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________________ १७० अध्यात्म-दर्शन क्या है ? इसके लिए श्रीमानन्दघनजी यहते है--जिन नापिन आगमो में प्रभु का सच्चा म्बरप ममल कर शुद्ध निर्गल (निस्वार्थ, निकाम, निबंध) चित्त से परमात्मा की सेवा कगे, उनमें ओतप्रात हो जानो, यानी तुम्हारी आत्मा को निर्मल बना कर परमात्मा मलीन करो अपवा परमात्मभाव में रमण करो, जिगसे परमात्मा के यथाय गुवचन्द्र दांग हो जाएगा। जो लोग परमात्मदेव का गच्चा ग्वरूप नहीं गगन र गगार में प्रचलिन विविध नामो वाले रागी, द्वेपी, कामी, कोत्री या विमारी पिसी देवी, देव को या भौतिक शक्तिसम्पन व्यक्ति को भगवान् प्रभु या परमात्मा मान कर उसके मुखदर्शन को ही यथा मुखदर्शन मानते है, उनके उक्त मन का खण्डन भी प्रकारान्तर से इसके द्वारा हो गया । इसी दृष्टि से श्रीमानन्दघनजी परमात्मा के मुखचन्द्र के दर्शन यानी परमात्मा = शुद्धात्मा के गत्म्वरूप के गाक्षात्कार का उपाय अगली गाया में बताते हैं निर्मल साधुभगति लही, स०; योग-अवंचक होय। ससी० ! क्रिया-अवचक तिम सही, स०; फल-अवंचक जोय ।। स० ॥६॥ अर्थ आत्मा निर्मल साधु-साध्वियो की भक्ति प्राप्त करके जय योग-अवंचक बनती है, उसके बाद वह क्रिया-अवचक हो जाती है और अन्त में फलअवंचक वनती है, यानी जय योग, क्रिया और फल तीनो मे आत्मा अवंचक हो जाती है, तब परमात्मा के मुखचन्द्र का दर्शन वह बेखटके कर सकती है। भाष्य परमात्म मुखदर्शन का यथार्थ उपाय यथार्थ परमात्ममुखदर्शन के हेतु इस गाथा में साधक के लिए तीन वाते बताई गई हैं-योगाऽवचकता, क्रियाऽवचकता, और फलाऽवचकता । इन तीनो के होने पर ही साधक परमात्मा का सच्चे माने में दर्शन कर सकता है । बस्नुत आत्मग्मगावरूप मोम-(परमालग-पद) के साथ अनुव न्य होना योग पाहलाता है।
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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