदर्शन की तीव्रता श्रीआनन्दघनजी अपनी अन्तर्व्यथा के साथ परमात्ममुखदर्शन की तीव्रता व्यक्त करते हुए कहते है - "इस प्रकार मै अनन्तकाल तक विविध गतियो और योनियो मे यात्रा करता रहा, लेकिन प्रभुमुखदर्शन नहीं कर सका। मुझे पुन मनुष्यशरीर, उत्तम कुल, आर्यक्षेत्र-जाति-कुल-कर्मादि मिले हैं, शुभकर्मों के फलस्वरूप अच्छा वातावरण और उत्तम सत्सग भी मिला, और सम्यग्दर्शनरूपी रत्न भी मिला है, अत अब इसे व्यर्थ ही नहीं खोना चाहिए । अगर इस जन्म मे प्रभुमुखदर्शन का अवसर चूक गया और शुद्धात्मा के दर्शन नहीं कर सका तो पहले की तरह फिर विभिन्न गतियो और योनियो मे भटकने के सिवाय कोई चारा नही है। इतना सारा काता पीजा पुन कपास हो जायगा । इसीलिए शुद्धचेतनाल्पी आत्मा अपनी अशुद्धचेतनरूपी सखी से पुन -पुन कहती है-"देखण दे, सखी | मुने देखण दे।" अत परमात्मा के मुखचन्द्र का दर्शन करके अपना मनुष्य-जन्म सार्थक कर लेना चाहिए। पर परमात्म-मुखदर्शन कैसे किया जाय ? इसकी विधि २. 'आगमचक्खू साहू'-प्रवचन सार
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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