Book Title: Lonkashah Charitam
Author(s): Ghasilalji Maharaj
Publisher: Jain Shastroddhar Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिलाया। विदिवार तासाली घातीठाळजी महाराज MALARIAN हिन्दी-गाया दलालम् // श्रीलंकाचाहरितग।। सस्कृत--प्रहाता-बायनिक विधवा यानि मांडत मुनि श्रीमायालाल जी महारा श्री 16:11 ले कथा का जीवनयाई सेक्षा पहनाव: नीत भसीन Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार्थ-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालजी-महाराज विरचितम् हिन्दी-गुर्जर-भाषाऽनुवादसहितम् // श्रीलोकाशाहचरितम् // नियोजकः संस्कृत-प्राकृतज्ञ-जैनागमनिष्णात-प्रियव्याख्यानि - पाण्डतमुनि-श्रीकन्हैयालालजी-महाराजः प्रकाशकः * 'श्री अ. भा० श्वे० स्था० जैनशास्त्रोद्धारसमितिप्रमुखःश्रेष्ठिश्रीवलदेवभाई डोसाभाई पटेल-महोदयः ___ मु० अहमदाबाद-१. प्रथम-आवृत्तिः प्रत 1000 वीर-संवत् विक्रम संवत् ईसवीसन् 2509 2040 1983 मा.श्री. कैलाससागर मृरि ज्ञान मूल्यम्-रू. ३०-०श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र सा क. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published by: Shri Akhil Bharat S. S. Jain Shastroddhara Sami, Sthanakasi Jain Upasraa, Outside Nikoli gate, Sarashpur, AHMEDABAD-18. भूख्य 3. 30-00 मुद्रक : जयंतिलाल मणिलाल शाह पूजा प्रिन्टर्स भेन्ड ट्रेडर्स महेंदीकुवा चार रस्ता, शाहपुर, मदमदाबाद Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वीतरागाय नमः भूमिका श्री जैनधर्मदिवाकर, शास्त्रोद्धारक, पंडितरत्न न्यायालंकार प. पू. आचार्यदेव श्री घासीलालजी म. रचित लोकाशाहचरित नामक महाकाव्य जो अ. भा. श्वे. स्था. जैन शास्त्रोद्धार समिति ने प्रसिद्धि के उद्देश्य से छपवाया है उसकी भूमिका लिखने के लिए समिति के कार्यकर्ताओं ने मुझे विनंती करने से जब भूमिका लिखने की आवश्यकता उपस्थित हुई तो मन एकदम संकोच से भर गया मैं सोचने लगा कि सामान्य ज्ञानवान ऐसा मैं इतना महान् कार्य किस प्रकार कर सकूँगा ? परंच क्षणांतर में ही देवगुरु कृपाका सहारा याद आया / फिर यह भी विचार किया कि प्रस्तुत ग्रन्थ के अध्ययनकर मनन करने के साथ साथ गुरु गुणसंकीर्तन का मौका मिलेगा। इस प्रकार सोच समझकर ग्रन्थ को पढ़ा तो ऐसा रसप्रद लगा कि मानो मन काव्यमें डूबा जा रहा है। यह स्थिति निश्चित ही आत्महित साधक है। क्योंकि कवि विहारी ने कहा है या अनुरागी चित्सकी, गति समुझे नहीं कोय / ज्यों ज्यों बूड्तु शाम रंग, त्यों त्यों उज्जलु होय // ___ अर्थात इस अनुरागी चित्त की गति कोई समझ नहीं सकता, यह जैसे जैसे शाम रंग में डूबता जायेगा / वैसे वैसे उज्वल होता जायगा / डूबना शाम रंग में और होना शुभ्रातिशुभ्र / यहाँ कविने शाम-उज्वल ये दो विरोधी शब्द लेकर अलंकारिक चमत्कृति निर्माण की है। लेकिन शाम कृष्ण को भी कहते हैं। आशय यह है कि हमारा मन श्री कृष्णभक्ति के रंग में अर्थात् भगवत् भक्ति के रंगमें जितना अधिक लीन होगा, वैसे आत्मा अधिकाधिक उज्वल बनती जायगी। लेकिन यह आत्मा के उज्वलताकी साधना, उसके शुद्ध स्वरूपको उपलब्ध करना, उसे उसके स्वभाव में स्थिर करना इतना सरल नहीं है। इसके लिए सम्यग ज्ञान-दर्शन-चारित्र इन तीन महान् रत्नों को प्राप्त करना होगा और इसके लिए संयम और त्याग के मार्गपर चलकर तपःसाधना तक पहुँचना होगा। संयम का अर्थ है-स्वयंका स्वयंपर अंकुश लगाना / पाँचों इंद्रियों पर काबू पाना / तृष्णाको बाँधना / क्रोध,मान, माया, लोभ इन कषायों को लगाम लगाना / अहो ! संयम का महत्त्व कितना है ? भ०महावीर स्वामीने कहा है-"जो अपने मनको संयम की दिशा देता है, Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह इस लोक में और परलोक में भी सुखी हो सकता है।" इस प्रकार के संयमद्वारा संतोष धन पाकर तिजोरी के धन को त्यागना है। हिंसा छोड़ अहिंसा को अपनाना है / झूठ, फरेब आदि दुर्व्यवहारों को छोड़ना है। दुर्गुणों का कचरा फेंककर सद्गुणों को जीवन में उतार ता है मतलब कुछ लेना तो कुछ छोड़नाभी है / अगर कुछ ग्रहण करना है तो कुछ त्यागना पड़ेगाही / संत कबीरने कहा है चींटी चावल ले चली, बिचमें मिल गयी दाल / कहे कबीर दोऊ ना मिले, इक ले दूजी डार।। / हुआ यह कि एक चींटी चावल का कण लेकर चली थी / रास्ते में उसे दालका कण पड़ा दिखाई दिया / उसे वह कण लेने की इच्छा हुई। कबीर बोले-'अरी पगली ! तुझे दोनों नहीं मिल सकते / दाल लेना हो तो चावलको छोड़ना होगा / उसी प्रकार कषायों का कचरा फेंके बगैर हृदय में भगवान् को स्थान कैसे दिया जा सकेगा ? " एक भिखारी सम्राट के दरवाजे पर आया है / महादानी सम्राट अंजलीभर मोहरें देने को तैयार खड़ा है। भिखारी की झोली अगर पत्थरों से भरी हो, तो क्या वह मोहरें ले / सकेगा ? पहले झोली रिक्त करनी होगी, तबही मोहरें लेना संभव होगा। इसी तरह भगवान को हृदय में बसाना है तो साफ सफाई आवश्यक है। विषय कषायों से संपूर्ण रिक्त होना आवश्यक है। एक बार राधाने श्री कृष्णसे पूछा-'प्रिय, तुम्हें बाँसुरी मुझसे भी अधिक प्रिय क्यों है ? उसे तुम सदा पासमें रखते हो ? होंठों पर या कमर-बंधौ / ' श्री कृष्णने उत्तर दिया -'बाँसुरी पोली है, पूरीतरह रिक्त है / उसके पास अपना कोई सुर नहीं है / पूर्णत:मेरा मुर भर लेती है / इसलिए मुझे वह प्रिय है। सत्य है संयम और त्याग के आधार से आत्मा के विभावों को दूर करने सेही-बाँसुरी-वत् संपूर्ण रिक्त होने से ही-आत्मा स्वभाव में स्थिर हो सकेगी / परमात्मा बन सकेगी। लेकिन देवदुर्लभ मानव-जीवन पाकर भी भीतर बसेहुए को भूलकर मानव भटक गया है / काँटोंभरे भयानक जंगल में खो गया है। अब गुरुबिन कौन बतावे बाट ? फिर भी जरा भी चिंता करने की जरूरत नहीं है। हम जैनों के लिए गुरु दुर्लभ नहीं है। यह विश्वविख्यात है कि जैन साधुसंस्था की बराबरी करनेवाली तथा आचार, विचार और प्रचार इन तीनोंमें श्रेष्ठ संन्यस्त संघीयता विश्वमें दूसरी कोई नहीं है। केवल अपनी आत्माके कल्याणकी नहीं, परकल्याणकी-हमारे कल्याणकी भी इन्हें चिंता होती Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। येही हमारे महान गुरु है और हम जैनोंके सद्भाग्यसे ये हमें सहज प्राप्य है। हम इनके कहे अनुसार चलें तो जीवनका सोना हुए बगैर नहीं रहेगा। ___ हमारी आत्माका परमात्मास्वरूप प्रगट करवानेमें सतत प्रयत्नशील ये गुरु कोरा उपदेश नहीं करते / प्रत्येक सिद्धान्तको पहले अपने जीवनमें उतारते हैं और बादमें हमें कहते हैं / दूर क्यों जाएँ ? इसी ग्रंथमें कहा है रत्नत्रयं पंचमहाव्रतानि गुप्तित्रयं वा समितीस्त्रिकालम् / से पालयन्त्यादरतो मुनिस्तानाश्रित्य भव्या भवपारगास्ते॥ __ (सर्ग 13 गाथा 22) अर्थात् जो रत्नत्रयको, पाँच महाव्रतोंको, तीन गुप्तियोंको और पाँच समितियोंको निकाल-सदा-आदरपूर्वक धारण करते हैं, ऐसे मुनिजनोंका आश्रय पाकर वे भव्यजन भवसे पार हो जाते हैं। ऐसे ये मुनिवर्य-हमारे गुरु हमारे लिए महान मार्गदर्शक होते हैं। श्रेष्ठ आदर्श होते हैं। गुणरत्नोंका भंडार होते हैं / कबीरने ठीक ही कहा हे सात समुंदरकी मसि करूँ, लेखनि करूँ बनराय / सब धरती कागद करूँ, गुरु गुन लिखा न जाय॥ - इस प्रकार हमारे गुरुदेव, जोकि गुणोंके सागर हैं हमें भव सागर पार कराने में सक्षम होते हैं। हमें आत्मा और परमात्माके मानों सही रूपमें साक्षात्कार कराते हैं / इसलिए तो कबीर भगवानसे भी पहले गुरुको नमस्कार करना चाहते हैं / कहते हैं गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काकै लागू पाय ? बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय॥ हमारा महान् सद्भाग्य है कि इस चरित महाकाव्य द्वारा हमें श्वेताम्बर स्थानकवासी समाजके लुप्तप्राय मागेको पुन: प्रगट करने में पथ प्रदर्शक श्रेष्ठतम गुरुदेव श्री लोंकासाहके जीवन और कार्य का परिचय मिलेगा। संस्कृत काव्य मंदाकिनी द्वारा इस चरित्र का मधुर निर्मल जल प्रवाहित करनेवाले प. पू. आचार्य घासीलालजी महाराज हैं / आपकी योग्यता भी बहुत ऊँची थी। __आप का जन्म मेवाड़ प्रान्त के वैश्नव समाज का प्रसिद्ध तीर्थस्थल कांकरोली के समीप एवं राजसमुद्र के उत्तर में आठ मील की दूरी पर छोटासा 'बनोल' नामक गांव में वि. सं. 1941 में रामानंद संप्रदाय मानने वाले एक सामान्य ब्राह्मण प्रभुदत्त और विमलाबाई के कोख से हुआ था। बारह बरसके होते होते आप माता पिता विहीन अनाथ हो गये, तो एक सेठके यहाँ मामुली नोकरी करने लगे। इन्ही Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिनों परम श्रद्धेय आचार्यश्री जवाहरलालजी महाराज के व्याख्यान सुने। इससे अहिंसा प्रेम और वैराग्यभाव ऐसा जगा कि बालक घासीलाल आचार्यश्री के साथ ही रहने लगा और संवत 1958 में मुनि-दीक्षा धारण कर ली। ऐसे भीतर से उपजे स्वाभाविक वैराग्य के धनी आगे चलकर इतने प्रख्यात हो गये कि दसों दिशाएँ आपकी कीर्तिगाथा से भर गयीं। प्रारंभमें तो चार दो श्लोक कंठस्थ करनेमें दस पाँच दिनों का समय लग जाता, किन्तु सतत अध्ययन, मनन और चिंतन तथा साथ ही उपवासादि तपस्या आदि से ज्ञानावरणीय कर्मबंध ऐसे हटे कि कोई श्लोक कंठस्थ होने के लिए एकबार पढ़ना काफी होने लगा और आगे चलकर आप एक महान पंडित हो गये / यह कोई चमत्कार नहीं है। जैन सिद्धान्तके अनुसार ज्ञान कहींसे ऊपरसे नहीं आता, वह भीतर ही है। ज्ञान जीवका मूल स्वभाव है / जैसे कर्मबंधों का क्षय होता जाता है, वैसे ज्ञानशक्ति प्रगट होती जाती है। ___ इस के बाद आपश्रीने समग्र जैन आगमों का एवं दूसरे मौलिक दार्शनिक ग्रंथों का ऐसा गहरा अध्ययन किया कि मानो सरस्वति आप की जिहवापर नाचने लगी। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, गुजराती, उर्दू आदि सोलह भाषाएँ आपको आती थी, और इसी कारण ज्ञानका खजाना इनमें से किसी भाषा में हो, वह आप की पहुँचके भीतर आ गया। . बहत्तर वर्षों के दीक्षा पर्यायमें आप अंतिम सोलह वर्ष अमदाबादमें स्थिर वासमें रहे। शेष 56 वर्षों में आपश्रीने कभी चैन की साँस नहीं ली। समाज प्रबोधन का ऐसा तगड़ा और तूफानी कार्य चलाया कि जिनका वर्णन शब्दातीत है। हिन्दी, मराठी, गुजराती, राजस्थानी आदि किसी भी भाषामें आपश्री का वक्तव्य अत्यंत प्रभावी एवं मुग्धकारी होता था। लोग बड़ी संख्यामें आते थे। अजैन भी आकर्षित होते थे। आपश्रीने अमदाबाद जैसे बड़े शहरों के साथ हिवड़ा, चिंचवड़ जैसे छोटे गाँवोंमें भी चातुर्मास किये। राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश एवं महाराष्ट्रमें दूर दूर तक विहार किया। आपकी दृष्टि * परम उदार थी। जातिवाद और उच्च नीचता का आपने सदा कट्टर विरोध किया। इसलिए तो करांची जैसे मुसलमान बहुल संभागमें भी आप का चातुर्मास अत्यंत प्रभावी, उपकारक एवं प्रशंसनीय रहा और उदयपुर के राणा साहब, कोल्हापुर नरेश, अनेक सरदार, ' ठाकुर एवं अधिकारी ऐसे अनेक अजैन भी प्रभावित हुए हैं तथा आचार्यश्री के कथना"नुसार अनेकबार अमारि हुक्म प्रसारित किये गये। आपश्री के उपदेश से अनेक स्थानोंके देवी देवताओं के सामने होनेवाली पशु-बलि-प्रथा बंद हुई। हिवड़ा (महाराष्ट्र ) क्षेत्रमें भयंकर अकाल की स्थितिमें हजारों भूखोंको आपश्रीने अन्नदान करवाया है। घोड़नदी Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (महाराष्ट्र) क्षेत्रमें प्लेग जैसे भयंकर छूत के रोग के फैलनेपर सैंकडो बीमारों की सेवा की और करवायी है। मानवता के किसी कार्य के लिए प्रेरणा निर्माण करने का आपश्रीमें प्रचंड बल था-मानो कोई जादू था। आपश्री का जीवन स्वच्छ, तपःपूत, कठोर संयमी और सत्यनिष्ठ था। आपश्रीने जीवनभर ज्ञान साधना की और शुद्धात्मवाद को समझाते हुए सबको खुलकर ज्ञान दिया। वि. सं. 1990 के सेमल (राजस्थान) चातुर्मास के बाद आपको अखिल भारतीय कीर्ति प्राप्त हो गयी और आगे चलकर लोगोंने आपको आग्रहपूर्वक आचार्यपद प्रदान किया। महामहिम प. पू. आचार्य श्री घासीलालजी म. सा. के ऊँची विद्वत्ता, की जिसमें प्रकर्षतः अभिव्यक्त हुई है, ऐसे विशिष्ट सर्वोत्तम कार्य का उल्लेख तो अभी बाकी ही है। यह है आपश्री का आगमोद्धारका कार्य / __एक बार क्या हुआ कि आपके गुरुदेव प्रख्यात आचार्य प. पू. जवाहरलालजी म. सा. एक आगम ग्रंथ पढ़ रहे थे। पढ़ते पढ़ते इस विचार से आपकी आँखों में आँस खड़े हो गये कि देखो हमें अभीतक श्वेताम्बर मूर्तिपूजकों के ग्रंथों का आधार रखना पड़ता है / उसी क्षण आपश्री ने जैन दिवाकर प. पू. घासीलालजी म. सा. को बुलाकर आगमोदार का कार्य सौंपा / आपश्री ने प्रथम दशवकालिक सूत्र पर टीका की रचना का कार्य कर के गुरुदेव के सामने रखा / आचार्यश्री ने उसे बहुत पसंद किया और आगे बढ़ने की प्रेरणा दी। लेकिन कई कारणों से यह कार्य विशेष आगे न बढ़ सका / अंततः वि. सं. 2013. में अमदाबाद के सरसपुर उपाश्रय में स्थिर वास में रहने का निर्णय इसी कार्य के लिए. किया गया। सोलह वर्ष अथाक परिश्रम लेकर आपने श्वेताम्बर स्थानकवासी मान्यता के बत्तीस आगमों का संपादन किया। उनकी विस्तृत एवं विद्वत्तापूर्ण संस्कृत टीकाए लिखी तथा हिन्दी और गुजराती अनुवाद प्रस्तुत किया गया / आज ये सभी विशाल आगमग्रंथ छपे रूप में उपलब्ध हो गये हैं / यह कार्य केवल विशाल ही नहीं, श्रेष्ठतम भी है, ऊंची विद्वत्ता का निदर्शक है / अपने आप में विशिष्ट है और सुलझा हुआ विवरण तथा सरल भाषा शैली के कारण युगों युगों के लिये उपकारी है। - इस महत्त्वपूर्ण प्रशंसनीय विशाल कार्य के साथ आगमोद्धारक आचार्य श्री घासीलालजी म. सा. ने कुछ स्वतंत्र मौलिक ग्रंथों कीभी रचना की है। कुछ निम्नलिखित है 1. कल्पसूत्र ( आपश्री की स्वतंत्र रचना ) .. 2. तत्त्वार्थ सूत्र ( " " ") . . Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. प्राकृत कौमुदी (व्याकरण) 4. आईत व्याकरण (संस्कृत-लघु सिद्धान्त कौमुदीके समकक्ष ग्रंथ ) 5. आर्हत व्याकरण ( संस्कृत-सिद्धान्त कौमुदी के समकक्ष ग्रंथ ) 6. श्री लाल नाममाला कोष / 7. नानार्थोदय सागर कोष / 8. शिव कोष ( अमर कोश की तरह का ग्रंथ ) 9. गणधरवाद / 10- गृहि धर्म कल्पतरु। 11. जैनागम तचदीपिका। 12. तत्त्वप्रदीपिका। 13. मोक्षपद (धम्मपद की तरह का ग्रंथ / ) 14. लोकशाह महाकाव्य / (जो प्रसिद्ध हो रहा है) 55. शांति सिन्धु महाकाव्य / 16. श्री लक्ष्मीधर चरित्र / .: संस्कृत और प्राकृत के व्याकरण के आप बड़े अधिकारी विद्वान् थे। उपरोक्त व्याकरण ग्रंथों के अलावा आपश्री ने ऊँची धार्मिक परीक्षोपयोगी खास छात्रों के लिए भी कुछ व्याकरण ग्रंथों की रचना की है। ऊपर 13 से 25 क्रमांक पर उल्लिखित रचनाएँ आपश्री के काव्य ग्रंथ है। इन के अलावा आपश्री ने सैंकडों स्तुति-स्तोत्रस्तेवनादि की रचना की है, जो समय समय पर पुस्तिकाओं के रूप में प्रकाशित हुई है। ऐसी पुस्तिकाओं की संख्या 18 है। इतने विवेचन के बाद यह सूर्य प्रकाशसा स्पष्ट हो जाता है कि प्रस्तुत 'श्री लोकाशाह चरित महाकाव्य ' कितने बड़े अधिकारी विद्वान् एवं कवि श्रेष्ठद्वारा रचा गया हैं / इस की उत्तमता, श्रेष्ठता एवं सुंदरता असंदिग्ध है। - चौदह सर्गों में विभाजित 1600 श्लोक प्रमाण कलेवरवाले इस काव्य में श्वेताम्बर स्थानकवासी समाज के महान क्रांतिकारी पथप्रदर्शक प. पू. लोकाशाह का चरित्र वर्णित है। आपश्री 16 वीं शती विक्रमी में हुए / इस समय जैन समाज तथा जैन यति एवं मुनिवर्ग शिथिलाचारी हो गया था। शास्त्रोक्त मार्ग को छोड़कर मिथ्या मार्ग पर चलने लगा था। बाह्याडंबरों को अत्यंत महत्त्व आ गया था। सचित्त अचित्त का विवेक खूटी पर टांग दिया गया था / उत्सवबाजी इतनी बढ़ गयी थी कि ढोल के ढमाकों में महावीर Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाणी डूबसी गयी थी / योग साधना का दुरुपयोग होता था और चमत्कार, मंत्र, भेषमादि द्वारा राजा-महाराजा, सेठ-साहुकार, इत्यादि को लूटा जाता था / यति और मुखि उपाश्रय बनाकर रहने लगे अथवा चैत्यवासी हो गये / ये अपनी नवांगी पूजा तक करवाने लगे थे। आहार पानी लेने पालखी में बैठकर जाते, खूब घी चोपड़ और मेवे खाते तथा द्रव्य भी स्वीकारते / देखिए, इस संदर्भ में कितनी मार्मिक बात कही है ते निर्भयीभूय गजेन्द्र तुल्या इच्छानुकूलातविशिष्ट भक्ताः। वायुप्रकोपेन च पुष्टदेहा, इतस्ततो वा विचरन्त्यविज्ञाः // (सर्ग 13 गाथा 52) अर्थात् ये ( यति जन ) कि जिन्हें अपनी इच्छा के अनुकूल विशिष्ट आहार प्राप्त हो जाता था और बात के प्रकोप से जिनका शरीर स्थूल रहा करता था, निर्भय होकर गजराज की तरह विचरण करते थे। ___ इस तरह उस समय जैन मार्ग में आडंबर और शिथिलाचार की ऐसी अति हो गयी थी कि विवेकी मनुष्यों को घृणा होने लगे / और यह बात शत प्रतिशत सत्य है कि जब किसी बात की अति होती है, तो उस बात की स्वाभाविक प्रतिक्रिया उसके भीतर से ही निपजती है / क्रांतिकारी परिवर्तन की तीव्र संभावना निर्माण हो जाती है, और ऐसे समय साहस के कदम उठानेवाला कोई महा पुरुष जनमता है तो आमूलाग्र परिवर्तन आही जाता है। ___उस समय युग प्रवर्तक परमोद्धारक प. पू. श्री लोकाशाहने कार्य किया / रत्नों की परख-पहचान करनेवाले इस जौहरी ने बिगड़े समाज की नब्ज पहचान लो / ग्रंथों की नकल उतारते 2 आगम प्रणित सिद्धान्तों को गहराई से जान लिया / मुहम्मदशाह की मृत्यु के बाद उस घटना के कारण वैराग्यभाव जाग गया था और बादशाह का कोषाध्यक्षपद त्याग करके यति बन गये और अपने शास्त्रपूत विचार लोगों के सामने रखने लगे। ___ मंगलाचरण, तीर्थकर-गणधर-प्रणति, सज्जन दुर्जन प्रवृत्तियाँ आदि के बाद कविवर श्रद्धेय आचार्य श्री घासीलालजी म. सा. ने जैन भूगोल की दृष्टि से जम्बूद्वीप क्षेत्र और भरतक्षेत्र का जिक्र करते हुए राजस्थान गौरव का सुंदर एवं प्रभावी वर्णन चित्रात्मक ढंग से किया है। फिर कवि सिरोही संभाग और वहाँ के नगर वर्णन पर उतरते हैं और वहाँ के वैभव और धर्मानुराग से भरे प्रसन्न वातावरण का चित्र आकर्षक पद्धति से रखते हैं। इसके बाद कविश्रेष्ठ तर्तीय सर्ग के मध्य में युगान्तरकारी श्री लोकाशाड के माता-पिता गंगादेवी और सेठ हेमचंद्र का जीवन चित्रण करते हैं / इन दोनीमा रूप, परस्पर प्रेम, धर्मशील सदाचारी जीवन, गुरुदेव के प्रति अटूट श्रद्धा प्रवचन श्रवण, सामायिक और प्रति Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमण नियमित रूप से करना, उपवासादि तपों का अंगिकार आदि बातों द्वारा इनके आदर्श जीवन के चित्रण में कविवर ने बड़ा रस लिया है / जैन दर्शन के सिद्धान्तों के निरूपण में यहाँ संभाषण शैली को अपनाया गया है। यहाँ गुरुदेव-हेमचंद्र संवाद और हेमचंद्र गंगादेवी संवाद ऐसी योजना है / इस कारण यह विवरण बड़ा प्रवाही, जीवंत और नाटकीय बन पड़ा है / गंगावती की गर्भधारणा, शुभ स्वप्न देखना, अपने तबीयत की हिफाजत, अत्यंत उदार होकर दान देना, धर्माराधना में अधिकाधिक लगना आदि बातों का यथातथ्य वर्णन कविवर आचार्यश्री ने किया है / सेठ हेमचंद्र भी गंगावती की तबीयत का बहुत खयाल रखते हैं। फिर लोकचंद्र का जन्म और जन्मोत्सव का वर्णन मन को प्रसन्न करनेवाला है। यहाँ तक कविश्रेष्ठ नौवें सर्ग तक पहुँच गये हैं और दसवें सर्ग के प्रारंभ में लोकचंद्र का चन्द्रसमान बढ़ना और बालक्रीडा का ऐसा वर्णन है कि मानो संत सूरदास बालकृष्ण का लीलागान कर रहे हैं / अब लोकचंद्र बड़े हो जाते हैं / युवक बनकर माता-पिता की अच्छी सेवा करते हैं / वे होशियार और सुस्वरूप हैं। धर्मप्रेमी और आदर्श हैं / योग्य समय आने पर सुशील सुस्वरूप कन्या से विवाह हो जाता है / यहाँ ग्यारह सर्ग पूर्ण हो जाते हैं। बारहवें सर्ग में सरल कथात्मक शैली में लोकचंद्र का व्यवहार कुशल होना और व्यवहार व्यापार में अच्छा यश प्राप्त करना वर्णित है। उनका उज्ज्वल यश और कुशलता देखकर मातापिता पूरी जिम्मेवारी पुत्र पर सौंपकर वैराग्य धारण कर लेते हैं। कुछ अंतराल के बाद लोकचंद्र व्यवसाय के लिए अमदावाद आ जाते हैं / उनकी होशियारी देखकर उस समय के गुजरात के बादशाह मुहम्मदशाह उन्हें अपना कोषाध्यक्ष नियुक्त करते हैं / वे इस पद पर दस वर्षांतक अत्यंत कुशलता से कार्य करते हैं। और काफी लोकप्रिय हो जाते हैं तथा बादशाह का पूर्ण विश्वास अर्जित कर लेते हैं। लेकिन इसी सर्ग के आखिरी भाग में चरित नायक के जीवन धारा के महत्त्वपूर्ण मोड़ का विवरण (गाथा 87 से 103 तक) आया है। बादशाह के मृत्यु की विचित्र घटना के कारण उनके मन में क्षणभंगुरता के विचार तीव्र हो जाते हैं और वे निरागी बन जाते हैं। अपने पद का इस्तिफा देकर पाटण चले जाते हैं और मुनि सुमति विजयजी के पास जाकर यतिदीक्षा धारण कर लेते हैं। यहाँ तक के काव्य रचना का विचार करें तो दीखता है कि हेमचंद्र-गंगावती के जीवन वर्णन से प्रारंभ कर श्री लोकचंद्र के सांसारिक जीवन की समाप्ति तक के वर्णन-विवरण की व्याप्ति 12 वें सर्ग के अंत तक है। चरित्रचित्रण विस्तार से और सुंदर हुआ है। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसके आगे का धर्मप्राण प. पू. लोकाशाह का अध्ययनादि द्वारा गंभीर एवं विशाल ज्ञान प्राप्त करना और उसके बाद का 30-35 वर्षों की अवधि में किया गया युगातरकारी कार्य, इनका समग्र वर्णन केवल 13 वें सर्ग की सीमा में समाया हुआ है। इसमें वे कैसे मोह माया को त्यागकर त्यागी-तपस्वी बने, कैसे खडतर जीवन और परिवहों से न डरनेवाले हुए, कितना और कैसा अध्ययन किया, कैसे समस्त विद्याएँ और उपविद्याएँ ग्रहण की और श्रेष्ठ विद्वान और चिंतक बने इसका विवरण आया है / आपश्री जैन यतियों का शिथिलाचार देखकर दुःखी हुए और फिर यतियों को समझाना प्रारंभ किया। मुनिदीक्षा के बाद पुनः गंभीर अध्ययन किया / आपके विचार धारा की पाटण में प्रसिद्धि फैलने लगी। आनेवालों की संख्या बढ़ने लगी और वे सब आपकी देशना चित्त में धारण करने लगे। फिर यतिवर्य अमदावाद पधारें। वहाँ झवेरीवाड में चातुर्मास किया / वहाँ का समस्त जन समुदाय आप का अनुरागी हो गया और वहाँ के सभी यति मुनिदीक्षा लेकर उत्तम आचारवान् बन गये। एक दिन अणहिलपुर पट्टण के लखमसीभाई नामक एक विद्वान श्रावक आये / धर्मोपदेश सुनां / एकान्त में बैठकर चर्चा भी की / अत्यंत हर्षित होकर देशना जनता समक्ष रखने की प्रार्थना की / इसके बाद एकबार भिन्न भिन्न स्थानों के नागजीभाई, रामजीभाई, दलीचन्द्रभाई, मोतीचंद्रजी ऐसे चार समाजमान्य मुखिया आये / इनके साथ और अनेक थे। देशना सुनकर सब मंत्रमुग्ध हो गये / सब अनुयायी बन गये। क्योंकि इत्थं स्वचित्ते परिभाव्य सर्वैस्तदैव तैतिमयं तपस्वी / अजेयशक्ति जिनमार्गगामी न चान्यथा वाद्यथ धर्मवेदी // ___ (सर्ग 13 गाथा 100) अर्थात इस प्रकार अपने चित्तमें विचार करके उन सबने जान लिया कि यह तपस्वी अजेय शक्तिवाला है, जिनमार्गगामी है, धर्मवेत्ता है और जिनसूत्र के विपरीत प्ररूपणा नहीं करते। . इसलिए आपको बहुत बड़े गुरु (आचार्य समान) मान लिया गया और संघ में अब इनकी आज्ञा प्रमाणभूत मानी जावेगी ऐसी घोषणा कर दी। प्रस्तुत चरित-काव्य-ग्रंथ में चरित्र विषयक तथ्यों का विवरण प्रायः यहाँ पूर्ण हो जाता है / आगे चौदहवें सन में केवल कुछ धर्मतत्त्वों की चर्चा है। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तव में परमज्ञानी श्री लोकाशाहने संवत 1509 में यतिदीक्षा ली / 15-20 घरस खूब अध्ययन किया / जैनों के भयंकर आडंबर एवं यति वर्ग के शिथिलाचार का बहुत सूक्ष्म निरीक्षण और चिंतन किया। वि. सं. 1520 के बाद धीरे धीरे आपश्री के विचारों का प्रभाव पड़ने लगा होगा, क्योंकि संवत 1527 में इस गच्छ के लिए 'लोंकागच्छ' नामकरण हो गया था। आपश्री ने मुनि-दीक्षा 1536 में धारण की / इसके बाद या शायद संवत 1530-32 से ही आपश्री दूर दूर तक अपने मत का प्रचार करने लग गये होंगे / आपश्री को हजारों अनुयायी मिल गये / क्योंकि पं. रुपेन्द्रकुमारजी लिखित 'जैनाचार्य जैनधर्म दिवाकर पूज्यश्री घासीलालजी महाराज का जीवन-चरित्र' में पृ० 117 पर लिखा है-"आपके 400 शिष्य और लाखों अनुयायी बन गये / अमदावाद से दिल्ली तक आपने धर्म का जयघोष गुंजा दिया / " . .. ___ यह बिलकुल सत्य बात है कि गुजरात और राजस्थानमें आपश्री के विचारोंने तलहका मचा दिया था / समग्र जैन समाजमें विचार मंथन की लहर बड़ी वेगवती होकर फैली थी। विरोध भी बहुत हुआ। स्थान स्थानपर आपश्री की निंदा की जाने लगी। बदनामियाँ फैलायी गयी। तरह तरह के आरोप लगाये गये / झूठा, पाखंडी, बहकानेवाला आदि निषेध शब्दों का प्रयोग किया गया। विपरीत कहानियाँ और घटना प्रसंग गढ़े गये तथा प्रचारित किये गये। इस प्रकारका कार्य-विस्तार, प्रभाव और दूसरी ओर प्रचंड विरोध ये बातें तो प्रतिभावान् कवि के लिए भावविहूबल एवं रोमांचित करनेवाली है। लेकिन हमारे कविवर की लेखनी इसके लिए मौन है। यति-दीक्षा से लेकर स्वर्गवासतकका 35-36 वर्षों के जीवनचरित्र का विवरण बहुत ही अल्प और मामुली दिया गया है। इस विषयपर केवल एक ही तेरहवाँ सर्ग है। इसलिए हमारा तीव्र उत्सुकता भरा मन निराश हो जाता है। .. प्रस्तुत लेखक की राय से इसके दो कारण हो सकते है। एक तो यह कि ऐतिहासिक तथ्यकी अधिकांश बातें काल के प्रवाहमें खो चुकी है। प्रामाणिक इतिहास उपलब्ध नहीं है। जो उपलब्ध है या जबानी बोला जाता है, वह पूर्ण विश्वसनीय नहीं है। एक-दूसरे के विरोधमें आवेश से बहुतसा मनमाना गड़ा गया है। धर्मप्राण जैन दिवाकर प. पू. श्री घासीलालजी महाराज जैसा श्रेष्ठ विद्वान् संतश्रेष्ठ ये सब बातें सत्य कैसे मान सकता है ? सुनी-सुनाई बातों के लिए आपश्रीने ग्रंथके. प्रारंभमें पंष्टिकरण भी दे दिया है। यथा Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aus.. यथाप्रसिद्धं चरितं मर्यंतच्छ्रतं यथा वच्मि तथैव चाहम् / -श्रुतेऽनुभूते भवतीति भेदो ग्राह्या त्रुटि त्र भवेद्यदीह // . (सर्ग 1 गाथा 8) अर्थात्-जिस रूपसे यह चरित्र प्रसिद्ध है और जैसा इसे मैंने सुना है मैं उसीतहरसे इसे ग्रथित करूँगा। यदि कथनमें किसी तरहका अंतर प्रतीत हो तो इसमें मेरा कोई दोष नहीं मानना चाहिए, क्यों कि सुनी गई बातमें और देखी गई-अनुभव की गई-बातमें अंतर आही जाता है। . इससे भी महत्त्वपूर्ण कारण आपश्री का उच्च कोटि का समताभाव होना चाहिए / आपश्री बड़े सतके हैं कि कहीं निंदा झूठ आदि का दोष न लग जाय / दुष्ट शब्द जिहूवा पर न आवे, यहाँ तक कि ऐसे विचार दिमाग में तक न आया / मुहम्मदशाह की मृत्यु का दुष्टता भरा प्रसंग तथा उसी तरह का युग प्रवर्तक प. पू. लोकाशाह की / स्वर्गवास की घटना और उसके कारण इतिहास को ज्ञान होते हुए भी आपश्रीने इन प्रसंगों का उल्लेख तक नहीं किया। जो हुआ सो हुआ / कार्य महत्वपूर्ण है / उच्च शास्त्रोक्त मार्ग का अनुसरण महत्त्वपूर्ण है / शेष बातें भूलने की है / अभिमान का विषय है कि इस संदर्भ में ठीक भ० महावीर कीसी प्रवृत्ति प्रगट हुई है / भ० महावीर के समय 363 भिन्न भिन्न पंथ उपपंथ प्रचलित थे। यज्ञादि कर्मकाण्डों का प्रभाव तो जन जीवन पर बहुत था / धर्म के नाम पर निघण हिंसा हो रही थी। किन्तु भगवान महावीर ने कभी किसी की निंदा नहीं की / वे केवल अपनी बात कहते थे। कविश्रेष्ठ आचार्यप्रवर श्री घासीलालजी महाराज ने इस काव्य में जैन दर्शन के अनेक मूलतत्त्वों का निरूपण किया है। इसमें जीव अजीव आदि नौ तत्त्व, अजीव के भेद, जीव का स्वरूप और उसके भेद, प्रकृत्यादि बंध के चार प्रकार, प्रमाद योग, अविरति आदि बंधके पाँच कारण, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय आदि आठ प्रकृतिबंध एवं इनके भेद प्रभेद आदि अनेक तत्त्वों का सुस्पष्ट विवेचन प्रथित है / कर्मबंधों का बँधना और आराधना तप व्रतादि से उनका विरल होना बतलाते हुए आश्रय संवर, निर्जरा की प्रक्रिया का विवरण भिन्न भिन्न पहलुओं को लेकर अनेक बार आया है। हिंसा, झूठ, चोरी आदि पाँच पापों से और क्रोध, मान, मायादि चार कषायों से बचने के लिए वारंवार आवाहन किया गया है तथा कषायों को मंद करनेवाली तपस्या के लिए प्रोत्साहित किया गया है। तीन गुप्तियाँ, पाँच समितियाँ, उत्तम क्षमा आदि धर्मों से और एकत्व लोक बोधिदुर्लभ भावना आदि बारह भावनाओं से किस तरह आत्मशुद्धि Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होती है उसका स्थान स्थानपर विस्तार से वर्णन आया है, तथा इन सब गुणों और लक्षणों से युक्त साधु-जीवन के श्रेष्ठता की प्रशंसा की गयी है। जीव और देहका स्वरूप तथा उनके परस्पर संबंध का विवेचन करते हुए चार्वाकमत, बौद्धमत, नैयायिक और सांख्यमत इत्यादि का खंडन करके जैन सिद्धान्त का तर्कशुद्ध मंडन किया है / इससे कविश्रेष्ठ का अन्य मतों के शास्त्रों का अध्ययन कितना गहरा था इसकी प्रतीति होती है। . हम जानते हैं कि जैन धर्म में सम्यग् ज्ञान-दर्शन-चारित्र का कितना और कैसा सर्वोपरी महत्त्व है / इन तीन रत्नों को अपनाते हुए प्रत्येक जैन का जीवन उच्च बने इस भावना से इन का बारवार वर्णन करते हुए कविराज आचार्य श्री की लेखनी नहीं अघाती / बारबार कहा गया है कि महावीर-वाणी पर श्रद्धा हो तो ये त्रिरत्न प्राप्त हो सकेंगे, लेकिन साथ ही कहा है कि श्रद्धा अंध न हो / श्रद्धा ज्ञान सहित हो और धर्माचार को भी जागृत करें, क्योंकि क्रिया बिना ज्ञान भी अर्थहीन है। विद्वान् वही है, जो क्रियावान् है। ____ यह सारा अनेक उदाहरण, घटना, प्रसंग, उपमा, रूपक आदि द्वारा सरल और मुस्पष्ट किया है। रोचक शैली द्वारा कुतुहल को बढ़ाते हुए संतोष और प्रसन्नता बढशी गयी है। - अहिंसा और दया का महत्त्व भी प्रभावी रूप से रखा गया है / इस के निरूपण के क्रम में आठवें सर्ग में गुणपाल कन्या विषा की कथा दी गयी है, तथा आगे प्यासा वृद्ध और पनिहारिन का प्रसंग दिया गया है। यह प्रसंग तो बहुत ही मार्मिक है। इस प्रसंग द्वारा दया भावना के साथ यह भी सुझाया गया है कि छुआछूत को महत्त्व देकर उच्च नीच का भेद मानना एकदम गलत है। . जिनेन्द्र उपासना के महत्त्व की प्रशंसा स्थान स्थानपर की है और धर्ममार्ग की प्रशंसा करते हुए धार्मिक जीवन के स्वरूप का बहुत ही सुंदर और विस्तृत विवेचन बारहवें सर्ग के प्रारंभ में आया है। यह विवेचन पढ़ते पढ़ते मन आनंदित हो जाता है / कितना सुंदर ! कितना सुस्पष्ट ! धर्माचार के अनेक गुणधर्म, अनेक लक्षण और प्रत्यक्ष आचार सेठ हेमचंद्र, गंगादेवी और लोकचंद्र के जीवन में मौजूद थे ही / श्रद्धेय कविवर आचार्यश्री ने इनका चित्रण करते हुए ध्यान रखा है कि इन तीनों का आदर्श जीवन सब के लिए अनुसरण योग्य महसूस हो। इस तरह प्रस्तुत काव्य ग्रंथ में जैनधर्म-दर्शन-आचार का विवरण गाथा गाथा में भरा पड़ा है / इन में जल्प नहीं, कल्प है; मनोरंजन की कथा नहीं, क्षणभंगुरता की व्यथा है। संसार सुख और चैन नहीं, कर्मबंध की बेचैनी है; सुवर्ण सिंहासन नहीं, अलोकाकाश Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिला है / भूमिका के इस लेख में कहाँतक बतावें ? बताना संभव भी नहीं और योग्य भी नहीं। मूल ग्रंथ-यह काव्य-पढ़ने को सामने है ही / मैं संक्षेप में संकेत देकर इतना ही कहना चाहता हूँ कि महामहिम आचार्यवर का मुख्य उद्देश्य जैन धर्म और दर्शन का विवरण प्रस्तुत करते हुए और उसकी श्रेष्ठता प्रतिपादित करते हुए धर्ममय आचार का उपदेश देना है / इसलिए आवश्यक सारी बातें अत्यंत स्पष्ट हुई है। सुंदर शैली में अभिव्यक्त हुई है। पाठक के मन पर इनका अच्छा प्रभाव पड़ता है / अपने उद्देश्यपूर्ति में आपश्री को पूर्ण सफलता प्राप्त हुई है / इसलिए तो मैंने कहा है कि यह चरित्र निर्माण का काव्य है / लेकिन चरित्र निर्माण के गीत गाते गाते आपश्रीने काव्य को दुर्बोधि और भारी नहीं होने दिया। विवेचन पद्धति अत्यंत सुबोध, सरल और सुस्पष्ट है / दर्शन के तत्व बहुत सरल करके कहे गये हैं। स्पष्टता के लिए अनेक प्रसंग, अनेक उदाहरण और कुछ कथाएँ और अनेक उपमा रूपकों की योजना की गयी है। इन सबके कारण सरलता बढ़ी है और रोचकता भी। अलंकारों का तो इस काव्य में खजाना भरा पड़ा है / उपमा और केवल रूपक नहीं, साङ्ग रूपक भी, उत्प्रेक्षा, अपह्नुति, व्यतिरेक, उदाहरण, दृष्टान्त, अर्थान्तर न्यास, विभावना आदि अलंकारों के बीसों उदाहरण मिलेंगे। इन से काव्य अत्यंत श्रेष्ठ और प्रभावी बन गया है। उसकी शोभा भी बढ़ गयी है। अलंकारों के बिना काव्य की शोभा कैसी ? कवि केशवदासने कहा है ___ यद्यपि जाति सुलच्छनी, सुबरन सरस सुवृत्त / भूपण बिना न सोहइ, कविता वनिता मिल // अर्थात् कविता वनिता और मित्र भले ही उच्च जाति के हो, उत्तम लक्षणों से मंडित हो, अच्छे वर्णवाले हो, श्रेष्ठ हो और कीर्ति प्राप्त हो किन्तु अलंकारों के बिना वे शोभा नहीं देते। फिर भी अलंकार काव्य का सर्वस्व नहीं है। मुख्य है रस / इस काव्य में रसाभिव्यक्ति उत्कृष्ट रीति से हुई है। कविश्रेष्ठ संन्यस्त होने पर भी शृंगार रस को अभिव्यक्ति हेमचंद्र, गंगादेवी और लोकचंद्र के गृहस्थ जीवन के संदर्भ में यथास्थान हुई है। सुंदर है। लेकिन इस काव्य का मुख्य रस शान्त है। शान्त रस का स्थायी भाव निर्वेद है। निर्वेद के लिए इस काव्य में पूरी पार्श्वभूमि उपलब्ध है, क्यों कि इसकी प्रत्येक गाथा का मुख मानो मोक्ष मार्ग की ओर ही है। नायक लोकचंद्र मुनि हो जाते हैं और शुद्ध साधुत्व के लिए क्रांतिकारी कार्य करते हैं। साधु-शिथिलाचार को हटाकर वैराग्य की उच्च Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका बनाते हैं। अतः स्पष्ट है कि निर्वेद की व्याप्ति और अभिव्यक्ति अत्यंत यशस्वी और प्रभावी है। प्रस्तुत काव्य की भाषा संस्कृत है। अनेक गाथाएँ ऐसी मिलेंगी कि जो सरलता के कारण सहज ही समझमें आ जाती है / उसी प्रकार इस काव्य की शब्द योजना देखकर कविवर के भाषा प्रभुत्व की यथार्थ प्रतीति हमें होती हैं। साथ ही अर्थ गौरव की दृष्टिसे भी रचना प्रशंसनीय है। थोडे शब्दों में भरपूर आशय व्यक्त होने के गुण को साहित्यमें अर्थ गौरव कहते हैं। उपमा अलंकार के उत्कृष्ट उदाहरण देखकर और अर्थ गौरव का गुण पाकर विख्यात संस्कृत कवि कालिदास और भारवि की याद आती है / प्रसिद्ध है उपमा कालिदासस्य, भारवेः अर्थ गौरवम् / प्रस्तुत काव्यमें दोनों के ये दोनों गुण यथार्थ रीति से समाविष्ट है। ऐसे इस श्रेष्ठ काव्य की रचना संवत 2029 में पूर्ण हुई है, किन्तु इसका प्रकाशन दस ग्यारह वर्षों बाद अभी हो रहा है। यह प्रकाशन हिन्दी और गुजराती भाषाओं सहित है / इसलिए संस्कृत भाषा न जाननेवाले सामान्य जनों के लिए भी इसका अवगाहन सहज सुलभ होगा / हर कोई इसके काव्य रस का आस्वादन कर सकेगा और धर्माचरण का उपदेश पाकर धन्य हो सकेगा। ॐ शान्तिः गुरु चरणकमलानुरागी पं. कन्हैयालाल मुनि आभार प्रदर्शन यह लोकाशाह महाकाव्य छपके तैयार होने के पश्चात् समिति के कार्य काओं ने सोचा कि पूज्य गुरुदेव के इस काव्य को भूमिका पूज्य गुरुदेव के सु शिष्य परम विद्वान् शास्त्रवेत्ता, बाल ब्रह्मचारी प. पू. कन्हैयालालजी म. सा. लिख भेजे तो ओर उत्तम हो, ऐसा सोचकर समिति के कार्यवाहकों ने पूज्य म. सा. कन्हैयालालजी को नम्र विनंती की जिसे स्वीकार कर उपरोक्त भूमिका म. सा. ने चातुर्मास के धर्मकरणी में प्रवृत्तिशील होने पर भी अवकाश लेकर आपने अथाक परिश्रम कर लिख भेजी है अतः समिति पूज्य म. सा. कन्हैयालालजी का हार्दिक आभार मानती हैं / अ. श्री. श्वे. स्था. जैन शास्त्रोद्धार समिति Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्य श्री घासीलालजी-महाराज विरचितम् श्रीलोकाशाहचरितमहाकाव्यम् हिन्दी-गुर्जर-भाषानुवादसहितम् ॥श्रीलोकाशाहचरितम् // प्रथमः सर्गः श्रियं क्रियाद्यस्य नतेन्द्रसेन्द्र-मौलप्रभारंजितपादपीठम् बभौ सभायामुडुराजराजच्च्यु तं नमः खण्ड मिवाग्रजो वः // 1 // . हिन्दी अनुवाद अर्थ-समवसरण में जिनका पादपीठ नमस्कार करते हुए इन्द्रों और देवों के मुकुटों की कान्ति से रंजित हुआ ऐसा जान पडता है कि नक्षत्रराजि से सुशोभित आकाश का एक खण्ड ही ! (निरावलम्ब होनेके कारण) यह यहां गिरा हुआ पडा है ऐसे वे आदि जिनेश्वर हमलोगों की रक्षाकरें // 1 // . गुजराती अनुवाद પહેલે સર્ગ સમવરણમાં જેઓનું પાદપીઠ નમસ્કાર કરનારા ઇન્દ્રાદિ દેવના મુકુટોની કાંતીથી રંગાઈને એવું શેભે છે કે નક્ષત્ર પંક્તિથી સુરોભિત આકાશનો એક ભાગ જ અવલમ્બન વિનાને હેવાથી અહીયાં પડેલો જણાય છે એવા તે આદિજીનેશ્વર અમારું રક્ષણ કરો તો चन्द्रप्रभुनौमि यदोयकान्तिं विलोक्य चन्द्रोऽपि विलजितोऽभूत् न लजितश्चेत्किमसावुदेति रात्री दिवानेति विचारयन्तु // 2 // अर्थ-जिनके शरीर की कान्तिको देखकर चन्द्रमाभी लज्जित हो गया. ऐसे उन चन्द्रप्रभ भगवान् को मैं नमस्कार करता हूं इसके लज्जित होने में प्रमाण यही है कि वह दिनमें न निकल कर केवल रात्रि में ही निकलता है। लज्जित हुआ व्यक्ति दिन में नहीं निकलता है किन्तु रात्रि में ही निकल कर अपना कामकाज किया करता है // 2 // જેઓના શરીરની કાન્તિને જોઈને ચન્દ્રમાં પણ શરમાઈ ગયા એવા એ ચંદ્રપ્રભ ભગવાનને હું નમરકાર કરું છું. જે ચંદ્ર લજજત ન થયો હોય તે દિવસમાં કેમ બહાર આવતા નથી? અર્થાત્ શરમ પામેલ વ્યક્તિ દિવસમાં બહાર નિકળતા નથી. પરંતુ રાત્રે જ બહાર નીકળીને પિતાનું કામકાજ કરતા રહે છે મારા Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते शुद्धं स्वरूपम् मुनिवृन्दसेव्यं सुरासुरैर्वन्दिपदारविन्दम् / / वीरंजिनेन्द्रं प्रणमामि नित्यं भवार्तिनाशाय सुयोगशुद्धया // 3 // अर्थ-मैं अपनी भवार्तिकेनाश-भवरूपी व्याधि के विनाश के निमित्त उन अन्तिम तीर्थंकर श्री महावीरप्रभुको मन वचन कायकी शुद्धि पूर्वक नमस्कार करता हूं कि जिसके द्वारा संसार में सर्व प्रकार से आनन्द आनन्द परसा और जिन्हें मुनिजन एवं सुर असुर मिलकर नमस्कार करते और जिनके चरण कमलोंकी सेवा में निरत रहते // 3 // આ પિતાની ભવાર્તિ-ભવરૂપી વ્યાધિને વિનાશ કરવાના હેતુથી તે છેલ્લા તીર્થકર શ્રી મહાવીર પ્રભુને મન વાણી અને કાયાની શુદ્ધિ પૂર્વક નમસ્કાર કરું છું, કે જેમના દ્વારા આ સંસાર સર્વ રીતે આનંદ આનંદ થઈ રહ્યો છે. અને જેમને મુનિગણ અને સુર અને અસુરો વંદન કરે છે. અને જેમના ચરણ કમળોની સેવા માટે તત્પર રહે છે. આવા तं गौतमं विश्वजननीवृत्तिं जिनेन्द्रमुद्राङ्कितचारुवेषम् / नमामि यः संमृतिसंस्थितानाम् वीरोक्तवाणी विशदीचकार // 4 // अर्थ-मैं उन गौतम गणधर को नमस्कार करता हूं कि जो प्रभुके पद चिन्हों पर चलते रहे और जिनका प्रत्येकव्यवहार विश्व कल्याणकी भावनासे हुआ।वीर प्रभुने जो संसारके भव्य प्राणियों को सन्मार्ग पर चलनेका उपदेश दिया उसे ही जिन्होंने विशेष रूपसे स्पष्टकर के संसार के समक्ष रखा // 4 // એ ગૌતમ ગણઘરને હું નમસ્કાર કરું છું કે જે પ્રભુએ નિર્દિષ્ટ કરેલા માર્ગનું અવલમ્બન કરીને પ્રવર્તમાન રહ્યા. અને જેમનો દરેક વ્યવહાર સમગ્ર વિશ્વના કલ્યાણની ભાવનાથી થયે. વીર પ્રભુએ સંસારના ભવ્ય જીને સન્માર્ગે ચાલવાનો જે ઉપદેશ આપે તેને જ વિશેષ પ્રકારથી સ્પષ્ટ કરીને જેમણે જગત સમક્ષ પ્રકાશિત કર્યો છે. જો यथामतीदं चरितं च लोकाशाहस्य साधोगुणरत्नराशेः। स्वल्पावबोधोऽपि तथापि किश्चिच्छक्त्याऽनुरूपं च वदामि भक्त्या // 5 // अर्थ-मैं अब सम्यग ज्ञान दर्शनादि रूप महनीय गुणरत्नों की राशिवाले ऐसे मुनिराज श्री लोकाशाह के चरित्र का अपनी बुद्धि के अनुसार निर्माण करता हूं, यद्यपि मैं अल्पबोधवाला हूं इसलिये इनके पूर्ण गुणों का वर्णन तो नहीं कर सकूगा पर जो कुछ भी इस चरित्र में चित्रण करूंगा वह भक्ति के वश होकर शक्ति के अनुसार इनके मार्ग के अनुरूप ही कहूंगा // 5 // Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः पहेलो હવે હું સમ્યફ જ્ઞાન દર્શનાદિ મહાન ગુણ રત્નોના ઢગલારૂપ મુનિરાજ લોકશાહના ચરિત્રની મારી બુદ્ધિ પ્રમાણે રચના કરું છું, જે કે હું અલ્પ મતિ છું જેથી તેમના સંપૂર્ણ ગુણોનું વર્ણન તો હું કરી શકીશ નહીં પરંતુ આ ચરિત્ર ચિત્રણમાં જે કાંઈ ચિત્રિત કરીશ તે તેમના પ્રત્યેની ભકિતને આધિન થઈને મારી શક્તિ પ્રમાણે તેમના માને અનુરૂપ કરીશ. પા महात्मनाऽनेन मया विलोक्य स्वच्छानुरूपां स्वमनोऽनुवृत्तिम् / . तपस्विनां शास्त्रमनादि रूप मास्थानकं भव्य परिष्कृतं तत् // 6 // अर्थ-महात्मा मैं ने तपस्वि साधुओं की स्वच्छानुसारी संकुचित मनोवृत्ति को देखकर स्थानकवासि सिद्धान्त का प्रतिपादक अनादि भूत शास्त्र को अच्छी तरह परिष्कृत कर व्याख्या की है // 6 // મહાત્મા લોકાશાહે અને મેં સાધુઓની છાચારી અને સંકુચિત મનોવૃત્તિ જોઈને તપસ્વી સાધુઓ માટે સ્થાનકવાસી સિદ્ધાંત અનુસાર અનાદિ શાસ્ત્રનું સારી રીતે અવેલેકન કરીને વ્યાખ્યાન કરેલ છે પદો मतं तदेतद्धयगमत्प्रसिद्धिं श्वेताम्बरस्थानकवासिनाम्ना / काइयं गतं यत्प्रभव प्रभावाद्देवादिमौढयं खलु मानवानाम् // 7 // अर्थ-लोकाशाहजी महाराज के द्वारा जो अनादिकालसे प्रचलित स्थानकघासी सिद्धांत था उसको प्रकाशित किया गया वह गुजरात आदि प्रदेशों में श्वेताम्बर स्थानकवासी इस नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ इसके प्रभावसे जो देवकी मान्यतासे प्रतिमापूजा आदि के-सम्बन्ध में मनुष्यों में मूढता थी वह धीरे धीरे कम होने लगी // 7 // કાશાહજી મહારાજ દ્વારા અનાદિ કાળથી પ્રચલિત જે થાનકવાસી સંપ્રદાય હતે તેને જ પ્રકાશિત કરેલ છે જે ગુજરાત વિગેરે પ્રદેશમાં તાંબર સ્થાનકવાસી એ નામથી પ્રસિદ્ધિને પામેલ છે. આના પ્રભાવથી જે દેવની માન્યતા અને મૂર્તિપૂજા વિગેરેના સંબંધમાં જનતામાં મૂઢ પણ હતું તે ધીમે ધીમે કમ થયેલ છે. यथाप्रसिद्धं चरितं मर्यंतच्छ्रतं यथा वच्मि तथैव चाहम् / श्रुतेऽनुभूते भवतीति भेदो ग्राह्या त्रुटि त्र भवेद्यदीह // 8 // ___ अर्थ-जिस रूप से यह चरित्र प्रसिद्ध है और जैसा इसे मैंने सुना है मैं उसी तरह से इसे ग्रथित करूंगा यदि कथन में किसी तरह का अन्तर प्रतीत Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते हो तो इसमें मेरा कोई दोष नहीं मानना चाहिये, क्यों कि सुनी गई बातमें और देखी गई-अनुभवकी गई-बात में अन्तर आही जाता है // 8 // જે રીતે લેકશાહનું ચરિત્ર પ્રસિદ્ધ છે, અને જે રીતે તેને મેં સાંભળેલ છે. એ જ પ્રમાણે હું તેની રચના કરીશ, જે મારા કથનમાં કોઈ પ્રકારનો ફેરફાર જણાય તે તેમાં મારે કંઈ જ દોષ માનવો નહીં. કેમ કે–સાંભળેલ વાતમાં અને દેખેલ–અનુભવ કરેલ વાતમાં અત્તર આવી જ જાય છે. 58 काले कलौ तथ्यवृषोपदेष्टा प्रायो न लभ्योऽस्ति यतो हि पुण्यात् / खद्योतवत्प्रावृषि भासमानः प्रलभ्यतेऽसौ काचिदेव साधुः // 9 // . अर्थ-इस काल में-पंचमकाल में-सत्यधर्म का उपदेष्टा साधु प्रायः मिलता ही नहीं है, क्यों कि यह तो पुण्योदय से ही प्राप्त होता है वर्षाकाल में जिस तरह (अगिया) खद्योत कहीं 2 चमकते हुए दिखलाई देते हैं ऐसे ही ये भी कहीं 2 ही चमकते हुए दिखलाई देते हैं सर्वत्र नहीं // 9 // આ પંચમ કાળમાં સત્ય માર્ગને ઉપદેશ કરનાર સાધુ પ્રાયઃ મળતા નથી, કારણ કે એ તે પૂર્વ પુણ્યના ઉદયથી જ પ્રાપ્ત થાય છે. ચોમાસામાં જે રીતે આગિયાં ક્યાંક ક્યાંક જ ચમકતા જોવામાં આવે છે. સર્વત્ર દેખાતા નથી. 19 क्वैतत्पवित्रं विपुलं चरित्रं क्वैषाल्पबोधा मलिना मतिम तथापि तद्भक्त्यनुरागपुण्यात्प्ता तदाख्यातुमसो समर्था / 10 // .. अर्थ-यह पवित्र विस्तृत चरित्र तो कहां, और मलिन अल्पयोधवाली मेरी मति कहां फिर भी वह चरित्र नायक की भक्ति के अनुराग से जन्य पुण्य से पवित्र होकर उसे कह सकने में समर्थ हो जावेगी // 10 // આ પવિત્ર એવું લેકશાહનું ચરિત્ર કહ્યાં અને અ૯પ બેધવાળી મલીન એવી મારી બુદ્ધિ ક્યાં? તે પણ એ ચરિત્ર નાયક પ્રત્યેની ભક્તિના અનુરાગથી પ્રગટેલ પુણ્યથી પવિત્ર થઈને તે કહી શકવામાં સમર્થ થશે. 1 साधोश्चरित्रं खलु पापहारि जेगीयमानं सुकृतं ददाति / स्वभ्यस्यमानं ह्यभयप्रदायि सान्ते स्थितं तच्छिदं वदन्ति // 11 // अर्थ-पूर्वीचार्योंका ऐसा मन्तव्य है कि सुना गया साधु पुरुष कां-महान् पुरुष का-चरित्र पापों का विनाशक होता है भक्ति के वश होकर पाठ करने वाले को वह पुण्य का दाता होता है और जो इसे अपने मन में धारण करता है उसे वह सर्व प्रकार से कल्याण का पात्र बना देता है // 11 // Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः पहेलो પૂર્વાચાર્યોની એવી માન્યતા છે કે–સાંભળવામાં આવેલ સાધુપુરૂષનું ચરિત્ર પાપનું વિનાશક હોય છે. ભક્તિથી તેનો પાઠ કરનારને તે પુણ્ય કારક થાય છે. અને જે તેને પિતાના મનમાં ધારણ કરે છે તેને એ સર્વ પ્રકારથી કલ્યાણનું પાત્ર બનાવી દે છે. 11 श्राव्यं भवेकाव्य मदूषणं यन्न निर्गुणं क्वाप्यवधार्य मन्ये / गुणान् जिघृक्षोः खलु सज्जनात्तदोषांश्च गृह्णन् खल एव साधुः॥१२॥ अर्थ-जो काव्य निर्दोष होता है वही श्राव्य सुनने के योग्य होता है पर जो निर्गुण काव्य होता है, वह कहीं पर भी सुनने के योग्य नहीं होता इस प्राचीन उक्तिको चित्त में धारण करके मैं ऐसा मानता हूं कि केवल काव्य के गुणों को ही ग्रहण करने वाले सज्जन की अपेक्षा काव्यगत दोषों को ग्रहण करने वाला खल-दुर्जन ही अच्छा है // 12 // જે કાવ્ય દોષ રહિત હોય તે જ સાંભળવા ગ્ય હોય છે. પરંતુ જે નિર્ગુણ કાવ્ય હે છે તે કઈ રીતે સાંભળવા લાયક હેતું નથી. આ પ્રાચીન ઉક્તિને ચિત્તમાં ધારણ કરીને હું એવું માનું છું કે- કેવળ કાવ્યના ગુણને જ ગ્રહણ કરનારા સજજન કરતાં કાવ્યમાં રહેલા દેશોને જોનારા ખર-દુર્જન જ સારા છે. ૧રા अहो खलस्यापि महाप्रभावो भियैव यस्यास्ति कविः सुवृत्तः। चकास्ति गोभि सवितेव यस्य मनोनुकूला कविता सुकान्ता // 13 // अर्थ-देखो-दुर्जन का भी बडा प्रभाव होता है क्यों कि इसी के भय से कवि अपनी कविता में सुवृत्त-सुन्दर निर्दोष छंदों की रचना करता है तथा जिस प्रकार संविता सूर्य अपनी किरणों से चमकता है उसी प्रकार उस कवि की कविता रूपी कामिनी भी अपनी वाणी से सबके मनको अनुकूल होती भाती रहती है // 13 // આશ્ચર્ય છે કે દુર્જનનો પણ મેટો પ્રભાવ હોય છે. કેમકે તેમના જ ભયથી કવિ પિતાની કવિતામાં સુંદર નિર્દોષ છંદોની રચના કરે છે. તથા જે પ્રમાણે સૂર્યનારાયણ પિતાના કિરણોથી પ્રકાશે છે, એ જ પ્રમાણે તે કવિની કવિતા રૂપી કામિની પણ પિતાની વાણીથી સૌના મનને અનુકૂળ થઈને પ્રસન્નતા ઉપજાવે છે. 13 सतः प्रकाशे खल एव हेतु स्तस्मिन् ध्रुवे तस्य गुणप्रकर्षः / काचं विना नैत्र कदापि कुत्र मणे. प्रतिष्ठा भवतीति सम्यक् // 14 // अर्थ-सज्जन पुरुषों की विख्याति में यदि कोई कारण है तो यह दुर्जन ही है-क्योंकि उसके सद्भाव में ही उनके गुणों का प्रकर्ष होता है सो यह बात Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते ठीक है काच के विना मणि की प्रतिष्ठा नहीं होती है-काचके सद्भाव में ही मणिकी प्रतिष्ठा होती है // 14 // સજજન પુરૂષોની પ્રસિદ્ધિમાં જે કંઈ પણ કારણ હોય તો તે દુર્જન જ છે. કેમકે તેમના અસિતત્વથી જ સજજનેના ગુણેને પ્રકર્ષ થાય છે. એ વાત સત્ય જ છે કે– કાચના વિદ્યમાન પણથી જ મણિની પ્રતિષ્ઠા થાય છે. 14 दूरस्ति यस्मात्सुजनस्य दुष्टो जनोऽथवा दूरगतोजनोऽस्मात् / इत्थं निरुक्या स गतः प्रसिद्धिं समस्ति लोके किल दुर्जनोऽयम् // 15 // सज्जन जिससे दुःखित होते हो वह अथवा दुष्ट जो नर है वह, या जिससे सामान्यजन भी दूर रहते हों वह दुर्जन है. इस प्रकार से यह दुर्जन की निरुक्ति है. इससे दुर्जन शब्द की सिद्धि होती है // 15 // સજજનો જેનાથી દુઃખી થાય તે અથવા દુષ્ટજન તે અગર જેનાથી સામાન્ય જન પણ દૂર રહેતા હોય તે દુર્જન છે; આ પ્રમાણે એ દુર્જનની નિરુક્તિ કહી છે. આનાથી દુર્જન શબ્દની સિદ્ધિ થાય છે. I1 પા सरस्वती सैव मुखं तदेव सैवास्ति जिह्वा रचनाऽपि सैव / तथाप्यहो पश्यत दुर्जनस्य कृन्तति मर्माणि वांसि चोक्तौ / 16 // अर्थ-जिन शब्दों को सज्जन बोलता है उन्हीं को दुर्जन बोलता है जैसा मुख सज्जन का है वैसा ही मुख दुर्जन का है, जो जीभ सज्जन की है वही जीभ दुर्जन की है शब्दों के बोलने की रचना जैसी सज्जन की है वैसी ही वह दुर्जन की भी है परन्तु पता नहीं पड़ता है कि एक के तो बोल मर्मस्थानों में पीडा नहीं पहुचाते और दुर्जन के बोल मर्मस्थानों को काट देता हैं // 16 // જે શબ્દોનું ઉચ્ચારણ સજજન કરે છે. એ જ શબ્દ દુર્જન લે છે. જેવું સજજનનું મુખ છે. એવું જ દુર્જનનું મુખ છે જેવી જીભ સજજનની છે. તેવી જ જીભ દુર્જનની પણ છે. બેલવાના શબ્દોની રચના જેવી સજજનની છે તેવી જ દુર્જનની છે. પરંતુ ખબર પડતી નથી કે સજજનેના શબ્દો આનંદપ્રદ હોય છે ત્યારે દુર્જનના શબ્દો મર્મ स्थानामा पासावा वा नाय छे. // 16 // अहो कर्मन् तव सृष्ट सृष्टौ बभूव कष्टैकफलाज्ञतेयम्। यदेणमुष्के मृगनाभिस्तृष्टिः कथं न साहा विहिता खलास्ये // 17 // अर्थ-हे कर्मन् ! आपके द्वारा रची गई इस सृष्टि में आपसे एक बडीभारी भल हो गई है जो जीवों को पद पद पर अभीतक कष्ट में डाले हुए हैं वह Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्गः पहेलो आपकी भूल यह है कि आपने जो कस्तूरी की रचना की वह विचारे हिरण के अण्डकोश में की, दुर्जन के मुख में नहीं की, हे कर्मन् ! आपके द्वारा रची हुई इस सृष्टि में आपने यह कष्टप्रद भूल कैसे कर दी-जो दुर्जन के मुख में न बनाकर हिरण के अण्डकोशों में कस्तूरी बनाई // 17 // હે કર્મ તમે ચેલ આ સૃષ્ટિમાં આપનાથી એક ગંભીર ભૂલ થયેલ જણાય છે. કે જે ભૂલ પ્રાણિને ડગલે ડગલે આજ પર્યન્ત દુઃખકારક થાય છે. તે ભૂલ એ છે કે આપે કસ્તૂરીની ઉત્પત્તિ બિચારા હરણાઓની નાભિમાં કરી છે, દુર્જનના મુખમાં કરેલ નથી. હે કર્મનું આપે રચેલ આ સૃષ્ટિમાં આપે આ દુઃખદ ભૂલ કેવી રીતે કરી? કે દુર્જનના મુખમાં બનાવવા લાયક કસ્તુરી મૃગની નાભિમાં ઉત્પન્ન કરી ? 17. तटस्थपाती नदवन्निनादी भुजङ्गकैः सेवितपार्श्वभागः। पद्माकरर्जित संगमोऽसौ खलः सदा विभ्रमवान् सपङ्कः // 18 // अर्थ-इस श्लोक द्वारा कवि ने दुर्जन को नद के साथ उपमित किया है नद-शोण आदि नद-जिस प्रकार तटस्थ-तट पर स्थित वस्तुओं को वहा ले जाता है उसी प्रकार दुर्जन भी तटस्थ-मध्यस्थ-व्यक्ति को पतित कर देता है -उन्हें कष्ट देता हैं शोणनद-नदी जिस प्रकार निनादी प्रवाह के आने पर व्यर्थ की आवाज किया करता है उसी प्रकार दुर्जन भी व्यर्थ का बकवाद किया करता है "भुजङ्गकैः सेवितपार्श्वभागः” नदके पार्श्वभाग में जिस प्रकार सों का अड्डा बना रहता है उसी प्रकार दुर्जन के आस पास भुजंगक चुगुलखोर आदिकों का जमघट जमा रहता है. शोणनद जिस प्रकार "पद्माकरै वर्जितसंगमः " पद्माकर कमल समूह के संगम से हीन होता है उसी प्रकार दुर्जन भी लक्ष्मीपतियों की संगति से वंचित रहा करता है. शोणनद में जिस प्रकार सदा विभ्रमवान् भंवरें पानी में उठा करती है, उसी प्रकार दुर्जन में सदा अज्ञान रूपी ज्ञान बना रहता है "सपङ्कः' नद जिस प्रकारसपङ्ककीचड से युक्त होता है. उसी प्रकार दुर्जन भी पापों से युक्त होता है // 18 // આ શ્લેકમાં કવિએ દુર્જનને નદની સાથે સરખાવેલ છે. શેણુ વિગેરે નદ જે પ્રમાણે તટ પર રહેલ વસ્તુઓને પાણીમાં વહી જાય છે. એ જ રીતે દુર્જન પણ તટસ્થ–મધ્યસ્થ વ્યક્તિને પતિત કરે છે. અર્થાત તેને દુઃખ ઉપજાવે છે. શેણુનદ-નદી જે પ્રમાણે પ્રવાહ આવે ત્યારે નકામાં અવાજ કર્યા કરે છે, એ જ પ્રમાણે દુર્જન પણ નકામો બકવાદ કર્યા अरे छ. 'भुजङ्गकैः सेवितपार्श्वभागः' नाना ५४ाना मामा म सोना 24 / मनेस રહે છે, એ જ પ્રમાણે દુર્જનની આજુબાજુ પણ ભુજંગક–ચાડિયાઓ વિગેરેના અડ્ડા Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते मेसा 24 छ. शगुनहरे प्रमाणे 'पद्माकरै जितसंगमः' भय समूहना समयी રહિત હોય છે, એ જ પ્રમાણે દુર્જન પણ લક્ષ્મીપતિઓના સંગથી રહિત હોય છે. શોણનદમાં જેમ ચંચળ ભમરો પાણીમાં ઉડી આવે છે, એ જ પ્રમાણે દુર્જનોમાં સદા અજ્ઞાન રૂપી म। 942 // अरे छ, 'सपङ्क नहरमाणे 24 मेला प्रभारी हुन पाय पापરૂપી કાદવથી યુક્ત રહે છે. 18 क्वचिच्च मुन्नास्ति कदापि तस्मात्प्रधावती तं प्रविलोक्य वाणी समुत्कटास्ता विपदो भवन्ति जगन्ति पापानि समुद्वहन्ति // 19 // अर्थ-दुर्जन व्यक्ति से किसी भी काल में किसी भी ठौर जीवों को आनन्द नहीं मिलता है प्रत्युत उस दुर्जन का सान्निध्य पाकर लोगों की बोलती बन्द हो जाती है, यहां तक कि इसके आतंक से वे वे भयङ्कर आपत्तियां प्रकट हो जाती हैं जो संसार में कहर बरसा देती है उस समय इसके ही प्रभाव से जगत पापों के नीचे दब जाता है. // 19 // દુર્જન વ્યક્તિ પાસેથી કોઈ પણ કાળમાં કોઈ પણ જીવને આનંદ પ્રાપ્ત થતી નથી. પરંતુ ખરેખર એ દુર્જનનો સંગ મેળવીને માણસની વાણી જ બંધ થઈ જાય છે. તે એટલે સુધી કે તેના દુઃખ કારક વ્યવહારથી એવી એવી ભયંકર આપત્તિ આવી પડે છે કે જે જગતમાં કેર વરસાવે છે, તે વખતે તેના જ પ્રભાવથી જગત- પાપોની નીચે દબાઈ लय छ, // 18 // सतो विदूरीकृतदुर्जनश्वा जडाशयो धावति पृष्ठभागे। यथा तथा संमुखमागतस्य विदूरभावं भजते मयाढ्यः // 20 // ___ अर्थ-सज्जन पुरुष के द्वारा बहुत दूर तक खदेड दिया गया यह दुर्जन रूप कुत्ता दुराशयवाला बनकर उसकी पीठ के पीछे हो भोंकता हुआ चलता आता है. परन्तु जब उसका सामना किया जाता है तो वह भयभीत होकर फिर स्वयं ही दूर भाग जाताहै // 20 // સજન પુરૂષ દ્વારા ઘણે દૂર સુધી ભગાડી મૂકવામાં આવેલ આ દુર્જન રૂપી કુતરા દુષ્ટાશય વાળા બની તેમને તેની પીઠ પાછળ જ ભસતા આવે છે, પરંતુ જ્યારે તેને સામને કરવામાં આવે ત્યારે તે ડરીને પોતે જ દૂર ભાગી જાય છે. રો परापवादेन विना न तृप्तिर्भवेच्च दुष्टस्य कदापि कुत्र / . तथाहि शस्यान् परिमुच्य भुक्ते रसान् वराहोऽशुचिवस्तुजातम् // 23 // Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः अर्थ-दुर्जन का यह स्वभाव है कि जब तक वह दूसरों कि निंदा नहीं करलेता तब तक उसे चैन नहीं पडती देखो-सुअर के समक्ष कितने ही सुन्दर 2 रस क्यों न रख दिये जावें तब भी वह उन्हें छोडकर केवल अशुचि-अपवित्र-पदार्थ का ही भक्षण करता है // 21 // | દુર્જનનો એ સ્વભાવ છે કે- જયાં સુધી એ બીજાઓની નિંદા કરતો નથી ત્યાં સુધી એને ચેન પડતું નથી. જેમ કે- ભુંડની સામે કેટલાય સારા સારા ભજન પદાર્થો રાખ્યા હોય તો પણ તે તેને છેડીને કેવળ અપવિત્ર એવા પદાર્થનું જ ભક્ષણ કરે છે. ર૧ अयोभिसंसर्गवशाद् यथाग्निः परोपघातं सहते करालम् / खलं खलु प्राप्य तथा यमात्मा जगत्प्रहारं सहते समन्तात् // 22 // अर्थ-जैसे अग्नि लोहे की संगति से विकट घनकी चोटों को सहन करती है, उसी प्रकार यह आता दुष्ट की संगति से सर्व तरफ से जगत के अप वादरूप प्रहार को सहन करता है. // 22 // જેમ અગ્નિ લોખંડનો સંગ થવાથી દુઃખદ ઘણનો માર સહન કરે છે એ જ પ્રમાણે આ આત્મા દુષ્ટના સંસર્ગથી બધી રીતે જગતના અપવાદરૂપ પ્રહારોને સહન કરે છે. પરરા स्व दोषराशि प्रविलोकनेऽसो खलो यथान्धो न तथाऽपरस्य / स्वदुर्गुणान् गण्यगुणान् प्रजल्पन् मनस्विनो गण्यगुणान जल्पन् // 23 // अर्थ-खल जन जिस प्रकार अपने में विद्यमान दुर्गुणों के देखने में अन्धा रहता है उस प्रकार वह दूसरों के दुर्गुणों को देखने में अन्धा नहीं होता दूसरों के माननीय गुणों को तो वह दुर्गुणरूप से मानता है और अपने दुर्गुणों को गणनीय गुण समझता है // 23 // ખેલ પુરૂષ જેમ પોતાનામાં રહેલ દુર્ગણોને જોવામાં અબ્ધ હોય છે, તેમ એ બીજાના દુર્ગુણને જોવામાં અબ્ધ હોતા નથી. બીજાના સન્માનનીય ગુણોને તો તે દુર્ગણ માને છે, અને પિતાના દુર્ગુણોને માનનીય ગુણ ગણે છે. કેરડા परेण सम्पादित धर्म्यकृत्ये मलोज्झिते केवल मीग्रंयाऽसौ / विलोकयन् दोषचयं समन्तात् करोति बाधां प्रतिबोधितोऽपि॥२४॥ अर्थ-सज्जन पुरुष निर्दोष कोई भी यदि धार्मिक कृत्य करता है. तो यह दुर्जन पुरुष उसमें ईर्षा के वश होकर दोषों को ही देखता है और समझाने पर भी हरतरह से उसमें बाधा ही उपस्थित किया करता है. // 24 // Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 . लोकाशाहचरिते સજજન પુરૂષ નિર્દોષ એવું કોઈ પણ ધાર્મિક કાર્ય કરે તો પણ આ દુર્જન પુરૂષ તેમાં પણ કેવળ ઈષ્યને વશ થઈને દેને જ દેખે છે, અને સમજાવવા છતાં પણ દરેક રીતે તેમાં વિના જ નાખે છે, રજા परापवादेन स तोषितात्मा परापकृत्यैःकटिबद्ध कक्षः / विगर्हितात्मा प्रतिकूलवर्ती परोस्तापी किमसौ विसृष्टः // 25 // अर्थ-हे कर्म ! भले आदमियों का निन्दा करने में जिसे आनन्द आता है दूसरों के अपकार करने में ही जिसकी कमर कसी रहती है, ऐसे उस निंदित आत्मावाले दुर्जन को कि जो सदा प्रतिकूल ही प्रतिकूल रहता है और हरएकको दुःखित किया करता है तूने क्यों बनाया // 25 // હે કર્મ ભલા માણસની નિંદા કરવામાં જેને આનંદ થાય છે, બીજાના અપકાર કરવામાં જ જેની કમર કસાયેલ રહે છે, એવા તે નિંદિતાત્મા દુર્જનને કે જે સદા પ્રતિકૂળ જ રહે છે, અને દરેકને દુઃખી કર્યા કરે છે, તે શા માટે બનાવ્યા? રપા कलङ्कमुक्तस्सद पूर्वचन्द्रो दिवापि विस्तारितकौमुदः सन् / दोषोज्झितोऽसौ वितनोति जीवं जीवं प्रति हर्षभरं महान्तम् // 26 // अर्थ-सज्जन पुरुष के विषय में क्या कहा जाये वह तो एक श्रेष्ठ अपूर्व चन्द्रमाही है. क्यों कि प्रसिद्धचन्द्रमा कलङ्की है और संज्जन सदा कलङ्क से चार हाथ दूर रहता है-प्रसिद्ध चन्द्रमा रात्रि में ही कुमुदों का विकाशक होता है. तब कि यह "दिवापि" दिन में भी "कौमुदः पृथिवी मे आनन्द भरता रहता है, प्रसिद्ध चन्द्रमा दोषा+उज्झित" दोषा-रात्रि से उज्झित परिस्यक्त नहीं होता-तब कि यह दोषों से दुर्गुणों से परित्यक्त होता है. प्रसिद्ध चन्द्रमा सब प्रकार से जीवं जीवं प्रति चकोर पक्षी को हर्ष का दाता नहीं होता,क्यों कि रात्रि में चकोर का चकोरीसे वियोग हो जाता है, तब की यह जीव के प्रति अधिक से अधिक आनन्द का देने वाला होता है / इस तरह से कविने इस इलोक द्वारा प्रसिद्ध चन्द्रमा की अपेक्षा इस सज्जन रूपी चन्द्रमा में अपूर्वता प्रदर्शित की हैं // 26 // સજજન પુરૂષોને વિષે તો કહેવાનું જ શું હોય તેતો એક અપૂર્વ ચંદ્રમા જ છે, કેમ કે– પ્રસિદ્ધ ચંદ્રમા કલંકિત છે, અને સજજનો સદા કલંકથી દૂર રહેવાવાળા હોય છે, प्रसिद्ध य द्रमा रात्रे भुना विश है।य छ, न्यारे 21 दिवापि हिवसे 55 कौमुदः पृथ्वीमा बनय . प्रसिद्ध यद्रमा दोषा + उम्झिता रात्रे यजमेस होता નથી. જ્યારે આ દોષોથી અર્થાત દુર્ગુણોથી ત્યજાયેલ હોય છે. પ્રસિદ્ધ ચંદ્રમાં બધી રીતે Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः 'जीवं जीवं प्रति ' या पक्षाने हत्या होता नथी, उभ रात्र या पक्षान योरीथा વિગ થઈ જાય છે. જ્યારે આ સજજન દરેક જીવને વધુમાં વધુ આનંદ આપનાર બને છે. આ રીતે કવિએ આ શ્લેક દ્વારા પ્રસિદ્ધ ચંદ્રમાના કરતાં આ સજજન રૂપી ચંદ્રમામાં અપૂર્વતા બતાવી છે. પારદા जना वदन्तीत्यमृतप्रदोहि हिमांशु गौरस्ति न सत्यमेतत् / तथ्यं परं त्वामृतदायिनीयं गोरेव भव्याय सतोऽस्यशश्वत् // 27 // अर्थ-लोंग ऐसा कहते हैं. कि चन्द्रमाकी किरणों से अमृत झरता है. सो ऐसा उनका कहना मेरी दृष्टि से सत्य नहीं है. सत्य तो केवल एक यही हैं कि संत पुरुष की वाणी ही भव्य जीवों के लिये अमृत प्रद-मोक्षदात्री होती है. अतः उसकी वाणी से ही मोक्ष अमृत-झरता है. // 27 // લેક એવું કહે છે કે–ચંદ્રમાના કિરણેમાંથી અમૃત ઝરે છે. એવું તેમનું કથન મને તથ્ય લાગતું નથી. સાચું તો કેવળ એ જ છે કે પુરૂષોની વાણી જ ભવ્ય જીને અમૃતપ્રદ-મક્ષ આપનારી હોય છે. તેથી તેમની વાણીથી જ મોક્ષ રૂપી અમૃત ઝરે છે. રા . हरिर्मुरारिस्त्रिपुरारिरुयो हरिण्यगर्भः कलहंसवाहः / सेन्द्रश्च संक्रन्दनपारवश्यश्चेन्द्रोऽपि शत्रुर्नमुचेन तुल्यः // 28 // अर्थ-इसी तरह हरि उग्र हिरण्यगर्भ देव और इन्द्र ये भी सज्जन की समता में नहीं उतरते हैं. क्यों कि हरि-सुरनामक राक्षस के अरि है, महादेव त्रिपुर दैत्य के विध्वंसक है, हिरण्यगर्भा ब्रह्मा कलहसंवाहक-लडाई झगडे में फसे रहते है. देवसंक्रन्दन पारवश्य है-इन्द्रकी अधीनता में रहते हैं-अथवा रोने धोने में लगे रहते हैं और इन्द्र नमुचि का विरोधी है. तब कि संत पुरुष ऐसे नहीं होते अतः ये सब भी सज्जन की समानता की कोटि में नहीं आ पाते है. // 28 // હરિ, ઉગ્ર એવા હિરણ્યગર્ભ દેવ અને ઇન્દ્ર એ પણ સજજનની બરોબરીમાં આવતા નથી. કેમ કે હરિ–મુરનામના દત્યના અરિ અર્થાત શત્રુ છે. મહદેવ ત્રિપુરના વિધ્વંસક છે, હિરણ્યગર્ભા બ્રહ્મા કલહંસ વાહક-લડાઈ ઝગડામાં ફસાયેલા રહે છે. દેવ સંક્રન્દન અર્થાત ઈન્દ્રને આધીન છે. અને ઈદ્ર પણ નમુચિ દેત્યનો વિધિ છે, જયારે સંત પુરૂષ એવા હેતા નથી તેથી આ બધા સંત પુરૂષની સમાનતામાં આવતા નથી. ર૮ 'अहो विचित्रं सुमनः सुवृत्तं विभेदितं यन्न विकारमेति / विनिद्रितं सद् भ्रमराहितं सा मोदं विधत्ते ननु काननं च // 29 // Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते अर्थ-सन्त पुरुषों का आचार पुष्प के आचरण से भी विचित्र होता है. जो इस प्रकार से है-जब पुष्प खिलता है-तब यह यद्यपि भ्रमरों को हितकारी होता है और जिस स्थान पर वह खिलता है चाहे वह जंगल भी क्यों न हो उस स्थान को वह अपनी परिमल से भर देता है, परन्तु जब वह अपने स्थान से भ्रष्ट होता है तब वह विकृत हो जाता है-कुम्हला जाता है. परन्तु सन्त पुरुष कर्मोदय से दुःखित होने पर भी विकृत नहीं होते यही इसमें पुष्प की अपेक्षा विचित्रता है. सन्त पुरुष मोह की निद्रा से विहीन होते हैं उनमें से मिथ्या ज्ञान रूप भ्रम निकल जाता है. अतः वे कानन-कुत्सित आनन वाले अपने विपक्षियों को दुर्जनों को भी सामोद-प्रसत्र कर लिया करते हैं / इस प्रकार विनिद्रित विर्धम रहित सामोद और कानन इन पदों की संगति पुष्प और सन्तपुरुष ठीक बैठ जाने पर भी विकाराभाव की लेकर पुष्प की अपेक्षा सन्तपुरुष में विशेषता स्पष्ट हो जाती है. // 29 // 1 સંત પુરૂષોને આચાર પુષ્પના કરતાં પણ વિચિત્ર હોય છે, જેમ કે પુષ્પ જ્યારે ખીલે છે ત્યારે તે ભમરાઓને હિતાવહ હોય છે અને જે સ્થાન પર તે ખીલે છે ચાહે તે જંગલ પણ કેમ ન હોય તે સ્થાનને તે પિતાના રજકણોથી સુગંધિત કરી દે છે. પણ જ્યારે તે પિતાના રથાનથી પતિત થાય છે ત્યારે તે વિકૃત અર્થાત કરમાઈ જાય છે. પરંતુ સંત પુરૂષ કર્મોદયથી દુઃખી થવા છતાં પણ વિકૃતિને પામતા નથી એજ તેઓમાં પુષ્પના કરતાં વિશેષતા છે. સન્તપુરૂષ મોહ નિદ્રાથી રહિત હોય છે. તેમાંથી મિથ્યા જ્ઞાનરૂપ ભ્રમ નીકળી જાય છે તેથી તેઓ કાનન–કુત્સિત આનન-મુખ વાળા પિતાના વિધિઓને પણ સામોદ પ્રસન્ન કરી લે છે. આ રીતે વિનિદ્રિત વિશ્વમ રહિત, આમોદ અને કાનન આ શબ્દોની સાથે સંગતિ બરોબર થઈ જવા છતાં પણ વિકાર ભાવને લઈને પુષ્પના કરતાં સંત-પુરૂષમાં વિશેષતા સ્પષ્ટ થઈ જાય છે. કેરલા धन्यावनिः साध्युषिता सुसद्भिर्गाशे यदीया परिशीलितास्ताः खर्हितं तुष्टिपदं दुहन्ति नवं नवं सूक्तिरसं सुनम्राः // 30 // अर्थ-जिनकि वाणी रूप गाय खल द्वारा परिशीलित होकर हितप्रद तुष्टिकारक नवीन नवीन सूक्ति रूप रस को देती है. ऐसे सन्त पुरुषों द्वारा सुसेवित वह भूमि धन्य है. यहां खल शब्द का अर्थ गाय पक्षमें खरी है-जिसे खाकर गाये खूव दूध दिया करती है रस शब्द का अर्थ दूध है ! सन्त पुरुषों की वाणी दुर्जनो द्वारा जब परिशीलित होती है तो वह सूक्ति रूपी रस को प्रदान करती है. और गायों को जब खरी दी जाती है तब वे बहूत दूध देने लग जाती हैं / इस तरह यहां खल का प्रभाव प्रकट किया गया है // 30 // Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः જેએની વાણી રૂપ ગાય ખલ દ્વારા સેવિત થઈને હિતકારક તુષ્ટિરૂપ નવી નવી સૂક્તિરૂપ રસ આપે છે, એવા સંતપુરૂષો દ્વારા સેવાતી તે ભૂમિ ધન્ય છે. અહીં ખલ શબ્દનો અર્થ ગાયપક્ષમાં ખરી છે, એટલે કે ખેળ જેને ખાઈને ગાયે ખૂબ દૂધ આપે છે. સંતપુરૂષની વાણી દુર્જન દ્વારા જયારે પરિશીલિત થાય છે, ત્યારે તે સૂકિતરૂપી રસ આપે છે. અને ગાય ને જ્યારે ખાણ દેવામાં આવે છે, ત્યારે તે ઘણું જ દૂધ આપવા માંડે છે. આ રીતે અહીં ખેલનો પ્રભાવ પ્રગટ કરવામાં આવ્યો છે. 30 यदीयवाणी सुमनोभिरामा प्रकाण्डजुष्टा सुरसार्थ सेव्या। लतेव कल्पस्य ददाति सौख्यंमनोऽनुकूलं सततं जनेभ्यः // 31 // अर्थ-सन्त पुरुषों की वाणी विद्वज्जन मनोमोहक होती है. प्रकाण्ड जुष्टअनेक अध्यायों में वह विभक्त होती है और सुरस और अर्थ से वह सेव्य होती है अतः वह कल्पलता के समान मनुष्यों के मनको रुचती है और उस. से उन्हें निरन्तर सुख की प्राप्ति होती रहती है. यहां सन्त पुरुषों की वाणीको कल्पलता के समान प्रकट की है, कल्पलता सुमनों से-पुष्पों से सुन्दर लगती है तब कि सज्जनों की वाणी विद्वज्जनों के मनको मोहित करनेवाली होती है प्रकाण्ड शब्द का अर्थ लता पक्षमें उस भागका है, कि जहां से अनेक मूल शाखाएँ उत्पन्न होती हैं वाणी पक्षमें इस शब्द का अर्थ अध्याय पर्व आदि रूप है. और सुरसार्थसेव्य शब्द का श्रेष्ठ रस और अर्थ से वह युक्त होती है ऐमा अर्थ होता है. कल्पलता के पक्षमें सुर देवों के सार्थ-समूह से वह सेवा के योग्य होती है // 31 // સંતપુરૂષોની વાણી વિદ્વાન પુરૂના મનને મેહ ઉપજાવનારી હોય છે. અનેક અધ્યાયમાં તે વહેંચાયેલ હોય છે, તથા સુરસ અને અર્થથી તે સેવવા યોગ્ય હોય છે. તેથી તે કલ્પલતાની માફક મનુષ્યોને રૂચિકર હોય છે. અને તેનાથી તેને હંમેશાં સુખની પ્રાપ્તિ થતી રહે છે. અહીં સંતપુરૂષની વાણુંને કલ્પલતા સરખી જણાવેલ છે. કલ્પલતા પુષ્પોથી સુંદર લાગે છે, ત્યારે સજજનોની વાણી વિદ્વજનના મનને મોહિત કરનારી હોય છે, પ્રકાડ શબ્દનો અર્થ લતા પક્ષમાં જ્યાંથી તેની અનેક મૂળ શાખાઓ પ્રગટ થાય છે. तेने हे छ. मने पाणी पक्षमा 2 // शनी // २६याय 5 635 छे. मुरसार्थ સેવા શબદનો અર્થ શ્રેષ્ઠ રસ અને અર્થ થી યુક્ત થાય છે. ક૫લતા પક્ષમાં સુર એટલે દેના સાથી એટલે સમૂહથી તે સેવવાને ગ્ય હોય છે. તેમ થાય છે. 31 विपत्तिकालेऽप्यबलम्ब्य धैर्य परोपकारं कुरुते वचोभिः / विधुतुदेनेह विधुः करैः किं न गृह्यमाणस्तनुते प्रकाशम् // 32 // Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते ___ अर्थ-सजन पुरुष यदि विपत्ति पतित भी हो जावे तो वह अपने धैर्यको नहीं डुबाता है प्रत्युत उलका दृढता के साथ अवलम्वन करके वह अपनी वाणी द्वारा ही अन्य जीवों की भलाई करने में लगा रहता है. जैसे-राहु के द्वारा ग्रहण किया गया चन्द्रमा चन्द्र जब राहु से ग्रसित हो जाता है-तब भी वह दुनियां को अपनी किरणों द्वारा प्रकाश देकर मार्ग प्रदर्शन करता है // 32 // સજજન પુરૂષ ને કદાચ વિપત્તિ પણ આવી જાય તો પણ તે પિતાની ધીરજને છોડ નથી. પરંતુ તેને વિશેષ દૃઢતાથી ધારણ કરીને તે પિતાની વાણી દ્વારા જ અન્ય જીવેનું ભલું કરવામાં જ લાગ્યા રહે છે. જેમ રાહુ દ્વારા રાસાયેલ ચંદ્રમા અર્થાત્ ચંદ્ર રાહુથી ગ્રસ્ત થાય તે પણ તે જગત ને પિતાના કિરણો દ્વારા પ્રકાશ આપીને માર્ગદર્શક થાય છે. ૩રા सन्तः कियन्त सन्ति नुश्शं कुर्वन्ति कृत्वा परतापजस्य / लोके परिभ्रम्य सुवंशजा स्वं दुःखस्य शांति व्य जनेन तुल्याः॥३३॥ अर्थ-सभीजन सत्पुरुष नहीं होते वे तो गिनती के ही होते हैं अत: जिस प्रकार "सुवंशजाः” अच्छेवांसका बना हुवा पंखा अपने को घुमाकर प्राणियों को गर्मी के तापसे जन्य दुःखकी शान्ति करता हैं और उन्हें सुखी करता है, उसी प्रकार सुवंशज खान्दानी कुलीन संत पुरुष-भी लोक में इधर उधर विहार करके दुर्जन द्वारा दिये दूसरों के दुःखो की निवृत्ति करता है और उन्हें शांति पहुंचाताहै // 33 // च्या सत्५३षो साता नथी ते तो गत्रीनीय , तेथी र प्रमाणे सुवंशजाः સારા વાંસનો બનેલ પંખો પતે ફેર ફરીને પ્રાણિને ગર્મિના તાપથી ઉત્પન્ન થતા દુઃખોથી શાંત પમાડે છે. અને તેમને સુખી કરે છે. એ જ પ્રમાણે સારા વંશમાં ઉત્પન્ન થયેલ કુલીન સંત પુરૂષ પણ જગતમાં જયાં ત્યાં વિહાર કરીને દુર્જન દ્વારા આપવામાં આવેલ બીજાના દુખ ને મટાડે છે, અને તેઓને શાંતિ પહોંચાડે છે. 33 मनोऽस्य मन्थे ऽशनि कद्धयमेयं विपत्तिकाले न भङ्गमेति / / अणुप्रमाणेऽपि परस्य दुःखे मृणाल सन्तोरपि पेशलस्यात् // 34 // अर्थ-मैं ऐसा मानताहूं कि सज्जनका अन्तः करण कर्म ने वज्र का बनाया है इसीलिये वह आपत्ति काल में विचलित नहीं होते। पर जब दूसरों पर आई हुई आपत्ति को वह देखता है, तब वह मृणाल के तन्तु से भी अधिक कोमल बन जाया करता है // 34 // હું એવું માનું છું કે સજજનનું અંતઃકરણ કમેં વજનું બનાવેલ છે, તેથી તે Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः આપત્તિના સમયમાં વિચલિત થતું નથી. પણ જયારે બીજાઓ ઉપર દુઃખ આવેલ તેઓ જુવે છે, ત્યારે તેઓ કમલના તખ્તથી પણ વધારે કમળ બની જાય છે. 34 अहर्पतिनापि दिवस्पतिश्च बृहस्पतिनास्य समो महेशः / संतापिगुत्वाच्च सविक्रियत्वाददृश्यभावादसमीक्षत्वात् // 35 // अर्थ:-संतापयुक्त किरणावाला होने से सूर्य विक्रियायुक्त होने से इन्द्र अदृश्य होने से बृहस्पति और विषम दृष्टिवाला होने से महेश सन्त पुरुष की बराबरी नहीं कर सकता है, क्यों कि सन्त पुरुष सदा शीतल वाणीवाले विक्रिया हीन और दृश्य स्वभाववाले होते हैं एवं सबजीवों पर समदृष्टिवाले होते हैं // 35 // સંતાપ જનક કિરણવાળા હેવાથી સૂર્ય, વિક્રિયા યુક્ત હેવાથી ઇંદ્ર, અદૃશ્ય હેવાથી બહપતિ અને વિષમ દષ્ટિવાળા હોવાથી મહેશ સંતપુરૂષની સરખામણી કરી શકતા નથી. કેમ કે સંતપુરૂષ સદા શીતલ વાણીવાળા વિદિયારહિત અને સઘળા જી પ્રત્યે સમ દષ્ટિના સ્વભાવવાળા છે. રૂપા नितान्तरागालु दयालु शान्तं कृतान्तकान्तं विमलं विशालम् / विकारभावोज्झितमस्ति लोके चेतश्चमत्कारिसताहि चित्तम् // 36 // अर्थ-संत पुरुष का चित्त अत्यन्त दयासे द्रवित बना रहता है. वह सब जीवों से प्रेम करता है. अगाध समुद्र के जैसा शान्त होता है. आगम ज्ञान से सुवा. सित आमोदयुक्त होता है तथा निर्मल एवं विकारभाव से विहीन होता है इसलिये लोक में वह उनका चित्त एक अनोखी वस्तु रूप माना गया है // 36 // સંતપુરૂષનું ચિત્ત દયાથી અત્યંત દ્રવિત બનેલું રહે છે. તે સઘળા જીવો પ્રત્યે પ્રેમ કરે છે. અગાધ સમુદ્રના જેવું શાંત હોય છે આગમના જ્ઞાનથી સુવાસિત હોય છે. તથા નિર્મળ અને વિકાર ભાવ વિનાનું હોય છે. તેથી લેકમાં તેમનું ચિત્ત એક अनामी १२तु३५ भानामा मावे छे. // 6 // किमस्ति बहुना कथनेन साध्यं पदार्थसार्थाः स्वनिसर्गसंस्थाः। प्रणिन्दय ऽसंस्तवनेन किं कैः प्रमुच्यते क्वापि निजः स्वभावः // 17 // ' अर्थ-अब सज्जन के सम्बन्ध में और अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है. क्यों कि प्रत्येक पदार्थ अपने 2 स्वभाव में स्थित है. दुर्जन की निन्दा करने से वह अपने स्वभाव को छोड देगा ऐसी आशा नहीं करनी चाहिये और न ऐसी आशा करनी चाहिये कि सजन अपनी प्रशंसा नहीं होने से अपने स्व Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहूचरिते भाव को छोड देगा क्योंकि जिस क जो स्वभाव है वह अपने स्वभाव को नहीं छोडता हैं // 37 // સજજનેના સંબંધમાં હવે વિશેષ કથનની આવશ્યક્તા નથી. કેમ કે-દરેક પદાર્થ પિતપોતાના સ્વભાવમાં રિત રહે છે, દુર્જનની નિંદા કરવાથી તે પિતાને સ્વભાવ છોડી દેશે તેવી આશા રાખવી નહીં કે સજજન પિતાની પ્રશંસા ન થવાથી પિતાને સ્વભાવ બદલી નાખે. કેમ કે-જેનો જે સ્વભાવ છે તે પિતાનો સ્વભાવ છોડતો નથી. ૩ળા खलस्य निन्दा नन सज्जनस्य कृना प्रशंसेनि मात्र काचित् / परं यथैवास्त्यनयोः स्वभावः प्रदर्शितोऽशेन गु: किमाभ्याम् // 38 // ___ अर्थ-खल और सज्जन के इस प्रकारके स्वभाव प्रदर्शन से मैंने खलकी निन्दा और सज्जन की किसी प्रकार की यहां प्रशंसा नहीं कि है. किन्तु जैसा इनका स्वभाव है, वैसा वह मैंने संक्षेप में प्रदर्शित किया है दूसरों की निन्दा और प्रशंसा से हमें कोई लाभ नहीं है // 38 // દુર્જન અને સજજનેના આ પ્રકારના સ્વભાવ બતાવીને મેં ખેલની નીંદા અને સજજનની કોઈ પણ પ્રકારની પ્રશંસા અહીં કરી નથી. પણ તેઓને જે સ્વભાવ છે તે મેં અહીં સંક્ષેપથી પ્રદર્શિત કરેલ છે. બીજાની નિંદા અને પ્રશંસાથી મને કોઈ પ્રકારની લાભ હાનિ નથી, પ૩૮ सतः स्वभावस्तु निसर्गजोऽयं विमुच्य यद् दुर्गुणमन्यदीयम् / गुणान् प्रशस्यान् हितकारिणोऽल्पानप्याददानस्य किमत्र वाच्यम् / 39 / अर्थ-सजन का यह जन्म जात स्वभाव होता है कि वह दूसरों में रहे हुए दुर्गुणों को छोडकर प्रशंसनीय एवं हितकारी उनके थोडे से भी गुणों को ग्रहण कर लेता है। ऐसे सजन के विषय में जितना भी कहाजावे थोडा है // 39 // સજજનોનો એ જન્મસિદ્ધ સ્વભાવ હોય છે કે–તેઓ બીજાનામાં રહેલા દુર્ગુણોને છોડીને પ્રશંસનીય અને હિતકર તેમના થોડા એવા પણ ગુણોને ગ્રહણ કરી લે છે. એવા સજજનોના સંબંધમાં જેટલું કહેવામાં આવે તેટલું થોડું જ છે. ફલો दोषान् समादाय गुणांस्त्य जन्तस्ते सन्त्यसन्तोऽपि च सन्त एव / दोषानपास्याददतो गुणाँस्ताँस्तत्सजनाद् दुर्जन एव साधुः // 40 // अर्थ-यद्यपि गुणों को छोडकर दोषोंको ग्रहण करनेवाला दुर्जन माना गया है, परन्तु दोषों को छोडकर केवल गुणों को ग्रहण करनेवाले उस सज्जन की अपेक्षा वह दुर्जन ही अच्छा है जो काव्यगत दुर्गुणों को चुन चुन कर ग्रहण करता है इससे काव्य में निर्दोषता आजाती है // 40 // Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः જોકે ગુણેને છોડીને દોષોને ગ્રહણ કરનારને દુર્જન માનવામાં આવેલ છે, પરંતુ દોષોને છોડીને કેવળ ગુણને ગ્રહણ કરનારા એ સજજનના કરતાં એ દુર્જનજ સારા છે. કે જે કાવ્યમાં રહેલા દુર્ગણોને વણીને બતાવે છે આનાથી કાવ્યમાં નિર્દોષપણું भाव छ. // 40 // चेतश्चमत्कारि तदेव काव्यं दोषोज्झिां स्यात्सगुणं धनुर्वा / दोषोज्झितं स्यादपि निर्गुणं यत्तन्नो तथा किंशुकमण्डलीव // 41 // अर्थ-चित्त में चमत्कार उत्पन्नकर देने वाला वही काव्य होता है जो धनुष की तरफ दोषहीन होता हुआ गुण सहित होता है जो काव्य दोष विहीन होने पर भी यदि निर्गुण है तो वह किंशुकमण्डली की तरह चित्त में चमत्कार का उत्पादक नहीं होता // 41 // ચિત્તમાં ચમત્કાર ઉત્પન્ન કરે એજ કાવ્ય કહેવાય છે. જે ધનુષની માફક દોષ વિનાનું હોવા છતાં ગુણ યુક્ત હોય છે. જે કાવ્ય દોષ રહિત હોવા છતાં પણ જો નિર્ગુણ હોય તો તે કિંશુક મંડળીની માફક ચિત્તમાં ચમત્કારનુ ઉત્પાદક થતું નથી. 41 संमृग्य सूक्ष्मेक्षिकया सदोषान्. गृह्णाति दुष्टश्च दुराशयेन / काव्यस्य निर्दोषनिबन्धनत्वात्तस्योपकार्येच विनिन्दकोऽपि // 42 // अर्थ-यद्यपि दुष्ट दुराशयके वशवर्ती होकर ही सूक्ष्म दृष्टि से ढूंढ 2 कर दोषों को पकडता है. अतः ऐसी स्थिति में वह काव्यमें निर्दोषता का साधक हो जाता है अतः वह विनिन्दक होता हुआ भी काव्यका बहुत बड़ा उपकारी ही होता है // 42 // ... દુર્જનો દરાશયને વશ થઈને જ સૂક્ષ્મદષ્ટિથી દોષોને ખેળી ખોળીને પકડે છે. એ સ્થિતિમાં એ કાવ્યમાં નિર્દોષપણના સાધક બની જાય છે. તેથી તેઓ નિંદા કરવાવાળા હેવા છતાં પણ કાવ્યમાં એક ઉપકારક જ થઈ જાય છે. જરા चिको र्षतस्यास्य विशुद्धेऽतो नमामि दोषैकशे खलाय / घृगावशायस्य कथाममेयं भवेत्कनिष्ठापि मुदे वरिष्ठा // 43 // .. अर्थ-इसलिये कर्तुमिष्ट इसचरित्र की विशुद्धि के निमित्त सर्व प्रथम में दोषोंपर ही एक दृष्टि रखनेवाले दुर्जन के लिये नमस्कार करता हूं क्योंकि इसकी कृपा के वश से ही मेरी यह छोटी सी कथा निर्दोष होती हुई सब के लिये आनन्द देनेवाली होगी // 43 // Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते તેથી કરવાને યોગ્ય આ ચરિત્રની વિશુદ્ધિ માટે સૌથી પહેલાં હું દ પ જ એક માત્ર દષ્ટિ રાખનારા દુર્જનને નમસકાર કરું છું. કેમ કે તેમની કૃપાથી જ મારી આ નાની એવી કાવ્ય રચના નિર્દોષ બનીને બધાયને આનંદદાયક બને. આવા वांसि रम्याणि महाकवीनां पुरातनानां महताऽऽदरेण / क्षमोऽस्म्यहं काव्यमिदं महायी कृत्याक्षमोवक्तुमपिहाविज्ञः // 44 // अर्थ-प्राचीन महाकवियों के रम्य-मनभावने-वचनों का बडे आदर-सहारा के साथ लेकर कहने के लिये असमर्थ हुआ मैं साधारण छद्मस्थ व्यक्ति इस काव्य के लिये कह सकने में समर्थ बन जाऊंगा // 44 // . - પ્રાચીન મહાકવિઓના મનને પ્રેરક વચનના ઘણુ જ આદરપૂર્વકના સહારાથી કહેવામાં અસમર્થ સાધારણ છરી જન એ હું આ કાવ્ય. કહેવામાં સમર્થ થઈ શકીશ ઇજા खला हसिष्यन्ति हसन्तु कामं यतश्चतेषां हृवृत्तिरीडा / सुखं समेष्यन्ति तथापि सन्तो निरीक्ष्य नव्यं चरितं सुहृत्त्वात् // 45 // ___ अर्थ-यद्यपि इस चरित्र को देखकर असहनशील होने के कारण दुर्जन हसेंगे तो अवश्य-पर इसकी हमें चिन्ता नहीं है -वे खूब हंसे क्यों कि उनकी चित्तवृत्ति ही ऐसी है परन्तु जो सत्पुरुष हैं वे तो सहृदय होने के कारण इस नवीन चरित्र का निरीक्षण कर के अवश्य ही सुखी होंगे // 45 // આ ચરિત્ર રચના જોઈને અસહનશીલ હોવાથી દર્શને જરૂર હસશે પરંતુ તેની અમે ચિંતા કરતા નથી. તેઓ ભલે ખૂબ હસે કેમ કે તેઓની ચિત્તવૃત્તિ જ એવી છે. પરંતુ જેઓ સંપુરૂષો છે, તેઓ સરળ હૃદયવાળા હોવાથી આ નવીન ચરિત્રનું નિરીક્ષણ કરીને જરૂર પ્રસન્ન થશે. ૪પા विज्ञाः खलैर्वा यव्यथितः स्वकार्य प्रारभ्यमाणं न जहाति नूनम् / कि मत्कुणानां दशनाभिघातात् कदर्थितः कोऽपि भनक्ति खट्वाम् // 46 // अर्थः-सजनपुरुष चाहे कितने भी दुष्टों के द्वारा व्यथित किये जावे पर वे अपने प्रारंभ किये गये कार्य को नहीं छोड़ते हैं। क्या कोई व्यक्ति खटमलों के काटने से दुःखित होकर अपनी खाट को तोड देता है ? नहीं // 46 // સજજન પુરૂષો ગમે તેટલા દુષ્ટજનોથી પીડા પામે પરંતુ તેઓ પોતે પ્રારંભ કરેલા કાર્યને છોડતા નથી શું કઈ પણ વ્યક્તિ માકડના કરડવાથી પિતાના ખાટલાને ભાંગી નાખે છે? નથી જ તોડતા 46 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः धन्या धरा सा कविभिः प्रजुष्टा कृतिप्रिया शिष्टजनैश्च येषाम् / मान्या सुभोग्या सुरसार्थसेव्या सुवर्णसवृत्तसुमौक्तिकाढया // 47 // अर्थ-जिनकी कविता रूपी कामिनी शिष्टजनों द्वारा अच्छी तरह भोगने योग्य होती हुई मान्य होती है. सुरस एवं अर्थ रूप देव समूह जिसकी सेवा करते हैं, अच्छे 2 वर्ण और निर्दोष वृत्तछन्द रूप मोतियों से जो अलंकृत रहती है. ऐसे कवियों से जो धरा सुशोभित होती है वह धरा धन्य है // 47 // જેમની કવિતારૂપી સ્ત્રી શિષ્ટજનો દ્વારા સારી રીતે ભેળવવાને ગ્ય બનીને માનનીય બને છે. સુરસ અને અર્થરૂપ દેવસમૂહ જેમની સેવા કરે છે, સુવર્ણ અને નિર્દોષ છત્વરૂપી મોતીથી જે અલંકાર વાળી રહે છે, એવા કવિયથી જે ભૂભાગ સુશોભિત હોય છે તે ધરાને ધન્ય છે 47 सौभाग्यवद्धयस्ति सतः सभावोऽसतश्च वैश्वानखत्तयोनः / मध्ये स्थितः काञ्चनशुद्धि मिद्धा माप्नोत्वयं काञ्चनवत्प्रवन्धः // 48 // अर्थः-सज्जन का स्वभाव सुहागा के समान होता है और दुर्जन का स्व. भाव अग्नि के समान होता है इन दोनों के बीच में यह हमारा प्रबन्ध स्थित है अतः सुहागा और अग्नि के बीच में रहकर जिस प्रकार सुवर्ण अनिर्वचनीय शुद्धि को प्राप्तकरलेता है. उसी प्रकार यह हमारा प्रबन्ध भी उस शुद्धि को प्राप्त करने वाला बने // 48 // સજજનોને સ્વભાવ સુહાગા જે હોય છે, અને દુર્જનનો સ્વભાવ અગ્નિના જેવો હેય છે. આ બેઉની મધ્યમાં અમારો આ પ્રબંધ રહેલ છે તેથી સુહાગા અને અગ્નિની વચમાં રહેલ સેનું જેમ શુદ્ધિને પ્રાપ્ત કરી લે છે એજ રીતે આ અમારી રચના પણ નિર્દોષ બનીને પ્રકાશિત રહેશે 48 अथास्ति वृतः पृथितः पृथिव्यां स्व कीर्तिकान्त्यार्पित दैत्यभारः। सुराद्रिमध्यो लवणाधिवप्रः द्वीपः स जम्बूपपदो विशालः // 49 // ___ अर्थ:-इस पृथिवी पर जम्बूद्वीप नामका एक विशाल द्वीप है. जो गोल है. इसके ठीक बीच में सुमेरुपर्वत है यह चारों ओर लवण समुद्र से घिरा हुआ है. इसकी कीर्ति और कान्ति के आगे स्वर्ग की कीर्ति और कान्ति बिलकुल फीकी प्रतीत होती है // 49 // આ પૃથ્વી ઉપર જબૂદ્વીપ નામનો એક વિશાલ દ્વીપ છે જે ગોલાકાર છે. તેની બબર મયમાં સુમેર પર્વત આવેલ છે. તે ચારે તરફ લવણ સમુદ્રથી ઘેરાયેલ છે. તેની કીર્તિ અને કાન્તિની આગળ સ્વર્ગની કીર્તિ અને કાતિ બિલકુલ ફીકી જણાય છે. 49 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहरिते द्वीपान्तरश्रेण्युपरिस्थितोऽसावुद्यम्य यो नाकि नगोत्तमाङ्गम् / विभाति पश्यन्निव दिग्गतांस्तान दीपान स्वलक्ष्म्यैव विलज्जितांस्तान् // 50 // अर्थ:-यह द्वीप समस्त और अनेक द्वीपों के मध्य में रहा हुआ है. अतः यह अपने सुमेरु पर्वतरूपी मस्तक को उठाकर अन्य दिशाओं में वर्तमान उन 2 द्वीपों को जो कि इसकी शोभा से लजित हो गये हैं. देख ही न रहा हो मानो ऐसा प्रतीत होता है. // 50 // આ દ્વીપ અનેક દ્વીપની મધ્યમાં રહેલ છે. તેથી તે પિતાનાં સુમેરૂ પર્વત રૂપી મસ્તકને ઉંચું કરીને અન્ય દિશાઓમાં આવેલા તે તે દ્વીપને કે જે આની શોભાથી લજા પામી મને જોઈ જ રહ્યા હોય તેમ ખાત્રિ થાય છે. આપણે जिनाभिषेकाय सुराङ्गनाभिः सुरैश्च शच्येह सहागतस्य / शतक्रतोर्मेरुपदेन दत्तो द्वीपश्रिया दोष इवाश्रयो वा // 51 // .. . अर्थ:-जिनेन्द्र का अभिषेक करने के लिये देवाङ्गनाओं देवों एवं शची के साथ आये हुए इन्द्र को मानों जम्बूद्वीप श्री ने मेरु के बहाने से स्वर्ग से उतरते समय हाथका सहारा ही दिया है / यह प्रथम कल्पना सुमेरुपर्वत के विषय में की गई है. जब कोई ऊची जगह से नीचे को उतरता है तो उसे सहारेकी आवश्यकता होती है. इसी भाव को लेकर यह कल्पना की गई है // 51 // જીતેન્દ્ર દેવને અભિષેક કરવા માટે દેવાંગનાઓ, દે અને ઈંદ્રાણિની સાથે આવતા ઈન્દ્રને સ્વર્ગથી આવતી વખતે જાણે જંબૂઢીપે મેરૂના બહાનાથી હાથને સહારે આવે ન હોય ! આ પહેલી કલ્પના સુમેરૂ પર્વતના સંબંધમાં કરવામાં આવી છે. જયારે કોઈ ઉચેથી નીચે ઉતરે છે, ત્યારે તેને સહારાની જરૂર હોય છે. આ ભાવને લઈ આ કલ્પના કરી છે. પલા पतेनिरालम्बतया नभश्चच्छ्रीरस्मदीयाऽपि विनङ्ख्यतीव / येनाद्रिदंभादिनिवेशितः खे तत्पातभीत्याश्रयदण्ड एव // 52 // अर्थ:-आकाश निरालम्ब है अतः यदि वह गिर पडता है तो हमारी शोभा नष्ट हो जावेगी अतः आकाश के गिरने के डर से ही मानों जम्बूद्वीप ने उस आकाश को थामने के लिये मानों सुमेरु के व्याज से झेकी (थम्बा) ही लगाई है. मकान के ऊपर के भाग के जब गिरने का अंदेशा होता है तो लोग उसे थामने के निमित्त झेकी लगा दिया करते हैं-इसी आशयं से यह दूसरी कल्पना सुमेरु पर्वत के सम्बन्ध में की गई है // 52 // Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः આકાશ આલંબન વગરનું છે. તેથી જે પડી જશે તો મારી શોભા નાશ પામશે તેમ આકાશના પડવાના ભયથી જ જાણે જંબૂઢીપે એ આકાશને રોકવા માટે સુમેરૂના બાનાથી ટેકો (થાંભલ) મૂક્ય ન હોય તેમ જણાય છે. મકાનના ઉપરના ભાગને પડવાની શંકા થાય ત્યારે લેકે તેને રોકવા માટે ટકે લગાવે છે. એ હેતુથી આ બીજી કલ્પના સુમેરૂ પર્વતના વિષયમાં કરવામાં આવેલ છે. પરા अहोऽनुरक्तो भविता प्रतप्तो जातः पुरो मे सवितामयीतः मानोन्नतेनाद्रिभिषेण तेने तेनेjयेवावृत्तिरित्यजिह्मा // 53 // अर्थः-सुमेरुपर्वत इतना ऊंचा क्यों है ? इस सम्बन्ध में यह तीसरी कल्पना जम्बूद्वीप विचारता है, की जो सूर्य मेरे समक्ष यहां से उत्पन्न हुआ है. अब वही मेरे ऊपर लाल होकर तपेगा सो इल से मानों अभिमान के वशवर्ती होकर जंम्बूद्वीपने सुमेरू पर्वत के छल से क्या अपने ऊपर सीधी छत्री सी तान ली है ? सारांश सूर्य के तापसे बचने के लिये छत्ते का प्रयोग होता ही है // 53 // સુમેરૂ પર્વત આટલો ઉંચો કેમ છે? તેના સંબંધમાં આ ત્રીજી કલ્પના છે. કે જંબૂદ્વીપ એવું વિચારે છે કે- જે સૂર્ય મારી સામે અહીંથી જ ઉત્પન્ન થયેલ છે તેજ સૂર્ય લાલ થઈને મારી ઉપર તપશે તેવી ઈર્ષોથી અભિમાનને વશ બનીને જંબૂદ્વીપે સુમેરૂ પર્વતના બહાનાથી શું પોતાની ઉપર છત્રી તાણી લીધી છે? સારાંશ એ છે કે– સૂર્યના તાપથી બચવા માટે છત્રીનો પ્રયોગ થાય જ છે. પણ धत्तेऽऽन्तरं मे वियतश्चमध्ये कियद्भवेद्वेति बुभुत्सया यः सुचिह्नितं सौमनसादिभिस्तैर्मरुन्मिषेणैव च मानसूत्रम् // 54 // ... अर्थ-मुझ में और आकाश में कितना अन्तर है इस बात को जानने कि इच्छा से ही मानो क्या सौननस आदि वनों के चिह्नोंवाला मानसूत्र सुमेरुपर्वत के छल से जंबूद्वीपने धारण किया है प्रमाणसूत्र से हो ती अन्तर दो वस्तुओं का जाना जाता है यह चौथी कल्पना है // 54 // મારામાં અને આકાશમાં કેટલું અંતર છે, એ વાત જાણવાની ઈચ્છાથી જ જાણે કે શું સૌમનસ વિગેરે વનોના ચિહ્ન વાળું માપસૂત્ર સુમેરૂ પર્વતના બાનાથી જંબૂદીપે ધારણ કરેલ છે પ્રમાણ સૂત્રથી જ બે વસ્તુનું અંતર જાણવામાં આવે છે. 54 स्वपादप रसकृञ्चसाधो ! कृतं कृतार्थ गृहमस्मदीयम् / पुरातनैस्तैस्त्वद्वंशजैस्तैरायेन्द्र ! निवृतिपुरी प्रयातैः // 55 // Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते त्वदेयमप्यार्य ! मुमुक्षुणा नौ कुलकमेणानुगतं सुसख्यम् / / पाल्यं समादाय तदीयमित्थं वृत्तं दिवं गच्छति मेरुदतः / / 56 // अर्थ:-जंबूदीप ने सुमेरुपर्वतरूप दूत के द्वारा सौधर्म इन्द्र के पास क्या ऐसा समाचार भेजा है-हे साधो ! आयेन्द्र ! तुम्हारे वंशजों ने जब वे मोक्ष. रूपी नगरी में जाने के लिये अग्रसर हुए तो पहिले अपने चरण कमलों से कई बार हमारा घर पवित्र किया है स्वर्गीय स्थिति समाप्ति होने पर उन्होंने यहां जन्म धारण किया है अतः हे आर्य ! मोक्षाभिलाषी आपको भी हम दोनों के कुलकम से चली आई इस मित्रता का पालन करना चाहिए-इस प्रकार के जम्बूद्वीप के संदेश को लेकर ही मानों मेरुपर्वत रूपी दूत क्या स्वर्ग की ओर बढ़ रहा है ? // 55-56 // જંબુદ્વીપે સુમેરૂ પર્વત રૂપ દૂત દ્વારા સૌધર્મ ઈદ્રની પાસે શું એવા સમાચાર મોકલ્યા છે કે હે સાધુ! તમારા વંશએ કે જ્યારે તેઓ મેક્ષ રૂપી નગરીમાં જવા માટે અગ્રેસર થયા ત્યારે પહેલાં પિતાના ચરણ કમળોથી કેટલીય વાર અમારું ઘર પવિત્ર કરેલ છે. વગીય સ્થિતિ સમાપ્ત થાય ત્યારે તેઓએ અહીં જન્મ ધારણ કરેલ છે, તેથી હે આર્ય ! મેક્ષાભિલાષિ આપે પણ આપણે બેઉના કુલ કમથી ચાલતી આવેલ આ મિત્રતાનું પાલન કરવું જોઈએ. આ પ્રમાણેના જંબૂદ્વીપના સંદેશાને લઇને જ મેરૂ પર્વત રૂપી દૂત શું સ્વર્ગની તરફ વધતું રહે છે? પપ–પદા प्रवादि संकल्पितलोकरूपं सम्यङ् नवास्तीति विलोकनाय / सूक्ष्मेक्ष्मिकातो युगलेन्दु सूर्य व्याजाद्दधातीव सदोपनेत्रे // 57 // अर्थः-अन्य सिद्धान्तकारों ने जो लोक का स्वरूप माना है, वह ठीक है, या नहीं इस बातको सूक्ष्मदृष्टि से जांच करने के लिये ही मानों जंम्बूद्वीप ने दो सूर्य और दोचन्द्र के छल से अपनी आखों पर दो चश्मा लगाये हैं // 57 / / અન્ય સિદ્ધાંતકારોએ જે જગતનું સ્વરૂપ માનેલ છે. એ ઠીક છે, કે નહીં એ વાતને સૂક્ષ્મ દષ્ટિથી જોવા માટે જ જાણે કે જંબૂદ્વીપે બે સૂર્ય અને બે ચંદ્રના બાનાથી પિતાની આંખ ઉપર બે ચશ્મા લગાવેલ છે. પછી षडायताः सन्ति नगाश्च सप्त क्षेत्राणि नद्योऽत्र चतुर्दशाढ्याः / वनैर्भयाढयोऽपि सदास्थिरो यो लक्ष्म्यालयो योजन लक्षमाणनः॥५०॥ अर्थः-इस जबूद्वीप में पूर्व से पश्चिमतक लम्बे 6 कुलाचल पर्वत हैं. भरत आदि सात क्षेत्र हैं एवं गंगा आदि चौदह बडी 2 नदियां हैं जो सदा जल से भरी रहती हैं यह द्वीप "भयाढयोऽपि" भय से परिपूर्ण है फिर भी सदा स्थिर Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः है-यह तो विरुद्धबात है. जो भयाढय होता है यह सदा स्थिर नहीं होता है तो इसके परिहारार्थ इन पदोंका ऐसा अर्थ करना चाहिये कि यह द्वीप "मया" 'अपनी अनुपमकान्ति से "आढय" परिपूर्ण है और अविनाशी है. तथा लक्ष्मी का यह भंडार है. और इनका एक लाख योजन का विस्तार है. // 58 // આ જંબૂદ્વિપમાં પૂર્વથી પશ્ચિમ લાંબા છ કુલાચલ પર્વતે છે. ભરત વિગેરે સાત ક્ષેત્ર छ. मनेगविगेरे यो मोटीनही या छे. सहारथी भरेसी छ. मादीय 'भयाढयोऽपि' ભયથી આઢય પરિપૂર્ણ છે, તે પણ સદા રિથર છે, આ તે પરસ્પર વિરૂદ્ધ વાત છે, કારણ કે જે ભયાઢય હોય છે, તે સદા સ્થિર હોતું નથી. તે તેના નિવારણ માટે આ पहानी मेव। म 2 ले/मे मा 65 'मया' पातानी अनुपम तिथी 'आदय' પરિપૂર્ણ છે, અને અવિનાશિ છે. તથા લક્ષ્મીને આ ભંડાર છે. અને આને એક લાખ જનને વિસ્તાર છે. 58 नद्यम्बुतैलाञ्चित विस्तृतान्तः सुमेरुशृङ्गो रुदशोऽर्य मेन्दु / प्रभाभरोऽसौ गगनाञ्जनश्रीः स्वोतितुं दीप्यतिदीपरूपः // 59 / / .. अर्थः-चमकीले रूपवाला यह जम्बूद्वीप कि जिसमें नदियों का जलरूप तैल भरा हुआ है, सुमेरु पर्वत का शिखर ही जिसकी विस्तृत बत्ती है सूर्य और चन्द्रमा ही जिसकी प्रभा है, और आकाश ही जिसकी अंजन श्री है स्वर्ग को कि जहां चन्द्र और सूर्य नहीं है प्रकाशित करने के लिये दीपक के जैसा प्रतीत होता है // 59 // ચમકદાર રૂપવાળો આ જંબૂઢીપ કે જેમાં નદીનું જલ રૂપી તેલ ભરાયેલું છે, સુમેરૂ પર્વતનું શિખર છે જેની વિરતાર યુક્ત બત્તિ છે, સૂર્ય અને ચંદ્રમા જ જેમની પ્રભા છે, અને આકાશ જ જેમની અંજન રૂપી શોભા છે, જ્યાં ચંદ્ર અને સૂર્ય નથી એવા સ્વર્ગને પ્રકાશ યુક્ત કરવા માટે દીવાના જે જણાય છે. પલા युग्मम् वदान्यताऽधस्कृतकल्पवृक्षःजनैः सदाचारपवित्रिताहैः / धन्यैः सुमान्यैः सुरतुल्यरूपैः श्रिया समालिङ्गितचारुवेषैः // 60 // निःसेविते स्वर्गनिभे पवित्र तीर्थंकरोत्पत्ति विशिष्टशिष्टेः देशोऽस्त्यमुष्मिन् खलु भारताख्यो द्वीपे विवस्वानिव चान्तरिक्षे // 61 // . अर्थ-अपनी दानशीलता से जिन्हों ने कल्पवृक्षों को भी अल्प करदिया है ऐसे मान्य धनि पुरुषों से कि जिनके शरीर का प्रत्येक अंग सदाचार से Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहपरिते पवित्र है. जो देवताओं के जैसे रूप से विशिष्ट हैं एवं जिनकी वेषभूषा विभव के अनुरूप है जो सेवित हैं तथा तीर्थंकरों कि उत्पति से जिसको विशिष्ट महिमारूप गरिमा बडी चडी है ऐसे स्वर्ग के जैसे इस जम्बूद्वीप में आकाश में सूर्य की तरह भरत नाम का एक क्षेत्र है // 60 // 61 // . પિતાની દાનશીલ પરાયણતાથી જેમણે કલ્પવૃક્ષને પણ નીચા પાડી દીધા છે. એવા માનનીય ધનવાનું પુરૂષથી કે જેમના શરીરના દરેક અંગ સદાચારથી પવિત્ર છે, જેઓ દેવતાઓના જેવા રૂપથી શોભિત છે, અને જેમની વેષભૂષા પિતાની સંપત્તિને અનુરૂપ છે, તથા તીર્થકરોની ઉત્પત્તિથી જેમનું વિશેષ પ્રકારના મહિમા રૂપ મોટાપણું વિરતાર પામ્યું છે, એવા વર્ગના જેવા આ જંબૂદ્વીપમાં આકાશમાં સૂર્યની માફક ભરત નામનું में क्षेत्र छे. // 10 // तदक्षिणस्यां दिशि वर्तमानो देशोऽस्त्ययं प्राणिगणेः प्रपूज्यः / यतोहि कांक्षन्ति सुरा अपीमं नृजन्मनेस्वात्महिताभिलाषात् // 62 // ___ अर्थ-यह भरत क्षेत्र सुमेरु पर्वत की दक्षिण दिशा में है प्राणि गणों की दृष्टि में इसकी बडी प्रतिष्ठा है क्यों कि देवता गण भी अपने हित की अभिलाषासे इसमें मनुष्य जन्म लेना चाहता है / तात्पर्य इसका यह है कि भोग भूमि के अन्त होने पर जब यहां चतुर्थ काल प्रारंभ होता है-तब यहां से मुक्ति का मार्ग खुल जाता है अतः देवता भी यह चाहते हैं कि कब हम भरतक्षेत्र में मनुष्य जन्म धारण करें और मुक्ति प्राप्त करें // 62 // આ ભરત ક્ષેત્ર સુમેરૂ પર્વતની દક્ષિણ દિશામાં છે. જનતાની દષ્ટિમાં આનુ મોટું મહાભ્ય છે. કેમ કે દેવ સમૂહ પણ પોતાના હિતની કામનાથી આમાં મનુષ્ય જન્મ લેવા ચાહે છે, આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે ભગભૂમિને અંત થાય ત્યારે જ્યારે અહીં ચોથે કાળ પ્રારંભ થાય છે, ત્યારે અહીંથી મુક્તિનો માર્ગ ખુલ્લે થાય છે. જેથી દે પણ એવું ઈચ્છે છે કે અમને ભરતક્ષેત્રમાં મનુષ્ય જન્મ કયારે પ્રાપ્ત થાય કે જેથી મુક્તિ પ્રાપ્ત કરી શકીએ. 6 રા क्षेत्रं समईया परिपूर्णमेतत्समस्ति तदारतनामधेयम् / मन्दाकिनी सिन्धु तरङ्गिण्यद्रिविभक्तं षट् खण्ड सुमण्डितं यत् // 63 // अर्थ-यह भरत क्षेत्र सब प्रकार की ऋद्धि से परिपूर्ण है इसके गंगा और सिन्धु नदी से वैताढय पर्वत के विभक्त हो जाने से 6 खण्ड हो गये हैं उन 6 खंडो से यह क्षेत्र अलंकृत है / भरत क्षेत्र के ठीक बीचमें वैताढय नामका पूर्व से पश्चिम में लंबा एक पर्वत गंगा और सिन्धु ये दो नदियां भरत क्षेत्र में Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः हिमवन् पर्वत के पद्मद्रह से निकल कर वैताढ्य पर्वत से नीचे होकर इस क्षेत्र में बहती हैं इसलिये इसके 6 खण्ड हो गये हैं // 63 // આ ભરતક્ષેત્ર બધા પ્રકારની ઋદ્ધિથી પરિપૂર્ણ છે, તેના ગંગા અને સિધુ નદીથી વૈતાઢય પર્વત વિભક્ત થવાથી છ ખંડ થયેલા છે. એ છ ખંડોથી આ ક્ષેત્ર સુશોભિત છે. ભરતક્ષેત્રની બરાબર મધ્યમાં તાઢય નામનો પૂર્વથી પશ્ચિમમાં લાંબે એક પર્વત છે. ગંગા અને સિધુ એ બે નદીઓ ભરતક્ષેત્રમાં હિમવાન પર્વતના પદ્મસરોવરથી નીકળીને વૈતાઢય પર્વતથી નીચે થઈને આ ક્ષેત્રમાં થઈને વહે છે. તેથી તેના છ ખંડો થઈ ગયા છે. છેલ્લા सीमोपरिह्यस्य विराजमान: पूर्वापरौ तोयनिधीवगाह्य / विशोभते पद्मजलाशयाङ्कः शैलाधिराजोहिमवान सुशैलः // 64 // ... अर्थ-इस भरत क्षेत्र की सीमा के ऊपर हिमान् पर्वत है. यह पर्वत पूर्व से पश्चिम तक लंबा है. अतः अपने आगे पीछे के किनारों से पूर्व समुद्र और पश्चिम के समुद्र को छू रहा है इस पर्वत के मध्य में पद्महूदनामका तालाव है // 64 // - આ ભરતક્ષેત્રની સીમાની ઉપર હિમવાન પર્વત આવેલ છે. આ પર્વત પૂર્વ પશ્ચિમ લાગે છે. તેથી પિતાના પૂર્વ પશ્ચિમના કિનારાથી પૂર્વ અને પશ્ચિમ સમુદ્રને સ્પર્શ કરીને રહેલ છે. આ પર્વતની મધ્યમાં પદ્મદ નામનું એક સુંદર તળાવ આવેલું છે. 64 अकृष्टपच्यैः कलमैश्च धान्यैरन्यैर्भूता यत्र लसन्ति वप्राः। क्वचिवचित पुड्वनालिसीमायुताः सदा माति कृषीवलानाम् // 65 // अर्थः-इस भरत क्षेत्र में ऐसे किसानों के खेत है जिनमें बोये गये और विना बोये गये धान्य निपजते हैं तथा इनके जो सीमा प्रदेश हैं वे कहीं कहीं गन्नों के वनों की पंकियों से सदा शोभित होते रहते हैं // 65 // આ ભરતક્ષેત્રમાં ખેડૂતોના એવા એવા ખેતરે છે કે જેમાં વાવવાથી અને વિના વાગે પણ ધાન્યની ઉત્પત્તિ થાય છે. તથા એન જે સીમા પ્રદેશ છે, તે ક્યાંક કયાંક શેરડીના વનેના સમૂહથી સદા શેભા પામ્યા કરે છે. 6 પા वृत्त्या परीताः परितः सुपाङ समन्ततःगोधनराजिरम्याः। ग्रामा अनेकेऽत्र लसन्ति सन्तो यथार्थिनां मोदितमानसान्ताः // 66 // ' अर्थ:-यहां पर अनेक ग्राम हैं वे कांटों की बांड से घिरे हुए हैं गोधनराजि से ये बड़े सुहावने लगते हैं, जिस प्रकार सज्जन सब के मनको प्रसन्न Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 लोकाशाहचरिते रखते हैं उसी प्रकार ये ग्राम भी हर एक याचक के मनको संतुष्ट रखते हैं / 66 // અહીં ઘણા નાના નાના ગામો છે, તે કાંસ વાળી વાડેથી ઘેરાયેલા છે. ગોધન સમૂળી તે ઘણું સહામણા લાગે છે. જેમ સજજનો બધાના મન પ્રસન્ન રાખવા ઇચ્છે છે, તે જ રીતે या गाभा पर हरे यायहीना भनने संताप मापे छ. // 66 // जनैः सदाचारविशिष्टशोभैः स्वभावतः सर्वमनोऽनुकूलैः / भद्र प्रकृत्या भरितैः श्रमेण कार्यगतै:वधिकैर शून्या // 67 // __ अर्थ:-इन ग्रामों के जन सदाचार से युक्त हैं अतः उनकी शोभा ही निराली हैं स्वभावतः ये आपस में सब के मनमाफिक काम करनेवाले होने से किसी को भी अपने प्रतिकूलवर्ती नहीं लगते हैं प्रकृति इनकी भद्र होती हैसंक्लिष्ट नहीं बडे परिश्रमी होते हैं इसलिये इनका शरीर कृश रहा करता हैं और ये अपना बोझा अपने आप उठाते हैं. // 67 // આ ગામને જનસમૂહ સદાચાર વાળો છે. તેથી તેની શોભા જ નિરાલી છે. સ્વભાવથી તેઓ પરસ્પર બધાના મનનુકૂળ કામ કરનારા હેવાથી કોઈને પણ પિતાનાથી પ્રતિકૂળ લાગતા નથી. તેમને સ્વભાવ ઉત્તમ છે. સંકુચિત નથી હોતું. ઘણી મહેનતુ હોય છે. તેથી તેમના શરીર ખડતલ હોય છે. અને તેઓ પોતાનો ભાર પિતે જ ઉઠાવે છે. તે છે विकस्वरेन्दीवरचारनेत्रा अचञ्चला भावहा कृशाङ्गयः / यत्राङ्गना दर्शकचित्तचौराः कान्ता मनोज्ञाः प्रतिसद्मनीह / 68 // ____ अर्थः-यहां पर घर घर की स्त्रियां चञ्चलता से विहीन है परिश्रमशील है। वायु से उन के शरीर स्थूल नहीं हैं-कृश हैं देखनेवाले के चित्त को ये सहसा अपनी ओर आकृष्ट कर लेती हैं. अतः मनोज्ञ है और इसके नेत्र दया से परिपूर्ण विकसित कमल जैसे सुहावने है / ऐसी स्त्रियां हर एक घर में यहां देखने को मिलती हैं // 68 // - આ ગામમાં દરેક ઘરની સિ ચંચલતા રહિત હોય છે, મહેનતુ છે જેથી વાતવિકારથી તેમના શરીર ધૂલ હેતા નથી. પરંતુ કૃશ હોય છે. જેનારાના ચિત્તને તે એકદમ પિતાના તરફ આકર્ષિત કરી લે છે. તેથી મને છે. તેઓના નેત્રે દયાથી પરિપૂર્ણ ખીલેલા કમળ જેવા સોહામણા લાગે છે. એવી સિઓ અહીં દરેક ઘરમાં જોવા મળે છે. છેલ્લા तत्रास्ति भूमण्डल मण्डनं वै आर्याभिधं मण्डलमुत्तमा / मङ्गेष्विवानंदितसेन्द्र मृद्धीद्ध घुमण्डलमण्डितं यत् // 69 // Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः अर्थ:-उस भरत क्षेत्र में एक आर्य खेतर नामका प्रदेश है. जो समस्त भूमण्डल का आभूषणरूप है. यहां के निवासी बहुत अधिक संपत्ति शाली है. अतः यह उस भरत क्षेत्र में समस्त अंगो में-उत्तमाङ्ग-मस्तक की तरह प्रधान माना गया है. इसे देखकर देवता भी प्रसन्न होते रहते हैं // 69 // આ ભરત ક્ષેત્રમાં એક આર્યક્ષેત્ર નામને પ્રદેશ છે. જે સઘળા ભૂમંડળના આભૂષણ સમાન છે. અહીં રહેનારાઓ ઘણી જ સંપત્તિવાળા હોય છે. તેથી તેઓ એ ભરત ક્ષેત્રના સઘળા અંગોમાં ઉત્તમાંગ મરતકની જેમ મુખ્ય માનવામાં આવેલ છે. તેને જોઇને દેવે પણ प्रसन्नता युत थाय छे. // 66 // .. इदैस्तडागैस्तटिनी तरङ्गस्तत्पल्वलैः पल्लवितान्तपार्श्वम् / धराधरैर्वृक्षचयैः प्रवृद्धशाखैः समन्तादुपचीयमानम् // 70 // अर्थः-इसके पार्श्व भागों के प्रान्त भाग हृद तडाग एवं नदि तटिनी कि तरङ्गों से अठखोलिया किया करता है. और वे पर्वतों एवं प्रवृद्धशाखावाले वृक्षों से चारों ओर से घिरे हुए रहते हैं. // 70 // તેની પાર્ધ ભાગોની નજીકના ભાગ તળો અને નદીના તરંગોથી અથડાયા કરે છે, અને તેનું પર્વ અને વધેલી શાખાઓવાળા વૃક્ષથી ચારે બાજુ ઘેરાયેલા રહે છે. આવા विभाति यत्रोत्पलपुल्लराजि प्रभातवाताहति कम्पमाना। सैकलुब्धानलिजालजालमान निषेधयन्तीव निजाङ्गदाने // 71 // - अर्थः-यहां के सरोवरों में जब कमलों की पंक्ति विकसित होती है और प्रभात की मलयानील जब उसे धीरे 2 कंपित करती है तो ऐसा प्रतीत होता है कि वह मानों रस के लोभी भ्रमर रूपी गुण्डों को अपना अङ्गदान करने का निषेध ही कर रही है / // 71 // - અહીંના સરોવરોમાં જયારે કમળોની પંક્તિ વિકસિત થાય છે, અને પ્રભાતને મલયનીલ જ્યારે તેને ધીરે ધીરે કંપિત કરે છે, ત્યારે એવું જણાય છે કે- રસના લેભી ભમરારૂપી ગુંડાઓને પિતાનું અંગદાન કરવાનો નિષેધ જ કરી રહેલ છે. આ૭ના सरोवरे पृच्छति पद्ममाला यत्रालिमाला ध्वनिलाञ्छनेन / कुत्र व्यतितेति तवार्यरात्रिः पादाँश्च संस्पृश्य रविं सकंपा // 72 // अर्थः-जहां पर सरोवरों में विकसित पद्ममाला भ्रमरों की झंकृतध्वनि के बहाने से सूर्य के पैरों को-किरणों को कंपती हुई मानों उससे यही पूछती है कि हे आर्य आपकी रात्रि कहां पर व्यतीत हुई है ? अर्थात् मेरे विना आपने रात्रि किस के साथ रह कर गवाई है ? // 72 // Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते જ્યાં સરોવરમાં વિકસેલ કમળ સમૂહ ભમરાઓના ગુંજનના બહાનાથી સૂર્યના ચરણેને અર્થાત કિરણનો સ્પર્શ કરીને કંપતા કંપતા જાણે તેને એ પૂછે છે કે- હે આર્ય આપે રાત્રી કયાં પસાર કરી ? અર્થાત મારો ત્યાગ કરીને આપે રાત્રી ની સાથે રહીને ગુમાવેલ છે? આકરા पादाञ्चलस्पर्शमवाप्य हृष्टाऽप्यंभोजिनी यत्र मिलिन्दनाथम् / निशावसानेऽपि तदन्यमग्नं रिरंसयाऽऽलिङ्गतिविमिमोहम् // 73 // अर्थः-जहां पर पाद के अग्रभाग का स्पर्श पाकर खुशी खुशी हुई विकसित हुई. कमलिनी अपने पति देव भ्रमर का जो कि निशा के समय में किसी दूसरों के साथ कुमुदिनी के साथ क्रीडा करता रहा, अब उसके अवसान होने पर रमण करने की इच्छा से आलिङ्गन कर रही है. ऐसे मोह को धिक्कार है॥७३॥ જ્યાં પગના અગ્રભાગને રપર્શ પામીને પ્રસન્ન થયેલ વિકસીત કમલિની પોતાના પતિદેવ ભમરાઓના કે જે રાત્રિના સમયે અન્યત્ર કુમુદિની સાથે ક્રીડા કરવા રહેલ અને હવે તે નષ્ટ થવાથી રમણ કરવાની ઈચ્છાથી આલિંગન કરી રહેલ છે, એવા મહિને ધિકાર છે. આ૭૩ यत्रानिशं नृत्यकलाविलासान् सरोजिनी दत्तपरागमूल्या। प्रभञ्जनाल्लोचन हारिणस्तान मुदेकृतेऽभ्यस्यति वा हिमांशोः // 74 // __ अर्थः-जहां पर सरोजिनी निरन्तर परागरूपी मूल्य देकर प्रभंजन से वायु से नेत्रों को आनन्द देने वाले-या उन्हें चुराने वाले नृत्य कला के विलासों को मानों अपने पति देव सूर्य को प्रमुदित करने के लिये ही सीख रही है // 74 // . यह कल्पना प्रातः काल की वायु से कंपित कमलिनी ऊपर की गई है। જ્યાં કમલિની નિરંતર પરાગ રૂપી મૂલ્ય આપીને પવન પાસેથી તેઓને આનંદ આપવા વાળી નૃત્યકળાના વિલાસને જાણે પોતાના પતિદેવને-સૂર્યને પ્રસન્ન કરવા માટે શીખે છે. આ કલ્પના પ્રાતઃકાળના પવનથી કંપાયમાન કમલિની ઉપર કરવામાં આવેલ छ. // 74 // निशासपत्न्याः सहवासतोऽसि त्वदीयमेवार्य विभिन्न कार्ण्यम् / न मे पदाद्याहतितो मिलिन्दं निष्कासयामास गृहाबहिःसा // 75 // अर्थ-हे आर्य ! तुम में जो यह अत्यन्त कालिमा लगी है वह मेरे सहवास के समय हुए पाद के आघात से नहीं किन्तु तुमने रात्रि रूपी मेरीसीत के साथ सहवास कियाहै उससे ही यह कालिमा लगी है. ऐसा कह कर ही मानों कमलिनीने मिलिन्दनाथ को अपने घर से बाहर निकाल दिया है कमल के बन्द Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः हो जाने पर भ्रमर भी उसके भीतर बन्द हो जाता है और प्रातःहोते ही कमल के खिलं जाने पर वह उस से बाहर उड़ जाता है इस पर यह कल्पना की गई है // 7 // હે આર્ય તમને જે આ અત્યંત કાળાશ લાગી છે, તે મારા સહવાસના સમયે થયેલા પગના આઘાતથી નહીં પરંતુ તમે રાત્રી રૂપી મારી શક્યની સાથે સહવાસ કરેલ તેનાથી જ તે થયેલ છે. આમ કહીને જાણે કમલીનીએ રાત્રિનાથને એટલે કે ભમરાને પિતાના ઘરથી બહાર કાઢી મૂક્યું. અર્થાત કમલના બંધ થવાથી ભમરે પણ તેની અંદર બંધ થઈ જાય છે. અને સવાર થતાં જ કમળના ખિલવાથી તે તેમાંથી બહાર નીકળી જાય છે. આના પર આ કલ્પના કરેલ છે. કપાસ विकस्बरोयलसंहतीनां छलेन लक्ष्म्याः क्षितिपण्डलेन / प्रसार्यते भांवरकान्तिजुष्टा किं स्वागतायैव विलोचनश्रीः // 76 / / अर्थ-जहां का भूमि मंडल विकसित कमल समूहों के छल से लक्ष्मी के स्वागतार्थ मानों भास्वर कान्ति वाले अपने नयनों की शोभा को बिछा रहा है // 76 // જ્યાંનું ભૂમિમંડળ વિકસેલા કમળ સમૂહના બહાનાથી લક્ષ્મીના સ્વાગત માટે ભાવાન કાતિવાળા પિતાના નેત્રની શોભાને જ પાથરી રહ્યા છે. આ૭૬ मनोरथान पूरयितुं क्षमायां वसुंधरायां मयिकोऽत्र निस्तः / विलोकितुं वृतमितीव मह्या दधेऽक्षिपंक्ति कमलच्छलेन 77 // अर्थ-मेरा नाम वसुन्धरा है. मै हर एक व्यक्ति के मनोरथों को पूर्ण करने के लिये समर्थ हूं तो इस प्रकार का शक्ति संपन्न मेरे रहते संते कोई निर्धन तो नहीं है इसी वृत्त समाचार को जानने के लिये ही मानों पृथवी ने कमल के बहाने से नेत्रपंक्ति धारण की है // 77 // મારું નામ વસુંધરા છે, હું દરેક વ્યક્તિના મનને પૂર્ણ કરવા માટે સમર્થ છું આવા પ્રકારની શક્તિવાળી હું હોવાથી કોઈ નિર્ધન નથી. આ સમાચાર જાણવા માટે પૃથ્વીએ કમળના બહાનાથી નેત્ર પંક્તિ ધારણ કરી છે. આ૭ળા पद्मानि नैतानि विजृम्भतानि प्रसारितान्येव भुवा / नीकृत्य चक्षुषि विलज्जितानि दृष्टुंश्रिया कुत्रदिगन्त समुत्तराणि / 78|| अथ:-ये विकसित कमल नहीं हैं किन्तु पृथिवी ने अपने नेत्र ही ऊंचे करके पसार रखें हैं और ये इस बातको देखने के लिये पसारे हैं कि हमारी शोभा से या अभ्युदय से विलज्जित हुए दिगन्तर कहां है // 78 // Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते આ વિકસેલા કમળ નથી. પરંતુ પૃથ્વીએ પિતાના નેત્ર જ ઉંચા કરીને ફેલાવી રાખ્યા છે અને તે એ જાણવા માટે ફેલાવ્યા છે કે અમારી શોભાથી કે ઉન્નતિથી લજજીત થયેલા દિગન્તરે કયાં છે? I78 कृष्णं तदास्यं च विधाय यत्र नाथावसानेऽपि प्रमोदचितम् / व पुष्पसदमाच्च बहिष्करोति कुमुदती चञ्चलचचरीकम् // 79 // __अथ:-जहां कुमुद्रती अपने कुमुदरूपी मकान से चश्चल भ्रमर को इसलिये काला मुंहकर के बाहर करती रहती है कि वह चन्द्ररूपी कुमुदिनीनाथ के अवसान में-डूबजाने पर भी प्रमोदचित्त वाला बना रहता है. इस कल्पना का तात्पर्य ऐसा है. कि भ्रमर चन्द्रोदय होने पर कुमुदों के पास पहुंच जाता है. और चन्द्र अस्त होने पर सूर्योदय के समय विकसित हुए कमलों के निकट आजाता है. अतः दोनों के अस्तोदय में उसका चित्त प्रमुदित बना रहता है. इसी बात को इस कल्पना में ढालकर यहां व्यक्त किया गया है. // 79 // જયાં કુમુદિની પોતાના કુમુદ રૂપી મકાનમાંથી ચંચલ ભમરાને કાળ મુખ કરીને એ માટે બહાર કાઢે છે કે- એ ચાંદરૂપી કુમુદિનીનાથના અવસાનમાં અર્થાત અરત થવા છતાં આનંદિત રહે છે. આ કલપનાનું તાત્પર્ય એવું છે કે–ચંદ્રને ઉદય થતાં ભમરા કુમુદની પાસે ચાલ્યા જાય છે. અને ચંદ્ર અસ્ત થાય અને સૂર્ય ઉદય થાય ત્યારે વિકસિત થયેલા કમળની પાસે આવી જાય છે. આ હકીકતને આ કલ્પનામાં સમાવીને અહીં પ્રગટ ईरेस . 178 // ब्रह्ममुहूर्ते महताऽऽदरेण, प्रबुद्धय चोत्थाय विचिन्तयन्ति। कोऽहं स्वरूपंच किमस्ति मे वा निशम्य नित्यं मुनिराजवाणीम् // 80 // आलोचनांकेऽपि च केऽपि पच्चक्खाणादिकं धार्मिककृत्यमत्र / कुर्वन्ति सद्भावभरावनम्रा जनामुनीनां पुरतो विधाय ||81 // . यहां पर धार्मिक जन सूर्योदय के पहिले जगते और बडे ही भक्ति भावसे ऊठकर ऐसा विचार करते हैं कि मैं कौन हूं मेरा क्या स्वरूप है. इस तरह के विचार आने का कारण उनका नित्य मुनिराज की वाणी का सुनना है. इनमें कितनेक जन मुनिराज के समक्ष आलोचना करते हैं एवं कितनेकजन प्रत्याख्यान आदि का धामिक कृत्य करते हैं // 80-81 // અહીના ધાર્મિક જેને સૂર્યોદય થતાં પહેલાં જાગૃત થાય છે. અને અનન્ય ભક્તિ ભાવથી ઉઠીને એ વિચાર કરે છે કે-કોણ છું. ! મારું સ્વરૂપ શું છે? આવા પ્રકારનો વિચાર ઉદ્દભવવાનું કારણ તેઓ નિત્ય મુનિરાજની વાણિનું શ્રવણ કરે છે તેજ છે. Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्रमः सर्गः આમાં કેટલાકજને મુનિરાજેની સન્મુખ આલોચના કરે છે, અને કેટલાક પ્રત્યાખ્યાન વિગેરે ધાર્મિક કૃત્ય કરે છે. 80-81 विहारकाले चरतां मुनीनां दिव्योपदेशान् परिपीय भव्यात् उद्वेजिता पापमयी प्रवृत्तिर्गता का तस्मान्न वयं च विद्मः // 82 // __ अर्थ-विहार काल में एक जगह से दूसरी जगह विचरण करनेवाले मुनि जनों के दिव्य उपदेशों को अच्छी तरह हृदयंगम कर के वहां के भव्य जीवों से डरी हुई पापमयी प्रवृत्ति उनसे कहां चली गई यह हम नहीं जानते हैं // 82 // વિહાર કાળમાં એક સ્થાનથી બીજા સ્થાને વિચરણ કરવાવાળા મુનિજનેના દિવ્ય ઉપદેશને સાંભળીને તેને સારી રીતે હૃદયમાં ધારણ કરીને ત્યાંના જીવથી ડરી ગયેલ પાપમય પ્રવૃત્તિ તેમનામાંથી ક્યાં ચાલી ગઈ તે અમે જાણતા નથી. ૮રા दिने दिने संघविहारपूतास्तत्रत्य देशा अर्धपानाः। निवृत्तिमार्ग परिकाङ्क्षमाणान् जनान मुनीन् कर्तुमिहाप्रयत्नात् ' 83 // ___ अर्थ-प्रति दिन के मुनिजनों के विहार से वहां के प्रदेश धर्मयुक्त होते हैं इसलिये निवृत्ति मार्ग के अभिलाषी जनों को मुनि बनाने में उन्हें कोई प्रयत्न नहीं करना पडता है, ऐसे व्यक्ति वहां गुरु के समीप स्वयं मुनिदीक्षा धारण कर अपना जीवन सफलबनाते हैं // 83 // | મુનિજનના નિત્યના વિહારથી ત્યાંને પ્રદેશ ધર્મમય થાય છે. તેથી નિવૃત્તિ માર્ગ ના ઇચ્છુક જનને મુનિ બનાવવા માટે તેઓને કોઈ પ્રકારના પ્રયત્ન કરે પડતું નથી. પરંતુ તેવી વ્યકિત ત્યાં સ્વયં ગુરૂ સમીપે જઈને મુનિ દીક્ષા ધારણ કરીને પિતાનું જીવન સફળ બનાવે છે. 83 न तद्गृहं यत्र न सन्ति वृद्धाः वृद्धा न ते ये न वदन्ति धर्मम् / धर्मोऽप्यसौ नास्ति न योऽनुकंपायुतो न सा या न विपक्षपक्षा // 4 // अर्थ-वहां ऐसा कोई घर नहीं है कि जिस में वृद्धजन मौजूद नहों, ऐसा कोई वृद्धजन नहीं जो धर्म की बात कहता हो. वह धर्म नहीं कि जो अनुकंपा से युक्त न हो और वह अनुकंपा नहीं कि जो विपक्षपक्षवाली न हो पापी पर भी जो न की जाती हो // 84 // ત્યાં એવું કાઈ ઘર નથી કે જ્યાં વૃદ્ધજન શ્યાત ન હોય, એવા કોઈ વૃદ્ધ પુરૂષ નથી કે જે ધર્મની વાત કહેતા ન હોય, એ ધર્મ નથી. કે જે દયા રહિત હોય અને તે દયા નથી. કે જે વિધિ પ્રત્યે આચરાતિ ન હોય અર્થાત પાપી ઉપર પણ જે કરાતિ ન હોય 84 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते गृहे गृहे तत्र वसन्त्युदाग दाराश्च ते सन्ति च दारकाङ्काः। ते दारकाश्चापि च कण्ठहारा हाराश्च ते सन्ति च नेत्रहाराः // 85 // अर्थ-वहां घर घर में उदार प्रकृति वाली स्त्रियां है उनकी गोद छोटे 2 बच्चों से युक्त है. बच्चे भी कण्ठ में हार पहि ने हुए हैं और वे हार भी ऐसे हैं जो देखने वालों के नेत्रों को बड़े प्यारे लगते हैं // 8 // ત્યાં ઘેરે ઘેર ઉદાર પ્રકૃતિવાળી સ્ત્રી છે. તેમના ખોળા નાના નાના બાળકોથી યુક્ત હોય છે. બાળક પણ ડોકમાં હાર પહેરાવેલા રહે છે, અને તે હાર પણ એવા હોય છે કેજે જોનારાના નેત્રને ઘણા જ આનંદદાયક લાગે છે. પ૮પા स्वात्मानन्दप्रकाशन्निजहदि समतावल्लरी वृद्धिजुष्टाः . तुष्याः शिष्टाभिराध्याविधृतशमदमाद्यैर्गुणैः सद्विशिष्टाः // 86 // हृष्टाश्चारित्रलब्या विमलगुणगणान् निष्ठयाऽऽराधयन्ते. अस्मिन्नेवार्यखण्डेऽऽजनिषत परमानन्दकन्दाजिनेन्द्राः // 87 // अर्थ-आत्मिक आनन्द के प्रकाश से जिनके हृदय में समतारूपी बेल वृद्धिगत हुई है. अपार संतोष कृतकृत्य होने से जिन्हें प्राप्त हो चुका है, शिष्टजनों की आराधना के जो पात्रबन चुके हैं धृत शम दम आदि महनीय गुणों ने जिन्हें सद्विशिष्ट-सर्वोत्तम बना दिया है. यथाख्यात चारित्र की प्राप्ति से जो अव्यायाध सुख के भोक्ता बन गये हैं, और जिन्हों ने सम्यग्ज्ञान दर्शनादि निर्मल गुणों की एकनिष्ठा से आराधना की है ऐसे वे परम आनन्द के कन्द भूत जिनेद्र देव इसी आर्य खण्ड में उत्पन्न हुए है // 86-87 // આત્મિક આનંદના પ્રકાશથી જેમના હૃદયમાં સમતા રૂપી વેલ વધેલ છે, અને કૃતિકાત્ય થવાથી જેને અપાર સંતોષ પ્રાપ્ત થઈ ચૂકયો છે, જે શિષ્ટજનની આરાધનાના પાત્ર બની ચૂક્યા છે, શમ, દમ વિગેરે વખાણવા લાયક ગુણના ધારણ કરવાથી જેમને સર્વોત્તમ બનાવી દીધેલા છે, યથાખ્યાત ચારિત્રની પ્રાપ્તિથી જે અવ્યાબાધ સુખસંપન્ન બનેલ છે, ત જે અવ્યાબાધ સુખના ભક્તા બનેલા છે, અને જેઓએ સમ્યફ જ્ઞાન દર્શન વિગેરે નિર્મળ ગુણની એક નિષ્ઠાથી આરાધના કરેલ છે, એવા તે પરમ આનંદના કંદરૂપ જનેન્દ્ર દેવ એજ આર્યાવર્ત ખંડમાં ઉત્પન્ન થયા છે. 86-87 अस्मिन्नेवार्यखण्डे च पुराणपुरुषा मताः। धर्मोन्नति विधातारः सिद्धान्ते प्रतिपादिताः // 8 // Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः 33 ___ अर्थ-इसी आर्य खण्ड में पुराण पुरुष-उत्पन्नहुए हैं. ये शलाका पुरुष धर्म की उन्नति के करने वाले होते हैं. इनका वर्णन सिद्धान्त ग्रन्थों में किया गया है // 8 // આજ આર્યાવર્ત ખંડમાં પુરાણ પુરૂષ–શલાકા પુરૂષ ઉત્પન થયા છે. આ શલાકા પુરૂષ ધર્મની ઉન્નતિ કરવાવાળા હોય છે, આનું વર્ણન સિદ્ધાંત ગ્રન્થમાં કરવામાં આવેલ છે. આ૮૮ सुषमा सुषमा चाया द्वितीया सुषमा तथा / सुषमा दुःषमा चान्या दुःषमा सुषमा पुनः // 89 // पंचमी दुःषमाज्ञेया षष्ठी वा चाति दुःषमा / मेदा इमे ऽपसर्पिण्या उत्सर्पिण्यां विपर्यया // 10 // - अर्थ-इस समय इस आर्यखण्ड में अवसर्पिणी काल चल रहा है. जिस में मायुकाय आदिका क्रमशाहास हो जाता है. वह अवसर्पिणी काल कहलाता है. इसमें 6 भेद होते हैं. जो इस प्रकार हैं- 1) सुषमा सुषमा, (2) सुषमा, (3) सुषमा दुःषमा, (4) दुःषमा सुषमा, (5) दुःषमा, (6) अतिदुःषमा। उत्सपिणी काल में इनका पूर्वोक्त क्रम से विपरीत क्रम होता हैं // 89-90 // . હાલમાં આ આર્યાવર્ત ખંડમાં અવસર્પિણી કાળ ચાલે છે. જેમાં આયુકાય વિગેરે છોને ક્રમશઃ હાસ-નાશ થાય તે અવસર્પિણી કાળ કહેવાય છે. તેમાં છ ભેદ થાય 22 मा प्रमाणे छ.- (1) सुषमा सुषमा (2) सुषमा (3) सुषमा दुःषमा (4) दु:५मा સુષમા (5) દુષમા અને (6) અતિદુષમા. ઉત્સર્પિણી કાળમાં આ પૂર્વોક્ત ક્રમથી ઉલટુ पाय छे. // 84-80 // उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यौ कालो द्वौच प्रकीर्तितौ / उत्सदिवसांच्च वलायुष्क वर्मणाम् // 91 // . अर्थ-काल दो प्रकार का कहा गया है.एक उत्सर्पिणीकाल और (2) अव सर्पिणी काल बल आयु आदिका प्रमाण जिस काल में क्रमशः बढता जाता है पह उत्सर्पिणी काल है. और जिसमें इनका प्रमाण क्रमशः घटता जाता है वह अवसर्पिणी काल है // 91 // - કાળ બે પ્રકારના કહેવામાં આવેલ છે, તેમાં (1) એક ઉત્સર્પિણી કાળ અને (ર) મીને અવસર્પિણી કાળ, બળ આયુષ્ય વિગેરેનું પ્રમાણ જે કાળમાં ક્રમે ક્રમે વધતું Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 लोकाशाहचरिते જાય છે. તે ઉત્સર્પિણી કાળ છે, અને જેમાં બળ, આયુષ્યનું પ્રમાણ મશઃ ઘટતું જાય તે અવસર્પિણી કાળ કહેવાય છે. 91 काले तृतीये क्रमशो व्यतीते पल्योपमस्याष्टमभागमात्रे / - शेषे च तस्मिन् प्रभवन्त्यथैते चतुर्थकालं च नवान्यकाले // 92 // अर्थ-क्रमशः तृतीय काल समाप्त होते 2 जब वह पल्य के 8 वे भागमात्र बाकी रहता है-तब उसमें इन शलाकापुरुषों का होना प्रारम्भ हो जाता है और ये चौथे काल तक होते रहते हैं अन्य काल में ये नहीं होते // 12 // ક્રમશઃ ત્રીજો કાળ સમાપ્ત થાય અને જયારે તે પલ્યના આઠમા ભાગ જેટલા જ માત્ર બાકી રહે ત્યારે તેમાં શલાકા પુરૂષોને પ્રાદુર્ભાવ થવાને પ્રારંભ થાય છે. અને તે ચોથા કાળ પર્યન્ત તેમ થતું રહે છે. અન્ય કાળમાં તેમ થતું નથી. મi૯રા सूर्युपाध्याय साधूनां संगत्या स्वधिया च तत् / जिनोक्तं सूक्ष्मतत्त्वं स लोकाशाहों गवेषयन् // 93 // साधूनां चैतवासानां वृत्तिमिच्छानुसारिणीम् / दृष्ट्वा सिद्धान्त विपरीतां मतं स्वच्छंभचालयत् // 9 // अर्थ-इस आचार्य, उपाध्याय और साधु इनकी संगति से एवं अपनी बुद्धि से जिनेन्द्र देव द्वारा प्रतिपादित सूक्ष्मतत्वकी गवेषणा करते हुए लोकाशाह ने चैतवासी साधुओं की प्रवृत्ति को जब स्वेच्छानुचारी देखा, तो उसे देखकर समझा कि यह इनकी वृत्ति सिद्धान्त से विपरीत है ऐसा निश्चित करके फिर उन्होंने अपना एक स्वतन्त्र निर्दोष मत चलाया // 93-94 // આ મુનિગણમાં આચાર્ય, ઉપાધ્યાય અને સાધુની સંગતિથી તથા વબુદ્ધિથી જીતેન્દ્ર દવે પ્રતિપાદન કરેલ સૂક્ષ્મતત્વની ગષણા કરતાં કરતાં કાશાહે ચિત્યમાં રહેનારા સાધુઓની પ્રવૃત્તિને જ્યારે છાચારી દેખી ત્યારે તે જોઈને તેમણે જાણ્યું કે આ સાધુઓની પ્રવૃત્તિ સ્વ સિદ્ધાંતથી અન્ય પ્રકારની અર્થાત વિરુદ્ધ છે. આ રીતે નિશ્ચય કરીને તેમણે સિદ્ધાન્તાનુકૂળ પિતાને સ્વતંત્ર નિષ મત પ્રવર્તિત કર્યો અર્થાત સ્વ સિદ્ધાંતાકૂકુળ મત ચલાવ્યો. 193-94 सम्यग्दर्शन शुद्धबोधचरणं संघाटयन्नादरात् / / स्वस्थानोचित सद्गुणैश्च विविधैराकर्षयत् मानवान् उतारिणाम्। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः सर्गः वैराग्योद्भवकारकैर्हितबहैर्नित्यं वचोभिः श्रितः / - सोऽयं श्रीयुत घासीलालमुनिपोंजीयाद्गुणैर्भूतले // 95 // अर्थ-जो बहुत ही आदर के साथ सम्यग्ज्ञान दर्शन से शुद्ध ज्ञान और चारित्र की आराधना में लगे रहतेहैं. अपने पद के अनुरूप अनेक सद्गुणों द्वारा जो अपनी ओर भव्यमानवों को आकृष्ट करते हैं तथा वैराग्य को उत्पप्रकरनेवाले एवं हितकारक ऐसे धर्मोपदेश देने में जो निरत रहते हैं ऐसे वे श्री मान घासीलाल मुनिराज अपने गुणों द्वारा इस भूमण्डल पर जयवंता पते. // 9 // જેઓ ઘણા જ આદર પૂર્વક સમ્યફ જ્ઞાન દર્શનથી જ્ઞાન અને ચારિત્રની આરાધનામાં લાગેલા રહે છે, પોતાના પદને અનુરૂપ અનેક સગુણો દ્વારા જે ભજનને પિતાના તરફ આકર્ષિત કરે છે તથા વૈરાગ્યને ઉત્પન્ન કરનારા અને હિતકારક ધર્મોપદેશ આપવામાં જે તત્પર રહે છે, એવા એ શ્રીમાન ધારીલાલ મુનિરાજ પોતાના ગુણોથી આ ભૂમંડળ પર જયવંતા વર્ત. ૯પા : जैनाचार्य-जैनदिवाकर श्रीघासीलाल व्रति विरचिते हिन्दीगुर्जरभाषानुवाद सहिते ___ लोकाशाहचरिते प्रथमः सर्गः समाप्तः॥१॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते अथ द्वितीयः सर्गः अथार्यखण्डेऽत्रच भारतस्य देशा विशेषा विविधस्वरूपाः / प्रान्ताख्यया ते ह्यधुना प्रसिद्धा भाषादि भेदेन च सन्ति भिन्ना // 1 // अर्थ-भरत क्षेत्र के आर्यखण्ड में अनेक देश हैं इनका सबका चाल चलन आचार विचार-एक दूसरे से भिन्न है. पहिले ये जिस प्रकार मगध देश, बङ्गदेश, लाट देश आदि नाम वाले थे अब ये राजस्थान गुजरात आदि प्रान्तों के नाम से इनमें भिन्नता है. // 1 // ભરતક્ષેત્રના આર્યાવર્ત ખંડમાં અનેક દેશો છે. તેમાં દરેક પ્રદેશની રહેણી કરણી આચાર વિચાર એક બીજાથી અલગ અલગ હોય છે. પહેલાં આ પ્રદેશના નામે મગધદેશ બંગદેશ, લાટદેશ વિગેરે નામથી ઓળખાતા હતા. હાલમાં રાજસ્થાન, ગુજરાત વિગેરે પ્રાન્તના નામે ઓળખાય છે. અને ભાષાદિના ભેદથી તેનું જુદાપણુ જણાય છે. दिवौकसां स्थानमिवात्र राजस्थानेति नाम्ना प्रथितः पृथिव्याम् / प्रान्तः स यत्राजनि वीरसिंहः प्रतापसिंहः प्रबलप्रतापी // 2 // अर्थ-इन्हीं प्रान्तो में एक राजस्थान नाम का प्रान्त है. यह अपने नाम से दुनियां में प्रसिद्ध है. इसी प्रान्त में प्रबल प्रताप विराजी राजा प्रताप सिंह हुए हैं जो वीरों में शेर जैसे थे // 2 // એ પ્રાન્ત પૈકી એક રાજસ્થાન નામને પ્રાન્ત છે, તે પિતાના નામથી સમગ્ર દુનિયામાં અત્યંત પ્રસિદ્ધ છે. આજ પ્રાન્તમાં પ્રબલ પ્રતાપવાન એવા મહારાણા પ્રતાપસિંહ થયા હતા કે જે વીરમાં સિંહ સમાન હતા. રા अनीगणद् योऽरिकुलं करालं मृगायमाणं रिपुकालरूपः। अकबरादाहत भूमिभागं विधायजन्य स्वशं निनाय // 3 // अर्थ-शत्रुओं के यमराज तुल्य महाराणा प्रतापसिंह ने अपने शत्रुकुल को चाहे वह कितना ही विकट क्यों नहो कभी भी मृगसे ऊंचा नहीं माना सदा मृग के ही जैसा माना अकबर बादशाह ने जिस मेवाड की भूमि पर अप. ना अधिकार जमा लिया था प्रतापसिंह ने उसके साथ युद्ध करके उस भूमि भाग को उसके अधिकार से छीन कर अपने अधिकार में ले लिया था // 3 // શઓ માટે યમરાજ જેવા મહારાણા પ્રતાપસિંહે પિતાના શત્રળને કે તે ચાહે ગમે તેટલા વિષમ-દુસહ કેમ ન હોય પરંતુ તેઓને મૃગલાથી વિશેષ ગણ્યા નથી. અર્થાત્ સદા, Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः મૃગલા જેવા જ માનતા હતા. અકબર બાદશાહે જે મેવાડની ભૂમિ ઉપર પિતાની હકુમત જમાવી હતી તેની સાથે પ્રતાપસિંહે યુદ્ધ કરીને એ ભૂમિ ભાગને તેના અધિકારમાંથી પડાવીને ત્યાં પિતાને અધિકાર સ્થાપિત કર્યો હતો. 13 अवन्ध्य संध्येन च येन राज्ञा स्वदारिकां पुत्र मथात्मकान्ताम् / चक्रे सहादाय विहाय राज्यं कान्तावासो वृषरक्षणार्थम् // 4 // ____ अर्थ-ये महाराणा प्रतापसिंह अपनी प्रतिज्ञा के पालन में बडे पक्के थे, इन्हों ने अकबर की शरण स्वीकार नहीं करने की प्रतिज्ञा को नहीं छोड़ा। अपनी पुत्री, पुत्र और रानी को साथ लेकर ये राजभवनको छोड अरावली पर्वत पर वन्यवृत्ति धारण कर अपने धर्म की रक्षा करने के लिये दृढ रहे // 4 // - આ મહારાણું પ્રતાપસિંહ પોતાની પ્રતિજ્ઞામાં ઘણા જ દઢ હતા. તેમણે અકબર બાદશાહનું શરણું નહીં લેવાની પ્રતિજ્ઞાને છોડી નહીં. પિતાના પુત્ર પુત્રી અને રાણીને સાથે લઈને તેઓ રાજમહેલને છોડીને અરવલ્લીના પહાડ પર વન્યવૃત્તિને ધારણ કરીને પિતાના ધર્મની રક્ષા કરવા નિશ્ચય પૂર્વક ત્યાં રહ્યા. 4 विधेविपाकाद्धृतवन्यवृत्तिस्तथापि तेजोभिरथात्मसंस्थैः / भस्मावृताङ्गारनिभश्चकासे स निर्भयो मानधनस्तदानीम् // 5 // अर्थ-यह भाग्य को हि विडम्बना थी जो महाराणा जैसे प्रबल वीर को भीलों जैसी जंगल की वृत्ति में रहना पडा, परन्तु फिर भी जो उन पर राजसी तेज था उससे वे ऐसे प्रतीत होते थे कि मानों भस्म से ढका हुआ यह अंगार ही है. इन्हें किसी का उस समय भी भय नहीं था इनके पास धन नहीं था फिर भी ये अपने मान रूपी धन से रिक्त नहीं थे // 5 // એ ભાગ્યની જ વિચિત્રતા હતી કે જે મહારાણ જેવા પ્રબળ વિરને ભીલ જેવી જંગલી વત્તિ ધારણ કરવી પડી. તેમ છતાં તેમના પર જે રાતેજ હતું તેનાથી તેઓ એવા જણાતા હતા કે રાખથી ઢંકાયેલ આ અંગારજ છે. તેમને તે સમયે પણ કોઈને ડર ન હતો તેમની પાસે ધનને અભાવ હતો તો પણ તેઓ પોતાના માન રૂપી ધનથી રહિત ન હતા. આપા वीराङ्गनावीर प्रसूभिराढ्यः प्रान्तोऽयमर्यो धृतिशालिवीरैः। दन्तावलानां दशनाभिघातादजय्यशक्त्या परिपुटदेहैः // 6 // अर्थ-यह प्रान्त सदा से ही वीराङ्गनाओं से और वीरों को जन्म देने * वाली वीर माता ओं से युक्त रहा है. तथा ऐसे ऐसे वोरों से कि जिन की Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते शक्ति हाथियों के दांतों के अघात से भी अजेय रही है तथा जिनकी देह सामर्थ्य से खूब पुष्ट रही सदा पूज्य रहा है // 6 // આ પ્રાંત કાયમ વીરાંગનાઓથી અને વીર માતાઓથી યુક્ત રહ્યો છે. તથા એવા એવા વીરોથી કે જેમની શક્તિ હાથિઓના દાંતના ઘા થી પણ અજેય રહી છે. તથા જેમના શરીર સામર્થ્યથી પુષ્ટ રહ્યા છે. कुमारकान्तैरिख कान्तिकान्तै रकातरैः काञ्चन काञ्चनाभैः / वोरात्मजैः सिंह शिशु प्रकीडैरधिष्ठितोऽरावलिभालशालः // 7 // धन्यैश्च रायल्पितराजराजैः प्राधियाधस्कृतजीवधीभिः / वदान्यताधिकृतकल्पवृक्षविराजते दानिवरै सदायम् // 8 // अर्थ-अरावलि पर्वत की छोटि 2 टेकरिया ही जिस का कोट है ऐसा यह प्रान्त कुमार के जैसे बहुत प्यारे अपनी कान्ति से चन्द्रकान्त मणि के जैसे एवं चमकीले सुवर्ण की जैसी आभावाले अकातर वीर पुत्रों से कि जिनका खिलौना सिंह शिशु हैं. सर्वदा युक्त रहा है // 7 // __ यहां ऐसे ऐसे धनाढय पुरुष हुए हैं कि जिन्हों ने अपने द्रव्य से कुबेर को भी तिरस्कृत कर दिया, ऐसे 2 बुद्धिमान हुए हैं, कि जिन्हों के समक्ष बृहस्पति को भी झुकना पडा, तथा ऐसे 2 दानी हुए हैं-कि जिन्हों ने अपनी दानशीलता के द्वारा कल्पवृक्षों को भी कुछ नहीं समझा // 8 // અરવલ્લી પર્વતની નાની નાની ટેકરીઓ જ જેને કિલ્લે છે, એ આ પ્રાંત કુમારની જેવી ઘણી પ્યારી પિતાની કાંતિથી ચંદ્રકાંત મણીને જેવી તથા ચમકદાર સેનાની કાંતિ જેવા વીર પુત્રોથી કે જેમના રમકડા સિંહના બચ્ચાઓ છે. તેનાથી સદા યુકત રહે છે. એક અહીંયા એવા એવા ધનવાન પુરૂ થયેલા છે કે જેમણે પોતાના ધનથી કુબેરને પણ પરારત કર્યા છે. અને એવા એવા બુદ્ધિશાળીઓ થયા છે કે જેમની સામે બૃહસ્પતિને પણ નમવું પડયું તથા એવા એવા દાનવીરો થયેલ છે, કે જેઓએ પોતાના દાની પણાથી કલ્પવૃક્ષને પણ હલ્કા પાડેલ છે. 8 सा पद्मिनी पद्मदल प्रक्षिप्त स्वगात्र सुष्टुवजसौ कुमार्या / अहार्य धैर्याऽऽय सजन्यदेहा जाताऽत्र नारीष्यपवादरूपा // 9 // . अर्थ-वह पद्मिनी कि जिसने अपने शरीर की सुकुमारता पद्म दलों को दी और लोहे से जिसने कठोरता ली इस प्रान्त में हुई है. इसके धैर्य के आगे शत्रओं के छक्के छूट जाते थे. यह नारियों में अपवाद रूप थी // 9 // Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः તે પશ્ચિની જેણે પોતાના શરીરનું કોમળ પણું પદ્મદલને આપ્યું. અને લેઢા પાસેથી કઠોરપણું લીધું. તે આજ પ્રાન્તમાં ઉત્પન્ન થયેલ છે. આની ધીરજ આગળ શત્રુના'પણ છક્કા છુટી જતા હતા. આ પદ્મિની નારિઓમાં અપવાદ રૂપ હતી. 19 स वाजिराजस्तरलस्तुरंगः सुचेतकश्चेतकनामधेयः / अभूदमुष्मिन् धृतवन्यवृत्तेः राणप्रतापस्य विपत्तिबन्धुः // 10 // अर्थ-वह अश्वों का राजा कि जिसका नाम चेतक था और जो समय पर महाराणा प्रताप का बहुत ख्याल रखता इसी प्रदेश में हुआ है यह महाराणा प्रताप का विपत्ति समय का बन्धू था जब महाराणा प्रताप घोर विपत्ति के जंगलों में फिर रहे थे. तब भी यह उनके साथ था. // 10 // તે અધોને રાજા કે જેનું નામ ચેતક હતું અને જે વખતો વખત મહારાણા પ્રતાપનું ધ્યાન રાખતો હતો તે આજ પ્રદેશમાં થયેલ છે. આ ચેતક મહારાણા પ્રતાપને વિપત્તિ સમયને સહાયક બધુ રૂપ હતો જ્યારે મહારાણા પ્રતાપ ઘોર વિપત્તિના સમયમાં જંગલમાં ફરતા હતા ત્યારે પણ તે તેમની સાથે ફરતો હતો. ૧ળા धनान्यसूंश्चापि तृणाय मत्त्वा येनार्पितं स्वामिकृतेऽथसर्वम् / स दानवीरोऽपि च भीमभामाशाहोऽत्र जज्ञे क्षितिरत्नभूतः // 11 // . अर्थ-धन और प्राणों को तृण के जैसा समझकर जिसने महाराणा प्रताप के लिये अपना सब कुछ अर्पण कर दिया ऐसा वह कलिकाल का भीम दान वीर भामाशाह जो कि इस भूमि का रत्नरूप माना गया है इसी प्रान्त में उत्पन्न हुआ॥११॥ ધન અને પ્રાણને તરણ સરખા સમજીને જેણે મહારાણા પ્રતાપને માટે પિતાનું સર્વસ્વ અર્પણ કરી દીધું હતું, એવા એ કલિયુગમાં મહાન દાનવીર ભામાશાહ કે જેને આ ભૂમિના રત્ન જેવા માનવામાં આવેલ છે. તેઓ પણ આજ પ્રાન્તમાં જન્મેલા છે. I11 पन्नेति नामा प्रथिता सुधात्री स्व पुत्र घाताद्विहिता यया द्राक् / शिशोर्दशायामुदयस्य रक्षाजाताऽत्र लोकैकनमस्क्रियाहीं // 12 // अर्थ-पन्ना नामकी प्रसिद्ध धाय कि जिसने अपने पुत्र को मरवाकर बालक उदयसिंह की रक्षा की इसी प्रान्त में उत्पन्न हुई है आज भी लोग उसके नाम पर अपनी श्रद्धा के सुमन अर्पित करते हैं // 12 // પન્ના નામની સુપ્રસિદ્ધ ધાયમાતા કે જેણે પિતાના પુત્રને મરાવીને બાળક ઉદેસિંહનું Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते રક્ષણ કર્યું હતું તે પણ આજ પ્રાન્તમાં જન્મેલ હતી. આજે પણ લેકે તેના નામ પર શ્રદ્ધાના પુષ્પ ચડાવે છે, ૧રા निसर्गतो युद्धकलाप्रवीणैर्मानोन्नत वैरिकुलाद्रिवज्रः / विराजतेऽयं ह्यपैश्च राजस्थानप्रदेशः सुभटैरनेकै // 13 // अर्थ-अब भी राजस्थान प्रदेश स्वभाव से ही युद्धकला में प्रवीण ऐसे अनेक सुभटों से जो कि वैरिरूप पर्वन को भेदन में वज्र के जैसे हैं और आत्मगौरव से जिनका मस्तक उन्नत है सुशोभित है // 13 // અત્યારે પણ રાજસ્થાન પ્રદેશ સ્વાભાવિક રીતે જ યુદ્ધકળામાં નિપુણ અનેક સુભટોથી કે જેઓ શત્રરૂપ પર્વતને ઉખાડી નાખવામાં વજની સમાન છે. અને આત્મિકગીવથી જેમના મસ્તકે ઉત્કૃષ્ટ રીતે શોભી રહ્યા છે. તેવા अस्य प्रदेशस्य समस्तवृत्तं विज्ञेन टाटाख्यमहोदयेन। खोपज्ञ उक्तं बहुविस्तरेण तत् पुस्तके वैभवमीक्षणीयम् // 14 // अर्थ-इस प्रदेश का पूर्ण गौरवमय इतिहास विद्वान टाटा साहब ने अपने द्वारा लिखी गई "राजस्थान का इतिहास" इस नाम की पुस्तक में बहुत विस्तार के साथ लिखा है अतः उस पुस्तक में से राजस्थान प्रदेश का अतीत काल का वैभव ज्ञात करलेना चाहिये // 14 // या प्रशना गौरवशाली इतिहास विद्वान 212 / साउने समेस राजस्थान का इतिहास આ નામના પુસ્તકમાં ઘણું જ વિસ્તાર પૂર્વક વર્ણવેલ છે. તેથી આ પુસ્તકમાંથી રાજસ્થાન પ્રદેશના વ્યતીત કાળનો વૈભવ જાણી લેવો જોઈએ. 14 विराजते तत्र विशालसालाचतुर्वृहद्गोपुर वैर्यगम्या। सिरोहिनाम्नी खलु राजधानी समस्तवर्णाश्रमराजधानी // 15 // अर्थ-इसी राजस्थान प्रदेश में एक सिरोही नाम की राजधानी है इसमें समस्त वर्णाश्रम रूप राजा बडे आनन्द के साथ रहता है. इसका बहुत विशाल एक कोट है. इसमें चार दरवाजे हैं. ये बहुत बडे हैं वैरियों की यह शक्ति नहीं जो इस पुरी में वे प्रवेश कर सके // 15 // આજ રાજસ્થાન પ્રદેશમાં એક શિરેહી નામની રાજધાની છે. તેમાં સઘળા વર્ણાશ્રમ પરાયણ રાજા ઘણા જ આનંદ પૂર્વક વસે છે. તે નગરીને ઘણું જ વિશાળ સુંદર કેટ છે તેમાં ચાર દરવાજાઓ છે, તે ઘણા વિશાળ છે. દુમન તેને ભેદીને આ નગરીમાં પ્રવેશે તેવી કેઈની તાકાત નથી. /1 પા. Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः स्वशोभयाऽधस्कृतनाकिलोका नभस्तलस्पर्शिसुरम्यहा। संभ्रान्तमन्तःकरणं जनानां स्वां पश्यतां या विदधाति नूनम् // 16 // अर्थ-यह राजधानी इतनी अच्छी है कि इसकी शोभा के मारे स्वर्गलोक को भी नीचा देखना पड रहा है इसमें जो हH-राजप्रासाद हैं, वे इतने ऊंचे हैं कि उनकी ऊंचाईने आकाशतल को भी छू लिया है जो भी कोई इसे देखता है उसका अन्तःकरण भी इसे देखते 2 दंग रह जाता है. // 16 // આ રાજધાની એવી સુંદર છે કે તેની શેભાને લઈને સ્વર્ગ લેકને પણ નીચું જોવું પડે છે. આ નગરીમાં જે રાજમહેલ છે. તે એટલા ઊંચા છે કે તેની ઊંચાઈએ આકાશને પર્શ કરી લીધું છે. જે કોઈ આને જુએ છે, તેનું અંતઃકરણ પણ આને જોતાં જોતાં આશ્ચર્ય ચકિત થઈ જાય છે. 16 तुषार शुभ्रोज्ज्वलभित्तिमालाच्छलेन पातालतलादहीशः। विनिर्गतो रक्षति कंचुकाढयः पुरीमिमां कुण्डलिताङ्गकान्तः // 17 // अर्थ-इस पुरी के चारों तरफ कोट है. इसकी भित्ति तुषार के जैसी शुभ्र है अतः ऐसा प्रतीत होता है कि पाताल तल से कांचली सहित शेषनाग निकल करके उसकी कुण्डलाकार होकर रक्षा कर रहा है // 17 // આ નગરીની ચારે બાજુ કોટ આવેલ છે. આની ભીતે હીમના જેવી સફેદ છે. તેથી એવું જણાય છે કે–પાતાળ લેકમાંથી કાંચળી સાથે શેષનાગ નીકળીને ગોળાકાર રૂપે આ નગરીનું રક્ષણ કરી રહેલ છે. d૧૭ળા * सौधाः सुधापविभूषिताङ्गाः सुधाप्रदेशा सकलाः कलाशाः। गवाक्षजालाञ्चित मध्यभागाः नमः प्रदेशा इव भान्ति यस्याम् // 18 // अर्थ-इस राजधानी में जो राजमहल है वे सदा सफेद चूने की कली से पूते रहते हैं, अतः ऐसे प्रतीत होते हैं कि मानों ये गंगानदी के ही प्रदेश हैं अथवा चन्द्रमा की समस्त कलाओं के ही अंश है. उन राज महलों के ठीक मध्य भाग में जो अनेक खिडकियां है. उससे वे ऐसे भी प्रतीत होते हैं कि मानों ये आकाश के ही प्रदेश हैं // 18 // આ રાજધાનીમાં જે રાજમહેલ છે, હમેશાં તે સફેદ ચુનાથી ઘેળવેલ રહે છે. તેથી તે એવો જણાય છે કે–જાણે આ ગંગાજીનો જ પ્રદેશ છે. અથવા ચંદ્રની સઘળી કળાઓને અંશ છે. એ રાજમહેલની બરોબર મધ્ય ભાગમાં જે અનેક બારી છે, તેનાથી તે એવું જણાય છે કે–જાણે આ આકાશને જ પ્રદેશ છે. /18 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते विभान्ति यस्यां नयनाभिरामा समुन्नतास्ते शरदभ्रशुभ्राः। . ध्वजां शुकैरातपपत्र तुल्यैः पतंगतापापहते प्रयुक्तैः // 19 // अर्थ-शरदकालीन मेघ के जैसे शुभ्र वे नयनाभिराम उन्नत राजमहल आतप पत्र के जैसी अपनी ध्वजाओं से ऐसे मालूम पडते हैं कि मानों इन्हों ने सूर्य की गर्मी से बचने के लिये छाते ही तान रखें है // 19 // શર ઋતુના મેઘના જેવા ધવલ અને નેત્રને આનંદ દાયક ઊંચા રાજમહેલ, છત્રના જેવી પિતાની ધજાથી એવા જણાય છે કે જાણે આણે સૂર્યની ગરમીથી બચવા માટે છત્ર જ તાણી રાખ્યા છે. 19 सौधामयकोपललालितेलाः प्रोत्तुङ्गश्रृंगैः परितः परीताः। विधूद्गमे मुक्तपयः प्रवाहा हिमालयस्येव विभागमालाः // 20 // अर्थ-वे राजमहल चन्द्रकान्त मणियों से जिनकी भूमि जडित है ऐसे हैं चारों ओर उनके ऊपर बडी 2 शिखरे हैं जब रात्रि में-चन्द्रमा का उदय होता है तब उनसे जल का प्रवाह निकलता है. उससे ऐसा ज्ञात होता है कि मानों ये हिमालय के ही खण्ड हैं // 20 // એ રાજમહેલ ચંદ્રકાંત મણીઓથી જેની ભૂમિ જડેલ હોય તે છે. તેના ઉપર ચારે તરફ મોટા શિખરે છે. રાત્રે જ્યારે ચંદ્રમાને ઉદય થાય છે, ત્યારે તેમાંથી પાણીને પ્રવાહ નીકળે છે. તેનાથી એવું જણાય છે કે- જાણે આ હિમાલયને જ એક ભાગ છે. રા लताप्रतानैः प्रतत् प्रसूनै लोद्गमैर्यन्त्रचयैर्विचित्रैः / पतन्त्रिपातोत्थचलत्तरङ्गैःकुल्या कुलैहँसरथाङ्गयूथैः // 21 // विशोभिताक्रीडचयैः सनाथाः पादारविन्दाञ्चितदारवृन्दाः। स्वर्गप्रदेशा इव ते मनोज्ञा लसन्ति सर्वर्तुसुखाः सचित्रा // 22 // अर्थ-उन राजमहलों में छोटे 2 बगीचे हैं जो क्रीडा के स्थान बने रहते है इनमें लताएं है जो पुष्पों से लदी रहती हैं विचित्र प्रकार के जलयंत्र हैं जिन में पानी निकलता रहता है छोटी छोटी बनावटी नदियां हैं जिन में पक्षियों वे उतरने पर चश्चल तरङ्गे ऊठती रहती है हंस और चकवाचकवी वहां बैठे रहते। वे राजमहल कमल जैसे चरणोंवाली ललनाओं से भरे रहते हैं समस्त ऋतुझं की सामग्रीजन्य सुखका यहां सद्भाव है. और उनके प्रकार के चित्रों से युक्त हैं अतः ये सनोज्ञस्वर्ग के प्रदेश जैसे सुहावने लगते हैं // 21-22 // Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः એ રાજમહેલમાં નાના નાના બગીચાઓ છે. જે કીડાના સ્થાન જેવા હોય છે. તેમાં વેલી છે. જે પુથી ભરચક રહે છે, વિચિત્ર પ્રકારના જલયંત્ર છે જેમાંથી પાણી નીકળતું રહે છે. નાની નાની બનાવટી નદી છે, જેમાં પક્ષીઓના ઉતરવાથી ચંચલ તરંગો ઉઠતા રહે છે. હંસ તથા ચક્રવાક તથા ચક્રવાતી ત્યાં બેઠા રહે છે. એ રાજમહેલ કમળના જેવા પગ વાળી સ્ત્રીયોથી ભરપૂર રહે છે. સઘળી ઋતુઓની સામગ્રી જેવા સુખનો અહીં સાક્ષાત્કાર થાય છે, અને તેવા પ્રકારના ચિત્રોથી એ યુકત છે, તેથી એ મને જ્ઞ સ્વર્ગ પ્રદેશ જે સેહામણો લાગે છે. ર૧-૨રા विचित्रचित्राङ्कितचारुकुड्याः रंगावलिकल्पितकल्पमालाः। क्रीडास्पदाः कुंकुमलेपलिप्ताः प्रियसखैः कामिकुलैरशून्या // 23 // अर्थ-इन राजमहलों की दिवारों पर अनेक प्रकार के चित्र बने हुए हैं जगह 2 अनेक प्रकार के रङ्गों से कल्पवृक्षों की रचना की गई हैं कहीं कहीं कुंकुम के लेप से ये पुते हए है और पत्नि ही जिनकी सखा है ऐसे सदाचारी पुरुषों से युक्त है // 23 // આ રાજમહેલની ભીતે ઉપર અનેક પ્રકારના ચિત્ર ચિન્નેલા છે. સ્થળે સ્થળે અનેક પ્રકાર ના રંગોથી કલ્પવૃક્ષોની રચના કરેલી છે. કયાંક ક્યાંક કંકુના લેપથી તે રંગેલ છે. તથા પત્નિ જ જેની મિત્ર છે, એવા સદાચારી પુરૂષોથી વ્યાપ્ત છે. રક્ષા समानि नैतान्यमितोऽचलाङ्गा झपारिसालाः कृतसन्निवेशाः। दिदृक्षुलोकोज्ज्वलनेत्रमीनात् जिघृक्षयाऽतिष्ठन् निश्चलाङ्गा // 24 // - 'अर्थ-ये राजमहल नहीं है किन्तु ऐसा ज्ञात होता है कि इन्हें देखने वाले लोकों के उज्ज्वल नेत्ररूपी मीनों को पकडने कि इच्छा से निश्चल अंगवाले ये पगुला ही बैठे हैं // 24 // આ રાજમહેલ નથી પરંતુ એવું જણાય છે કે–અને જેનારા લેકોના ઉજવલ નેત્ર રૂપી માછલાને પકડવાને માટે નિશ્ચલ અંગવાળા આ બગલે જ બેઠેલે છે. રજા नतद्गृहं यत्र न सन्ति दारा दारा न ता या च न सन्त्युदाराः॥ सदारकाः सर्वगुणेषु वृद्धा गृहप्रणाली परिपालयन्त्यः // 25 // ' अर्थ-वहां ऐसा कोई घर नहीं है कि जिसमें स्त्रियां न हों, और उन में भी ऐसी कोई स्त्री नहीं हैं जो उदार प्रकृति की न हो, और बालबच्चोंवाली न हो हर एक स्त्री अपने 2 घरकी मर्यादा की पालक है और स्त्रियोचित समस्त गुणों में वृद्ध-निपुण है // 25 // Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते ત્યાં એવું એકેય ઘર નથી કે જેમાં સ્ત્રી ન હોય, અને તેમાં પણ એવી કોઈ સ્ત્રી નથી કે જે ઉદાર પ્રકૃતિવાળી અને બાળ બચાવાળી ન હોય, દરેક સ્ત્રી પોતાના ઘરની મર્યાદાનું પાલન કરવાવાળી હોય છે. અને સ્ત્રીને યંગ્ય સઘળા ગુણેમાં પ્રવીણ હોય છે. રક્ષા धैर्यक्षमाशीलदयाप्रमोदमाध्यस्थ्य मैत्र्यादिगुणा अमेयाः। क्रीडन्ति येषां हृदयेऽनुरक्ता विमर्दयन्तः स्वविपक्षभावम् // 26 // अथ-अपने 2 विपक्षों को परास्त करके, धैर्य, क्षमा, शील, दया, प्रमोद, माध्यस्थ्य और मैत्री आदि अमित गुण अनुरक्तहुएसे जिनके हृदयों में क्रीडा करते हैं ऐसी प्रत्येक घर में स्त्रियां है // 26 // પિત પિતાના વિધિને પાછા પાડીને વૈર્ય, ક્ષમા, શીલ, દયા, પ્રમોદ, માધ્યથ્યિ અને મૈત્રી વિગેરે ગુણમાં અનુરાગી થઈને જેમના હૃદયમાં કીડા કરે છે, એવી સ્ત્રી દરેક ઘરમાં હોય છે. પારદા मितव्ययेनार्जितभूरिवित्तं दानप्रदाने बहुशो दधानाः / दाराश्च ते तन्वि कथं न पूज्या मुक्तावली चुम्बितकण्ठदेशाः॥२७॥ अर्थ-परिमितव्यय से ये स्त्रियां अधिक से अधिक जो संग्रह करती हैं उसे चारों प्रकार के दान में व्यय करतो रहती है इनके कंठ मुक्तावली हार से सदा सुशोभित रहते हैं-अतः हे तन्धि ! ये पूज्य कैसे नहीं मानी जा सकती है? यहा "मुक्तावली" में श्लेष है // 27 // ડો ખર્ચ કરીને એ સ્ત્રી વધારે બચાવી સંગ્રહ કરે છે, તેને, તેઓ ચારે પ્રકારના દાનમાં ખર્ચતી રહે છે. તેમના કંઠ મોતીયોના હારથી સદા શોભતા રહે છે. તેથી છે તન્વાંગી ! એ પૂજ્ય કેમ ન મનાય? અહીં મુકતાવલી શબ્દમાં શ્લેષ છે. રા कचेषु कार्ण्य च कुचेषु दाढय कटिप्रदेशेषु च नास्तिवादः / कटाक्षपातावसरेऽक्षियुग्मे विरागता यत्र परं न वृत्ते // 28 // अर्थ-इनके केशों में ही कृष्णता है-कालापन है कुचों में ही कठोरता है कटिप्रदेश में ही नास्तिवादता-पतलापन है और कटाक्ष पात के समय में ही इनकी आखों में ललाई आती है, परन्तु इनके चाल चलन में कृष्णता-माया. चारिका भाव नहीं है, दाढय-कठोरता-अदया का भाव नहीं है नास्तिपने का सद्भाव नहीं है-आस्तिक्यता का ही सद्भाव है और विरागता अरुचिपने का सद्भाव नहीं है // 28 // Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः તેઓના વાળમાં કાલિમાં છે. સ્તનમાં કઠોરતા છે. કટિ પ્રદેશમાં જ ક્ષીણતા-પાતળાપણું છે. અને કટાક્ષપાતના સમયે જ તેમની આંખમાં રતાશ આવે છે. પરંતુ તેઓની રહેણી કરણીમાં કાલિમા-માયાચાર ભાવ હોતો નથી દાઢર્ય–કઠોરપણું અદયા ભાવ હેતું નથી. નારિતપણાનો ભાવ હોતો નથી. આતિકપણું જ તેઓમાં રહેલું છે. તથા વિરાગપણું અર્થાત અરૂચિપણને સદભાવ હોતો નથી. રટા यत्राभिरामा रसिकावतंसा वदान्यतान्यकृतकल्पवृक्षाः दयार्दचित्ताः पुरुषार्थवित्ताः प्रमोदमत्ताश्चतुराः सुवृत्ताः // 29 // महाजनाः सर्वगुणाभिरामाः निदर्शनं स्वीयमलभ्यमानाः। वसन्ति येषां यशसाऽभिभूतो जातः समग्रः सुकृतोऽपि दासः॥३०॥ __ अर्थ-यहां जो महाजन श्रावक रहते हैं वे आकार में बडे सुन्दर मनोहर रसिकजनो में श्रेष्ठ दानशीतलासे कल्पवृक्षों को भी परास्त करने वाले, दयालु पुरुषार्थ प्रधानी आनन्दमग्न चतुर सुमार्गगामी और सर्व गुणों से संपन्न है, उनके जैसे आदर्श नर अन्यत्र नहीं मिलते हैं उनके यश से ऐसा प्रतीत होता है कि जितना भी पुण्य है-मानों वह परास्त होकर उनका दास ही बन गया है // 29-30 // આ નગરીમાં જે મહાજન રહે છે તેઓ સુંદરકાર વાળા છે. મનહર રસિકજનોમાં ઉત્તમ દાનીપણામાં કલ્પવૃક્ષને પણ પરાજીત કરનારા દયાળુ, ઉદ્યમી, આનંદી, ચતુર સુમર્શ ગામી અને સર્વ પ્રકારના ઉત્તમ ગુણવાળા તેના જેવા આદર્શ પુરૂષો અન્યત્ર મળતા નથી. તેમના યશથી એવું જણાય છે કે જેટલું પુણ્ય છે. તે સઘળુ પરાજીત થઈને તેઓનું દાસ બની ગયેલ જણાય છે. ર૯-૩ पादौ यदीयौ परिचुम्ब्य यत्र प्रलभ्यते रत्नपदं ह्यनय॑म् / रजःकणैः कैर्न पदं समाप्तं पुण्यात्म संसर्गवशेन मान्यम् // 31 // अर्थ-उनके सौभाग्यशालित्व की और अधिक क्या प्रशंसा की जावे इस बात की तो पुष्टि इतने से ही हो जाती है कि उनके चरणों का स्पर्श करके रजःकण भी अनय रत्न के स्थान को पा लेते हैं। सच बात है-पुण्यशालियों के संसर्ग से किनने मान्य पदवी प्राप्त नहीं की है // 31 // તેમના સૌભાગ્ય પણાની વિશેષ શું પ્રશંસા કરીએ એ વાતનું સમર્થન તો એનાથી જ થઈ જાય છે કે–તેમના ચરણેને સ્પર્શ કરીને રજકણ પણ બહુમૂલ્ય રત્નના સ્થાનને પામી જાય છે સાચી વાત છે કે પુણ્યશાળીના સંસર્ગથી કોણે માનનીય પણું પ્રાપ્ત કરેલ નથી ? 31 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचारते सुदर्शनज्ञानचरित्रलब्धौ लब्धावकाशाः प्रयतन्ति ते हि। . त्रिवर्गसद्धिविवृद्धिमाजः श्लथीकृता शेषविधिप्रबन्धाः // 32 // अर्थ-ये महाजन श्रावक सम्यग्ज्ञानदर्शन और सम्यक्चारित्र की प्राप्ति के निमित्त जब भी अवकाश पाते हैं प्रयत्न करने में लग जाते हैं धर्म अर्थ और काम इन त्रिवर्ग रूप ऋद्धि की विशेष वृद्धि से युक्त हैं अतः इनके कर्मों का तीव्र उदय मन्द बना रहता है // 32 // આ મહાજન શ્રાવક સમ્યકજ્ઞાન, દર્શન અને સમ્યફ ચારિત્રની પ્રાપ્તિ માટે જ્યારે અવકાશ મળે ત્યારે તે માટે પ્રયત્નમાં લાગી જાય છે, ધર્મ, અર્થ અને કામ આ ત્રિવર્ગ રૂ૫ દ્ધિની વિશેષ વૃદ્ધિથી યુક્ત છે. તેથી તેમના કર્મોને તીવ્ર ઉદય મન્દ રીતે રહે છે. ૩રા दानप्रवृत्तावपियत्र दानप्रवृत्तिरुया न जनेषु काचित् / रुणद्धि धर्मो विशिखान्तकान्तो धर्मक्रियां तां विशिखान्तकान्ताम् // 33 // अर्थ-जहां पर मनुष्यों में दान देने की प्रवृत्ति है फिर भी उनमें उग्ररूप से दान देने की प्रवृत्ति नहीं है. (यह विरोध हुआ) तो इसके निमित्त ऐसा अर्थ करना चाहिये कि मनुष्यों में दान खण्डन-करने की प्रवृत्ति नहीं है "दोऽवखण्डने" धातु से भी दान शब्द निष्पन्न होता है. // 33 // જયાં મનુષ્યમાં દાન આપવાની પ્રવૃત્તિ છે તે પણ તેઓમાં ઉગ્રપણાથી દાન દેવાની પ્રવૃત્તિ નથી. (આ વિરોધાભાસી વાક્ય છે) જેથી તેને અર્થ એ કરે જોઈએ કે भनुध्यामा हान ५उन ४२वानी प्रवृत्ति नथी. 'दोऽवखण्डने' धातुथी 55 हान शनी નિષ્પત્તિ થાય છે. યુવા रत्नत्रयेणैव परात्मतुष्टि भवत्यनूना नतु रत्नवृन्दैः। उरः स्थलं तत्रितयेन येषां विराजितं शिक्षयतीव धन्यान् // 34 // अर्थ-जहां पर धनिक पुरुषों को रत्नत्रयधारी धर्मात्मा यही शिक्षा देने के निमित्त अपने उरः स्थल को रत्नत्रय से सुशोभित किये रहते हैं कि भाई ! इन अचेतन रत्नदों से उत्कृष्ट आत्मतृप्ति नहीं होती है. यह तो केवल शारीरिक विभूषा के निमित्त ही माना गया है. आत्मतृप्ति के निमित्त नहीं यदि . आत्मतृप्ति करना है तो सम्यग्ज्ञान दर्शनादि तीन रत्नों को धारण करो // 34 // - જ્યાં આગળ ધનવાન પુરૂને આપવા રત્નત્રય ધારી ધર્માત્મા એજ શિક્ષા આપવા માટે પિતાના ઉપરથળને રત્નત્રયથી શોભાવતા રહીને જણાવે છે કે હે ભાઈ આ અચેતન Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 47 द्वितीयः सर्गः રત્નસમૂહથી ઉત્તમ એવી આત્મ તૃપ્તિ થતી નથી. એ તો કેવળ શરીર શભા રૂપ જ માનેલ છે. આત્મતૃપ્તિ માટે તે નથી હોતા જે આત્મતૃપ્તિ કરવી હોય તે સમ્યકજ્ઞાન દર્શનાદિ ત્રણ રને ધારણ કરે. 34 हरेः किशोरा इव पण्यवीथ्यां किशोरका यत्र सदा रमन्ते / धूल्यासंधूलिसरिताङ्गतोऽपि विलोभनीयाकृतयो भवन्ति // 35 // अर्थ-जहां पर गलियों में सिंह के बच्चों के जैसे बच्चे सदा खेला करते है. यद्यपि वे खेलते 2 धूलि से मलिन तन हो जाते हैं फिर भी वे बडे सुहावने लगते हैं // 3 // જ્યાં રસ્તાઓમાં સિંહના બચ્ચાની જેમ બાળકો રમતા રહે છે, જો કે તેઓ રમતા રમતા ધૂળથી મેલાઘેલા શરીવાળા થઈ જાય છે, તે પણ તેઓ ઘણા સેહામણા લાગે છે. ઉપા रजोभिराच्छादित हीरकादीन् मणीनिवेमान प्रविलोक्य कालान् / अगोचरां यत्र मुदंच वाचामाप्नोति तुष्टः पथिकादि वर्गः / 36 / / अर्थ-रजसे आच्छादित हीरा आदि मणियों के जैसे इन बालकों को देख- कर मुसाफिरों को जो आनन्द का अनुभव होता है वह वाणी के अगोचर है।३६। આ રજકણથી ઢંકાયેલા હીરા વિગેરે મણિ જેવા આ બાળકોને જોઇને વટેમાર્ગુઓને જે આનંદાનુભવ થાય છે, તે વાણિથી પર છે અર્થાત્ અવર્ણનીય છે. ઉદા ___क्रीडास्तान सेन्द्रकुमार तुल्यान् विलोक्य पुत्रान् पठनाभियोग्यान्। प्रकर्ष हर्षाञ्चितकाययष्टि गुरोरघीनं कुरुते पिता द्राक् // 37 // अर्थ-पांसुक्रीडा में रत इन देवकुमारों के जैसे बालकों को देखकर पिता जब उन्हें पढने के योग्य देखता है तो वह बडे ही हर्ष से प्रफुल्लित शरीर होकर उन्हें गुरुकी छत्रच्छाया में बैठा देता है // 37 // ધૂલી રમતમાં મશગુલ દેવકુમાર જેવા આ બાળકોને તેમના માતા પિતા જ્યારે તેઓને અભ્યાસ કરવા યોગ્ય જુવે છે, ત્યારે તેઓ ઘણા જ આનંદિત થઈને તેમને ગુરૂની છત્ર છાયામાં બેસાડી દે છે. અહી यत्र स्मरो ह्येव निपातहेतुः प्राणान्तकः पितृपतिश्चणमा। भयप्रदश्चातक एव याञ्चा परोऽस्ति षण्ढं मनएवनान्यः // 30 // Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 लोकाशाहचरित ____ अर्थ-जहां पर मनुष्यों के निपातका-पतनका कारण केवल-स्मर-कामदेव ही है , प्राणों का अन्त करने वाला पापी यमराज ही है, और वही लोगों को भवका दाता है. याचना करने में तत्पर केवल चातक ही है तथा वहां यदि कोई नपुंसक है तो वह मन ही है. वहां के मनुष्य ऐसे नहीं है // 38 // જ્યાં મનુષ્યના પતનનું કારણ કેવળ કામદેવ જ છે, પ્રાણના અંત કરનાર યમરાજ જ પાપી છે, અને એ જ લેકોને ભય ઉપજાવનાર છે, યાચના કરવામાં તત્પર કેવળ ચાતક જ છે. અને ત્યાં જે કઈ નપુંસક હોય તે તે મન જ છે. અન્ય કોઈ તેવા હેતા નથી. શ૩૮ द्वेषः परं मण्डलमण्डलेषु करेणु कंठीरवयोर्विरोधः। मिथो विवादः प्रतिवादिवादि प्रवादकाले खलु यत्र संस्थः // 39 // अर्थ-जहां परस्पर में द्वेष केवल कुत्तों में ही है मनुष्यों में नहीं विरोध केवल हाथी और सिंह में ही है और प्राणियों में नहीं आपस में विवाद वादी और प्रतिवादी में ही पाया जाता है. अन्य किसी भी प्राणी में नहीं॥३९॥ જ્યાં એકબીજા પ્રત્યે દ્વેષ કેવળ કુતરાઓમાં જ છે. મનુષ્યમાં નથી વિરોધ કેવળ હાથી અને સિંહમાં જ છે. અન્ય પ્રાણીમાં નહી. પરસ્પરને વિવાદ કેવળ વાદી પ્રતિવાદીમાં જ જણાય છે બીજા કોઈ પણ પ્રાણીમાં નહીં હટા अथा भवद्भपगुणाभिरामश्चौहाणवंश्यो नृपतिर्नराणः। यत्कीर्ति-पुंजेन विलज्जितोऽभूद्रविः सदाशीतलताविहीनः // 40 // अर्थ-उस सिरोही राजधानी के शासक चौहाण वंशीय राजा नराण थे. इनकी कीर्ति के पुंजने सूर्य को भी लजित कर दिया था इसीलिये वह सदा के लिये शीतलता से विहीन हो गया है // 40 // એ શિરોહી રાજધાનીનું શાસન કરનાર ચૌહાણ વંશના નરાણ નામના રાજા હતા. તેમની કીર્તિના પુજે સૂર્યને પણ શરમાવી દીધેલ તેથી જ તે સદા શીતલપણાથી રહિત થયેલ છે. 40 प्रचण्डदोर्दण्डमयेन यस्य पलायमानारि चमून लेभे। दुर्ग, परंसाथ दिगन्तराले आश्वलेभे ननुदुर्गमार्गम् // 41 // . अर्थ-जिसके प्रथल बाहु बलके भय से खदेडी गई शत्रु सेना ने.पुन:-अ. पने 2 किलों पर तो कब्जा नहीं कर पाया केवल उसने दिगन्तराल में आश्वस्त होकर दुर्गम मार्ग का ही सहारा लिया // 41 // Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितीयः सर्गः જેના પ્રકૃણ બાહુ બળના ભયથી છિન્ન કરેલ શત્રુસેના ફરીથી પિત પિતાના કિલ્લા સર કરી શકેલ નથી તેથી તેણે દિગન્તરાલને જ આશ્રય લઈને દુર્ગમ માર્ગનું જ અવલખને કર્યું 41 अपास्त षड्वर्गरिपुस्त्रिवर्ग सदोपसेवी व्यसनेष्वशक्तः / वधू मिव मा सकलां स्व पृथ्वीं यः साधयामास कृपाणपाणिः // 42 // अर्थ-जिसने काम क्रोध आदि रूप षट् रिपुओं को दूर कर दिया है. सदा धर्म अर्थ और काम को परस्पर विरोध रहित होकर जो सेवन करता है. एवं किसी भी व्यसन में जिसका चित्त लीन नहीं है ऐसे उस नरेशने अपने अधिकार की समस्त भूमिको वधू के समान केवल तलवार के बल पर ही अपने वश में किया // 42 // જેમણે કામ કાઘ વગેરે છ શત્રુઓને દૂર કરી દીધેલ છે, સદા ધર્મ, અર્થ અને કામનું પરસ્પર વિના વિરોધે જે સેવન કરે છે. તેમજ કોઈ પણ વ્યસનમાં જેનું ચિત્ત ચુંટેલ નથી એવા તે રાજાએ પિતાના અધિકાર વાળી સઘળી ભૂમિને પત્ની સરખી કરી તલવારના બળથી જ પિતાને આધીન કરી છે. જરા कर्पूरचन्द्रोज्ज्वल सद्गुणौधै गण्यैर्यदीयै न ममेऽन्तराले / भुवोविसर्पहिरकारी मच वासोऽवसाने द्युसदां सभायाम् // 33 // अर्थ-कर्पूर और चन्द्र के समान उज्ज्वल गणनीय जिस के गुण पृथ्वी में नहीं समाये अतः अन्त में उन्होंने शीघ्र ही देवताओं की सभा में अपना स्थान बनाया // 43 // કપૂર અને ચંદ્ર સરખા ઉજજવળ અને ગણનાપાત્ર જેમના ગુણ પૃથ્વીમાં ન સમાવાથી છેવટે તેમણે દેવોની સભામાં પોતાનું સ્થાન બનાવ્યું. 43 यदीय गांभीर्यगुणं निरीक्ष्य निधिपां विस्मय मास्थितोऽस्ति / इतीव वृद्धिक्षय लाञ्छनेन व्यक्ति सम्प्रत्यपि यः स्वकृञ्छ्रम् // 44 // ___ अर्थ-जिस नरेश के गांभीर्य गुणको देख कर समुद्र भी आश्चर्य चकित बन गया. इसीलिये वह वृद्धि और क्षय के बहाने से मानों अब भी अपने कष्ट को व्यक्त कर रहा है // 44 // છે. જે રાજાના ગાંભીર્ય ગુણ જોઈને સમુદ્ર પણ આશ્ચર્ય યુક્ત બની ગયે તેથી તે ભરતી અને ઓટના બહાનાથી હમણા પણ પિતાનું કષ્ટ બતાવે છે. 44 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 लोकाशाहचरित महीपते स्तस्य विलोक्य गुर्वी वदान्यतां किन्नरगीतकीर्तेः। .. सुराधिपादृष्टिपथं व्यतीताः कदा कदा दानमदान विघ्नः // 45 // अर्थ-किन्नर जिसकी किर्ति का गान किया करते हैं ऐसे उस नरेश की बहुत बडी वदान्यता-दानशीलता को देखकर कल्पवृक्ष कब दृष्टि के ओझल हो गये और कब उनका मदखण्डित हो गया यह हमें पता नहीं है // 45 // કિન્નરે જેની કીર્તિનું ગાન કર્યા કરે છે, એવા એ રાજાની વિશાળ દાન પરાયણતા જોઈને કલ્પવૃક્ષ કયારે નઝરથી બહાર થઈ ગયું અને કયારે તેના મદનું મર્દન થયુ તે કહી શકાતું નથી. ૪પા संदीपितेऽग्नौ प्रबलप्रतापे यस्यारयः सोढुमशक्नुवानाः। ज्वालावली शासनवारिमग्ना ररक्षुरत्यर्थमसून वसूनि // 46 // अर्थ-उसकी प्रबल प्रताप रूप अग्नि के प्रज्वलित होने पर अरिगण उसकी ज्वाला को सहने के लिये सर्वथा अशक्त होकर जब उसके शासन रूपी जल में मग्न हो जाते तब ही वे अपने प्राणों की और द्रव्यकी रक्षा कर पाते // 46 // તે રાજાની પ્રબલ પ્રતાપ રૂપી અગ્નિના પ્રજવલિત થવાથી શત્રુસમૂહ તેની જાળને સહન કરવાને અશક્ત થઈને જ્યારે તેમના શાસન રૂપી જળમાં ડૂબી જાય ત્યારે જ તેઓ પોતાના प्राण। मने 4ननी 26 // ७२री ता. // 46 // भुजं यदीयं परितोधिगम्य बभूव लक्ष्मीर्ललनेव वश्या / चलेति योऽस्या भुवि दुर्निवारः प्रवादवादस्तमियेष माटुंम् // 47 // अर्थ-जिसकी भुजाको खूब अच्छी तरह मजबूती के साथ पकडकर लक्ष्मी ललना के समान जो वश में हुई उसका कारण यह हैं कि संसार में जो उसका यह दुनिवार प्रवाद है-बदनामी है कि यह चञ्चल है-एक जगह स्थिर नहीं रहती है-सो मानों इसी अपने प्रवाद को धोने के लिये लक्ष्मी उसके पास स्थिर हो कर रही // 47 // જેની ભુજાને ઘણી મજબૂત રીતે પકડીને લક્ષ્મી સ્ત્રીની જેમ તેના વશમાં આવી તેનું કારણ એ છે કે જગતમાં જે નિવારણ ન કરી શકાય તેવો એનો પ્રવાદ છે કે તે ચંચલ છે એક સ્થળે સ્થિર રહેતી નથી. એ અપવાદને જોવા માટે લક્ષ્મી તેની પાસે સ્થિર રીતે રહી 47 तस्मिन् महीमण्डलभिद्ध शौर्ये महीपतौ शासति शासितारौं / पक्षच्युति भूधरघोरणीषु निकुञ्जकुजेषु परागरागः / 48 // Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः अर्थ-प्रबलशौर्यशाली वह नरेश की जिसने अपने शत्रुओं को हर प्रकार से वश में कर लिया है जब पृथ्वी का शासन कर रहा था. तब केवल भूधर घोरणी-पर्वतों की पंडियां ही-पक्षों की क्षतिवाली थी और निकुञ्जों में ही पराग के प्रति राग था वहां के मनुष्यों में न अपने प्रतिपक्ष रखने वालों की कमी थी और न दूसरों के अपराधों के प्रति राग था // 48 // - ઉત્કટ શૌર્યવાળો તે રાજા કે જેણે પિતાના શત્રુઓને દરેક રીતે વશ કરી લીધા છે તે જ્યારે પૃથ્વી પર અધિકાર કરી રહ્યા હતા ત્યારે કેવળ ભૂધર ધરિણ–પર્વતની પંક્તિઓ જ પક્ષે વિનાની હતી. ગુફાઓમાં જ પરાગ પ્રત્યે રાગ હતો ત્યાંના મનુષ્યમાં પિતાના શત્રુઓનું કમી પણું ન હતું તેમજ બીજાઓને અપરાધો પ્રત્યે રાગ ન હતો. 48 'मदतिमत्तगजेन्द्रपङ्क्तौ मिलिन्दवृन्देषु च कार्यमुग्रम् / - पयोधरास्येजघनस्थलीषु नखक्षते वाऽरुणिभैव यत्र // 49 // अर्थ-उस नरेश के शासन काल में मदोन्मत्त हाथियों में ही मद का स्राव होता था. मिलिन्दवृन्दों में-भ्रमर पंक्तियों में, कुचों के-अग्रभाग में तथा जघनस्थल में ही बहुत अधिक कालापन था और नखक्षत में ही ललाई थी वहां के मनुष्यों में आनन्द का अभाव नहीं था, पाप करने के प्रति अनुराग रूप कालापन नहीं था. और न कषाय के कारण उनके चेहरों पर ललाई थी // 49 // એ રાજાના શાસન સમયમાં મદોન્મત્ત હાથીઓમાં જ મદસ્રાવ થતો હતો અને ભ્રમર સમૂહમાં, સ્તનના અગ્રભાગમાં અને જઘન રથળે જ વધારે કાળાશ હતી. અને નક્ષતમાં જ લાલાશ હતી. ત્યાંના મનુષ્યમાં આનંદને અભાવ ન હતે પાપ કરવા પ્રત્યે અનુ માંગરૂપ કાળાશ ન હતી. અને કષાયના કારણે તેમના ચેહરા પર લાલાશ ન હતી 49 तर्के च सिद्धान्तपयोधि मध्ये शब्दागमे छंदसि काव्यबंधे / स राज्यचिन्ताभरतो निवृत्तो निनाय कालं कलयाऽवशिष्टम् // 50 // . अर्थ-वह नरेश जब राज्य काजको चिन्ता से निवृत्त होता तो वह अपना समय कभी न्याय शास्त्र के विचार में, कभी सिद्धान्त ग्रन्थों के अनुशीलन में कभी व्याकरण के शब्दों की सिद्धिकरने में, कभी नवीनछंदो की रचना करने में एवं कभी काव्य शास्त्र के विनोद में व्यतीत किया करता था // 50 // તે રાજો જ્યારે રાજકારોબારની ચિંતાથી નિવૃત્ત થતા ત્યારે તે પિતાને સમય કઈક અવાર ન્યાયશાસ્ત્રના ચિંતનમાં કઈ વાર સિદ્ધાંત ગ્રંથના પરિશીલનમાં કઈ વાર વ્યાકરણના Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 लोकाशाहचरिते શબ્દોની સિદ્ધિ કરવામાં કોઈવાર નવા નવા છંદોની રચના કરવામાં અને કોઈ વાર કાવ્ય. શાસ્ત્રના આનંદમાં વીતાવતા હતા. પણ शची शचीशस्य रतिः स्मरस्य रामस्य सीतेव भुवोऽस्य भर्तुः / बभूव राज्ञी स्मरमानही प्रिया क्रियाचारविशुद्धबुद्धिः // 51 // अर्थ-जिस प्रकार इन्द्र के इन्द्राणी, कामके रति, और रामके सीता प्रिय थी उसी प्रकार इस नरेश को अपनी रानी प्रिय थी वह इतनी सुन्दर थी कि उसके समक्ष कामदेव का मान गलित हो जाता था. उसकी बुद्धि क्रिया और आचार से विशेष शुद्ध थी // 51 // જે પ્રમાણે ઇંદ્રને ઈન્દ્રાણી, કામદેવને રતિ, અને રામચંદ્રને સીતાજી પ્રિય હતાં એજ પ્રમાણે આ રાજાને પિતાની રાણી પ્રિય હતી. તે એટલી સુંદર હતી કે તેની સામે કામદેવનું રૂપ તુચ્છ લાગતું હતું, તેની બુદ્ધિ ક્રિયા અને આચાથી વિશેષ શુદ્ધ હતી. પ૧ पराङ्गनालिङ्गनपापताणत् क्षयीकलङ्की शशभृन्नकोऽपि / सदागति र्गन्धरणापहाराद्विरूप मूर्तिश्चल एव नान्यः // 52 // अर्थ-उस नरेश के राज्यकाल में दूसरे की अङ्गना के आलिङ्गन करने रूप पापके ताप से क्षयी-अपनी कलाओं से घटनेवाला-और कलङ्क-वाला चन्द्रमाही था, वहां के मनुष्य न क्षयी-क्षयरोगवाले थे. और न कलङ्गवाले थे. तथा गन्ध गुणके चुराने के कारण सदागति-वायु ही विरूपमूर्ति-रूपरहित स्वरूप वाला था. वहां का कोई भी मनुष्य न विरूपमूर्ति-सुन्दर रूप से विहीन शरीरवाला था और न चल-नटखटी ही था. // 52 // એ રાજાના રાજ્ય કાળમાં અન્યની પત્નીને આલિંગન કરવા રૂપ પાપના તાપથી ક્ષયી-ક્ષયરેગ વાળો (પિતાની કળાઓને ઘટવાથી) અને કલંક વાળે ચંદ્ર જ હતે. ત્યાંના મનુષ્ય ક્ષયરોગ વાળા કે કલંક વાળા ન હતા. તથા ગંધ ગુણને એવાને કારણે પવન જ વિરૂપમૂર્તિરૂપ વિનાના સ્વરૂપ વાળો અને ચંચલ હતો, ત્યાંના કેઈ મનુષ્ય વિરૂપમૂર્તિ–સુંદરરૂપ રહિત શરીર વાળા ન હતા. તથા ચંચલ-નટખટ પણ ન હતા. પરા प्रियां क्रियाचार विशुद्धबुद्धिं हियाञ्चितस्मेरमुखी निरीक्ष्य / . तुतोष चक्रीव निधिं महीपः सखीजनैः सेवितपार्श्वभागाम् // 53 // अर्थ-क्रिया और आचार से विशुद्ध मतिवाली सखियों से युक्त पार्श्व भागवाली एवं लज्जा सहितमुसक्यान युक्त मुखवाली प्रिया को देखकर नरेश Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः इतना अधिक सतुष्ट होता कि जैसा चक्रवर्ती अपनी निधि को देखकर संतुष्ट * होता है // 53 // ક્રિયા અને આચાથી શુદ્ધ બુદ્ધિવાળી સખિયોથી યુક્ત પાર્થ ભાગ વાળી અને સલw હાસ્યયુક્ત મુખવાળી સ્વ પત્નિને જોઇને તે રાજા એટલે પ્રસન્ન થતો કે જેમ ચકવતિ પિતાને નિધિ (ખજાનો) જોઈને પ્રસન્ન થાય. આપવા सा लीलया सुभ्रुविलासलासैहोसैश्च मन्दस्मितभाषणैश्च / जहार चेतो वसुधाधिपस्य कृशोदरी तुङ्ग कुचाग्रनम्रा // 54 // अर्थ-उस कृशोदरी महारानी ने कि जो उन्नतकुचों के भार से झुकसीगई है. पर्वत के जैसे अपनी लीला से, सुभ्रुओं के विलासों से, लालों से नृत्यों से हास्य से और मन्दस्मित युक्त बातचीत से नरेश के मन को विमोहित कर लिया // 54 // કશેદરી એ મહારાણીએ કે જે ઉન્નત કચયુગ્મના ભારથી નમી ગયેલ છે તેણે પિતાની લીલાથી નેત્રના વિલાસોથી, નૃત્યથી, હાસ્યથી અને મંદ હાસ્ય યુક્ત વાર્તાલાપથી તે રાજાનું મન પોતાની પ્રત્યે આકર્ષી લીધું હતું. 54 त्रैलोक्यसौन्दर्यमणेः करण्डं कलेवरं कामनिधानमस्याः। दौवारिकाभ्यामिव तत्स्तनाभ्यां संरक्ष्यते वापि च वप्र काञ्च्या // 55 // अर्थ-उस महारानी का शरीर त्रिलोकगत सौन्दर्यरूपी मणिका पिटारा था और कामदेव का खजाना था अतः वह द्वारपाल के जैसे स्तनों द्वारा और कांचीरूप कोट के द्वारा सुरक्षित रहता था // 55 // એ મહારાણીનું શરીર ત્રણે લોકમાં રહેલ સૌંદર્યના પટારા રૂપ હતું. અને કામદેવના ખજાના રૂપ હતું. તેથી વાવ જેમ કિનારા રૂપ કેટથી રક્ષાય છે તેમ રતનરૂપી દ્વારપાલોથી સુરક્ષિત હતું. પણ विद्वत्तराज्याप्त समस्तविद्या सा भूपतेः प्रीणित पोष्यवर्गा / श्रेयस्तरापास्तसपस्तदोषा बभूव मंत्रीव सुराज्यकार्ये // 56 // अर्थ-वह राज्यकार्य के संचालन में नरेश को मंत्री के जैसा काम देती थी. क्योंकि वह उस कार्य में विशेष विदुषी थी। राज्य संचालन में जो दोष होते हैं वह उनसे विहीन थी. साधक आन्वीक्षिकी आदि विद्याओं में-नितियों में वह निपुण थी अतः वह विशेष 2 सराहने लायक थी // 56 // Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते તે મહારાણી રાજ્ય કાર્યના સંચાલનમાં રાજાને મંત્રી સમાન ઉપયોગી થતી, કારણ કે તે એ કાર્યમાં વિશેષ પ્રવીણ હતી. રાજ્ય સંચાલનમાં જે દો હોય છે તેનાથી તે રહિત હતી. આન્ધીક્ષિકી વિગેરે વિદ્યાઓમાં નીતિમાં તે પ્રવીણ હતી. તેથી તે વિશેષ રૂપે વખાણવા લાયક હતી. પ૬ सा शारदीयाम्बर कान्तिकान्ता सर्वेन्द्रियाणा ममितं प्रसौख्यम् / समर्पयन्ती स्वविलासभाव रजायता स्यामिता मृगाक्षी // 57|| - अर्थ-शरत्कालीन मेघ की कान्ति के जैसी सुहावनी वह महारानी समस्त इन्द्रियों के उत्कृष्ट सुख को अपने विलास भावों द्वारा अपने पतिदेव के लिये समर्पण करती हुई उन्हें बहुत 2 रुचिकर हुई // 57 // શારદીય મેઘની કાન્તિના જેવી સોહામણી તે મહારાણી ઈન્દ્રિયજન્ય ઉત્કૃષ્ટ સુખ પિતાના વિલાસ ભાવ દ્વારા પિતાના પતિને સમર્પણ કરીને તેમને તે અધિકાધિક પ્રીતિકર બની પછી अनङ्गकस्यापि विमर्दयन्ती सा राजराज्ञी मदनाभिमानम् / अन्तःपुरस्त्रीषु ररान राज्ञा प्रधानपट्टे समुदाऽभिषिक्ता // 58 // अर्थ-काम देव के मदोन्मत्त करने के अभिमान को चूर चूर करने वाली भी वह महारानी अन्तःपुरकी स्त्रियों के बीच में राजा के द्वारा बडे हर्ष के साथ प्रधान पद पट्टदेवी पद पर अभिषिक्त की गई // 58 // કામદેવના બીજાને મદન્મત્ત કરવાના અભિમાનના ચૂરેચૂરા કરનારી તે મહારાણીને અતઃપુરની સ્ત્રીની વચમાં રાજાએ ઘણું જ હર્ષની સાથે પરાણના સ્થાન પર અભિષિક્ત કરી. 58 केशेषु कायं च तनौ तनुत्वमधस्तनत्वं ननु नाभिगर्ते / भ्रुवोश्च वक्रत्वमपि प्रयाणे सा मंदिमानं दधती विरेजे // 59 / / अर्थ-यद्यपि उस महारानी के बालों में कालापन था शरीर में पतलापन था, नाभिकुंभरूपी गड्ढे में अधस्तनता थी, दोनों भ्रुओं में टेढापन था, और प्रयाण में मंदता थी तब भी वह बडी अच्छी लगती थी, // 59 // તે રાણીના વાળમાં શ્યામપણું હતું. શરીરમાં પાતળાપણું હતુ. નાભિકુંડ રૂપી ખાડામાં નીચાપણું હતું. બેઉ બુકટિમાં વાંકાંપડ્યું હતું. અને ચલનમાં મંદંપણું હતુ તેથી તે ઘણી જ મનોરમ્ય જણાતી હતી. પેલા Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः कृष्णाः कचा नान्यगुणाश्च मन्दा गति न बुद्धि ननु नाभिगर्त्तः / नीचो न वृत्तं कुटिलालकालिईत्ति न सद्भाव विनिर्मितायाः // 60 // अर्थ-सद्भावों से निर्मित हुई उस महारानी के बाल ही कृष्ण काले थे. अन्य गुण कृष्ण-पापों की कालिमावाले नहीं थे, गति में ही उसकी मन्दता थी, बुद्धि में मन्दता नहीं थी, नाभि गर्त में ही नीचता-गहराई थी, वृत-चरित्र में-ओछापन नही था' केशो की पंक्ति में ही कुटिलता-टेडापन थी, वृत्ति में कुटिलता नहीं थी, // 6 // સભાવથી નિર્માણ થયેલ એ મહારાણીના કેશ કાળા હતા. અન્ય ગુણે કૃષ્ણ એટલે કે પાપથી ખરડાયેલ કાલિમાવાળા ન હતા. તેની ગતિમાં જ મંદપણું હતું. બુદ્ધિમાં મંદપણું ન હતું. નાભિમાં જ નીચપણું હતું. ચારિત્રમાં હકાપણું ન હતું. કેશ સમૂહમાં જ વપણું હતું. વર્તનમાં વકતા ન હતી. 6 વ્યા गत्या विलज्जीकृतहंसहंसी शीलेन साऽधस्कृतविष्णुवामा / . स्वरेण वा न्यकृत केकिकान्ता स्वरूप तस्तजित कामभामा // 6 // ___अर्थ-उसने अपनी गति से तो राजहंसी को, स्वरूप से रति को, शीलसे लक्ष्मी को, और स्वर से कोयल को लजित करदिया था // 61 // - તેણે પોતાની ગતિથી રાજહંસીને, સ્વરૂપથી રતિને, શીલથી લક્ષ્મીને, અને સ્વરથી કોયલને શમાવી દીધા હતા. 6 લા तदङ्गना लाभवशान्प्रकर्षा हर्षोभवत्तस्य नृपालभोलेः सर्वेन्द्रियग्रामसुखस्य लाभः पुण्यादृतेनैव कदापि पुंसाम् / / 62 // अर्थ-उस नृपतियों के मुकुट रूप नरेश को उस अङ्गना की प्राप्ति से अत्यन्त हर्ष था, सच बात है-समस्त इन्द्रियों को जिससे सुख की प्राप्ति हो ऐसी वस्तु का लाभ जीवों को विना पुण्य के नहीं होता है // 2 // રાજાઓના મુગટરૂપ, એ રાજાને તે સ્ત્રી રત્નની પ્રાપ્તિથી ઘણો જ આનંદ હતે. ખરૂં જ છે કે-સઘળી ઈનિદ્રયને જેનાથી સુખની પ્રાપ્તિ થાય એવી વસ્તુઓનો લાભ જેને પુથ વિના થતો નથી. દરા तद्भामया सार्धमसौ ततान केलि कदाचित्कदलीवनेषु / भ्रमद्विरेफवनिझंकृतेषु प्रद्युम्नधिष्ण्येष्विव सुन्दरेषु // 63 // Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहरिते. अर्थ-यह नरेश कभी तो उस अपनी रानी के साथ जिन में भ्रमरों की झंकार हो रही है और जो साक्षात् काम के मन्दिर तुल्य सुन्दर हैं ऐसे कदली गृहों में क्रीडा किया करता // 6 // તે રાજા કોઈ વાર તે પિતાની રાણી સાથે જેમાં ભમરાઓનો ગુંજારવ થતો રહે છે અને જે સાક્ષાત કામદેવના મંદીર સમાન સુંદર છે એવા કદલી બનેમાં કીડા કરતે હતે. 63 इत्थं प्रियां स्वां विविधैरुपायैर्मनो विनोदार्थप्रसौ प्रयोगै : चिरं मृगाक्षी रमयन् स भूपः धर्म न नैनं विजही कदाचित् // 6 // अर्थ-इस प्रकार मनो विनोद के लिये अनेक उपायों एवं प्रयोगों से अपनी मृग की जैसी आखों वाली प्रिया के साथ चिरकालतक आनन्दानुभव करते हए नरेश ने अपने धर्म को-कर्तव्य को कभी भी नही छोडा // 64 // આ પ્રમાણે મનના આનંદ માટે અનેક પ્રકારના ઉપાયે અને પ્રગોથી મૃગના જેવા નેત્રવાળી પિતાની પ્રિયાની સાથે લાંબા સમય પર્યન્ત આનંદાનુભવ કરતાં રહેવા છતાં એ રાજાએ પોતાના કર્તવ્ય પાલનને કોઈ સમયે ત્યાગ કરેલ નથી. 64 अपास्तषड्वर्गरिपुः स वीरो यदा कदाचित्पविर्त्य रूपम् / रात्री प्रजा वृतमसौच वेत्तुं बभ्राम स शासित आत्मदेशे // 65 // अर्थ-जब कभी यह नरेश कि जिसने अपने अन्तरङ्ग के 6 शत्रुओं पर विजय पा ली है रूप को परिवर्तित कर प्रजाजनों के वृत्त को जानने के लिये रात्रि के समय अपने द्वारा शासित स्थानों में घूमता रहता था // 65 // જેણે પિતાના અંતરંગના છ શત્રુઓ ઉપર વિજય મેળવ્યો છે એવો એ રાજા પિતાને વેશ પલ્ટ કરીને પ્રજાજનોના વ્રત્તાંતને જાણવા માટે રાત્રિના સમયે પોતે શાસિત કરેલ થામાં ફરતો હતો. 65 क्षीरं पयोऽपास्य यथैव हंसो गृह्णात्ययं नीतिविदां वरेण्यः। तथैव दुष्टान परिहाय शिष्टान ररक्ष रक्षानिरतो महीपः // 66 // अर्थ-जिस प्रकार हंस पानी को दूर करके क्षीर को ग्रहण करता है उसी प्रकार नोति विज्ञों के मध्य में विशेष विशारद एवं प्रजा के रक्षण करने में लवलीन यह नरेश भी दुष्टों को छोडकर शिष्टजनों की रक्षा करता था. // 66 // જેમ હંસ પાણીને અલગ કરીને દૂધ ગ્રહણ કરે છે, એ જ પ્રમાણે નીતિજ્ઞોમાં વિશેષજ્ઞ અને પ્રજાના રક્ષણ કરવામાં દત્તચિત એ એ રાજા દુષ્ટોથી સજજનોનું રક્ષણ रोहता. // 66 // Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः सर्वेडपि वर्णाश्रमवासिनोऽस्मिन्न राज्येश्रियाऽऽलिङ्गितकृत्यरूपाः सुखेन शान्त्या निवसन्ति धर्म स्वाचाररूपं परिपालयन्तः // 67 अर्थ-इस राज्य में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र चारों प्रकार के वर्णाश्रमवासी जन रहते हैं. इन सब में अभ्युदय की कमी नहीं हैं इनके जितने भी कार्य हैं वे सब उसी के अनुरूप होते हैं रूप भी इनका अपने 2 विभव के अनुसार ही है. ये सब उस राज्य में सुख शान्ति पूर्वक निवास करते हैं और अपने अपने आचार रूप धर्मका पालन करते रहते हैं // 67 // આ રાજ્યમાં બ્રાહ્મણ, ક્ષત્રીય, વશ્ય અને શુદ્ર એમ ચારે વર્ણના લેકે રહેતા હતા. તે બધાની ઉન્નતિની કમિને ન હતી. તેમના જેટલા કાર્યો છે, તે બધા તેને અનુરૂપ જ થતા હતા, પત પિતાના વૈભવ પ્રમાણે તેમના રૂપે–આકૃતિ હતી. એ બધા એ રાજ્યમાં સુખ શાંતિ પૂર્વક નિવાસ કરતા હતા. તથાપિત પિતાના આચારાનુકૂળ ધર્મનું પાલન उता हता. // 17 // शिक्षा व्यवस्था प्रमुखाङ्गमत्र राज्यस्य कोषादनुदानमत्र / शिक्षालयेभ्यो मिलति व्ययार्थ व्युत्पन्नछात्राय च छात्रवृत्तिः // 6 // अर्थ-इस राज्य का प्रमुख अङ्ग शिक्षा की व्यवस्था है. राज्य की ओर से शिक्षा संस्थाओं को अनुदान यहां मिलता है और व्युत्पन्नमति वाले छात्रों के लिये छात्रवृत्ति भी मिलती है. // 68 // આ રાજ્યનું મુખ્ય અંગ શિક્ષણની વ્યવસ્થા છે. રાજ્ય તરફથી શિક્ષણ સંસ્થાઓને અનુદાન મળતું હતું. અને વ્યુત્પન્ન બુદ્ધિશાળી વિદ્યાર્થિઓને છાત્રવૃત્તિ પણ મળતી હતી. 68 सेनाविभागोऽपि सुरक्षितोऽस्ति सुशिक्षितो सोऽदयनीयवृत्तिः प्रजापरित्राणकृतेऽत्र बद्धकक्षः स उत्कोच विहीनकृत्यः / / 69 अर्थ-इस राज्यका जो सेना विभाग है वह सुरक्षित एवं सुशिक्षित है. यह दयनीय वृत्तिवाला नहीं है. प्रजाजनों के रक्षा करने में यह सदा कटिबद्ध रहता है. और इसके उपलक्ष्य में वह प्रजाजनों से लांच धूम नहीं चाहता है. // 69 // આ રાજ્યનો જે સેના વિભાગ છે તે સુરક્ષિત અને સુશિક્ષિત છે. એ દયનીય–દયા ઉપજાવે તેવી દશા વાળા નથી. પ્રજાજનોનું રક્ષણ કરવામાં તે હર હંમેશા કટિબદ્ધ રહે છે. અને તેના બદલામાં તે પ્રજા પાસેથી લાંચ રૂશ્વત ઈચ્છતા નથી. 6 લા पदे पदे वैद्यजनाश्रयोऽत्र वसन्ति यस्मिन् सुरवैद्यतुल्याः वैद्या अवन्ध्योषधयश्च येषां कीर्तिनुगातुं ह्यमरालयोऽभूत // 70 // Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते अर्थ-यहां जगह 2 वैद्यों के निवास स्थान है. जिनमें सुरवैद्य के जैसे वैद्य जन रहते हैं. ये जिस रोगी को औषध देते हैं वह उसके लिये रामबाण के जैसी होती है. मालूम पडता है इनकी इस कीर्ति को विशेष रूप से गाने के लिये ही मानों अमरालय-जो नहीं मरे ऐसे जीवों का आलय स्थान अलग से बस गया है. // 7 // અહીંયા સ્થળે રથળે વૈદ્યોના રહેઠાણો છે. જેમાં દેવવૈધના જેવા વૈદ્યો રહે છે. તેઓ જે રેગીને દવા આપે છે, તે એના રોગને માટે રામબાણ જેવી નીવડે છે. તેમની એ કીતિને વિશેષ પ્રકારથી જણાવવા જ જાણે અમરાલય અર્થાત જે ન મરે એવા જીનું સ્થાન અલગ વસ્યું છે તેમ જણાય છે. 7 इत्थं निष्कंटके राज्ये तस्मिन्नासन्प्रजाजनाः ... सुखिनः सर्वतो भावैः धर्मकर्मपरायणाः // 71 // अर्थ-इस प्रकार उस निष्कंटक राज्य में प्रजाजन सर्व प्रकार से सुखी थे. और अपने 2 धर्म और कर्म मे तत्पर थे. // 71 // આ રીતે આ નિષ્કટક રાજ્યમાં પ્રજાજન દરેક પ્રકારથી સુખી હતા અને પિત પિતાના ધર્મ કર્મમાં રત રહેતા હતા. 71. राज्यचिन्ता निवृत्तोऽसौ नृपो विद्वज्जनाश्रयः तेषां गोष्ठयां समास्थाय काव्यशास्त्रमचिन्तयन् / / 72 // ___ अर्थ-नरेश जब राज्य के कार्य से निवृत होते तो विद्वानों की गोष्ठी में बैठकर काव्य शास्त्र के सम्बन्ध में अपने विचारों को रखते // 72 // તે રાજા રાજ્ય કારોબારીથી નિવૃત્ત થઈ વિદ્વાની સાથે ગેષ્ટિમાં બેસી કાવ્યશાસ્ત્ર વિશેના પિતાના વિચારો પ્રગટ કરે હતા. ૭રા कादाचिद्धर्मविज्ञानां सभायां समुपस्थितः। जातायां तत्र गोष्ठयां स धर्मसर्वस्वमशृणोत् / 73 // अर्थ-जब कभी धर्मशास्त्र के वेत्ताओं की सभा होती तो उस में उपस्थित होकर ये नरेश वहां सम्पन्न हुइ गोष्ठी में धर्म के सर्वस्व को सुनते // 73 // કદાચ કોઈ વાર ધર્મ શાસ્ત્રની સભા મળતી તો તેમાં પોતે હાજર રહી તે રાજા ત્યાં થતી ધર્મ ચર્ચામાં ધર્મના સ્વરૂપનું શ્રવણ કરતો હતો. આ૭૩ कदाचिच्छावयामास साहसौदार्यवर्धिनीम्। कथां कटकवीरान् स पूर्ववीरानुवर्तिनीम्॥४॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः अर्थ-कभी 2 ये नरेश भूतकाल में वीरों के साथ सम्बन्ध रखनेवाली ऐसी साहस और उदारता को बढानेवाली कथा अपने कटक के वीरों को सुनाया करते // 74 // કઈ કઈ વાર ભૂતકાળના શરીર સંબંધી તેમની સાહસ અને ઉદારતા વધારનારી વાર્તા પોતાના સૈન્યના સુભટને સંભળાવતા. 74 यदाकदाचित्साधूनामाश्रयं प्राप्य तैः सह / मूर्तिपूजा विधातव्या नवेत्थं सोऽप्यचर्चयत् / / 75 // अर्थ-जब कभी ये नरेश साधु महाराजों के उपाश्रय में पहुँच कर उनसे मूर्ति पूजा के सम्बन्ध में विचार विनिमय करते और-पूछते कि मूर्तिपूजा करना चाहिए या नहीं // 7 // કોઇ સમયે એ રાજા સાધુઓના ઉપાસે જઈને તેમની પાસે મૂર્તિ પૂજાના સંબંધમાં વિચાર વિનિમય કરતો અને તેમને પૂછતો કે મૂર્તિ પૂજા કરવી જોઈએ કે નહીં? Il૭પા आरंभस्याति हेतुत्वान्मूर्तिपूजा सुहितप्रदा। क्वचित्कालेऽपि नास्ति न चारंभो विना वधात् // 76 // अर्थ-मूर्ति पूजा बहुत अधिक आरंभ की कारण भूत है. अतः वह हित. . पद नहीं हैं क्योंकि आरम्भ बिना जीव जीव के लिये किसी भी काल में वध के होते नहीं है. // 76 // મૂર્તિ પૂજા વધારે પડતા આરંભનું કારણ છે. તેથી તે હિતકર નથી. કેમ કે આરંભ વિના જીવ અન્ય જીવ માટે કઈ કાળે વધ કરવા યોગ્ય હોતા નથી. આ૭૬ __जीवरक्षाकृते विज्ञैः साधुभिर्मुखवस्त्रिका / मुखेतावच्च सूत्रेण बद्धयतां सा यथागमम् // 77 // अर्थ-इसी प्रकार जीवों की रक्षा के लिये विज्ञ साधुजनों को मुख पर आ. गम में कहे अनुसार डोरे से युक्त मुखवस्त्रिका बांधे रहना चाहिये // 77 // એજ પ્રમાણે પ્રાણિની રક્ષા કરવા નિમિત્તે વિજ્ઞ સાધુ પુરૂષ શાસ્ત્રમાં કહ્યા પ્રમાણે મુખ ઉપર દેરી સહિત મુખવસ્ત્રિકા ધારણ કરી રાખવી જોઈએ. આ૭૭ राजनीत्यवतारोऽयं धर्मनीत्यनुसारतः। पालयन स्वां प्रजां सर्वां धर्मतातोऽत्र जनिष्ट सः // 78 // * अर्थ-राजनीति के अवतार भूत इस नरेश ने धर्म नाति के अनुसार अपनी प्रजा का पालन करते हुए 'धर्मतात' इस पद को प्राप्त किया. // 78 // Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते રાજનીતિના અવતાર જેવા આ રાજાએ ધર્મ અને નીતિ અનુસાર પોતાની પ્રજાનું પાલન કરવાથી ધર્મતાત” આ પદને પ્રાપ્ત કર્યું. I78 प्रचण्ड दोर्दण्डविराजितोऽसौ सुपर्ववगैरपि गीतकीर्तिः / महीं स्वकीयां करिणीं चकार स्वविक्रमैर्विक्रमशालिमुरख्यः // 79 // __ अर्थ-जिसकी कीर्ति देवताओं के द्वारा भी गाई गई है एवं जो अपने प्रचण्ड भुज बल से विराजित है ऐसे इस नरेश ने अपने प्रबल पराक्रम से अपने अधिकार की मही को करिणी-टेक्स देनेवाली बनाया यहां "करिणी" पदमें श्लेष है // 79 // જેની કીર્તિનું દેવતાઓ પણ ગાન કરે છે. અને જે પિતાના પ્રચંડ ભુજ પરાક્રમથી વિરાજમાન છે એવા આ રાજાએ પોતાના પ્રબળ પાકમથી પોતાના અધિકારમાં રહેલ ભૂમિને કરિણી–ટેકસ આપનારી બનાવી. અહીં “કરિણી પદમાં લે છે. અર્થાત હાથિણી જેવી સમૃદ્ધ બનાવી. દ્રા योऽरातीन प्रबलान् गजानिव हरिः प्रोन्मूल्य शनिव भुक्तं वारिधिमेखलां वसुमती लक्ष्मीमिवाहन धराम्तीवातापसुतप्तदिक्षु वसुभृद्भूभृत्गणा प्राङ्गणम् त्यक्त्वा नैव ययु विलोक्य भयतः शार्दूलविक्रीडितम् // 80 // अर्थ-जिस प्रकार सिंह प्रबल गजों को नष्ट कर देता है उसी प्रकार इस नरेश ने भी काटों की तरह अपने बलिष्ठ शुत्रुओं को उखाड दिया और अर्हन्त जिस प्रकार बाह्य समवसरणा दिरूप विभूति को भोगते है उसी प्रकार इसने भी वारिधि रूप मेखलावाली अपने द्वारा अधिकृत इंस पृथिवी मंडल का भोग किया. उस समय इसके जो शत्रुभूत नृपगण थे वे अपने 2 राजमहलों के प्राङ्गण को छोडकर इसके प्रबल प्रताप से तप्त दिशाओं में भी इसके शार्दूल जैसे विक्रीडित को देखकर भय से नहीं गये. // 8 // - જેમ સિંહ બળવાન હાથિયેને ભગાડી મૂકે છે, એજ પ્રમાણે આ રાજાએ પણ પિતાના બળવાન શત્રઓને કાંટાની માફક કહાડી મૂક્યા હતા. અને અહં ન જેમ બાહ્ય સમવસરણાદિ૩૫ વિભૂતિને ઉપભોગ કરે છે, તે જ પ્રમાણે આણે પણ સમુદ્ર રૂપિ મેખલા (કંદરાવાળી આ પૃથ્વી મંડળને પોતાને આધીન કરીને તેને ઉપભોગ કર્યો. તે સમયે તેના જે શત્રુરૂપી રાજાઓ હતા. તેઓ પોત પોતાના રાજમહેલના આંગણાને છોડીને આના અધિક બળશાળી પ્રતાપથી તપેલી દિશાઓમાં પણ સિંહ સમાન તેનું કિડન જોઈને ભયથી ત્યાં ગયા નહીં. 80 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः इत्थं सौख्यपयोंधिमग्नमनसो नित्योत्सवानंदिनः / कृत्याकृत्य विचारचारुचतुरां तां शेमुषीं विभ्रतः : प्रीत्यानीतिविपक्षकक्षदहनस्याशेषभूमि भुजः। शुद्धाचाखलान्वितस्य दिवसा यान्त्यस्य मोदप्रदाः // 81 / / सुखरूपी समुद्र में मग्न मनवाले, नित्य होनेवाले उत्सवों से आनन्दित चितवाले, कृत्य एवं अकृत्य का विचार करने में चतुर बुद्धिवाले राजनीति के अनुसार अपनी नीति से विपक्षरूपी जंगल को भस्म करने वाली अशेष भूमिका भोगकरने वाले और शुद्ध-आचार वालो सेना वाले ऐसे इस राजा के समस्त दिन आनन्द दायक ही व्यतीत होते थे // 81 // સુખરૂપી સમુદ્રમાં જેનું મન નિમગ્ન છે એવા નિત્ય થનારા ઉત્સથી આનંદયુક્ત ચિત્તવાળા કૃત્યા કૃત્યને વિચાર કરવામાં કુશળ બુદ્ધિવાળા રાજનીતિ અનુસાર પિતાની નીતિથી શત્રરૂપી જંગલેને ભરમ કરીને સમગ્ર પૃથ્વીનો ઉપભોગ કરનારા અને શુદ્ધ આચારવાળી સેનાવાળા આ રાજાના સઘળા દિવસે આનંદ પૂર્વાફ જ વીતતા હતા. 81 यस्य ज्ञानमयीं सुधारसमयों स्वात्मस्थितौ बोधिकाम् / सद्भावैः समलकृतां शिवपथप्रस्थापिका शान्तिदाम् / मूर्ति वीक्ष्य जनाः प्रभावसहितां सन्मार्ग संसेवकाः। जाताः श्रीपति घासिलालमुनियो नः स्याद्भवार्तेर्हरः / / 2 / .. अर्थ-जिनको ज्ञानमयी सुधारसमय मूर्ति को कि जो आत्मा में स्थिति को बोधक है, सद्भावों से अलङ्कृत है, मुक्ति के मार्ग में-जीवों को लगाने वाली है शान्ति की दाता है तथा प्रभावशाली है को देखकर ही मनुष्य सन्मार्ग के सेवक बने हैं बन रहे है ऐसे वे श्रीमान् धासिलाल मुनिराज हमारी जन्मव्याधि को दूर करने वाले हों-॥८२॥ જેની જ્ઞાનમયી અને સુધારસ મયી મૂર્તિને કે જે આત્મામાં સ્થિતિ બોધક છે, સહુભાવથી શોભિત છે, મુક્તિ માર્ગમાં જેને લગાડનારી છે, શાંતિ દેનારી છે, તથા પ્રભાવશાળી છે, જોઈને જ મનુષ્ય સન્માર્ગ પરાયણ બન્યા છે, બની રહ્યા છે એવા એ શ્રીમાન ઘાસીલાલ મુનિરાજ અમારા જન્મ રૂપ વ્યાધીને દૂર કરનારા બને. ૮રા . जैनाचार्य-जैनदिवाकर श्रीघासीलाल अति विरचिते हिन्दीगुर्जरभाषानुवादसहिते लोकाशाहचरिते द्वितीयः सर्गः समाप्तः // 2 // Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते अथ तृतीयः सर्गः। अथाभवन् वैभवकीर्तिपुंजे सिरोही राज्ये बहवो धनाढ्याः। येषां गृहे पुण्यवशात्समृद्धि दिवानिशं नृत्यति नर्तकीव // 1 // अर्थ-वैभव एवं कीर्ति के पुंजरूप उस सिरोही राज्य में अनेक वैभवशाली धनी पुरुष हुए हैं जिनके गृहों में पुण्य के प्रभाव से समृद्धि दिन रात नर्तकी की तरह नचती रहती थी // 1 // વિભાગ અને કીર્તિના ઢગલારૂપ એ શિરોહી રાજ્યમાં વૈભવશાળી અને ધનવાન પુરૂષ થયા છે. જેમનાં ઘરમાં તેમના પુણ્યના પ્રભાવથી રાત દિવસ સમૃદ્ધિ નર્તકીની જેમ નાચતી रहे छ. // 1 // मुक्ताफलैः रत्नत्रयैः सुवर्णैः समृद्धिरूपैर्विविधैरमीभिः। . .. विभाति येषां तत मन्दिशन्तो मनोहरं मन्दिरमिन्दिरायाः // 2 // ___ अर्थ-मुक्ताफल, रत्नचय, और सुवर्ण इन अनेक प्रकार समृद्धि के रूपों से भरा हुआ जिनके विस्तृत भवनों का मध्य भाग लक्ष्मी के मनोहर भंडार जैसा शोभित होता है // 2 // મુક્તાફળ, રત્નસમૂહ, અને સોનું આવા અનેક પ્રકારના સમૃદ્ધિના રૂપથી ભરેલ જેમના વિરતારવાળા ભવનેને મધ્યભાગ લક્ષ્મીના મનોહર ભંડાર જેવો શોભી રહ્યો છે. રા दिवानिशं नृत्यति यत्र लक्ष्मीोसैविलासैविविधाङ्गहारैः। तैर्भूष्यमाणं गृहमिन्दराया रङ्गल्थलं वेति प्रतीयते मे // 3 // अर्थ-हास्य विलास, और विविध अङ्गहारों से जहां लक्ष्मी रात दिन नाचती रहती है. उनसे विभूषित हो रहे. वे घर ऐसे लगते हैं कि मानो ये लक्ष्मी के रङ्गस्थल ही है. // 3 // | હાસ્ય વિલાસ અને અનેક પ્રકારના અંગહારોથી જ્યાં લક્ષ્મી દિન રાત નાચતી રહે છે, તેનાથી શોભાયમાન થતા એ ઘરે એવા લાગતા હતા કે જાણે આ લક્ષ્મીને ક્રિીડાંગણ જ છે. આવા राज्ये च तस्मिन् हरिवल्लभाया रागात् पदस्पर्श मवाप्य सर्वाः / प्रजा तदीया हरिवल्लभायाऽभवन्नुरागात्तद्रूपतैव // 4 // अर्थ-उस राज्य में राग के वशवर्ती होकर समस्त प्रजाने हरिवल्लमा लक्ष्मी के पदों का स्पर्श किया, अत: उस राज्य की समस्त प्रजा जिसकी गोद में लक्ष्मी है ऐसी हो गई सो ठोक है-राग से रागरूपता ही होती है. // 4 // Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः % 3D%3D%3D %3D એ રાજ્યમાં રાણને વશ થઈને સઘળી પ્રજાને હરિવલ્લભ એવી લક્ષ્મીના ચરણ કમળનો સ્પર્શ કર્યો તેથી એ રાજ્યની સઘળી પ્રજા લક્ષ્મીવાન બની ગઈ કારણ કે રાગથી રાગરૂપતા 1 थाय छे. // 4 // पदे पदे साधुजनाश्रयोऽत्र विराजते यत्र मुनीन्द्रवृन्दः / तद्देशनां श्रोतुमनेकभव्या ग्रामान्तरादेत्य सहस्रकृत्वः // 5 // श्रृण्वन्ति भक्त्या प्रशमप्रभावाजिनेन्द्र दीक्षां च विमुच्य संगम् / आदाय सम्यग् विधिवत्प्रपाल्य कुर्वन्त्यनेके सफलं स्व जन्मः / / 6 / / अर्थ-जगह 2 यहां पर उपाश्रय हैं उनमें अनेक मुनिराज रहते हैं. उनकी देशनाको सुनने के लिये ग्रामान्तरों से हजारों की संख्या में भव्यजीव आते रहते हैं और भक्तिभाव से उसे सुनकर प्रशम भाववाले बन जाते हैं, इसमें से कितनेक भव्य बाह्य आभ्यन्तर-परिग्रह का त्याग करके जिनेन्द्र दीक्षा धारण करते हैं और विधिवत् उसका पालन करके अपने मानव जीवन को सफल करते हैं // 5-6 // અહીંયાં સ્થળે સ્થળે ઉપાય છે, તેમાં અનેક મુનિગણ રહે છે. તેનાથી દેશના સાંભળવા માટે બીજા ગામમાંથી હજારો ભવ્ય છે ત્યાં આવતા રહે છે. અને ભક્તિભાવથી તેને સાંભળીને પ્રશમભાવ વાળા બની જાય છે. તેમાંથી કેટલાક ભવ્ય બાહ્ય અને આભ્યન્તર પચિહને ત્યાગ કરીને જીનેન્દ્રની દીક્ષા ધારણ કરે છે. અને વિધિ પ્રમાણે તેનું પાલન કરીને પોતાના માનવ જીવનને સફળ બનાવે છે. પ-દા पुण्यानुबंधी मनुजो जरायां विशेषतः सद्गुरुदेशनातः / प्रबुद्धय बाह्यं परिमुच्य संगं अध्यात्मवीथ्यां पदमादधाति // 7 // अर्थ-अपने जीवन में पुण्यानुबंधी पुण्यका भोका मनुष्य वृद्धावस्थामें सद्गुरु महाराज की देशना से प्रबुद्ध-सचेत-होकर बाह्य परिग्रह का त्याग कर देता है और अध्यात्मवीथी में-आत्म कल्याण के मार्ग में लग जाता है // 7 // પોતાના જીવનમાં પુણ્યાનુબંધી પુણ્યને ભેગવનાર મનુષ્ય વૃદ્ધાવસ્થામાં સદ્ગુરૂ મહારાજના ઉપદેશથી સચેત થઇને બાહ્ય પરિગ્રહનો ત્યાગ કરી દે છે. અને આત્મકલ્યાણના માર્ગમાં લાગી જાય છે. જેના केचियादान विधायि भव्या भव्यान्तरङ्गा भवमीति भाजः। वाचंयमानां सविधे निशम्य जिनेन्द्रमार्ग परिदीपयन्ति // 8 // Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरित अर्थ-दया दान करनेवाले कितनेक भव्य जीव कि जिनका हृदयसम्यद्गर्शनादि गुणों को प्राप्त करने के योग्य है, संसार से डरकर मुनिराजों के पास उनकी देशना सुनकर जिनेन्द्रमार्ग को चमकाते रहते हैं. // 8 // દયાદાન કરનારા કેટલાક ભવ્ય છે કે જેમનું હૃદય સમ્યફ દર્શનાદિ ગુણેને પ્રાપ્ત કરવાને ગ્ય છે. તેઓ સંસારથી ડરીને મુનિરાજોની પાસે તેઓને ઉપદેશ સાંભળીને જીતેન્દ્ર પ્રણીત માર્ગને ચમકાવતા રહે છે. દયા केचिद्गृहस्था परिदीपिताङ्गाः कृशाङ्गकत्वादपि सूचयन्ति / अवाग् विसर्ग वपुषैव मुक्तेर्मार्ग हितान्वेषणमानवेभ्यः // 9 // अर्थ-कितनेक गृहस्थजन कि जिनके शरीर पर तपस्याके प्रभाव से चमक है पर वे (तपस्या के करने से) कृश शरीर वाले हैं, फिर भी अपने हित की गवेषणा करनेवाले मानवों के लिये. बिना वाणी का उच्चारण किये केवल शरीर मात्र से ही मुक्ति के मार्ग की सूचना दे देते हैं. // 9 // કેટલાક ગૃહરથ પુરૂષો કે જેમના શરીર પર તપસ્યાના પ્રભાવથી ચમક છે, પરંતુ તેઓ તપસ્યા કરવાથી દુર્બળ શરીરવાળા છે. તો પણ પોતાના હિતને શોધનારા મનુષ્યને વાણીનું ઉચ્ચારણ કર્યા વિના કેવળ શરીર માત્રથી જ મુક્તિમાર્ગની સૂચના આપી દે છે, હું अनादिसंसारपरम्परायां मुहुर्मुहुः संभ्रमता मयाऽत्र / . नास्तीह कश्चित् खलु पुद्गलः सः मुक्त्वोज्झिजो यो न भवेदनन्तम् / 10 / ___ अर्थ-इस अनादि संसार परम्परा में वारंवार जन्म मरण करते हुए मुझ से ऐसा कोई पुद्गल नहीं बचा कि जिसे मैंने अनन्त बार भोगकर नहीं छोड दिया है // 10 // આ અનાદિ સંસાર પરંપરામાં વારંવાર જન્મ મરણ ધારણ કરનાર એવા મારાથી એવો કોઈ પુગળ બેલ નથી કે જેને મેં અનન્તવાર ભેગવીને છોડી દીધેલ ન હોય. 1 सिद्धान्तवाक्यं परिशील्य चैतत् संसारवासात् परित्रस्तचित्तः। निवृत्तिमार्ग परिकांक्षमाणो गुर्वन्तिकं कश्चिदुपैति नित्यम् // 11 // अर्थ-इस सिद्धान्त के वाक्य का खूब अच्छी तरह विचार करके संसार के वास से-प्रवृत्ति मार्ग से त्रस्तचित्तवाला कोई 2 मनुष्य निवृत्ति मार्ग की चाहनावाला हुआ गुरु महाराज के पास प्रति दिन आता है // 11 // . આ સિદ્ધાંત વાક્યને ખૂબ સારી રીતે વિચાર કરીને સંસાર વાસથી અર્થાત પ્રવૃત્તિ માર્ગથી ત્રસ્ત ચિત્તવાળા કોઈ કોઈ મનુષ્ય નિવૃત્તિ માર્ગની ચાહના કરીને દરરોજ ગુરૂમહારાજ પાસે આવે છે. 11 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 65 / तृतीयः सर्गः के श्चदिदग्धै भवनेष्वलुब्धैः स्त्रीपुत्रमित्रादिषु शान्तरागैः। भव्यैः सरोजैः सलिले गृहे स्वे विरक्तिभावेन समुष्यते च // 12 // अर्थ-कितनेक समझदार मनुष्य भवन आदि परिग्रह में निर्मोह वृत्तिवाले होकर स्त्री पुत्र मित्र आदि कों में रागभाव की शान्तिहो जाने के कारण कमल जिस प्रकार जल में रहता हुआ भी जल से भिन्न रहता है उसी प्रकार विरक्ति भाव से घर में रहते हैं // 12 // કેટલાક સમજદાર મનુષ્ય રહાદિ પચિહમાં મેહને ત્યાગ કરીને તથા સ્ત્રી પુત્ર, મિત્ર, વિગેરેમાં રાગભાવની શાંતિ થઇ જવાથી કમળ જેમ પાણીમાં રહેવા છતાં પણ તેનાથી અલગ રહે છે, એ રીતે વિરક્ત ભાવથી ઘરમાં રહે છે. 1 રા भव्याज वृन्द मुनिबन्दसूर्याः प्रबोधयन्तीह वृषोपदेशैः / अतश्च तत्रत्य जना जिनाज्ञानभिज्ञाता दोषकलङ्करिक्ता // 13 // अर्थ-यहां मुनिजन रूपी सूर्य भव्यकमलों को धर्मोपदेशों से विकसितप्रफुल्लित करते रहते हैं इसलिये यहां की जनता जिनेन्द्र सिद्धान्त के अनभिज्ञतारूपी दोष कलङ्क से विहीन है // 13 // અહીં મુનિજન રૂપી સૂર્ય ભવ્ય જીવરૂપ કમળને ધર્મોપદેશથી પ્રફુલ્લિત કરતા રહે છે. તેથી અહીંની જનતા જનેન્દ્ર સિદ્ધાન્તના અજાણ પણાના દેવરૂપી કલંક વિનાની છે. 13 हिंसानृतस्तेयकुशीलसंगैः पापैः कषायादिभिरत्र कोऽपि / न बाध्यते धार्मिक वृत्तिमत्वाद्धर्मो भवत्येव विपत्तिविघ्नः // 14 // . ____ अर्थ-यहां का कोई भी जन हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पांच पापों से तथा क्रोध, मान, माया और लोभ इन-कषायों से बाधित नहीं होता है क्योंकि यहां के लोगों की वृत्ति धार्मिक है. सच बात है धर्म विपत्ति का विघातक होता है // 14 // અહીં કોઈપણ મનુષ્ય હિંસા, ગૂઠ, કુશીલ અને પરિગ્રહ આ પાંચ પાપથી તથા મધ, માન, માયા અને લેભ આ ચાર કષાયથી બાધિત થતાં નથી. કેમ કે અહીંના લોડોની વૃત્તિ ધાર્મિક છે. એ સાચું જ છે કે ધર્મ વિપત્તિને વિઘાતક છે. 14 भनङ्गमानोन्मथनेन शस्या पदे पदे यत्र वसन्ति धीराः। क्योभिजात्यादि गुणैश्च कृष्टा धैर्यच्युताज्जायत कामवामा // 15 // Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ তীব্দাহাস্থতি अर्थ-यहां पद पद पर अनङ्ग के मान को मथनकरनेवाले धीरपुरुषरहते हैं. उनके वय, आभिजात्य आदि गुणों से खिंची हुई कामवामा अपने धैर्य से रहित हो जाती है. // 15 // અહીંયાં સ્થળે સ્થળે કામદેવના માનનું મર્દન કરવાવાળા ધીર પુરૂષો વસે છે તેની વય કુળ વિગેરે ગુણોથી ખેંચાયેલ કામવામા પિતાનાં વૈર્યથી ખંડિત થઈ જાય છે. 1 પા. यत्राङ्गना शीलविभूषिताङ्गा वयोभिरम्या प्रशमादिमत्यः / परोपकारपवणा अतन्द्राः धर्मोपकृत्ये निरता सपुत्राः // 16 // अर्थ-यहां स्त्रियां वयस्क होने पर भी शील से विभूषित अगवाली हैं प्रशम संवेग आदि भावों से संपन्न है. परोपकार करने में प्रवीण हैं धार्मिक कार्यों के करने में प्रमाद से रहित हैं और योग्यपुत्रों से युक्त है // 16 // અહીંની સ્ત્રિ ગ્ય વયવાળી હોવા છતાં પણ શીલથી રક્ષિત શરીર છે. પ્રથમ સંગ વિગેરે ભાવોથી યુક્ત છે, પરોપકાર કરવામાં નિપુણ છે, ધાર્મિક કાર્ય કરવામાં પ્રમાદ વિનાની છે. અને યોગ્ય સંતાનોથી સંપન્ન છે. 16 बालासुधादीधिति मूर्तिरूपाः नैसर्गिकालापपराः परेषाम् / मनोहरा लोचनहारिणस्ते श्वताम्बराः सन्ति गृहे गृहेऽत्र // 17 // अर्थ-यहां घर घरमें चन्द्रमा की जैसी शीतल मूर्तिवाले बालक हैं जो अपनी स्वाभाविक बोली से शत्रुओं तक के भी मनको सुहाते हैं. आंखोको वे बडे प्यारे लगते हैं और धवलवस्त्रों से वे आवेष्टित रहते हैं // 17 // અહીં ચંદ્રમાની મૂર્તિમાન શીતલતા જેવા બાળકો છે. જે પોતાની સ્વાભાવિક વાણીથી દુશ્મનના મનને પણ આનંદિત કરે છે. નેત્રોને તે ઘણા પ્યારા લાગે છે અને શ્વેત વસ્ત્રોથી તેઓ યુક્ત રહે છે. a1 છા मृदुत्वसर्गेऽसफलोऽत्र वेधाः प्रतीयते यत् प्रतिसद्म नार्यः / वीराङ्गनानां प्रतिबिम्बरूपाः विपत्तितस्ता अधुनाऽप्यधृष्याः // 18 // अर्थ-मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि सुकुमारता की रचना में यहां पुण्य कर्म असफल रहा है क्योंकि प्रत्येक घर में यहां स्त्रियां वीराङ्गनाओं के प्रतिविम्बरूप है क्योंकि विपत्ति से ये अभीतक भी नहीं घबडाती है. // 18 // મને એવું લાગે છે કે– સુકુમાર પણ—કોમળતાની રચનામાં અહીં પુણ્યકર્મ અસફળ રહેલ છે. કેમ કે દરેક ઘરમાં અહીં શ્ચિયે વીરાંગનાઓના પડછાયા જેવી છે. કેમ કે વિપ ત્તિથી તેઓ કદી પણ ગભરાતી નથી. 18 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः स्वान्ते तथा वाचि मृदुखभासां धात्राकृतं पुण्यवतैव भोग्यम् / परंच देहे न कृतं सतीनां देहस्य वज्रेण विनिर्मितत्वात् // 19 // __ अर्थ-इन स्त्रियां के हृदय में और बचन में पुन्यकर्म ने जो मृदुता की रचना की है वह तो साधारण पुण्यजनों द्वारा भोग्य ही होता है. परन्तु पतिव्रता का जो देह है वह तो विशिष्ट पुण्यशाली ही भोग्य होता हैं. क्यों कि वह उनका देह वज्र से बना हुआ है अतः जिनमें वज्र को संभालने की शक्ति होती है वे ही उसे संभाल सकते हैं साधारण जन नहीं वीर वीरले होते हैं इसी लिये पुण्य कर्म-सती साध्वीयों के देह को वज्र का बनाता है. // 19 // આ સ્ત્રિયોના હૃદયમાં અને વચનમાં વિધાતાએ મૃદુપણાની જે રચના કરી છે તે તે સાધારણ પુણ્યવાન દ્વારા ઉપભોગ્ય હોય છે. પરંતુ પતિવ્રતાને જે દેહ છે તે વિશેષ પ્રકારના પુણ્યશાળીને જ ભોગ્ય હોય છે, કેમ કે તે એનો દેહ વજાથી બનેલ હોવાથી જેનામાં વજને સાચવવાની શક્તિ હોય છે, તેજ એને સંભાળી શકે છે. સાધારણ પુરૂષ નહીં વીર પુરૂષ વિરલે જ હોય છે તેથી પુણ્યકર્મ સતી સાષ્યિના દેહને વજય બનાવે છે. 19 लावण्यकान्तो धृतिबुद्धिरूपे विभूतिभूतौ च द्युतौ यथेमाः। स्रष्टा विधात्रा परिवीक्ष्य मन्ये स्वर्गीयसर्वस्वमिहैव क्षिप्तम् // 20 // अर्थ-लावण्यकान्ती धृति, बुद्धि, रूप, विभूति और युति जैसी यहां की स्त्रियों की पुण्य ने रची है वैसी वह सब अन्यत्र नहीं रची गई है. यह सब यहां देखकर मैं ऐसा मानता हूं कि उसने समस्त-स्वर्गीय वैभव यहां पर कुढेल दिया है-प्रक्षिप्त कर दिया है // 20 // અહીંની ઢિનું લાવણ્ય, કાન્તિ, ધૃતિ, બુદ્ધિ રૂપ વિભૂતિ અને યુતિ વિધાતાએ ચેલ છે તેવી અન્યત્ર રચી નથી. આ સઘળું અહીં જોઈને હું તો એવું માનું છું કે તેણે સધળે સ્વર્ગને વૈભવ અહીં જ ઠાલવી દીધું છે. રા धनाधिपानां नयनाभिरामा महाय॑वस्त्रावृतगात्रपात्राः। सौवर्णिकाभूषणभूषिताङ्गा कामाङ्गनेवात्र लसन्ति वामाः // 21 // अर्थ-यहां पर धनिकों की स्त्रियां जो कि देखने में बडी सुहावनी लगती है और जो सदा वेश कीमती वस्त्रों से सुसजित रहती है. तथा सुवर्ण के आभूषणों से जिनका शरीर विभूषित रहता है. देवाङ्गना रति के जैसी लगती हैं. // 21 // Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते અહીં ધનવાનોની સ્રિ કે જેઓ જોવામાં ઘણી જ સેહામણી લાગે છે. અને તેઓ પિતાને વશ કીમતી વસ્ત્રોથી સુસજજીત રાખે છે. તથા સેનાના ઘરેણાઓથી જેનું શરીર શણગારેલ રહે છે. તેથી તેઓ દેવાંગના રતિના જેવી લાગે છે. રક્ષા कचित्त्वचित्सन्ति मधुम्बरास्तापयोभिकान्ता अमलाम्बुवस्त्राः / पद्मानना नारोनिभाः सुवाप्यो निःश्रेणिबद्धा सुगमावताराः // 22 // अर्थ-कहीं 2 वे धनिकों की स्त्रियां वापी के समान प्रतीत होती हैं. वापिका मधुरस्वरा कोकिल से युक्त होती है ये मीठी आवाज से युक्त हैं. वापिका वयोभिकान्त-पक्षियों से सुहावनी लगती है. ये अपनी जवानी अवस्था से सुहावनी लगती हैं वापिका-अमलाम्बुवस्त्रा-निर्मलजलरूप वस्त्रों से युक्त होती है निर्मलजल जैसे बस्त्रों को धारण करती हैं वापिका पद्म ही जिसका मुख है ऐसी होती है और ये पद्म के जैसे मुखवाली हैं वापिका सीढियों से युक्त होती है-ये निःश्रेणिबद्ध हैं-घर से जब बाहर निकलती हैं-तब कतार बद्ध होकर ही निकलती हैं-अकेली नहीं वापिका सुगमावतार होती है सीडियो द्वारा उसमें अच्छी तरह से लोग उतरते हैं. ऐसी वापिका होती है. ये भी ऐसी है कि क्रोधित अवस्थामें इन्हें समझाने पर नीचे उतारा जा सकता है // 22 // કયાંક એ ઘનવાની ઢિયે વાવના જેવી જણાય છે, વાવ મધુર સ્વરવાળી કોયલેથી યુક્ત હોય છે. તે મીઠા અવાજવાળી હોય છે. વાવ પક્ષિયથી સોહામણી લાગે છે, આ સિંહે પિતાની યુવાન અવરથાથી સોહામણી લાગે છે. વાવ નિર્મલ જલ રૂપી વચ્ચેથી યુક્ત હોય છે. આ નિર્મલ જળ જેવા વસ્ત્રોને ધારણ કરે છે. વાવ પદ્મજ જેનું મુખ છે તેવી હોય છે અને આ પદ્મના જેવી મુખવાળી હોય છે. વાવ પગથિયા વાળી હોય છે, આ નિશ્રેણિબદ્ધ અર્થાત ઘરથી જ્યારે બહાર નીકળે છે, ત્યારે સમુહબદ્ધ થઈને નીકળે છે. એકલી નહીં. વાવ સુગમાવતાર હોય છે, એટલે કે પગથિયાઓ દ્વારા તેમાં સારી રીતે લેક જવર અવર કરી શકે છે. આ પણ એવી હોય છે કે શ્રદ્ધાવસ્થામાં સમજાવટથી નીચે ઉતારી શકાય છે, અરરા शैलूषकान्तेव मरुस्थललात् धरात्र घराऽस्ति नैवास्ति समस्वभावा / क्वचित्समा सा विषमा क्वचिच्च क्वचिच धूल्यालिन गावृतात्मा // 23 // अर्थ-मरुस्थल होने से यहां धरा तटनी के समान समस्वभाव वाली नहीं है. कहीं तो यह विषम है, कहीं सम है और कहीं 2 यह धूली पत्थर के पर्वतों से आवृत है // 23 // Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः મરૂભૂમિ હોવાથી અહીંયા પૃથ્વી નદીની જેમ સમ સ્વભાવવાળી હોતી નથી. કયાંક એ વિષમ છે અને ક્યાંક સમ છે. અને કયાંક કયાંક એ ધૂળ અને પત્થરોથી અને પર્વતથી યુક્ત છે. રિલા वन्ध्येव सा कुत्र च निष्फला वा क्वचित्पुरन्ध्रीव फलान्विता दा / क्रमेलकानां निचयैः क्वचिद्वोरणः क्वचिच्छागचयैस्तता वा // 24 // ___ अर्थ-वन्ध्या स्त्री की तरह वह कहीं पर निष्फल है शस्य संपत्ति से हीन पुत्र पौत्रादि से रहित हैं और कहीं पर वह पुरन्ध्री की तरह सफल-फल फूलों से युक्त-पुत्र पौत्रादि से युक्त हैं. कहीं 2 यहां उटों के झुंड कहीं भेडों का समूह और कहीं यहां बकरा बकरियों का समूह से व्यास है // 24 // વધ્યા સ્ત્રીની માફક તે કયાંક કયાંક નિષ્ફળ છે. અર્થાત પુત્ર પૌત્રાદિ રહિત છે. અને કયાંક કયાંક ભૂમીની માફક સફળ પુત્રપૌત્રાદિ પરિવારથી યુક્ત છે. અહીંયાં ક્યાંક કયાંક ઉોના ટોળા ક્યાંક ઘેટાઓના ટોળાં અને ક્યાંક બકરા બકરીઓના ટોળાથી વ્યાપ્ત છે. રંજા क्वचित्करीलादिवनस्पतीनां प्राचुर्यमत्र प्रतिग्राममस्ति / क्वचिच्च कोलेय कुटुम्बिनीभ्यो भीति दिवाप्यस्ति पदे पदे // 25 // ___ अर्थ-यहां हर एक ग्राम मे करील आदि वनस्पतियों की प्रचुरता है. तथा किसी 2 ग्राम में कुत्तियों का पद पद पर दिन में भी भय है // 25 // . અહીં પ્રત્યેક ગામમાં કરેલી વિગેરે વનસ્પતિનું અધિકપણું છે. તથા કોઈ કાઈ ગામમાં ડગલે ડગલે કુતરિને ભય દિવસમાં પણ રહે છે. ઘરપા जैना जना यत्र गुरोनिपीय धर्मामृतस्यन्दिनी भिवाचम् / स्वर्गेऽपि ते निस्पृहवृत्तिभाजो भवन्ति कुत एतद्वृत्त्यभावात् // 26 // अर्थ-यहां पर जैन जन गुरु से धर्मामृत बहाने वाली विशिष्ट वाणी कोसुनकर स्वर्ग की चाहना से भी रहित हो जाते हैं. क्यों कि स्वर्ग में गुरु की पाणी सुनने को नहीं मिलती है // 26 // અહીં જૈન જન સમૂહ ગુરૂમહારાજ પાસેથી ધર્મામૃત વહેવડાવનારી વાણીને સાંભળી વર્ગની પણ ઈચ્છા કરતા નથી. કેમ કે-વર્ગમાં ગુરૂની વાણી સાંભળવા મલતી નથી. રા नित्योत्सवास्ते च कृतज्ञभावात् पात्रादिदानप्रभृतीद्धकार्ये / गुरोः सदा भक्तिभरावनम्राः वयोग्यसेवां दधतीह नित्यम् // 27 // Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरित ___ अर्थ-नित्य उत्सव करने वाले वे लोग कृतज्ञतावश पात्र आदि विशिष्ट कार्यो द्वारा गुरु देवों की भक्ति से युक्त होकर अपने से जितनी सेवा हो सकती है, उतनी सेवा करते हैं // 27 // પ્રતિદિન ઉત્સવ કરનારા એ લેકે કૃતાપણાથી પાત્રાદિ વિશેષ કાર્યો દ્વારા ગુરૂદેવ પ્રત્યેના ભક્તિભાવથી પ્રેરિત થઈને પોતાનાથી જેટલી બની શકે તેટલી સેવા કરે છે. રછા विदग्धतेषां चतुरैः सुवेषैः धनद्धयोऽनय॑सुभूषणैश्च / / तारुण्यभूतिश्च विलासभावै रुपासकानां खलु सूच्यतेऽत्र // 28 // अर्थ-यहां श्रावकों की उनके सुन्दर वेष भूषा से चतुराई, वेश कीमती सुन्दर आभूषणों से धनिकता एवं विलास भावों से जवानी का प्रारम्भ होता जाता है. // 28 // અહીં શ્રાવકોના સુંદર વેષભૂષાથી તેમની ચતુરાઇ, સુંદર અલંકારોથી તેમનું ધનિક પણું અને વિકાસ ભાવોથી તેમની યુવાની પ્રગટ થતી જણાય છે. શરતો सत्पात्रदानादिषु रागभावाच्छीलोपवासे च तथानुरागात् / गुर्वन्तिके भक्त्यनुरूपवासाव्यत्व मेषा मनुमीयते द्राक् // 29 // ___ अर्थ-सत्पात्रदान आदिकों में राग भाव होने से, शील पालने मेंऔर उपवास करने में अति अनुराग होने से, एवं गुरु जनों के पास भक्ति के अनुरूप ऊठने बैठने से इन श्रावकों का भव्यत्वभाव , बहुत जल्दी अनुमानित हो जाता है // 29 // સત્પાત્રદાન વિગેરેમાં રાગભાવ હેવાથી શીલ પાળવામાં અને ઉપવાસ કરવામાં ઉત્કટ અનુરાગ હોવાથી તથા ભક્તિભાવથી ગુરૂજનો પાસે ઉઠવા બેસવાથી આ શ્રાવકોનું ભવ્યપણું ઘણું જ જસ્ટિથી અનુમાનિત થાય છે. રહા दयादमत्यागतपोऽनुरक्तै भव्योर्जितं कर्म लुनाति भावः / कर्मक्षये कारणमेति देवः शास्त्रं गुरुर्वा तद्भक्तिरागः // 30 // अथ-दया दम, त्याग और तप में अनुरक्त भावों द्वारा भव्य जीव अर्जित किये गये कर्मों को काट देता है. ठीक बात है कर्मक्षय होने में निमित्त कारण देव शास्त्र और गुरु तथा उनकी भक्ति में अनुराग का होना कहा गया है // 30 // Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः દયા, દમ, ત્યાગ, અને તપમાં અનુરાગ ભાવથી ભવ્ય જીવ પ્રાપ્ત કરેલા કર્મોને ભેદી નાખે છે અને કર્મને ક્ષય થવામાં નિમિત્ત કારણ દેવ, ગુરૂ અને શાસ્ત્ર તથા તેમની ભક્તિમાં અનુરાગ હોવાનું કહેલ છે. 30 दोषैर्यष्टादशभिर्विहीनो देवश्च बाह्यान्तरसंगशून्यः / गुरुच तद्गोनत्वागमश्च एतत् त्रयं जीवहितोपदेष्टः // 31 // अर्थ-अठारह दोषों से रहित देव, बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह से शून्य गुरु, और अर्हन्त देव की वाणी रूप आगम ये तीन जीव के हितोपदेष्टा माने गये हैं // 31 // અઢાર દોષથી રહિત દેવ, બાહ્ય અને આભ્યન્તર પરિગ્રહ રહિત ગુરૂ અને અહંન્ત દેવની વાણી રૂપે આગમ આ ત્રણ જીવના હિતકારક માનેલ છે. 31 गुणानुरागाद शुभानिवृत्तिर्दयादि भावेषु च सत्प्रवृत्तिः / सद्देवहीनेऽस्मिन भारताख्ये क्षेत्रे शरण्या गुरुदेववाणी // 32 // अर्थ-गुणों मे सम्यग्दर्शनादि सदगुणों में-अनुराग करने से जीव के अशुभकी निवृत्ति होती है और शुभ में प्रवृत्ति होती है. इस कलि काल में साक्षास्केवल ज्ञानी अर्हन्त देव से विहीन भरत क्षेत्र में केवल एक गुरुदेव की वाणी ही शरण भूत है. // 32 // સમ્યગ્દર્શન વિગેરે ગુણમાં પ્રીતિ કરવાથી જીવના અશુભની નિવૃત્તિ થાય છે. અને શુભમાં પ્રવૃત્તિ થાય છે. આ કલિકાળમાં સાક્ષાત કેવળજ્ઞાની અરિહન્ત દેવને છોડીને કેવળ એક ગુરૂદેવની વાણી જ શરણભૂત છે. ૩રા जीवादितत्त्वेषु च जायते या स्वभावतो वाऽथ परोपदेशात् / श्रद्धा च सम्यक्त्व मनेन युक्तो भव्यो द्युतद्भिभवति प्रपूज्यः // 33 // ___ अर्थ-जिस भव्य जीवकी स्वभावतः अथवा परके उपदेश-गुर्वादिक के उपदेश से जीवादितत्त्वो में. जीव अजीव पुण्य पाप आस्रव, बंध संवर, निर्जरा एवं मोक्ष इन नौ तत्वों में जो श्रद्धा होती है उसका नाम सम्यक्त्व है. इस सम्यक्त्व से युक्त हुआ जीव देवों के द्वारा पूज्य हो जाता है. // 33 // જે ભવ્યજીવની સ્વાભાવિક રીતે અથવા ગુર્નાદિના ઉપદેશથી જીવાદિ તમાં એટલે કે- જીવ, અજીવ, પુણ્ય, પાપ, આસવ, બંધ સંવર, નિર્જરા અને મેક્ષ આ નવ તત્વેમાં જે શ્રદ્ધા હોય છે તેનું નામ સમ્યફત્વ છે. આ સમ્યક્ત્વથી યુક્ત થયેલ ભવ્ય જીવ દે દ્વારા પૂજ્ય બને છે. 33 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 लोकाशाहचरिते सम्यक्त्व सद्भावपवित्रचित्ता वित्तेन रिक्ता परमार्थजुष्टाः। पोतायमाना भवसिन्धुमेनं तरन्ति वान्यानपि तारयन्ति // 34 // अर्थ-सम्यक्त्व के सद्भाव से पवित्र चित्तवाले मनुष्य चाहे धन से दरिद्रि भी क्यों न हो पर वे दरिद्रि नहीं माने जाते है. क्यों कि उनके पास परम अर्थ-उत्कृष्ट सम्यग्ज्ञान दर्शन रूप धन मौजूद है. ऐसे वे जीव इस संसार रूप समुद्र को पार करने के लिये पोतापमानहैं-जहाजके जैसे हैं स्वयं उससे पार होते हैं और दूसरों को भी उससे पार उतार देते हैं / // 34 // સમ્યકત્વના સદ્દભાવથી પવિત્ર ચિત્તવાળે મનુષ્ય કદાચ ધનથી દરીદ્ર પણ હોય તે પણ તે દરિદ્રી મનાતું નથી. કેમ કે તેની પાસે પરમ અર્થ–ઉત્કૃષ્ટ સમ્યકજ્ઞાન દર્શનરૂપ ધન વિદ્યમાન છે, એ તે જીવ આ સંસારરૂપ સમુદ્રને પાર કરવા માટે નૌકા સમાન છે. સ્વયં તેમાંથી પાર થાય છે અને અન્યને પણ તેનાથી પાર ઉતારી દે છે. 34 सम्यक्त्वशुद्धया परिशुद्धबोधः शुद्धं च वृत्तं भवबीजनाशि / एकेन केनापि न जायते सः भवाङ्करोत्पत्ति विनाशभावः // 35 // अर्थ-सम्यक्त्व की शुद्धि से परिशुद्ध हुआ बोधज्ञान और शुद्ध चारित्र संसार के बीज रूप मिथ्यात्व आदिका नाशक होता है. अकेले किसी से भी संसार रूप अङ्कुर की उत्पत्ति करने वाले कारण का नाश नहीं होता है // 35 // સમ્યક્ત્વની શુદ્ધિથી શુદ્ધ થયેલ બધજ્ઞાન અને શુદ્ધ ચારિત્ર્ય સંસારના બીરૂપ મિથ્યાત્વ વિગેરેને નાશ કરે છે. કોઈ પણ એકથી સંસારરૂપ અંકુરને ઉત્પન્ન કરવાવાળા કારણને નાશ થઈ શકતો નથી. મપા सदर्शनज्ञानचरित्रमेतत्त्रयं च मुक्ते भवतीतिमार्गः। मुक्त्यङ्गनालिङ्गनकामुकेन दूतीनिभं तत्त्रितयं सुसेव्यम् // 36 // अर्थ-सम्याज्ञान सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र ये सम्यक् तपत्रय ही मिलकर मुक्ति का मार्ग बनते हैं इसलिये जो मुक्ति रूपी अंगना के आलिङ्गन करने के अभिलाषी हैं उन्हें चाहिये कि वे उसकी प्राप्ति में दती के जैसे इन तीनों की अच्छीतरह से सेवा करें // 36 // સમ્યફજ્ઞાન સફદર્શન અને સમ્યફ ચારિત્ર તથા સમ્યફતપ આ ચારે મળીને મુક્તિને માર્ગ બને છે. તેથી મુક્તિરૂપી અંગનાને જેણે ભેટવું હોય તેમણે જાણવું જોઈએ. તેને પ્રાપ્ત કરવામાં દૂતીરૂપી આ ત્રણેનું સારી રીતે પાલન કરવું જોઈએ. ઉદા. Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 73 तृतीयः सर्गः सम्यक्त्व संस्पर्शनमात्रतोऽपि जीवो भवालि प्रमितां करोति / मिथ्यात्वदृष्टिं च विमुच्य भव्यगुरू पशात्तदरं सुलभ्यम् // 37 // अर्थ-सम्यक्त्व के स्पर्शन करने मात्र से ही जीव अपने संसार को सान्त कर लेना है. अतः भव्य पुरुषों का कर्तव्य है कि वह मिथ्यात्वदृष्टि का परित्याग करके गुरु महाराज के उपदेश से उस सम्यक्त्व को शीघ्र प्राप्त करें.॥३७॥ સમ્યકત્વનો સ્પર્શ માત્ર કરવાથી જ જીવ પિતાના સંસારનો અંત કરે છે, તેથી ભવ્યજેનોનું કર્તવ્ય છે કે તેણે મિધ્યત્વ દષ્ટિને ત્યાગ કરીને ગુરૂમહારાજના ઉપદેશને હૃદયંગમ કરીને એ સમ્યકૃત્યને સત્વર પ્રાપ્ત કરે. ૩ળા सर्वासु तावद्गतिषु तदेतत्सम्यक्त्वरत्नं संभवतीति देवैः। आख्यातमन्तःकरणत्रिशुद्धया गुरूपदेशात्तदिहधार्यम् // 38 // ___ अर्थ-समस्त गतियों में-चारों गतियों में-यह सम्यक्त्व रूपी रत्न उत्पन्न होता है ऐसा जिनेद्र देवका कथन है अतः अन्तःकरण की त्रिशुद्धि से-मनवचन एवं काय की विशिष्ट शुद्धि से-या गुरु महाराज के सदुपदेशसे-इस काल में इसे अच्छी तरह से प्राप्त करना चाहिये. // 38 // ચારે ગતિમાં આ સમ્યક્ત્વ રૂપી રત્ન ઉત્પન્ન થાય છે. એ પ્રમાણે જીનેન્દ્ર દેવનું કથન છે. તેથી મન, વચન અને કાય એ ત્રણેની શુદ્ધિપૂર્વક અંતઃકરણની વિશુદ્ધિથી અથર્વ ગુરૂ મહારાજના ઉપદેશથી આ સમયે તેને પ્રાપ્ત કરવા સારી રીતે પ્રયત્નશીલ થવું જોઈએ. 38 शुद्धस्य सदर्शनतः प्रभावात् जीवास्तिर्या वधनरादियोनिम्। नैवा प्नुवन्नीतिजिनेन्द्रदेवैरुक्तं न बाते भवनत्रिकत्वम् // 39 // - अर्थ-शुद्ध-निर्दोष-सम्यग्ज्ञान दर्शन एवं चारित्र के प्रभाव से जीवन तिर्यश्च गति में जन्म धारण करता है न नरक गति में जन्म धारण करता है और न वह भवन वासीव्यन्तर और ज्योतिष्क देवों में उत्पन्न होता है. यहां तक की वह मनुष्यगति में भी जन्म धारण नहीं करता है. सीधा वह वैमानिक देवों में ही जन्म धारण करता है ऐसा जिनेन्द्र देवने कहा है. // 39 // શુદ્ધ નિર્દોષ સમ્યફજ્ઞાન દર્શન અને ચારિત્રના પ્રભાવથી જીવ તિર્યંચ ગતિ માં જન્મ પામતો નથી, નરક ગતિમાં પણ જન્મ પામતો નથી. તથા ભવનવાસી વ્યક્તર દેવ અગર જ્યોતિષ્ક દેવમાં પણ ઉત્પન્ન થતા નથી. તે સીધે સીધો વૈમાનિક દેવામાં જ જન્મ ધારણ કરે છે. એમ જીતેન્દ્ર દેવે કહ્યું છે. 39 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते इत्थं मुनीनां च मुखारविन्दाच्छ्योऽरविन्देन वृषोपदेशम् / विनिःसृतं मंगलमेव मत्वा जनाः स्वकण्ठे दधते निपीय // 40 // अर्थ-इस प्रकार के वह मुनिराज के मुखारविन्द से इस निर्गत हुए उपदेश को कर्णारविन्दों द्वारा सुनकर वहां के मनुष्य उसे मंगल रूप मानकर अपने कण्ठ में धारण करते हैं // 40 // આ પ્રકારના મુનિરાજના મુખારવિંદથી નીકળેલ ઉપદેશને સાંભળીને મનુષ્ય તેને મંગળરૂપ માનીને તેને પોતાના કંઠમાં ધારણ કરે છે. 40 श्रुतोपदेशप्रभवप्रभावाज्जना भवतापशरीरभोगात् / केचिद्विरक्ता मुनयो भवन्ति केचिच्च गृहस्थप्रतिमां वहन्ति // 41 // ____ अर्थ-सुने गये उपदेश के प्रभाव से वहां पर कितनेक मनुष्य तो संसारजन्य ताप से, शरीर और भोगों से विरक्त होकर मुनि हो जाते हैं और कितनेक गृहस्थ का श्रावकवत को वहन कर लेते हैं // 41 // સાંભળવામાં આવેલા ઉપદેશના પ્રભાવથી ત્યાંના કેટલાક મનુષ્ય તે સાંસારિક તાપથી શરીર અને ભેગથી વિરક્ત બનીને મુનિ થઈ જાય છે, અને કેટલાક ગૃહસ્થ અવસ્થામાં रहीन श्राप प्रतने पाए रे छ. // 41 // अनेक योनौ बहुशो भ्रमित्वा जीवेन पिण्डत्वमिवामतेन। पुण्येन लब्धव्यमिदं नरत्वं लब्धं प्रमादः स्वहिते न कार्यः // 42 // अर्थ-अनेक योनियों में-८४ लख जीवयोनियों में-बहुशः अनेक बार भ्रमण करके-जन्म मरण करके-बडे भारी पुण्य के ढेर प्राप्त होने योग्य इस मनुष्य जन्म को जीवने प्राप्त किया है अतः हे जीव तुझे अपना हित करने में प्रमाद नहीं करना चाहिये // 42 // અનેક યોનિમાં અર્થાતુ 84 ચોર્યાસી લાખ યોનિમાં અનેકવાર ભ્રમણ કરીને અર્થાત જન્મ મરણ ધારણ કરીને ઘણા જ અધિક પુણ્યના પ્રભાવથી આ મનુષ્યભવને જીવે પ્રાપ્ત કરેલ છે, તેથી હે જીવ! તારે પિતાનું હિત કરવામાં પ્રમાદ સેવો ન જોઈએ જરા अस्मिन् सुराज्ये न समस्ति कोऽपि समन्तभद्रोऽपि शुद्धस्वरूपम् / अहीन संसर्गयुतोऽपि नास्ति अहीन संसर्गयुतश्च कोऽपि // 43 // . _____ अर्थ-इस सुराज्य में समन्तभद्राचार्यने धर्म के शुद्ध स्वरूप का उपदेश किया था, उनके तुल्य कोई उपदेशक नहीं था। यहां पर सज्जनों के संगवर्जित कोई भी नहीं थी, एवं हीन पुरुषों का कोई संसर्ग रखते नहीं थे // 43 // Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः આ સુરાજ્યમાં સમન્ત ભદ્રાચાર્યે ધર્મના શુદ્ધ સ્વરૂપને ઉપદેશ કરેલ તેમના સમાન કોઈ ઉપદેશક ન હતા. અહીં સજજનેના સંસર્ગથી રહિત કેઈ ન હતું. તથા હીન પુરૂષને કઈ સંસર્ગ રાખતું ન હતું. 43 द्विजिह्वता सर्पकुले च मीने विषस्य पानं न जनेषु कार्यम् / विलोक्यते संयमिनां वपुःसु नावश्यकेना ध्ययने कदाचित् // 44 // अर्थ-यहां द्विजिवता-दो जीभों का सद्भाव सर्पक्ल में ही देखा जाता है मनुष्यों में दिजिवता-चुगलखोरीपना नहीं देखा जाता है केवल मीनमछली में हो विष-जल-का पान देखा जाता है. मनुष्यों में विष-जहर का पान करना नहीं देखा जाता है. केवल संयमियों के शरीर में ही कृशता देखी जाती हैं आवश्यक कार्यो में और अध्ययन में कृशता-शिथिलता नहीं देखी जाती है. // 44 // અહી કવિતા-બે જીભને સભા સર્વેમાં જ જણાતો હતો. મનુષ્યમાં દ્ધિ જીવતા–ચાડિયાપણું જણાતું ન હતું, માછલામાં કેવળ વિષ-જળનું પાન જણાતું હતું, મનુષ્યમાં વિષ-જહેતું પાન જણાતું ન હતું. સંયમીઓના શરીરમાં જ દુર્બળપણું દેખાતું હતું, આવશ્યક કાર્યોમાં અને અધ્યયનમાં કૃશતા-શિથિલપણું દેખાતું नहतु. // 44 // पंचेन्द्रियेष्वेव च निग्रहत्वं न भूतग्रामे च तदस्ति जातु / यत्रस्थितः पञ्जरके विरोधः न प्राणिवर्गेषु कदापि कुत्र / 45 // अर्थ-जहां पांचों इन्द्रियों में ही निग्रहतावस्थित है भूतग्राम में यह निग्र. हता स्थित नहीं हैं पीजडा में ही वि-पक्षियों का रोध-बन्द कर रखना है प्राणियों में परस्पर में विरोध वैरभाव नहीं है // 45 // પાંચ ઇન્દ્રિયોનું નિગ્રહપણું ત્યાં હતુંપ્રાણિયેમાં તે નિગ્રહ પણ ન હતું. પાંજરામાં જ પક્ષિોને રોધ કહેતા બંધન હતું. પ્રાણિયમાં પરસ્પર વિરેાધ-વૈરભાવ ન હતે. ૪પા भंगस्तरङ्गेषु गजेषु बंधः निस्त्रिंशताऽसौ दशने निपातः गर्तेषु निम्नत्वमुरोजयुग्मे कृष्णास्यता नैव जनेषु केषु // 46 // अर्थ-यहां पर केवल जलाशयों कि तरङ्गो में भङ्गुरता है, हाथियों में बंधन है, तलवार में निर्दयताहै, दांतों में पतन शीलताहै; गड़ों में निम्नता है. एवं स्तनों में कृष्णमुखता है मनुष्यों में नहीं है. // 46 // Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते અહીં કેવળ જલાશના તરંગમાં જ ભંગુરતા ભગ્નપણું, હાથમાં બંધન, તલવારમાં નિર્દય પણું, દાંતમાં પડવાપણું ખાડાઓમાં નિચાણપણું અને સ્તનમાં શામમુખતા હતા भनुध्यामा न ता. // 46 // विचित्रचित्रेष्ववलोक्यतेऽत्र वर्णस्य सायमथ प्रजासु / न नास्ति कार्तस्वरताऽपि कोषे तस्या सुवर्णे भणनाबवीमि // 47 // अर्थ-विचित्र प्रकार के चित्रों में ही यहां पर वर्ण की संकरता-मिलावट देखी जाती है, प्रजाजनों में वर्ण सङ्करता नहीं देखी जाती और न कार्तस्वरतादुःखित होने पर दिनता भरी वाणी का बोलना भी-देखी जाती है. क्यों कि यह-कार्तस्वरता सुवर्ण में इस शब्द का प्रयोग होता है ऐसा कोष में ही लिखा मिलता है. वहां के प्रजाजनों में नहीं // 47 // અહીંયા ચિત્ર વિચિત્ર પ્રકારના ચિત્રમાં જ વર્ણની સંકરતા ભેળસેળ પણું દેખાય છે. પ્રજાજનેમાં વર્ણસંકરપણું જણાતું નથી. તથા કાર્તસ્વરપણું હીનતાવાળી વાણી બેલ વાપણું જણાતું નથી કારણ કે આ કાર્ત સ્વરપણું એ શબ્દનો પ્રયોગ સેનામાં થાય છે. એ રીતે કેષમાં જણાય છે, તેથી તે ત્યાંના પ્રજાજનેમાં તે ન હતું. ૪૭થા राज्येऽस्त्यथाऽस्मिन्नाहट्टवाडाग्रामः सुरम्योजनताकुलाब्यः / नभस्तलस्पर्शिमनोमहम्यैर्यत्र काचिद्राजनभूपदेशः॥४८॥ अर्थ-इस सिरोही राज्य में बहुत सुन्दर एक ग्राम है जिसका नाम अर. हट वाडा है. यह जनता से भरा हुआ है यहां जो मकान है वे कहीं 2 बहुत बडे ऊंचे हैं // 48 // આ શિરોહી રાજ્યમાં ‘રિહટવાડા' નામનું ઘણું જ સુંદર એક ગામ છે તે જનસમૂહથી ભરપૂર છે અહીં જે મકાનો છે તે ઘણા જ ઉંચા છે. 48 सत्पात्रदानादिषु भक्तिमन्तः साधोः सपाराधनसक्तचित्ताः। सन्तः स्वयंसेवित साधुमार्गाः द्युतादि सप्तव्यसनैविहीनाः // 49 // दयार्णवागण्यगुणकपण्या भद्राः प्रकृत्या निरुपद्रवास्ते / अर्हन्मतेन्दीवरराजहंसा सुश्रावका अत्र वसन्ति धन्याः // 50 // ___ अर्थ-यहां अनेक धनिक श्रावक जन निवास करते हैं इनकी सत्पात्रों को दान देने आदि में विशेष भक्ति है ये साधु पुरुषों की आराधना में दत्त चित्त रहते हैं द्युत आदि सप्तव्यसनों में फस ने की वृत्ति से ये बिलकुल दूर Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ وق तृतीयः सर्गः रहते हैं क्यों कि ये सदाचार युक्त मार्ग के सेवक हैं दया का समुद्र इनके हृदयों में हिलोरे लिया करता है गणनीय गुणों के ये पण्यरूप हैं. प्रकृति से ये भद्र हैं न ये किसी के वैरी हैं और न इनका कोई वैरी है. सदा ये उपद्रवों से विहीन हैं और अर्हन्त प्रभु के मतरूप कमलों के ये राजहंस हैं // 49 // 50 // અહીં અનેક ધનવાન શ્રાવકો વસે છે, તેઓ સત્પાત્રોને દાન દેવામાં વિશેષ શ્રદ્ધા ધરાવે છે. તેઓ સાધુપુરૂષોની આરાધના માટે હંમેશા તત્પર રહે છે, ધૂતાદિ સાત પ્રકારના વ્યસનમાં ફસાવાની વૃત્તિથી તેઓ દૂર જ રહે છે. કેમ કે તેઓ સદાચાર યુક્ત માર્ગનું સેવન કરવાવાળા છે. તેમના હૃદમાં દયાને સમુદ્ર હિલેરા લે છે, ગણનાપાત્ર ગુણોના તેઓ હાર રૂપ છે તેઓ સ્વભાવથી જ ભદ્ર પુરૂષ છે, તેઓ કોઈના પર વૈરભાવ રાખતા નથી તથા તેમના પણ કઈ વેરી નથી. તેઓ સદા ઉપદ્રવ શૂન્ય છે. અને અહંન્ત પ્રભુના મતરૂપ કમળના રાજહંસ જેવા તેઓ છે. અર્થાત્ તેઓ અન્ત માર્ગના उपास। छ. // 48-50 // स्वकीय कार्यादिनिवृत्तचित्ता यदा यदेमे समिता भवन्ति / तदा तदा तात्त्विकचिन्तनोत्यां विचारधारां परिकीर्तयन्ति // 51 // जब जब इन्हें अपने 2 कार्यों से फुरसत मिलती है-तब तब ये एकत्रित होकर तात्विक विचार करते हैं और उससे जो इन्हें रहस्य प्राप्त होता है उसे ये आपस में एक दूसरे, को सुनाते हैं // 51 // તેઓને જ્યારે જ્યારે પોતાના કાર્યમાંથી અવકાશ મળે છે, ત્યારે ત્યારે તેઓ એકઠા ' થઈને તત્વસંબંધી વિચાર વિનિમય કરે છે, અને તેનાથી તેઓને જે રહસ્ય મળે છે તે પરસ્પર એકબીજાને જણાવે છે. પ૧ निमित्त नैमित्तिक भावतोऽयमनादितः पुद्गल कर्मजालैः / बद्धोऽस्ति जीवो ननुबंध हेतुर्मिथ्यागादिः कथितों जिनेन्द्रैः // 52 // अर्थ-यह जीव अनादि काल से निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध को लेकर पोद्गलिक कर्मजालसे बद्ध है और बन्ध के हेतु मिथ्यादर्शन आदि हैं ऐसा जिनेन्द्र देवने कहा है // 52 // આ જીવ અનાદિ કાળથી નિત્ય નૈમિત્તિક સંબંધને લઈને પહ્મલિક કાળથી બંધાયેલ છે, અને બંધનનું કારણ મિથ્યાહન વિગેરે છે, એ પ્રમાણે જીનેન્દ્ર દવે કહ્યું છે. પરા Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते बंधेषु योगात्प्रकृति देशी कषायतः स्थित्यनुभागबंधौ / जायेत इत्थं भवतीति बन्धश्चतुर्विधोऽसौ गदितो विधीनाम् // 53 // अर्थ-बंध चार प्रकार का है (1) प्रकृतिबंध (2) स्थितिबंध (3) अनुभागबंध, और (4) प्रदेशबंध. इनमें योग से-मन वचन और काय की क्रिया सेप्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध होते हैं तथा काषाय से-क्रोधमान, माया और लोभ से-स्थितिबन्ध और अनुभाग बन्ध होते हैं. इस प्रकार से कर्मों का बन्ध चार प्रकार का होता कहा गया है // 53 // प्रतिम 5 (1) स्थिति 55 (2) idealin 4 (3) मने प्रश 55 (4) 21 // રીતે બંધ ચાર પ્રકારના છે. આમાં મન, વચન, અને કાયની ક્રિયારૂપ વેગથી પ્રકૃતિ બંધ અને પ્રદેશ બંધ થાય છે, તથા ક્રોધ, માન, માયા અને લેભ રૂપી કષાયથી રિથતિ બંધ અને અનુભાગ બંધ થાય છે. આ પ્રમાણે કોને બંધ ચાર પ્રકારને થાય છે. પરા जीवः स्ववैभाविक शक्तियुक्तो निरन्तरं पौद्गलिकं च कर्म / बध्नाति पश्चादुदयागतानां फलं च तेषां स्वयमेव भुङ्क्ते // 54 // अर्थ-जीव अपनी वैभाविक शक्ति राग द्वेष से युक्त हुआ निरन्तर पौद्गलिक कर्म का बन्ध करता है. पश्चात् उदय में आए हुए-उन कर्मों के फल को स्वयं ही भोगता है // 54 // જીવ પિતાની વૈભાવિક શક્તિરૂપ રાગદ્વેષથી યુક્ત થઇને નિરંતર પૌરાલિક કર્મને બંધ કરતો રહે છે. અને પછીથી ઉદયમાં આવેલા એ કર્મના ફળને પોતે જ ભગવે છે. 54 शुभं कदाचिद्धयशुभं कदाचिच्छुभाशुभं यच्छति तत् फलं स्वम् / चारित्रमोहोदयवृतिमत्त्वाज्जीवो व्रतं धारयितुं ह्यनीशः // 55 // अर्थ-यह जीव कभी कर्मों के शुभफल को कभी अशुभ फलको और कभी शुभाशुभ फलको भोगता है. परन्तु जब तक इसके चारित्र मोहनीय कर्म का उदय रहता है तब तक यह जीव व्रत-चारित्र-को धारण करने में असमर्थ रहता है // 5 // આ જી કોઈ વાર કર્મોના શુભ ફળને તો કોઈ વાર અશુભ ફળને અને કઈ વાર શુભાશુભ ફળને ભગવે છે. પરંતુ જ્યાં સુધી તેને ચારિત્ર–મોહનીય કર્મોને ઉદૃય રહે છે, ત્યાં સુધી આ જીવ વ્રત-ચારિત્ર ધારણ કરવામાં અસમર્થ રહે છે. પપા Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः मिथ्यात्वमोहेन विभिन्नभावान् स्वस्मादभिन्नानभिमत्य मूढः / तद्धानिवृद्धौ सततं प्रसक्तस्तस्यां च सत्यां न निराकुलोऽसौ // 56 // अर्थ-यह जीव मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के उदय से अपने से सर्वथा भिन्न पदार्थों को अपने से अभिन्न मानकर उनकी हानि वृद्धि करने में-निरन्तर लगा रहता है कदाचित् इसकी धारणा के अनुकूल उनकी हानिवृद्धि हो भी जाती है फिर भी यह निराकुल नहीं बनता है. // 56 // આ જીવ મિથ્યાત્વ મેહનીય કર્મના ઉદયથી પિતાનાથી સર્વથા ભિન્ન પદાર્થોને પિતાનાથી અભિન્ન માનીને તેની હાનિ વૃદ્ધિ કરવામાં નિરંતર તેમાં લાગેલું રહે છે. કદાચ તેની ધારણાને અનુકૂળ તેની હાનિ વૃદ્ધિ થઈ પણ જાય તો પણ તે વ્યાકુળતા રહિત થતું નથી. પદા यथा घृतक्षेपणतो न वह्निः प्रशाम्यति प्रत्युत वृद्धिमेति / तथैव भोगैर्नच शाम्यतीच्छा लाभे च तेषां परिवर्द्धते सा // 57 // अर्थ-जिस प्रकार घृत के प्रक्षेपण से अग्नि शान्त नहीं होती उल्टी वह पढ़ती है उसी प्रकार भोगों से जीव की इच्छा शान्त नहीं होती प्रत्युत जैसे जैसे. उनका जीव को लाभ होता है-वैसे वैसे वह बढ़ती ही जाती है // 57 // - જેમ ધી નાખવાથી અગ્નિ શાંત થતો નથી. પણ ઉલેટા તે વધે છે એજ રીતે ભેગ ભેગવવાથી જીવની ઇચ્છા શમતી નથી. પરંતુ જેમ જેમ ભોગોની જીવને પ્રાપ્તિ થતી રહે છે, તેમ તેમ તેની ઈચ્છા વધતી જ જાય છે. પણ मिथ्यात्वमोहोदयतः पदार्थान् परान स्वकीयानभिमत्य सोऽयम् / जीवः स्वरूपं ह्यविमृश्य नैजं दुःखं गिरिन्द्रोपमनभ्युपैति // 58 // अर्थ-मिथ्यात्व मोहके उदय से यह जीव पर पदार्थों को अपना मानकर और अपना निजका स्वरूप नहीं विचार कर गिरिन्द्र-सुमेरु पर्वत के जैसे दुःखों को भोगता रहता है // 58 // - મિથ્યાત્વ મોહના ઉદયથી આ જીવ અન્યના પદાર્થને પિતાનો માનીને અને પોતાના નીજી સ્વરૂપને વિચાર કર્યા વિનાગિરીન્દ્ર સુમેરૂ-પર્વત જેવા દુઃખ ભેગવ્યા કરે છે. 58 आयुश्च सान्तं परिभुज्यमानं इच्छाह्यनन्ताः प्रतिजन्तु सन्ति / तासामपौ स्वत एव जन्तो भवत्यशान्ति र्ननिराकुलत्वम् // 59 // . अर्थ-हरएक प्राणी की परिभुज्यमान आयु सान्त है और इच्छाएं अनन्त हैं जब ऊन सब की पूर्ति नहीं हो पाती है तो यह स्वाभाविक है कि उस Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते जन्तु को अशान्ति होती है. तो फिर ऐसी हालत में जन्तु में निराकुलता नहीं हो सकती है. // 59 // દરેક પ્રાણીનું ભજ્યમાન આયુ સાત છે, અને ઇરછાઓ અનંત છે, જયારે તે બધાની પૂર્તિ નથી થતી તો એ સ્વાભાવિક છે કે–એ પ્રાણીને અશાંતિ રહે જ છે. જેથી એ પરિસ્થિતિમાં પ્રાણિમાં નિરાકુળ પણું થઈ શકતું નથી. પલા निराकुलवं खलु साधुवृत्ती तार्थना सा परमादरेण / ग्राह्येति केचिद्दधते विमृश्य विहाय संगं मुनिवृत्तमत्र // 10 // अर्थ-इसलिये जो जीवन में निराकुलता के अभिलाषी हैं उनका कर्तव्य हैं कि वे बडे आदर के साथ उस साधुचर्या को धारण करें. क्यों कि साधुचर्या में ही निराकूलता है. ऐसा विचार कर यहां कितनेक मनुष्य परिग्रह का परित्याग करके मुनिवृति को धारण करते रहते हैं / // 6 // તેથી જેઓ જીવનમાં નિરાકુળ પણાની ઈચ્છાવાળા છે તેમનું એ કર્તવ્ય છે કે- તેઓ ઘણા જ આદર પૂર્વક એ સાધુચર્યાને ધારણ કરે, કેમ કે સાધુચર્યામાં જ નિરાકુળ પણું છે આમ વિચારીને અહીં કેટલાક મનુષ્ય પરિગ્રહને પરિત્યાગ કરીને મુનિવૃત્તિને ધારણ अरे छ. // 6 // पदे पदे धर्मरसायनस्य संसेवकाः सन्ति गृहे गृहेऽत्र / अतो जनानां विलसन्ति भावा तिनाशाय भवाविनैव यत्नम् // 61 // अर्थ-यहां पर पद पद पर प्रत्येक घरमें धर्म रूपी रसायन के सेवक बहुत हैं इसलिये विना किसी उपदेशरूप प्रयत्न के मनुष्यों के मुनि-होने के भाव अपनी अपनी भवाति के विनाश के लिये उदभूत होते रहते हैं // 61 // અહીં ડગલે ડગલે દરેક ઘરમાં ધર્મરૂપી રસાયનના ઉપાસક ઘણા છે, તેથી ઉપદેશાદિ પોત પોતાની ભવ્યાધિના શમન માટે કોઈ પણ પ્રકારના પ્રયત્ન વિના મનુષ્યને મુનિપણું ધારણ કરવાના ભાવે થતા રહે છે. 6 1 जनेषु साधु भुवनेषु मध्यः पुष्पेषु कंजः हृषीकेषु नेत्रम् / सुमेषु गंधोऽसि यथा प्रशस्यस्तथैव हैमेन्दुरमीषु मुख्यः // 62 // . अर्थ-मनुष्यों में साधु, त्रिभुवन में मध्यलोक, पुष्पों में कमल, इन्द्रियों में नेत्र एवं पुष्प में गंध जिस प्रकार प्रधान मानी जाती है. उसी प्रकार यहां के श्रावकों में हैमचन्द्र सेठ प्रधान गिने जाते थे. // 62 // Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हतीयः सर्गः મનુષ્યમાં સાધુ, ત્રણ લેકમાં મધ્યલેક, પુષમાં કમળ, ઈનિદ્રામાં નેત્ર, તથા પુષ્પમાં ગંધ જેમ મુખ્ય રીતે માનવામાં આવે છે, તે જ પ્રમાણે અહીંના શ્રાવકોમાં હેમચંદ્રશેઠને મુખ્ય માનવામાં આવતા હતા 6 રા तस्य क्रियाचारविशुद्धबुद्धे बभूव सौन्दर्यमणेः करण्डम् / मनोऽनुकूला प्रियधर्मपत्नी गंगाभिधानङ्गमनस्विनीव // 3 // अर्थ-श्रावकधर्म के योग्य क्रियाओं एवं आचार से उिसकी बुद्धि विशुद्ध है ऐसे उस हेमचन्द्र सेठ के मनके अनुकूल चलने वाली प्रिय धर्मपत्नी गंगा देवी थी, जो काम की पत्नी रति के समान सौन्दर्य की मंजूषारूप थी // 63 // શ્રાવક ધર્માનુકૂળ ક્રિયાઓ અને આચાથી જેની બુદ્ધિ શુદ્ધ છે એવા એ હેમચંદ્રશેઠના મનને અનુકૂળ રહેવાવાળી ગંગાદેવી નામની પ્રિય ધર્મ પત્ની હતી, કે જે કામદેવની પત્ની રતિના જેવી સૌંદર્યને ભંડાર હતી. 63 दिनं पवित्रं घटिकाच पूता तिथिश्च साऽभूदधिका पवित्रा। यस्यां सुसंपन्न विनिर्बभूव स्वरूपयोग्यो ह्यनयोर्विवाहः // 64 // अर्थ-वह दीन, वह घडी और वह तिथि अत्यन्त पवित्र थी कि जिसमें स्वरूप के अनुरूप इन दोनों का विधि पूर्वक विवाह हुआ // 64 // તે દિવસ, તે ઘડી અને તે તિથિ ઘણી જ પવિત્ર હતી કે જેમાં પિતાના સ્વરૂપની બરાબર એ બેઉને વિધિપૂર્વક વિવાહ થે. 64 सुवर्णमण्योखि योग एष जातोऽनयोर्बन्धुजनैः प्रशस्यः / किंचाधिकं वा ह्यभिनंदितोऽसावुक्तेन साध्यं कुलदेवताभिः // 65 // अर्थ-सुवर्ण और मणि के योग की जैसी प्रशंसा होती है उसी प्रकार शाका यह वैवाहिक योग भी बन्धु जनों द्वारा प्रशंसनीय हुआ इस पर और अधिक क्या कहा जावे-इतने मात्र से वह श्रेष्ठतम मान लेना चाहिये कि इन दोनों के इस योग की इन के कुलदेवताओं ने भी प्रशंसा की-उसका अभिनन्दन किया // 65 // મણી અને સેનાના ગુના જેવા વખાણ થાય છે, એ જ રીતે તેમને આ વૈવાહિક બેગ પણ બંધુજને દ્વારા વખણાયે, આ માટે વિશેષ શું કહી શકાય પણ એટલાથી જ એ યોગને શ્રેષ્ઠતમ માની લેવું જોઈએ કે-આ બેઉના આ વેગની પ્રશંસા તેમના કુળદેવતાઓએ પણ કરી. અર્થાત તેમને અભિનેન્દ્રિત કર્યા. દિપા Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते सा शारदीयाम्बस्तुल्यकान्तिः वपुः प्रभान्यकृतराजहंसी। चकास राकेव च चन्द्रपूर्णा स्वमन्दिरेऽलक्तकशोभिपादा // 66 // अर्थ-शरद कालीन मेघ के समान कान्ति बाली वह गंगा की जिसने अपनी शारीरिक प्रभा से राजहंसी को तिरस्कृत कर दिया है और अभी पैर का माहर भी जिसका नहीं झूका है चन्द्रमा से पूर्ण पूर्णिमा की तरह अपने मंदिर में प्रकाशित हुई // 66 // શરદ કાલના મેઘના જેવી તે ગંગાદેવી કે જેણે પોતાની શારીરિક કાંતિથી રાજહંસીને પણ તિરસ્કૃત કરી દીધેલ છે, તેવી અને જેના પગની રાતા સુકાઈ નથી એવા તે ગંગાદેવીએ ચંદ્રમાથી પૂર્ણ પૂર્ણિમાની જેમ પોતાના ગ્રહમાં પ્રવેશ કર્યો 6 દા देहप्रभामण्डलराजमाना राजीवनेत्रा ह्यसौ रराज। तपात्यये निर्झर शीकरैर्वा संसिच्यमाना भिनवा धरित्री // 67 // अर्थ-अपने देह के प्रभा समूह से सुशोभित यह गंगा देवी कि जिसके दोनों नेत्र कमल के जैसे थे, ऐसी अच्छी लगी कि जैसी गर्मी के बाद निर्झर के शीकरों से सींची गई नवीन धरती लगती हैं. // 67 // જેના બને ને કમળના જેવા હતા એવા આ ગંગાદેવી પિતાના દેહની પ્રભા સમૂહથી શોભતા એવા જણાયા કે જેમ ગર્મિની પછી ઝરણાઓના છાંટાથી છંટાયેલી પૃથ્વીના જેવી નવીન જણાઈ. 56 છા प्रभामहत्या शिखयेव दीपः रत्नत्रयाल्येव च मुक्तिमार्गः। अनर्घहारावलिभिश्च कंठस्तया सुपल्या स विभूषितोऽभूत् // 68 // अर्थ-जिस की प्रभा बहुत बडी है ऐसी शिखा से जैसे दीप सुशोभित होता है. रत्नत्रयी से जैसे मुक्ति का मार्ग सुशोभित होता है, वेश कीमती हारावलि से जैसे कंठ सुशोभित होता है. उसी प्रकार उस सुपत्नी से वह हैमचन्द्र सेठ सुशोभित हुए // 68 // જેની કાંતી ઘણી વિશાળ છે એવી શિખાથી જેમ દીવો શેભે છે, રત્નત્રયથી જેમ મુક્તિનો માર્ગ શોભે છે, હાર પંક્તિથી જેમ કંઠ શોભે છે, એજ પ્રમાણે એ સુપત્નીથી તે હેમચંદ્ર શેઠ શોભિત થયા. 68 तद् यौवनं यौवचित्तहारि यूनां मनःकषिवभूव रम्यम् / स्वान्तःसुखायैव हिमेन्दुना तत् न्यबोधि पुण्यस्य फलस्वरूपम् // 69 // Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 83 तृतीयः सर्गः ___ अर्थ-गंगा देवी का सुरम्य यौवन स्त्रियों के चित्त का आकर्षक होता हुआ युवा पुरुषों के चित्त को अपनी ओर खींचने वाला हुआ-हैमचन्द्र सेठने उसे अपने पुण्य का फल स्वरूप माना और वह उनके स्वान्तः सुखाय हुआ॥६९॥ સુરમ્ય ગંગાદેવીનું યૌવન સ્ત્રિના ચિત્તને આકર્ષિત કરતું યુવજનના ચિત્તને પોતાના તરફ લેભાવતું બન્યું હેમચંદ્રશેઠે તેને પોતાના પુણ્યના ફલરૂપ માન્યું. અને તે એના સંપૂર્ણ સુખરૂપ બન્યું. અ૬૯ सा संस्थिता यौवनमन्दिरेऽन्तः स्वपुण्यभूतेः परिवर्द्धनार्थम् / धर्मोक्तविद्यां सततं वयस्यामिवाङ्गसङ्गीमुररी चकार / / 70 // अर्थ-यौवन के मन्दिर में अच्छी तरह से रही हुई गंगा देवी ने अपनी पुण्य विभूति की वृद्धि करने के लिये धार्मिक ज्ञान को ही अपना साथी बनाया // 7 // યૌવન મંદીરમાં સુંદર રીતે રહેલ ગંગાદેવીએ પિતાની પૂણ્ય વિભૂતિને વધારવા માટે ધાર્મિક જ્ઞાનને જ પોતાનું સાથિ બનાવ્યું. [70] अनङ्गरोद्गमभासिरूपं तारूण्यमारण्यसरित्सकाशम् / मनस्विनीयं विगणय्य यूनी न तदशं स्वां विवशा चकार // 71 // अर्थ-गंगा देवी ने अनङ्ग के रङ्ग से उद्भासित रूप वाले तारुण्य को जंगल की नदी के समान समझकर अपने को उसके वश नहीं बनाया // 71 // - ગંગાદેવીએ કામદેવના રંગથી શોભાયમાન રૂપવાળા તરૂણપણાને જંગલની નદીની જેમ સમજીને તે તેની વશીભૂત ન બની. 71 शिरीषकोषादपि कोमलाया वेधाश्चकाराङ्गमशेष मस्याः। तथापि धर्माचरणे बभूत्र साधीव सा वज्रकठोरचित्ता // 72 // - अर्थ-शिरीष पुष्प से भी अधिक कोमल गंगा देवी के समस्त अंगो को. पुण्य कर्म ने बनाया था-फिर भी वह सुश्राविका के समान धर्माचरण में वज्र के जैसी कठोर हृदयवाली थी // 72 // ગંગાદેવીના સઘળા અંગોને શિરીષ પુષથી પણ વધારે કમળ પુણ્યકર્મો બનાવ્યા હતા તે પણ તે સુશ્રાવિકા ધર્માચરણમાં વજના જેવી કઠોર હૃદયવાળી હતી. છરા दान प्रदानेन करौ पवित्रागस्तां नताझ्या विनयेन तस्याः / वाणी गुणोत्कीर्तनतो मुनीनां पूता निडालं गुरुवन्दनेन // 73 // Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते आसीन्मनोऽस्या विमलं विशालं जैनेन्द्रवाणी परीशीलनेन / पादौ गुरूणां निकटप्रयाणात् पूतावभूतां गुणरागवत्याः / / 74| अर्थ-इस विनय से अवनत अङ्गवाली गंगा देवी के दोनों हाथ दान देने से पवित्र थे, वाणी मुनियों के गुणोत्कीर्तन से पवित्र थी, मस्तक-गुरुओं की वन्दना से पवित्र था. निर्मल विशाल मन जैनेन्द्र वाणी आगम के परिशीलन से पवित्र था, दोनों चरण गुरुदेवों के निकट प्रयाण करने से पवित्र थे. // 73 // 74 // વિનયથી નત અંગવાળી ગંગાદેવીના બેઉ હાથે દાન આપવાથી પવિત્ર હતા. મુનિ યેના ગુણગાનથી વાણી પવિત્ર હતી. ગુરૂવંદનાથી મરક પવિત્ર હતું. આગમના પરિશીલનથી પવિત્ર જૈનેન્દ્ર વાણીના શ્રવણથી મન નિર્મળ અને પવિત્ર હતું. તથા ગુરૂદેવોની સમીપ જવાથી બન્ને પગ પવિત્ર હતા આ૭૩૭૪ धर्मानुरागेण विराजमानां तां वीक्ष्य भर्ताऽप्यनुमन्यते स्म / स्त्रीरत्नमेतद्धयवबुध्य तोषान्नैवा भवत्तत्प्रतिकूलवर्ती / 75 // अर्थ-धर्मानुराग से विराजमान गंगा को देखकर भर्ता-पति हैमचन्द्र सेठ उसे बहुत आदर देते थे. यह स्त्री रत्न है ऐसा मानकर वे बडे ही संतुष्ट होते और कभी भी वे उसकी इच्छा के प्रतिकूल नहीं वर्तते थे // 7 // ધર્માનુરાગથી શોભાયમાન એ ગંગાદેવીને જોઈને હેમચંદ્ર શેઠ તેને ઘણો જ આદર કરતા હતા, આ સ્ત્રી રત્ન છે એવું માનીને તેઓ ઘણો જ સંતોષ પામતા હતા તથા ક્યારેય પણ તેની ઇચ્છા વિરૂદ્ધ વર્તતા ન હતા. ૭પા पतिव्रता धर्मपरायणेयं सौभाग्यतो ह्येव मयोपलब्धा / अनर्घ्यमुक्तेव सुरक्षणीया विमृश्य तद्रक्षणतत्परोऽभूत् / / 76 // . - अर्थ-यह पतिव्रता एवं धर्म परायणा है. बडे सौभाग्य से यह मुझे प्राप्त हुई है. अतः कीमति मुक्ता के समान यह सुरक्षणीय हैं. ऐसा विचार कर वे सदा उसकी रक्षा करने में तत्पर रहते // 76 // - આ પતિવ્રતા અને ધર્મ પરાયણા છે અને ઘણું સૌભાગ્યથી તે મને પ્રાપ્ત થઈ છે તેથી બહુમૂલ્ય મોતીની જેમ તેનું રક્ષણ કરવું જોઈએ એમ વિચારીને તેઓ તેનું રક્ષણ वामां हमेशा तत्५२ २हेत। तां // 76 // Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः परस्परस्नेहनिबद्धचित्ता विमोचतौ द्वावपि धर्मकृत्यम् / संभूय हर्षाञ्चितकाययष्टी सिषेवतुर्मङ्गलकाम्ययैव // 7 // अर्थ-इन दोनों का-दम्पति का-परस्पर में अत्यन्त स्नेह था उस स्नेह से इनका चित्त खूब बंधा हुआ था, सो जो भी धार्मिक कृत्य होता उसे ये दोनों मिलकर बडी प्रसन्नता के साथ केवल मंगल-कामना से ही करते // 77 // આ બન્ને દંપતીને અન્ય અત્યંત નેહ ભાવ હતો એ સ્નેહવશાતું તેમનું ચિત્ત પરસ્પર જકડાયેલ હતું. જે કોઈ ધાર્મિક કાર્ય હોય તેને એ બન્ને મળીને પ્રસન્નતા પૂર્વક કેવળ મંગળ કામનાથી જ પ્રેરાઈને કરતા હતા. 19છા कोपारुणे कुत्र कदापि तेन नेत्रे तरुण्याश्च निरीक्षितेन / पारुष्यसावधवचोऽपि तस्याः स्वप्नेऽपि नाश्राव्युदितं प्रियायाः // 78 // अर्थ-हैमचन्द्रजीने उस युवती प्रिया गंगा देवी की किसी भी स्थिति में कहीं पर भी कोप से लाल हुई आखें नहीं देखी और न स्वप्न में भी उसने उसके द्वारा कहे गये कठोर और सावद्य वचनों को ही सुना / / 78 // હેમચંદ્ર શેઠે પિતાની પ્રિય પત્ની ગંગાદેવીની આંખો ધથી લાલ થયેલી કયાંય પણ દેખી ન હતી. અને વનમાં પણ તેના દ્વારા કહેવાયેલ કઠોર અને સાવધ વચનોને તેમણે સાંભળ્યા ન હતા. 78 कृतान्तकान्तः स विमृश्यकारी वाग्मी गुणज्ञो गुणिषु प्रमोदम् मैत्रींच सत्त्वेषु कृपापरत्वं क्लिष्टेषु जीवेषु दधद्रराज / 795 अर्थ-हैमचन्द्र सेठ कृतान्त-सिद्धान्त शास्त्रों के स्वाध्याय से धर्मनिष्ठ थे. अथवा अपने सिद्धान्त के बडे पक्के थे-आगे पीछे के कामों को वे सोच समझकर करने वाले थे, वाणी-बोलने में चतुर थे. गुणों की प्रतिष्ठा करते थे। गुणिजनों को देखकर प्रमुदित होते थे. दीन दुःखी जी0 पर दयाभाव से वासिव हो जाते थे. अतः वे जनता के बीच विशेष प्रतिष्ठा के पात्र थे. // 79 // હેમચંદ્ર શેઠ કૃતાન્ત-સિદ્ધાંત શાસ્ત્રના સ્વાધ્યાયથી ધર્મપરાયણ હતા. તેમજ પિતાના સિદ્ધાંતમાં ઘણું જ કટ્ટર હતા. આગળ પાછળના કાર્યોને તેઓ સમજી વિચારીને કરવાવાળા હતા વાણી બોલવામાં નિપુણ હતા, ગુણોને આદર કરતા હતા. ગુણવાનોને જોઈને આનંદિત થતા હતા. દીનદુઃખી જીવે પર દયાભાવથી પ્રેરિત થતા તેથી તેઓ જનસમૂહમાં વિશેષ પ્રતિષ્ઠા પાત્ર બનતા હતા. 7 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते विचारयामास सदैव सोऽयं सम्यक्त्वरत्नं खलु दुर्लभं वै / आसादितं तैरचिरादलं धि भवाटवी मुक्तिसुखं ह्यचुम्बि // 80 // अर्थ-वे सर्वथा यही विचार किया करते थे कि सम्यक्त्वरूपी रत्न बहुत दुर्लभ है. धन्य हैं वे जीव कि जिन्हों ने इसे प्राप्तकर इस भवाटवी को जल्दी पारकर दिया हैं और मुक्ति के स्तुख को पा लिया है / // 8 // તેઓ હંમેશાં એમ જ વિચારતા કે સમ્યફ રૂપી રત્ન ઘણું જ દુર્લભ છે. તે જેને ધન્ય છે કે જેઓએ તેને પ્રાપ્ત કરીને આ ભવાટવીને જલિ પાર કરી મુક્તિના સુખને પામ્યા છે. 18 मयापि ताबद्गुरुवर्यपार्श्व गत्वा तदेतधृति धारणीयम्। .. नोचेन्च मे जन्मपरंपरेयं भवेदनन्ता, न नृजन्मसार्थम् // 81 // ___ अर्थ-अब मुझे भी श्री गुरु महाराज के पास जाकर इस रत्न को हृदय में धारण करना चाहिये, नहीं तो मेरी यह जन्म परंपरा अनन्त हो जायगी और मेरा यह मानव भव व्यर्थ चला जायगा // 81 // મારે પણ ગુરૂમહારાજ પાસે જઈને આ રત્નને પ્રાપ્ત કરવું જોઈએ. નહીંતર મારી આ જન્મ પરંપરા અનંત બની જશે તેવા મારો આ મનુષ્યભવ નિરર્થક બની વ્યર્થમાં ચાલ્યો જશે. 81 सम्यक्त्वलाभाच्च कदा भवेयुः शेषाणि मे द्राक सफलान्यहानि तदेव सुश्लाध्यमिदं नृजन्म भवेच्च दुर्जन्म विना तदेतत् / / 82 // अर्थ-अतः अवशिष्ट ये मेरे दिवस कब सम्यक्त्व के लाभ से जल्दी से जल्दीसफल होंगे क्यों कि इनकी सफलता से ही मेरा यह मनुष्य भव अच्छी तरह प्रशंसायोग्य बन सकता है अन्यथा नहीं // 82 // હવે શેષ રહેલા આ મારા દિવસો સમ્યક્ત્વના લાભથી ક્યારે સફળ થશે? કેમ કે આની સફળતાથી જ હું અગર આ મારો મનુષ્યભવ સારી રીતે પ્રશંસા પાત્ર બની શકે બીજી રીતે નહીં તેરા यथोक्तमागं भवति प्रधानं शेषेष्वंगेषु मुखेच नेत्रे / तथैव चैतखलु दर्शनं सत् मुक्त्यङ्गन्देषु च मुख्यमुक्तम् // 83|| ___ अर्थ-जिस प्रकार समस्त अंगो में मस्तक और मुख में नेत्र प्रधान होते है, उसी प्रकार यह सम्यक्त्व मुक्ति के अंगो में मुख्य कहा गया है // 83 // Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः જેમ સઘળા અંગમાં મસ્તક અને મુખમાં નેત્ર મુખ્ય છે. એ જ રીતે આ સમ્યકત્વ મુક્તિના અંગોમાં મુખ્ય કહેલ છે. 83 इत्थं च संचिन्तयस्तथापि चारित्रमोहोदयतो न जातः। चारित्रलाभश्च तदाप्तुमिच्छोः संसारकार्य विशतोऽस्य सम्यक् // 84 // अर्थ-सांसारिक कार्यों को यतनाचार पूर्वक करने वाले हैमचन्द्र सेठ को कि जो पूर्वोक्त रूप से विचार वाले थे, तथा चारित्र प्राप्त करने के अभिलाषी थे चारित्र मोह के उदय से चारित्र का लाभ नहीं हो सका॥८४॥ સાંસારિક કાર્યોને યતના પૂર્વક કરવાવાળા હેમચંદ્ર શેઠને કે જેઓ પૂર્વ કથિત પ્રકારથી વિચારવાવાળા હતા તથા ચારિત્ર પ્રાપ્ત કરવા માટે ઉત્સુક હતા પણ ચારિત્ર મોહના ઉદ્યથી તેમને ચારિત્રને લાભ થશે નહીંw૮૪ अचिन्त्य शक्तिः खलु मार एषः, स्वेनैव जय्यं विगणय्य चैनम् / स्त्रोरत्नदम्भादिव बन्धनाय अथास्य पार्श्वच ततान पाशम् / 85 / / ___ अर्थ-अचिन्त्यशक्ति वाले इस काम देव ने कि "यह मेरे द्वारा ही जीता जा सकेगा" ऐसा विचार कर स्त्री रत्न के छल से हैमचन्द्र को जकडने के लिये ही मानों इनके पास पहिले से ही जाल छा दी है // 85 // આ અચિત્ય શક્તિવાળા કામદેવે આ મારાથી જ જીતાશે” એમ વિચારીને સ્ત્રી રત્નના બહાનાથી હેમચંદ્રને બાંધવા માટે જ જાણે તેમની પાસે પહેલાથી જ જાળ પાથરી છે. આપા समाधिमत्यां यदि कोऽपि पुत्रः, उत्पत्स्यतेऽस्या समयार्पणीयः / धर्मप्रचाराय महात्मनेऽसावैच्छत्तयामा सहवासमाप्तुम् // 86 // अर्थ-हैमचन्द्र सेठ ने इस विचार से कि स्वस्थचित्त बाली इस गंगा मेंगंगादेवी की कुक्षि में-यदि कोई नीव पुत्र रूप से उत्पन्न हो जाता है तो मैं उसे धर्म प्रचार के निमित्त किसी महात्मा के लिये अर्पित कर दूंगा. उसके साथ सहवास करना चाहा // 86 // હેમચંદ્ર શેઠે દેવરથ ચિત્તવાળી આ ગંગાદેવીના ઉદરથી જે કઈ પુત્ર રત્ન ઉત્પન્ન થાય તે હું તેને ધર્મપ્રચાર માટે કોઈ મહાત્માને અર્પણ કરીશ આવા વિચારથી તેની સાથે સહવાસ કરવાની ઇચ્છા કરી. 86 अथान्यदा केलिगृहे शयाना चतुर्थसंस्नान पवित्रगागा। तुगर्थिना तेन वरेण भुक्ता सुतार्थिनी सोन्नतभावनाढ्या // 87 // Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते अर्थ-एक दिन की बात है, चतुर्थस्नान से प्रवित्र है शरीर जिसका ऐसी वह गंगादेवी केलिगृह में सोती हुई कि जिसकी भावना पुत्र को प्राप्त करने की थी पुत्राभिलाषी हैमचन्द्र से-भोगी गई // 87 // કોઈ એક દિવસ ચોથા દિવસના નાની પવિત્ર થયેલ છે શરીર જેનું એવા એ ગંગાદેવી પુત્ર પ્રાપ્ત કરવાની ઇચ્છાથી કેલીગૃહમાં સુતા હતા ત્યારે પુત્રાભિલાષિ હેમચંદ્ર દ્વારા ભગવાઈ. ૮થા तदैव संप्रीलितलोचनाऽसौ, अनङ्गङ्गं ह्यनुभूय सुप्ता / प्रियेण मुक्ता परितोषितात्मा हंसीव तल्पे सिकतातटेऽथ // 8 // अर्थ-जिस प्रकार हंस द्वारा भुक्त हंसी सिकतामय तट पर सो जाती है उसी प्रकार अनङ्ग के रङ्ग का अनुभव करके प्रिय से छोड दी गई वह गंगा देवी भी संतुष्ट चित्त होकर अपनी शय्या पर सो गई // 88 // જેમ હસે ભગવેલ હંસી રતવાળા કિનારા પર શયન કરે છે, એ જ પ્રમાણે કામક્રીડાને અનુભવ કરીને પ્રિય દ્વારા મુક્ત થયેલ તે ગંગાદેવી પણ પ્રસન્ન ચિત્તવાળી થઈને પિતાની શય્યા પર સુઈ ગયા 88 रतिश्रां शान्तयितुं सखीव, प्रगाढनिद्रास्त हृषीकचेण / तदाऽऽगता भाति तदापि तस्यां विभातचान्द्रीव कलाऽमला सा // 89 // अर्थ-उस समय रति श्रम को शान्त करने के लिये सखी के जैसी गहरी निद्रा उसे आगई, इसमें समस्त इन्द्रियों का विषय व्यापार बन्द हो गया. उस स्थिति में वह प्रातःकालीन निर्मल चन्द्र की कला जैसी प्रतीत होती थी // 89 // તે સમયે રતિના શ્રમને દૂર કરવા માટે પ્રિય સખીના જેવી ગાઢ નિદ્રા તેને આવી ગઈ જેથી સઘળી ઇન્દ્રિયનો વિષય વ્યવહાર બંધ થઈ ગયે આ સ્થિતિમાં તે પ્રભાત કાળના નિર્મળ ચંદ્રની કળા જેવી જણાતી હતી 89 निद्रावती सा हिमचन्द्रकान्ता, कान्तं निशान्ते च शुभान्तमेकम् / स्वप्नं ददर्शाथ बभूव हृष्टा स्वापोत्थिता चाजनि संप्रबुद्धा // 10 // अर्थ-निद्रा में पड़ी हुई उस हेमचन्द्र की कान्ता गंगादेवी ने निशा के अन्त में एक शुभ स्वप्न देखा-उसेदेखकर वह हर्षित हुई और जाग गई // 10 // નિદ્રામાં રહેલ તે ગંગાદેવીએ રાત્રીના અવસાન સમયે એક શુભ સ્વપન જોયું તે જોઈને તે ઘણે જ હર્ષ પામી અને જાગી ગઈ, 9 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः प्राभातिकं कृत्यमसौ विधाय प्रकर्षहर्षाश्चित काययष्टिः / स्वप्नस्य दृष्टस्य फलं किमेतज्ज्ञातुं विभोस्तीरमियेषगन्तुम् // 91 // अर्थ-अब यह प्रातः काल के सब करने योग्य कार्य समाप्त कर विशिष्ट आनंद से जिसकी गात्रयष्टि व्याप्त हो रही है ऐसी वह गंगा देवी देखे गये स्वप्न का क्या फल है. इस बात को जानने के लिये अपने पति के पास जाने-की तैयारी करने लगी // 91 // પ્રભાત કાળના કરવા ગ્ય કાર્ય સમાપ્ત કરીને વિશેષ પ્રકારના આનંદથી જેનું શરીર વ્યાપ્ત થયેલ છે, એવી એ ગંગાદેવી પિતે જોયેલા સ્વપ્નનું શું ફળ છે, તે જાણવા માટે પિતાના પતિ સમીપે જવાની તૈયારી કરવા લાગી. 591 नयेन नीति विनयेन विद्या ज्ञानं च रूच्या रमयेत विष्णुः / पुष्पश्रिया वा विटपीव तत्र तयाह्यसौ तेन च सा रराज // 92 // अर्थ-जिस प्रकार नय से नीति, विनय से विद्या, रुचि-श्रद्धा से-सम्यग्ज्ञान, रमा से विष्णु और-पुष्पश्री से वृक्ष परस्पर में सुहावने लगते है. उसी प्रकार गंगा देवी से हैमचन्द्र सेठ और हैमचन्द्रजी सेठ से गंगा देवी शोभित हुई // 92 // જેમ ન્યાયથી નીતિ, વિનયથી વિદ્યા, શ્રદ્ધાથી સમ્યકજ્ઞાન રમાથી વિષ્ણુ અને પુષ્પની ભાથી વૃક્ષ પરસ્પર શોભે છે, એજ પ્રમાણે ગંગાદેવીથી હેમચંદ્ર શેઠ અને હેમચંદ્ર શેઠથી ગંગાદેવી શોભતા હતા. ૯રા निरीक्षितो नाथ ! निशावसाने स्वप्ने सुरः कोऽपि दिवश्युतोऽद्य / विभासयन भावलयेन काष्ठाः पश्चान्ममास्येऽवहितः प्रविष्टः // 13 // अर्थ-हे नाथ ! मैंने रात्रि के अवसान समय में एक स्वप्न देखा है. और वह इस प्रकार है-स्वर्ग से एक देव च्युत होकर, दिशाओं को अपनी कान्ति से प्रकाशित करता हुआ मेरे मुख में बडी सावधानी से प्रविष्ट हुआ // 93 / / પતિની સમીપ જઈને નમ્રતાપૂર્વક પિતાના પતિ હેમચંદ્ર શેઠને ગંગાદેવી કહેવા લાગ્યા કે હે નાથ ! વર્ગમાંથી કોઈ એક દેવ ઐવિત થઇને દિશાઓને પોતાની કાંતિથી પ્રકાશિત કરીને મારા મુખ વિશે ઘણી જ સાવધાની પૂર્વક પ્રવેશ્યા આ રીતનું સ્વનિ રાત્રિના અવસાન સમયે મારા જોવામાં આવેલ છે. 93 / श्रवोऽमृतस्यन्दिनमित्थमस्याः कर्णायताक्ष्याः स निशम्य शब्दम् / ... उवाच कान्ते ! ननु पुण्ययोगासलप्रदा मे भविता समीहा // 9 // Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहरते ___ अर्थ-इस प्रकार से इस कर्णायताक्षी के अमृत बहाने वाले शब्द को सुनकर हैमचन्द्र सेठ ने कहा-हे कान्ते ! पुण्य योग से मेरी इच्छा अब पूर्ण होने वाली है // 14 // આ પ્રમાણે ગંગાદેવીના કાનને અમૃત સમાન જણાતા શબ્દને સાંભળીને હેમચંદ્રશે કહ્યું કે હે પ્રિયે ! આપણા પુણ્યગથી મારી ઈચ્છા હવે પૂર્ણ થશે તેમ જણાય છે. 4 शुभ्रानने ! स्वप्नविलोकनं ते प्रशस्तपुत्रप्रसवं व्यनक्ति। .. इतोऽय मासे नवमे च नून मवाप्स्यसि त्वं प्रियपुत्ररत्नम् // 95 // अर्थ-हे शुभ्रानने ! तुमने जो यह स्वप्न देखा है वह "तुम एक पुत्ररत्न को जन्म दोगी" ऐसी बात को प्रकट करता है. और वह आज से ठीक नौ महीने में तुम प्रास करोगी // 15 // હે સુંદર મુખવાળી ! તમે જે આ સ્વપ્ન જોયું છે, તે “તમે એક પુત્રરત્નને જન્મ આપશે એ વાત પ્રગટ કરે છે અને તે આજથી બરોબર નવમાં મહિને તમે તે પ્રાપ્ત કરશો. 95 पत्योदितं स्वप्नफलं श्रवाभ्यां श्रुत्वा शुभं सा, श्रवणायताक्षी / जहर्ष सस्मेर मुखेन तेन विलोकिताऽसौ वलितेक्षणेन // 9 // अर्थ-वह श्रवणायताक्षी गंगा देवी पति के द्वारा कहे गये शुभ स्वप्न के फल को दोनों श्रवणों से सुनकर बडी प्रसन्न हुई // 16 // દીધું નેત્રવાળી તે ગંગાદેવીએ પતિએ કહેલા શુભ સ્વપ્નફળને બેઉકા દ્વારા સાંભવીને પોતે ઘણી જ ખુશી થયા. 9 भो ! भो ! मान्यमहोदया गुणभृतोऽद्यस्थिताः श्रूयताम, धर्मः सर्वसुखाकरो जगति वै तस्यास्ति मूलं दया। मूलेनैव समाप्यते स नियतं मत्वेति सत्वान् प्रति, कल्याणेप्सुजनैः सदेयमनुकम्पालिः किलाधीयताम् // 97 // अर्थ-यहां स्थित गुणशाली मान्य महोदयो ! सुनो संसार में नियम से ही सर्व सुखों की खान है. उसका मूल दया है. मूल से ही वह नियम से प्राप्त किया जा सकता है. अतः जो अपना कल्याण चाहने की इच्छा रखते हैं ऐसे मानवों द्वारा समस्त जीवों के प्रति यह अनुकम्पा अवश्य ही रखनी चाहिये // 9 // Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः આ જગતમાં રહેલા હે ગુણવાન માન્ય મહેદો ! સાંભળો સંસારમાં ધર્મ જ સર્વ સુખની ખાણ છે. તેનું મૂળ દયા છે, મૂળથી જ તે અવશ્ય પ્રાપ્ત કરી શકાય છે. તેથી જેઓ પિતાના કલ્યાણની ઈચ્છા કરતા હોય તેમણે સર્વ પ્રાણિ પ્રત્યે આ દયા અવશ્ય રાખવી જોઈએ. બા स्वात्मानन्दप्रकाशानिजहदिसमतावल्लरीवृद्धिजुष्टाः, तुष्टाः शिष्टा भिराध्या विधृतशमदमाद्यैर्गुणैः सद्धिशिष्टाः। तुष्टाश्चारित्रलब्ध्या विमलगुणगणान् निष्ठयाऽऽराधयन्तः, सन्तः सन्तु प्रसन्ना मयि गुणगुखो घासिलालाः मुनीन्द्राः॥९८।। आत्मानन्द के प्रकाश से जिनके हृदय में सब जीवों के प्रति समता रूपी बेल बहुत ही अच्छी तरह से बढ चुकी है. जो स्वयं में सन्तुष्ट है. सत्पुरुषों में भी जो विशिष्ट हैं. चरित्र की लब्धि से जिन्हें अत्यन्त संतोष हैं. निष्टा से-हृदय की लगन से-जो निर्मल गुणगणों की आराधना करने में लगे हुए हैं ऐसे वे गुणगुरु मुनीन्द्र घासिलाल महाराज मुझ पर सदा प्रसन्न रहें // 98 // આત્માનંદના પ્રકાશથી જેમના હૃદયમાં પ્રાણીમાત્ર પ્રતિ સમતારૂપવેલ સારી રીતે વધેલી છે, જે સ્વયં સંતુષ્ટ છે. શિષ્ટ પુરૂ દ્વારા જે સેવવા યોગ્ય છે, ધારણ કરેલા શમ, દમ વિગેરે ગુણો દ્વારા પુરૂષોમાં જે ઉત્તમ છે, ચારિત્રની લબ્ધિથી જેને અત્યંત સંતોષ છે, નિષ્ઠાથી-હૃદયની લાગણીથી જે નિર્મળ ગુણની આરાધના કરવામાં લાગેલ છે એવા એ ગુણગુરૂ મુનિન્દ્ર ઘાસીલાલ મહારાજ મારા પર સદા પ્રસન્ન રહે. 7. जैनाचार्य-जैनदिवाकर श्रीघासीलाल व्रति विरचिते हिन्दीगुर्जरभाषानुवादसहिते . लोकाशाहचरिते तृतीयः सर्गः समाप्तः // 3 // Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - लोकाशाहधरिते अथ चतुर्थः सर्गः प्रारभ्यते आविरासी द्रवीराशि तनसां कोमलैः करैः / धुन्वन् भासयन विषयान काष्ठा अष्ट प्रकाशयन् // 1 // अर्थ-सूर्य का उदय हुआ. अंधकार उसकी कोमल किरणों से दूर हो गया. घटपटादि पदार्थों का स्पष्ट प्रतिभास होने लगा. एवं समस्त दिशाओं में उसका प्रकाश फैल गया. // 1 // સૂર્ય ઉદય થયો, અંધકાર તેના કોમળ કિરણોથી દૂર થશે. ઘટ પટાદિ પદાર્થો સ્પષ્ટ જણાવા લાગ્યા. તથા સઘળી દિશાઓમાં સૂર્યને પ્રકાશ પ્રસરિત થે. ના भाति माभिरयं तावत्प्राची श्यामोत्तरच्छदः। अथवा-तद्गृहस्यायं विद्युद्दीवो महोज्ज्वलः // 2 // अर्थ-जिस प्रकार किसी नवोढा नायिका का की ओडनी चमकती है, उसी प्रकार सूर्य भी अपनी प्रभा से चमकने लगा-तो देखने वालों को ऐसा प्रतीत हुआ कि यह पूर्वदिशा रूपी श्यामा का उत्तरच्छद-ओडनी-है. अथवा-उसके घर का यह प्रकाशमान बिजली का एक दीपक है // 2 // જેમ કઈ નવોઢા સ્ત્રીની ઓઢણી ચમકે છે, એ જ પ્રમાણે સૂર્ય પિતાના તેજથી ચમકવા લાગે જેથી જેનારાઓને એમ જણાયું કે આ પૂર્વ દિશા રૂપી સ્ત્રીનું ઉત્તર છદઓઢવાનું વસ્ત્ર છે, અથવા તેને ઘરને પ્રકાશમાન આ વીજળીને દીપક છે. મારા यद्वाऽयं व्योमरामाया अभिरामोऽस्ति कंदुकः। . दिशासीमन्तिनी सीमन्तस्य सिन्दूरपिण्डिका // 3 // अर्थ-अथवा-यह आकाश श्री रूपी नायिका खेलने का सुन्दर गेंदतो नहीं है ? या दिशारूपी सीमन्तिनी की मांग सिन्दूर की पिण्डी तो नहीं है. ? // 3 // અથવા આ આકાશરૂપી નાયિકાને રમવાને સુંદર દડો તે નથી? અથવા દિશા રૂપી સમન્વિનીને સેંથામાં પૂરવાનો પિડતો નથી ? अक्षकारागृहे रात्री, क्षिप्ताश्छविचौर्यतः / राज्ञा मुक्ता मिलिन्दास्ते, तं स्तुवन्तीह झंकृतैः // 4 // अर्थ-यह प्रसिद्ध है कि चोरी करने वाले को कारावास की सजा मिलती है. और यदि कोई वहां से उसकी मुक्ति करादे तो वह उसकी स्तुति करता हैं. इसी प्रकार अपने कलङ्क की छवि की (अत्यन्त कृष्ण होने के कारण) इन Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः भ्रमरों में चोरी की हैं. ऐसा राजा चन्द्रमाने समझा तो उन्हें कमल रूपी कारगार में उसने रात भर बन्द रखा. पर सूर्य के उदित होते ही कमल के विकसित हो जाने पर वे उसमें से बाहर निकलते ही भन भन करने लगे. अतः वे अपने झंकृत शब्दों से अपनी मुक्ति कराने वाले सूर्य की स्तुति ही कर रहे हैं; ऐसी यह कल्पना है // 4 // એતો સુપ્રસિદ્ધ જ છે કે ગેરી કરનારને જેલની સજા મળે છે. અને જે કોઈ ત્યાંથી તેને છોડાવે તો તે છોડાવનારના વખાણ કરે છે, એ રીતે પિતાના કલંક રૂપી શ્યામતાની આ ભમરાઓએ (કારણ કે તેઓ અત્યંત કાળા છે) ચોરી કરેલ છે એવું ચંદ્રરૂપી રાજાના સમજવાથી તેણે કમળરૂપી કારાવાસમાં આખી રાત પૂરી રાખ્યા. પણ સૂર્યનો ઉદય થતાં જ કમળ વિકસિત થવાથી તેઓ તેમાંથી બહાર નીકળીને ગુંજન કરવા લાગ્યા. તેથી જાણે તે પિતાના ગુંજનના શબ્દોથી પિતાને છોડાવનાર સૂર્યની સ્તુતિ કરતા ન હોય તેમ આ ६५ना छ. // 4 // पङ्कजा ये प्रसुप्तास्तेऽधुना बुद्धा रू वानतिम् / / स्वबन्धवे समीरेण कुर्वन्तीह प्रकम्पिताः // 5 // अर्थ-सूर्य अस्त होने पर जो कमल सरोवर में बन्द हो गये थे, वे अब उसके उदय होने पर खिल गये हैं, और प्रातः काल की मन्द 2 वायु इन्हें धीरे 2 हिला रही है. अतः ऐसा लगता है कि ये अपने बन्धु-सूर्य को नमस्कार ही कर रहे हैं // 5 // '' સૂર્યના અસ્ત થવાથી જે કમળ સરોવરમાં બીડાઈ ગયા હતા તે હવે સૂર્યના ઉદિત થવાથી વિકસિત થઈ ગયા અને પ્રભાતકાળનો મંદ મંદ પવન તેને ધીરે ધીરે હસાવી રહ્યો છે તેથી એમ લાગે છે કે-આ કમળો પોતાના બધુ સૂર્ય નમસ્કાર કરી રહ્યા છે. આપણા वराकीयं चकोरी च सेशां रात्रिमसेवत / तज्जन्यमहसा सैषा प्रातः स्वेशं समापद्राक् // 6 // अर्थ-रात्रि होने पर चकवा और चकवी का वियोग हो जाता है वह रातभर चन्द्रमा की ओर निहारती रहती और अपनी घियोग की रात व्यतीत करती है पश्चात् प्रातः होते ही उसको अपने पति के साथ संयोग हो जाता है, बस इसी पर यह कल्पना है कि विचारी इन चकोरी ने पति चन्द्र सहित रात्रि की रात भर सेवा की अतः उसकी सेवा जन्य पुण्य प्रभाव से उसे प्रातः होते ही Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरित शीघ्र पति देव की-चक या की प्राप्ति हो गई जो जैसे की सेवा करता है. वह वैसा ही बन जाता है. यही उक्ति इससे चरितार्थ हुई है // 6 // રાત્રી થવાથી ચકલા ચકવીને વિગ થઈ જાય છે તે આખી રાત ચંદ્રમા તરફ જોતી રહે છે, અને પોતાના વિચગની રાત્રી પૂરી કરે છે. પછીથી સવાર થતાં જ તેને પિતાના પતિનો મેળાપ થઈ જાય છે, આના પર કવિએ ઉપ્રેક્ષા કરી છે કે-બિચારી એ ચકરીએ ચન્દ્ર સહિત રાત્રીની (પતિ પત્ની બેઉની) આખી રાત ઉપાસના કરી તેથી તેની સેવાના પુણ્ય પ્રભાવથી પ્રભાતકાળ થતાંજ તેને તુરત તેના પતિ ચકવાની પ્રાપ્તિ થઈ, જે જવાની સેવા કરે છે, તે તેવા જ બની જાય છે આ ઉકિત અહીં ચરિતાર્થ થઈ છે. દા महिषीयं हरेराशा वारुणी प्रति शासती। स्वसौभाग्यमनौपम्यं हसतीवोदयच्छलात् // 7 // अर्थ-पूर्व दिशा में यह सूर्य उदित हो चुका है. इस पर यह कल्पना हैं. इसमें यह प्रकट किया गया है कि यह इन्द्र की महिषी-पूर्व आशा-दिशा वारुणी दिशा के प्रति-पश्चिम दिशा के प्रति-अपने अनुपम सौभाग्य का वर्णन करती हुई सूर्योदय के बहाने से ही मानो हंस रही है, अर्थात् पूर्व दिशा पश्चिम दिशा को उलाहना देती हुई अपने सौभाग्य पर इठला रही है // 7 // પૂર્વ દિશામાં સૂર્યને ઉદય થયેલ છે તેના પર આ કલ્પના કરી છે કે-આ ઇંદ્રની મહિષી-પૂર્વ દિશા વારૂણિ (પશ્ચિમ) દિશા પ્રત્યે પિતાના અનુપમ સૌભાગ્યનું વર્ણન કરતાં કરતાં સૂર્યોદયના બહાનાથી જાણે હસી રહી છે. અર્થાત પૂર્વ દિશા પશ્ચિમ દિશાને મેણુ દઈને પિતાના ઉત્કર્ષથી ફૂલાઈ રહી છે. હા वारुणि भजतः कस्य पतनं ना भवद्भुवि / ' शिक्षामिमां विधातुं कि रविरुदयमागतः // 8 // अर्थ-वारुणी-पश्चिम ! दिशा-शराब-के संसर्ग से सेवन से-संसार में किस का अधःपतन नहीं हुआ, सब ही का अधःपतन हुआ, इसी शिक्षा को बताने के लिये ही मानो रवि का उदय हुआ, पश्चिम दिशा में पहुंचने पर रवि का अधःपतन हो जाता है, और पूर्वदिशा में आने पर उसका उदय होता है, सूर्य का अस्त होना ही उसका अधःपतन है // 8 // વારૂણી–પશ્ચિમદિશા-દારૂના સેવનથી આ સંસારમાં કે અધપાત થે નથી? અર્થાત દરેકને અધઃપાત થયો છે. આ વાત બતાવતાં કવિ ઉપેક્ષા કરે છે કે પૂર્વ દિશામાં ઉદય પામેલ સૂર્યના પશ્ચિમ-વારૂણી દિશામાં જવાથી તેને અધઃપાત થાય છે, પૂર્વ દિશામાં આવે ત્યારે તેને ઉદય–ઉન્નતિ થાય છે. અર્થાત સૂર્યનું અસ્ત થવું એજ એને અધઃ પાત છે. 8 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः दिवानाथेन मे पत्नी निशा नीता दिवं हहा। तद्विनाऽहं कथं प्राणान् दधे ह्यस्गतःशशी // 9 // अर्थ-प्रातःकाल में चन्द्रमा अस्त क्यों हो जाता है-इस पर यह कल्पना है. इसके द्वारा यह प्रकट किया गया है कि चन्द्रमाने यह सोचा कि सूर्य ने मेरी पत्नी निशा को नष्ट कर दिया है. अतः मैं उसके विना जीवित नहीं रह सकता सो इसीलिये मानो वह अस्त हो गया है // 9 // પ્રભાતકાળે ચંદ્ર અરત કેમ પામે છે? તેના પર આ કલ્પના કરે છે કે-ચંદ્રમાએ એવું વિચાર્યું કે સૂર્ય મારી શ્રી નિશાને અંત કરેલ છે તેથી તેના વિના જીવીને મારે શું કરવું ? આ કારણથી તે પ્રભાત થતાં અરત પામે છે. હું ऋच्छपुष्पावकीर्णेच, नभस्तल्पे महत्तरे।। शशितम्योरभूत्केलिम्लानास्ताराश्च मर्दनात् / / 10'! अर्थ-प्रातःकाल तारे म्लान क्यों हो जाते हैं-इस पर यह कल्पना है-इसमें यह दिखलाया गया है-कि आकाशरूपी बड़े भारी पलंग पर-सेज पर कि जिस पर तारा रूपी पुष्प बिछे हुए हैं चन्द्रमा और रात्रि की कामक्रीडा हुई सो उनके संमर्दन से ही मानो तारारूपी पुष्प म्लान हो गये हैं-मुरझा गये हैं // 10 // પ્રભાતકાળમાં તારાઓ ઝાંખા કેમ પડે છે? તેના પર કલ્પના કરતા કહે છે કેઆકાશરૂપ વિશાળ પલંગ પર કે જેના પર તારારૂપી પુષ્પ પાથરેલા છે, ચંદ્રમા અને રાત્રિની રતિક્રીડા થઈ તેથી તેના મર્દનથી જ તારા રૂપી પુષે ઝખવાણા પડી ગયા./૧ળા कैखाणां कुलं जात मधुनेन्दुवियोगतः। विनिद्रितं न तद्भाति गृहीतं किन्नु मूर्छया // 11 // अर्थ-रात्रि विकासी कैरव प्रातः होते ही भुकुलित हो जाते हैं. इसका कारण इस श्लोक द्वारा प्रकट किया गया है. इसमें यह झलकाया गया है कि दिवस में इन्दु-चन्द्रमा का सद्भाव-उदय नहीं होता है. इसलिये उसके वियोग में कैरवों का समूह विनिन्द्रित हो जाता है ऐसा निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध बना हुआ है सो कवि इस पर कहता है कि वह विनिन्द्रित नहीं हुआ है किन्तु चन्द्रमा के विरह में वह मूर्छित हो गया है. इष्ट के वियोग में मूर्छित हो जाना यह स्वाभाविक ही है // 11 // રાત્રિ વિકાસ કૈરવ પ્રભાત થતાં જ વિકસી જાય છે તેનું કારણ બતાવતાં કહે છે કે દિવસમાં ચંદ્રમાને ઉદય થતો નથી તેથી તેના વિયેગથી કૈવ નિદ્રિત થઈ જાય છે આ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते રીતે નિમિત્ત નૈમિત્તિક સંબંધ બંધાયેલ છે. આના પર કવિ ઉસ્મક્ષા કરે છે કે–તે નિદ્રિત થયા નથી પરંતુ ચંદ્રના વિરહથી તે મૂર્ણિત થયેલ છે. ઈષ્ટના વિયેગમાં મૂચ્છિત થવું એ સ્વાભાવિક છે. તેના सरोजानां प्रपोदोऽभूत्, सबन्धोरबलोकनात् / रीतिः सांसारिकी ह्येषा, कस्य न स्वजनः प्रियः // 12 // अर्थ-सूर्य के उदित होते ही कमल प्रफुल्लित हो जाते हैं सो इसमें कारण प्रकट करता हुआ कवि कहता है-कि सरोजों को अपने बन्धु सूर्य के अवलोकन से महान् प्रमोद हुआ, अतः उसकी वजह से वे प्रफुल्लित हो गये हैं. सो यह कोई अनोखी बात नहीं है, संसार की रीति ही ऐसी है कि स्वजन किसे प्रिय नहीं होता // 12 // સુર્ય ઉદય થતાં જ કમળ ખિલી ઉઠે છે. તેનું કારણ બતાવતાં કવિ કહે છે કેસરેજોને પિતાના બધુરૂપ સૂર્યના અવેલેકનથી ઘણે જ હર્ષ થયે તેથી તે ખિલી ઉઠયા. આ કેઈ આશ્ચર્યની વાત નથી સંસારની રીત જ એવી છે કે-વજન કોને પ્રિય હેતા નથી? ૧રા पक्ष्मण्यक्ष्णोः समुद्घाट्य प्रभातमाकलय्य च / समुत्सृज्य प्रियाङ्गं च पल्याङ्क विजहुर्जनाः // 13 // अर्थ-सोते हए व्यक्तियों ने आंखों की पलकों को खोलकर यह जब देखा कि प्रातःकाल हो गया है तो उन्हों ने पहिले तो अपनी प्रिया की गोद छोडी पश्चात् अपनी शय्या छोडी // 13 // સૂતેલ વ્યક્તિએ આંખની પાંપણેને ખોલીને જયારે જોયું કે પ્રભાત થઈ ગયેલ છે તેથી તેણે પહેલાં તે પોતાની પ્રિયાનું પડખું છોડીને પછી પિતાની શય્યાને ત્યાગ કર્યો. 13 शुचीभूयजनाः केचिद् गत्वाऽभ्यासे गुरोमुदा। नवस्मृत्यादिकं पाठं बवास्ये मुखवस्त्रिकाम् // 14 // पठन्ति कुर्वते केचन समादाय व्रतं विधिम्, स्वजन्म प्राप्य सिद्धयर्थ तपस्यां कुर्वतेऽपरे // 15 // अर्थ-कितनेक श्रावक जन संयमरूप मानसिक, वाचिक, कायिक शुद्धि के साथ गुरुदेव के समीप उपाश्रय में पहुंचे, वहां जाकर वे मुख पर डोरा सहित Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः मुहात्ति बांधकर आनन्दपूर्वक नवस्मरण का पाठ करने लगे. कितनेक श्रावक विधिपूर्वक व्रतों की आराधना करने में लग गये, तथा कितनेक अपने जन्म में प्राप्त करने योग्य मुक्ति की सिद्धि के निमित्त तपश्चर्या समवायव्रत करने में जुट गये. // 14-15 // કેટલાક શ્રાવકે સંયમરૂપ માનસિક, વાચિક અને કાયિક શુદ્ધિ પૂર્વક ગુરૂદેવ સમીપે ઉપાશ્રયે ગયાં ત્યાં જઈને તેઓ મુખ ઉપર દેરા સહિત મુખવચિકા બાંધીને આનંદ પૂર્વક નવ મરણનો પાઠ કરવા લાગ્યા. કેટલાક શ્રાવકો સવિધિ વ્રતની આરાધના કરવામાં લાગી ગયા તથા કેટલાક પિતાના જન્મમાં પ્રાપ્ત કરવા યોગ્ય મુક્તિની સિદ્ધિ માટે તપશ્ચર્યા સમવાય વ્રત કરવામાં લાગી ગયા. ૧૪-૧પ अहो कियान सुरम्योऽयं प्रातःकालो हितावहः / यस्मिन् प्रणिन्द्रया श्रान्तं ज्ञानं स्वस्थं प्रजायते // 16 // अर्थ-ओह ! यह सुहावना प्राप्तःकाल कितना हितकारक है कि जिसमें अत्यन्त-गंभीर-निद्रा से थका हुआ ज्ञान स्वस्थ-ताजा हो जाता है // 16 // ' અરે ! આ શોભામણે પ્રભાતકાળ કેટલે હિતકારી છે કે જેમાં અત્યંત ગંભીર નિદ્રાથી થાકેલ જ્ઞાન તાજું થઈ જાય છે. 16 कुला येषु शकुन्तानां कर्णानन्दप्रदो खः / श्रूयते तच्छलादेते मिथः पृच्छन्ति कौशलम् // 17 // अर्थ-धोंसलों में जो इस समय कर्ण को सुखकारक पक्षियों का चहचहाना रूप शब्द सुनने में आरहा है उससे ऐसा मालूम होता है कि मानों ये आपस में एक दूसरे की खुशखबर ही पूछ रहे हैं // 17 // માળામાં રહેલા પક્ષિયેના આ સમયે કાનને સુખ ઉપજાવનાર ચહ–ચહનરૂપ શબ્દો સાંભળવામાં આવે છે, તેનાથી એવું જણાય છે કે-જાણે તેઓ પરસ્પર એક બીજાની ખુશ ખબર જ પૂછી રહ્યા છે. તેના वृक्षावृक्षान्तरे वेषामुत्पतनान्नुपीयते। रात्री स्वेषां वियुक्तानां मार्गणं तैर्विधीयते // 18 // अर्थ-एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष पर जो उनका उडकर जाना है उससे ऐसा ज्ञात होता है कि रात्रि में जो अपने बंधुजन वियुक्त हो गये हैं क्या ये उनकी खोज तो नहीं कर रहे हैं // 18 // Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहवरित એક ઝાડથી બીજા ઝાડ પર જે એ ઉડીને જાય છે તેનાથી એવું જણાય છે કે-રાત્રે પિતાના બધુજનનો વિગ થયેલ છે તેની તેઓ શોધ કરી ન રહ્યા હોય. 18 रात्रौ निस्तब्धताऽरण्ये याऽऽसीत्साऽधुना गता। तस्या अन्वेषणायैव भ्रम्यते पशुभिस्तदा // 19 // अर्थ-रात्रि में जो जंगल में निस्तब्धताथी-वह अब कहां चली गई इसी बात को खोजने के लिये मानों पशु इधर उधर घूमने लगे. // 19 // રાત્રે જંગલમાં જે નિસ્તબ્ધતા હતી તે અત્યારે ક્યાં ચાલી ગઈ ? એ શેધવા માટે જ જાણે પશુઓ આમ તેમ ફરવા લાગ્યા. 19 अरविन्ददलस्थानां, बिन्दूनां निपाततः। प्रदीयते मिलित्वैतैः, सूर्याय सलिलाञ्जलिः // 20 // अर्थ-इस समय कमलपत्तों पर पड़ी हुई ओस को बिन्दुओं के नीचे गिरने से ऐसा भान होता है कि मानां ये सब कमल मिलकर सूर्य के लिये सलिलाअलि ही दे रहे हैं // 20 // આ સમયે કમળના પાન પર પડેલ એસ(ઝાકળ)ના બિન્દુઓના નીચે પડવાથી એવું જણાય છે કે આ બધા કમળ મળીને સૂર્યને અર્ધ આપી રહ્યા છે. પ્રેરણા रजन्यां यन्न प्रत्येति नयनै स्तमसाऽऽवृतम्। .. प्रातः काले समायाते तत्स्पष्टं वस्तु बुध्यते // 21 // अर्थ-अन्धकार के कारण-जो वस्तु रात्रि में स्पष्ट प्रतीत नहीं होती थी. अब प्रातःकाल के आते ही वही वस्तु स्पष्ट प्रतीत होने लगी हैं // 21 // અધકારને લીધે જે વસ્તુ રાત્રે સ્પષ્ટ દેખાતી ન હતી તે પ્રાતઃકાળ થતાં પણ જણાવા લાગી. રિલા अस्मिन्नवसरे गंगा विधि प्राभातिकं तदा। समाप्योवाच नाथ त्वं तत्त्वं तावन्निवेदय // 22 // अर्थ-इसी प्रातःकाल के समय में प्रातःकाल की समस्त क्रियाओं को समाप्त करके गंगाने पतिदेव से कहा-हे नाथ ! आप हमें तत्त्वसम्बन्धी बातें वतलाईये-समझाइए // 22 // આવા પ્રભાત કાળના સમયે પ્રભાત કાલીન સઘળી ક્રિયા સમાપ્ત કરીને ગંગાદેવીએ પિતાના પતિ હેમચંદ્ર શેઠને કહ્યું- હે નાથ ! આપ મને તાત્વિક વાત જણાવો. રિરા Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः चेतना लक्षणो जीवः कर्मभिः पुद्गलैः कृतः। - परतन्त्रः कथं तावत्संदेहं मे निवारय // 23 // अर्थ-यह जीव चेतना स्वरूपवाला है. सो अचेतन स्वरूपवाले कर्म पुद्गलों मारा यह परतन्त्र कैसे किया गया-सो मेरे इस संदेह को आप दूर कीजिये // 23 // આ જીવ ચેતના સ્વરૂપવાળે છે તે અચેતન વરૂપવાળા કપુલેથી પરતંત્ર કેવી રીતે કરાય આ મારો સંદેહને આપ સમજાવી દુર કરે. રહા श्रुत्वेदं वचनं हेमचन्द्रोऽवादीच्छृणु प्रिये / अहं त्वां सर्वभावेन बोधयामि यथा मतिः // 24 // अर्थ-हेमचन्द्र सेठने जब अपनी प्रिया के इस प्रकार के वचन सुने तय उन्हों ने उससे कहा-हे प्रिये ! मैं तुम्हारे इस संशय को अपनी बुद्धि के अनुसार निराकरण करता हूं अर्थात् तुम्हें समझाता हूं-तुम उसे सुनो // 24 // હેમચંદ્ર શેઠે પોતાની પત્નીના આ રીતના વચન સાંભળ્યા ત્યારે તે તેને કહેવા લાગ્યા, - પ્રિયે ! હું તમારા આ સંશયનું મારી સમજ પ્રમાણે નિરાકરણ કરૂં છું અર્થાત તમને સમઝાવું છું તે તમે સાંભળો. સરકા यः पदार्थो यथावस्थो, भवनं तस्य तत्तथा / भवनं प्रोक्तं च तत्त्वज्ञजिनेन्द्रैजैनशासने // 25 // अर्थ-जो पदार्थ जैसा है-उसका इसी तरह से होना सो तत्व है. ऐसा स्व के ज्ञाता जिनेन्द्र देव ने कहा है // 25 // : જે પદાર્થ જે રીતનો હોય એજ રીતે હેવું તે તત્વ છે. એમ એવા તત્વને જાણનાર જીતેન્દ્રદેવે કહ્યું છે. રપા यथा कश्चित्कुरङ्गोऽसौ गीतं श्रुत्वा विमुह्यति / परन्तु तत्स्वरूपं स न जानाति न तत्त्ववित् // 26 // अर्थ-जिस प्रकार हरिण गीत को सुनकर उस पर मुग्ध हो जाता है. मन्तु वह उसके स्वरूप को नहीं जानता है-अतः वह उस गीत का ज्ञाता नहीं कहा जाता है. // 26 // છે જેમ હરણ ગીત સાંભળીને તેના પર મોહિત થઈ જાય છે. પરંતુ તે એના યથાર્થ રૂપને જાણતું નથી તેથી એ ગીતનું જાણકાર ન કહેવાય. ર૬ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 लोकाशाहचरिते एवं तद्रासना भावाज्जीवः कल्याणसत्पथम् / आरोढुं नैव शक्नोति तत्त्वं वेद्यं पुनः पुनः // 27 // अर्थ-इसी प्रकार जीव जबतक तत्व की भासनावाला नहीं बनता है तब तक वह कल्याण के सुन्दर पथ पर आरूढ नहीं हो सकता है. अर्थात् उसकी भाव भासना हुए विना वह उसका यथार्थ ज्ञाता नहीं हो सकता है / इस लिये तत्त्व को समझने के लिये बार 2 चेष्टा करते रहना चाहिये // 27 // એ રીતે જીવ જયાં સુધી તત્વની ભાસના વાળ બનતો નથી, ત્યાં સુધી તે કલ્યાણની સુપથ પર ગતિ કરી શકતું નથી. અર્થાત તેની ભાવ ભાસના થયા વિના તે તેને યથાર્થ જાણકાર થઈ શકતો નથી. તેથી તત્વને સમજવા માટે વારંવાર ચેષ્ટા કરતા રહેવું જોઈએ. રહા जीवाजीवात्रवा बंध संवरौ चाथ निर्जरा।। मोक्षश्चेति सिद्धान्ते स तत्त्वानि सन्ति वै // 2 // अर्थ-जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष ये नौ तत्व हैं // 28 // જીવ, અજીવ, પુણ્ય, પાપ, આસવ, સંવર નિર્જરા, બંધ અને મેક્ષ આ નવ ત છે. ર૮ मुख्योपचारमाश्रित्य तावत्तत्वमिहोदितम् / निश्चयव्यवहारझै विनेयजनबोधकैः // 29 // अर्थ-निश्चय और व्यवहार नय के ज्ञाताओं ने मुख्य-निश्चय नय और उपचार-व्यवहार नय को लेकर तत्व की प्ररूपणा की है // 29 // - નિશ્ચય અને વ્યવહાર નયના જાણકારોએ મુખ્ય નિશ્ચયનય અને ઉપચારથી વ્યવહાર નયને લઈને તત્વની પ્રરૂપણા કરી છે. રહા अनेकान्तमयं तत्त्वं नैकधङ्कितं च तत् / सर्वथाऽदेशभेदेन, तत्र तेषां च संस्थितिः // 30 // . अर्थ-तत्त्व अनेक धर्मों से युक्त है वह सर्वथा एक धर्म से ही युक्त है ऐसी वस्तु स्थिति नहीं है. अनेक धर्मों का सद्भाव वस्तु में आदेश भेद से-विवक्षा के भेद से माना गया है // 30 // તત્વ અનેક ધર્મોથી યુક્ત છે, એ સર્વથા એક ધર્મથી યુક્ત છે એવી વસ્તુસ્થિતિ નથી. અનેક ધર્મોને સદ્ભાવ વતુમાં આદેશ ભેદથી અર્થાત્ વિવફા ભેદથી મનાયેલ છે. ફળ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः 101 - एकान्तनिश्चयो मिथ्या व्यवहारस्तथैव च / सम्यक् परस्परापेक्षी वस्तुतत्तप्रसाधकी 31 / अर्थ-किसी एक धर्म को वस्तु में एकान्तरूप से भानना मिथ्या है. यदि इसी तरह का व्यवहारनय है तो वह भी मिथ्या ही है. क्यों कि परस्परापेक्ष व्यवहार और निश्चय ये दोनों वस्तुतत्त्व के प्रसाधक होते हैं. अतः इस स्थिति में ही ये दोनों नय सम्यक हैं // 31 // કોઈ એક ધર્મને વસ્તુમાં નિશ્ચય રૂપથી માનવું મિથ્યા છે. જે આ પ્રમાણેને વ્યવહાર નય છે તો તે પણ મિથ્યા જ છે કેમ કે પરસ્પર સાપેક્ષ-વ્યવહાર અને નિશ્ચય એ બને વરંતુ તત્વના સિદ્ધ કરવાવાળા છે તેથી આ રિથતિમાં જ એ બન્ને સમ્યફ કહ્યા છે. 131 अमूर्तश्चेतनो भोगी कर्तादेहप्रमाणकः / उर्ध्वगामि स्वभावोऽयमुत्पदिादित्रयात्मकः // 32 // अर्थ-जीव तत्त्व अमूर्तिक है-निश्चयनय की अपेक्षारूप रस, गंध, और स्पर्श से रहित है. चेतना स्वभाववाला है, अपने द्वारा किये हुए शुभाशुभ कर्मों के फल को स्वयं भोगनेवाला कर्ता-रागादिक भावों का करनेवाला है. देह प्रमाण है नाम कर्म के उदय से प्राप्त हुए शरीर के बराबर है. स्वभावतः उर्ध्वगामी है. और सर्वथा कूटस्थ नित्य नहीं है. किन्तु परिणामी नित्य हैउत्पाद, व्यय, एवं धोव्य धमों से युक्त है // 32 // * જીવતત્વ અમૂર્તિક છે નિશ્ચયનય પ્રમાણે રૂપ, રસ, ગંધ અને સ્પર્શથી રહિત છે. ચેતના સ્વભાવવાળે છે, પોતે કરેલા શુભાશુભ કર્મોના ફળને સ્વયં ભગવનાર કર્તારણાદિ ભાવ ઉપજાવનાર છે શરીર પ્રમાણ છે. એટલે કે નામ કીના ઉદયથી પ્રાપ્ત થયેલ શરીરની બરાબર છે. સ્વભાવથી ઉર્ધ્વગામી છે. અને સર્વથા કુટસ્થ નિત્ય નથી. પરંતુ પરિણામી નિત્ય છે. ઉત્પાદ, વ્યય અને ધ્રૌવ્ય ધર્મોથી યુક્ત છે. hકરા एवं निश्चित्य मंतव्यं जीवः स्वकतकर्मभिः / बध्यते व्यवहारान्नो कथमस्य भवस्थितिः 33 / अर्थ-इस प्रकार निश्चय करके यह मानना चाहिये कि जीव व्यवहार से अपने द्वारा किये गये कर्मों का कर्ता है-अतः वह उनके द्वारा बंधता है यदि ऐसी बात न मानी जावे तो फिर उसकी जो भवस्थिति है-संसार में परिभ्रमण होता है-वह नहीं बन सकती है // 33 // Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 लोकाशाहचरिते આ પ્રમાણે નિશ્ચય કરીને એમ માનવું જોઈએ કે-જીવ વ્યવહારથી પોતે કરેલા કર્મોને કર્તા છે. તેથી એ તેનાથી બંધાય છે. જે એમ માનવામાં ન આવે તો પછી તેની જે ભવસ્થિતિ છે એટલે કે સંસારમાં પરિભ્રમણ થાય છે તે થઈ શકે નહીં ? कर्मणामास्त्रवो यत्र संसारस्तत्र वर्तते / एवं संसाररूपत्वं चतुर्गतिषु सिद्धयति // 34 // अर्थ-जहां 2 कर्मों का आस्रव है-वहां 2 संसार रूपता है. इस प्रकार की व्याप्ति होने पर से चारों गतियों में-नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य, देव, इनमें संसार रूपता सिद्ध हो जाती है // 34 // જ્યાં જ્યાં કર્મોમાં આ સૂર છે ત્યાં ત્યાં સંસાર પણું છે આ પ્રમાણેની વ્યાપ્તિ થવાથી ચાર ગતિમાં અર્થાત નરક, તિર્યચ, મનુષ્ય અને દેવ એ ગતિમાં સંસારપણું સિદ્ધ થઈ જાય છે. 34 छिद्रान्विते यथा वारि घटे विशति तत्स्थिते / जीवे मिथ्या हगादिभ्यो विशति कर्मपुद्गलाः // 35 // अर्थ-जिस प्रकार पानी में पडे हुए छिद्रयुक्त घट में पानी प्रवेश करता है उसी प्रकार मिथ्यादर्शन आदि से युक्त जीव में इनके द्वारा कर्म रूप पुद्गल प्रवेश करते हैं-इसीका नाम आस्रव है. // 35 // છિદ્રવાળો ઘડો કે જે પાણીમાં પડ્યો હોય તો તેમાં જેમ પાણીને પ્રવેશ થાય છે, એજ પ્રમાણે મિથ્યાદર્શનેવિગેરેથી યુક્ત જીવમાં તેના દ્વારા કર્મરૂપ પુદગલ પ્રવેશે છે. તેનું જ નામ આસ્રવ છે. રૂપા कायवाङ्मनसां कर्मयोग एवाश्रयो मतः। शुभाशुभविकल्पाभ्यां सोऽयं संजायते द्विधा // 36 // अर्थ-मन, वचन, और काय की जो क्रिया है उसका नाम योग है. और यह योग ही आस्रव है। यह आस्रव शुभ और अशुभ के भेद से दो प्रकार का है. शुभ योग से शुभ आस्रव और अशुभ योग से अशुभ आस्रव होता है // 36 // મન વચન અને કાયની જે ક્રિયા છે, તેનું નામ રોગ છે. અને એ લેગ એ જ આસવ છે. એ આસ્રવ શુભ અને અશુભના ભેદથી બે પ્રકારના છે. શુભ વેગથી શુભ આસ્રવ અને અશુભ યેગથી અશુભ આસવ થાય છે. 36 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः 103 . पुण्यरूपः शुभस्तावत् पापरूपोऽशुभास्रवः। पुण्यपापैः समाधोनो जीशेऽयं व्याकुलः सदा // 37 // अर्थ-शुभास्रव पुण्यरूप और अशुभास्रव पाप रूप होता है. जीव जबतक पुण्य और पाप इनसे पराधीन बना हुआ है-तबतक यह नियम से व्याकुल रहता है. निराकुल हो ही नहीं सकता // 37 // શુભાસ્રવ પુણ્યરૂપ અને અશુભસવ પાપરૂપ હોય છે. જીવ જ્યાં સુધી પુણ્ય અને પાપથી પરાધીન બનેલું હોય ત્યાં સુધી તે અવશ્ય વ્યાકુળ રહે છે. નિરાકુળ થઈ શકતું નથી. 37 व्याकुलत्वं च संसारि जीवे सर्वत्र वीक्षते / स नास्तीदृक् क्षणः कोऽपि यस्मिन् स स्यान्निराकुलः // 38 // अर्थ-जीव की जब तक संसाप अवस्था है तब तक नियम से इसमें व्याकुलता है. ऐसा कोई सा क्षण नहीं है कि जिस क्षण में पर गिराकुल हो सके // 38 // જીવની જયાં સુધી સંસાર અવસ્થા છે, ત્યાં સુધી અવશ્ય તેમાં વ્યાકુલ પણું છે. એવી એક પણ ક્ષણ નથી કે જે ક્ષણમાં એ નિરાકુળ થઈ શકે. 38 ध्रुवं पुण्यात् सुखं पापादुःखं मन्येऽहमात्मनः / . उभयोरप्यवस्थायां नैराकुल्यं न जायते // 39 // अर्थ-यह एकान्त सत्य है कि पुण्य से जीवों को सांसारिक सुख प्राप्त होता है और पापसे एकान्ततः दुःख प्राप्त होता है. इन दोनों की पुण्य और पाप के उदय की अवस्था में जीव निराकुल नहीं होता है. पाप की अवस्था में तो निराकुलता होती ही नहीं है. पर पुण्य की अवस्था में भी जीव में निराकुता नहीं होती // 39 // એ ખરેખર સત્ય જ છે કે પુણ્યથી જીવને સાંસારિક સુખ પ્રાપ્ત થાય છે. અને પાપથી કેવળ દુઃખ જ પ્રાપ્ત થાય છે. આ બન્નેની અર્થાત પુણ્ય અને પાપના ઉદયની અવરથામાં જીવ નિરાકુળ થતો નથી. પાપની અવસ્થામાં તો થતી જ નથી. પરંતુ પુણ્યની અવસ્થામાં પણ જીવમાં નિરાકુળ પણું થતું નથી. કલા एकस्याः समीहायाः पूर्तिः स्यादपरा तदा। तत्राप्यपरापरेच्छायां नैरन्तर्य प्रसिद्धयति // 10|| Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 लोकाशाहचरिते अर्थ-पुण्य और पाप इन दोनों के उदय में निराकुलता क्यों नहीं होती तो इस का कारण यह है कि एक इच्छा की पूर्ति होने पर जीव में उसी क्षण द्वितीय इच्छा जगती है, उसकी पूर्ति होने पर तृतीय इच्छा जगती है. इसी तरह कोई सा भी क्षण ऐसा नहीं रहता है कि जिसमें इच्छा न जगती रहती हो, इस तरह इच्छाओं की निरन्तरता जीव में सिद्ध हो जाती है // 40 // પુણ્ય અને પાપ એ બન્નેના ઉદયમાં નિરાકુળ પણું કેમ થતું નથી? તો એનું કારણ એ છે કે–એક ઈચ્છા પૂર્ણ થવાથી એજ ક્ષણે જીવમાં બીજી ઈચ્છા જાગે છે. અને તે પુરી થાય ત્યારે ત્રીજી ઈછા ઉત્પન્ન થાય છે. એવી કોઇ પણ ક્ષણ હતી નથી કે જેમાં નવી ઈચ્છા ઉત્પન્ન ન થાય આ રીતે ઈચ્છાઓનું નિરંતર પણું જીવમાં સિદ્ધ થાય છે. यावन्मोहोदयस्तावदिच्छाऽभावो न जायते / इत्थ मिच्छोत्पत्तिर्हि जीवे व्याकुलता मता // 41 // अर्थ-जब तक जीव के मोह का उदय रहता है. तब तक इच्छा का अभाव नहीं होता है, इस प्रकार इच्छा की उत्पत्ति ही जीव में व्याकुलता कही गई है, मोह कर्म के सद्भाव से ही इच्छाएं विविध प्रकार की उत्पन्न होती रहती है. और इनसे जीव में व्याकुलता बनी रहती है // 41 // . જયાં સુધી જીવમાં મહિને ઉદય રહે છે, ત્યાં સુધી ઈચ્છાને અભાવ થતો નથી આ રીતે ઇચ્છાની ઉત્પત્તિ જ જીવમાં વ્યાકુળ પણું કહેલ છે. મહ કર્મના અવરથાનથી જ અનેક પ્રકારની ઇચ્છાઓ ઉત્પન્ન થાય છે. અને તેનાથી જીવમાં વ્યાકુળ પણું રહ્યા अरे छ. // 41 // सैव व्याकुलता तावत् पारतन्त्र्यं निगद्यते / पुद्गलेः कर्मभिरिस्थं जीवेऽस्ति परतन्त्रता // 42 // यह व्याकुलता ही परतन्त्रता है, और यह परतन्त्रता पौद्गलिक कर्मों द्वारा जीव में पूर्वोक्त रूप से होती है // 42 // આ વ્યાકુળપણું એજ પરતંત્રપણું છે. અને તે પરતંત્રપણું પૌઢલિક કર્મો દ્વારા જીવમાં પૂર્વોક્ત પ્રકારથી થાય છે. જરા यथा पीतेन भद्येन जन्तुः संमुह्यते तथा / बंधावस्थासमापन्नैः कर्मभिर्मुह्यते जनः // 43 // जिस प्रकार पिये गये मद्य-शराब से प्राणी मूच्छित हो जाता है-अपने और पर के ज्ञान से रहित हो जाता है-उसी प्रकार बंधावस्थापन्न-क्षीर नीर Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः की तरह बन्ध को प्राप्त हुए-कर्म पुद्गलों के द्वारा यह जीव मूञ्छित हो जाता है.॥४३॥ - જેમ મદિરાપાન કરવાથી પ્રાણી મૂચ્છિત થાય છે, એટલે કે પિતાપણા કે પારકાપણાના શાન રહિત થઈ જાય છે એ જ પ્રમાણે બંધાવસ્થા પ્રાપ્ત કરેલ છવ કર્મ પુષ્યો દ્વારા મૂચ્છિત થઈ જાય છે. જવા जीवोऽसौ सकषायत्वात् कर्मयोग्याँश्च पुद्गलान् / आदत्ते कथितो बंधः सोऽयमस्ति चतुर्विधः // 44 // अर्थ-यह जीव कषाय सहित होने के कारण कर्म योग्य पुद्गलों को-कार्मण वर्गणाओं को-जो ग्रहण करता है-उसका नाम बंध है. यह बंध चार प्रकार का है // 44 // / આ જીવ કષાયયુક્ત હોવાથી કર્મયોગ્ય પુદ્ગલેને અર્થાત કાર્મણ વર્ગણાઓને જે ગ્રહણ કરે છે, તેનું નામ બંધ છે. આ બંધ ચાર પ્રકાર છે. 44 प्रकृति स्थित्यनुभाग प्रदेशास्ता विधाः इमाः। ... आसां प्ररूपणाऽऽचार्यैरागमे विस्तरात्कृता // 45|| अर्थ-प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबंध ये बंध के चार प्रकार हैं। इनकी प्ररूपणा विस्तार के साथ अचार्यों ने आगमों में की है. अतः वहीं से यह प्रकरण जान लेना चाहिये // 45 // પ્રકૃતિબંધ સ્થિતિબંધ, અનુભાગબંધ, અને પ્રદેશબંધ આ બંધના ચાર પ્રકાર છે. તેની પ્રરૂપણા આચાર્યોએ આગમાં વિસ્તાર પૂર્વક કરેલ છે. તેથી આ વિષય તેમાંથી સમજી લે. ૪પા मिथ्यादृक् च प्रमादश्च योगश्चाविरतिस्तथा / - कपायाश्चेति बंधस्य हेतवः सन्ति पञ्चधा // 46 // . अर्थ-मिथ्यादर्शन, प्रमाद, योग, अविरति और कषाय ये बन्ध के पांच कारण हैं // 46 // મિથ્યાદર્શન, પ્રમાદ, યોગ, અવિરતિ અને કષાય આ પાંચ કારણ બંધના या छ. // 46 // प्रकृतिबन्धस्य भेदाश्च, अष्टौ प्रोक्तास्तथाहि ते / . ज्ञानहगावती वेयं मोहायुनाम गोत्रयुक् // 47 // Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते विघ्नश्चेति प्रभेदानामेषां भेदाश्च पञ्च च / नव द्वौ विंशतिरष्टाधिका चत्वार एव च // 48 // चत्वारिंशद्वयविका च द्वौ पञ्चापि स्मृताः क्रमात् / व्याख्या भेदप्रभेदानामुक्ता सूत्रेषु सूरिभिः // 49 // ___ अर्थ-प्रकृतिबन्ध आठ प्रकार का है-वे आठ प्रकार ये हैं-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र, और अन्तराय, इनके भी भेद प्रभेद हैं-जैसे-ज्ञानावरण के पांच, दर्शनावरण के नव, वेदनीय के दो मोहनीय के अट्ठावीस, आयुके चार, नाम के बायालीस, गोत्र के दो, और अन्तराय के पांच, इन भेदों के भी प्रभेद हैं, इनका वर्णन तथा इनकी व्याख्या आचार्यों ने सूत्रों में की है-तो वहां से जान लेनी चाहिये // 47 // 48 // 49 // પ્રકૃતિબંધના આઠ પ્રકાર છે તે આ પ્રમાણે છે. જ્ઞાનાવરણ, દર્શનાવરણ, વેદનીય, મેહનીય, આયુ નામ ગોત્ર અને અન્તરાય, આના પણ ભેદ પ્રભેદો છે, જેમકે જ્ઞાનાવરણના પાંચ, દર્શનાવરણના નવ, વેદનીયના બે મોહનીયના અઠયાવીસ, આયુના ચાર નામના બેંતાલીશ, ગેત્રના બે, અને અન્તરાયના પાંચ, આ ભેદોના પણ આંતર ભેદે છે, આનું વર્ણન સવિસ્તર આચાર્યોએ સૂત્રગ્રંથમાં કરેલ છે. તેથી તે ત્યાંથી જાણી લેવું. 474849 कर्मणां सह जीवेन अवस्थानं यदस्ति सा। स्थितिबन्धस्तु तद्रपस्तेषां सेत्थं शृणु प्रिये // 50 // अर्थ-यह तो पहिले प्रकट किया जा चुका है नि कर्मों का जीव के साथ अवस्थान - एक क्षेत्रावगाह रूप सम्बन्ध हैं-वह बंध है, इस बंध के रहने की जो मर्यादा है वह स्थितिबन्ध है-यह स्थिति हे प्रिये ! इनकी इस प्रकार એતો પહેલાં કહ્યું જ છે કે-જીવની સાથે કર્મોનું જે અવસ્થાન છે, એટલે કે એક ક્ષેત્રાબહ કૃપમાં સંબંધ છે તે બંધ છે. આ બંધને રહેવાની મર્યાદા છે, તે स्थितिम५ छ. में सनी स्थिति है प्रिये // प्रभारी छ. // 50 // : N}} & }} त्रयाणामादितः प्राज्ञैरन्तरायस्य च स्मृताः। ALBASEActore ,TTEE THEATRE . सागरोपमकोटीनां त्रिशकोट्यः परा स्थितिः // 51 // Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः अर्थ-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय इन चार कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति तीस 30 कोटा कोटी सागर की है // 51 // જ્ઞાનાવરણ, દર્શનાવરણ, વેદનીય અને અન્તરાય આ ચાર કર્મોની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ 30 ત્રીસ કોટાકોટી સાગરોપમની છે. પલા सप्ततिर्मोहनीयस्य विंशतिर्नाम गोत्रयोः आयुषस्तु त्रयस्त्रिंशविज्ञेयाः सागरोपमाः // 52 // अर्थ-मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति 70 कोडाकोडी सागर की है, नाम कर्म और गोत्रकर्म की 20 कोडाकोडी सागर की है। आयुकर्म की 33 सागर की है। यह आठ कर्मों कीउत्कृष्ट स्थिति कही गई है // 52 // - મેહનીય કર્મની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ 70 સિત્તેર કટોકટી સાગરની છે. નામકર્મ અને ગેત્ર કમની ર૦ કેડા કેડી સાગરની છે, આયુકર્મની 33 તેત્રીસ કોડા કેડી સાગરની છે. આ રીતે આઠ કર્મની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ કહેવામાં આવેલ છે. પરા अपरा वेदनीयस्य मुहूर्त्ता द्वादश स्थितिः। नाम्नो गोत्रस्य चाष्टौ स्याच्छेपास्त्वन्तर्मुहूर्तकाः / / 53 // जधन्य स्थिति कर्मों की इस प्रकार से है-वेदनीय कर्म की 12 बारह मुहूर्त की, नाम और गोत्र कर्म की आठ मुहूर्त की तथा शेष बचे कर्मों की अन्तमुहूर्त की है // 53 // - કર્મોની જઘન્ય સ્થિતિ આ પ્રમાણે છે. વેદનીય કર્મની 12 બાર મુહૂર્તની નામ અને મેત્રિકર્મની આઠ મુહૂર્તની તથા બાકીના કર્મોની અન્તર્મુહૂર્તની કહી છે. પરા विपाकोऽनुभवस्तावत् कर्मणामुप्तधान्यवत् / अनुभागोऽपरपर्यायः, उक्तः केवलचक्षुषा // 54 // अर्थ-जिस प्रकार बोया धान्य समय पाकर पक जाता है उसी प्रकार अबाधा काल के बाद कर्म भी उदय में आते हैं. कर्मों का उदय में आना ही उनका विपाक है-पकना है इसका दूसरा नाम अनुभाग भी है ऐसा केवली का बचन है // 54 // જેમ વાવેલું અનાજ એગ્ય સમયે પાકી જાય છે. એ જ પ્રમાણે અબાધા કાળ પછી કર્મ પણ ઉદયમાં આવે છે. કર્મોનું ઉદયમાં આ વુિં તેને વિપાક છે. એનું બીજું નામ અનુભાગ પણ છે. એ પ્રમાણેનું કેવલીનું વચન છે. આપા Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 लोकाशाहचरिते ये सर्वात्मप्रदेशेषु संस्थिताः कर्मपुद्गलाः / एक क्षेत्रावगाहेन बंधः प्रदेशसंज्ञकः / 55 // अर्थ-समस्त आत्मप्रदेशों में-आत्मा के असंख्यात प्रदेशों में-जो कर्म पुद्गल-एक 2 प्रदेश पर एक क्षेत्रावगाह रूप से अनन्तानन्त ठहरे हुए हैं, उसका नाम प्रदेशबंध है. अर्थात् आत्मा के प्रत्येक प्रदेश पर अनन्तानन्त कर्म वर्गणाओं जो ठहरता है उस का नाम प्रदेशबंध है॥५५॥ સઘળા આત્મપ્રદેશોમાં એટલે કે આત્માના અસંખ્યાત પ્રદેશમાં જે કર્મપુલ એક એક પ્રદેશ પર એક ક્ષેત્રાવગાહ પણાથી અનંતાનંત રહેલા છે તેનું નામ પ્રદેશબંધ છે. અર્થાત આત્માના દરેક પ્રદેશ પર અનંતાનંત કર્મવર્ગણાઓ જે રહે છે તેનું નામ પ્રદેશ બંધ છે. પપા निरोधो ह्यास्त्रवस्यासौ संवरः परिकीर्तितः / कर्म संवियतेऽनेन संवरः स निरुक्तितः // 56 / / अर्थ-आस्रव का रुकना यह संवर कहा गया है. यह संवर कर्मों के आगमन के द्वार को रोक देता है. // 56 // આસવના રોકાઈ જવાને સંવર કહેલ છે આ સંવર કર્મોના આવવાના દ્વારને રોકી छ. // 56 // गुप्तिसमितिधर्मेभ्यश्चारित्रेभ्यश्च जायते / परीषहजयानुप्रेक्षाभ्योऽसौ मुक्तिकारणम् // 57 // . अर्थ-तीन 3 गुप्तियों से, पांच 5 समितियों , से दश 10 उत्तम क्षमा आदि धर्मों से एवं तेरह 13 प्रकार के चारित्र से तथा बावीस 22 प्रकार की परीषहों के सहने से और बारह 12 प्रकार की अनुप्रेक्षाओं के चिन्तवन से यह संवर मुक्ति का कारण होता है // 57 // ત્રણ ગુપ્તિથી, પાંચ સમિતિથી, દશ 10 ઉત્તમ ક્ષમા વિગેરે ધર્મોથી અને તેર પ્રકારના ચારિત્રથી તથા બાવીસ પ્રકારના પરીષહોને સહન કરવાથી અને બાર પ્રકારની અનુપ્રેક્ષાઓના ચિંતવનથી આ સંવર મુક્તિનું કારણ થાય છે. પછી कर्मणां संचितानां च एकदेशपरीक्षयात् / निर्जरा जायते द्वेधा सकामाकामभेदतः // 58 / / Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः 109 अर्थ-संचित कर्मों के थोडे 2 विनाश से निर्जरा होती है यह दो प्रकार की है. एक सकामनिर्जरा और दूसरी अकामनिर्जरा // 58 // સંચિત કર્મોના થડા થોડા વિનાશથી નિર્જરા થાય છે. આ નિર્જ સકામ અને અકામના ભેદથી બે પ્રકારની છે. 58 दुर्जरं जीर्यते कर्म अनयेति शुभाशुभम् / व्युत्पत्त्या निर्जरा ज्ञेया सा सकामैव कर्मदा // 59 / / अर्थ-जिसके द्वारा दुर्जर-जीर्ण-संचित-शुभ और अशुभकर्म झडते हैंनष्ट होते हैं वह निर्जरा है. यह निर्जरा-सकाम निर्जरा और अकाम निर्जरा के भेद से दो प्रकार की है. इनमें जो सकाम निर्जरा है वही कर्मों का नाश करनेवाली होती है // 19 // જેનાથી દુર જીણું સંચિત શુભ અને અશુભકર્મ જડાય છે અર્થાત નાશ પામે છે તે નિર્જરા છે, આ નિર્જરા સકામ નિર્જર અને અકામ નિર્જરાના ભેદથી બે પ્રકારની છે. તેમાં જે સકામ નિર્જરા છે એજ કર્મોને નાશ કરવા વાળી છે. પહેલા सकामा या व्रतादीनामाराधनाद्युपक्रमैः / साध्या संजायते सास्ति कर्मनिर्मूलने क्षमा // 6 // अर्थ-निर्जरा व्रतादिकों की आराधना से-तपस्या से-साध्य होती है वह सकाम निर्जरा है. और वही कर्म के निर्मूल करने में उन्हें जड़ से उखाडने मेंसमर्थ है. // 6 // જે નિર્જરા વ્રતાદિકની આરાધનાથી અર્થાત્ તપસ્યાથી સાથે થાય છે તે સકામ નિર્જરા છે અને એજ કર્મને નિર્મૂળ કરવામાં તેને ઝડથી ઉખાડવામાં સમર્થ थाय छे. // 10 // विपाकान्तस्थितानां हि कर्मणां स्वयमेव या // निर्जराऽस्त्यनुपायात् सा, अकामाऽसंवराऽहिता // 6 // . अर्थ-अपने समय के अनुसार जो कर्मनाश हो रहे हैं-शड रहे हैं-वह * अकाम निर्जरा है. वह निर्जरा विना उपाय के होती है. संवर का यह कारण नहीं होती और न इससे जीव का हित ही होता है // 61 // Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 लोकाशाहचरिते પિતાના સમયાનુસાર જે કર્મ નાશ પામી રહ્યા છે. તે અકામ નિજારો છે. આ નિર્જરા ઉપાય કર્યા વિના થાય છે. તે સંવરના કારણરૂપ હેતી નથી અને તેનાથી જીવનું કઈ પણ હિત થતું નથી. 6 લા मोहक्षयाच सषां कर्मणां सर्वथा क्षयः। लब्धव्यं तच्च लभ्यं स्याद् यतितव्यं तथात्मभिः॥६२।। अर्थ-मोह के विनाश होने से समस्त कर्मों का सर्वथा- अपुनर्भवरूप सेविनाश है-वही मोक्ष है. इसलिये ऐसा प्रयत्न करना चाहिये के जिससे प्राप्त करने योग्य-मोक्ष-प्राप्त हो सके // 6 // મોહને ક્ષય થવાથી સઘળા કર્મોને જે સર્વથા અપુનર્ભવપણાથી વિનાશ થાય છે તે જ મોક્ષ છે. તેથી એ પ્રયત્ન કરવો જોઈએ કે જેથી મોક્ષ પ્રાપ્ત કરવા યોગ્ય પ્રાપ્ત થઈ શકે. 6 રા यथैकाकेन हीनानां विन्दूनां नास्ति मूल्यता / तथा न दृष्टि हीनानां क्रियाणां जन्मनाशता 163 // अर्थ-जिस प्रकार एक अंक से हीन बिन्दुओं की कीमत नहीं होती है उसी प्रकार सम्यग्ज्ञान दर्शन से विहीन क्रियाओं की मुक्तिमार्ग में कीमत नहीं होती है. क्यों कि उसके बिना उनमें जन्म को नाश करने की क्षमता नहीं आती है // 63 // જેમ આંકડા વિનોના શૂન્ય સમૂહની કંઈ પણ કિંમત હૈતી નથી એજ રીતે સમ્યક જ્ઞાન દર્શનથી રહિત ક્રિયાઓની મુક્તિ માર્ગમાં કીંમત હોતી નથી. કેમ કે તેના વિના જન્મને નાશ કરવાની શક્તિ આવતી નથી. i63 सर्वथा प्रथमं सैव ग्राह्या जीवेन यत्नतः विना तामस्य भो देवि ! भवस्य स्यान्न विच्युतिः॥६४॥ अर्थ-अतः जीव का कर्तव्य है कि सर्वप्रथम वह बडे प्रयत्न से इस प्राप्त करे. क्यों कि उस दृष्टि के विना हे देवि ! इस भव का-संसार का-नाश नहीं हो सकता है // 64 // તેથી જીવનું કર્તવ્ય છે કે-સૌથી પહેલાં તેણે પ્રયત્ન પૂર્વક સમ્યકજ્ઞાન દર્શન પ્રાપ્ત કરવા જોઈએ. કારણ કે એ દષ્ટિ વિના હે દેવી આ ભવને નાશ થઈ શકતો નથી. ti64 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः . देवागमगुरूणां च श्रद्धानं यत्सुनिर्मलम् / शङ्कादिदोषनिर्मुक्तं सम्यक्त्वं तन्निगद्यते // 65 // अर्थ-वह सम्यक्त्व देव, आगम और गुरु की सच्ची श्रद्धा करने से उत्पन्न होता है. एवं शङ्कादिक दोषों को दूर करने से यह निर्मल होता है ऐसा आचार्यों का इस सम्बन्ध में कथन है // 65 // એ સમ્યકત્વ દેવ, આગમ અને ગુરૂને વિષે સાચી શ્રદ્ધા રાખવાથી ઉત્પન્ન થાય છે અને શંકાદિ દોષને દૂર કરવાથી તે નિર્મલ થાય છે. એ પ્રમાણે આચાર્યોનું આ વિષયમાં કથન છે. આપા स्वभवे येन जीवेन सम्यग्दृष्टि रुपासिता। जानुदघ्नीकृतागाध भवाम्भोधिः स जायते // 66 // अर्थ-जिस जीव ने अपने भव में सम्यग्ज्ञान दर्शन की प्राप्ति की है उस जीव ने अपने अनन्त संसार को परिमित बना लिया है // 66 // જે જીવે પિતાના ભવમાં સમ્યફ જ્ઞાન દર્શનની પ્રાપ્તિ કરી છે, તે જીવે પોતાના અનંત સંસારને પરિમિત બનાવી લીધો છે. 6 દા सर्वज्ञेनोच्छिन्नदोषेण वीतरागेण बोधितः / यः स एव सुधर्मोऽस्ति दशलक्षणसंयुतः / / 67 / अर्थ-सर्वज्ञ, वीतराग और हितोपदेशी इन तीन विशेषणों वाली आत्मा के द्वारा समझाया गया जो तत्व है वही श्रेष्ठ धर्म है. इसकी जानकारी जीव को उत्तम क्षमा आदि उसके दश 10 भेदों द्वारा हो जाती है // 67 // | સર્વજ્ઞ, વીતરાગ અને હિપદેશી એ ત્રણ વિશેષણોવાળી, આત્મા દ્વારા સમજાવેલ જે તત્વ છે, એજ ઉત્તમ ધર્મ છે. તેની સમજણ જીવને ઉત્તમ ક્ષમા વિગેરે તેના 10 દસ ભેદથી થઈ જાય છે. આ देव स एव यो दोषैरष्टा दशभिर्विवर्जितः / यत्र स्याद्वादसिद्धान्तः स एव परमागमः // 68 // अर्थ-जो अठारह प्रकार के होने से रहित होता है वही सच्चा देव है. और जहां स्यावाद सिद्धान्त का निवास है वही परमागम है // 6 // का मानापाथी त काय # साया व छ, अन याद्वाद सिद्धांतो पास छ. मे० ५२भाभRERATE FIT NIES Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 लोकाशाहचरिते बाह्याभ्यन्तरैः संगैः रिक्तः सद्बोधदायकः / गुरु ानतपोलीनो विषयाशा विवर्जितः // 69 // अर्थ-बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रहों से जो रहित है, यथार्थ बोध का जो दाता है, ध्यान और तपमें जो लीन है और पंचेन्द्रियों के विषयों की आशा से जो रहित है ऐसी आत्मा ही गुरु है // 69 // બાહ્ય અને આભ્યન્તર પરિગ્રહોથી જે રહિત છે, અને જે યથાર્થ બોધ આપે છે. તથા ધ્યાન અને તપમાં જે લીન છે અને પંચેદ્રિના વિષયેની આશાથી જે રહિત છે એ આત્મા જ ગુરૂ છે. 6 (aa अदेवे देवबुद्धिर्याऽगुरौ च गुरुधीस्तथा। अनागमे च तथ्यस्य धिष्णा मिथ्यात्वलक्षणम् // 7 // अर्थ-अदेव--पूर्वोक्त देवलक्षण रहित आत्मा में-देव की बुद्धि का होना अगुरु में-गुरुलक्षण हीन आत्मा में-गुरु की बुद्धि का होना, आगम लक्षण हीन ज्ञान में-आगम की बुद्धि का होना यही मिथ्यात्व का लक्षण है // 7 // અદેવ એટલે કે પૂર્વોક્ત દેવના લક્ષણ વિનાના આત્મામાં દેવ બુદ્ધિ થવી અગુરૂમાં અર્થાત ગુરૂના લક્ષણ શૂન્ય આત્મામાં ગુરૂ બુદ્ધિ થવી આગમના લક્ષણ વિનાના જ્ઞાનમાં આગમ બુદ્ધિ થવી એજ મિથ્યાત્વનું લક્ષણ છે. [70] जीवलक्षणतो भिन्न विद्धय नीवं शुभानने। पुद्गलादि विभेदेन पंचधा सोऽस्ति संमतः // 7 // अर्थ-जीव के लक्षण से जो भिन्न है उसे हे शुभानने ! अजीव जानो. वह अजीव पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन भेदों से पांच प्रकार का माना गया है // 71 // હે સુંદર મુખવાળી ! જીવના લક્ષણથી જે અલગ છે તેને અજીવ સમજવા. તે અજીવ પુલ, ધર્મ, અધર્મ, આકાશ અને કાળ આ ભેદથી પાંચ પ્રકારના માનેલ છે. 71 पुद्गलानां च भेदानां प्रभेदानां च वर्णनम् / यथास्थानमहं तावद् वदिष्याम्यवधारय // 72 // अर्थ-मैं-यथास्थान पुद्गलों का उनके भेदों का और प्रभेदों का वर्णन करूंगा. सो वहीं से यह सब जान लेना // 72 // Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः હું યોગ્ય સ્થાને પુગલનું તેના ભેદનું અને પ્રભેદનું વર્ણન કરીશ તેને ત્યાંથી સમજી લેવું. તેરા वैचित्र्यं कर्मणां किञ्चिच्छ्रावयामि शृणु प्रिये / यत्प्रभावाद्धययं जीवो भवरङ्ग स्थले स्थले // 73 // नटवन्नृत्यति वेषं कृत्वा कृत्वाऽविरामतः / रागद्वेषविधातारमग्रे कृत्वा ह्यनादितः // 74 // अर्थ-हे प्रिये ! मैं अब तुम्हें कमों की कुछ विचित्रता सुनाताहूं. तुम उसे सुनो. इन कमों के प्रभाव से ही यह रागद्वेष रूपी कषाय को आगे करके जीप सी भवरूपी नाटय शाला में जगह 2 नट की तरह अनेक प्रकार के स्वांग, र घर कर नचता आ रहा है. यह नचने रूप क्रिया इसकी सादि नहीं है मनादि की हैं. इसे चैन कहां जो यह कहीं विश्राम भी पा सके // 73-74 // હે પ્રિયે ! હવે હું તને કર્મોની કેટલિક વિચિત્રતા સંભળાવું છું તે તમે સાંભળો મા કર્મોના પ્રભાવથી જ તે રાગદ્વેષ રૂપી કષાયને આગળ કરીને જીવ આ ભવરૂપી નાટક 1ળામાં સ્થળે સ્થળે નટની માફક અનેક પ્રકારના રૂપને ધારણ કરીને નાચતો આવે છે. ખા નાચવા રૂપ ક્રિયા તેની સાદિ નથી. અનાદિની છે. તેનાથી વિરામ કયાં મળે કે તે यांय विश्राम पशु भेणवी श: 1 // 73-74 / / दुस्साध्यान्यपि यस्य वै सुघटितान्यत्रासते विभ्रमात्, . ज्ञानध्यानफलानि यस्य दयया सिद्धिं लभन्ते पराम् / दुर्गम्याब्धिनगाटवी गतजनो येनैव संरक्ष्यते, तस्मै सर्व विधायिने च जयिने देवाय नित्यं नमः // 75 // अर्थ-कठिन से भी कठिन कार्य जिसके नेत्र के इशारे से शीघ्र बन जाया रते हैं, जिसकी दया के बल पर ज्ञान, ध्यान के फल सिद्ध हो जाया करते हैं, कम ऐसे समुद्र में, पर्वत में और जंगल में फंसा हुआ प्राणी जिसके द्वारा दरक्षित रहता है ऐसे उस सर्व शक्तिमान् दैव के लिये मैं सर्वदा नमस्कार उता हूं // 7 // * કઠણમાં કઠણ કાર્ય જેની આંખના ઇશારાથી એકદમ બની જાય છે, જેની દયાના (થી જ્ઞાન, ધ્યાનનું ફળ સિદ્ધ થઈ જાય છે. દુર્ગમ એવા સમુદ્રમાં પર્વતમાં અને જંગ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते લમાં ફસાયેલ પ્રાણી જેના દ્વારા સુરક્ષિત રહે છે, એવા એ સર્વ શક્તિમાન દેવને હું સદા નમસ્કાર કરું છું. ૭પ यस्यापूर्वमहौजसाति तरसा व्यालोऽपि मालायते, वेठो यस्य सुदृष्टि रागवशतः पीयूषकोशायते / दुर्दान्तोऽपि करी हरिश्च हरिको भीमोपि शिष्यायते, दुर्गः स्वर्गनिभोऽनलो जललवो खड्गोऽपि हारायते // 6 // अर्थ-जिसके प्रभावशाली अपूर्व तेज के आगे सर्प माला के जैसा हो जाता है, विष अमृत के पिण्ड जैसा बन जाता है दुर्दान्त हाथी घोडा और सिंह शिष्य के जैसा विनम्र हो जाता है, दुर्ग स्वर्ग के तुल्य, अग्नि जल के जैसी और तलवार हार के समान बन जाती है। ऐसे उस सर्व शक्तिमान दैव के लिये मैं नमस्कार करता हूं // 76 // જેના પ્રભાવશાળી અપૂર્વ તેજની આગળ સર્પ માળાની જેમ થઈ જાય છે, વિષ અમૃતના પિંડ જેવું બની જાય છે. દુર્દાન્ત હાથી, ઘેડા, અને સિંહ શિષ્યની જેમ વિનય શીલ બની જાય છે, દુર્ગ વર્ગ જેવો અગ્નિ જળના છે અને તલવાર હારના જેવી થઇ જાય છે એવા સર્વ શક્તિવાળા દેવને હું નમસ્કાર કરું છું. कीर्तिर्यस्य कथामपीह कथितुं शक्तोऽभवन्नोकविः, ब्रह्माविष्णुमहेशशेषमुनयोऽप्यास्थायमीन स्थिताः / काऽन्येषां विदुषां कथात्र महतामेतत्रिलोकी जनः, ' यस्याये तृणवद्विभाति जयतात्सर्वातिरेको विधिः // 7 // अर्थ-जिसकी कीर्ति की कथा कहने के लिये बृहस्पति अपने को असमर्थ समझता है, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, शेषनाग और मुनि अभीतक मौन धारण किये हुए हैं, तब अन्य बडे 2 विद्वानों की तो बात ही क्या है ? जिसके आगे समस्त संसार तृण के जैसा तुच्छ प्रतीत होता है ऐसे उस सर्वाति रेकि दैव के लिये मैं नमस्कार करता हूं // 77 // જેની કીતિની કથા કહેવા માટે બૃહસ્પતિ પિતાને અસમર્થ માને છે. બ્રહ્મા, વિષ્ણુ, મહેશ. શેષનાગ અને મુનિજન અત્યાર લગી મૌન ધારણ કરી રહ્યા છે, તો પછી બીજા વિદ્વાની તે વાત જ શું કરવી ? જેની આગળ આ સઘળે સંસાર તણખલા જેવો તુચ્છ દેખાય છે એવા સર્વાતિરેકી દેવને હું નમસ્કાર કરું છું. !I૭છા Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः यस्योपर्यनिशं सरोजसदृशो दृष्टिप्रसारो विधेः, . निद्रव्योऽपि धनी भवेत्सुचरितश्चारित्रहीनोऽपि ना / गुण्यग्र्योऽपि च निर्गुणो भविजनैान्यो भवेद्दुर्गुणः, .. पूज्यः स्यादपि दुर्जनः सुजनवदुष्टोऽपि शिष्टो भवेत् // 78 // अर्थ-जिसके ऊपर भाग्य की सरोज के जैसी कोमल कृपा की कोर पडी रहती है वह भले ही निद्रव्य हो पर धनी भी उसके आगे पानी भरता है भले ही वह चारित्र हीन हो पर उसके समक्ष सदाचारी भी घुटने टेक देता है, भले हो वह गुणों से हीन हो पर बडे 2 विद्वान् भी उसके आगे बोलने में अक्षम हो जाते हैं, भले ही वह दुर्गुणो का घर हो पर वह गुणियों में अगुवा बनकर संसार में प्रतिष्ठा पाता है. भले ही वह दुर्जन हो पर सज्जन की तरह वह पुजाता है और भले ही वह दुष्ट हो पर शिष्ट की तरह वह सीना तानकर चला करता है // 78 // જેની ઉપર ભાગ્યની કમળ જેવી કમળ કૃપાદ્રષ્ટિ પડી રહે છે તે ભલે નિર્ધને હેય પણ ધનવાન પણ તેની આગળ પાણી ભરે છે. ભલે તે ચારિત્ર રહિત હોય પણ તેની આગળ સદાચારી પણ મસ્તક નમાવે છે. ભલે તે ગુણોથી રહિત હોય પણ મોટા મોટા વિદ્વાને પણ તેની આગળ બોલવાને અસમર્થ બની જાય છે, ભલે તે દુર્ગાનું ઘર હોય પણ તે ગુણિજનમાં અગ્રેસર બનીને જગતમાં સન્માન મેળવે છે. તે ભલે દુર્જન હોય પણ તે સજજનની માફક પૂજાય છે. તે ભલે દુષ્ટ હોય. પણ સભ્યજનની જેમ ઉંચુ મુખ રાખીને ચાલે છે. I78 लक्ष्मी वा ललनेव पादयुगयोः संवाहनं सादरं, ... कृत्वा नृत्यति तस्य तस्य पुरतो यस्यानुकूलो विधिः / किंचान्यैर्भवभोगसौख्यमतुलं तस्यैव संपद्यते, यस्योपर्यनिशं सरोजसदृशो दृष्टिप्रसारो विधेः // 79 // अर्थ-ललना के जैसी होकर लक्ष्मी भी उसी के दोनों पैरों को बडे आदर के साथ दाबती है कि जिसके ऊपर पुन्य की कृपा है जैसी कोमल कृपादृष्टि भाग्य की बनी रहती है. और उसी के समक्ष वह नाचती रहती है कि जिसके मनुकूल वह भाग्य बना रहता है. और अधिक क्या किसी के सम्बन्ध में कहा जावे जीवन में सांसारिक जितने भी अतुल भोग हैं और जितने भी Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते सुख हैं वे सब उसी प्राणी को सुलभ होते हैं कि जिसके ऊपर विधि की पुण्य की सरोज जैसी कोमल कृपा है // 79 // લક્ષ્મી પણ એનાજ બન્ને પગે સ્ત્રીની જેમ ઘણા જ આદર સાથે દબાવે છે, કે જેના ઉપર પુણ્યની કૃપા હોય છે. અને તેની ઉપર ભાગ્યની કમળ કૃપાદષ્ટિ બની રહે છે, અને તેની જ સામે તે નાચતી રહે છે, કે જેને અનુકૂળ એ ભાગ્ય બની રહે છે. અને વધારે શું કેઈના વિષે કહી શકાય ? જીવનમાં સાંસારિક જે કોઇ અતુલ ભોગો છે, અને જેટલું સુખ છે, એ બધું એજ પ્રાણીને સુલભ થાય છે કે જેના ઉપર વિધિની કૃપા કમળના જેવી કમળ બનેલ હોય છે. છલા यत्रासन्ननिशं मृदङ्गनिवहन्यानैरनेकोत्सवाः, रम्यस्त्रीकरपल्लवैर्मणिमयी रंगावलिः कल्पिताः / दैवे हा ! प्रतिकूलतामुपगते ध्वस्ता नभस्पर्शिणः, हास्तेऽपि महार्षिणः शिवस्वस्तत्रावनौ श्रूयते / / 80 // अर्थ-जहां पर निरन्तर गाजे बाजे के साथ विविध उत्सव मनाये जाते रहे और जिनमें कमल कोमल शरीरवाली स्त्रियों के करपल्लवों द्वारा चौक पूजे जाते रहे ऐसे वे नभस्तलस्पर्शी वेश कीमतो ऊंचे 2 भवन भाग्य के प्रतिकूल हो जाने पर ध्वस्त हो गये. और आज उस भूमि में केवल गीदडो के ही शब्द सुनने में आरहे हैं // 80 // જ્યાં હંમેશા નિરંતર ગાજવીજાની સાથે અનેક પ્રકારના ઉત્સવ થતા રહે છે, અને જેના કમળ જેવા કોમળ શરીરવાળી દ્મિના હસ્ત કમળથી ચોક પૂરાય છે, એવા એ આકાશ તળને સ્પર્શ કરવાવાળા કીમતી ઉંચા ઉંચા ભવને ભાગ્યના પ્રતિકૂળ થવાથી નાશ પામ્યા છે, અને આજે એ ભૂમિમાં કેવળ શિયાળવાના જ શબ્દ સંભળાઈ રહ્યા છે. એટલા दिव्यस्त्रीनयनावलीभिरभितस्तल्पस्थिता भुंजते. सौख्यानीह कटाक्षिता सुकृतिनः केचिद् यथेच्छं नराः। केचिद्रामविधौ विनैव वनिता तान्ताः सदा दुःखिनः, - वैक्लव्यं कलयन्ति हा ! पर रमा संवीक्षणैरीक्षणैः // 81 // . अर्थ-जिनके ऊपर पुन्य की कृपा है ऐसे वे भाग्यशाली पुण्यात्मा मनुष्य शय्या पर बैठे 2 ही देवाङ्गनाओं जैसी स्त्रियों के कटाक्षों के लक्ष्य बनकर इच्छानुसार सुखों को भोगते हैं और जिन पर भाग्य की कृपा नहीं है-भाग्य Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः जिन के प्रतिकूल बना हुआ है, ऐसे वे मनुष्य विना घरवाली के रात दिन दुःखित बनकर विकलता को प्राप्त होते रहते हैं और परस्त्री को देख 2 कर अपने नेत्रों को दूषित करते हैं // 81 // જેના ઉપર પુણ્યની કૃપા થઈ હોય તેવા એ ભાગ્યશાળી પુણ્યાત્મા મનુષ્ય શય્યા પર બેઠા બેઠા જ દેવાંગનાઓ જેવી સ્ત્રીના કટાક્ષોનું લક્ષ્ય બનીને ઈચ્છાનુસાર સુખે ભગવે છે. અને જેના ઉપર ભાગ્યની કૃપા નથી અર્થાત ભાગ્ય જેને પ્રતિકૂળ બનેલ હોય એવા એ મનુષ્ય ઘરવાળી વગર રાત દિવસ દુઃખી બનીને વિકળતાને પ્રાપ્ત થતા રહે છે. અને પર સ્ત્રીને જોઈ જાઈને પોતાના નેત્રોને અપવિત્ર કરતા રહે છે. 81 तल्पस्था अपि केपि देव दयया लक्ष्म्यङ्गनाऽऽलिङ्गिनाः, निर्द्रव्याश्च तदीय दृष्ट्यपथिका उद्योगिनो दुःस्थिताः / केचित् षड्सभोजनानि मुदिता नित्यं लभन्ते नराः, कृत्वाऽपीह परिश्रमं न लभते हाऽन्नस्य कैचित्कणः // 82 // अर्थ-जिन-ऊपर दैव की दया है ऐसे मनुष्य शय्या पर लेटे 2 भी लक्ष्मी रूपी अङ्गना से आलिङ्गित होकर आनन्द करते रहते हैं, और जो दैव की दृष्टि के अपथिक हैं-जिन पर देव की कृपा नहीं है ऐसे व्यक्ति उद्यम करते 2 भी द्रव्य रहित रहते हैं और दुरवस्था से गृहीत होकर अपने दिन निकालते रहते हैं। कितनेक व्यक्ति दैव के प्यारे होकर षड्स भोजन कर आनन्द की वंशी बजाया करते हैं तथा कितनेक ऐसे भी व्यक्ति हैं जो देव को कृपा से रहित होकर अन्न के एक 2 दाने काभी मुंहताज बने रहते हैं // 82 // જેના ઉપર દૈવની દયા છે એ મનુષ્ય પથારી પર સૂતા સૂતા જ લક્ષ્મી રૂપી સ્ત્રીને આલિંગન કરીને આનંદ કરે છે. અને જેઓ દેવની દષ્ટિના માર્ગરૂપ નથી બન્યા એટલે કે જેના ઉપર દેવની કૃપા થઈ નથી એ પુરૂષ ઉદ્યમ કરતા છતાં પણ દ્રવ્ય વિહીન રહે છે. અને દુર્બળ અવસ્થાથી પીડિત થઇને પિતાના દિવસો વિતાવે છે. કેટલીક વ્યક્તિ દેવના પ્યારા બનીને છ રસ યુક્ત ભોજન કરીને આનંદની વાંસળી વગાડ્યા કરે છે. તથા કેટલીક એવી પણ વ્યક્તિ છે, કે જે દેવની કૃપાથી રહિત બનીને અન્નના એક એક દાણ માટે પણ વલખા મારતારહે છે. ૮રા वासांसीह नवानि केऽपि दधतेऽन_णि नित्यं जनाः, जीर्णान्यप्यपरे न शीतसमये संप्राप्नुवन्त्यङ्गिनः / Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते केचिच्छीलविभूषिता अघि सदा सीदन्ति वामे विधी, पापासक्तधियोऽपि केऽपि सततं देवप्रिया मोदिनः // 83 // अर्थ-जिन पर देव को कृपा बरसती रहती है वे नित्य नये नये वस्त्रों को धारण करते हैं, तथा जो इसकी कृपा से वंचित हैं उन्हें शीत के समय में भी जीर्ण तक भी कपडे नहीं मिलते, तथा कितनेक जन ऐसे भी हैं जो शील से विभूषित होते हुए भी यदि देव की कृपा से रिक्त हैं तो उन्हें कोई दो कोडी में भी नहीं पूछता है. वे सदा दुःखी ही बने रहते हैं. तथा-जो दैव के लाडले हैं ऐसे जीव पाप में आसक्त होने पर भी नित्य गुल छर्रे उडाया करते हैं // 83 // જેના પર દેવની કૃપા વરસતી રહે છે, તે દરરોજ નવા નવા વસ્ત્રો ધારણ કરતા રહે છે. તથા જે તેની કૃપા રહિત છે, તેને ઠંડીના સમયમાં ઉતરેલા વસ્ત્રો પણ મળતા નથી. તથા કેટલાક મનુષ્યો એ પણ હોય છે કે જેઓ શીલવાળા હોવા છતાં પણ જે દેવની કૃપા શૂન્ય હોય તો તેને કોઈ બે બદામને પણ ભાવ પૂછતા નથી. તેઓ સદા દુઃખી જ બની રહે છે. તથા જેઓ દેવના લાડકા છે એવા જ પાપથી રચ્યા પચ્યા રહેવા છતાં પણ દરરોજ મોઝ ઉડાવ્યા કરે છે. દવા चाक्तिनमया पुरस्त विधेः प्राणप्रिये तन्यते, .. सत्यं किन्तु हृदिस्थितं तदिह भो ! वाण्याऽवदं सादरम् / शास्त्रेषु प्रथितास्तदीयविभुता प्रख्यापिका सत्कथा, विज्ञायाप्तमुखाश्च वीक्ष्य गुरुतां भावोऽभवन्मे स्फुटः // 4 // अर्थ-इस तरह से जो मैंने हे प्राणप्रिये ! तेरे समक्ष देव के विषय में कहा है वह मैंने उसकी खुशामद करने के रूप में नहीं कहा है. किन्तु मैने अपने हृदय में स्थित यह सत्य कहा है. क्यों कि देव के प्रभाव का वर्णन करने वाली अनेक सुन्दर 2 कथाएं शास्त्रों में प्रसिद्ध हैं. उन्हें मैंने गुरुजनों के मुख से सुना है. उससे मैंने देव की गुरुता-महत्ता-जानली है. अतः इस विषय में मेरा हार्दिक अभिप्राय इन श्लोकों के रूप में यहाँ प्रस्फुटित हुआ है // 84 // જ હે પ્રાણ પ્રિયે! આ પ્રમાણે જે મેં તારી સન્મુખ દેવના વિષયમાં કહેલ છે, તે મેં તેની ખુશામત પણાને લઈને કહેલ નથી. પરંતુ મેં મારા હૃદયમાં રહેલ સત્યભાવ કહેલ છે. કેમકે દેવના પ્રભાવને વર્ણવવા વાળી અનેક સુંદર સુંદર કથાઓ શાસ્ત્રોમાં પ્રસિદ્ધ છે, તે મેં ગુરૂ મુખથી સાંભળેલ છે, તેમની પાસેથી મેં દૈવની મહત્તા જાણી લીધી છે. તેથી આ વિષયમાં મારો હાર્દિક અભિપ્રાય આ શ્લેકના રૂપથી અહીં પ્રદર્શિત કરેલ છે. આ૮૪. Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 चतुर्थः सर्गः . तत्त्वस्य स्वरूपेत्थं सा विज्ञाय मुमुदेतराम् / प्रभावं कर्मणां श्रुत्वा, किञ्चिद्विस्मयमावहत् // 5 // अर्थ-तत्व का स्वरूप इस प्रकार से श्रुत्वा-सुनकर-जानकर वह देवी गंगा बहुत अधिक आनंदित हुई. तथा कर्मों के प्रभाव को सुनकर उसे कुछ आश्चर्य सा भी हुआ // 85 // તત્વનું સ્વરૂપ આ પ્રમાણે સાંભળીને તે ગંગાદેવી ઘણી જ આનંદિત થઈ તથા કર્મોના પ્રભાવને સાંભળીને તેને કંઈ આશ્ચર્ય જેવું થયું. ૮પા अवदन्नाथ ! जीवोऽयं कर्मणां गहनां गतिम्, कथं विज्ञातुमर्हः स्यादित्यारेका निवारय // 86 // अर्थ-तब उसने कहा हे नाथ ! यह जीव कर्मों की गहन गति को कैसे जान सकता है. इस मेरी शंका का आप समाधान की जिये ? // 86 // તેથી તેણે કહ્યું હે નાથ ! આ જીવ કર્મોની ગહન ગતિને કેવી રીતે જાણી શકે? આ મારી શંકાનું આપ સમાધાન કરે. ૮દા उवाच हेमचन्द्रोऽथ प्रिपे सर्वज्ञमन्तरा / छद्मस्थस्तां न विज्ञातुं समर्थे ऽस्ति मिशालय // 87 // अर्थ-तब हेमचन्द्र सेठ ने कहा-हे प्रिये ! कर्मों की गहन गति को सर्वज्ञ के विना छद्मस्थ जन जीव नहीं जान सकता है. ऐसा समझना चाहिए // 87 // ગંગાદેવીનું વચન સાંભળીને હેમચંદ્ર શેઠે કહ્યું હે પ્રિયે ! કર્મોની ગહન ગતિને સર્વજ્ઞ શિવાય છદ્મસ્થ જીવ જાણી શકતા નથી. તેમ સમજવું. 87 जीवो भवति सर्वज्ञः कथं मुक्ताधियोऽपि वा। श्रोतुमिच्छास्ति चेतावद् ब्रवीमि त्वां समासतः॥८८॥ अर्थ-हे प्रिये ! जीव सर्वज्ञ कैसे हो सकता है और कैसे बह मुक्ति का स्वामी बन सकता है. यदि इस बात को सुनने की तेरी इच्छा है तो मैं इसे तुम्हें संक्षेप से कहता हूं-सुनो-॥८८॥ હે પ્રિયે! જીવ સર્વજ્ઞ કેવી રીતે થઈ શકે છે? એને તે મુક્તિને સ્વામી કેવી રીતે બની શકે છે? જો આ વાત સાંભળવાની તારી ઈચ્છા હોય તો હું એ તને ટુંકાણથી કહું છું તે તમે સાંભળો. 188 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 लोकाशाहचरिते सम्यग्दर्शनबोधवृत्तममलं संधारयत् त्यादरात्, पूर्ण-ते नरपुङ्गवा भववनी छित्वा च कैवल्यतः लोकालोकविलोकने तिचतुरा मुक्त्यङ्गनालिङ्गिताः, जायन्ते ह्यपुनर्भवा गुणभृतो नित्यं च तेभ्यो नमः॥८९॥ अर्थ-जो जीव जघन्य सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र से लेकर पूर्ण सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र को प्राप्त कर लेते हैं. वे नरपुंगव प्राप्त केवलज्ञान के प्रभाव से भववनी को ध्वस्त करके समस्तलोक और अलोक के ज्ञाता दृष्टा हो जाते हैं, मुक्त्यङ्गना उन्हें चाहने लगती है. उससे आलिङ्गित होकर वे फिर अपुनर्विवाले हो जाते हैं और आठ गुणों के युक्त बने हुए वे वहां अनन्तकाल तक विराजमान रहते हैं. अतः ऐसे जीवों को मेरा नित्य नमस्कार हो. // 89 // જે જીવ જઘન્ય સમ્યજ્ઞાન, સમ્યગ્દર્શન અને સમ્યફ ચારિત્રથી લઈને પૂર્ણ સમ્યજ્ઞાન, સમ્યગ્દર્શન અને સમ્યફ ચારિત્રને પ્રાપ્ત કરે છે એવો નર શ્રેષ્ઠ પ્રાપ્ત થયેલ કેવળજ્ઞાનના પ્રભાવથી ભવાટવીને ધવત કરીને સઘળા લેક અને અલકના જ્ઞાતા અને દષ્ટ થઈ જાય છે. મુક્તિ રૂપી સ્ત્રી તેને ઈચ્છવા લાગે છે. તેનાથી આલિંગિત થઈને તે પાછા પુનર્ભવ રહિત થઈ જાય છે. અને આઠ ગુણોથી યુક્ત બનીને તેઓ ત્યાં અનંતકાળ પર્યન્ત બિરાજ માન રહે છે. તેથી એવા જીવને મારા નમસ્કાર છે. 89 दम्पत्योरनयो विचार चतुरां तां शेमुषी विभ्रतोः, ___ स्वाध्याये रतयोर्दयालुमनसोः सवृत्तसंशालिभिः / अन्यरात्महितेप्सुभिर्याणवरैर्गोष्ठयो सहासीनयोः, इत्थं यान्ति गनोहरासु दिवसाः नित्योत्सवा नेदिनोः // 10 // अर्थ-इस प्रकार से विचारशील बुद्धि को धारण करते हुए. स्वाध्याय में रत दयालु मन वाले उन दोनों पति पत्नी के दिवस सदाचार विशिष्ट अन्य आत्म हिताभिलाषी गुणिजनों की गोष्ठी में सम्मिलित होकर आनन्द के साथ व्यतीत होने लगे. // 10 // આ પ્રમાણે વિચારશીલ બુદ્ધિને ધારણ કરીને સ્વાધ્યાયમાં તત્પર દયાળુ મનવાળા એ દંપતીને સમય સદાચાર યુક્ત બીજી આત્મહિતાભિલાષી ગુણવાન પુરૂષોની વાર્તાલાપ પૂર્વક આનંદથી પસાર થતો હતો. 90 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 121 चतुर्थः सर्गः यस्य ज्ञानिवचोंशुभिः समभवज्ञानप्रकर्षो हृदि, - तस्मायोजनि जैनसाधुतिलको वैराग्यरंगे पटुः। हित्वा वैषयिकं सुखं मुनिपदं संसेवते सादरं; मुक्ति स्त्रीपदलिप्सया विजयतां श्रीघासिलालो मुनिः // 91 // अर्थ-जिसके हृदय में ज्ञानि गुरुओं के बचन रूपी किरणो से ज्ञान का प्रकर्ष हुआ और इसीसे जो जैन साधुओं में एक साधुतिलक रूप हुआ तथा वैराग्य का रंग जिसकी नस 2 में भरा हुआ है ऐसा वह घासिलाल मुनि कि जो अभी तक भी वैषयिक सुखों का परित्याग करके बडे आदर के साथ मुक्ति स्त्री के पद को पाने की इच्छा से मुनि पद के सेवन करने में दत्तचित्त है सदा जयवंता वर्ते // 11 // જેના હૃદયમાં જ્ઞાની ગુરૂઓના વચન રૂપી કિરણથી જ્ઞાનની વૃદ્ધિ થઈ અને તેનાથી જેઓ જૈન સાધુઓમાં તિલકરૂપ થયા તથા વૈરાગ્યનો રંગ જેની નસ નસમાં ભરેલ છે એવા એ ઘાસીલાલ મુનિ કે જેઓ અત્યાર પર્યન્ત વૈષયિક સુખનો ત્યાગ કરીને ઘણા જ આદર પૂર્વક મુક્તિ રૂપી સ્ત્રીના પદને પામવાની ઈચ્છાથી મુનિ પદનું સેવન કરવામાં દત્તચિત્ત રહે છે એવા એ મુનિરાજ સદા જયવંતા વોં. 91 - जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर श्रीघासीलाल व्रति विरचिते हिन्दीगुर्जरभाषानुवादसहिते लोकाशाहचरिते चतुर्थः सर्गः समाप्तः // 3 // Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 लोकाशाहचरिते अथ पञ्चमः सर्गः प्रारभ्यतेअभ्यसभ्यै युवजानिरेषः वृतोऽन्यदा शुभ्र पवित्रवस्त्रः। नक्षत्रवृन्दै वि संपरीतः शशीव वव्राज मठं मुनीनाम् // 1 // अर्थ-एक दिन की बात है कि हैमचन्द्रजी सेठ मुनिजनों के पास में उपाश्रय में गये उनके साथ उस समय सभ्यधनिक जन थे-उपाश्रय में जाने के लायक पवित्र पोशाक इन्हों ने पहिर रखी थी. अतः देखने वालों को ये नक्षत्रराजि से परिवृत चन्द्रमण्डल के जैसे प्रतीत हो रहे थे // 1 // એક દિવસ હેમચંદ્ર શેઠ ઉપાશ્રયમાં મુનિજનેની સમીપે ગયા. તે વખતે તેમની સાથે અન્ય સભ્ય ધનિકજન હતા. ઉપાશ્રમાં જતી વખતે ત્યાને યોગ્ય પવિત્ર પહેરવેશ તેમણે પહેરેલ હતું તેથી જેનારાઓને તેઓ નક્ષત્ર સમૂહથી વિંટળાયેલ ચંદ્ર મંડળની જવા તેઓ જણાઈ રહ્યા હતા. 1 विराजमानं भवदुःखदावानलातपातप्तमुमुक्षु शिष्यान् / संबोधयन्तं गुरुवर्यदेवं ननाम हर्षाश्रुनिरुद्धनेत्रः // 2 // अर्थ-उपाश्रय में पहुंचते ही इन्हों ने गुरुराज को नमस्कार किया. गुरुदेव उस समय भवदुःख रूपी दावानल के आताप से तप्त मुमुक्षु शिष्यों को बोध प्रदान कर रहे थे. गुरु वर्य को देखते ही इनकी दोनों आखों में भक्ति के आंसु आ गये थे. // 2 // ઉપાશ્રયમાં પહોંચીને તેમણે ગુરૂ મહારાજ ને નમરકાર કર્યા. ગુરૂદેવ તે સમયે ભવદુઃખ રૂપી દાવાનળને તાપથી તપેલા મુમુક્ષુ શિષ્ય ગણને બોધ આપી રહ્યા હતા. ગુરૂમહારાજને જોઈને જ તેમની બેઉ આંખોમાં ભક્તિના આંસુ આવી ગયા. મારા स्वदोषशान्त्यै विहितात्मशान्ति गुरुं प्रणम्यात्महिताभिलाषी। दुर्वर्णविक्षोंदधियैव धात्र्यां पुनः पुनः घृष्टललाटपट्टः // 3 // अर्थ-आत्महित की कामना वाले उन हेमचन्द्रजी ने अपने दोषों की शान्ति के निमित्त जिन्हों ने आत्मशान्ति प्राप्त करली है ऐसे गुरु देव को तीन आवत पूर्वक बार २-तीन बार-भूमि पर पंचाङ्ग सहित माथा झुका २कर-उसे भूमि पर इस भावना से कि यदि मेरे भालपट्ट पर कोई द्वारा नीच गोत्र कर्म का आविर्भाव हो गया हो तो उसका क्षय करने के लिये इन्हें बारबार नमस्कार किया. // 3 // Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः આત્મહિતની ઈચ્છાવાળા એ હેમચંદ્રશેઠે પોતાના દેશની શાંતિ માટે જેમણે આત્મ શાંતિ પ્રાપ્ત કરી લીધી છે, એવા ગુરૂદેવને ત્રણ આવર્ત પૂર્વક વારંવાર (ત્રણવાર) પંચાંગ સહિત ભૂમિ પર મસ્તક નમાવી નમાવીને (ભૂમિ પર એ ભાવનાથી કે મારા ભાલ પ્રદેશમાં કેઈના દ્વારા નીચ ગોત્ર કર્મ આવી ગયું હોય તો તેને નાશ કરવા માટે) નમસ્કાર કર્યા. જેવા गुरोविशुद्धयैव परस्य शुद्धिः संजायते जीवगणस्य सम्यक् / एवं विचायैव तदन्तरङ्गे गतः स तस्या परिमार्गणाय // 4 // गुरु की स्वयं की शुद्धि से ही अन्य भक्त जनों की अच्छी तरह से शुद्धि होती है-यदि गुरुजनों में शुद्धि नहीं है तो उनके भक्तजनों में भी शुद्धि नहीं आसकती है-ऐसा विचार करके ही हेमचन्द्र सेठ मानों उनकी शुद्धि को दृढने के निमित्त गुरुदेव के अन्तरङ्ग में प्रविष्ट हो गये // 4 // ગુરૂની સ્વયં શુદ્ધિથી જ અન્ય ભક્તજનોની શુદ્ધિ સારી રીતે થઈ જાય છે. જે ગુરૂજનમાં શુદ્ધિ ન હોય તે તેમના ભક્તજનોમાં પણ શુદ્ધિ આવી શકતી નથી. એ વિચાર કરીને જ જાણે હેમચંદ્ર શેઠ તેમની શુદ્ધિની શોધ કરવા તેમના અંતઃકરણમાં પ્રવેશ્યા. 4 गुर्वकान्तौ प्रतिविम्बितात्मच्छलेन सोऽज्ञायि सदस्य वर्गः / हेमेत्यभिख्यां सफली विधातुं स्त्रीयां प्रविष्टः किमसौ कृशानौ // 5 // अर्थ-जब हेमचन्द्र का प्रतिबिम्ब गुरुदेव के शरीर की कान्ति में झलकता हुआ दिखाई दिया तो सदस्य वर्गों ने यही समझा कि हेमचन्द्र सेठ अपना 'हेम' इस नाम को सफल करने के लिये-उसे निर्दोष प्रमाणित करने के लिये-क्या अग्नि में तो प्रविष्ट नही हो गये हैं // 5 // | હેમચંદ્રશેડને પડછાય ગુરૂદેવના શરીરની કાન્તિમાં જળકતો દેખાયો જેથી સભ્યવર્ગને એમ જ લાગ્યું કે હેમચંદ્રશેઠ પિતાના “હેમ' એ નામને સફળ કરવા માટે અર્થાત તેને નિર્દોષ ઠરાવવા માટે શું અગ્નિમાં તે પ્રવેશ્યા નથી ને? પા रत्नत्रयेणैव वशंगता सा मुक्त्यङ्गना तां यदि वः प्रपित्सा। तदा तदाप्त्यै हृदि धारणीयमेतत्त्रयं भव्यजनैः सुवन्यम् // 6 // .. अर्थ-भव्य जवों को समझाते हुए गुरुदेव कह रहे थे कि हे भव्य जीवो! वह मुक्ति रूपी अंगना रत्नत्रय के धारण करने वाले के वशमें आजाती है-सो Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 लोकाशाह चरिते यदि उसे प्राप्त करने की आप लोगों की इच्छा हो तो उसकी प्राप्ति के लिये आप को हृदय में भन्यजनों से वन्दनीय रत्नत्रय को धारण करना चाहिये // 6 // ભવ્ય જીને સમજાવતાં ગુરૂદેવ કહી રહ્યા હતા કે હે ભવ્ય છે ! એ મુક્તિરૂપી શ્રી રત્નશ્યના ધારણ કરવાવાળાને વશ થઈ જાય છે. તો જો તેને મેળવવાની તમારી ઇચ્છા હોય તો તેને પ્રાપ્ત કરવા માટે આપે હૃદયમાં ભવ્ય જનોથી વંદનીય એ રત્નત્રયને ધારણ 721 // नसे. // 6 // इति ब्रुवाणं गुरुवर्यमार्य नुत्वा च नत्वा कुशलं पपृच्छ / भक्त्या द्रवीभूतमनाः स पश्चात् पश्चायथास्थानमसावतिष्ठत् / / 7 / / ___ अर्थ-इस प्रकार से समझाते हुए श्रेष्ठ गुरुदेव की स्तुति करके और नमस्कार करके हेमचन्द्र सेठ ने उनसे सुख शाता पूछी. पश्चात् भक्ति से पिघल गया है हृदय जिनका ऐसे वे हेमचन्द्र सेठ सबके पीछे यथास्थान वहां पर बैठ गये // 7 // ( આ પ્રમાણે ઉપદેશ આપતા ગુરૂદેવની સ્તુતિ અને નમસ્કાર કરીને હેમચંદ્રશેઠે તેમની સુખ શાતા પૂછી. તે પછી ભક્તિભાવથી પલ્લવિત થયું છે હૃદય જેનું એવા હેકચંદ્ર શેઠ સૌની પાછળ યોગ્ય સ્થાને ત્યાં જ બેસી ગયા. છા गुरोस्तदा नेत्रयुगं च तस्मिन् पपात युगपत् प्रविहाय शिष्यान्। यथा वसन्ते च पिकस्य दृष्टी रसालमभ्येति विमुच्य चान्यात् // 8 // अर्थ-जिस प्रकार वसन्त के समय में अन्य वृक्षों को छोडकर पिक-कोयल की दृष्टि केवल रसाल-आम्रवृक्ष पर पडती है-उसी प्रकार उन मुनिराज की दृष्टि भी अन्य शिष्यों को छोडकर एक साथ हैमचन्द्र के ऊपर पडी // 8 // જેમ વસંતના સમયે બીજા વૃક્ષોને છોડીને કેયલની નજર કેવળ આંબાના વૃક્ષ પર જ પડે છે એજ પ્રમાણે એ મુનિરાજની દષ્ટિ પણ બીજા શિષ્યને છોડીને એકી સાથે હેમચંદ્ર શેઠ પર પડી. 8 मिलिन्दवृन्दैः परिचुम्बितारविन्दं किमेतत्परिशङ्कमानैः। तदा समास्थैरवलोक्यमानः शुश्राव हेमो गुरुदेववाणीम् // 9 // अर्थ-जैसे ही गुरुदेव की दृष्टि हेमचन्द्र सेठ के ऊपर पडी तैसे ही लोगों ने ऐसी आशंका की कि क्या यह अलिगणों से चुम्बित अरविन्द तो नहीं है ? इसी तरह सदस्यों द्वारा वितर्कित हुए हेमचन्द्र सेठ ने गुरुदेव की वाणी सुनी-॥९॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः જયારે ગુરૂદેવની નજર હેમચંદ્ર શેઠ પર પડી ત્યારે તેઓએ એવું વિચાર્યું કે શું આ ભ્રમરાણથી ચમ્બિત કમળતો નથી? આ રીતે સદો દ્વારા તર્ક કરાતા હેમચંદ્ર શેઠે ગુરૂદેવની વાણી સાંભળી. (aa. प्रवाहरूपेण विनिर्गतां तां सदस्यवगैरभिनन्यमानाम् / विभाव्य कल्याणकरीमधारि हैमेन चित्ते भ्रमवारिणी सा // 10 // अर्थ-धाराप्रवाह रूप से गुरुदेव के मुखारविन्द से निर्गत उस वाणी को जो कि सदस्यों द्वारा "तहत्ति तहत्ति" इस प्रकार के उच्चारणों से अभिनंदित की जा रही थी अपना कल्याण करने वाली जानकर हृदय में धारण कर ली. क्यों कि वह भ्रमरोग को भगा ने वाली थी // 10 // ધારા પ્રવાહથી ગુરૂદેવના મુખારવિંદથી નીકળેલ એ વાણીને કે જે સદર દ્વારા तहत्ति तहत्ति / मा१॥ 2 // प्याराथी अभिनहित राती ती तेने पातानु ४८याए કરનારી સમજીને હૃદયમાં ધારણ કરી. કેમ કે તે ભાગને ભગાડનારી હતી. 1 व्याख्यानकाले मुनिनाऽथ तेन याऽभाणि वाणी च भणामि किञ्चित् / भो भव्य भावान्वित भव्यवृन्दा ! मयोपदिष्टां श्रृणुतावधानात् // 11 // .. अर्थ-व्याख्यान के उस अवसर में गुरु देवने जो कुछ कहा उसे मैं हे भव्य. भावों से युक्त भव्य जीवों ! कहता हूं उसे सावधान चित्त होकर तुम सुनो !- // 11 // વ્યાખ્યાનના એ સમયે ગુરૂદેવે જે કાંઈ કહ્યું કે હે ભવ્ય ભાવવાળા ભવ્ય છે ! હું કહું છું તે સાવધાન ચિત્તે સાંભળે. 11 निगोद राशे व्यवहारराशी निमित्तमासाद्य समागतेन / यथाकथंचिन्नरजन्मलब्धं व्यथाकथा नास्य तथापि नष्टाः // 12 // अर्थ-यह जीव निगोदराशि से किसी काल लब्ध्यादि निमित्त को प्राप्त कर व्यवहार राशि में आया और बडी कठिनता से इसे यह नरजन्म मिला, फिर भी इसकी व्यथा की कथा समाप्त नहीं हो सकी है // 12 // આ નિગોદ રાશીથી કોઈ સમયે લચ્છાદિ નિમિત્તને પ્રાપ્ત કરીને વ્યવહાર રાશિમાં આવ્યા. અને ઘણી જ કઠણથી તેને આ મનુષ્ય જન્મ મળે તો પણ તેની વ્યથાની કથા પૂરી થઈ શકી નથી. ૧ર Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 लोकाशाहचरिते विवार्यतां कारणमत्र किंवा यदस्य संसारख्यथाऽवशिष्टा। संसारभावोऽप्यविनष्ट एव मनुष्यपर्यायमुपागतस्य // 13 // अर्थ-इस पर विचार करो कि इसमें कारण क्या है ? क्योंकि अभीतक इसकी संसाररूपी व्यथा वाकी है, क्यों नहीं मनुष्य पर्याय पाकर के भी इसका संसार भाव नष्ट हो पाया है // 13 // આના પર વિચાર કરો કે આમાં કારણ શું છે? કેમ કે–તેની સંસારરૂપી પીડા બાકી છે તેણે મનુષ્યભવ મેળવ્યા છતાં પણ તેને સંસારભાવ કેમ નાશ નથી પામે ? 13 केनापराधेन जडीकृतोऽसौ जीवोऽप्रशस्तास्रवकारणं किम्। मुहर्मुहुर्वा प्रतिबोधितोऽपि कथं न सन्मार्गरति दधाति // 14 // अर्थ-ऐसा कौनसा इस जीवने अपराध किया है कि जिससे वह जड जैसा हो गया है ? अप्रशस्त आस्रव का कारण क्या है ? क्यों नहीं यह बार बार समझाया जाने पर भी सन्मार्ग पर चलने में प्रीति करता है // 14 // આ જીવે એ કો અપરાધ કરેલ છે કે જેથી તે જડ જે થઈ ગયેલ છે? અપ્રશરત આસવનું કારણ શું છે? તેને વારંવાર સમજાવવા છતાં પણ સન્માર્ગે ચાલવામાં પ્રીતિ કેમ કરતા નથી? 14 संयोजिनो ये परिणामभाजो भावा ध्रुवा तेन, विनश्वरत्वात् / तथापि तान् स्वान् परिकल्प्य जीवस्तद्वानसौ हर्षविषादमेति // 15 // अर्थ-पूर्व में किये गये प्रश्नों का उत्तर यहां से प्रारम्भ करते हुए गुरुदेव कहते हैं कि संयोगी जितने भी पदार्थ हैं, वे सब परिणमनशील हैं सदा एक सी स्थिति में रहनेवाले नहीं हैं, विनश्वर हैं, क्षण २में उनका पर्याय की अपेक्षा विनाश होता रहता है, फिर भी जीव-संसारी प्राणी-उनकी उस परिणति को अपनी मानकर उसमें हर्ष और विषाद किया करता है // 15 // આ પૂજા કરવામાં આવેલ પ્રશ્નોને ઉત્તર આપતા ગુરૂદેવ કહે છે–સંગી જેટલા પદાર્થો છે, તે બધા પરિણમન સ્વભાવવાળા છે. કાયમ એક જ સ્થિતિમાં રહેવાવાળા હતા. નથી. વિનશ્વર છે. અર્થાત ક્ષણે ક્ષણે પર્યાયની અપેક્ષાથી તેને વિનાશ થતો રહે છે. તો પણ જીવ તેની એ પરિણતીને પોતાની માનીને તેમાં હર્ષ અને ખેદ કર્યા કરે છે. 15 - मोहेन वृत्तिर्भवतीगस्य जीवस्य तौ द्रावपि न स्वभावौ। .. विभावभावौ भवदुःखहेतू संसारसंवर्धकतायतोऽत्र // 16 // Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः 127 - अर्थ-जीव में इस प्रकार की-हर्ष विषाद करनेकी जो वृत्ति होती है, वह मोह कर्म के उदय से होती है ये दोनों ही हर्ष विषाद रूप राग द्वेष ही जीव के स्वभाव नहीं हैं. विभाव भाव हैं तथा ये भवदुःख के हेतु हैं, क्योंकि उनके करने से जीव का संसार वढता है, अर्थात् राग और द्वेष ये दोनों संसार के ही संवर्धक हैं // 16 // જીવમાં આ પ્રકારનો અર્થાત હર્ષ શેક કરવાને જે સ્વભાવ છે તે મેહ કર્મના ઉદયથી થાય છે. આ હર્ષ શેક અને રાગ દ્વેષ જ જીવને સ્વભાવ નથી. વિભાવ ભાવ છે. તથા એ ભવદુઃખના કારણ રૂપ છે. કેમ કે તેના કરવાથી જીવને સંસાર વધે છે. અર્થાત આ રાગ દ્વેષ બન્ને સંસારને વધારનારા છે, 16 एकत्ररागं ह्यपरत्र कुर्वन् द्वेष भवं नाल्पमसौ करोति। मनुष्यपर्यायमुपागतस्य लाभो न कोप्यस्य बभूव तस्मात् // 17 // अर्थ-यह जीव अपने को इष्ट हुए पदार्थ में राग ओर अनिष्ट हुए पदार्थ में द्वेष करता है, इस तरह की प्रवृत्ति करता हुआ यह प्राणी अने भव कोजन्म-मरणरूप संसार, को-अल्प नहीं कर पाता है, उसे घटा सकता नहींपरिमित नहीं कर सकता है, अतः मनुष्य पर्याय पाकर के भी यह उससे कुछ भी लाभ नहीं उठाता है प्रत्युत-अपने संसार को बढाता है / तो फिर उसकी प्राप्ति से इस बिचारे को क्या लाभ मिला // 17 // આ જીવ પોતાને ઈષ્ટ પદાર્થોમાં રાગ અને અણગમતા પદાર્થોમાં દ્વેષ કરતો રહે છે. આ પ્રમાણેની પ્રવૃત્તિ કરતો આ પ્રાણી પિતાના જન્મ મરણ રૂપ સંસારને ઘટાડી શકતે નથી તેમજ મનુષ્ય જન્મ પામીને પણ તે એનાથી કંઇ પણ લાભ ઉઠાવી શકો નથી. પરંતુ પિતાના સંસારને જ વધારે છે. તે પછી તેની પ્રાપ્તિથી તે બિચારાને શું લાભ મળે? ૧૭ળા अनादिकालाच्च सहागतेन मोहारिणाऽसौ खलु वंचकेन / प्रवंचितः स्त्रीसुतजालमालां प्रसार्य बद्धः परिभुह्य जीवः // 18 // अर्थ-अनादि काल से साथ में लगे हुए इस ठगिया मोह ने पहिले तो इस प्राणी को खूब ठगा. पश्चात् स्त्री, पुत्र, पुत्री रूपी जालमाला को पसार कर ओर उससे लुभाकर इसे बांध लिया है // 18 // અનાદિ કાળથી સાથે લાગેલા આ ઠગારા મોહે પહેલાં તો એ પ્રાણીને ખૂબ ઠગે પછીથી સ્ત્રી પુત્રી પુત્રરૂપી જાળ માળા ફેલાવીને અને તેનાથી ભાવીને તેને બાંધી લે છે. 18 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 लोकाशाहचरिते मोहेन गुग्धः सुतमित्र भार्यादिकं स्थिरं पश्यति सत्यमेतत् / मद्येन संमूछितचित्तवृत्तिर्जनोऽन्यथाभावमुपैति नूनम् // 19 // ___ अर्थ-मोह से मुग्ध हुआ यह प्राणी सुतमित्र भार्यादिक को स्थिर मानता है सो यह बात सत्य है इसमें थोड़ी सी भी झूठ नहीं है, क्योंकि हम देखते हैं कि जिसकी चित्तवृत्ति मद्य सेवन से मोहित हो जाती है वह अन्यथा भाववाला बन जाता है // 19 // મેહથી મોહિત થયેલ એ પ્રાણી પુત્ર, મિત્ર અને ભાર્યાદિને થિર માને છે આ વાત સત્ય છે, તેમાં થોડું પણ અસત્ય નથી, કેમકે--જોવામાં આવે છે કે જેની ચિત્તવૃત્તિ મદિરાનું પાન કરવાથી મોહિત થઈ જાય છે તે અન્ય પ્રકારના ભાવવાળ બની જાય छ. // 18 // क्षणे क्षणे सर्वपदार्थसार्थाः कान्त्या समालिगिनचारुरूपाः। ध्रुवस्वरूपोऽत्र यतो न कश्चिन्मोहीजनोऽवैति न तथ्यमेतत् // 20 // अर्थ-प्रत्येक क्षण में समस्त पदार्थ परिवर्तन से आलिङ्गित है सुंदररूप जिनका ऐसे हैं. कोई भी पदार्थ सदा एकरूप में स्थायी नहीं है. परन्तु मोही जीव इस तथ्य को नहीं जानता है // 20 // ક્ષણે ક્ષણે સઘળા પદાર્થો પરિવર્તનથી આલિંગિત છે, રૂપ જેનું એવા છે. કોઈ પણ પદાર્થ સદા એકરૂપે સ્થાયિ નથી પરંતુ મોહ પામેલ જીવ આ સત્યને જાણતો નથી પર पर्याय दृष्ट्या न विलोक्यतेत्र नित्यस्वरूपं च कदापि कस्य / सत्त्वं च तत्रैव समस्ति यत्र भवत्यनैकान्तिकता सुबद्धा // 21 // अर्थ-पर्याय दृष्टि से किसी भी पदार्थ का किसी भी कालमें एकान्तरूप से नित्यत्वरूप नहीं प्रतीत होता है। यदि ऐसा न माना जावे और पदार्थ को एकान्तरूप से स्थिर स्थायी ही माना जावे तो उसमें सत्त्व ही नहीं बन सकता है. क्यों कि सत्व-अर्थक्रिया कारित्व-वहीं पर होता है जो कथंचित् अनित्य है. इस तरह नित्य की अनैकान्तिकता अनित्य के साथ और अनित्य की अनैकान्तिकता नित्य के साथ सुबद्ध होने पर ही उनमें सत्त्वरूप अर्थक्रियाकारित्व बनता है. // 21 // પર્યાય દષ્ટિથી કે ઈપણ કાળે કેઇપણ પદાર્થનું એકાન્ત પણાથી નિત્ય થતું નથી જે એમ માનવામાં ન આવે અને પદાર્થને એકાન્તરૂપથી સ્થાયી જ માનવામાં આવે તે તેમાં સત્વ જ બની શકતું નથી, કેમ કે-સત્વ-અર્થ ક્રિયા કારિત્વ ત્યાંજ થઈ શકે કે જે Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः 129 કચિત અનિત્ય હોય આ પ્રમાણે નિત્યનું અનેકાન્તિપણું અનિત્યની સાથે અને અનિત્યનું અર્નિકાન્તિકપણું નિત્યની સાથે સુબદ્ધ હોય તે જ તેમાં સત્યરૂપ અર્થ ક્રિયાકારિ પણ બને છે. ર૧ एकान्तपक्षेन समस्ति सत्त्वं कुत्राप्यभावा द्विविधक्रियायाः। खपुष्यतुल्यं तदभावतःस्याज्जीवादितत्त्वं कथमस्य सिद्धिः // 22 // अर्थ-किसी के भी एकान्त पक्षमें विविध अर्थक्रिया के अभाव हो जाने के कारण कहीं पर भी सत्त्व सिद्ध नहीं होता है. सत्त्व के अभाव में प्रत्येक जीवादि तत्त्व खपुष्प तुल्य हो जाता है. अतः उसकी सिद्धि फिर कैसे हो सकती है. अर्थात् नहीं हो सकती है // 22 // એકાન્ત પક્ષમાં વિવિધ અર્થ ક્રિયાને અભાવ થવાના કારણે કયાંય પણ સત્વ સિદ્ધ થતું નથી સત્યના અભાવમાં દરેક જીવાદિ તત્ત્વ આકાશ કુસુમની જેમ થઈ જાય છે, તે પછી તેની સિદ્ધિ કેવી રીતે થઈ શકે ? અર્થાત્ થઈ શકતી નથી. રરા जीवो ह्ययं मोहवशंगतः सन्न नित्यभावानपि नित्यरूपान् / मत्वैव तेषां खलु हानिgrौ सत्यां च नात्मनि मन्यते हा ! // 23 // ' अर्थ-मोह के वशीभूत हुआ यह जीव अनित्यभावों को भी नित्यरूप मानता है और मान कर उनकी हानि वृद्धि को अपनी निजकी हानि वृद्धि मानता है // 23 // મહને વશ થયેલ આ જીવ અનિત્ય ભાવેને પણ નિત્યપણાથી માને છે, અને એમ માનીને તેની હાનિ વૃદ્ધિને પિતાની જ હાની વૃદ્ધિ માને છે. કેરડા नैकान्तरूपेण च नित्यताऽस्ति भावेषु कुत्रापि कदापि केषु / स्वकल्पनाशिपिविनिर्मिता सा मता ह्यविज्ञै नव माननीया // 24 // अर्थ-किसी भी काल में किसी भी पदार्थ में एकान्तरूप से नित्यता नहीं है. जो एकान्तरूप से ऐसा मानते हैं वे विज्ञ नहीं हैं क्यों कि वह मान्यता उनकी अपनी कल्पनारूपी शिल्ली से ही विनिर्मित हुई मानी गई है. यक्ति सिद्ध नहीं // 24 // | કઈ પણ કાળે કોઈ પણ પદાર્થમાં એકાન્તરૂપથી નિત્યપણું હોતું નથી. જે એકાન્ત રૂપથી એવું માને છે, તે વિજ્ઞ હેતા નથી. કેમ કે એ તેની માન્યતા પિતાની કલ્પનારૂપી શિલ્પીથી જ રચાયેલ માનવામાં આવે છે તે યુતિસિદ્ધ નથી. રજા Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 लोकाशाहपरिते अनित्यतालिङ्गितवस्तुजात मप्रच्युतं स्थायि न किञ्चिदस्ति / . तथापि संमील्य विलोचनानि मोही स्थिरं नित्यमवैति तत्तत् // 25 // अर्थ-जितने भी पदार्थ संसार में हैं-वे सब अनित्यता से आलिङ्गितरूप वाले हैं. अप्रच्युत स्थायिरूप नित्य कोई भी पदार्थ नहीं है. फिर भी मोही जीव अपने ज्ञान चक्षुओं को मींच कर किलनेक पदार्थों को एकान्ततः नित्य और कितनेक पदार्थों को एकान्ततः अनित्य मानता है. यह मोह की ही लीला है // 25 // સંસારમાં જેટલા પદાર્થો છે તે બધા અનિત્ય પણાથી વળગેલા રૂપવાળા છે. અવિનાશી શારિરૂપથી નિત્ય કોઈ પણ પદાર્થ નથી. તો પણ મોહ પામેલ જીવ પિતાના જ્ઞાન ચક્ષઓને બંધ કરીને કેટલાક પદાર્થોને એકાન્તતઃ નિત્ય અને કેટલાક પદાર્થોને એકાન્તતઃ અનિત્ય માને છે એ મોહની જ લીલા છે પાર પા यथा ग्रहावेशवशंगतो ना इतस्ततो धावति रोदितीह / तथा विमोहेन वशीकृतोऽसौ जीवश्चतुर्योनिषु बाभ्रमीति // 26 // अर्थ-जिस प्रकार भूत प्रेत आदि ग्रह के वशीभूत हुआ मनुष्य इधर उधर चक्कर काटता है. रोता है उसी प्रकार मोह से ग्रस्त हुआ यह प्राणी चारों गतियों में चक्कर काटता रहता है // 26 // જેમ ભૂત પ્રેત વિગેરેને વશ થયેલ મનુષ્ય આમ તેમ રખડે છે, રડે છે એજ પ્રમાણે માહથી રાસાયેલ આ પ્રાણી ચારે ગતિઓમાં ફરતો ફરે છે. શારદા सम्पूर्णमेतद्भरताभिधानं क्षेत्रं विजित्याग्कुिलं विनिन्युः / प्रतापतापेन गताः क्वतेऽद्य मानोन्नतास्ते भरतेश्वराद्याः // 27 // अर्थ-इस छह खण्डरूप सम्पूर्ण भरतक्षेत्र को विजित करके जिन्होंने शत्रुकुल को अपने प्रबल प्रताप से झुकाकर वश में कर लिया था ऐसे वे गौरवशाली ब्रह्मदत्त आदि चक्रवर्ती आज कहां गये // 27 // આ છ ખંડ રૂપ સમગ્ર ભરતખંડને જીતીને જેણે પોતાના પ્રબળ પ્રતાપથી શત્રુ સમૂહને નમાવીને પિતાને વશ કર્યા છે. એવા ગૌરવશાળી એ બ્રહ્મદત્ત વિગેરે ચક્રવર્તિ આજે ક્યાં છે ? રબા चक्राधिपैनिशं सुखस्थै दिनस्य रात्रेरपि संविभागः। . नाज्ञायि तेप्यायुषो हावसाने गताः क्व कालेन विचूर्णितास्याः // 28 // Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः अर्थ-निरन्तर सुख में मग्न ऐसे चक्रवर्ती भी कि जिन्हें दिन और रात्रितक का विभाग भी प्रतीत नहीं हुआ और जो चक्ररत्न के एक अधिपति थे अपनी आयु के अन्त में काल के द्वारा विचूर्णितास्य होकर कहां चले गये ? // 28 // - હંમેશાં સુખમાં ડૂબેલા એવા ચક્રવતી પણ કે જેને દિવસ અને રાત્રીના વિભાગને પણ ખ્યાલ ન રહ્યો અને જે એકલા જ ચક્રરત્નના અધિપતિ હતા તે પણ પિતાના આયુધ્યના અંત સમયે કાળ દ્વારા ચૂરાયમાન મુખવાળા થઈને ક્યાં ચાલ્યા ગયા ? ર૮ द्विषत्कुलागारनिभा भ्रुवोश्च विकारतस्तर्जितवीरधीराः। यमेन ते चूर्णित मानश्रृंगा गताः क्व नामापि न वेत्ति कोऽपि // 29 // अर्थ-जो शत्रुओं के लिये अङ्गार के तुल्य थे और जिनकी भ्रुकुटि के विकार से अच्छे 2 वीर धीर पुरुष कंपाय मान हो जाते थे ऐसे वे पुरुष यम के द्वारा चूगिन मान श्रृंग बन कर कहां चले गये-नर्क में चले गये, आज उनका कोई नाम तक भी नहीं जानता है. // 29 // જેઓ શત્રુઓને અંગારા જેવા હતા અને જેની ભમરોના વિકારથી સારા સારા ધીર વીર પુરૂ કંપાયમાન થતા હતા એવા એ પુરૂષ યમના દ્વારા ચૂણિત (ખંડિત) માન વાળા બનીને કયાં ચાલ્યા ગયા ? ઓકે તેમનું નામ શુદ્ધાં કઈ જાણતું નથી. ર૯ येषां समज्ञाशमनन्तरम्यं प्रश्रुत्य देवा अपि मोदिनः स्युः / अखर्वगर्वोन्नतमस्तकास्ते कालेन नीताः का वयं न विद्मः // 30 // ___अर्थ-अनन्त-आकाश के जैसी निर्मल जिनकी कीर्ति को सुनकर देव तक भी हर्षित होते रहे, और अखर्व गर्व से जिनका मस्तक सदा ऊँचा रहा वे काल से हरे जाकर कहां गये हम नहीं जानते हैं // 30 // આકાશના જેવી અંત વિનાની અને નિર્મળ જેની કીર્તિને સાંભળીને દેવો પણ હર્ષ પામતા હતા અમાપ ગર્વથી જેનું મસ્તક સદા ઉંચુ રહેતું તે કાળથી હારીને કયાં ગયા ? તે જણાતું નથી. 30 माता पिता मित्रसुतात्मजाश्च भ्राता स्वपत्नी सहवासिनस्ते / गता का कालेन विनिर्दयेन हताश्चिरस्थायी न कोऽपि सन्ति // 31 // अर्थ-माता, पिता, मित्र, सुना, पुत्र, भाई, घरवाली ये और जिनके साथ हम उठे, बैठे, रहे वे सब निर्दय काल से हन होकर-कवलित होकर-कहाँ चले गये. कोई पता नहीं. तो सोचो फिर यहां चिरस्थायी कौन है ? कोई नहीं Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132 लोकाशाहचरिते भाता, पिता, सुता, पुत्र, मा, पत्नी, तथा भनी साथै अमे ४ता सता में બધા નિર્દય કાળથી હરાઈને કયાં ગયા ? તેને પત્ત જ નથી તે વિચારો કે અહીં ચિર સ્થાયી કોણ છે? અર્થાત કોઈ પણ ચિરસ્થાયિ નથી જ. 31 सत्रा वयं पांसुरता अभूम यैस्ते ममाग्रे ननु पश्यतो हा ! / गता यमदारमितो विमुच्य रमांच भामां सस्नुषां सवित्रीम् // 32 // अर्थ-हम जिनके साथ धूलि में खेले वे मेरे समक्ष देखते 2 रमा को भामा को पुत्रवधू को एवं अपनी माता को छोडकर यमद्वार में पहुंच चुके हैं ? // 32 // હું જેની સાથે બાળક્રીડા કરતો હતો તેને મારી સામે લક્ષ્મીને, સ્ત્રીને પુત્ર કે પુત્રવધૂને તેમજ પોતાની માતાને છોડીને યમલોકમાં પહોંચી ગયા છે. ૩રા . कालेन ग्रस्ता निखिला सचिता पदार्थमाला वयसोऽन्वितत्वात् / वयस्त्वहीनो न विनाशमान् स यथा प्रसिद्धः खलु सिद्ध आत्मा // 33 // अर्थ-जितने भी सचित्त-सजीव-पदार्थ हैं वे सब आयु कर्म से युक्त होने के कारण यमराज के गाल के ग्रास बने हुए हैं, जो इस आयु कम से रहित हो चुके हैं. वे ऐसे नहीं हैं-जैसे कि प्रसिद्ध सिद्ध भगवान् // 33 // જેટલા સચિત્ત-સજીવ પદાર્થો છે, તે બધા આયુકર્મથી યુક્ત હેવાના કારણે ચમરાજના ગાલના કાળીયારૂપ બનેલ છે. જે આ આયુકમથી રહિત બની ગયા છે તેઓ એવા હોતા નથી જેમકે–પ્રસિદ્ધ, સિદ્ધ ભગવાન. ૩યા अत्रैव भूता बहवो धनाढ्याः येषां विभूत्या चकितो कुबेरः / कालेन ते ध्वस्तमदा बभूवुः गता क्व ते केचन वेत्ति कोऽपि // 34 // अर्थ-यहां ऐसे 2 धनिक हो गये हैं कि जिनकी विभूति को देखकर कुबेर भी चकित हो गया था. देखो वे भी यहां नहीं रहे. कालने आकर उनके मद को चकनाचूर कर दिया. अब वे कहां गये और वे कौन थे. आज इस बात को भी जानने वाला यहां कोई नहीं है // 34 // અહીં એવા એવા ધનવાન થઈ ગયા છે કે જેમની સમૃદ્ધિને જોઈને કુબેર પણ ચકિત્ત ચિત્ત થઈ જાય. છતાં પણ જુઓ તેઓ પણ અહીં રહ્યા નથી. કાળે આવીને તેમના મદના ચૂરેચૂરા કરી નાખ્યા છે. અત્યારે તેઓ ક્યાં ગયા છે અને તેઓ કોણ હતા એ વાતને જાણનાર પણ આજે અહીં કોઈ નથી. 34 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः अत्रैव ते मानधना बभूवुः प्राणानुपेक्ष्यैव च ये ररक्षुः / कीर्ति स्वकीयां न च तेऽवशिष्टा कालेन नीताः क्व गता न विद्मः // 35 // अर्थ-जिन्होंने अपनी कीर्ति की रक्षा के निमित्त अपने प्राणों तक की भी बाजी लगादी ऐसे मानधनवाले मानी-स्वाभिमानी-पुरुष यहीं पर हुए हैं. पर काल ने उन्हें भी नहीं छोड़ा और वह उन्हें ऐसी जगह ले गया कि जिनके पते ठिकाने का हमें कोई पता नहीं है. // 35 // જેણે પિતાની ખ્યાતિનું રક્ષણ કરવા પિતાના પ્રાણ સુદ્ધાંતની પણ બાજી લગાવી દીધી એવા માનરૂપી ધનવાળા સ્વાભિમાની પુરૂષો અહીંયાજ થયા છે. પરંતુ કરાળ કાળે તેમને પણ છોડયા નથી અને તેમને એવી જગ્યાએ લઈ ગયા કે—જેના ઠેકાણું પત્તાની પણ અમને કાંઈ જ ખબર નથી. l૩પ दुर्योधनाद्या अपकीर्तिपुञ्जा जाता सदाचारविहीनचित्ताः। भ्रातृव्यदायादविभागवित्तापहारयुक्ती कुशला गताः क्व // 36 // अर्थ-वे दुष्ट दुर्योधनादिक भी जो अकीर्ति के पुञ्ज थे सदाचार से विहीन चित वाले थे और अपने चाचा के लड़कों के हिस्से के द्रव्य के अपहरण करने की युक्ति में कुशल थे यहां नहीं रहे, काल के महमान बनकर वे भी यहां से चले गये // 36 // અપકીર્તિના પુંજ જેવા એ દુષ્ટ દુર્યોધનાદિકે જેઓ સદાચારથી રહિત ચિત્તવાળા હતા અને પોતાના કાકાના પુત્રોના ભાગની મિક્ત ઓળવવાની યુક્તિમાં કુશળ હતા તેઓ પણ અહીં રહ્યા નથી. પરંતુ કાળના અતિથી બનીને અહીંથી જતા રહ્યા છે. 36 ये केऽपि जाता जगतीह जीवा यमालयद्वारमुपस्थितास्ते / अनागता येऽपि च वर्तमानाः सर्वेऽपि ते सन्ति विनाशशीलाः // 37 // , अर्थ-इस संसार में जितने जीव पहिले हो गये हैं, आगे होनेवाले हैं वर्तमान में जो मौजूद हैं वे सब यम के मकान के द्वार पर उपस्थित हैं, और विनाश नियत हैं ध्रुव स्थिर-स्थायी कोई भी पर्याय धारी जीव नहीं है // 37 // આ જગતમાં જેટલા જીવ પહેલાં થઈ ગયા છે. આગળ થનારા છે, વર્તમાનમાં જેઓ વિદ્યમાન છે. તે બધા યમના મકાનના દ્વાર પર ઉપસ્થિત છે, અને વિનાશ નિશ્ચિત છે. પ્રવ, સ્થિર, રથાયિ પર્યાયવારી કઈ પણ જીવ હોતા નથી. વળી Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते इत्थं विमोहं परिहत्य भव्यैः पर्याय दृष्ट्या च विभावनीयम्। / विनाश बद्धत्वममीषु भावेषु सत्यपाये समता विधेया // 38 // इस प्रकार पर्याय दृष्टि का आश्रय करके भव्य जीवों को प्रत्येक पदार्थ में विनाश बद्रत्व का विचार करना चाहिये इससे उन पर जो जीव की आसक्ति है वह धीरे 2 कम हो जाती है, और उनके विनाश हो जाने पर समता धारण करने की शिक्षा मिलती है // 38 // આ પ્રમાણે પર્યાય દષ્ટિનો વિચાર કરીને ભવ્ય જીવોએ દરેક પદાર્થમાં વિનાશિત પણાને વિચાર કરવો જોઈએ, તેનાથી તેના પર જીવની જે આસક્તિ છે, તે ધીરે ધીરે ઓછી થતી જાય છે. અને તેને વિનાશ થવાથી સમતા ધારણ કરવાની શિક્ષા મળે છે. 38 ॥अनित्य भावना वर्णन समाप्त // अशरण भावना वर्णनम्अरण्यमध्ये पतितस्य सिंहाक्रान्तस्य सारङ्ग सुतस्य कोऽपि / त्राता यथा नास्ति तथा यमाकागतस्य न कोऽष्यभयप्रदाता // 39 // अर्थ-जिस प्रकार जंगल में सिंह के द्वारा पकड़े गये हिरण के बच्चे का रक्षक कोई नहीं होता है उसी प्रकार यम की गोदी में आये हुए इस जीव का कोई भी अभयदाता-रक्षक-नहीं हो सकता है // 39 // જેમ જંગલમાં સિંહે પકડેલા હરણના બચ્ચાનું રક્ષણ કરનાર કઈ હોતું નથી એજ પ્રમાણે યમના ખોળામાં આવેલા આ જીવનું રક્ષણ કરનાર કોઈ પણ નથી. 39 विलेपनाद्यैः बहुभिः प्रयोगैः शृंगारितं यद्वहुशोऽशनाद्यैः / पुष्टीकृतं गात्रमपीह हा हा ! तदा न जीवं शरणं ददाति // 40 // __ अर्थ-जिस शरीर को विलेपनादिक अनेक प्रकार के प्रयोगों से सजाया और अनेक बार भोजन देकर जिसे पुष्ट किया दुःख है कि ऐसा वह शरीर भी अन्त समय में इस जीव को शरण नहीं देता है // 40 // - જે શરીરને વિલેપન, મર્દનાદિ અનેક પ્રકારના ઉપાયોથી સજાવ્યું અને અનેકવાર ખાન, પાન આપીને પિષ્ય દુઃખની વાત છે કે એવું આ શરીર પણ અન્ત સમયમાં આ જીવને શરણ આપતું નથી. 40 शरीरपुर्या च यदा यमोऽयं शनैः शनैरागमनोन्मुखः स्यात् / तदा प्रभृत्येव शरीरमेतत्स्वरक्षणे सादरभाववत्स्यात् // 41 // Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः अर्थ-इस शरीररूपी नगरी में जब यह यम धीरे २आने की तैयारी करने लगता है तभी से लेकर यह शरीर अपने संरक्षण में आदरयुक्त भाववाला हो जाता है // 41 // આ શરીર રૂપી નગરીમાં જ્યારે તે યમ ધીમે ર આવવાની તૈયારી કરવા લાગે છે, ત્યારથી જ આ શરીર પોતાના સંરક્ષણમાં આદરયુક્ત ભાવવાળે બને છે. 41 जीवः कदाचिद् यदि वाच्छतीह कुर्यामहं धार्मिककृत्यमेतत् / तदा तदालस्यवशं गतं सत् तद्भावनां लुम्पति गात्रमेतत् // 42 // अर्थ-जीव जब कभी व्रतादिक रूप धार्मिक कार्य करने की इच्छा करता है तब यह शरीर उसके करने में आलस्य के वश होकर उसकी भावना को चौपट कर देता है // 42 // જીવ કેઈ સમયે ત્રતાદિ ધાર્મિક કાર્ય કરવાની ઈચ્છા કરે છે ત્યારે આ શરીર તે કરવામાં આળસને વશ થઇને તેની એ ભાવનાને નિર્મૂળ કરે છે. જરા व्रतादिकस्याचरणेन शुद्धिर्भवत्यनूनेति जिनागमस्य / श्रुत्वोपदेशं यदि कोऽपि भव्यः जीवो विधातुं च समुत्सुकः स्यात् // 43 // व्रतादिकों के करने से नियम से आत्मा की शुद्धि होती है ऐसा जिनागम का उपदेश है सो कोई भव्य जीव जब इस उपदेश को सुनता है और उस ओर अपनी प्रवृत्ति करता है :43 // ત્રતાદિ ધર્માચરણ કરવાથી અવશ્ય આત્માની શુદ્ધિ થાય છે. એ પ્રમાણે જીનાગમને ઉપદેશ છે. તે કઈ ભવ્ય જીવ જયારે આ ઉપદેશને સાંભળે છે અને તે તરફ પિતાની પ્રવૃત્તિ કરે છે. આવા कायस्तदाऽयं स्वसुखाभिलाषी बतादिकस्याचरणेन कष्टम् / मत्वाऽऽत्मनस्तत्करणे विरुद्धां स्वसम्मतिं नित्यमसौ ददाति // 44 // अर्थ-तब यह शरीर अपने सुख का अभिलाषी बनकर जीव को ऐसी सलाह देता है कि व्रतादि कों के आचरण करने से तुझे कष्ट होगा. क्यों कि शरीर को व्रतादिकों के करने में कष्ट होता है ऐसा स्वयं मानता है. इसीलिये वह आत्मा को उन्हें नहीं करने की खोटी सलाह-सम्मति देता है // 44 // ત્યારે આ શરીર પોતાના સુખનું ઈચ્છુક થઈ ને જીવને એવી સલાહ આપે છે કે–ત્રતાદિકનું પાલન કરવાથી તને કષ્ટ પડશે કેમ કે શરીરની વ્રતાદિનું પાલન કરવાથી કષ્ટ થાય છે એમ પોતે માને છે. તેથી જ આત્માને તે ન કરવાની ખોટી સલાહ આપે છે. ઇજા Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136 लोकाशाहचरिते स्वस्यावलम्बाद् यदि स कदाचित् किञ्चिच्च सत्कृत्यमसौ विदध्यात् / . तदाप्ययं तत्करणे ह्यनेकान् करोति विघ्नान ननु वारणाय // 45 // अर्थ-यदि शरीर की उपेक्षा करके केवल अपना ही सहारा लेकर जीव किसी समय थोड़े बहुत व्रतादिक करने लग जावे तो फिर देखो-यह शरीर उनके करने में जीव को कैसे 2 विघ्नों को उपस्थित करता है // 45 // જો શરીરની પરવા કર્યા વિના કેવળ પિતાનું જ અવલમ્બન કરીને જીવ કેઈસમયે થોડા ઘણું વ્રતાચરણ કરવા લાગી જાય તે પછી જોઈ લે કે આ શરીર તે કરવામાં જીવને કેવા કેવા વિડ્યો કરે છે. ૪પા कासं कदाचिच करोति छाई श्वासावरोधं बहुवातरोगम् / इत्याद्यनेकांश्च विधाय विघ्नान् भवत्यसो तत्प्रतिकूलवती // 46 // अर्थ-कभी यह उसे खांसी से पीडित करता है. कभी वमन से दुःखित करता है, कभी श्वास की बीमारी से परेशान करता है. कभी अनेकविध वात रोग से व्यथित करता है. इत्यादि अनेक रोगों को उत्पन्न करके यह शरीर आत्मा के प्रतिकूल बन जाता है // 46 // કોઈ વખત એ તેને ઉધસથી પીડા ઉપજાવે છે, કોઇવાર ઉહિટથી દુઃખી કરે છે. કોઈ વાર શ્વાસની બિમારીથી હેરાન કરે છે. કેઈવાર અનેક પ્રકારના વાયુના રોગથી દુઃખ ઉપજોવે છે, વિગેરે પ્રકારના અનેક રોગોને ઉપન કરી આ શરીર આત્માની વિરૂદ્ધ થઈ जय छे. // 46 // शनैः शनैर्वा पलितच्छलेन शुभ्राभ्रवच्छभ्रपताकि भूत्वा। मुहुर्मुहुनिगलितप्रश्लेष्मध्वनिच्छल दीर्घरवं विधाय // 47 // शरीरमेतच्च तदात्मनामा विरुद्धयोगं हडतालहेतिम् / स्वाधीनमात्मानमदः करोति कृत्वा शरण्यं कथमात्मनस्तत् // 48 // अर्थ-धीरे 2 यह शरीर सफेद बालों के छल से मानों आकाश के जैसा सफेद झंडा लेकर आत्मा का साम्हना करने लगता है और बार बार निकलते हए श्लेष्म के बहाने से उसके विरुद्ध नारे बाजी करना प्रारंभ कर देता है। जिस प्रकार आजकल मालिक को अपनी बात मनवाने के लिये मजदूर आदि झंडा लेकर और उसके विरुद्ध नारे लगाते हुए हडताल रूपी शत्र का प्रयोग करते हैं. ठीक इसी तरह यह शरीर भी आत्मा के प्रति इसी प्रकार का व्यवहार Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः ___ 130 करता है और उसे अपने वश में कर लेता है. अतः यह आत्मा के लिये शरण दाता कैसे हो सकता है. // 47-48 // ધીરે ધીરે આ શરીર સફેદ વાળના બહાનાથી જેણે આકાશને જેવી સફેદ ધજા લઈને આત્માનો સામનો કરવા લાગે છે, અને વારંવાર નીકળતા કફના બહાનાથી તેની વિરૂદ્ધ અવાજ ઉઠાવવાને પ્રારંભ કરી દે છે. જે પ્રમાણે અત્યારના સમયમાં માલીકને પિતાની વાત કબુલ કરાવવા મજૂર વર્ગ ધજા લઇને માલિકની વિરૂદ્ધ અવાજ ઉઠાવીને હડતાલ રૂપ શસ્ત્રને પ્રવેગ કરે છે. એ જ પ્રમાણે આ શરીર પણ આત્મા પ્રત્યે આ રીતને વ્યવહાર કરે છે. અને તેને પિતાના વશવતી બનાવી લે છે. તેથી તે આત્માના હિત માટે શરણ દાતા કેવી રીતે બની શકે ? tu47-48 एवं हि मण्यादिकभेषजान्ता आयुःक्षये क्षीणधनस्य पुंसः / मनोरथा वा न विधातुमीशाः प्रयोगयोगा न च किञ्चिदस्य // 49 // अर्थ-क्षीण जिसका धन हो चुका है ऐसे पुरुष के मनोरथ जैसे अकिश्चित्कर होते हैं वैसे ही आयु जिसकी क्षीण हो चुकी है ऐसे पुरुष के लिये किये गये मणि मंत्र तंत्र औपध आदि के प्रयोग कुछ भी कर सकने में समर्थ नहीं होते हैं॥४९॥ જેનું ધન ક્ષીણ થયેલ હોય એવા પુરૂષના મને જેમ અકિંચિત્કાર હોય છે, એજ પ્રમાણે જેનું આયુષ્ય ક્ષીણ થઈ ચૂકેલ છે, એવા પુરૂષ માટે કરવામાં આવેલ મણિ, મંત્ર, તંત્ર કે ઔષધ વિગેરે પ્રવેગે કંઈ પણ કરવામાં શક્તિમાન થતા નથી. 49 करालकालेन च संग्रहीतः जन्तुरयं धैर्यगुणात्प्रभृष्टः / विस्मृत्य शक्तिंच परावलम्बी भूत्वा विलापं विविधं करोति / 50 // अर्थ-जब यह प्राणी कराल काल से गृहीत हो जाता है तो वह अपने धैर्यगुण से च्युत हो जाता है. और अपनी शक्ति को भूलकर परावलम्बी बन जाता है. तथा अनेक प्रकार के विलापों को करने लगता है // 50 // - જ્યારે આ પ્રાણી કરાલ કાળથી ગ્રહણ કરાય છે, ત્યારે તે પિતાની ધીરજ ગુમાવી બેસે છે અને પોતાની શક્તિને ભૂલીને પરાવલંબી બની જાય છે. તથા અનેક પ્રકારના વિલાપ કરવા લાગે છે. પશે तापि दयनीयदशान्वितस्य न जायते कोऽपि शरण्यभूतः / न सेवको नापि पिता च माता पाणौ गृहीतानि न वाच पत्नी // 51 // Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 लोकाशाहचरिते ___ अर्थ-जब इसकी दयनीय दशा हो जाती है. उस स्थिति में इसे शरणदाता न कोई नौकर होता है. न पिता होता है. न माता होती और न जिसका हाथ पकडा है ऐसी पत्नी होती है // 51 // જયારે તેની અત્યંત દયનીય દશા થઈ જાય છે, એ રિથતિમાં તેને શરણદાતા કઈ નાકર લેતો નથી. પિતા માતા કે જેને હાથ પકડયો હોય તેવી પત્ની પણ શરણદાતા थता नथी. // 51 // चक्राधियो वा न नराधिणे वा सुराधिपो योऽपि च कोऽपि सोऽपि / गतायुषो रक्षणबद्धकक्षः नैवास्ति धर्मेण विना शरण्यः // 52 / / __ अर्थ-चाहे चक्रवर्ती हो, चाहे राजा हो, चाहे इन्द्र हो कोई भी क्यों न हो जीव का जब आयु कर्म समाप्त हो जाता है तब इसे कोई भी रखने के लिये समर्थ नहीं हो सकता है. एक धर्म ही ऐसा है जो इसकी रक्षा कर सकता है // 52 // ચાહે રાજા હોય કે ચકવતિ હોય અથવા ઈંદ્ર હોય કોઈ પણ કેમ ન હોય જીવનું જ્યારે આવું કર્મ સમાપ્ત થાય છે, ત્યારે તેને કેઈપણ રાખવા સમર્થ થતા નથી. એક ધર્મ જ એ છે કે જે તેનું રક્ષણ કરી શકે છે. પરા पयोधिमध्ये च विनष्ट यानस्य जीव ! तेनास्ति च भुज्यमाने / गते सतीहायुषि विष्करस्य इवाश्रयः कोऽपि शरण्यभूतः / / 53 // अर्थ-समुद्र के बीच पतित पक्षी का कि जिसका सहारा के योग्य यान जहाज नष्ट हो गया है जैसे कोई आश्रय नहीं होता है इसी प्रकार हे जीव! जब तेरा भुज्यमान आयु कर्म समाप्त हो जाता है तब तुझे भी शरण्यभूत कोई नहीं होता है // 53 // સમુદ્રની મધ્યમાં પડેલ પક્ષીનું કે જેનું સહાયભૂત યાન નૌકા કે જહાજ નાશ પામ્યું હોય ત્યાં તેને કોઈ આશ્રયદાતા હેતું નથી એજ પ્રમાણે હે જીવ! જયારે તારું ભયમાન આયુષ્ય કર્મ સમાપ્ત થઈ જાય છે, ત્યારે તારું પણ કોઈ શરણદાતા હેતું નથી. આપવા एवं विभाव्यैव च भग्यवद्भिः न कोऽपि कस्यापि शरण्यभूतः / रत्नत्रयात्मैव तथास्यवेत्य हितेप्सुभिाश्रयितव्य एषः / / 54 / / अर्थ-ऐसा विचार करके ही अपने हित की चाहना वाले भाग्यशाली पुरुषों को रत्नत्रय विशिष्ट आत्मा ही हमें शरण्यभूत हैं ऐसा समझकर उसी का आश्रय करना चाहिये // 54 // Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः આ પ્રમાણે વિચાર કરીને પિતાનું હિત ઈચ્છનાર ભાગ્યશાળી પુરૂષે રત્નત્રયથી યુક્ત આત્મા જ અમને શરણ દાતા છે, એમ સમજીને તેને જ આશ્રય કરે જોઈએ. 54 // अशरण भावना समाप्त // संसार भावना बर्णनम्शैलूपवद्वेषानेकमेकः स्वकर्मपाकाद्विदधान एषः / तिरश्चि पापान्निरयेच पुण्यादिविद्वयान्मानवजन्मनि च // 55 // लेभे न शान्ति विषयैर्वराकः प्रचितः केवल भीर्ण्ययाऽसौ। वाचामगम्यां विविधामशान्ति समापहा ! धिगृह्यविवेकिमंतम् // 56 // अर्थ-अपने कर्म के विपाक से अकेला जीव नट की तरह अनेक वेषों को धारण करता हुआ पाप के उदय से तिर्यश्चगति में, नरकगति में, पुण्य के उदय से देवगति में और दोनों के उदय से मनुष्यगति में विषयों से ठगाया जाता है. अतः कहीं पर भी इसे आत्मिक शांति प्राप्त नहीं होती है. केवल उन उन गतियों में ईर्ष्या वश जो यह विविध प्रकार की अशान्ति प्राप्त करता है उसके वर्णन करने की क्षमता वचन में नहीं है सो इस जीव की इस अविवेकता को धिक्कार है. // 55-56 // પોતાના કર્મના વિપાકથી એકલે જીવ નટની જેમ અનેક વેને ધારણ કરતો થકે પાપના ઉદયની તિર્યંચ ગતિમાં, નરક ગતિમાં, અને પુણ્યના ઉદયથી દેવ ગતિમાં તથા બન્નેના ઉદયથી મનુષ્ય ગતિમાં વિયેથી ઠગાયા કરે છે. તેથી કયાંય પણ તેને આત્મિક શાંતિ પ્રાપ્ત થતી નથી. કેવળ તે તે ગતિમાં ઈર્ષાના કારણે તે જે અનેક પ્રકારની અશાન્તિ પ્રાપ્ત કરે છે, તેનું વર્ણન કરવાની શક્તિ વચનમાં નથી. તો આ જીવના આ અવિવેક પણાને ધિક્કાર છે. પપ-પ૬ आमोक्षसौरल्यान्मलपिञ्जरेऽस्मिन् देहे वसन् हा ! खलु जीव एषः / क्षणे 2 दुःसहवेदनां तामनादितः स्वानुभवां करोति // 57 // __ अर्थ-जबतक इस जीव को मुक्ति का सुख प्राप्त नहीं होता है तबतक मल के पीजरे रूप इस देह में रहता हुआ यह जीव क्षण क्षण में जो दुःसह वेदना को भोगता आरहा है-वह आज की नहीं है-अनादि की है // 57 // જયાં સુધી આ જીવને મુક્તિનું સુખ પ્રાપ્ત થતું નથી, ત્યાં સુધી મળના પાંજરા રૂપ આ દેહમાં રહેલે આ જીવ ક્ષણે ક્ષણે જે દસહ વેદનાને ભેગવે છે. તે આજનું નથી. અનાદિથી જ છે. આપણા Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते जिह्वासहखैर्गदितुं ह्यशक्यां भ्रमन 2 कृच्छ्र परंपरां ताम्। भुङ्क्ते च मुक्त्यर्थमसौ शताशां मुंजीत भूयात् नरजन्म शुद्धम् // 58 // अर्थ-हजार जिहाओं से भी जो नहीं कही जा सके ऐसी जितनी दुःख परंपरा को चारों गतियों में बारंवार भ्रमण करता हआ यह जीव भोगता है. उसके शतांश भी वेदना को यदि यह मुक्ति के निमित्त भोगे, तो इसका यह नर जन्म बिलकुल शुद्ध बन जाता // 58 // હજાર જહવાઓથી પણ જે કહી ન શકાય એવી આ દુઃખ પરંપરાને ચારે ગતિમાં વારંવાર ભમતો એ જીવ ભગવતો રહે છે. તેના સો માં ભાગની વેદનાને જો તે મુક્તિ નિમિત્તે ભગવે તે તેને આ મનુષ્ય જન્મ બિકુલ શુદ્ધ બની જાય છે. પ संसारकान्तारगतोऽथ जीवो भुक्तोज्झितं केवलमेव भुङ्क्ते / / उच्छिष्ट भोजी तु भवेदराहः काकोऽथवाश्वापद तेषु कोऽयम् / / 59 // अर्थ-संसाररूप अटवी के भीतर फंसा हुआ यह जीव जिस किसी भी वस्तु का भोग करता है. वह अभुक्त पूर्व नहीं होती वह तो भुक्त पूर्व ही होती है. और भुक्त वस्तु को भोगनेवाला-खानेवाला-या तो सूकर होता है या कौवा होता है या कुत्ता होता है. अब कहो-यह जीव इनमें से कौन है ? // 59 // સંસાર રૂપી અરણ્યમાં ફસાયેલ આ જીવ જે કઈ વસ્તુને ઉપભોગ કરે છે તે પહેલાં વિના ભગવેલી વસ્તુ છેતી નથી, અર્થાત તે ભુત પૂર્વજ હોય છે. તથા ભગવેલી વસ્તુને ભેગવનાર એટલે કે ખાધેલું ખાનાર ભુંડ કે કુતરા હોય છે, તો કહે આ જીવ આ પિકી કેણ છે? પેલા परंपरातोऽयमनाद्यनन्तः भवोऽस्ति जीवेन यदय॑तेऽत्र / उच्छिष्टमेवेति विहाय तत्त्वं अभुक्तपूर्व शिवसौख्यमिच्छ // 6 // अर्थ-परम्परा की अपेक्षा यह संसार अनादि अनन्त है. अतः जीव के द्वारा यहां जो भी अर्जित किया जाता है वह सब उच्छिष्ट ही है इसलिये हे चेतन ! उसे छोड कर तूं अभुक्त पूर्व जो शिवसुख है उसकी चाहना कर // 60 // પરંપરાની એપેક્ષાથી આ સંસાર અનાદિ અને અનન્ત છે, તેથી જીવના દ્વારા અહીં જે કાંઈ પ્રાપ્ત કરાય છે તે તમામ ઉચ્છિષ્ટ જ છે. તેથી હે જીવ! તેને છોડીને તું અમુક્ત પૂર્વ જે શિવસુખ છે તેની ચાહના કર. 60 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः अनादिसंसार परंपरायां मुहुर्मुहुः संभ्रमताऽऽत्मनेहक / . नास्तीह कश्चित्पुद्गलोधशिष्टो भुक्त्वोज्झितो यो न भवेदनन्तम् / 61 // जब की यह संसार अनादि और अनन्त है और इसमें यह जीव बारबार जन्म मरण करता आ रहा है. तो बात स्वाभाविक है कि यहां ऐसा कोई सा भी पुदगल नहीं बचा जो इसने अनन्त बार भोगकर नहीं दिया हो, इसलिये जो यहां इस जीव के द्वारा अजित किया जाता है, और अपने भोग में काम में लिया जाता है वह सब भुक्त पूर्व होने से उच्छिष्ट ही है. परन्तु अभीतक इस जीव ने मुक्ति का सुख प्राप्त नहीं किया है अतः वह अभुक्त पूर्व है. // 61 // જ્યારે આ સંસાર અનાદિ છે અને અનન્ત છે. અને આમાં આ જીવ વારંવાર જન્મ મરણ ધારણ કરતે આવે છે. તે વાત સ્વાભાવિક છે કે અહીં એવું કોઈ પણ પુલ બચેલ નથી કે જેને આ જીવે અનcવાર ભગવેલ ન હોય તેથી અહીં આ જીવે જે કંઈ અર્જીત કર્યું હોય અને પિતાના ભેગના કામમાં લીધેલ હોય તે તમામ ભક્ત પૂર્વ હોવાથી ઉચ્છિષ્ટ જ છે. પરંતુ અત્યાર પર્યત આ જીવે મુક્તિનું સુખ મેળવેલ નથી તેથી તે અભુક્ત પૂર્વ છે. 6 ના ॥संसार भावना समाप्त। एकत्व भावना का वर्णनस्खोपात्तकर्मोदयतः समाप्त गत्यामसी गच्छति जीव एकः / शुभाशुभं तत्कलमेक एव भुङ्क्ते न सत्यस्वजनः परोवा // 62 // अर्थ-जीव को जो भी गति प्राप्त होती है वह अपने द्वारा अर्जित कर्म के उदय के अनुसार ही प्राप्त होती है. उस गति में यह जीव अकेला ही जन्म मरण किया करता है और अकेला ही शुभ अशुभ कर्मफल को भोगता रहता है. उस समय इसका साथी न अपना माना हुआ कोई जन होता है और न कोई परजन होता है // 2 // જીવને જે કોઈ ગતિ પ્રાપ્ત થાય છે, તે પિતે કરેલા કર્મના ઉદય પ્રમાણે જ પ્રાપ્ત થાય છે, એ ગતિમાં આ જી એકલા જ જન્મમરણ કર્યા કરે છે. અને પોતે એક જ શુભાશુભ કર્મનું ફળ ભોગવે છે. તે સમયે તેનો સાથી પિતાનો માનેલ કોઈ થતું નથી. તેમ પરજન પણ થતું નથી. રા. Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते ये बान्धवा वा स्वजनाः परे वा दिवंगते यान्ति न केऽपि सार्धम् / . येषां कृतेऽनेन कृनं च पापं प्रक्षिप्यतेऽग्नौ स्वगृहं प्रयान्ति // 63 // अर्थ-जब यह जीव वर्तमान पर्याय को छोडकर अन्य पर्याय को धारण करता है उस समय जो अपने बन्धुजन हैं वे अथवा जितने भी परजन हैं वे कोई भी इसके साथ परगति में नहीं जाते हैं. प्रत्युत इस्रने जिनके लिये पाप किया है वे इसे अग्नि में डालकर अपने 2 घर वापिस लौट जाते हैं // 63 // જ્યારે આ જીવ વર્તમાન પર્યાયને છોડીને બીજા પર્યાયને ધારણ કરે છે, એ સમયે જે પિતાના બંધુજન છે તેઓ અથવા જેટલા પરજના છે તે કઈ પણ તેની સાથે પરાતિમાં જતો નથી, પરંતુ, તેણે જેના માટે પાપકર્મ કરેલ છે તેઓ તેને અગ્નિમાં નાખીને પિતપિતાને ઘેર પાછા ચાલ્યા જાય છે. દ્વા माता न पत्नी न पिता न पुत्रः अन्योऽपि वा कोऽपि सुहज्जनो वा। असातवेद्योदय आगते दा ! सध्यूङ् न सर्वेऽत्र यतो विभिन्नाः // 6 // ___ अर्थ-जीव जब असाता वेदनीय कर्म के उदय के चक्कर में आकर फंस जाता है-अर्थात् जीव के जब असाता का उदय आता है-तब माता, पत्नी, पिता, पुत्र, मित्र तथा अन्य और भी कोई उसके साथी नहीं होते हैं। क्यों कि यहां सब आपत्काल में भिन्न हो जाते हैं // 64 // જીવ જ્યારે અસાતા વેદનીય કર્મના ઉદયના ચક્કરમાં આવીને ફસાઈ જાય છે અર્થાત જીવને જ્યારે અસાતા વેદનીય કર્મને ઉદય થાય છે, ત્યારે માતા પિતા, પત્ની, પુત્ર, મિત્ર તથા અન્ય કોઈ પણ તેનો સાથી થતા નથી. કેમકે–આ સંસારમાં વિપત્તિના સમયમાં બધા જ અલગ થઈ જાય છે. 64 अहर्निशं ज्ञानधनेन तावज्जीवेन चित्ते परिशीलनीयम् / यदस्म्यहं जन्मनि चाथ मृत्वावेको न मेकोऽपि न कस्य वाहम् // 65 // अर्थ-जब जीव के असाता वेदनीय का उदय आवे-तो उस समय ज्ञानी जन को रातदिन यही विचारते रहना चाहिये कि मैं अकेला ही जन्मा हूं और अकेला ही मरूंगा. मेरा यहां कोई नहीं है और मैं किसी का नहीं हूँ॥६५॥ જ્યારે જીવને અચાતા વેદનીય કર્મને ઉદયકાળ આવે ત્યારે જ્ઞાનીજને તે રાત-દિવસ એ જ વિચારતા રહેવું જોઈએ કે હું એકલે જ જન્મે છું અને એકલે જે મરીશ અહીં મારું કોઈ નથી અને હું પણ કોઈને નથી. 6 પા. Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः 143 संयोगिनो येऽपि च केऽपि ते ते स्वस्वार्थलीना न परस्य हानौ / वृद्धौ च तेषां भवतीति हानिद्धिर्यतः स्वस्थमिदं हि विश्वम् // 66 / / ___ अर्थ-जो स्त्री पुत्र मित्रादिक संयोगी पदार्थ हैं वे सब अपने अपने स्वार्थ में लीन हैं. पर की हानि में और वृद्धि में उनकी न हानि होती है और न वृद्धि होती है. क्यों कि यह विश्व अपने में ही स्थित है // 66 // " જે સ્ત્રી, પુત્ર, મિત્ર વિગેરે સગી પદાર્થ છે તે બધા પોતપોતાના સ્વાર્થમાં રચ્યાપગ્યા હોય છે. પરની હાની કે વૃદ્ધિમાં તેમની હાની કે વૃદ્ધિ થતી નથી કેમકે આ સમગ્ર विश्व पोतानामा स्थित छ. // 66 // न कोऽपि कस्मै च ददाति दुःखं सुखं च कमैव ददाति सर्वम् / सुखेप्सुभिनित्यमतो विधेयं शुभं विमुच्याशुभकर्मजीवैः // 67 // अर्थ-कोई भी जीव न किसी के लिये सुख देता है और न दुःख देता है जो कुछ देता है वह एक कर्म ही देता है. इसलिये जो सुग्वाभिलाषी जीव हैं उनका कर्तव्य है कि.वे अशुभ कर्मों को-कार्यों को-छोडकर शुभ-अच्छे लोकहितकारक-कार्य करें // 6 // કોઈ પણ જીવ કેઈને પણ સુખ આપતા નથી. અને દુઃખ પણ આપતા નથી. જે કંઈ સુખ દુઃખ થાય છે, તે કર્મ દ્વારા જ થાય છે. તેથી સુખેષ્ણુ પુરૂષનું કર્તવ્ય છે કે અશુભ કર્મોને છોડીને શુભ કર્મ જ કરવા. 67ii संयोगभाजश्च पदार्थसार्थाः स्वभाव संस्था नहि तेन्यरूपाः। भवन्त्य भूवश्च न भाविनस्ते तथा ह्यतस्त्वं स्वत एक एव // 6 // अर्थ-जितने संयोगी पदार्थ हैं वे सब अपने 2 स्वभाव में जब स्थित हैं तो फिर वे अन्य स्वरूप कैसे हो सकते हैं. अर्थात् नहीं हो सकते इस तरह पदार्थों का स्वरूप है और वह त्रिकालवर्ती है. तब यह मान्यता कि पदार्थ अन्य स्वरूप हो जावेंगे, पहिले अन्य स्वरूप हुए हैं, वर्तमान में होते हैं सर्वथा असत्य है. अतः अपना सुखःदुखादिकों का भोक्ता जीव आप स्वयं ही है दूसरा उनमें साझीदार न कोई होता है, न हुआ है और न आगे ऐसा होने वाला ही है. // 68 // જેટલા સંયોગી પદાર્થ છે તે બધા પોતપોતાના સ્વભાવમાં જયારે સ્થિત હોય તો પછી તેઓ બીજા સ્વરૂપે કેવી રીતે થઈ શકે ? અર્થાત ન જ થઈ શકે આ રીતે પદાર્થનું Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144 लोकाशाहचरिते સ્વરૂપ છે, અને તે ત્રિકાળવર્તિ છે. તો પછી એ માન્યતા એ છે કે પદાર્થ અન્ય સ્વરૂપે થઈ જશે પહેલાં અન્ય સ્વરૂપે થયા છે. વર્તમાનમાં થાય છે એ સર્વથા અસત્ય છે. તેથી પિતાના સુખ, દુઃખાદિકના ભકતા જીવ સ્વયંમ જ છે. બીજો કોઈ તેને સાથીદાર થયા નથી. તે નથી અને થશે નહીં. 68 परत्र लोके ननु गच्छतस्ते न कोऽपि हाऽभीष्टजनः प्रयातुम् / सार्धं त्वया शक्ष्यति चैक एव प्रयास्यसि त्वं भवरीतिरेषा // 69 / / अर्थ-हे जीव ! परलोक में प्रयाण करते समय तेरे साथ तेरा कोई भी अभीष्ट जन नहीं जावेगा. तूंही अकेला जावेगा यही संसार की रीति है // 6 // હે જીવ! પરલોકમાં પ્રયાણ કરતી વખતે તારી સાથે તારે હિતેચ્છુ કોઈ પણ તારી સાથે આવશે નહીં તું જ એક જઈશ આજ સંસારની રીત છે. લાલા कलेवरद्वारमुपस्थितेन परेतराजा हियमाणकायः। जीवस्तदानीं समतां विधृत्य विकल्पमित्थं कुरुतान्न कुत्र // 7 // अर्थ-कलेवर रूपी द्वार पर आये हुए यमराज के द्वारा जिसका शरीर से संबंध छुडा दिया जानेवाला है ऐसा यह जीव उस समय समता को धारण कर इस प्रकार का विकल्प किसी संयोगी आदि के सम्बन्ध में न करे // 7 // શરીરરૂપી દ્વાર પર આવેલા યમરાજ દ્વારા શરીર સાથેને જેને સંબંધ છોડાવી દેવાનો છે એવા આ જીવે એ સમયે સમતાને ધારણ કરીને આ રીતને વિક૯૫ કઈ સંગીના વિષ્યમાં ન કરવો. 70 दिवानिशं यत्परिपोषणाय भक्ष्यं ह्यभक्ष्यं गणितं न किञ्चित् / गात्रं तदेत यधुनन्तकाले सार्धे मया नैत्य कृतज्ञ मेतत् // 71 // अर्थ-देखो-मैंने रातदिन जिस शरीर के पोषण निमित्त भक्ष्य अभक्ष्य का कुछ भी ख्याल नहीं किया वही मेरा यह शरीर अब अन्तकाल में मेरे साथ नहीं जाता है. यह कितना कृतघ्नी है // 71 // મેં રાત દિવસ જે શરીરના પોષણ માટે ભક્ષ્ય અભક્ષ્યને કંઈ જ વિચાર કર્યો નથી. એજ આ મારૂં શરીર હવે અન્ન સમયે મારી સાથે આવતું નથી. એ કેટલું કૃતની છે. આ૭૧ ये केऽपि हा ! मां म्रियमाणमत्र श्रुत्वाऽऽगता आप्तजनाः परे वा / एकोऽपि वा कोऽपि न तेषु सार्धं गन्तुं मया चेच्छति धिकच तं माम् // 72 // Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः 145 अर्थ-ज़ो कोइ आप्तजन अथवा अन्य दूसरे जन मुझे मरनेवाला सुनकर यहां आये हैं-उनमें से कोई भी मेरे साथ चलने को तैयार नहीं है। धिकार है मुझे और उसे // 72 // જે કઇ હિતેચ્છુ અથવા અન્યજન મને મરવાને જાણીને અહીં આવેલ છે, તેમાંથી કોઈ પણ મારી સાથે આવવા તૈયાર નથી ધિક્કાર છે મને અને તેમને. II येषां कृते हा ! मयकाऽधमेन पापान्यनेकानि कृतानि ते माम् / अस्यां विपत्तौ पतितं विलोक्य रुदन्ति न कोऽपि मया सहैति // 73 // ___ अर्थ-जिनके लिये मुझ अधम ने अनेक पाप किये वे मुझे इस विपत्ति में पड़ा हुआ देखकर के रोते तो हैं. पर कोई भी उनमें से मेरे साथ चलने को कटिबद्ध नहीं होता है // 73 // અધમ એવા મેં જેને માટે અનેક પાપ કર્યા તેઓ મને આ વિપત્તિમાં પડેલ જાણીને વે તે છે પરંતુ તેમાંથી કઈ પણ મારી સાથે આવવા તૈયાર થતા નથી. II73 एकाकिन मां पविहाय सर्वे मे बान्धवा कुत्र गता इदानीम् / समागता येऽत्रजनाश्च केचिद्वाचैव ते मामनुशासतीह // 4 // अर्थ-देखो अकेला मुझे छोडकर वे मेरे सब बन्धुजन इस समय कहां पर चले गये हैं. और जो कोई व्यक्ति यहां आये हुए हैं वे केवल मुझे वाणी बारा ही समझा बुझा रहे हैं (साथ देने को कोई तयार नहीं दिखाई देते है) // 74 // 1 જુને એકલા મને છોડીને એ મારા સઘળા બધુજને આ વખતે કયાં ચાલ્યા ગયા છે, તેઓ કેવળ વાણીથી જ મને સમજાવી રહ્યા છે. સાથ દેવા કેઈ તૈયાર દેખાતા નથી. 74 साधं च यातुं यतते न कोऽपि गत्यन्तरं याम्यहमेक एव / न कोऽपि मां रक्षति हा ! इदानीं गताःका ते हन्त जना मदीया // 75 // अर्थ-मेरे साथ चलने के लिये कोई भी प्रयत्न नहीं कर रहे हैं. मैं अकेला ही दूसरी गति में जा रहा हूं मेरी इस समय रक्षा करनेवाला कोई नहीं है. दुःख है कि वे मेरे आत्मीय जन इस समय कहां पर चले गये हैं // 7 // Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते મારી સાથે આવવા કોઈ પણ પ્રયત્નશીલ નથી હું એકલે જ અન્ય ગતિમાં જઈ રહ્યો છું આ સમયે મારી રક્ષા કરનારૂં કેઈ નથી. દુઃખની વાત છે કે એ મારા સ્વજને આ સમયે કયાં ચાલ્યા ગયા ? કપા क्व यामि किंवा करवाणि नाहं पश्यामि तं मयामा-। गन्तुं भवेद् यः कटिबद्धकक्षः कृत्यानुगो याम्यहमेक एव // 76 // __अर्थ-अब मैं कहा जाऊं, क्या करूं मैं ऐसे अपने किसी भी इष्ट जन को नहीं देखता हूं जो मेरे साथ चलने के लिये कमर बांधकर तयार हो जाय केवल अब में ही किये हुए शुभाशुभ को लेकर अकेला जा रहा हूं // 76 // હવે હું ક્યાં જાઉં અને શું કરું. એવો મારો કોઈ પણ વજન દેખાતું નથી કે જે મારી સાથે આવવા કમર કસીને તૈયાર થાય કેવળ હું એ જ કરેલા શુભાશુભ કર્મને सन 14 २यो छु // 7 // आसं यदाऽहं ननु शक्तिशाली आसंस्तदा मामनुगा अनेके। . अस्यां विपत्तौ पतितस्य कोऽपि वात न मे पृच्छति संस्कृति धिक् // 77 // अर्थ-जब मैं शक्तिशाली था तब मेरे पीछे 2 फिरनेवाले अनेकजन थे और अब इस स्थिति में पडजाने पर मेरी बात तक भी पूछनेवाला कोई नहीं है. इस संसार को धिक्कार है // 77 // જ્યારે હું સશક્ત હતો ત્યારે મારી પાછળ પાછળ ફરનારા અનેકજને હતા, અને અત્યારે આ સ્થિતિમાં આવી પડતાં મારી વાત પૂછનારૂં પણ કઇ જ નથી. એવા આ संसारने विकार छ. // 77 // ___ एतद्विकल्पाकरणे कारणमाहजीवोऽस्त्ययं जन्मनि वाथ मृत्यावेको न कोप्यस्य न कस्य चायम् / संयोगिनः सर्वपदार्थसार्थाः कथं भवेयु स्तदधीनकामाः // 7 // अर्थ-यह जीव अकेला ही जन्मता है और अकेला ही मरता है. न कोई इसका है. और न यह किसी का है। जब ऐसी स्वतंत्रता है तो जितने भी संयोगी पदार्थ हैं वे इसकी अधीनता से युक्त इच्छावाले कैसे हो सकते हैं // 78] આ જીવ એકલે જ જન્મે છે, અને એકલે જ મરે છે, તેનું કાઈ જ નથી અને તે કેઈને નથી. જ્યારે એવી સ્વતંત્રતા છે તે જેટલા સગી પદાર્થો છે, તે તેની આધીનતાવાળી ઇચ્છાવાળા કેવી રીતે થઈ શકે? I78 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 247 पञ्चमः सर्गः गन्तुं क्षमः कोऽपि न केन सार्धं गत्यन्तरं क्वेष्टजनस्य वार्ता / समागतं तं प्रसमीक्ष्य सत्वं निजात्मनीहा कुलतां न कुर्योः // 79 // ___ अर्थ-कोई भी जीव किसी के भी साथ दसरी गति में जाने के लिये समर्थ नहीं है. तो फिर इष्टजन की तो बात ही क्या है. इसलिये आये हुए इष्टजन को देखकर हे जीव ! तुझे अपनी आत्मा में ऐसे समय पर आकुलता नहीं करनी चाहिये // 79 // કઈ પણ જીવ કોઈની પણ સાથે અન્ય ગતિમાં જવા માટે સમર્થ નથી. તે પછી ઈન્ટજનની તે વાત જ શું કરવી? તેથી આવેલા ઈષ્ટજનોને જોઈને હે જીવ! તારે પિતાના આત્મામાં આવા સમયે વ્યાકુળતા કરવી ન જોઈએ. I79 संवीक्ष्यते त्वामनुशासतौह तत्केवलं मोह विमोचनार्थम् / मत्त्वेति जीवं ! त्वं माऽऽकुलत्वं गमः सुशिक्षा हृदि धत्स्व गुर्वीम् // 80 // अर्थ-जो तुम्हें देखकर वे समझाते बुझाते हैं वह केवल अपने प्रतिजो तुम्हारा मोह है उसके छुडाने के लिये ऐसा करते हैं ऐसा समझ हे जीव ! तुझे आकुलित नहीं होना चाहिये और उनके द्वारा दी गई अच्छी शिक्षा को हृदय में धारण करना चाहिये. // 8 // તમને જોઈને તેઓ જે સમજાવે છે તે કેવળ પિતાના પ્રત્યે તમારે જે મોહ છે તે છોડાવવા માટે તેમ કરે છે, તેમ સમજીને હે જીવ! તારે વ્યાકુળ થવું ન જોઈએ અને તેમણે આપેલ સારી શિખામણ હૃદયમાં ધારણ કરવી જોઈએ. એ૮ળા उपस्थितो वाप्यनुपस्थितो वा स्वेष्टोऽथवा कोऽपि भवेत्परो वा / तेभ्यः स्वदोषं क्षमया विशुद्धं कृत्वा विधेया परलोकयात्रा // 81 // . अर्थ-इसलिये ! आत्मा को उस समय इस प्रकार समझना चाहिये कि हे आत्मन् ! उस समय चाहे अपना इष्ट जन अथवा और भी कोई पर जन उपस्थित हो अथवा उपस्थित नहो-उन सब से अपने दोषों को क्षमा से विशुद्ध कराकर परलोक की यात्रा करनी चाहिये // 81 // તેથી આત્માએ એ સમયે આ રીતે વિચારવું જોઈએ કે હે આત્મન તે સમયે પોતાના સજન અથવા અન્ય કોઈ પરજન હાજર હોય અથવા ન હોય પણ તે બધા પાસે પોતાના દોષોને ક્ષમાથી વિશુદ્ધ કરાવીને પલેકની યાત્રા કરવી જોઈએ. 81 // एकत्वभावना वर्णनं समाप्तम् / / Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148 लोकाशाहचरिते दुरधाम्भसोर्योग इवास्ति जीव शरीरयोः कोऽपि विशिष्टयोगः। तथापि तो लक्षणभेदवत्वात् पृथक् पृथक् स्तः स्वत एव सिद्धौ // 82 // .. अर्थ-दूध और पानी का जैसा योग है वैसा ही योग जीव और शरीर का है. फिर भी अपने अपने लक्षण से ये दोनों पृथक पृथक् है यह बात स्वतः ही सिद्ध हो जाती है. // 82 // દૂધ અને પાણીને જે વેગ છે, એવો જ યોગ છે અને શરીરને છે, તો પણ પિતાના લક્ષણથી એ બન્ને જુદા જુદા છે તે વાત સ્વતઃ સિદ્ધ થઈ જાય છે. દરા शिलोमुखेऽस्तीह यथा पृथक्त्वं निषंगतो वाथ यथा कृपाणे / निचोलतों देहय्हा विभाग स्तथैव जीवस्य जडो न वेत्ति // 83 // अर्थ-जैसा शिलीमुख-बाण और भाथे का आधाराधेय सम्बन्ध है और इसी से उन दोनों में भिन्नता है, अथवा कृपाण-तलवार और म्यान में आपस में भिन्नता है वैसा ही देहरूप गृह से जीव का विभाग है. इस विभाग को जड-बहिरात्मा-जीव नहीं जानता हैं // 83 // જેવી રીતે બાણ અને ભાથાને આધારાધેય સંબંધ છે અને તેથી જ એ બન્નેમાં જુદાપણું છે. અથવા તલવાર અને મ્યાનમાં પરસ્પર જેવી જુદાઈ છે, એવી જ જુદાઈ દેહરૂપ ઘર અને જીવમાં છે. આ વિભાગને જડ જીવ જાણતા નથી. 83 देहात्मकोऽहं ननु भाव एषोऽज्ञानसंमूलक एव हेयः / अचेतनात्संहननाच्च जीवः सचेतनत्वाद् ध्रुवमेव भिन्नः // 84 // अर्थ-मै देह स्वरूप हूं ऐसा यह भाव अज्ञान है. मूल-कारण जिसका ऐसा है. अतः हेय है. क्यों कि संहनन-शरीर-अचेतन है और जीव सचेतन है. इन दोनों में नियम से भिन्नता ही है // 84 // હું દેહરૂપ છું એ જે ભાવ છે તે અજ્ઞાન છે. મૂળ કારણ જેનું એવું છે તે ત્યાજ્ય છે. કેમકે સંહાન–શરીર અચેતન છે. અને જીવ સચેતન છે. આ બેઉમાં નિયમથી જુદાઈ રહેલી છે. 84 // अन्यत्वभावना समाप्त / अचि भावना वर्णनम्अस्पष्टपृष्टं प्रतिभाति रम्यं शरीर मेतच्च बहिर्युतं स्यात् / अन्तः स्वरूपेण तदाऽत्र कोऽपि तद् दृष्टु मिच्छु न भवेन्नरागी // 5 // Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः ___ अर्थ-यह शरीर ऊपर 2 से ही सुन्दर लगता है-यदि भीतर का जो -इसका स्वरूप है उस स्वरूप से यह युक्त हो जावे तो न तो कोई इसे देखना चाहेगा और न कोई इसमें राग ही करना चाहेगाः // 85 // આ શરીર ઉપર ઉપરથી જ સુંદર લાગે છે. તેનું અંદરનું જ સ્વરૂપ છે તે રૂપથી જે એ યુક્ત થઈ જાય છે તેને કોઈ જોવા ચાહશે નહી કે તેની સાથે કોઈ રાગ કરવા પણ ઈચ્છશે નહીં ૮પા यदङ्ग सङ्गादिह जायते हा ! मेध्येप्यमेध्यत्वमलं कथं तत् / गात्रं पवित्रं भवतीति चेत्कः मलेऽपवित्रे भवतादतोषः // 86 // अर्थ-जिस शरीर के सम्बन्ध से पवित्र वस्तुओं में अपवित्रता आ-जाती हैं. ऐसा वह शरीर पवित्र कैसे हो सकता है. उसे पवित्र माना जावे तो फिर अपवित्र मल को भी पवित्र मान लेना चाहिये // 86 // જે શરીરના સંબંધથી પવિત્ર વસ્તુઓમાં અપવિત્ર પણ આવી જાય છે, એવું આ શરીર પવિત્ર કેવી રીતે કહી શકાય? જો તેને પવિત્ર માનવામાં આવે તો પછી અપવિત્ર એવા મળને પણ પવિત્ર માનવો જોઈએ. 86 गात्रं तदेतत्क्षणनश्वरं भोः ! विज्ञाय सवैरशुचीति यत्नः। कोऽस्य साफल्य कृते तपस्यायामाशुजीवै न यतः स्थिरं तत् // 8 // अर्थ-यह शरीर क्षणनश्वर है और अपवित्र है ऐसा जानकर भो ज्ञानीजन ! इसकी सफलता के लिये शीघ्र ही तपस्या में यत्न करते रहो. क्यों कि यह स्थिर नहीं है // 8 // આ શરીર ક્ષણવિનશ્વર છે અને અપવિત્ર છે. એમ સમજીને પણ તે જ્ઞાની પુરૂષ! તેની સફળતા માટે ત્વરીત ગતિથી તપસ્યામાં પ્રયત્નશીલ બને. કેમકે આ શરીર સ્થિર નથી. 87 स्वभावतस्तावदिदं ह्यपूतं रत्नत्रयेणैव पवित्रितं स्यात् / गात्रं तदेतद्धृदि धारणीयं तत्छुद्धिकामैणिभिर्वरेण्यैः / / 88 // अर्थ-यह शरीर स्वभाव से ही अपवित्र है. यदि पवित्र बन सकता है तो सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन, और सम्यक् चारित्र रूप रत्नत्रय से ही बन सकता हैं. इसलिये जो शुद्धि की कामना वाले श्रेष्ठ गुणिजन है वे इस रत्नत्रय को धारण करें // 8 // Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते આ શરીર સ્વભાવથી જ અપવિત્ર છે, જો તે પવિત્ર થઈ શકે તે સમ્યફજ્ઞાન, સમ્યફદર્શન અને સમ્યફ ચારિત્રરૂપ રત્નત્યથી જ બની શકે તેથી શુદ્ધિની ઇચ્છાવાળા જે ઉત્તમ ગુણવાન જન છે, તેઓએ આ રત્નશ્યને ધારણ કરવા. 88 अक्षय्यशंकृद्यदि गात्रमेतद्भवेच्च भव्यस्य तदात्तसारम् / पूतं तदैवेति वदन्ति विज्ञा नो चेदशुच्येव च निष्फलं तत् // 89 // ___ अर्थ-कभी नष्ट नहीं होने वाले ऐसे सुख का करने वाला यदि यह शरीर बन जाता है तो भव्य जीव का यह शरीर आत्त सार वाला हो जाता है-सफल हो जाता है. और तभी यह पवित्र बन जाता है. ऐसा विज्ञ जन कहते हैं. नहीं तो यह अपवित्र का अपवित्र ही रहता है और इस के पाने का कोई फल प्राप्त नहीं होता है. // 89 // કદી નાશ ન પામે એવા સુખને બનાવનાર જે આ શરીર બની જાય તો ભવ્ય જીવનું આ શરીર પ્રાપ્ત સારવાળું બની જાય છે. એવું વિજ્ઞજને કહે છે. નહીંતર આ અપવિત્રનું અપવિત્ર જ રહે છે. તથા તેને મેળવવાનું કંઈ ફળ પ્રાપ્ત થતું નથી. 89 // अशुचि भावना समाप्त // आस्रव भावना वर्णनम्यथाऽम्भसापूर्ण पिचण्डकुण्डः क्षिप्तस्तडागे च निमज्जतीद्धः / दुर्मोचकर्मावलिभिस्तथैव अधोह्यधो याति मृतोऽयमात्मा // 90 // अर्थ-चाहे कितना बडा कलश रूपी कुण्ड हो-पानी से भरा हुआ जैसे वह तलाब में डाले जाने पर उसमें डूब जाता है इसी प्रकार दुर्मोच कर्मावलि से भरा हुआ यह आत्मा भी नीचे नीचे-अधोगति में-जाता हैं // 90 // . ચાહે ગમે તેટલા માટે કલશરૂપી કુંડ હેય પણ પાણીથી ભરેલા તળાવમાં જ તેને નાખવામાં આવે છે તે તેમાં ડૂબી જાય છે. એ જ પ્રમાણે દુર્મોચ કર્માવલીથી ભરેલે આ આત્મા પણ અગતિમાં જાય છે. ૧૯ળા अथास्रवोऽयं भववृद्धि हेतुर्योगक्रियैवास्ति स वारणीयः / तस्यैव सद्भावयुतोऽयमात्मा दुःखं गिरीन्द्रोपममभ्युपैति // 91 // अर्थ-यह आस्रव ही संसार की वृद्धि का कारण है. योगों की जो हलन - चलन आदि रूप क्रिया है वही आस्रव है. इसी के सद्भाव से युक्त हुआ यह जीव सुमेरु पर्वत जैसे दुःखों को उठाता रहता है // 11 // Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः 151 આ આસ્રવ જ સંસારની વૃદ્ધિનું કારણ છે, યુગોની જે હલનચલનરૂપ ક્રિયા છે. એજ આસ્રવ છે. તેના સદ્ભાવથી યુક્ત થયેલ જીવ સુમેરૂ પર્વત જેવા દુઃખને ઉપાડતા રહે છે. 91 // आस्रव भावना समाप्त // संवर भावना वर्णनम् कर्मागमद्वारपिधानरूपः भवत्यसौ संवर आत्मशुद्धेः। हेतुश्च मुक्तेः कमनीय कान्ता या अगलाभे प्रबल प्रतापी // 92 // अर्थ-कर्मों के आने के द्वार का बन्ध होना इसका नाम संवर है. यह संवर ही आत्मा की शुद्धि का हेतु होता है. और मुक्ति रूपी कमनीय कान्ता के अङ्गलाभ कराने में प्रभाव शाली होता है // 92 // કર્મોના આવાવાના દ્વારનું બંધ થવું તેનું નામ સંવર છે, આ સંવર જ આત્માની શુદ્ધિના હેતુરૂપ હોય છે અને મુક્તિરૂપી કમનીય કાન્તાના અંગને લાભ કરાવવામાં પ્રભાવશાળી હોય છે. તેરા भवत्यसौ गुप्ति समित्यनुप्रेक्षाधैर्विशिष्टैः खलु साधनैश्च / अतोऽस्त्ययं साधनसाध्यरूपो मुनीन्द्रसेव्यो भवनाशकारी // 93 // अर्थ-यह संवर गुप्ति, समिति. अनुप्रेक्षा आदि विशिष्ट साधनों से होता है अतः यह साध्य रूप है. और निर्जरा का कारण होता है इसलिये यह साधन रूप है. इसकी सेवा मुनीन्द्र करते हैं क्यों कि यह उनके संसार का नाशक है. // 13 // આ બધું સંવર, ગુપ્તિ, સમિતિ, અનુપ્રેક્ષા વિગેરે વિશેષ પ્રકારના સાધનોથી થાય છે. તેથી એ સાધ્યરૂપ છે, અને નિર્જરાના કારણરૂપ હોય છે. તેની સેવા મોટા મેટા મુનિયે કરે છે. કેમકે તે એના સંસારને નાશ કરનાર છે. 93 द्रोण्या यथाब्धि तरतीह जीवस्तथाऽमुनेमं भववारिधि सः। हितैषिभिर्यम्बखत्प्रबुद्धे जींवैः सदा संवर एष सेव्यः // 94 // अर्थ-जैसे नौका द्वारा समुद्र पार कर दिया जाता है-वैसे ही जीव इस संवर द्वारा अपने संसार रूप समुद्र से पार हो जाता है. अतः वस्त्र की तरह इस संवर की आत्महिताभिलाषी प्रबुद्ध जीवों को सेवा अवश्य 2 ही करनी चाहिये // 9 // Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152 लोकाशाहचरिते જેમ નૌકાથી સમુદ્ર પાર કરવામાં આવે છે, એજ પ્રમાણે જ આ સંવર દ્વારા પિતાના સંસારરૂપ સમુદ્રથી પાર થઈ જાય છે. તેથી વસ્ત્રની જેમ આ સંવરની સેવા આત્મહિતાભિલાષી જાગ્રત એ જરૂર જરૂર કરવી જોઈએ. 94 यथा विपत्तौ च सखा, सखायं आपत्सु राजानममात्यवर्गः / रणे क्षतं क्षत्रिय आतपत्रं त्रायेत धर्माज्जनमात्मनीनम् // 95 // __ अर्थ-जिस प्रकार विपत्ति में पडे हुए मित्र की मित्र रक्षा करता है, आपत्ति के समय राजा की मंत्री रक्षा करता है, युद्ध में घायल हुए व्यक्तियोद्धा की रक्षा क्षत्रिय करता है, और धूप से मनुष्य की रक्षा छाता करता है उसी प्रकार धर्म अपने सेवक की रक्षा करता है // 95 // જેમ વિપત્તિમાં પડેલા મિત્રની મિત્ર રક્ષા કરે છે. આપત્તિના સમયમાં રાજાની મંત્રી રક્ષા કરે છે. યુદ્ધમાં ઘાયલ થયેલ દ્ધાની રક્ષા ક્ષત્રીય કરે છે અને તડકાથી મનુષ્યની રક્ષા છત્રી કરે છે. એ જ પ્રમાણે ધર્મ પિતાના અનુયાયિની રક્ષા કરે છે. છેલ્લા एवं जिनेन्द्रोक्तविमुक्तिमार्गे रक्षेदयं संचरतां मुनीनाम् / चारित्ररत्नं किल संवरस्तद्भद्रं तनुत्राणमिवाजिरेऽजम् // 9 // अर्थ-जिनेन्द्र देव के द्वारा प्रतिपादित मार्ग में विचरण करनेवाले मुनिजनों के चारित्र रत्न की रक्षा करने वाला यदि कोई है तो वह एक संवर ही है. जैसे जहर-वख्तर जो कि अज-बहुत पुराना होकर दृढ मजबूत हो गया होअपने को धारण करने वाले सुभट की युद्ध में रक्षा करता है. // 16 // - જીતેન્દ્ર દેવે પ્રતિપાદન કરેલ માર્ગમાં વિચરણ કરનારા મુનિજનોના ચારિત્ર રત્નની રક્ષા કરવાવાળું જે કઈ હોય તે તે એક સંવર જ છે. જેમ બખ્તર ઘણું જુનું હોવાથી મજબૂત થઈ ગયું હોય તે એને ધારણ કરનારા સુભટની યુદ્ધમાં રક્ષા કરે છે. 96 दृढपहारो निशितेषु योद्धा युद्धस्थले शत्रुजनं रुणद्धि / यथा, तथा संवर एष वीरो नम्मं च कर्मागमनं रुणद्धि // 17 // अर्थ-जैसे दृढ है प्रहार जिसका ऐसा तीक्ष्ण बाणों वाला योद्धा युद्ध स्थल में अन्य शत्रु को नहीं आने देता, वैसे ही यह संवर रूपी वीर नवीन कर्मों के आगमन को रोक देता है. उन्हें नहीं आने देता // 97 // જેમ મજબૂત છે. પ્રહાર જેનો એવા તીક્ષ્ણ બાણાવાળો ધ્રા યુદ્ધથળમાં બીજા શત્રને પ્રવેશ કરવા દેતા નથી એજ પ્રમાણે ઓ સંવરરૂપી વીર નવા કર્મોના આગમનને રોકી छ. तेने माता नथी. // 87 // // संवर भावना समाप्त // Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः निर्जरा भावना वर्णनम्अनास्त्रवात् संचितकर्मणां च देशक्षयात्संभवति प्रकर्षात् / रत्नत्रयस्यैव, विमुक्तिमार्गे, वाचंयमानां च हितावहेयम् // 98 // अर्थ-नवीन कर्मों का आस्रव रुक जाने से तथा संचित कर्मों का थोडा 2 क्षय होते रहने से एंव रत्नत्रय की ही प्रकर्षता होने से यह निर्जरा होती है. यह निर्जरा मोक्ष के मार्ग में मुनिजनों की हितकारक होती है // 9 // નવા કર્મોનો આસવ રોકાઈ જવાથી તથા સંચિત કર્મોને થડે શેડો નાશ થવાથી અને રત્નત્રયની વૃદ્ધીથી નિર્જરા થાય છે. આ નિર્જરા મોક્ષ માર્ગમાં મુનિજનેને હિત કરનાર હેય છે. 9 सम्पूर्णकमक्षयरूपमुक्ते सद्यास्ति जननीयं निर्जरेति / प्रधार्य चित्ते मुनिभिर्महत्या भक्त्या सदेयं च समर्चनीया // 99 // ... अर्थ-समस्त कर्म क्षय रूपी मुक्ति की यह निर्जरा पहिली माता है. ऐसा चित्त में निर्धारण करके मुनिजनों के द्वारा यह बडी भक्ति के साथ सेवन करने योग्य है // 99 // સઘળા કર્મોના ક્ષયરૂપ મુક્તિની એ પહેલી માતા છે, એમ ચિત્તમાં નિર્ધારણ કરીને મુનિજને મારા એ ઘણી જ ભક્તિપૂર્વક સેવવા યોગ્ય છે. 99 बाह्यान्तरेः साच तपोभिरित्या तपांसि कर्मक्षयकारणानि / विज्ञाय जीवेन निरन्तरं तत्तपोऽनुरूपं चरणीयमेव / .100 // - अर्थ-यह निर्जरा 6 बाह्य तपों से और 6 आभ्यन्तर तपों से प्राप्त होती है. तप कर्मों के क्षय में कारण होते हैं. ऐसा समझ कर जीवका कर्तव्य है कि वह अपनी शक्ति के अनुसार तमों का आचरण करें. // 10 // - આ નિર્જરા છ બાહ્ય તપથી અને છ આભાર તેથી પ્રાપ્ત થાય છે. તપ કર્મોના - લયમાં કારણરૂપ હોય છે. એવું સમજીને છપનું કર્તવ્ય છે કે તે પોતાની શક્તિ પ્રમાણે તપેનું આચરણ કરે. 1001 // निर्जरा भावना समाप्त // लोक भावना वर्णनम्उदि भेदादयमस्ति लोकस्त्रिधा प्रदेशोऽपि न कोऽपि तस्य / यस्मिन् न जातोऽथ मृतो न जीवस्तथापि सद्योधमसौ न लेभे॥१०१॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते अर्थ-ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक और अधोलोक इस प्रकार से लोक के 3 तीन विभाग हैं, इस लोक का कोई भी ऐसा प्रदेश नहीं बचा है कि जिसमें यह जीव जन्मा न हो और मरा न हो. फिर भी इसने सद्बोध प्राप्त नहीं कर पाया / / 101 // ઉર્વલક, મધ્યક અને અલક આ રીતે લેકના ત્રણ વિભાગ છે. આ લેકને કઈ પણ એ પ્રદેશ બચેલ નથી કે જેમાં આ જીવ જ ન હોય અને મર્યો ન હૈયા તે પણ એણે કંઈ જ સબધ મેળવ્યો નથી.૧૦૧ अकृत्रिमोऽयं खलु लोक एषः, जवादिपद्रव्यमयो ह्यनन्तः / अभव्यदृष्टया, पुनरस्ति सान्तः भव्यस्य वायुत्रयवेष्टितश्च // 10 // अर्थ-यह लोक अकृत्रिम है-किसीने इसे बनाया नहीं है. यह जीव पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छह द्रव्यमय है. अभव्य-जीव की अपेक्षा अनन्त हैं-इसका कभी विनाश होने वाला नहीं है. तथा. भन्यजीव का यह लोक सान्त है. एवं तीन वातवलयों से यह वेष्टित है // 102 // આ લેક અકૃત્રિમ છે. કેઈએ એને બનાવેલ નથી. આ જીવ, પુલ, ઘર્મ, અધર્મ આકાશ અને કાળ આ છ દ્રવ્યમય છે. અભવ્ય જીતની અપેક્ષાથી અનંત છે. આને કયારેય નાશ થવાનો નથી, તથા ભવ્ય જ ને આ લેક સાન છે અને ત્રણ વાતરૂપી વલથી વીંટાયેલ છે. I૧૦રા जीवो भ्रमन नित्यमुपैति दुःखं निर्याकुलत्वं नहि किञ्चिरत्र / अतः सुखावाप्ति रसंभवैव मोक्षन्ति सा भोः ! कुरु तत्र यत्नम् / / 103 // अर्थ-इस लोक में भ्रमण करता हुआ जीव नित्य दुःख को ही भोगता रहता है उसमें किश्चित् भी निराकुलता नहीं आती है. इसलिये यहां सुख की प्राप्ति असंभव ही है. वह तो-सुख की प्राप्ति तो-मोक्ष में ही है. इसलिये हे जीव ! उसकी प्राप्ति करने का ही तूं प्रयत्न कर. // 103 // આ લેકમાં ભ્રમણ કરતે જીવ નિત્ય દુઃખને જ ભગવતો રહે છે. તેમાં જરા પણ નિરાકુળપણું આવતું નથી. તેથી અહીં સુખની પ્રાપ્તિ અસંભવિત જ છે. તે સુખની પ્રાપ્તિ તો મેક્ષમાં જ છે. તેથી હે જીવ! તેને પ્રાપ્ત કરવાને તું પ્રયત્ન કર. 103 // लोक भावना समाप्त // Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः ___ बोधि दुर्लभ भावनाबोधेः सुलाभान्नरजन्मसिद्धिः नोचेत्तदा निष्फलमेव चेदम् / मूढात्परो कोऽसि जनोऽरो वा दहेन्मणि भस्त निमित्तमय॑म् // 10 // बोधि के लाभ से ही नर जन्म की सिद्धि होती है. यदि उसकी प्राप्ति नहीं हुई तो यह नरजन्म निष्फल ही मानना चाहिये मूल के सिवा कौन ऐसा मनुज्य होगा जो कीमती मणि को भस्म के निमित्त जलायेगा. // 104 // બેથીના લાભથી જ મનુષ્ય જન્મની સિદ્ધિ થાય છે. જો તેની પ્રાપ્તિ ન થઈ તો આ મનુષ્યભવ નિષ્ફળ જ જાણો મૂઢ શિવાય કે એવો મનુષ્ય હશે કે જે કીમતી મણિને ભમને માટે બાળી નાખે 104 भव्यत्वकर्मक्षितिमय॑जन्म जितेन्द्रियत्वं च सुबोधलाभः / रत्नत्रयाप्तिः पशः शृणुवं भवे भवे ह्यस्ति सुदुर्लभाऽस्मै // 105 // अर्थ-सुनो भव्यत्व भाव, कर्म भूमि में जन्म, इन्द्रियों की वश्यता, सम्यग्ज्ञान का लाभ और रत्नत्रय की प्राप्ति ये सब इस जीव के लिये क्रमशः भव 2 में प्राप्त होना बहुत दुर्लभ हैं // 10 // ભવ્યત્વભાવ, કર્મભૂમિમાં જન્મ ઇંદ્રિયેનું વશીપણુ સમ્યફજ્ઞાનનો લાભ અને રત્નની પ્રાપ્તિ એ બધું આ જ મને ક્રમશઃ ભવભવમાં પ્રાપ્ત થવું તે ઘણું જ દુર્લભ છે. 10 પા // योधि दुर्लभ भावना समाप्त // __धर्म भावनालोकद्वये जीव हितानुबंधी धर्मस्त्रिकालेऽप्यविकृतस्वरूपः। वस्तुस्वभावः स इति प्रतीत्या प्रतीयते नात्र वितर्कतौ // 106 // अर्थ-दोनों लोकों में जीव का हित करने वाला एक धर्म ही है. इसका स्वरूप त्रिकाल में भी बाधित नहीं होता है. यह धर्म "वस्तु का जो स्वभाव है वही धर्म है" इस प्रतीति से प्रतीत होताहै. यहां स्वभाव में तर्क और वितर्क को जगह नहीं है // 106 // બને લેકમાં જીવનું હિત કરનાર એક ધર્મ જ છે. તેનું સ્વરૂપ ત્રણે કાળમાં બાધિત થતું નથી. આ ધર્મ “વસ્તુને જે સ્વભાવ છે એજ ધર્મ છે.” આ પ્રતીતિથી પ્રતીત थाय छे. 24 मा म विन थान नथी. // 10 // Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ............. .................... लोकाशाहचरिते जिनेन्द्रचन्द्रैः प्रतिपादिताद्धि धर्मादहिंसादि मयात्स्वबोधः / जीवस्य तावद्भवति स्वरूपात्सः स्यान्मुमुक्षुः स्वहिताभिलाषी // 107 // जिनेन्द्र चन्द्र के द्वारा कहे गये अहिंसादिरूप धर्म से जीव को अपना बोध होता है. और जिसे अपना बोध हो गया है ऐसा वह स्वहिताभिलाषी जीव ही मुमुक्षु होता है // 107 // જીતેન્દ્રરૂપી ચંદ્ર કહેલ અહિંસાદી ધર્મથી જીવને પિતાને બંધ થાય છે અને જેને પિતાને બોધ થઈ ગયો છે, એ એ સ્વહિતાભિલાષી જીવે જ મુમુક્ષ થાય છે. 107 ॥धर्म भावना समाप्त // उक्ता इमे द्वादश भावना ये पुनः पुनश्चेतसि भावयन्ति / ते भव्यवृन्दाः सततं विरागोत्कर्षान्न मार्गाच्छिथिला भवन्ति // 108 // कही गई इन 12 भावना ओं को जो भव्यजीव बार बार अपने हृदय में धारण करते हैं अर्थात् इनका चिन्तवन करते हैं-वे निरन्तर वैराग्य के उत्कर्ष होते रहने से कभी भी गृहीत जैन मार्ग से शिथिल नहीं होते हैं // 108 // ' કહેવામાં આવેલ આ 12 બાર ભાવનાઓને જે ભવ્ય જીવ વારંવાર પિતાના હૃદયમાં ધારણ કરે છે. એટલે કે એનું ચિંતન કરે છે તે નિરંતર વૈરાગ્યને ઉત્કર્ષ થતો રહેવાથી પોતે ગૃહીત જૈન માર્ગથી કયારે પણ શિથિલ થતા નથી 108 इत्थं श्रीपति पूज्यपाद गुरुदेवानां मुखादुद्गताम्, __ श्रुत्वेमां खलु भारती हितवहां मोदप्रकर्ष वहन् / हेमोऽयं गतवान् स्वसद्मवगुरुं नत्वाऽऽचरत्सादरम्, ' न्यायोपार्जितवित्तमित्ररसिकः सागारधर्म मुदा // 109 // अर्थ-इस प्रकार श्रीपति पूज्य गुरुदेव के मुख से निकली हुई हित-कारण पाणी-को देशना को सुनकर हैमचन्द्र सेठ आनंद में मग्न होते हुए बडे ही आदर भाव से गुरु देव को प्रणाम कर के अपने घर गये. वहां वे न्यायो. पार्जित चित्त वाले मित्रों के साथ 2 अपने गृहस्थ धर्म के पालन करने में सावधान हो गये. // 109 // આ પ્રમાણે શ્રીપતિ પૂજ્ય ગુરૂદેવના મુખારવિંદથી નીકળેલી હિતકર દેશનાને સાંભવીને હેમચન્દ્ર શેઠ આનંદ સાગરમાં મગ્ન થઈને ઘણા જ આદરભાવથી ગુરૂદેવને પ્રણામ કરીને પિતાને ઘેર ગયા ત્યાં તેઓ ન્યાયથી મેળવેલા ધનવાળા મિત્રોની સાથે પિતાના ગૃહરથ ધર્મના પાલન કરવામાં સાવધાન થઈ ગયા. 109 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 157 पैश्चमः सर्गः धर्मस्तावदयं गृहस्थनिलयस्याधारभूता शिला, निःस्वस्यापि जनस्य वा निधिरयं दारिद्रयदुःखान्तकृत् / एतत्सुन्दर मालयं ह्युपत्नं विश्रान्तभूश्चेतसः, क्रोऽश्रीरुरुसश्च शीतलमही निर्वाणभूर्नेत्रयोः // 110 // यह धर्म गृहस्थरूपी घर की एक आधार भूत शिला है. धनसे रहित भी जन की यह दारिद्रय के दुःखों को चूर 2 कर देने वाली एक निधि है. जीवन का यह एक सर्वोत्तम भवन है, चित्त को रमाने का-जी को बहलाने का यही एक सुन्दर उपवन है. मन की थकावट को उतारने के लिये यही एक विश्रामभूमि है / छाती को ठंडक पहुंचाने वाली एक शीतल भूमि है. और आंखों की यही एक निर्वाण भूमि है. // 110 // આ ધર્મ ગૃહરથરૂપી ઘરને એક આધાર સ્તંભ છે. ધન રહિત જનની પણ આ દરિદ્રપણાના દુ:ખને ચૂરેચૂરા કરી નાખનાર એક નિધિ છે. જીવનનું આ એક સર્વોત્તમ ભવન છે. ચિત્તને રમાડવાનું એટલે કે જીવને બહેલાવવા માટે આ એક સુંદર ઉપવન છે. મનની થકાવટને ઉતારવા માટે આજ એક વિશ્રામભૂમિ છે. છાતીને શીતળતા પહોંચાડનારી આજ એક શીતળ ભૂમિ છે અને આંખોની આ એક નિર્વાણભૂમિ છે. 11 जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर श्रीघासीलाल अति विरचिते हिन्दीगुर्जरभाषानुवादसहिते लोकाशाहचरिते पञ्चमः सर्गः समाप्तः // 5 // Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 लोकाशाहचरिते अथ षष्टः सर्गः प्रारभ्यते अथैकदा तत्त्वविदां वरेण्यो गतो गुरूणां सविधे शरण्यः / जहर्ष भक्त्यानतपूर्वकायः शान्तं मुनीन्द्रं प्रसमीक्ष्य हैमः // 1 // अर्थ-एक दिन की बात है कि हैमचन्द्र जो कि तत्त्वज्ञानियों में श्रेष्ठ माने जाते थे और दीन हीन जनों को शरण देते थे. गुरुदेव के पास गये. उन शान्त मुनिराज को देखते ही उनका पूर्वकाय भक्ति से नम्रीभूत हो गया और उनके मन में अपार हर्ष का हिलोरे लेने लगा // 1 // તત્વજ્ઞાનમાં ઉત્તમ અને દીન હીનજનોને શરણું–આશ્રય આપનાર એવા હેમચંદ્ર શેઠ એક દિવસ ગુરૂદેવની સમીપે ગયા. શાંતભાવી એ મુનિરાજને જોઈને તેમનું શરીર ભક્તિભાવના અતિરેકથી નમ્ર બની ગયું અને તેમના મનમાં અત્યધિક એવા હર્ષના હિલેાળા આવવા લાગ્યા. सदस्यवगै विनियोपचारं कृतं गृहीत्वाऽनतमस्तकेन : विधाय भक्तिं स ननाम मूर्ना, गुणेः पदाजं प्रमदाश्रुनेत्रः // 2 // ___ अर्थ-पहिले से बैठे हुए सदस्यों ने जो इनका विनयोपचार किया उसे इन्होंने अपना मस्तक झुकाकर स्वीकार किया. उस समय इनकी दोनों आखों हर्ष के मारे उबडबा आई थी उसी स्थिति में गदगद कंठ होकर इन्हों ने गुरुदेव की भक्ति की और उसके अनन्तर उनके चरण कमलों में मस्तक नवाकर नमस्कार किया // 2 // પહેલેથી બેઠેલા સભાજનોએ તેમની આગળ વિનય બતાવે તેને તેમણે મસ્તક નમાવીને સ્વીકાર કર્યો. તે વખતે તેમની બન્ને આંખમાં હર્ષને લીધે અશ્રુ ભરાઈ આવ્યા. એ સ્થિતિમાં ગાદિત કંઠે તેમણે ગુરૂદેવની ભક્તિ કરી અને તે પછી તેમના ચરણ કમલેમાં મસ્તક નમાવીને નમસ્કાર કર્યા. રા गुरोः पदस्पर्शकृतार्थभूमि, उपाश्रयं श्रोतृजनेन रम्यम् / हैमो निरीक्ष्य क्षणमीक्षणाभ्यां भृशं महानन्दमसौ बभार // 3 // अर्थ-गुरुदेव के चरणों के स्पर्श से जहां की भूमि कृतकृत्य हो गई है ऐसे उपाश्रय को श्रोता जनों से सुहावना-भरा हुआ-देखकर एक क्षण के लिये हैमचन्द्र को अपार-अमन्द-आनन्द हुआ // 3 // ગુરૂદેવના ચરણેના સ્પર્શથી જ્યાંની ભૂમિ કૃત્યકૃત્ય બની ગઈ છે. એવા ઉપાશ્રયને રોતાજનોથી ભરપૂર જોઈને એક ક્ષણ હેમચંદ્રશેઠને અપાર–અમન્દ આનંદ . આવા Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः मनोनवद्वारनिषिद्धवृत्ति कृत्वा स्थिरं ध्यानगतं मुनीन्द्रम् / / 'मुहुर्मुहुर्यानतपूर्वकायस्त्रियोगशुद्धया स ननाम मूर्ना // 4 // __ अर्थ-नौ द्वारों में जिसकी वृत्ति निषिद्ध कर रखी है ऐसे अपने मन को करके ध्यान में स्थिर हुए मुनिराज को मन वचन और काध की शुद्धि पूर्वक बार २-तीन बार-उस हैमचन्द्र ने अपने आधे शरीर एवं मस्तक को झुकाकर नमस्कार किया // 4 // ની કારમાં જેની વૃત્તિ નિષિદ્ધ કરેલ છે. એવા પોતાના મનને રિથર કરીને ધ્યાનમાં લીન થયેલા મુનિરાજને મન, વચન અને કાર્યની શુદ્ધિપૂર્વક વારંવાર અર્થાત ત્રણવાર એ હેમચંદ્ર શેઠે પોતાનું અધું શરીર અને મરતકને નમાવીને નભરકાર કર્યા. 4 नमस्क्रियान्ते ह्युपविष्ट एषः, गुणानुगगी च विलोचनानि / संमील्य दध्मौ मुनिकायकान्ति निरीक्ष्य चित्ते स्वमनोऽनुकूलम् // 5 // अर्थ-नमस्कार करके ये वहीं पर बैठ गये; चूंकि ये गुणानुरागी थे, अतः इन्हों ने मुनिराज के शरीर की कान्ति को देखकर अपनी दोनों आंखों को बन्द कर लिया एवं मन में फिर इस प्रकार विचार किया // 5 // નમરકાર કરીને તે ત્યાં જ બેસી ગયા, કારણ કે તેઓ ગુણાનુરાગી હતા. તેથી તેમણે મુનિરાજના શરીરની કાંતિને જોઈને પોતાની બને આંખ બંધ કરી અને તે પછી મનમાં આ પ્રમાણે વિચાર કર્યો. પા . * नायं स्मरो देह समन्वितत्वात् देवोऽपि नौदारिककायवत्त्वात् / निशाकरोनाप्यकलंकवत्वादनुष्णगुस्वाद रविरप्ययं न // 6 // अर्थ-शरीर सहित होने के कारण यह कामदेव तो हो नहीं सकता. औदारिक शरीरवाला होने के कारण यह देव भी नहीं हो सकता, अकलंकहोने के कारण यह चन्द्रमा भी नहीं हो सकता एवं असंतापकारी वाणी-वाला होने के कारण यह सूर्य भी नहीं हो सकता-तहि॥६॥ શરીર યુક્ત હોવાથી આ કામદેવ તો નથી જ દારિક શરીવાળા હોવાથી આ દેવ પણ નથી કલંક રહિત હોવાથી આ ચંદ્રમાં પણ નથી અને સંતાપ રહિત વાણીવાળા હેવાથી આ સુર્ય પણ નથી. દા कोऽयं तपस्त्यद्भुनकायकान्त्या समन्वितोऽपूर्वमहौजसाढ्यः / क्षीणोऽपि देहेन तथापि सौम्ये रात्मप्रभावैर्दुर्लप्य एषः // 7 // Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160 लोकाशाहचरिते ___ अर्थ-तब फिर अनौखी कायकान्ति से युक्त एवं अपूर्व तेज से व्याप्त यह तपस्वी कौन है. यद्यपि यह शरीर से क्षीण है फिर भी अपने सौम्य प्रभाव से यह प्रशंसनीय है. // 7 // તે પછી અભૂત શરીરની કાન્તિવાળા અને અપૂર્વ તેજથી વ્યાપ્ત આ તારવી કાણ છે? જોકે આ શરીરથી ક્ષીણ-દુર્બળ છે તે પણ પોતાના સૌમ્ય પ્રભાવથી તેઓ પ્રશંસનીય છે. આવા इत्थं वितर्काधिगतः स हेमो ध्यानोत्थितं तं मुनिवर्यमार्यम् / निरीक्ष्य सम्यग् नियम ग्रहीतुं तस्यान्तिकं गन्तु मियेष भव्यः॥८।। अर्थ-इस प्रकार की तर्कणा में पड़े हुए उन हैमचन्द्र ने ध्यान से उठे हुए उन आर्य मुनिवर्य को देखकर उनके पास नियम लेने के लिये जाने का विचार किया // 8 // આ પ્રમાણેના તકમાં પડેલા એ હેમચંદ્ર ધ્યાનથી ઉઠેલા એ આર્ય યુનિયને દેખીને તેમની પાસે નિયમ લેવા માટે જવાને વિચાર કર્યો. તે अहो ! मुनीनां महतः प्रभावात् तपोधनानां तपसः पवित्रात् / शितिः पवित्रा भवतीति नूनं सत्यं तपस्याद्भुतशुद्धिहेतुः // 9 // अर्थ-ओह ! तप ही जिनका धन है ऐसे मुनिजनों के महान तप के पवित्र प्रभाव से भूमण्डल पवित्र हो जाता है यह बात सर्वथा सत्य है. क्यों कि तपस्या ही अदभुत शुद्धि का कारण है / / 9 // એડ! તપ એજ જેનું ધન છે એવા મુનિજનોના મહાન તપના પવિત્ર પ્રભાવથી ભૂમંડળ પવિત્ર થઈ જાય છે. આ વાત ખરેખર સાચી છે કેમકે તપસ્યા જ અદ્દભૂત શુદ્ધિનું કારણ છે. 9 धन्या धग सा जगति प्रसिद्धा जाता पदन्यासवशान्मुनीनाम् / तीर्थस्वरूपा हि सुसाधवोत्र पूज्या जगत्यां न शिलोचयाद्याः // 10 // अर्थ-वही भूमि जगत में प्रसिद्ध और तीर्थ स्वरूप होकर धन्य हुई है कि जहां मुनिजनों के चरण पडे हैं क्यों कि संसार में साधुजन ही पूज्य होते हैं. पहाड़ आदि नहीं // 10 // એજ ભૂમિ જગતમાં પ્રસિદ્ધ છે અને તીર્થરૂપ બનીને ધન્ય બની છે કે જ્યાં મુનિ. જનના ચરણે પડેલા છે. કેમકે-સંસારમાં સાધુજનો જ પૂજ્ય હોય છે. પહાડ વિગેરે नहीं // 10 // Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः न मन्दिरेऽन्तः प्रभुरस्ति नापि पाषाणखंडे न च शाणखंडे / दृषत्समुत्कीर्ण तदाकृतौ वा न सोऽन्य शुद्धात्ममयैकरूपात् // 11 // अर्थ-प्रभु न मन्दिर के भीतर है, न किसी पाषाणखण्ड में है, न शाणखण्ड में है और न पत्थर के ऊपर उकेरी गई प्रभु को आकृति में वह प्रभु है. क्यों कि प्रभु तो शुद्ध आत्म स्वरूप वाले है. // 11 // ઈશ્વર કોઈ મંદિરની અંદર નથી. તથા પત્થરના ટુકડામાં પણ નથી, એજ રીતે શાણ ખંડમાં પણ નથી અને પત્થરની ઉપર કોતરવામાં આવેલ પ્રભુની આકૃતિમાં પણ એ પ્રભુ નથી કેમકે પ્રભુ તે શુદ્ધ આત્મ સ્વરૂપ જ હોય છે. 11 तभारती सार्तिहरा जनानामभ्यस्य मानाऽल्पतरापि सम्यक / आपद्धिपत्यां पतितोऽपि जन्तुः सुरक्षितोऽजायत तत्प्रभावात् // 12 // अर्थ-उस देव की वह वाणी यदि थोड़ी भी जीवों द्वारा हृदयंगम अच्छी तरह से कर ली जावे तो उसके प्रभाव से आपत्ति और विपत्ति में पड़ा हुआ जन्तु-संज्ञो पंचेन्द्रिय पर्याप्त प्राणी अर्थात् मनुष्य सुरक्षित हो जाता है // 12 // એ દેવની એ વાણી થોડી પણ જીવે દ્વારા હૃદયંગમ સારી રીતે કરવામાં આવે તો એના પ્રભાવથી આપત્તિ અને વિપત્તિમાં પડેલ જંતુ સંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય પર્યાપ્ત પ્રાણી અર્થાત મનુષ્ય સુરક્ષિત થઈ જાય છે. ૧રા येषां पदन्यासपवित्रपांसु धराधरापीह वसुन्धराऽभूत् / * भवेच्च तेषां हृदयारविन्दे वासः कथं स्यान्न जनः स पूज्यः // 13 // अर्थ-जिन के चरणों के निक्षेप से पवित्र हो गई है धूलि जिसकी ऐसी अधरा-जिसका कोई सहारा नहीं है ऐसी-धरा-पृथ्वी भी जब वसुंधरा बन जाती है-तब जिसके हृदयकमल में उनका-गुरु-देवों का निवास है वह मनुष्य जगत्पूज्य क्यों नहीं हो जावेगा // 13 // - જેના ચરણના સ્પર્શ થી પવિત્ર થયેલ છે ધૂળ જેની એવી અધરા–જેનો કોઈ આધાર નથી એવી ધરા-પૃથ્વી પણ જયારે વસુંધરા બની જાય છે, ત્યારે જેના હૃદય કમળમાં તેમના ગુરૂદેવને નિવાસ છે એ મનુષ્ય જગપૂજય કેમ નહીં બને? અર્થાત જરૂર बने छ. // 1 // धन्या इमे मे गुरवः पवित्राः सम्यक्त्व सद्भावयुतान्तरङ्गाः / भवार्णवे सेतुनिभा यदीयं सदर्शनं पापविघातकृन्मे // 14 // Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 लोकाशाहचरिते ___ अर्थ-जिनका अन्तरङ्ग सम्यक्त्व के सदभाव से युक्त हो रहा है ऐसे ये मेरे पवित्र गुरुदेव धन्य हैं। ये संसार रूपी समुद्र में पुल के समान हैं. इनका दर्शन मेरे पापों का विनाशक है // 14 // જેમનું અંતઃકરણ સમ્યકત્વના સભાવથી યુક્ત બન્યું છે. એવા આ મારા પવિત્ર ગુરૂદેવ ધન્ય છે. તેઓ સંસારરૂપી સમુદ્રમાં પુલની સરખા છે. તેમનું દર્શન મારા પાપનું વિનાશક છે. 14 पुण्योदयेनैव मयाप्तमेतत्सद्दर्शनं पुण्यवताममीषाम् / पलभ्यमानं खलु तद्वयनक्ति पुण्योदयं पूर्वमुगार्जितं मे // 15 // अर्थ-पुण्यशाली इन गुरु देवों का दर्शन मैंने पुण्योदय से ही प्राप्त किया है, प्राप्त हो रहा यह दर्शन नियमतः मेरे पूर्वोपार्जित पुण्य को प्रकट करता है // 15 // પુણ્યશાળી એવા આ ગુરૂદેવનું દર્શન મેં પૂર્વના પુણ્યદયના પ્રભાવથી જ પ્રાપ્ત કર્યું છે. પ્રાપ્ત થતું આ દર્શન નિશ્ચય મારા પૂર્વોપાર્જીત પુણ્યને પ્રગટ કરે છે. Itપા युग्मम्पदेपदे ये खल्ल सन्ति दीनाः परस्यचौर्याय कृतप्रयत्नाः / हिंसारता वाऽनृतभाषिणो वा पराङ्गनालिङ्गनतत्परा वा // 16 // मन्ये न तैः क्वापि भवे मुनीनां तपस्विनां धर्ममयात्मनां वै / सदर्शनं वाथ हितोपदेशोऽप्राप्तोऽन्यथेटक प्रकृतिः कथं स्यात् // 17 // अर्थ-मैं तो ऐसा मानता हूं कि जगह 2 जो दीन-हीन पुरुष हैं, दूसरों के द्रव्य को चुराने में प्रयत्नशाली जो पुरुप हैं, हिंसा करने में दत्तचित्त जो पुरुष हैं, झूठ बोलने में प्रवीण जो पुरुष हैं और परस्त्रीसेवन करने में कटिबद्ध जो पुरुष हैं इन्हों ने किसी भी भव में धर्मात्मा तपस्वी मुनि महाराजों का न तो हितकारी उपदेश सुना है और न उनके पवित्र दर्शन ही किये हैं, यदि हितकारी उनका इन लोगों ने उपदेश सुना होता या उनके दर्शन किये होते तो उनकी इस प्रवृत्ति पर अङ्कुश अवश्य 2 लगा हुआ होता // 16-17 // तो मे भातु छु-स्थणे स्थणे नया हीन-हीन 53 // छ, अन्यना द्र०यने ચેવામાં પ્રયત્નશીલ જે પુરૂષ છે, હિંસા કરવામાં જેણે ચિત્ત પવેલ છે, હું બેલવામાં જે પુરૂષ પ્રવીણ છે અને પરસ્ત્રી સેવન કરવામાં કટિબદ્ધ જે પુરૂષ છે તેમણે ફેઈ પણ ભવમાં ધર્માત્મા તપસ્વી મુનિ મહારાજને હિતકર ઉપદેશ સાંભળ્યું નથી અને Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः તેમના પવિત્ર દર્શન પણ કર્યા નથી જે તેમનો હિતકર ઉપદેશ સાંભળે હેત અગર તેમના દર્શન કર્યો હોત તો તેમની આ પ્રવૃત્તિ પર અંકુશ લાગે હેત. 16-17 धन्या इमे मे गुखो गुणज्ञा स्तपोधना शान्तनिसर्ग रम्याः। येषां न काये ऽपि ममत्वमास्था अहो वितृष्णत्वममीषु कीटक् // 18 // अर्थ-गुणों की कदर करने वाले ये तपोधन मेरे गुरुदेव धन्य हैं जो कि शान्त स्वभाव से मनोहर हैं, जिन्हें अपने शरीर में भी ममता नहीं है, और न किसी प्रकार उसमें आस्था है, देखो-कैसी इनकी निस्पृहता है. // 18 // ગુણોની કદર કરવાવાળા આ તપોધન એવા મારા ગુરૂદેવને ધન્ય છે, કે જેવો શાંત સ્વભાવથી મનોહર છે, જેમને પોતાના શરીરમાં પણ મમત્વભાવ નથી અને કઈ પ્રકારની શરીરમાં આસ્થા નથી. જુઓ એમની નિરપૃહતા કેવી છે? I18 समत्व मेषां स्पृहणीयमेव पञ्चेन्द्रियाणां विषयेष्वरागात् / वशत्वमन्तः करणस्य सम्यक विनिग्रहो ध्यानवशात्प्रतीये // 19 // अर्थ-इन में जो समता है वह तो कमाल की है. स्पृहणीय है मैं ऐसी समता को धारण करलूं ऐसी इच्छा होती है. विषयों में इन्हें राग नहीं है. इससे ये इन्द्रियो के ऊपर विजय प्राप्त किये हैं, ध्यान के प्रभाव से मन भी इन्हों ने अपने आधीन कर लिया है, ऐसा मुझे प्रतीत होता है // 19 // તેમનામાં જે સમતા છે તે તો પૃહણીય છે. હું પણ એવી સમતાને ધારણ કરી લઉ એવી ઇચ્છા થાય છે, વિદ્યામાં તેમને રાગ નથી એથી તેમણે ઇન્દ્રિયની ઉપર વિજય પ્રાપ્ત કર્યો છે. ધ્યાનના પ્રભાવથી મન પણ તેમણે પિતાને વશ કરી લીધું છે, એમ મને भात्री थाय छे. // 18 // * धन्या धरेयं ह्यधरा ऽपि पादस्पर्श समाप्यास्य जनेषु जाता। मान्या यथाऽयोऽस्ति रसोपविद्ध सुवर्णभावं च बिभिति सम्यक् // 20 // .. अर्थ-यद्यपि यह धरा अधर है-निःसहाय-है फिर भी इस गुरुदेव के चरणों के स्पर्श को पाकर यह जनता में मान्य हो गई है. अर्थात् सहाय सहित हो गई है // 20 // જોકે આ ધરા અધર અર્થાત નિઃસહાય છે, તો પણ આ ગુરુદેવના ચરણોના પર્શને પામીને આ જગતમાં માન્ય બની ગઈ છે. એટલે કે સહાયયુક્ત બની છે. Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते अत्रान्तरेऽभूद्गुरुदेववाणी आकर्षयन्ती स्थितमानवानाम् / मनांसि, हैमोऽपि विचारमालां विहाय तां श्रोतुमना बभूव // 21 // अर्थ-इसी समय वहां बैठे हुए मनुष्यों के चित्त को आकर्षित करती हुई गुरुदेव की वाणी प्रकट हुई, हैमचन्द्र जो कि विचारों में मग्न थे अपनी विचार धारा को छोड़कर उस वाणी को सुनने के लिये उत्कंठित हो उठे // 21 // આ સમયે ત્યાં બેઠેલા મનુષ્યના ચિત્તને આકર્ષણ કરતી એવી ગુરૂદેવની વાણી પ્રગટ થઈ. હેમચંદ્રશેઠ કે જેઓ વિચારતંદ્રામાં હતા તેઓ એકદમ પિતાની વિચારધારાને છેડીને એ વાણી સાંભળવા તત્પર થયા. એરલા दयां विना निष्फल एव बाह्याचारः शृणु हदि संप्रधार्यम्।। आख्यानमेकं कथयामि तावच्चित्तं स्थिरीकृत्य विचारणीयम् // 22 / ___ अर्थ-हे महानुभावो ! सुनो और सुनकर हृदय में धारण करो कि दया के विना बाहरी आचार निष्फल ही है, इस विषय में मैं आप सब को एक आख्यान सुनाता हूं. सो उसे चित्त को स्थिर कर विचार करो // 22 // હે મહાનુભાવો ! સાંભળો અને સાંભળીને હૃદયમાં ધારણ કરે કે દયા વિના બહારને આચાર નિષ્ફળ જ છે. આ સંબંધમાં હું તમે સૌને અખ્યાન સંભળાવું છું તો તેને ચિત્તને સ્થિર કરીને સાંભળે. રરા आसीत्पुरा भूचर खेचराणां प्रियाऽमराणां नगरीव रम्या / भामाभिरामाऽप्सरसां विलासैः पूर्णा विशालाख्य पुरी विशाला // 23 // अर्थ-पहिले के समय में एक विशाला नामकी नगरी थी जो बहुत बड़ी थी. भूचरों और खेचरों-देवताओं को यह अत्यन्त प्रिय थी. भामाजनों से यह अभिराम थी तथा अप्सराओं के विलासों से यह परिपूर्ण थी, अतः यह अमरावती के जैसी सुहावनी थी // 23 // પૂર્વ કાળમાં એક વિશાલા નામની નગરી હતી. જે ઘણી જ મટી હતી. ભૂચરે અને એચ-દેવોને તે ઘણી જ પ્રિય હતી. ગ્નિથી શેભિત હતી. તથા અસરાઓના વિલાસેથી પરિપૂર્ણ હતી. તે અમરાવતીના જેવી શોભાયમાન હતી. ઘરકા पुण्येश्वरा विष्टरसंस्थिता हि सर्वाणि वस्तूनि विनैव यत्नात् / संप्राप्नुवन्तीह किमत्र चित्रं देवा अपि तांश्च भजन्त एव // 24 // Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः राकैव सर्वत्र चकास्ति तेषां सखास्ति येषां ननु पुण्यरत्नम् / अमायते जीवनमेव तेषां येषां सखा नास्ति च पुण्यरत्नम् // 25 // अर्थ-जो पुण्य के अधिपति हैं वे विना परिश्रम के ही समस्त वस्तुओं को अपनी गद्दी पर बैठे ही पा लिया करते हैं सो इसमें कोई अचरज की बात नहीं है। ऐसे पुण्यशालियों की तो देवतक भी सेवा किया करते हैं। जिन जीवों की मित्रता पुण्य रत्न के साथ है उनके जीवन में सर्वत्र ही पूर्णिमा है-प्रकाश है और जिनकी मित्रता पुण्य के साथ नहीं है उनका जीवन अमावास्या के समान अन्धकारमय है. // 24-25 // જે પુણ્યના સ્વામી છે તેઓ પરિશ્રમ વિના જ સઘળી વસ્તુઓને પિતાની ગાદી પર બેઠા બેઠા જ મેળવી લે છે. તો તેમાં કેઈ આશ્ચર્યની વાત નથી એવા પુણ્યશાળીયેની તે દે પણ સેવા કાર્યો કરે છે. જે જીવની મિત્રતા પુણ્યયુક્ત છે તેમના જીવનમાં બધે જ પૂર્ણિમા છે. અર્થાત્ પ્રકાશ પથરાયેલ છે. અને જેની મિત્રતા પુણ્યની સાથે નથી તેનું જીવન અમાવાસ્યા સરખું અંધકારયુક્ત છે. ર૪રપા बीजाहते नास्ति यथाऽङकुरस्य मूलं विना नैव च पादपस्य / समुद्भवो वा स्थिरता तथैव दयां विना क्यापि न धर्मजन्म // 26 // ___ अर्थ-जिस प्रकार बीज के विना अङ्कुर को उत्पत्ति नहीं होती है जड के विना वृक्ष की स्थिरता नहीं होती है उसी प्रकार दया के विना धर्म की 'उत्पत्ति नहीं होती है // 26 // જેમ વિના બીજ અંકુર ઉત્પન્ન થતો નથી મૂળ વિના વૃક્ષનું સ્થિરપણું થતું નથી. એજ રીતે દયા વિના ધર્મની ઉત્પત્તી થતી નથી. ર૬ विलोचनाभ्यां च यथाऽऽननस्य कराङ्गुलीभिश्च यथाकरस्य / श्रीरस्त्यहंतोक्तिवशात्तथैव धर्मस्य सास्तीह न तदिनाऽसौ // 27 // अर्थ -जिस प्रकार दोनों नेत्रों से सुख की शोभा होती है, अङ्गुलियों से हाथ की शोभा होती है, उसी प्रकार दया से धर्म की शोभा होती है. दया के विना नहीं // 27 // જેમ બને આંખોથી મુખની શોભા દેખાય છે, આંગળીથી હાથની શોભા જણાય છે, એજ પ્રમાણે દયાથી ધર્મની શોભા થાય છે. દયા વિના નહીં. પારણા Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते दयाङ्गिनामत्र परत्र लोके सर्वत्र शान्ति प्रददाति नित्यम् / एतद्विना केवलमस्ति बाह्याचारोऽसदाचारनिभः स हेयः // 28 // अर्थ-दया जीवों को इसलोक में और परलोक में नित्य शान्ति प्रदान करती है. इसके विना बाह्य जितना भी आचार है वह सब असदाचार के समान है और छोडने योग्य है // 28 // દયા જેને આ લેકમાં અને પરલોકમાં નિત્ય શાંતી આપે છે. તેના વિના જે કોઈ બાહ્ય આચાર છે, તે બધા અસદાચારની સમાન છે અને ત્યજવા યોગ્ય છે. સારા दया द्विधा स्वस्य परस्य भेदात् रागाद्यभावः प्रथमा सती सा। सत्त्वानुकंग भवति द्वितीया तस्यां च सत्यां नियमेन चेयम् // 29 // .. अर्थ-दया दो प्रकार की होती है एक स्वदया और दूसरी परदया. आत्मा में रागादिरूप भावों का नहीं उठना यह स्वदया है. और यही उत्कृष्ट दया है. जीवों के ऊपर जो अनुकंपा है वह पर दया है। स्वदया के होने पर नियम से परदद्या का अस्तित्व रहता है. // 29 // દયા બે પ્રકારની હોય છે, એક સ્વદયા અને બીજી પદયાં આત્મામાં રાગાદિભાવનું ન ઉઠવું તે સ્વદયા છે. અને એજ ઉત્કૃષ્ટ દયા છે. જેની ઉપર જે અનુકંપા છે, તે પદયા છે, સ્વદયા હોય તો અવશ્ય પદયાનું અસ્તિત્વ રહે જ છે. અરલા एकेन्द्रियाद्या खलु देहिनस्ते भवन्ति जीवा निखिला भवस्थाः / पंचेन्द्रियान्ता गदितास्त्रसस्थावरा इमे सनि विकल्पबन्तः // 30 // अर्थ-जितने एकेन्द्रियादिक जीव हैं-वे सब संसारी जीव हैं. ये संसारी जीव दो प्रकार के होते हैं-एक बस और दूसरे स्थावर // 30 // જેટલા એકેદ્રિયાદિ જીવ છે એ બધા સંસારી જીવે છે, આ સંસારી જીવ બે પ્રકારના હેય છે. એક ત્રસ અને બીજા સ્થાવર. 3 एकेन्द्रिया भूजलवायुवढे वनस्पतीनां च विभेदतः स्युः / अनेकधैषां वपुरायुरादेर्मानं प्रणीतं च जिनागमेषु // 31 // अर्थ-पृथ्वी, अप् , तेजः, वायु और वनस्पति ये सब एकेन्द्रिय जीव हैं. इन जीवों के और भी अनेक प्रभेद हैं. इनकी आयु, शरीर आदि का प्रमाण आगम शास्त्रों में कहा गया है. // 31 // Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः 167 પૃથ્વી, અપૂ તેજ, વાયુ અને વનરપતિ આ બધા એકેન્દ્રિય જીવે છે. આ જીના - બીજા પણ અનેક ભેદપભેદ છે. તેમનું આયુષ્ય શરીર આદિનું પ્રમાણ આગમોમાં કહેવામાં આવેલ છે. 31 त्रसाश्च ते द्वित्रिचतु हृषीकै युतास्तथा पंचभिरिन्द्रियैश्च / इमे चतुर्धा गदिता दयाः संकल्पतो नैव कदापि पीड्याः // 32 // अर्थ-जो जीव दो इन्द्रियों से तीन इन्द्रियों से, चार इन्द्रियों से एवं पांच इन्द्रियों से युक्त हैं वे सब त्रसजीव हैं इस प्रकार ये सजीव 4 चार प्रकार के हैं. ये सब दया के योग्य हैं. गृहस्थ इनको संकल्प से हिंसा नहीं करता है // 32 // . જે જીવ બે ઈંદ્રિયેથી ત્રણ ઈદ્રિયેથી, ચાર ઈદ્રિયોથી અને પાંચ ઈંદ્રિયથી યુક્ત છે, એ બધા ત્રસ જીવે છે, આ રીતે એ ત્રસ જીવ ચાર પ્રકારના છે. એ બધા દયાને યોગ્ય છે. ગૃહરથ સંકલ્પથી પણ તેમની હિંસા કરતા નથી. ૩રા इत्थं दयास्थानमसौ निरूप्य प्रस्तूयमानं तदुदन्तमूचे / निदर्शनोक्त्या खलु गम्यमानज्ञेयस्य पुष्टि भवतीति सम्यक् // 33 // अर्थ-इस प्रकार से दया के स्थान जीव का निरूपण करके उन गुरुदेव ने प्रस्तुत दृष्टान्त के वृत्तान्त का कथन करना प्रारंभ किया. क्योंकि दृष्टान्त के कथन से गम्यमान विषय की अच्छी तरह से पुष्टि हो जाती है // 33 // આ પ્રમાણે દયાના સ્થાનરૂપ જીવોનું નિરૂપણ કરીને એ ગુરૂદેવે પ્રસ્તુત દષ્ટાંતના વૃત્તાંતનું કથન કરવાને પ્રારંભ કર્યો, કેમકે-દષ્ટાંતના કથનથી ચાલુ વિષયની સારી રીતે પુષ્ટિ થાય છે. ઉકા आसीदेकः फलिततरुभिः संकुलान्तः प्रदेशः, पक्षिवाता कुलितविटपव्याप्त दिकचक्रवालैः / पुष्पश्रेण्या वितरित सुगन्धान्धगन्धान्ध यूथः, रम्या रामो नगर निकटे निर्झरन्निर्झराम्भा // 34 // ... अर्थ-उस नगरी के पास एक सुन्दर बगीचा था. जिसका भीतरी भाग फलयुक्त वृक्षों से सघन था. वृक्षों की शाखाएँ दूर 2 तक फैली हुई थीं उन पर पक्षियों का समूह बैठा रहता था. बगीचे में खिले हुए फूलों की सुगंधि Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 लोकाशाहचरिते से खिंचा हुआ भ्रमरों का समूह उन पर बैठा रहता था। इस में एक स्वच्छ जल का झरना था. // 34 // એ નગરીની પાસે એક સુંદર બગીચે હતા. જેની અંદર ભાગ ફળવાળા ઝાડાથી ગીચ હતો. વૃક્ષની ડાળ દૂર દૂર સુધી ફેલાયેલ હતી. તેના પર પક્ષિને સમૂહ બેસી રહેતો હતો. બગીચામાં ખીલેલા ફૂલોની સુગંધીથી ખેંચાયેલ ભમરાઓને સમૂહ તેની પર બેસી રહેતો હતો તેમાં એક ચખા જળનું ઝરણું હતું. હજા काचि द्वामा तरलनयना चन्द्रिका हेपयन्ती, ___कान्त्या यूनां मनसि विविधाः कल्पनाः कारयन्ती। अंगाकृत्या करकुशलतां व्यञ्जयन्ती विरञ्चेः, धृता कुम्भं शिरसि मदनागारभूमेश्वचाल // 35 // अर्थ-कोई एक स्त्री उस झरने से पानी भरने के लिये अपने घर से मस्तक पर घडा रखकर निकली. वह इतनी सुन्दर थी कि चन्द्रिका भी उसे देखकर लजाती, एवं तरुण व्यक्ति उसकी कान्ति से प्रभावित होकर अपने मनमें अनेक प्रकार की कल्पना करने लग जाते वह सौन्दर्य की अनुपम रचना थी. // 35 // કોઈ એક સ્ત્રી એ ઝરણામાંથી પાણી ભરવા પોતાના ઘેરથી માથા પર બેડું રાખીને નીકળી. એ સ્ત્રી એટલી બધી સુંદર હતી કે ચન્દ્રિકા પણ તેને જોઈને શરમાતી અને યુવાન વ્યક્તિ તેની રમણીયતાથી આકર્ષાઈને પિતાના મનમાં અનેક પ્રકારની કલ્પના કરવા લાગી જતા. એના સૌદર્યની અનુપમ રચના હતી. ઉપા वैरं स्वैरं चरणकमलं निःक्षिपन्ती सलीलं, ___ प्रापत्तन्वी धृतकरघटोद्यानभूमि मनोज्ञाम् / तस्मिन् काले श्रमपरिंगतो वृद्ध एक स्तृषार्तः, आगात्तत्र श्लथतनुनिधि यष्टिपाणि नंताङ्गः // 36 // अर्थ-धीरे 2 अपने पैरों को बढाती हुई वह तन्वी सुन्दर उस उद्यान में पहुँची. इतने में ही मार्गश्रम से थका हुवा एक वृद्ध जो कि प्यास से आकुलित हो रहा था. वहां पर आ गया. हाथ में उसके एक लाठी थी. कमर उसकी झुकी हुई थी // 36 // ધીરે ધીરે પિતાના ડગલા વધારીને એ સુંદશંગી રમણીય એવા એ ઉઘાનમાં પહોંચી. Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः એટલામાં જ માર્ગના શ્રમથી થાકેલ એક વૃદ્ધ કે જે તરસથી વ્યાકુળ થઈ ગયો હતો ત્યાં આવ્યું. તેના હાથમાં એક લાકડી હતી. તેની કમર નમી ગઈ હતી. 36. सान्द्रां छायां श्रमितकृशकायो विभाव्यागामार्गम् , __गन्तुं सोऽयं बलविरहितोऽभूत्तदानीमशक्तः / विश्रान्त्यर्थं निहितलकुटस्तत्र भूमौ न्यपपात् , वृद्ध प्राणी भवति नितरामाश्रयाधीनवृत्तिः॥३७॥ अर्थ-वह वृद्ध मार्गश्रम से थक गया था अतः घनी छाया देखकर वह वहां ठहर गया. आगे जाने की उसमें उस समय शक्ति रही नहीं विश्राम करने के निमित्त वह वहीं जमीन पर लेट गया. एक तरफ उसने अपनी लकडी रखदी. सच बात है वृद्धावस्था ही ऐसी होती है कि जिसमें पराश्रय लिये विना काम नहीं चलता. // 37 // એ વૃદ્ધ પુરૂષ રતાના પરિશ્રમથી થાકી ગયે હતો. તેથી ગાઢ છાયા જોઈને તે ત્યાં બેસી ગયે. આગળ જવાની તેનામાં તે સમયે શક્તિ રહી નહેતી થાક ઉતારવા માટે તે ત્યાં જ જમીન પર સૂઈ ગયે. એક તરફ તેણે પિતાની લાકડી મૂકી દીધી સાચી જ વાત છે કે વૃદ્ધાવસ્થા જ એવી હોય છે કે જેમાં અન્યને સહારો લીધા વિના ચાલતું नयी. // 37 // पानीयार्थी दिशि दिशि भृशं शुष्ककंठस्तृषाऽसौ, ____ वीक्षांचके जिगमिषुरहो वा स्थलं किन्त्वशक्तेः / यातुं तत्रामवदयनुत्साहचित्तः स खिन्नः, __शक्त्या लभ्ये शिथिलवपुषो दुःखदा चित्तवृत्तिः // 38 // अर्थ-प्यासा तो यह था ही. अतः यह पानी को चाहना से इधर उधर पानी की तलाश करने लगा, शक्ति उसमें इतनी रही नहीं कि वह स्वयं जाकर किसी जलाशय पर पहुंच जावे. प्यास से उसका कंठ सूख चुका था उत्साह ने उससे बिदा मांगली थी. ऐसी अपनी स्थिति पर वह दुःखी हो रहा था. ठीक बात है जो चीज शक्ति के द्वारा प्राप्त होने योग्य होती है. उसकी प्राप्ति की यदि क्षीणशक्तिवाला कामना करे-तो उसे कष्ट के सिवाय और क्या प्राप्त हो सकता है // 38 // - એ તર તો હતો જ તેથી પાણી મેળવવાની ઈચ્છાથી આમતેમ પાણી માટે તપાસ કા લાગે. તેનામાં એટલી શક્તિ રહી ન હતી કે પિતે જઈને કેાઈ જલાશય પર પહોંચી Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते જાય. તરસથી તેને કંઠ સુકાઈ રહ્યો હતો. તેનામાં ઉત્સાહ હતો જ નહીં તેવી પિતાની અવસ્થા પર તે દુઃખી થઈ રહ્યો હતે. એ ઠીક જ છે કે જે ચીજ શક્તિથી પ્રાપ્ત થવાને ગ્ય છે તેની પ્રાપ્તિની ઇચ્છા જો ક્ષીણ શક્તિવાળો કરે તે તેને કષ્ટ વિના બીજું શું પ્રાપ્ત થઈ શકે?ti૩૮ अम्भःपूर्ण कलशयुगलं मूर्ध्नि धृत्वा प्रयान्तीम् , घात्रा स्रष्टां कुचकठिनतां पादयोः प्रार्थयन्तीम् / बलगत्तुङ्ग स्तनभरमहामन्दगत्या वजन्तोम्, . श्यामां बामाममरयुवति वाऽऽलुलोके तदाऽसौ // 39 // अर्थ-उसी समय उसने देखा कि देवाङ्गना के जैसी कोई एक सुन्दरी तरुण नारी पानी से भरे हुए दो कलशों को मस्तक पर रखकर मन्द 2 गमन करती आ रही है. // 39 // એજ સમયે તેણે જોયું કે દેવાંગના સરખી કોઈ એક સુંદરી પાણીથી ભરેલા બે વાસણને મસ્તક પર રાખીને ધીરે ધીરે આવી રહી છે. ઉદા तां तन्वगी निधिमिव दरिद्रः प्रमोदप्रकर्ष, क्षुत्क्षामो व्यञ्जनमिव महा तुष्टिपुष्टि विति / दृष्ट्वा डिस्भः पुलकितमुखं क्रन्दनाढयो यथाऽम्वां तद्ववृद्धोऽप्यहमिवमनां वापरां प्राप शान्तिम् // 40 // जिस प्रकार दरिद्र निधि को देखकर अपार हर्ष को धारण करता है. भूखा भोजन को देखकर संतोष को प्राप्त करता है रोता हुआ बालक मांको देखकर पुलकित मुखवाला हो जाता है. उसी प्रकार उस वृद्ध ने भी उस तन्वंगी को देखकर वचनातीत शांति को प्राप्त किया. // 40 // જેમ દરિદ્ર પુરૂષ ધનભંડાર જોઈને અત્યંત હર્ષિત થાય છે. ભૂખે ભેજનની સામગ્રી જોઈને સંતોષ ધારણ કરે છે. રડતું બાળક પિતાની માતાને જોઇને હર્ષિત મુખવાળું થઈ જાય છે. એ જ પ્રમાણે એ વૃદ્ધને પણ એ સુંદરાંગી સ્ત્રીને જોઈને અવર્ણનીય શાંતી થઈ. 41 तामाकृत्या हृदि करुणया व्याप्तचित्तां प्रधार्य, .. मत्त्वाऽनन्तामुपकृतितति ब्रह्मणस्तद्विधातुः। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंण्डः सर्गः वाण्याऽमोचद् भगिनि ! सुभगे ! दीनयोदन्ययार्ता, .. याभ्या भे पायय कुरु कृपां देवि ! भूयाच्छु ते // 41 // अर्थ-"सुहावनी आकृति में गुग वसते हैं" इस नीति के अनुसार उस वृद्ध ने उसे दयालु समझा-और उसे बनाने वाले विधाता का अनन्त उपकार माना बाद में उसने दीनता भरी वाणी से उससे ऐसा कहा कि हे भगिनि ! मैं प्यास से आकुलित हो रहा है अतः मुझे दयाकर पानी पिलादे. (भगवान् ) तेरा भला करेगा // 41 // સુંદર આકૃતિમાં ગુણ વસે છે. એ નીતિ અનુસાર એ વૃદ્ધે તેને દયાળુ જાણી અને તેને બનાવનાર વિધાતાને અનન્ત ઉપકાર માન્યો, તે પછી તેણે દીનતાવાળી વાણીથી તેને આ પ્રમાણે કહ્યું બહેન! હું તરસથી અકળાઈ ગયે છું તેથી દયા કરીને મને પાણી પીવડાવી દે ભગવાન તારું ભલું કરશે. 41 श्रुत्वैवं सा झटिति कुपिता निर्निमेषाक्षियुग्मा, ___ऊचेऽन्यस्त्वं किमिह पुरतो प्रेक्षसे यन्न नीरम् / गत्त्वा तत्र प्रशमन तृपां नातिदूरं च तत्ते, हस्तौ पादौ विकृतिरहितो याचसे लज्जसे न // 42 // अर्थ-बुड़े की इस बात को सुनकर उसे बड़ा आश्चर्य हुआ. उसी समय वह क्रोध में भरकर उससे कहने लगी क्या तुम अन्धे हो जो पास में रहे हुए पानी को भी नहीं देख सकते हों; वहां जाकर अपनी प्यास बुझाओ. पानी . यहां से बहुत दूर नहीं है। हाथ पैर भी तुम्हारे ठीक हैं. उनमें कोई खामी नहीं है फिर भी तुम पानी मांग रहे हो तुम्हें इसमें शर्म आनी चाहिये // 42 // વૃદ્ધ પુરૂષની એ વાત સાંભળીને તેને ઘણું જ આશ્ચર્ય થયું. તે જ સમયે તે કે કરીને વૃદ્ધને કહેવા લાગી શું તું આંધળો છું, કે નજીકમાં રહેલા પાણીને જોઈ શકો નથી ? ત્યાં જઈને પોતાની તરસ શાંત કરે. પાણી અહીંથી બહુ દૂર નથી. તમારા હાથપગ પણ બરોબર છે. તેમાં કંઈ જ ખામી નથી, તો પણ તમે પાણી માગે છે. એ માટે તમને શરમ આવવી જોઈએ. જરા वृद्धोऽवादीद्भगिनि ! दयनीयो जनोऽयं न चान्धः, पाणी पादौ न विकृति युती साम्प्रतं तौ तथास्तः / मार्गोभृतश्रमपरिवशात्क्षीणसत्त्वं वपु में, __ वारिस्थानं जिगमिषुमनाः किन्तु गन्तुं न शक्तः // 43 // Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172 लोकाशाहचरिते अर्थ-वृद्ध ने कहा हे बहिन ! यह मनुष्य दया करने योग्य है. यह अन्धा नहीं है और न हाथ पैर इसके खराब है. परन्तु इस समय वे रास्ता चलने के कारण शिथिल हो रहे हैं. वृद्धावस्था होने से मेरा शरीर भी शक्ति हीन हो रहा है अतः मैं चाहता तो हूं कि मैं इस झरने के पास जाकर वहां अपनी प्यास शान्त करलूं-किन्तु इस समय मैं वहां जाने में समर्थ नहीं हो रहा हूं // 43 // વૃદ્ધે કહ્યું અરે બહેન ! આ મનુષ્ય દયા કરવા જેવો છે, એ આંધળો નથી તેમજ તેના હાથપગ પણ ખરાબ નથી. પરંતુ અત્યારે રસ્તામાં ચાલવાથી નરમ પડી ગયેલ છે. વૃદ્ધાવસ્થા હોવાથી મારું શરીર પણ ક્ષીણ શક્તિવાળું બની ગયું છે. તેથી હું ઇચ્છું તે. છું કે હું પિતે આ ઝરણા પાસે જઈને ત્યાં મારી તરસ શાંત કરૂં. પરંતુ અત્યારે હું ત્યાં જઈ શકવાને સમર્થ નથી, જવા आकणवं विकृतनयना यौवनोन्मादिनीय, कस्ते वंशः कुत इह समागाश्च बन्धुर्नवास्ति। गतव्यं किं स्थलमिति जगी व्याकुलीकृत्य वृद्धम् , प्रश्नरेभि भवति शुभकार्येऽलसा मत्तवृत्तिः // 44 // अर्थ-वृद्ध की इस बात को सुनकर यौवन के उन्माद से भरी हुई वह उससे पूछने लगी कि तुम किस जाति के हो यहां कहां से आये हुए हो घर में तुम्हारा कोई बन्धु है या नहीं तुम्हें कहां जाना है. इस प्रकार के प्रश्नों से उसने उस वृद्ध को व्याकुल बना दिया. ठीक बात है-अच्छे कार्य में मदोन्मत्त व्यक्तियोंकी चित्तवृत्ति प्रमादपतित हो जाया करती है // 44 // વૃદ્ધની એ વાત સાંભળીને જુવાનીની ભરતીથી ભરેલી તે એ વૃદ્ધને પૂછવા લાગી. કે તમે કઈ જાતના છે? અહીં ક્યાંથી આવ્યા છો ? ઘેર તમારે કોઈ હિતેચ્છુ છે કે નહીં? તમારે કયાં જવું છે? આવા પ્રકારના પ્રશ્નોથી તેણે એ વૃદ્ધને અકળાવી મૂકે ઠીક જ છે કે-સારા કામમાં ઉન્મત્ત વ્યક્તિની ચિત્તવૃત્તિ પ્રમાદથી પતિત થઈ જાય છે. 4 जात्या शूद्रो जगति मम बन्धुनिजः कोऽपि नास्ति, अस्म्येकाकी हृतसुतकलत्रादिसंपत् यमेन / अन्यग्रामादहमिह समागां व्रजाम्यन्यपुयाँ, मित्राभ्यर्णे गिरिधरमुरारेः सुदामेव पार्श्व // 45 // अर्थ-घुड़े ने कहा-मैं जाति का शूद्र है, संसार में मेरा निज का कोई बन्धु नहीं है. मैं अकेला ही हूं; पुत्र कलत्र आदि सब काल कवलित हो चुके Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः - - हैं. मैं दूसरे गांव का हूं. वहां से यहां आया हूं. दूसरे गांव मित्र के पास कृष्ण के पास सुदामा की तरह जा रहा हूं // 45 / / તે વૃદ્ધે કહ્યું હું શુદ્ર જાતનો છું જગતમાં મારો નજીકનો કોઈ બંધુ નથી, હું એક લેજ છું સ્ત્રી, પુત્ર વિગેરે બધા કાળનો કોળીયા બની ગયા છે. હું બીજા ગામે મિત્રરૂપ કૃષ્ણની પાસે સુદામાની જેમ જ છું. ૪પા क्वास्ते पात्रं पिबसि सलिलं प्रत्यहं यत्र भृत्वा, ___पातुं तस्मिन् हिमकरनिभं ते ददेऽम्भो यथेच्छम् / तस्याः श्रुत्वाऽमृतरसझरस्यन्दिनी वाचमित्थम् , . सन्तुष्टोऽभूद्वयपगतपथश्रान्तिखि तत्क्षणेऽसौ // 46 // अर्थ-तब उस नारीने उससे ऐसा कहा-जिसमें भरकर तुम प्रतिदिन पानी पीते हो ऐसा वह पात्र तुम्हारा कहां है. मैं तुम्हें पीने के लिये पानी उसमें डाल देती हूं सो जितना तुम्हें पीना हो उतना पी लेना. उसकी इस प्रकार की वाणी सुनकर वह वृद्ध इतना सन्तुष्ट हुआ कि मानों उसका मार्ग खेद सब दूर हो गया // 46 // ત્યારે એ સ્ત્રીએ તેને કહ્યું–જેમાં ભરીને તમે દરરોજ પાણી પીતા છે એવું તમારું પાત્ર કયાં છે? હું તમને પીવા માટેનું પાણી તેમાં નાખી આપું. તો તમારે જેટલું પીવું હાય એટલું પીય લે છે. તેની આ પ્રકારની વાણી સાંભળીને એ વૃદ્ધ એટલે બધે ખુશ થયો કે તેના માર્ગને તમામ પરિશ્રમ એકદમ મટિ ગયે. દા नत्वा कृत्वाऽऽनन तटगतं सोऽञ्जलि द्रागुवाच, नीरं देहि त्वमिह कृपया देवि ! पात्रं ममेदम् / भूमिः शय्या ह्युपधिरधुना दोः सखा मेऽत्र यष्टिः पादौ यानं गतविभवपुंसोऽत्र कोऽन्यः सहायः // 47 // अर्थ-उसी समय उसने उसे नमस्कार किया और फिर हाथों की अंजलि बनाकर उसे उसने अपने मुख पर रखा और कहा हे देवि ! दयाकर इसमें पानी डाल. मेरा यही पात्र है. जनीन ही मेरी शय्या है बाह ही मेरे लिये तकिया हैं मेरी लफडी ही मेरा मित्र है और मेरे ये दोनों पैर ही मेरे लिये सवारी है क्योंकि जब मनुष्य विभव हान हो जाता है तब इनके सिवाय उसका और कोई सहायक नहीं होता // 47 // Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते એજ વખતે તેણે તેમને નમસ્કાર કર્યા અને બે હાથની અંજલી બનાવી તેને તેણે પિતાના મુખ પર રાખી અને કહ્યું હે દેવી ! દવાકર આમાં પાણી નાખ મારું આજ પાત્ર છે. જમીન જ મારી પથારી છે. બાવડા જ મારો તકિયે છે. મારી લાકડી જ મારો મિત્ર છે અને મારા આ બેઉ પગો જ મારું વાહન છે. કેમકે જ્યારે માણસ વૈભવ રહિત બની જાય છે, ત્યારે આના વિના તેને અન્ય કોઈ સહાયક હેતો નથી. પછી इत्युक्ते सा जललवकणैरंजलेः संपतद्भिः, स्पृष्टाऽस्पृश्या मम तनुभवेच्छाटिकैवं शशक्के / तसंपर्कादहमपि तथा वारि वा पात्रमेतत् , ___ वृद्धायास्मै जलवितरणाद्धाऽशुचि स्याच्च सर्वम् // 48 // अर्थ-बुड़े ने जब ऐसा कहा तो उसने अपने मन में ऐसा विचार किया कि जब मैं इसकी अंजली में पीने के लिये पानी डालूंगी तो उसकी अंजलि से पानी के छीटे बहार पडेंगे और वे मेरे ऊपर आवेंगे, अतः मैं उनसे स्पृष्ट होती हुई अपवित्र हो जाऊंगी और यह मेरी पहिरी हुई धोती भी अपवित्र हो जावेगी. जल अपवित्र हो जावेगा मेरे ये पात्र भी अपवित्र हो जावेंगे, इस तरह इस एक शूद्र बुड़े को जल पिलाने से मेरा तो सब का सा अपवित्र हो जावेगा. // 48 // એ વૃદ્ધ જયારે એ રીતે કહ્યું, ત્યારે તે સ્ત્રીએ પોતાના મનમાં એવો વિચાર કર્યો કેજ્યારે હું તેના બેબામાં પીવા માટે પાણી નાખીશ તે તેના ખેલામાંથી પાણીનાં છાંટા બહાર પડશે અને એ મારા પર આવશે, તેથી હું તેનાથી સ્પર્શાઇને અપવિત્ર થઇશ અને આ મારી પહેરેલી સાડી પણ અપવિત્ર થશે, પાણી અપવિત્ર થશે મારા આ વાસણે અપવિત્ર થશે. આ રીતે આ શદ્ર પુરૂષને પાણી પાવાથી મારી તમામ વસ્તુઓ અપવિત્ર થઈ જશે. 48 इत्याशङ्काकुलितहृदया सा च भङ्गयन्तरेणा गादीत्पात्रं यदि करपुटो नाम्बु दातुं क्षमाऽहम् / पात्रं न्यस्तं शिरसि गलितं शीघ्रमेवं कृते स्यात्, भंगस्तस्मात्करचरणयोस्तेच मेवात्र भानी // 49 // अर्थ-इस प्रकार अपने शरीर, साड़ी और वर्तनों के अपवित्र हो जाने की आशंका से आकुलित हृदयवाली उस गर्वीली महिलाने इस बुड़ेसे बहाना बनाकर इस प्रकार कहा कि यदि तुम खोया बनाकर पानी पीना चाहते हो तो Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 175 षष्ठः सर्गः मैं तुम्हें पानी नहीं पिला सकती हूं. क्योंकि खोवा में अंजलि में पानी डालने के लिये मुझे झुकना पड़ेगा ऐसी स्थिति में मस्तक पर रखे हुए पानी से भरे पात्र-वर्तन-बहुत ही जल्दी नीचे गिर जावेंगे और इस तरह की क्रिया से तुम्हारे और मेरे हाथ पैरों में चोट आजावेगी. // 49 // આ પ્રમાણે પોતાનું શરીર, સાડી અને વાસણોના અપવિત્ર થવાની શંકાથી વ્યાકુલ હૃદયવાળી એ ગર્વિષ્ટ સ્ત્રીએ એ વૃદ્ધને બહાનું કહાડીને આ પ્રમાણે કહ્યું કે જો તમે ખોબામાં પાણી પીવાની ઇચ્છા રાખતા હે તો હું તમને પાણી પાઈ શકીશ નહીં. કેમકે બબામાં પાણી નાખવા માટે મારે નમવું પડે તે સમયે માથા પર રાખેલ પાણીથી ભરેલ વાસણ એકદમ નીચે પડી જાય અને તેમ થવાથી તમારા અને મારા હાથમાં લાગી જાય. 4 यस्मिन लामो भवति बहुला हानि संभावनाऽल्यः, कृत्यं तत्तु क्वचिदपि कदाचिन्न कृत्यं महद्भिः। एतन्मार्गो जगति विदितः किन्न जानासि नीतेः; __ वाञ्छन्त्या मे तदनु सरणं संविधेयं शुभं ते // 50 // अर्थ-जिस कार्य में लाभ तो थोड़ा हो और हानी होने की संभावना बहुत होता कार्य कभी भी कहीं पर महान् पुरुषों को नहीं करना चाहिये। जगत्प्रसिद्ध यह नीति का मार्ग है / सो क्या तुम इसे नहीं जानते हो ? अतः तुम्हारा हित चाहने वाली मुझे इस मार्ग का अनुसरण करना चाहिये. // 50 // જે કાર્યમાં લાભ થડો હોય અને નુકશાન વધુ પડતું થવાનો સંભવ હોય એવું કામ કરે ય કયાંઈ પણ મહાન પુરૂષોએ કરવું ન જોઈએ. આ જગત પ્રસિદ્ધ નીતિનો માર્ગ છે. તે શું તમે તેને જાણતા નથી ? તો તમારું હિત ઇચ્છતી મારે આ માર્ગનું અનુસરણ કરવું જોઈએ. પ. उक्त्वैवं सा विवृतवदनं गुण्ठित संविधाय, ___अवाजीद्धा सकलजनता सत्कृपापात्रवृद्धे / कृत्त्वोपेक्षां वदत करुणा वर्जितत्वात् किमेषः, बाह्याचारो भवति भविनां श्रेयसे खादयाय // 51 // अर्थ-इस प्रकार कह कर वह अपने खुले हुए मुख को बूंबट से युक्त करके वहां से चली गई. जो सकल जनता का कृपा का पात्र हो जाता है ऐसे उस वृद्ध Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते के ऊपर उसने उपेक्षा की अतः कहो ! क्या ऐसा बाह्याचार करुणा से रहित होने के कारण क्या आत्मा के कल्याण का कारक बन सकता है / और क्या प्राणी ऐसे कोरे बाह्याचार से अपनी उन्नति कर सकता है // 51 // આ પ્રમાણે કહીને તે પિતાના ઉઘાડેલા મુખને ઘૂંઘટથી બંધ કરીને ત્યાંથી ચાલી ગઈ. જે તમામ જનતાના કૃપાપાત્ર બની જાય છે, એવા એ વૃદ્ધ પુરૂષની ઉપર તેણે ઉપેક્ષા કરી. તે કહે છે બાહ્યાચાર દયા વિનાનો હોવાથી આત્માના કલ્યાણકારક બની શકશે? અને શું પ્રાણી આવા કોરા બાહ્યાચારથી પિતાની ઉન્નતિ કરી શકે છે ? 51 व्यावहारिककार्येषु यतनामावहेद्गृही। यतनापूर्वकं कार्य क्रियमाणं न दोषत् // 52 // अर्थ-व्यावहारिक कार्यों में प्रतिदिन के कामों में-गृहस्थ का यही कर्तव्य है कि वह उन्हें यतनाचार पूर्वक करे-क्योंकि यालाचारपूर्वक किया जाता कार्य दोषप्रद नहीं होता। प्रमाद से किया गया कार्य ही दोष दायक होता है // 52 // વ્યાવહારિક કાર્યોમાં-રેજી કામાં ગૃહરથનું એજ કર્તવ્ય છે કે–તે એને યતનાચારપૂર્વક કરે કેમકે યતનાચારપૂર્વક કરવામાં આવેલ કાર્ય દોષપ્રદ થતું નથી. પ્રમાદથી કરવામાં આવેલ કાર્ય દેષદાયક થાય છે. પરા दया यतनयोरस्ति, साहचर्य स्वभावतः / एकस्याः खलभावे च द्वितीयस्था अभावतः // 53 // अर्थ-दया और यतना इन दोनों में स्वभावतः साहचर्य संबन्ध है. क्योंकि एक के अभाव में दूसरे का अभाव हो जाता है. // 53 // દયા અને યતના એ બેઉમાં સ્વભાવથી જે સાહચર્ય સંબંધ છે. કેમકે-એકના અભાવમાં બીજાને પણ અભાવ થઈ જાય છે. પ૩ तेषां खलु वचनमिदं विपश्चितां नैव जायते मान्यम् / शास्त्रेषु यतो गदिता ह्य नुकंपा भूतहितदात्री // 54 / सर्वप्राण्यनुकंपा शास्त्रे विश्वोपकारिणी भणिता / कुत्रापि नास्ति तस्या अपवादः कथं सा क्षेप्या : 55 // . सर्व भूतानुकंगा सद्गुणजननी गादिदृढवी जम् / एतत्प्रभावतस्तेऽवतिनोऽपि स्वर्गे प्रक्रीडन्ति // 56 // Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 177 षष्ठः सर्गः अर्थ-ऐसा उनका कहना विद्वजनों को मान्य इस कारण नहीं हो सकता है कि शास्त्रों में अनुकंपा नियम से समस्त प्राणियों के लिये हित-कल्याणकारक कही गई है। ऐसी कथनी कहीं पर भी शास्त्रों में नहीं आई है कि दया नहीं करनी चाहिये / इसलिये विश्वकल्याणकारिणी सर्वप्राण्यनुकंपा आक्षेप करने के योग्य नहीं है। यह सर्वभूतानुकंपा समस्त सदगुणों की माता है एवं सम्यग्दर्शन आदि की उत्पत्ति में दृढ बीजरूप है. इसके प्रभाव से ही अविरत सम्यग्दृष्टि जीव स्वर्ग में आनन्द करते हैं // 54-55-56 // એમ તેમનું કથન વિદ્વાનોમાં એ કારણે માન્ય થતું નથી કે–શાસ્ત્રોમાં દયા એ અવશ્ય સઘળા પ્રાણિ માટે કલ્યાણકારક કહેલ છે. એવું શાસ્ત્રોમાં ક્યાંય પણ કહ્યું નથી કે દયા ન કરવી જોઈએ. તેથી વિશ્વકલ્યાણ કરનારી પ્રાણીમાત્ર પરની અનુકંપા આક્ષેપ કરવા યોગ્ય નથી. આ સર્વભૂતાનું કંપા સઘળા સદ્દગુણેની જનની છે અને સમ્યફ દર્શન વિગેરેની ઉત્પત્તીમાં બીજરૂપ છે. એના પ્રભાવથી જ સમ્યફદષ્ટિવાળો જીવ સ્વર્ગમાં અવિરત આનંદ કરે છે. 545 પાપા अवतिनोऽपि क्रमशः स्वदयया समन्विता हि भवसिन्धुम् / प्रशमादिभावयुक्ता नियमेन तरन्ति ते जीवाः // 57 // यद्यप्यस्ति दयायां रागो बन्धस्य कारणं सोऽल्पः / दुष्कृतपन्नहि सोऽस्ति निविडाशुभबन्धनहेतुः // 50 // पुण्यात्रवस्य हेतुः करुणाभावः सगस्ति जिनदेवैः / कथितस्तथापि जीवः तस्मादाप्नोत्ययं शुद्धिम् // 59 // अर्थ-प्रशम, संवेग आदि भावों से युक्त हुए अविरत सम्यग्दृष्टि जीव अपनी निजको दया के प्रभाव से ही नियमतः संसाररूपी समुद्र को पार कर देते है। यद्यपि दया में रागांश होता है इसलिये वह बन्धकारण बनता है. फिर भी या पाप की तरह निबिड अशुभ कर्मों की बंधक नहीं होती है। क्योंकि उसमें समांश अल्प होता है, जिनेन्द्र देव तो करुणाभाव को पुण्य का कारण बतलाया है परन्तु फिर भी उसके अवलम्बन से जोव शुद्धि को पालेता है. // 57-58-59 // પ્રશમ, સંગ વિગેરે ભાવથી યુક્ત થયેલ અવિરત સમ્યક દષ્ટિ જીવ પિતાની નીજી લયાના પ્રભાવથી જ નિશ્ચય રીતે સંસારરૂપી સમુદ્રને પાર કરી દે છે. જોકે દયામાં રાણાંશ (ાય છે, તેથી એ બન્ધનું કારણ બને છે, તે પણ દયા પાપની જેમ એકદમ અશુભ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178 लोकाशाहचरिते કર્મોની બંધક થતી નથી. કેમકે તેમાં રાગાંશઅપ હોય છે, જીનેન્દ્રદેવે તે કરૂણાભાવને પુણ્યનું કારણ કર્યું છે. તે પણ તેના અવલંબનથી જીવ શુદ્ધિ પામે છે. પાપટાપેલા शुद्धया संवरमार्गे विचरन् जीवो रुगद्धि भववृद्धेः / कारणभूतां स्तांस्तान् विधींश्च पश्चात् चितान क्रमशः // 60 // तान् परिशाटयतीत्थं मुक्तिं लब्ध्वा चिरं च नन्दयति / खात्मानं तस्माद् भोः ! भव्याः पुण्यं समुपार्जयत // 61 // अर्थ-शुद्धि से जीव संवर के मार्ग में विचरण करता है. और इस कारण वह संसार की वृद्धि के कारण भूत उन उन कर्मों का निरोध कर देता है, तथा पूर्व संचित् कर्मों की निर्जरा करता रहता है। इस तरह विशुद्ध हुआ वह जीव मुक्ति को प्राप्त कर अपने आपको आनन्दित कर लेता है. इसलिये हे भव्य जीवो ! जैसे भी बने दया-पुण्य का उपार्जन करना चाहिये // 60-61 // શુદ્ધિથી જીવ સંવર માર્ગમાં વિચરે છે અને તે કારણથી એ સંસારની વૃદ્ધિના કારણભૂત તે તે કર્મોને નિરોધ કરી દે છે. તથા પૂર્વ સંચિત કર્મોની નિર્જરા કરતો રહે છે. એ રીતે વિશુદ્ધ થયેલ એ જીવ મુક્તિને પ્રાપ્ત કરીને પિતાને આનંદિત કરી લે છે. તેથી હે ભવ્ય જીવો! જેમ બને તેમ દયારૂપી પુણ્ય મેળવી લેવું જોઈએ. દાદ 1u पापासक्ता जीवा एतन्मार्ग च नैव विन्दन्ति / दाने तपसि च तेषां चित्तं वित्तं न संलगति // 62 // द्यूतादिव्यसनेषु च सक्तचित्ताः प्रयान्ति ते श्वभ्रम् / तत्रोद्भूतां पीडां सोढ़वा सोया स्वशिरो घ्नन्ति // 63 // अर्थ-हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन 5 पांचों में आसक्त हुए जोव इस संवर के मार्ग को प्राप्त नहीं कर पाते हैं. इसलिये दान में और तपस्या, में न तो उनका मन लगता है और न द्रव्य ही लगता है, "यतादि व्यसनेषु च सक्तचित्ताः प्रयान्ति ते श्वभ्रम्" अतः इस कथन के अनुसार उनका समय द्यूतादि सात व्यसनों के सेवन करने में ही निकलता है. अतः वे कुगति में जाते हैं और वहां की वेदना को-दुखों को सहन करते हैं // 62-63 // હિંસા, ગૂઠ, ચોરી, કુશીલ અને પરિગ્રહ એ પાચેમાં આસક્ત થયેલ છવ આ સંવરના માર્ગને પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી. તેથી દાનમાં અને તપયામાં તેનું મન લાગતું नथी. तभा द्र०य 55 सातु नथी. 'यूतादि व्यसनेषु च सक्तचित्ताः प्रयान्ति ते श्वभ्रम् Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 179 . HD षष्ठः सर्गः. તેથી આ કથન પ્રમાણે તેમને સમય ઘતાદિ સાતે વ્યસનોના સેવન કરવામાં જ પસાર થાય છે. તેથી તેઓ કુમતિમાં જાય છે અને ત્યાંની વેદનાને અને દુઃખને સહન अरेछ.॥६२-६॥ येषां खलु जीवानां वित्ते नैवास्ति किञ्चिदपि करुणा। तन्नाम स्मृतिमात्रा दप्यत्र भयं भवति जन्तोः // 64 // ___ अर्थ-जिन जीवों के चित्त में जरासी भो दया नहीं होती है. उनके नाम की स्मृति से भी प्राणी को भय लगता है // 64 // જે જીના ચિત્તમાં જરા પણ દયા હેતી નથી. તેનું નામ યાદ કરવામાં પણ પ્રાણીને ડર લાગે છે. 64 दया विहीनानां खलु पापद्धर्यामपि संभवति प्रीतिः। तस्माज्जीवः सत्यं जीववधालिप्यते पापैः // 65 // अर्थ-दया से जिनका हृदय खाली है ऐसे प्राणियों की शिकार करने में प्रीति होती है / इसलिये यह बात सत्य है कि जीववध से जीव पापों से लिप्त होता है // 65 // દયાથી જેનું હૃદય ખાલી છે એવા પ્રાણીને જ શિકાર કરવામાં પ્રીતિ થાય છે. તેથી એ પતિ સાચી છે કે–જીવ વિધથી જીવ પાપોથી લેવાય છે. દિપા _ पापेभ्योऽशुभकर्माण्यगर्जयन जीव एष नाशयति / पुण्यप्रकृतीस्तस्मा दुर्गतिपात्रं भवेन्नूनम् // 66 // अर्थ-यह जीव पंच पापों को करता हुआ अपनी पुण्य प्रकृतियों को नष्ट कर देता है, इसी कारण यह दुर्गति का पात्र बनता है // 66 // આ જીવ પાંચ પાપને કરીને પોતાની પુણ્ય પ્રકૃતિને નાશ કરે છે. તેથી જ તે तिनु पात्र मने छ. // 66 // शंका - एष दयाया भावः किमस्ति माटुं क्षमो नु जीवस्य / अशुभं कर्म कथय नोचेत् किंवा प्रयोजनं तस्य // 6 // . अर्थ-क्या यह दया का भाव दयाह जीव के अशुभ कर्म को मेंट सकने में समर्थ हो सकता है ? यदि नहीं तो फिर इसके करने का तात्पर्य ही क्या है ? // 67 // Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते શું આ યાન ભાવ દયાને ગ્ય જીવના અશુભ કર્મોને મટાડી શકવામાં સમર્થ થઈ શકે છે? જો ન થઈ શકે તે પછી તે કરવાની જરૂર શું છે ? u6 છા मैवं खलु वक्तव्यं आर्त्तस्यास्य स्वकर्मफलभोगे। धैर्यालम्बनतः स्यात् सद्भागे नातव्यानं च // 6 // अर्थ-ऐसा नहीं कहना चाहिये-क्योंकि दुःखि प्राणी को अपने कर्म के फल को भोगने में दया का सहारा मिलने से धैर्य प्राप्त होता है, अतः उसके सहारे से वह सद्भाव पूर्वक अपने दुःख को भोगता है. उसे उसके भोगने में आर्तध्यान नहीं होता है // 6 // એવું કહેવું ન જોઈએ. કેમકે–દુઃખી પ્રાણીને પિતાના કર્મના ફળ ભેગવવામાં યાને ટકે મળવાથી ધીરજ આવે છે. તેથી તેના ટેકાથી તે સદ્દભાવપૂર્વક પિતાનું દુઃખ ભેગવે છે. તેને એના ભેળવવામાં આર્તધ્યાન થતું નથી. 68 ___ इत्थं धैर्याद भोक्तुः स्वकृतकर्मणः फलस्य संभोगे / __ अशुभास्रवस्य रोधात् शुभास्त्रवस्यैव संप्राप्तिः // 69 // अर्थ-इस प्रकार अपने द्वारा किये गये धैर्य पूर्वक कर्म के फल के भोगने में भोक्ता को अशुभ कर्म का निरोध हो जाता है और शुभ पुण्य की ही उसे प्राप्ति होती है. // 69 // આ પ્રમાણે પિતે કરેલા કર્મના ફળને ધર્યથી ભોગવવામાં ભેગવનારના અશુભ કમેને નિરોધ થઇ જાય છે. અને શુભ પુણ્યની તેને પ્રાપ્તિ થાય છે. 69 शुभप्रणालिकया सः शनैः शनै रात्मशोधने मार्गे / आरूढः सन् मुक्तिं लभते करुणा प्रभावोऽयम् / / 70 // अर्थ-शुभ पुण्य रूप प्रणाली के द्वारा धीरे धीरे वह जीव आत्मा को शोधने वाले मार्ग में आगे बढता हुआ मुक्ति को प्राप्त कर लेता है. यही करुणा का अन्तिम प्रभाव है // 70 // શુભ પુણ્ય રૂપ પ્રણાલી–નીકથી ધીરે ધીરે એ જીવ આત્માને શોધવાના માર્ગમાં આગળ વધીને મુક્તિ પ્રાપ્ત કરી લે છે. એજ કરૂણાને અંતિમ પ્રભાવ છે. ll न वर्ततेऽस्मिन्निह भारताख्ये क्षेत्रे कलौ कोऽपि च केवलीद्धः / तथापि रत्नत्रयधारिणस्ते सन्त्यत्र तन्मार्गस्ता मुनीन्द्राः // 71 // Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . षष्ठः सर्गः 281 - अर्थ-यद्यपि इस भरतक्षेत्र में पंचमकाल में कोई केवलज्ञानी आत्मा नहीं है, फिर भी उनके मार्ग में वर्तमान-लवलीन-रत्नत्रयधारी मुनिराज तो हैं // 71 // જોકે આ ભરત ક્ષેત્રમાં આ પંચમ કાળમાં કઈ કેવળજ્ઞાની આત્મા અસ્તિત્વમાં નથી તે પણ તેના માર્ગમાં વિચરનારા રત્નત્રયધારી મુનિરાજે તો છે જ. II71 तवाचमालम्ब्य हितैषिभिस्तन्निीय तत्त्वं स्वहितं विधेयम् / श्रेयोऽस्ति तेषामतिचर्चिनां नो यतो मुनीनां वचनं प्रमाणम् // 72 // ___ अर्थ-अतः उनके वचनों पर विश्वास करके दयारूप तत्त्व का निर्णय करके प्राणी को अपना हित करलेना चाहिये. जो व्यक्ति व्यर्थ का क्षोद विनोद करते हैं उनका कल्याण नहीं हुआ करता है. क्योंकि मुनियों के वचनों में अप्रमाणता नहीं आती है / 72 // તેથી તેમના વચને પર વિશ્વાસ રાખીને દયારૂપ તત્વનો નિર્ણય કરીને પ્રાણિએ પિતાનું હિત સાધી લેવું જોઈએ. જે વ્યક્તિ વ્યર્થ જ આનંદ પ્રમોદ કરે છે, તેમનું કલ્યાણ થતું નથી કેમકે મુનિના વચનમાં અપ્રમાણપણું આવતું નથી. IIછરા श्रयोऽमृतस्यन्दिनमित्थमस्य श्रुत्वोपदेशं भवनं जगाम / गुरो हि मेन्दु हृदयेन शंसन् तं श्रावकैः श्राविकया समेतः // 73 // अर्थ-कानों में अमृत बहाने वाले गुरुदेव के उपदेश को सुनकर हैमचन्द्र उसकी हृदय से अनुमोदना करते हुए अपनी श्राविका और श्रावकों से युक्त होकर-अर्थात् उनके साथ-अपने घर की तरफ चल दिये // 73 // 'કાનમાં અમૃત વહેવડાવનાર ગુરૂદેવના ઉપદેશને સાંભળીને હેમચંદ્રશેઠ હૃદયથી તેને અનુમોદન આપતા થકા પિતાની શ્રાવિકા અને શ્રાવકોની સાથે પિતાને ઘેર જવા ચાલતા થયા. આવા रागद्वेषौ वचसि भवतः कारणं ह्यप्रमायाः, ___सयुक्त्या तौ प्रलयमुपयातौ नरे वीतरागे / तस्मात्तस्यातिविमलमते बाधकं नास्ति किञ्चित् , स्वेष्टं मानं तदविषयतो जैनमार्गोऽस्तदोषः // 74 // अर्थ-उन्होंने विचार किया कि राग और दोष ही वचन में अप्रमाणता के कारण होते हैं, वीतराग पुरुष में इनका सर्वथा अभाव होता है यह बात शास्त्र कल्पित नहीं है. क्योंकि युक्ति से यह बात उनमें प्रतिष्ठित की गई हैं, Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 183 लोकाशाहचरित अतः अतिशय विमलमति वाले-सर्वज्ञ का कोई भी प्रमाण बाधक नहीं होता है. आत्मा रागद्वेष के अभाव में सर्व पदार्थ का ज्ञाता दृष्टा हो जाता है. इस बात का विरोधी कोई भी प्रमाण नहीं मिलता है. क्योंकि वह प्रमाण-अभाव प्रमाण उस सर्वज्ञ को विषय नहीं करता है. अतः वह उसका बाधक नहीं हो सकता है. इसलिये जैनमार्ग निर्दोष है // 74 // તેમણે વિચાર કર્યો કે-રાણ અને દ્વેષ જ વચનમાં અપ્રમાણિકપણામાં કારણે થાય છે. વીતરાગ પુરૂષમાં તેને બિલકુલ અભાવ હોય છે. આ વાત કેવળ કલપના માત્ર નથી પરંતુ યુક્તિથી એ વાત તેનામાં સ્થાપિત કરવામાં આવી છે. તેથી અત્યંત નિર્મળ બુદ્ધિવાળા સર્વજ્ઞને કંઈ પણ પ્રમાણ બાધક થતું નથી. આત્મા રાગદ્વેષના અભાવમાં સર્વ પદાર્થના જ્ઞાતા અને દશા બની જાય છે. આ વાતનું વિરોધી કોઈ પણ પ્રમાણ મળતું નથી. કેમકે . એ પ્રમાણ એટલે કે અભાવનું પ્રમાણ એ સર્વને વિય કરતું નથી. તેથી એ તેનું બાધક થઈ શકતું નથી. તેથી જ જૈન માર્ગ નિર્દોષ છે. [74 वीतरागस्य सन्मार्गे रागद्वेषादयोऽखिलाः / दोषा ध्वस्ताः नु सेवन्ते तं मागं गतस्पृहाः // 75 // अर्थ-वीतराग का मार्ग निर्दोष होता है. इसमें रागद्वेष आदि दोषों के लिये स्थान ही नहीं है. जो जीव निस्पृह होते हैं वे ही इस मार्ग का सेवन करते हैं // 7 // વીતરાગને માર્ગ નિર્દોષ હોય છે, તેમાં રાગદ્વેષ વિગેરે દોષને સ્થાન જ નથી. જે જીવ પૃહારહિત હોય છે, એજ એ માર્ગનું સેવન કરે છે. ૭પ विषयाशावशातीता स्त्यक्तारंभपरिग्रहाः / आब्या महावतैरीर्या समित्याद्यभिसंभृताः // 76 // मुनयोऽस्तंगतदोषत्वाच्छ्रद्धेयवचना हि ते / मुनिवचनविश्वासः, परमं मंगलं मतम् // 77 // अर्थ-मुनिजन पंचेन्द्रियों के विषयों की वाञ्छा से रहित होते हैं आरंभ और परिग्रह के सर्वथा त्यागी होते हैं, पांच महाव्रतों के पालक होते हैं, एवं ई समिति आदि पांच समितियों से युक्त होते हैं. प्रत्येक प्रवृत्ति में अन्यथापन लानेवाले दोषों से ये रहित होते हैं. इसलिये इनके वचन आत्म हितैषियों के लिये विश्वास करने योग्य होते हैं. मुनि वचनों का विश्वास ही जीवों को. परम मंगलरूप माना गया है // 76-77 // Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः * મુનિજન પંચેન્દ્રિયેના વિષેની ઇચ્છા રહિત હોય છે, આરંભ અને પરિગ્રહના હમેશાં ત્યાગી હોય છે. પાંચ મહાવ્રતોના પાલક હોય છે, તથા ઈર્ષા સમિતિ વિગેરે પાંચ, સમિતિથી યુક્ત હોય છે, દરેક પ્રવૃત્તિમાં અન્યથાપણું લાવનારા દોષથી તેઓ રહિત હૈય છે. તેથી તેમની વાણી આત્મહિતે એ વિશ્વાસ કરવા ગ્ય હોય છે. મુનિના વચનમાં વિશ્વાસ જ છે માટે પરમ મંગળરૂપ માનવામાં આવેલ છે. ૭૬-૭૭ના अन्यथा भाषणस्यात्र कारणं न च किंचन / * कारणाभावतस्तस्मात्प्रमाणं साधुदेशना // 78|| अर्थ-मुनिजन जो उपदेश देते हैं-वह झाला देते हैं ऐसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि अन्यथा भाषण करने का वहां कोई कारण नहीं है. अतः उनका वह उपदेश स्वयं में प्रमाण भूत ही होता है // 78 // મુનિજન જે ઉપદેશ આપે છે, તે ખેટો આપે છે, એમ નથી. કેમકે–વિપરીત ભાષણ કરવાનું તેમને કઈ કારણ નથી. તેથી તેમને એ ઉપદેશ સ્વયં પ્રમાણરૂપ જ હોય છે. li78 धन्यावनिः साऽभ्युषिता पवित्रैः महावताराधनतत्पर स्तैः / दया दमत्यागवयस्य युक्तैः परोपकारप्रवणैः मुनीन्द्रैः // 79 // अर्थ-स्वयं में पवित्र, महावतों की आराधना करने में तत्पर दया, दम एवं बागरूप मित्रों से युक्त और दूसरे जीवों की भलाई करने में प्रविण ऐसे मुनिजनों से जो भूमि युक्त हो जाती है वह धन्य है // 79 // સ્વયં પવિત્ર, મહાત્રની આરાધના કરવામાં તત્પર દયા દમ ત્યાગરૂપ મિત્રોથી યુક્ત અને બીજા જીવોની ભલાઇ કરવામાં પ્રવીણ એવા મુનિયેથી જે ભૂમિ યુક્ત થાય છે, તેને ५न्य छ. // 7 // वांसि तेषां हृदि संप्रधार्य जनाः स्ववृत्तिं खलु येऽपि केऽपि / कुर्वन्त्यदुष्टां विहितोपदेश समन्वितां ते सुखिनो भवन्ति // 8 // अर्थ-जो कोई भी मनुष्य उनके उपदेश को हृदय में धारण करके अपनी प्रवृत्ति को निर्मल बनाते हैं और जैसा वे कहते हैं उसके अनुसार अपने आपको सुधार लेते हैं वे ही सुखी होते हैं // 8 // જે કઈ મનુષ્ય તેમના ઉપદેશને હૃદયમાં ધારણ કરીને પોતાની પ્રવૃત્તિને નિર્મળ બનાવે છે, અને જેવું તેઓ કહે છે તે પ્રમાણે પોતાને સુધારી લે છે એજ પુરૂષ સુખી થાય છે. 180 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184 लोकाशाहचरिते धर्मामृतं पानि पिबन्ति येऽन्यान् तं पाययन्तीह वसुंधरास्थान् / . दृग्बोधवृत्तनिचिताः शरण्याः शिवैषिणस्ते गुवः सुसेव्याः / / 81 // अर्थ-जो गुरुजन परम्परा से चले आये धर्मरूपी अमृत की रखवाली करते हैं, उसे स्वयं पीते हैं और पृथ्वी मंडल पर स्थित दूसरे जीवों को भी उसे पीने के लिये देते हैं ऐसे वे गुरुजन जो कि सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र से भरे हुए हैं, दूसरे जीवों के रक्षक हैं, एवं शिवैषी-स्व पर के कल्याण की कामना वाले हैं अवश्य ही सुसेव्य हैं // 81 // જે ગુરૂજન પરંપરાથી ચાલતા આવેલ ધર્મરૂપી અમૃતનું રખેવાળું કરે છે તેને પોતે પીવે છે, અને પૃથ્વીમંડળ પર રહેલા અન્ય જીવોને પણ તે પીવા માટે આપે છે, એવા સમ્યકજ્ઞાન, દર્શન અને ચારિત્રથી ભરેલા ગુરૂજન બીજા જીવોના રક્ષક બને છે. અને - શૈલેષી–સ્વ પરના કલ્યાણની કામનાવાળા છે તેઓ અવશ્ય સેવવાને યોગ છે. I81 त्रैलोक्योदखर्तिजीवनिवहान प्रत्यस्ति येषां दया, ___ मा भूत्कोऽपि च दुःखभाग्जगति जीवः स्यात्सदा मोदभाक् / युक्ता भावनयाऽनया च करुणा व्याप्तान्तरङ्गाश्च ते, न स्युः सद्गुरवः कथं ननु भवल्लोकोऽयमात्मस्थितः // 82 // अर्थ-तीन लोक के भीतर रहे हुए समस्त जीवों के प्रति जिन्हें दया है और जिनकी सदा कोई भी जीव दुःखी न हो ऐसी भावना रहती है. तथा जिनके भीतर निरन्तर दया का प्रवाह बहता रहता है ऐसे गुरुदेव यदि यहां न हों तो यह लोक अपने निज स्वभाव में स्थित कैसे रहता // 2 // ત્રણે લેકમાં રહેલા સઘળા છે પ્રત્યે જેમને દયા છે, જેમની ભાવના સદા કોઈપણ જીવ દુઃખી ન થાય એવી હોય છે, તથા જેમની અંદર અવિરત દયાનો પ્રવાહ વહેતો રહે છે, એવા ગુરૂદેવ જે અહીં ન હોય તો આ લેક પિતાના નિજી સ્વભાવમાં કેવી રીતે સ્થિત રહેત? u૮રા अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः // 83 // अर्थ-अज्ञानरूपी तिमिर से अन्धे हुए जीव की अन्तरङ्ग-आंखों को जिन्होंने ज्ञानरूपी अंजन की शलाई से खोला है ऐसे उन गुरुदेवों को मेरा नमस्कार हो // 8 // Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः અજ્ઞાનરૂપી અંધકારથી અંધ થયેલ જીવની અંતરંગ અને જેમણે જ્ઞાનરૂપી આંજણની સળીથી ખાલી છે. એવા એ ગુરૂદેવને મારા નમસ્કાર છે. 83 पुगतनोक्त्या ह्यनया गुरूणां प्रभाव आवेद्यत एवं सम्यक / गुरु मुनीनां भासिन्धुमग्न जीवान समुद्धर्जुमथ क्षमाणाम् / / 84 // अर्थ-गुरुदेव के सम्बन्ध में कही गई इस प्राचीन उक्ति से गुरुओं का महान् प्रभाव अच्छी तरह से प्रकटित किया गया है अतः भवसिन्धु में डूबे हुए जीवों को गुरुदेव ही पार उतारने में समर्थ होते हैं ऐसा ही उनका अनुपम प्रभाव है // 84 // ગુરૂદેવના વિષયમાં કહેલ આ પ્રાચીન ઉક્તિથી ગુરૂઓનો મહાન પ્રભાવ સારી રીતે પ્રગટ કરવામાં આવેલ છે. તેથી ભવસિંધુમાં ડૂબેલા ને ગુરૂદેવ જ પાર ઉતારવામાં સમર્થ હોય છે. એ જ તેમને અનુપમ પ્રભાવ છે. 84 मुनीन्द्र नामस्मरणादपीह जनस्य पापानि क्षयं बजन्ति / दानप्रदातुर्यमिने च तस्मै संसारभावोऽपि कथं न नश्चेत् // 85 // अर्थ-जब मुनीन्द्र नाम के स्मरण से ही स्मरणकर्ता के पाप नष्ट हो जाते हैं तो जो जन इन मुनिराजों को दान प्रदान करता है उसका संसारभाव क्यों नहीं नष्ट हो जायगा अर्थात् अवश्य नष्ट हो जावेगा // 85 // જ્યારે મુનીન્દ્ર એ નામના મરણથી જ મરણ કરનારના પાપ નાશ પામે છે, તે જે પુરૂષ એ મુનિરાજને દાન પ્રદાન કરે છે, તેને સંસારભાવ કેમ નાશ નહીં પામે અર્થાત અવશ્ય નાશ પામશેજ. I૮પ ते किं गृहाः किं गृहिणोऽपि ते ऽपि मुनीन्द्रचन्द्रा न चरन्ति येषाम् / अन्तश्च चित्तेषु समस्वभावा, शत्रौ च मित्रे मणिकाञ्चनादौ / 86 // . अर्थ-वे कुत्सित गृह हैं और वे कुत्सित गृहस्थ हैं कि जिनके भीतर और चित्त में शत्रु मित्र में, मणि काश्चन और पहाड में सम स्वभाववाले मुनिचन्द्र नहीं जाते हैं // 86 // એ કુત્સિત ઘર છે, અને એ કુત્સિત ગૃહસ્થ છે કે જેની અંદર અને ચિત્તમાં શત્ર મિત્રમાં, મણિ અને સેનું અને પહાડમાં રાખી સ્વભાવવાળા મુનિદ્રો જતા નથી. 86aaaaN F5 सा का विभूति स्थवाऽपि च को गुणो वा ___ लोके च किं तदिह शं न वशं प्रयाति / - दातुः प्रदानजनितो यदि पुण्यमंत्रः आस्ते जगत्त्रयवशीकरणे समर्थः // 87 // Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते अर्थ-तीनों लोगों को वश करने में समर्थ ऐसा पात्रदान जन्य पुण्य यदि दाता के पास में है तो ऐसी कौनसी विभूति है, ऐसा कौनसा गुण है और कौनसा ऐसा सुख है जो उसे प्राप्त नहीं होता // 87 // - ત્રણે લેકેને વશ કરવામાં સમર્થ એવા પાત્રદાનથી થયેલ પુણે જો દાતાની પાસે છે, તો એવી કઈ વિભૂતિ છે, એક ગુણ છે, અને કયું એવું સુખ છે કે જે તેને પ્રાપ્ત ન થઈ શકે? પાટા संसारदावानलदग्धजीवः, पलभ्यतेऽाश्चिममोषधं तत् / / यत्सेवनाज्जाजरादि रोगा यान्ति क्षयं जन्मवतां यमिभ्यः / / 88 / / अर्थ-उत्तम पात्र मुनियों को सेवा-शुसूया से संसाररूपी दावानल से संतप्त हुए प्राणी ऐसी सर्वोत्तम दानरूपी औषधि प्राप्त कर लेते हैं कि जिसके सेवन से उनके जन्म जग आदि रोग नष्ट हो जाते हैं // 88 // ઉત્તમ પાત્ર મુનિની સેવા-સુશ્રષાથી સંસારરૂપી દાવાનળથી તપેલા પ્રાણી એવી સર્વોત્તમ દાનરૂપી ઔષધિ પ્રાપ્ત કરી લે છે કે-જેના સેવનથી તેના જન્મ જરા વિગેરે રોગો નાશ પામે છે. 88 दानाय वित्तं व्रतधारणार्थं वपुः श्रुतं ज्ञानवतां शमाय / एतद् यदुक्तं तत्तत्यमेव वजन्मनाऽनेन समर्थितं यत् / / 89 // ____ अर्थ-दान के लिये धन, व्रतधारण करने के लिये शरीर और शमशान्ति के लिये श्रुत ज्ञानिजनों का होता है, ऐसी बात जो कही गई है वह बिलकुल सत्य है इसका समर्थन ज्ञानी महात्माने अपने जन्म से किया है. // 89 // દાન માટે ધન વ્રત ધારણ કરવા માટે શરીર અને શાંતિ માટે શ્રેજ્ઞાનિકોનું હોવું એવી જ વાત કહેવામાં આવી છે, તે બિલકુલ સત્ય છે. એનું સમર્થન જ્ઞાની મહાત્માએ પિતાના જન્મથી કરેલ છે. 89 यतीन्द्र दानेन च जायमानात्पुण्याद्रमा वर्धत एव नित्यम् / सदुदृष्टिपुंसस्तटिनीव कीर्त्या सत्रा सुवृष्टया जलदागमेन // 9 // अर्थ-उत्तम पात्र मुनि महाराजों के लिये दिये गये दान से जायमान पुण्य से सम्यग्दृष्टि जीव के यहां सर्वदा कीर्ति के साथ 2 लक्ष्मी की वृद्धि होती है, जैसे कि वर्षाकाल में हुई सुवृष्टि से नदियों में वृद्धि होती है // 9 // ઉત્તમ પાત્ર મુનિ મહારાજાઓ માટે આપવામાં આવેલા દાનથી થનારા પુણ્યથી સમ્યક દષ્ટિ જીવને ત્યાં સદા સર્વદા કીર્તિની સાથે સાથે લક્ષ્મીની વૃદ્ધિ થાય છે. જેમકે વર્ષાકાળમાં થયેલ સુવૃષ્ટિથી નદીમાં વધારો થાય છે. તો Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः 187 भून्युतवीजमिव पात्रातं सुदानं काले ह्यनल्पफलमेव ददाति पात्रे / सत्पात्रदानशुभकृत्यविधौ गतेयं लक्ष्मीरुदेति वटवीजमिवा द्वितीया॥९१॥ अर्थ-जिस प्रकार भूमि में बोया गया बोज समय पर बहुत फल देता है उसी प्रकार पात्रगत दान भी अपने उदयकाल में दाता को सर्वोत्तम फल प्रदान करता है। सत्पात्रों को दान देने रूप शुभकार्य में लगाई गई लक्ष्मी वटधीज की तरह अद्वितीय होकर दाता के पास आती रहती है // 91 // જે પ્રમાણે ભૂમીમાં વાવેલ બી સમયથેયે સારૂં ફળ આપે છે. એ જ પ્રમાણે પાત્રને આપેલ દાન પણ પોતાના ઉદયકાળમાં દાતાને સર્વોત્તમ ફળ આપે છે. સત્પાત્રોને દાન દેવારૂપ શુભ કાર્ય માં લગાવવામાં આવેલ લક્ષ્મી વડના બીની જેમ અદ્વિતીય થઈને દાતાની પાસે આવતી રહે છે. 91 इत्थं सद्भावनाभिः सुभरितहृदयः स्तूयमानो जनौधैः गच्छन्मार्गेऽवलाभिललितपदलसेद् गीतिभिर्वीक्ष्यमाणः। पांसुक्रीडां चरद्भिर्बहुतस्वपलै बलकै दत्तमार्गः, सोऽयं हैमो निशान्तं निगमजनसमूहैः स्तुतश्चाजगाम // 92 // अर्थ-इस प्रकार की सद्भावनाओं से जिनका हृदय अच्छी तरह भरा हुआ है ऐसे वे हैमचन्द्र मनुष्यों द्वारा प्रशंसित होते हुए अपने घर पर आ गये. जब वे घरकी ओर आ रहे थे-उस समय रास्ते में गोतों को गाती हुई एवं लीलापूर्वक चली आ रहीं महिलाओं ने उन्हें देखा था तथा गलियों में जो बालक खेल रहे थे और अधिक चपल थे उन्होंने भी उन्हें रास्ता दिया था. आते हुए उन्हें देखकर वहां के निवासियों ने भी उनके सम्बन्ध में आपस में उनकी प्रशंसा की थी // 92 // આ પ્રમાણેની ભાવનાથી જેનું હૃદય સારી રીતે ભરેલ છે એવા એ હેમચંદ્ર મનુષ્યો દ્વારા પ્રશસિત થઈને પિતાને ઘેર આવી ગયા. જયારે તેઓ ઘર તરફ આવી રહ્યા હતા, એ સમયે રસ્તામાં ગીત ગાતી અને લીલાપૂર્વક ચાલતી આવતી સ્ત્રીઓએ તેમને જોયા હતા, તથા ગલિમાં જે બાળકે ખેલતા હતા અને અધિક ચપલ હતા તેમણે પણ તેઓને રસ્તે આયે હતે. આવતા એવા તેમને જોઈને ત્યાંના રહેવાસીએ પણ તેમના સંબંધમાં પરસ્પર તેમની પ્રશંસા કરી. ૯રા जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर श्रीघासीलाल ति विरचिते हिन्दीगुर्जरभाषानुवादसहिते लोकाशाहचरिते षष्ठः सर्गः समाप्तः // 5 // Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188 - लोकाशाहरिते अथ सप्तमः सर्गः प्रारभ्यतेअथास्य हैमस्य सुधर्मपत्नी गर्भदधाना सुदतीरराज / सा भारतीवातिगभीरमर्थं शार्दूलपोतं गिरिगह्वरेव // 1 // अर्थ-अत्यन्त गंभीर अर्थ को धारण करनेवाली भारती के समान एवं सिंह शिशु को धारण करनेवाली पर्वतीय गुफा के समान हैमचन्द्र सेठ की वह सुन्दर चमकीले दांतोंवाली धर्मपत्नी गंगादेवी गर्भ को धारण करती हुई सुशोभित हुई // 1 // અત્યંત ગંભીર અર્થને ધારણ કરવાવાળી ભારતી–વિદ્યાની સમાન અને સિંહના બચ્ચાને ધારણ કરનારી પર્વતની ગુફાની માફક સુંદર ચમકદાર દાંતવાળી હેમચંદ્રશેઠની ધર્મ પત્ની ગંગાદેવી ગર્ભ ધારણ કરીને શોભાયમાન બની. 1 पौरंदरी गौखि सूर्यगर्भावेलेव वाधेर्मणिमण्डब्या। वभौ सगर्भा सरसीव गंगाऽप्यंमोजिनी सा हिमचन्द्रकान्ता // 2 // अर्थ-गर्भवती वह हैमचन्द्र की पत्नी गंगादेवी उस समय ऐसी सुहावनी लगती थी जैसी कि सूर्य के गर्भ में रहने पर पूर्वदिशा सुहावनी लगती है तथा मणिमण्डल से युक्त जैसी समुद्र की वेला-तट सुहावनी लगती है, और जैसी पद्मवाली छोटी तलैया सुहावनो लगती है // 2 // | હેમચંદ્રશેઠની સર્ગભા પત્ની ગંગાદેવી એ સમયે એવી શોભાયમાન લાગતી હતી કે જેમ સૂર્ય ગર્ભમાં આવવાથી પૂર્વ દિશા શેભામણી લાગે છે, તથા મણિમંડળથી યુક્ત જેમ સમુદ્ર કિનારે સહામણો લાગે છે. અને કમળાવાળું નાનું સરોવર સેહામણું લાગે છે. આરા ___ममादरावीक्ष्य बभूव सार्था दृष्टिः स्वभर्तुः सफलेति मत्त्वा / निःखेन सा लब्धमहार्घरत्ना स्वगर्भसंरक्षणतत्पराऽभूत् // 3 // अर्थ-जिस प्रकार कोई गरीबिनी-निर्धन नारी कि जिसे बहुत कीमती रत्न मिल गया हो उस प्राप्त रत्न की संभाल में तत्पर बनी रहती है उसी प्रकार वह गंगादेवी भी यह समझकर कि मुझे गर्भवती देखकर मेरे पतिदेव मेरा बहुत ही आदर करते हैं और अपनी दृष्टि को सार्थक एवं सफल मानते हैं अपने गर्भ की रक्षा करने में सदा तत्पर रहने लगी. // 3 // જેમ કોઈ ગરીબ નિધન નારીને ઘણું જ મુલ્યવાન રત્ન મળી ગયું હોય એ મળેલ રત્નની સંભાળ રાખવામાં ઉઘુક્ત રહે છે, એજ પ્રમાણે એ ગંગાદેવી પણ એમ સમજીને કે Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः મને સગર્ભાવસ્થામાં જોઈ ને મારા પતિદેવ માર ઘણો જ આદર કરે છે, અને પિતાની દષ્ટિને સાર્થક અને સફળ માને છે, એમ માનીને પોતાના ગર્ભનું રક્ષણ કરવામાં સદા તત્પર રહેતી હતી. આવા दिनेषु गच्छत्सु कियत्सु तस्या गर्भस्य तथ्यस्य निवेदकानि / प्रत्यक्ष गम्यानि बभार चिह्नान्यसौ स्वनाथाहृतचित्तवृत्तेः / / 4 / / अर्थ-जब कितनेक दिवस व्यतीत हो चुके तय गर्भ होने की सच्चाई को प्रत्यक्ष रूपसे स्पष्ट बतानेवाले चिह्न गंगादेवी में प्रकट हुए इन चिह्नों-लक्षणों को देखकर उनके पति हैमचन्द्र श्रेष्ठि का मन बडा ही प्रफुल्लित रहेने लगा. // 4 // જયારે કેટલાક દિવસે વિતિ ગયા ત્યારે ગર્ભ રહેવાની સત્યતાને પ્રત્યક્ષપણાથી સ્પષ્ટ બતાવનારા ચિહ્નો ગંગાદેવીમાં આપોઆપ પ્રગટ થયા. એ લક્ષણોને જોઇને તેમના પતિ હેમચંદ્રશેઠનું મન ઘણું પ્રફુલ્લિત રહેવા લાગ્યું. આઝા गर्भ रहने पर जो लक्षण स्त्रियों में प्रकट होते हैं-ऊनका वर्णनगर्भप्रभावादभवन्नताब्याः पाण्डत्वमास्य जठरे विवद्धिः / धावल्यमक्ष्णो हृदयेऽनुरागः सत्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदः // 5 // अर्थ-गर्भावस्था में गर्भिणी में और क्या 2 चिह्न दिखलाई देने लगते हैंयह बात इस श्लोक द्वारा यहां पतलाई गई है. गर्भ के प्रभाव से उस विनम्र अङ्गवाली गगादेवी के मुख पर शुभ्रता की झलक आगई-उसका मुख पहिले से भी अधिक गौर वर्णवाला बन गया, उदर उसका बढ गया, आंखों में सफेदी आ गई हृदय में सब के प्रति अनुराग जग गया, समस्तजीवों के प्रति उसके मन में मित्रता का भाव भर गया और गुणिजनों के प्रति उसके चित्तमें आदर भाव समा गया! ये सब चिह्न गर्भस्थ भ्रण की शुभ स्थिति के एवं शुभ भावों के द्योतक होते हैं. // 5 // ગર્ભાવસ્થામાં ગર્ભિણીમાં બીજા કયા કયા ચિહ્નો દેખાય છે, એ વાત આ લેકથી અહીં બતાવવામાં આવી છે. ગર્ભના પ્રભાવથી એ નમ્ર અંગવાળી ગંગાદેવીના મુખ પર તતાની છાયા આવી ગઈ. તેનું મુખ પહેલાં કરતાં પણ વધારે ગૌરવર્ણ વાળું બની ગયું. તેનું પેટ વધવા લાગ્યું. આંખોમાં ધવલના આવી ગઈ. હૃદયમાં દરેકના પ્રત્યે અનુરાગ જાગે. સઘળા જી પ્રત્યે તેના મનમાં મિત્રપણાનો ભાવ પ્રગટ થશે. અને ગુણવાને પ્રત્યે તેના ચિત્તમાં આદરભાવ ઉત્પન્ન થયે. આ સઘળા ચિહ્નો ગર્ભમાં રહેલ બાળકની શુભ સ્થિતિના અને શુભ ને બતાવનારા હોય છે. પા Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते यदा क्वचित्सा प्रतिबद्धरुद्धान् जीवानपश्यद् धृदये तदास्याः। दयाऽभवत्तेन चकांक्ष तेषां मनस्विनीयं परिमुक्ति सौख्यम् // 6 // अर्थ-वह गर्भिणी गंगादेवी जब कभी कहीं पर बंधे हुए और पिंजरे आदि में बन्द करके रोके हुए जीवों को देखती-तो उसके हृदय में उनके प्रति दया का प्रवाह हिलोरे लेने लग जाता और वह मनस्विनी उनकी मंगल कामना से प्रेरित होकर उन्हें वहां से छुटकारा पाने के सुख की आकांक्षावाली बन जाती // 6 // એ ગર્ભિણી ગંગાદેવી જ્યારે કયાંક બંધાયેલા અને પાંજરા વિગેરેમાં પૂરાઇને રોકી રાખેલા જીવોને જોતી હતી ત્યારે તેના હૃદયમાં તેમના પ્રત્યે દયાને પ્રવાહ હિલેરા લેવા લાગતો હતો અને મનસ્વિની એવી તે તેમની મંગળ કામનાથી પ્રેરિત થઈને તેમને ત્યાંથી છુટકારો અપાવવાની અભિલાષાવાળી બની જતિ. દા दानादिसत्कृत्यविधानदक्षा साधूपदेशेऽर्पित मानसा सा। गर्भस्थ सत्त्वप्रभवप्रभावात्स्वधर्म्यकृत्ये शिथिला न जज्ञे // 7 // .. अर्थ-यद्यपि गर्भिणी वह गंगादेवी अन्य घर के कार्यों के करने में इस अवस्था में उमङ्गवाली नहीं बनती थी, परन्तु फिर भी वह सुपात्रों को दान देने रूप जो धार्मिक कृत्य हैं उनके संपादन करने में पहिले कभी भी आलस्य युक्त नहीं देखी गई, क्यों कि उनके करने में तो उसका भाव सदा उमंगवाला बना रहता. तथा साधुमहाराजों के उपदेश अवण में भी उसका मन पहिले से ही खूब लगता; अतः अब भी यह जो इन कार्यों के करने में उद्यमशील रहती सो यह सब गर्भस्थ जीव का ही प्रभाव था कि जिसकी वजह से उसका सांसारिक कार्यों के करने में तो मन नहीं लगता और धार्मिक कार्यों के करने में वह सदा अग्रेसर रहता. // 7 // ગર્ભિણી એવી તે ગંગાદેવી જેકે ઘરના બીજા કામ કરવામાં અવરથાને કારણે ઉમંગ રાખતી ન હતી, તે પણ તે સુપાત્રને દાન દેવારૂપ જે ધાર્મિક કામો છે, તે કરવામાં કયારેય પણ આળસવાળી જોવામાં આવતી ન હતી. કેમકે તે કરવામાં તો તેને ભાવ ઉમંગ યુક્ત રહેતો હતો. તથા સાધુ મહારાજનો ઉપદેશ સાંભળવામાં પણ તેનું મન પહેલેથી ખૂબ ઉત્કંઠાવાળું હતું. તેથી અત્યારે પણ તે આ કાર્યો કરવામાં પ્રવૃત્તીવાળી રહેતી તે આ બધું ગર્ભમાં રહેલ જીવન જ પ્રભાવ હતો કે જેના કારણથી સંસારિક કાર્યો કરવામાં તો તેનું મન લાગતું ન હતું પણ ધાર્મિક કાર્યો કરવામાં તે સદા અગ્રેસર થઈને રહેતી હતી. શા Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः . भर्त्ता तदा तां तरुणेन्दुगौरी निरीक्ष्य संजात सुखस्तदानीम् / पुण्येन लब्धं स्वगृहस्थधर्म धन्यं ह्यमंस्ताङ्गनयाऽनयाऽसौ ||8 // अर्थ-जब पूर्णमासी के चन्द्र जैसी गौरवर्णवाली गर्भिणी गंगादेवी को पतिदेव हैमचन्द्र श्रेष्टी ऐसी परिणतिवाली देखा तो वे देखकर अपने आपको बहुत सुखी अनुभव करते और मन में यही मानते कि पुण्य से प्राप्त हुआ यह गृहस्थाश्रम मेरा इसी अङ्गना के लाभ से आदर्शरूप में बना है // 8 // જયારે પુનમના ચંદ્રમ જેવી ગૌરવર્ણવાળી ગર્ભિણી ગંગાદેવીને હેમચંદ્રશેઠે આ પ્રકારની ફેરફારવાળી જોઈ તો તે જોઇને પિતાને અધિક સુખી માનતા કે પુણ્યથી પ્રાપ્ત થયેલ આ મારો ગ્રહસ્થાશ્રમ આ સ્ત્રીના મળવાથી આદર્શરૂપ બનેલ છે. 8 नाथ स्मदीयं मन एवमाह निवेदयामि त्वदनुग्रहार्थम् / सुपात्रदानाचिनुयां सुधर्मं यतो भवेऽस्मिन् खलु तस्य लाभः // 9 // अर्थ-नाथ ! मेरा मन यह चाहता है कि मैं सुपात्रों के लिये चारों प्रकार का दान देकर धर्म का संचय करूं, क्यों कि इस भव में ही जीव को उसका लाभ हो सकता है. अन्य भव में नहीं. यह बात मैंने इसलिये आपसे कही है कि आपका मेरे ऊपर अधिक अनुग्रह है. अतः इसमें आप मेरे प्रतिकूलवर्ती नहीं बनेंगे // 2 // હે નાથ ! મારું મન એમ ઈચ્છે છે કે-હું સુપાત્રને ચાર પ્રકારનું દાન આપીને ધર્મનો સંગ્રહ કરું, કેમકે-આ ભવમાં જ છે ને તે લાભ મળી શકે છે. અન્ય ભવમાં તે લાભ મળતો નથી. આ વાત મેં એ માટે તમને કહી છે કે-આપને મારા પ્રત્યે અધિક અનુરાગ છે. તેથી આમાં આપ મને પ્રતિકૂળ થાય તેમ વર્તશે નહીં. अनेकयोनौ परितो भ्रमद्भिः मयेदं संप्राप्यते मानवजन्म पुण्यात् / बहोरिदं व्यर्थगतं तदेतत् प्राप्तं न वाप्तं सममेव जातम् // 10 // अर्थ-क्यों कि अनेक योनियों में-८४ लाख योनियों मे-परिभ्रमण करने के बाद बहुत बडे पुण्य के उदय से जीव को यह मनुष्यजन्म प्राप्त होता है ऐसा बहपुण्यलभ्य यह मनुष्य जीवन यदि व्यर्थ चला गया तो फिर प्राप्त हुआ वह नहीं प्राप्त हुआ जैसा ही हो गया // 10 // કેમકે-અનેક યોનિમાં એટલે કે 84 ચોર્યાશી લાખ યોનિમાં ભ્રમણ કર્યા પછી જ ઘણા પુણ્યના ઉદયથી જ મને આ મનુષ્યમાં તે પ્રાપ્ત થાય છે. એવી રીતે ઘણા જ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते પુણ્ય પ્રભાવથી મેળવેલ આ મનુષ્યભવ જો વ્યર્થ જ ચાલ્યા જાય તે પછી પ્રાપ્ત કરેલ તે ન મેળવ્યા જેવું જ થઈ જશે. 10 क्षिप्तं महाब्धी महनीयत्न प्राप्तिः पुनस्तस्य सुदुर्लभैव / यथा तथा नाथ सुकृच्छ्रलब्धं गतं हृतं चेद्विषयैस्तथेदम् // 11 // ___ अर्थ-हे नाथ ! जिस प्रकार बडे समुद्र में प्रक्षिप्त हुए महनीय रत्न की पुनः प्राप्ति होना बहुत दुर्लभ है, उसी प्रकार पंचेन्द्रियों के विषयों से हरण किया गया यह बहु कष्ट लभ्य मानवजन्म यदि उनके सेवन करने में ही नष्ट हो जाता है तो इसकी भी समुद्र में फेंके गये उस रत्न की प्राप्ती के समान पुनः प्राप्ति होना बहुत दुर्लभ है // 11 // હે નાથ ! જેમ મોટા સમુદ્રમાં નાખેલ કીમતી રત્નની ફરી પ્રાપ્તી થવી તે ઘણું જે મુશ્કેલ છે. પંચેન્દ્રિયના વિષયથી હરણ કરાયેલ આ ઘણી જ મુશ્કેલીથી પ્રાપ્ત થયેલ મનુષ્ય જન્મ જે તેના સેવન કરવામાં જ નાશ પામી જશે તો તેની પણ સમુદ્રમાં ફેકેલા એ રત્નની પ્રાપ્તિની જેમ ફરી પ્રાપ્ત થવું ઘણું જ દુર્લભ છે. 11. सदोहलां तां दवितां निरीक्ष्य वाचामगम्यां मुदमार हैमः / नवाङ्कुरोत्पत्तिविशिष्टभूमि विलोक्य तन्नाथ इंव प्रकृत्या // 12 // अर्थ-इस प्रकार की मनोरथवाली अपनी धर्मपत्नी गंगा को देखकर हैमचन्द्र श्रेष्ठी को अनिर्वचनीय-वचनों से नहीं कहा जा सके ऐसा आनन्द हुआ। ठीक बात है. जब भूमि का मालिक-किसान अपनी भूमि को नवीन अङ्कर की उत्पत्ति से युक्त देखता है तो उसे स्वभावतः आनन्द होता ही है // 12 // આ પ્રમાણેના મને ભાવનાવાળી પિતાની ધર્મ પત્નિ ગંગાને જોઇને હેમચંદ્રશેઠને વાણીથી વર્ણવી ન શકાય તેવો આનંદ થશે. ખરું જ છે કે-જયારે જમીન માલિક ખેડુત પિતાની ભૂમિને નવા અંકુરોના ઉત્પન્ન થવા વાળી જોઈને તેને સ્વાભાવિક આનંદ થાય જ છે. ૧રા उवाच ते तन्वि मनोरथोऽयं प्रशस्त भावान्वित एव तं त्वम् / कुरुष्व पूर्ण च यथाभिलाषं ममास्त्यनुज्ञापतिपन्थ्यहं नो // 13 / अर्थ-'इस प्रकार धर्मपत्नी के मनोरथ को जानकर' हैमचन्द्र श्रेष्ठी ने उससे कहा हे तन्वि ! तेरा यह मनोरथ प्रशस्त-शुभ भावों से युक्त है अतः तुम इसकी पूर्ति अपनी रुचि के अनुसार करो, इस विषय में मेरी तुम्हें आज्ञा Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः 193 है. मुझे तुम अपना प्रतिपन्थी-कार्य में बाधक मत समझो. मनोरथों को सफल करने में तुम मुझे अपना सहयोगी ही मानो. // 13 // (પૂર્વોક્ત પ્રકારથી પિતાની ધર્મપત્નીને મારથ જાણીને) હેમચંદ્રશેઠે તેને કહ્યું. હે તત્વાંગી ! તારે આ મને પ્રશસ્ત અર્થાત શુભ ભાવનાવાળો છે. તેથી તમે તમારી ઈચ્છાનુસાર તે પૂર્ણ કરો. આ સંબંધમાં મારી તમને અનુમતિ છે. મને તમે પિતાના પ્રતિપન્થી એટલે કે કાર્યમાં બાધ કરનાર ન સમજે. તમારા મને સફળ કરવામાં મને તમારે સહયોગી જ સમજે. 13 विहाय सर्व चर चारुनेत्रे ! सुपात्रदानादि च धर्म्यकृत्यम् / सुपात्रदानेन यतोऽस्ति शोभा गृहस्थधर्मस्य नचान्यथा सा // 14 // .. अर्थ-इसलिये घर के और सब कामों को छोडकर हे चारुनेत्रे ! तुम सत्पात्रों के लिये दानादि रूप धार्मिक कृत्यों को करो. क्योंकि गृहस्थ धर्म की शोभा सत्पात्रों को दिये गये दान से है. और किसी प्रकार से नहीं है // 14 // તેથી ઘરના બીજા સઘળા કામોને છોડીને હેચારૂનેત્રવાળી ! તમે સત્પાત્રોને દાનાદિરૂપ ધાર્મિક કૃત્ય કરો કેમકે–ગૃહસ્થ ધર્મની શોભા સત્પાત્રોને આપવામાં આવેલ દાનથી છે. અન્ય કોઈ પ્રકારથી નથી. 14 विधेः कृपाण्यां च जिनेन्द्रवाण्यां यस्यास्ति चित्ते सुदृढा प्रतीतिः / भद्रः प्रकृत्या सजघन्यापात्रः, पूज्यः स इन्द्रादिपदैः सुदृष्टिः // 15 // - अर्थ-कर्मों के सर्वथा विनाश करने में जो कृपाण के जैसी है ऐसी जिनेन्द्र वाणी ऊपर जिसके हृदय में अटूट श्रद्धा है, तथा स्वभावतः जिसकी कषायें मन्द है ऐसा भद्रपरिणामी वह सम्यग्दृष्टि जीव जघन्य पात्र है, सम्यग्दर्शन के प्रभाव से वह इन्द्रादिपदों द्वारा पूज्य-सेवनीय होता है. // 15 // - કર્મોને સર્વથા નાશ કરવામાં જે તલવારની ધાર જેવી છે, એવી જીનેન્દ્રદેવની વાણી ઉપર જેના હૃદયમાં અટ શ્રદ્ધા છે, તથા સ્વભાવથી જ જેના કષાયો મંદ છે, એવો ભદ્ર પરિણામી તે સમ્યક્દષ્ટિ જીવ જઘન્ય પાત્ર છે. સમ્યફદર્શનના પ્રભાવથી તે ઈદ્રાદિ દવે દ્વારા સેવનીય બને છે. 15 संसारसौख्यं पखिममुक्त्यै शरीरवृत्तावपि निर्ममा ये। कुर्वन्ति वैविध्यतपोऽनुरक्ताः स्वात्मस्थितौ ते विरलाः पुमांसः // 16 // Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते अर्थ-प्राप्त सांसारिक सुखों का परित्याग करके जो शारीरिक वृत्ति में निस्पृह बनकर मुक्ति प्राप्ति के निमित्त अनेक प्रकार की तपस्या करते हैं ऐसे मुनिजन संसार में विरले हैं // 16 // પ્રાપ્ત થયેલ સાંસારિક સુખને ત્યાગ કરીને જે શારીરિક વૃત્તિમાં નિઃસ્પૃહ બનીને મુક્તિ પ્રાપ્ત કરવા અનેક પ્રકારની તપસ્યા કરે છે. એવા મુનિજન સંસારમાં વિરલ छः // 16 // उत्कृष्टपात्राः मुनयो भवन्ति भवन्ति ते चारुचरित्र वित्ताः। गृहादि मुक्त्वा विचरन्ति भिक्षाशना विपत्यापि न हार्य धैर्याः // 17 // अर्थ-जो सदाचार-निर्दोष चारित्ररूपी धन से युक्त हैं, गृह आदि परिग्रह का सर्वथा परित्याग करके जगत् जीवों को सन्मार्ग में लाने के निमित्त जो विहार करते हैं, निर्दोष भिक्षावृत्ति ही जिनका भोजन है और जो आपत्ति विपत्तियों से अडिग धैर्यसंपन्न रहते हैं. उपसर्ग एवं परीषहों के आने पर भी जो अपने मार्ग से विचलित नहीं होते-ऐसे मुनिजन ही उत्कृष्ट पात्र हैं // 17 // જે સદાચાર-નિર્દોષ ચારિત્રરૂપી ધનથી યુક્ત છે, ગૃહ વિગેરે પરિગ્રહને એકદમ ત્યાગ કરીને જગતના જીવો ને સન્માર્ગે લાવવા માટે જેઓ વિહાર કરે છે, નિર્દોષ ભિક્ષાવૃત્તીજ જેમને આહાર છે, અને જે આપત્તિના સમયે અડગ બની ધીરજ યુક્ત રહે છે. ઉપસર્ગ અને પરીષહ આવી પડે તે પણ જે પોતાના માર્ગ ની ચલિત થતા નથી. એવા મુનિજને જ ઉત્કૃષ્ટ પાત્ર સમજવા. ૧છી ये श्रावकाचारपवित्रचित्ता भवन्ति देशप्रतिनो गृहस्थाः। रागादिनिर्हासयुता मुनीनां धर्मेप्सवः मध्यमपात्ररूपाः // 18 // अर्थ-जिनका हृदय श्रावक के 12 बारह व्रतरूपी आचार के पालन से पवित्र है ऐसे जो देशव्रती गृहस्थ हैं वे मध्यमपात्र हैं. ये श्रावक प्रतिमाओं पर जैसे 2 आरूढ होते जाते हैं-वैसे 2 इनमें रागादि कों की हीनता बडती जाती है और ये मुनिधर्म के अनुरागी हो जाते हैं // 18 // જેમનું હૃદય શ્રાવકોના 12 વ્રતરૂપી આચારના પાલનથી પવિત્ર છે. એવા જે દેશવ્રતી ગૃહસ્થ છે, તેઓ મધ્યમ પાત્ર છે. આ શ્રાવક પ્રતિમાઓ પર જેમ જેમ ચડતા જાય છે તેમ તેમ તેઓમાં રાગાદિકની હીનતા વધતી જાય છે અને તેઓ મુનિ ધર્મના અનુરાણી થઈ જાય છે. 18 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः निदेशमेवं ह्यधिगम्य भर्तुः सत्पात्रदानाल्पिकल्पवृक्षा। सती सती सा सधवा चकार मनोरथं स्वं सफलं प्रमोदात् // 19 // अर्थ-उस सती गंगादेवी ने अपने पतिदेव की आज्ञा प्राप्त कर सत्पात्रों के लिये भक्तिपूर्वक दान देने से कल्पवृक्षों को भी तिरस्कृत कर दिया, इस तरह सधवा उस देवी ने बडे आनंद के साथ अपना मनोरथ पूर्ण किया // 19 // એ સતી ગંગાદેવીએ પોતાના પતિદેવની આજ્ઞા મેળવીને સત્પાત્રોને ભક્તિપૂર્વક દાન આપવાથી કલ્પવૃક્ષોને પણ હલ્કા પાડી દીધા એ રીતે સધવા એવા એ દેવીએ ઘણા જ આનંદપૂર્વક પિતાને મનોરથ પૂર્ણ કર્યો. 19 गर्भस्य वृद्धयानतकाययष्टिर्यदाऽभवत्साऽभ्यर्णे मुनीनाम् / यथाकथंचित्समुपेत्य तेषां मुखारविन्दादशृणोच्च धर्मम् // 20 // अर्थ-धीरे 2 जब गर्भ की वृद्धि हो चुकी तब उसकी कमर कुछ 2 झुकसी गई और इस स्थिति में भी वह येनकेन प्रकारेण मुनि महाराजों के पास जाती और उनके मुखारविन्द से धर्म का उपदेश सुनती // 20 // ધીરે ધીરે જયારે ગર્ભની વૃદ્ધિ થઇ ગઈ ત્યારે તેની કમર કંઈક કંઈક નમી ગઈ અને આ સ્થિતિમાં પણ તે યેન કેન પ્રકારથી મુનિ મહારાજની પાસે જતી અને તેમના મુખારવિંદથી ધર્મને ઉપદેશ સાંભળતી. રવો .. 'धर्मानुरागाच्च यदा कदा सा, उपाश्रयं प्राप्य च मंगलीकम् / श्रवःपुटाभ्यां परिषीय पश्चाद्गुरोर्मुखात्स्वाश्रम माजगाम // 21 // ____ अर्थ-जब कभी तो यह धर्मानुराग से प्रेरित होकर उपाश्रय पहुँच कर केवल गुरुमुख से मांगलीक सुनकर हो अपने घर पर आ जाती थी // 21 // કઈક સમયે તે ધર્માનુરાગથી પ્રેરિત થઈને ઉપાશ્રયમાં પહોંચીને કેવળ ગુરૂમુખથી માંગલિક સાંભળીને જ પોતાને ઘેર આવી જતી. ર૧ उपाश्रयं प्राप्य यदा कदा सा साधूंश्च साध्वीः परिवन्द्य भव्या। धर्मानुरागा हृतचित्तवित्ता प्रमोदमत्ताऽऽलय माजगाम // 22 // अर्थ-और जब कभी यह उपाश्रय पहुँच कर साधु और साध्वियों की कैवल वन्दना करके ही अपने घर पर आ जाती थी क्योंकि इसका हृदयरूपी धन धर्मानुराग के द्वारा चुरा लिया गया था. अतः इस ओर ही वह Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते खिंचा खिंचा सा रहता था. जब यह अपने घर पर आती तब आनन्द आनन्द से भरी ही दिखती // 22 // અને કોઈવાર તે ઉપાશ્રયમાં જઈને સાધુ અને સાધ્વીઓની કેવળ વંદના કરીને જ પિતાને ઘેર આવી જતી. કેમકે–તેનું હૃદય રૂપી ધન ધર્માનુરાગથી ગેરાઈ ગયું હતું. તેથી એ તરફ જ તે ખેંચાઇ રહેતી હતી. જ્યારે તે પોતાને ઘેર આવતી ત્યારે આનંદથી મગ્ન રહેતી હતી. પરરા कदाचिदेशा भवने स्वकीये सामायिक वा समता विवृद्धथै / प्रतिक्रमं वा निजदोषशुद्धथै, अचीकरवा रहसि स्वयं सा // 23 // अर्थ-कभी कभी तो वह अपने भवन में ही समता भाव की विशेषवृद्धि के निमित्त एकान्त में सामायिक किया करती और कभी यह अपने दोषों की शुद्धि के निमित्त स्वयं ही उभयकाल प्रतिक्रमण किया करती // 23 // કયારેક કયારેક તે તે પિતાના ભવનમાં જ સમતા ભાવની વિશેષ વૃદ્ધિ નિમિત્તે એકાન્તમાં સામાયિક કર્યા કરતી અને કયારેક તે પોતાના દેશની શુદ્ધિ માટે પોતે બન્ને કાળ પ્રતિક્રમણ કર્યા કરતી. રા यदा कदा सा निलये सखीभिः मनोविनोदाय कथाश्चकार / सत्रा तपोवीर्यजुषां मुनीनां परीषहे धैर्यकरण्डकानाम् // 24 // अर्थ-तथा-जब कभी यह सखियों के साथ मनोविनोद के निमित्त उन उन मुनिराजों की कि जो तपस्या करने में विशिष्ट शक्तिशाली हुए हैं और आये हुए परीषहों को सहन करने में धैर्य के पिटारे बने रहे अनेक कथाओं को किया करती. // 24 // - તથા ક્યારેક તે સખિયેની સાથે મને વિનદ કરવા તે તે મુનિરાજોની કે જેઓ તપસ્યા કરવામાં વધારે શક્તિ સંપન્ન બન્યા છે, અને આવી પડેલા પરીષહ ને સહન કરવામાં ધીરજના પટારા જેવા બની રહ્યા છે તેમની અનેક કથાઓ કહ્યા કરતી. રજા समाप्य गार्हस्थ्यिककृत्यमेषा कलस्वराभिः सवयः सखीभिः / आस्थाय माधुर्ययुतेन विज्ञा स्वरेण साध्विन्द्रगुणानगायत् // 25 // अर्थ-अपने घर के सब कार्यों को समाप्त करके जब यह निश्चिन्त हो जाती तब अपनी मधुर स्वरवाली समान अवस्थावाली सखियों के साथ बैठकर यह मधुर स्वर से आचार्य महाराजों के गुणों का गान करती. // 25 // Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः 197 પિતાના ઘરના સઘળા કાર્યો સમાપ્ત કરીને જયારે તે નિવૃત્ત બની જતી ત્યારે તે પોતાની મધુર સ્વરવાળી વાણીથી આચાર્ય મહારાજાઓના ગુણેનું ગાન કરતી. રપ कृपावती सा कशिषु प्रदानात् दारिस्थितान् दीनजनांश्च वान्यान् / अभ्यागतान याचकभिक्षुकांश्व नाथाननाथानपुषस्वशक्त्या // 26 // अर्थ-वह दयालु थी. इसलिये जो कोई भी दीन, हीन, अभ्यागत, याचक, भिक्षुक, सनाथ और अनाथ उसके द्वार पर आता वह सब के लिये अपनी शक्ति के अनुसार भोजनादि का दान दिया करती // 26 // એ દયાળુ હતી, તેથી જે કોઈ દીન, હીન, અભ્યાગત, યાચક, શિક્ષક, સનાથ અને અનાથે તેના બારણે આવતું તે તમામને પોતાની શક્તિ પ્રમાણે ભેજનાદિનું દાન આપતી ારદા साह्यातिवेय्यादरभावजुष्टा वात्सल्यभावेन युतान्तरङ्गा / धर्मज्ञविज्ञा स्वशनादिभिश्च सर्मिणःस्वान् सत्कृत्य रेजे 127 // - अर्थ-वह अतिथि का आदर सत्कार करने में बड़ी चतुर थी. इसका अन्तरङ्ग वात्सल्यभाव से भरा रहता था. इसकी बुद्धि सच्चे झूठे धर्मात्मा की परख करने में बड़ी पैनी थी. इसलिये यह बडे आदरभाव से अपने सामि बन्धुओं का अच्छे 2 भोजनादिकों द्वारा आदर सत्कार करके बड़ी खुश होती // 27 // તે અતિથિનો આદર સત્કાર કરવામાં ઘણું જ ચતુર હતી. તેનું હૃદય વાત્સલ્ય ભાવથી ભરેલું રહેતું હતું. તેની બુદ્ધિ સાચા જુદા ધર્માત્માને પારખવામાં નિપુણ હતી. તેથી તે ઘણા જ આદર ભાવથી પિતાના સાધર્મક બધુઓનું સારા સારા ભેજનાદિ આપીને તેમને આદર સત્કાર કરીને ઘણી પ્રસન્ન રહેતી હતી. કેરા अपश्यदा न खलु धार्मिकान सा यदा च तत्कष्ट निवारणाय / तेभ्यो ह्यदादोषधिलाभहेतु स्रोग्यलाभार्थनी स्वविचम् // 28 // अर्थ-जब यह किसी धार्मिक जनको व्याधि से ग्रसित हुआ देखती तो उसके कष्ट के निवारण करने के लिये और अच्छी तरह से इसे आरोग्य का लाभ हो जाये इस अभिप्राय से औषधि को लाने के लिये यह अपने पास से उसे द्रव्य देती. // 28 // Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198 लोकाशाहचरिते જ્યારે તે કોઈ ધાર્મિક પુરૂષને વ્યાધિથી પીડા પામતો દેખતી તે તેના દુઃખને દૂર કરવા માટે અને સારી રીતે તેને આરોગ્યપણ મળી જાય તે હેતુથી તેને ઔષધિ લાવવા માટે તે પિતાની પાસેથી ધનાદિ આપતિ. ર૮ ज्ञानप्रदानेन च केवलाप्तिर्भवेत्सदातु ह्यधार्य सैषा / ज्ञानार्थिनेऽज्ञाननित्तिहेतुं ज्ञानार्जन) सद्भावतोऽयच्छत् // 29 // अर्थ-इस गंगादेवी को यह पूर्णरूप से निश्चय था कि ज्ञानदान देनेवाले को केवलज्ञान की प्राप्ति होती है. इसलिये इसने जो ज्ञान को प्राप्त करने के अभिलाषी थे उनके लिये अज्ञान की निवृत्ति के कारण भूत साधनों को ज्ञानार्जन के निमित्त बडे प्रेम से दिये. // 29 // આ ગંગાદેવીને એ સંપૂર્ણ ખાત્રી હતી કે-જ્ઞાન દાન આપનારને કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્ત થાય છે. તેથી તે જેઓ જ્ઞાન મેળવવા ઈચ્છતા હતા તેમને માટે અજ્ઞાનની નિવૃત્તિના કારણભૂત સાધને જ્ઞાનાર્જન માટે ઘણા જ પ્રેમથી આપતી હતી. ર૯ निरस्तपूर्णाभरणा धृताङ्गसौभाग्यचिह्ना विबुधैर्व्यतर्कि / प्रभातसंध्या किमियं च किंवा निरस्तपत्रा सफला लतावा // 30 // __अर्थ-गर्भावस्था के कारण गंगादेवी ने सौभाग्यसूचक चिह्नों के सिवाय अन्य और समस्त आभरण उतार कर रख दिये थे अतः ऐसी स्थिति में उसे देखकर समझदार मनुष्यों की-कविजनों की दृष्टि में ऐसा विचार उठा कि क्या यह जिसमें तारे तो अस्त हो गये हैं और चन्द्रमा अभी. अस्त नहीं हुआ है ऐसी प्रातःकाल की संध्या है ? या जिससे पत्ते तो झर चुके हैं और फल अभी झरे नहीं हैं ऐसी क्या यह लता है. // 30 // ગર્ભાવસ્થાના કારણે ગંગાદેવીએ સૌભાગ્ય સૂચક આભરણે શિવાયના બીજા સઘળા આભૂષણો ઉતારી મૂક્યા હતા. તેથી તેને જોઈને કવિઓને એવો વિચાર આવે કે જેમાં તારાઓ અરત પામ્યા છે અને ચંદ્ર અસ્ત પામેલ નથી એવી પ્રાતઃ કાલીને આ સંધ્યા છે? અથવા જેના પાંદડા ખરી પડયા છે, અને ફળ તેની સાથે રહ્યા છે એવી આ વેલી છે? 30 समस्तमेघप्रतिवन्धमुक्तं सतारकं राहुभयात्किमेतत् / धररावतीर्ण नु शशाङ्कविम्बं मुखं तदीयं कविभियंतर्कि // 31 // अर्थ-अथवा-जिससे मेघों का प्रतिवन्ध-आवरण-सर्वथा हट चुका है ऐसा यह क्या तारासहित चन्द्रमा का बिम्ब ही राहु के भय से भूतलपर उतर Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः आया है इस प्रकार कविजनों ने उसके मुख के विषय में विचार किया मुख पर लगा हुआ सौभाग्य चिह्न तारा के स्थानापन्न और मुख चन्द्रमा के स्थानापन्न यहां प्रकट किया गया है तथा शेष जो आभूषण उतार दिये गये हैं वे मेघ के अपगम तुल्य कहे गये हैं. // 31 // અથવા જેમાંથી વાદળાઓનું આવરણ બિલકુલ હટી ગયું છે, એવું આ શું તારાઓથી યુક્ત ચંદ્રબિંબ જ રાહુના ભયથી પૃથ્વી ઉપર ઉતરી આવ્યું છે? આ રીતે કવિજનોએ તેના મુખ વિષે કલ્પના કરી, મુખ પર લાગેલ સૌભાગ્ય ચિહ્ન તારા સમાન અને મુખ ચંદ્ર સમાન હોવાથી અહીં કલ્પના કરી છે. અને બાકીના જે ઘરેણાઓ ઉતારી મૂક્યા છે, તે વાદળના દૂર થવા સમાન કલ્પેલ છે. 31 पुष्पैलतेव क्षणदोज्ज्वलाभिस्ताराभिरासी न विहङ्गमैश्च / सरित्तथेयं ललनाचकासे सौभाग्यचिकैः स्वशरीरसंस्थैः // 32 // अर्थ-पुष्पों से जैसी लता सुहावनी लगती है चमकते हुए तारों से जैसी रजनी सुहावनी प्रतीत होती है और बैठे हुए पक्षियों से जैसी नदी सुहावनी लगती है उसी तरह वह गंगादेवी अंग उपांगों पर रहे हुए उन सौभाग्य चिह्नों से सुहावनी लगती थी. // 32 // પુષ્પોથી જેમ વેલ સોહામણી લાગે છે, ચમકતા તારાઓથી જેમ રાત્રી શોભાયમાન લાગે છે, અને બેઠેલા પક્ષીઓથી જેમ નદી શોભાયમાન જણાય છે એજ પ્રમાણે આ ગંગાદેવી અંગ ઉપાંગો પર રહેલા એ સૌભાગ્યના ચિહ્નોથી શોભાયમાન લાગતી હતી. ૩રા यदा स्वसौन्दर्यदिदृक्षयात्म स्वरूपमादर्शतले ह्यपश्यत् / तदा स्वरूपं प्रति सा मुभोह स्वयंकथा कान्यजनस्य वाच्या // 33 // ___ अर्थ-वह गंगादेवी अपने सौन्दर्य को देखने की इच्छा से दर्पण में अपने स्वरूप को देखकर जब स्वयं अपने रूप के प्रति मोहित हो जाती तब उसके रूप को देखनेवाले अन्य मनुष्य की तो बात ही क्या कहनी.॥३३॥ આ ગંગાદેવી પિતાના સૌંદર્યને જોવાની ઇચ્છાથી આયનામાં પિતાનું રૂપ જોઈને જ્યારે તે પોતે પોતાના રૂપમાં મેહ પામતી તે તેના રૂપને જોનાર બીજા મનુષ્યની તે વાત જ શું કરવી? 33 . सा कोकिलालापनिभाल्पजल्पा स्वल्पा शनाऽभाणिकयाऽपिसख्या / राकेन्दु नेवत्वं तन्वि ! शीघ्र अलङ्कता स्यास्तनयेन युक्ता // 34 // Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 लोकाशाहचरिते अर्थ-गर्भावस्था के कारण गंगादेवी बहुँत कम बोलती थी-पर जो भी बोलती थीं वह ऐसा प्रतीत होता था कि मानों कोयल ही बोल रही है. उनका आहार भी पहिले की अपेक्षा स्वल्य हो गया था. इन सब बातों को देखकर किसी एक संखी ने उनसे कहा तन्वि ! तुम शीघ्र ही चन्द्रमण्डल से पूर्णमासी के समान पुत्र से युक्त होकर अलङ्कृत होओ. // 34 // ગર્ભાવસ્થાના કારણે ગંગાદેવી ઘણું ઓછું બોલતી પરંતુ જે કંઈ બોલતી તેથી એમ જ લાગતું કે જાણે કોયલ જ બેલી રહી છે. તેનો આહાર પણ પહેલાંના કરતાં ઓછો થઈ ગયા હતા. આ સઘળી હકીકત જોઈને કોઈ એક સખીએ તેને કહ્યું કે હે તન્વી ! તમે હવે થોડા જ સમયમાં ચંદ્રમંડળમાં પૂર્ણિમા જેવા પુત્રયુક્ત થઈને અલંકૃત થાવ. 34 श्रुत्वा ह्यवादी दपरा च काचिद्रयस्य मुष्मिन्नपिनेयमीदृक् / भवेद्वयस्ये ! वद किं जरायां पुत्रप्रसू जीर्णलतेव चेयम् // 35 // अर्थ-इस प्रकार के उसके आशीर्वादात्मक वचन को सुनकर किसी दूसरी सखी ने उससे कहा-वयस्ये ! यदि यह इस अवस्था में भी पुत्रवती नहीं होगी तो क्या वृद्धावस्था में पुत्रवती होगी? वृद्धावस्था में तो यह जीर्णलता जैसी हो जावेगी. अतः उस अवस्था में संतानोत्पत्ति असंभव ही है.॥३५॥ આ પ્રમાણેના તેના આશીર્વાદ જેવા વચન સાંભળીને કેઈ બીજી સખીએ તેને કહ્યું હે બેન ! જે આ અવસ્થામાં પણ પુત્રવાળી નહીં બને તે શું વૃદ્ધાવસ્થામાં પુત્રવાળી થશે ? વૃદ્ધાવસ્થામાં તો આ જીણું લતા જેવી બની જશે તેથી એ અવસ્થામાં તો સંતાનેત્પત્તી અસંભવિત જ છે. આપા दुर्भाषणे ! ते न च रोचते मे वचोयदुक्तं परिहासगर्भम् / अस्मत्सखीयं सततं स्थिरा स्याद् वयस्यमुष्मिन्नजरामरीव // 36 // अर्थ-दुर्भाषणे ! मुझे तेरी यह हंसी मजाक की कही गई बातें अच्छी नहीं लगती हैं. हम तो यही चाहते हैं कि यह हमारी सखी सदा देवी के समान तरुण रहें और अजर रहें // 36 // હે ખોટું બોલનારી ! મને તારી આ મશ્કરીવાળી વાત સારી લાગતી નથી હું તે એજ ઈચ્છું છું કે–આ અમારી સખી સદા દેવની જેમ તરણ અને અજર અને અમર રહે. કદા श्रुत्वोक्तिमित्थं स पराऽवदद्भोः ! जानासि किं त्वं न तदीयवृत्तम् / जरातुरा नैव भविष्ठातीयं यतो विधाता स्वयमेव भर्ता // 37 // Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः 201 अर्थ-इस प्रकार की उक्ति को सुनकर किसी दूसरी सखी ने कहा अरी ! तूं इसकी हालत से परिचित थोडे ही है. यह तुम विश्वास रखोयह बुडी भले ही हो जाओ. पर यह दुःखित नहीं होगी क्यों कि इसका स्वयं पुण्य ही इसका भर्ती है. अर्थात् जिसका स्वामी कोटवाल-थानेदारग्राम का रक्षक हो तो फिर जैसे उसे किसी का डर नहीं होता उसी प्रकार इसका पुण्य स्वामी ही जब भर्ती पालनपोषण करनेवाला है तो फिर इसे वृद्धावस्था में आजाने पर भी उससे पीडित होने का जरा सा भी अंदेशा नहीं हो सकता है. // 37 // આ પ્રમાણેના કથનને સાંભળીને બીજી કોઈ સખીએ કહ્યું અરે !તું આની પરિરિથતિથી વાકેફ થેડી જ છે? તું એ ખાત્રી રાખ કે આ વૃદ્ધ ભલે થઈ જાય પરંતુ તે દુઃખી થશે નહીં. કારણ કે તેનું પુણ્ય જ તેને સ્વામી છે. અર્થાત જેનો સ્વામી જ કોટવાળ, થાણદાર કે ગામનું રક્ષણ કરનાર હોય તે પછી તેની પત્નીને કોઈને પણ ડર હોતો નથી. એજ રીતે આને પુણ્યરૂપ સ્વામી જ જયારે પાલન પોષણ કરનાર ભર્તા છે તે પછી તેને વૃદ્ધાવસ્થા આવવા છતાં પણ તેનાથી દુઃખિત થવાને જરા સરખો પણ સંદેહ રહેતો નથી. ૩ળા भवेत्सदाऽस्याः पयसाभिषेकः पुत्रेण पौत्रेण समन्वितायाः। प्रतिप्रसादात् सफला समीहा भवेदियं पुत्रवतीषु मुख्याः // 30 // अर्थ-इसलिये 'धन न्हाओ पूतन फूलो' की उक्ति के अनुसार हम तो इसे यही शुभाशीर्वाद देते हैं कि इसका दुग्ध से अभिषेक हो, और यह पुत्र और पौत्र से युक्त बने. पति की कृपा से इसकी इच्छा सफल होती रहे और यह पुत्रवती स्त्रियों में मुख्य मानी जावे. // 38 // તેથી “દૂધથી નાવ પુત્રથી ફલે' એ કથન પ્રમાણે હું તે તેને એજ આશીષ આપું છું કે-આને દૂધથી અભિષેક થાય અને આ પુત્ર અને પૌત્રથી યુક્ત બને, પતિની કૃપાથી એની ઇચ્છા સફળ થતી રહે, અને આ પુત્રવતી સ્ત્રીઓમાં ઉત્તમ માનવામાં આવે. 38 पुत्रोऽपि भूयात्करजाग्रगण्यो भूयात्स सौभाग्यनिधेकरण्डः / अनर्थदण्डप्रतिदण्डकर्ता भवेद् भवेत्सम्यग्बोधबुद्धः // 39 // अर्थ-इसका पुत्र भी ऐसा हो कि जो अंगुलियों पर गिनने योग्य हो सौभाग्यरूप निधि का वह पिटारा हो. अनर्थदण्ड प्रतिदण्ड कर्ता हो जिन कार्यों के, समारंभादि करने में जीव को पाप लगता हो ऐसे कार्यों का निषेधक हो और समीचीन बोध से हर एक तत्त्व का विचारक हो. // 39 // Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202 लोकाशाहपरिते આને પુત્ર પણ એવો થાય કે આંગળી પર ગણનાપાત્ર બને અને ભાગ્યરૂપી ભંડારને એ પટારો બને અનર્થ દંડ અને પ્રતિબંડના કર્તાબને જે કાર્યોના સમારંભ વિગેરે કરવામાં જીવને પાતક લાગે એવા કાર્યોને રોકનાર બને અને સમીચીન બેધથી દરેક પ્રકારના તત્વને વિચારક થાવ. 39 इत्थं सखीभिः स्वमनोऽनुकूलां निशम्य वाचं मुमुदेतरां सा। हितं मनोहाखिचश्चरित्रं मनोमुदे स्यान्न जनस्य कस्य // 40 // . अर्थ-इस प्रकार सखियों से कहे गये अपने मनोऽनुकूल वचनों को सुनकर वह गंगादेवी अपने आप में बहुत अधिक आनंदित हुई. सच बात है हितकारी मनोहर वचन और सदाचार किस व्यक्ति के मनको प्रसन्न नहीं कर देता है. // 40 // આ પ્રમાણે સખિઓએ કહેલા પિતાના મનને અનુકૂળ વચન સાંભળીને એ ગંગાદેવી પિતે ઘણી જ આનંદિત બની. ખરી જ વાત છે કે હિતકારી અને મનહર વચન અને સદાચાર કયા મનુષ્યને ખુશ નથી કરતા? 4 प्रियंवदा साथजगाद किञ्चित्सस्मेर वक्त्रा परिभाव्यवाचः / विनम्य गृह्णामि शुभाशिषं वः काले जनः स स्मरणीय एषः // 41 // अर्थ-प्रियंवदा गंगादेवी ने उनकी बातों का विचार कर बडी नम्रता के साथ कुछ मुस्करा कर उनसे कहा-मैं आप लोगों के शुभाशीर्वाद को ग्रहण करती हूं. और यह प्रार्थना करती हूं कि समय पर इस मनुष्य को आप भूल न जायें याद रखें. // 41 // - પ્રિયંવદા ગંગાદેવીએ સખીની વાતોને વિચાર કરીને ઘણા જ નમ્રભાવથી કંઈક હસીને તેમને આ રીતે કહ્યું–હું તમારી શુભ કામનાઓને રવીકારું છું. અને એમ ઇચ્છું છું કે સમય આવ્યેથી આ મનુષ્યને તમે ભૂલી ન જાઓ એ યાદ રાખજો. 41 धर्मप्रभावेण जनस्य कार्य सर्व सुसिद्धं भवतीति मत्वा / धर्मार्जने धीः सुजनैविधेया शिष्टायते कष्टमपीह तस्मै // 42 // - अर्थ-धर्म के प्रभाव से ही मनुष्य का प्रत्येक कार्य भले प्रकार से सिद्ध होता है. ऐसा समझकर बुद्धिमान् पुरुष का कर्तव्य है कि वह धर्मोपाजेंन करने में अपनी बुद्धि का सदुपयोग करे. जो धर्मात्मा होते हैं उनके लिये कष्ट भी शिष्ट के जैसा बन जाता है. अर्थात् कष्ट के आने पर भी वे उससे पीडित नहीं हो पाते हैं. धर्म का ऐसा ही प्रभाव है. // 42 // Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः 203 ધર્મના પ્રભાવથી જ મનુષ્યના દરેક કાર્યો સારી રીતે સિદ્ધ થાય છે. એમ સમજીને બુદ્ધિમાન પુરૂષનું કર્તવ્ય છે કે-તે ધર્મોપાર્જન કરવામાં પોતાની બુદ્ધિને સદુપયોગ કરે. જેઓ ધર્માત્મા હોય છે, તેમને કઈ પણ શિષ્ટના જેવું થઈ જાય છે. અર્થાત્ કષ્ટ આવે તે પણ તેઓ તેનાથી દુઃખિત થતા નથી ધર્મને એ જ પ્રભાવ છે. મારા सुरक्षितो रक्षति धर्म एव हतो यतो हन्ति च सत्यमेतत् / त्यक्त्वा प्रमादं सततं जनेन हितेच्छुना मुख्यतया स सेव्यः // 43 // अर्थ-अच्छी तरह रक्षित हुआ धर्म ही अपनी रक्षा करने वाले की दुर्गति के दुःखों से रक्षा करता है और जो इसका घात करता है-इसका सेवन नहीं करता है-ऐसे जीव का यह विनाश करता है दुर्गति के दुःखों से उसकी रक्षा नहीं करता है. ऐसा यह कथन सल है. अतः प्रमाद को छोडकर आत्महिताभिलाषी जीव को निरन्तर नुख्यरूप से प्रमाद छोडकर इसका सेवन करना चाहिये. // 43 // - - સારી રીતે રક્ષા કરાયેલ ધર્મ જ પિતાની રક્ષા કરનારની દુર્ગતિના દુખથી રક્ષા કરે છે અને જેઓ તેને ઘાંત કરે છે, અર્થાત ધર્મનું સેવન કરતા નથી. એવા છે ને તે નાશ કરે છે. દુર્ગતિના દુઃખથી તેનું રક્ષણ કરતો નથી. એવું આ કથન સત્ય જ છે, તેથી પ્રમાદને છોડીને આત્મહિતને ઈચ્છનાર જીવે હમેશાં પ્રમાદને છેડીને તેનું સેવન કરવું જોઈએ. આવા तदुक्तमेवं हृदि संप्रधार्थ सा प्रेरिता ताभिरूपाश्रयाय / गता त्रिवारं प्रणिपत्य मूर्ना गुरुन् गुरुन् भक्तियुता समस्यात् // 44 // अर्थ-गंगादेवी के द्वारा जब ऐसा कहा गया कि मुख्यरूप से धर्म का सेवन करना चाहिये तो इस बात को हृदय में अच्छी तरह से धारण करके उन्होंने गंगादेवी को उपाश्रय में चलने के लिये प्रेरित किया. वह उनके साथ उपाश्रय में गई. वहां जाकर उसने तीनवार मस्तक झुकाकर गुणशाली गुरुदेवों को भक्ति से युक्त होकर नमस्कार किया-वन्दना की-फिर वह वहीं पर बैठ गई. // 44 // ગંગાદેવીએ જયારે આ પ્રમાણે કહ્યું કે-મુખ્ય રૂપથી ધર્મનું સેવન કરવું જોઈએ તે એ વાતને હૃદયમાં સારી રીતે ધારણ કરીને તેમણે ગંગાદેવીને ઉપાશ્રયમાં જવા માટે પ્રેરણા કરી. તેઓ તેની સાથે જ ઉપાશ્રયમાં ગઈ ત્યાં જઈને તેણે ત્રણવાર ભરતક નમાવીને Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204 लोकाशाहचरिते ગુણવાન ગુરૂદેવને ભક્તિભાવથી પ્રેરિત થઈને નમસ્કાર કર્યા–વંદના કરી અને તે પછી તે ત્યાં જ બેસી ગઈ. 44 तत्र स्थितान् भव्यजनान् निरीक्ष्य निरीक्ष्य धर्मावृतपानसोकान् / संबोधयन्ती गुरुदेववाणी विनिर्गता तान् पुरतस्तमोऽनी // 45 // अर्थ-उपाश्रय में उपस्थित हुए भव्यजनों को देखकर और उन्हें धर्मामृत पान करने की उत्कंठावाले जानकर गुरुदेव की अज्ञान अंधकार को नष्ट करनेवाली वाणी उन्हें संबोधित करती हुई उन सबके समक्ष निकली. // 45 // ઉપાશ્રયમાં આવેલા ભવ્યજનોને જોઈને અને તેમને ધર્મામૃતનું પાન કરવાની ઉત્કંઠાવાળા જાણીને ગુરૂદેવની અજ્ઞાનરૂપી અંધકારને નાશ કરવાવાળી વાણી તેમને સંબોધિત કરીને એ સૌની સન્મુખ નીકળી. ૪પા . भो ! भव्यवृन्दाः ! शृणुतावधानात्परे स्वसिद्धान्तसुपक्षपातात् / विमोहितान्तः करणाः कुतीर्थ्याः प्रवादिनः केचिदिदं वदन्ति // 46 // अर्थ-हे भव्यजीवो! तुम सब सावधान होकर सुनो. कितनेक प्रवादी जन अपने सिद्धान्त के दृढ पक्षपात से विमोहित बुद्धिवाले होकर इस प्रकार से कहते हैं // 46 // હે ભવ્ય જીવો ! તમો સૌ સાવધાન થઈને સાંભળે. કેટલાક પ્રવાદી મનુષ્ય પોતાના સિદ્ધાંતના દઢ પક્ષપાતથી મોહિત બુદ્ધિવાળા થઈને આ પ્રમાણે કહે છે. દા. भूनीवह्निश्वसनैमिलित्वा संघातरूपेण विधेयतेऽयम् / जीवो न तेभ्योऽस्त्यतिरिक्त एषःमयाङ्गसंगैर्मदशक्तिवद्धि // 47 // अर्थ-जिस प्रकार मद्याङ्ग-महुआ, गुड, जल आदि पदार्थों के मेल से मदशक्ति उत्पन्न होती है, उसी प्रकार पृथिवी, जल, अग्नि और हवा इन चार तत्वों के मेल से जीव पदार्थ उत्पन्न होता है. अतः यह उनसे अतिरिक्त स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है. // 47 // જેમ મહુડા, ગોળ, પાણી વિગેરે પદાર્થોને મેળવવાથી મદશક્તિ પેદા થાય છે. એજ પ્રમાણે પૃથ્વી, જલ, અગ્નિ અને હવા આ ચાર તેના મળવાથી જીવ પદાર્થ ઉત્પન્ન થાય છે. તેથી એ એનાથી જુદો રવતંત્ર પદાર્થ નથી. છા देहादभिन्नः खल्वेषजीवः भिन्नस्य तस्यानुपलब्धितोऽस्मिन् / देहे विनष्टे सति तस्य नाशः जलक्षये बुबुद विन्दवो वा // 48 // Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 205 सप्तमः सर्गः अर्थ-अतः पृथिवी आदि चार भूतों से निष्पन्न हुए इस शरीर से पृथक् रहेनेवाला जीव नाम का कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है वह तो देह से अभिन्न ही है. वह देह से भिन्न है इस प्रकार से उसकी स्वतंत्र रूप से उपलब्धि नहीं देखी जाती है. इसलिये देह के नाश होते ही जल के नाश होने पर उसके वुद्बुद की तुल्य इसका विनाश हो जाता है. // 48 // તેથી પૃથ્વી વિગેરે ચાર મહાભૂતોથી બનેલ આ શરીરથી અલગ રહેનારો જીવે નામને કેઈ સ્વતંત્ર પદાર્થ નથી. એ તો દેહથી અભિન્ન જ છે. તે દેહથી ભિન્ન છે, એ પ્રમાણે તેની સ્વતંત્રરૂપે ઉપલબ્ધિ જણાતી નથી. તેથી દેહને નાશ થવાથી જલના નાશથી તેના પરપોટાની જેમ એનો વિનાશ થાય છે. 48 पुण्यस्य पापस्य फलस्य भोक्ता नेहास्ति कश्चित्परलोकयायी। पुण्यं च पापं च न कोऽपि धर्मः नाप्यस्त्यधर्मो न शुणी पुणो वा // 49 // अर्थ-इसलिये पुण्य, पाप और उनके फल का भोक्ता कोई नहीं है तथा परलोक में जानेवाला भी कोई नहीं है. न पुण्य है, न पाप है, न धर्म है, न अधर्म है. न गुणी-आत्मा है और न उसके सम्यग्दर्शनादि गुण हैं. // 49 // તેથી પુણ્ય, પાપ, અને તેના ફળને ભેગવનાર કોઈ નથી. તથા પલેકમાં પણ કોઈ જનાર નથી પુણ્ય નથી તેમ પાપ પણ નથી, ધર્મ કે અધર્મ પણ નથી ગુણી–આત્મા નથી અને તેના સમ્યફદર્શનાદિ ગુણે પણ નથી. 49 सर्वं तदेतत्कथनं मृषैव यतोऽस्ति भूतात्पृथगस्ति जीवः / कायात्मकोऽसौ न विरुद्ध धर्माध्यासात्तयोर्लक्षणमेदवत्वात् // 50 // अर्थ-ऐसा यह सब कहना भूतवादी चार्वाक् का झूठा ही है. क्योंकि पृथिवी आदि भूतचतुष्टय से जीव भिन्न है इसी प्रकार यह शरीररूप भी नहीं है. क्योंकि शरीर का और जीव का लक्षण. भिन्न 2 है. अतः एक दूसरे की अपेक्षा भिन्न 2 धर्मवाले होनेसे इनमें आपस में भिन्नता सिद्ध हो जाती है. // 50 // આ પૂર્વોક્ત પ્રકારથી ભૂતવાદી ચાર્વાકનું તમામ કથન અસત્ય જ છે. કેમકે–પૃથ્વી વિગેરે ચાર મહાભૂતોથી જીવ ભિન્ન છે, તેમજ આ શરીરરૂપ પણ તે નથી. કેમકે શરીર અને જીવના લક્ષણ અલગ અલગ છે. તેથી એકબીજા કરતાં જુદા જુદા ધર્મવાળા હોવાથી તેઓમાં પરસ્પર ભિન્નપણું સિદ્ધ થઈ જાય છે. આપણે Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206 लोकाशाहचरिते भूतात्मक तत्व चतुष्टयं तच्चैतन्यरिक्तं कथास्थ युक्तम् / चैतन्यमा प्रतिकार गत्य विचारणीयं स्वयमेव सम्यक् // 51 // अर्थ-तुम्हें स्वयं ही इस बात का विचार करना चाहिये कि भूतात्मक जो चार सत्त्व हैं वे अचेतन हैं और जीव चेतन है. तो इस चेतन जीवरूप भाव के प्रति भूतचतुष्टय में कारणता कैसे बन सकती है. // 51 // તમારે પોતાની મેળે જ એ વાતનો વિચાર કરે જોઈએ કે ભૂતાત્મક જે ચાર તત્વ છે, તે અચેતન છે, અને જીવ ચેતન છે, તે આ ચેતન એવા જીવ પ્રત્યે ચાર મહાભૂતેમાં કારણ પણું કેવી રીતે બની શકે? 51 देहस्य नाशे यदि जीवनाशो भवेत्कथं संकलनात्मकं तत् / .. ज्ञानं यथाऽयं खलु देवदत्तः स एव कस्यापि भवेत्कथं वा // 52 // ___ अर्थ-देह के नाश होने पर यदि जीव का विनाश हुआ माना जावे तो फिर “यही वही देवदत्त है, ऐसा जो संकलनात्मक ज्ञान होता है. यह अब कैसे हो सकेगा // 52 // દેહને નાશ થવાથી જે જીવને પણ નાશ થશે તેમ માનવામાં આવે તે પછી આ એજ દેવદત્ત છે? એવું જે સંકલનાત્મક જ્ઞાન થાય છે, તે હવે કેવી રીતે થશે ?પરા कालान्तरा विस्मरणे निमित्ताद् बोधात् स्मृतिर्वानुभवो यदा स्तः। इदं तदा संकलनात्मकं तज्ज्ञानं इटित्यात्मनि जायते हि // 53 // अर्थ-जो वस्तु अवायज्ञान के द्वारा निश्चित की जा चुकी है उस घस्तु को कालान्तर में नहीं भूलने में जो हेतु है वह बोध धारणा नामका एक संस्कार है. इसी के प्रभाव से वस्तु की अनुपस्थिति में भी उसकी जीव को याद आती रहती है. याद आना इसका नाम स्मरण है. धारणा संस्कार इसका अव्यवहित कारण है. जब देखी हुई वस्तु पुनः देखने में आती है तो उसके देखते ही देखनेवाले को ऐसा ज्ञान होता है यह वही वस्तु है जिसे मैने पहिले देखा था. इसी ज्ञान का नाम प्रत्यभिज्ञान ज्ञान है. यह ज्ञान एक ही आत्मा में होता है-जिसने उसे पहिले देखा है. उसे ही उसका स्मरण होता है और पुनः उसके प्रत्यक्ष होने पर उसे ही यह वही वस्तु है जिसे मैंने पहिले राजगिरि नगर में देखा था. ऐसा संकलनात्मक प्रत्यभिज्ञान होता है-आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व के अभाव में ऐसा एका. धिकरक बोध नहीं हो सकता. // 53 // Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः 107 જે વસ્તુ અવાય જ્ઞાન દ્વારા નિશ્ચિત કરાઈ છે, એ વરતુને કાલાન્તરમાં ન ભૂલવામાં જે હેત છે, તે બેધ ધારણ નામનો એક સંસ્કાર છે, એના જ પ્રભાવથી વસ્તુની અનુપસ્થિ "તિમાં પણ જીવને તેની યાદ આવે છે. યાદ આવવું એનું નામ રમરણ છે. ધારણ એ આનું અવ્યવહિત કારણ છે, જ્યારે જેએલી વસ્તુ ફરી જોવામાં આવે છે, તો તેને જોતાં જ જેનારને એવું જ્ઞાન થાય છે કે–આ એજ વસ્તુ છે જેને મેં પહેલાં જોઈ હતી. આજ જ્ઞાનનું નામ પ્રત્યભિજ્ઞાન જ્ઞાન છે. આ જ્ઞાન એક જ આત્મામાં થાય છે, જેણે તેને પહેલાં જેલ છે. તેને જ તેનું મરણ થાય છે અને ફરી તે જોવામાં આવે ત્યારે તેને જ આ એજ વસ્તુ છે, જે મેં પહેલા રાજગિરિ નગરમાં દેખેલ હતી. આમ સંકલનાત્મક પ્રત્યભિજ્ઞાન થાય છે. આત્માના સ્વતંત્ર અસ્તિત્વના અભાવમાં આવો એકાધિકારવાળે બોધ થઈ શકતો નથી. 53 अनेन तावत्खलु प्रत्ययेन देहाद्विभिन्नत्वमपि ध्रुवत्तम् / जीवे प्रसिद्धस्थितिमादधाति विरोधलेशोऽपि च नात्र शंक्यः // 54 // _ अर्थ-इस प्रकार के इस संकलनात्मक प्रत्यय ले आत्मा जीव देह से भिन्न है और ध्रुव-अविनाशी है यह बात सिद्ध हो जाती है. इसमें जरा सा भी विरोध नहीं है. // 54 // આ પ્રકારના આ સંકલાનાત્મક પ્રત્યયથી આમા જીવ દેહથી ભિન્ન છે, અને ધ્રુવ-અવિનાશી છે. એ વાત સિદ્ધ થઈ જાય છે. તેમાં જરાપણ વિરોધ નથી. પઝા लूने पुनर्जात नखे च सोऽयं नखो भवत्येष खलु प्रबोधः / न सोऽस्ति सम्यक् सहशत्वतोऽसौ भ्रान्तेर्वशासंभवति तथैषः // 55 // अर्थ-कट जाने पर पुनः उत्पन्न हुए नख में यह वही नख है ऐसा जो बोध होता है-वह सत्य-प्रमाणरूप नहीं है क्यों कि यह नख पहिले के नख जैसा है ऐसा बोध होना चाहिये था. पर ऐसा न होकर जो यह वही नख है ऐसा बोध होता है वह सादृश्य के कारण भ्रान्ति के वश से होता है अतः भ्रान्त है-सत्य नहीं है. तात्पर्य इसका यही है कि भ्रान्त बोध के द्वारा सत्य एकत्व का बोध बाधित नही होता है. // 55 // કપાઈને ફરી ઉગેલા નખમાં આ એજ નખ છે, એ જે બધે થાય છે, તે સત્ય અર્થાત પ્રમાણરૂપ નથી કેમકે આ નખ પહેલાંના નખ જેવો છે, એ બે થે જોઈએ પરંતુ તેમ ન થતાં આ એજ નખ છે આવો જ બોધ થાય છે તે સમાનતાના કારણે બ્રાંતિવશાત થાય છે, તેથી તે ભ્રાંતિ છે. સત્ય નથી. આનું તાત્પર્ય એજ છે કે ભારતી બોધ દ્વારા સત્ય એકત્વને બોધ બાધિત થતું નથી, પપા Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208 लोकाशाहचरिते देहात्मनो नैक्यमसंभवित्वान्नोचेकथं तावक तत्त्वसिद्धिः। अतः पयः पावकयोखिात्र पार्थक्यमेवेत्यवधार्यमार्यैः // 56 // अर्थ-अतः देह आत्मा में असंभव होने के कारण एकता बन ही नहीं सकती है. यदि इस पर यों कहा जावे कि द्रव्यदृष्टि से दोनों में एकता बन जावेगी. सो ऐसी मान्यता में आपके यहां की तत्त्वचतुष्टय व्यवस्था सिद्ध नहीं हो सकेगी. अतः जैसे पय और अग्नि में लक्षणादि की भिन्नता से भिन्नता है उसी प्रकार देह और आत्मा में भी लक्षणादि की भिन्नता से भिन्नता है. ऐसा आप को निश्चय कर अपने चित्त में धारण करलेना चाहिये. // 56 // તેથી દેહ અને આત્મામાં અસંભવપણું હોવાથી એકતા બની જ શકતી નથી જો આ સંબંધમાં એમ કહેવામાં આવે દ્રવ્યદૃષ્ટિથી બેઉમાં એકતા બની જશે. તો એ માન્યતામાં આપની ચાર તત્વ સંબંધી વ્યવસ્થા સિદ્ધ થઈ શકશે નહીં. તેથી જેમ દૂધ અને અગ્નિમાં લક્ષણાદિના જુદાપણાથી જુદાપણું છે તેમ આપે નિશ્ચય કરીને પિતાના ચિત્તમાં વિચારી લેવું જોઈએ. 56 न भूतकार्य न तु जीव एषः न जीव कार्य खलु भूततत्त्वम् / व्यवस्थितः कारणकार्यभावः यतः सजातीयपदार्थसार्थे / 57 // ___ अर्थ-यह जीव भूत का कार्य नहीं है और पृथ्व्यादि भूत जीव के कार्य नहीं हैं, क्यों कि कार्य कारणभाव सजातीय पदार्थों में ही व्यवस्थित माना गया है // 57 // આ જીવ ભૂતસંબંધી કાર્ય નથી. અને પૃથ્વી વિગેરે ભૂત જીવસંબંધી કાર્ય નથી કેમકે કાર્ય કારણુભાવ સજાતીય પદાર્થોમાં જ વ્યવસ્થિત માનવામાં આવેલ છે. પછી यद्भूतकार्य भवतीन्द्रियैस्तद् ग्राह्यं यथैतद्व पुरादि नैतत् / / चैतन्यरूपं ननु केवलेनाऽनुमानतः स्वानुभवेन गम्यम् // 58|| अर्थ-जो भूतों-पृथिव्यादिक तत्वों का-कार्य होता है वह इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण करने में आता है जैसे अस्मदादिकों के शरीर आदि परन्तु चैतन्य रूप पदार्थ किसी भी इन्द्रिय से ग्राह्य नहीं है, वह तो केलियों को केवलज्ञान से, अस्मदादिकों को अनुमान ज्ञान से और तपस्वि मुनिराज आदिकों को स्वानु भव से गम्य होता है. // 58 // Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः 209 જે પૃથિવ્યાદિતનું કાર્ય હોય છે, તે ઇન્દ્રિ દ્વારા ગ્રહણ કરી શકાય છે. જેમ આપણા શરીર વિગેરે પરંતુ ચૈતન્યરૂપ પદાર્થ કોઈ ઇન્દ્રિયથી ગ્રાહ્ય થતો નથી. એ તે કેવલિયેને કેવળ જ્ઞાન દ્વારા આપણા વિગેરેના અનુમાન જ્ઞાનથી અને તપસ્વી મુનિરાજોને રવાનુભવથી જાણવામાં આવે છે. પિતા विलोक्यते जन्म समानहेतोः समानकार्यस्य मृदो घटस्य / यथाऽसमानाञ्च न कारणाच्च, न तन्तुना कुण्डसमुद्भवोऽत्र // 59 // - अर्थ-सदृश कारण से ही सदृश कार्य की उत्पत्ति होती देखी जाती है. जैसे कि मिट्टी से घटकी. असदृश कारण से समान कार्य की उत्पत्ति नहीं होती जैसे कि-तन्तु से कुण्ड की. // 59 / / - સરખા કારણથી જ સરખા કાર્યની ઉત્પત્તી થતી દેખવામાં આવે છે. જેમકે–ભાટિથી ઘડાની અસમાન કારણથી સમાન કાર્યની ઉત્પત્તિ થતી નથી. જેમકે તંતુથી કંડાની. 59 तत्काल जातस्य च बालकस्य स्तन्यपाने प्रवृत्तेविधानात् / चैतन्यमेतन्नहि भूत कार्य संस्कार एषोऽत्र कुतोऽन्यथा स्यात् / / 60 // अर्थ-जब बालक का जन्म होता है तो हम देखते हैं कि वह इकदम दुग्धपान में प्रवृत्ति करता है. यदि चैतन्य नया पैदा हुआ होता तो यह संस्कार उसमें सहसा कहां से आता इसलिये चैतन्य भूत का कार्य है यह बात कथमपि सिद्ध नहीं होती है. // 60 // જ્યારે બાળકને જન્મ થાય છે, ત્યારે દેખવામાં આવે છે કે તે એકદમ દૂધ પીવા માટે પ્રવૃત્ત થાય છે. જો ચૈતન્ય નવીન ઉત્પન્ન થયેલ હોત તો આ સંસકાર તેનામાં એકદમ કયાંથી આવત? તેથી ચૈતન્ય એ ભૂતનું કાર્ય છે, એ વાત કોઈ પણ રીતે સિદ્ધ થતી નથી. 6 છે यत्र क्वचित्पूर्वभवस्मृतेश्च विलोकनात्तत्र न कार्यताऽस्य / प्रसिद्धयतीत्थं खलु जीव एष आद्यंतहीनः परलोकगामी // 61 // अर्थ-तथा कहीं 2 पर पूर्वभव की स्मृति जीवों में होती हुई देखने में आती है. इसलिये भी जीव में भूतकार्यता सिद्ध नहीं होती है. इस प्रकार यह जीव आदि अंत से हीन-अनादि अनन्त और परलोकगामी सिद्ध होता है. // 61 // 27 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210 . लोकाशाहचरिते - તથા કયાંક કયાંક જેમાં પૂર્વ જન્મની સ્મૃતિ થાય છે. તેથી પણ જીત્રમાં ભૂત કાર્યપણું સિદ્ધ થતું નથી. આ રીતે આ જીપ આદિ અંત વિનાને અનાદિ-અનંત અને પલેક ગામી છે તેમ સિદ્ધ થાય છે. 6 1 न गोमयावृश्चिकचेतनायाः समुद्भवः केवलमेव तस्य / देहोत्पत्तिर्गदिताऽगमेऽस्य संमूर्छनं जन्म यतः प्रसिद्धम् // 6 // अर्थ-गोमय से वृश्चिक चैतन्य की उत्पत्ति नहीं होती है किन्तु उसके शरीर की उत्पत्ति होती है क्योंकि शास्त्र में इसका संमूछन जन्म कहा गया है // 62 // - છાણમાંથી વીંછીરૂપ ચતન્યની ઉત્પત્તી થતી નથી. પરંતુ તેના શરીરની જ ઉત્પત્તી થાય છે. કેમકે શાસ્ત્રમાં તેને સંપૂર્ઝન જન્મ કહેવામાં આવેલ છે. 6 રા अचेतनैस्तैर्मदिराङ्गजातैः सा जायमाना मदिरा तथास्ति / युक्तं तदेतत्परमत्र साम्यं वैषम्यतो नास्य समत्वमप्ति // 63 // अर्थ-मदिरा जिनसे उत्पन्न होती है ऐसे गुड-प्रहुवा-पानी-आदि ये सब जड मूर्तिक अचेतन हैं तथा इनसे जो मदशक्ति पैदा होती है वह भी जड अचेतन है सो यह बात तो बन जाती है. पर इनसे भदशक्ति की तरह चैतन्य उत्पन्न होता है ऐसा जो आप यह उदाहरण देकर समझा रहे हैं सो यह उदाहरण विषम होने से यहां फिट नहीं बैठता है अतः मद्यांगो से मदशक्ति की तरह भूत चतुष्टय से चैतन्य की उत्पत्ति होती है. यह कथन विषम उदाहरणवाला है. // 13 // મદિર જેનાથી બને છે, એવા ગોળ, મહુડા, પાણી વિગેરે આ બધા જડ મૂર્તિક અચેતન છે, તથા તેનાથી જે મદશક્તિ ઉત્પન્ન થાય છે, તે પણ જડ અચેતન છે. તે વાત ઠીક છે પરંતુ તેનાથી મદશક્તિની માફક ચૈતન્ય ઉત્પન્ન થાય છે, એવું જે આપે આ ઉદાહરણ આપીને સમજાવ્યું છે પણ આ ઉદાહરણ વિષમ હેવાથી અહીં બધ બેસતું નથી તેથી માંગથી મદશક્તિની માફક ચાર મહાભૂતોથી ચૈતન્યની ઉત્પત્તી થાય છે, આ કથન વિષમ ઉદાહરણવાળું છે. દુકા संयोगतो भूतचतुष्टयस्य जायेत चैतन्य मथो कथं न। ' चुल्लिस्थिते तच्चुलुकेऽपि तस्य भावो भवेत्तत्र समस्तयोगात् / 64 // अर्थ-भूतचतुष्टय के संयोग से यदि चैतन्य की उत्पत्ति हो जाती है तो Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 211 सप्तमः सर्गः चूल्हे पर स्थित छोटी सी हांडी में भी उन चारों का संयोग होने के कारण चैतन्य की उत्पत्ति हो जानी चाहिये ? // 64 // ચાર મહાભૂતોના સંગથી જ ચેતન્યની ઉત્પત્તિ થઈ જાય તે ચૂલા પર રાખેલ નાની હાંડલીમાં પણ એ ચારેને સંગ થવાથી ચિતન્યની ઉત્પત્તિ થઈ જવી ये. // 14 // चैतन्यनत्वं परमस्ति भिन्नं न भूतवादाभिमतं सुतत्त्वम् / तथागतैर्यरक्षणनश्वर तत्त्रोक्तं विचारं सहते न न्याय्यम् // 65. अर्थ-अतः चैतन्य तत्त्व एक स्वतन्त्र तत्त्व है भूतचतुष्टय से भिन्न तत्व है. भूतवाद ने जैसा माना है वह सुतस्य नहीं है. इसी तरह जीव तत्व के विषय में जो बौद्धों ने ऐसा कहा है कि वह क्ष विनश्वर है सो यह कथन भी न्यायानुकूल विचारों को सहन करनेवाला नहीं है. युक्ति युक्त नहीं है. // 65 // - ચેતન્ય તત્વ એક સ્વતંત્ર તત્ત્વ છે અર્થાત્ ચાર મહાભૂતથી જુદુ જ તત્ત્વ છે. ભૂતવાદે જેમ માન્યું છે તે સુતત્વ નથી એજ પ્રમાણે જીવ તત્તના સંબંધમાં બધેએ જે આ પ્રમાણે કહ્યું છે કે તે ક્ષણ વિનધર છે, તે તે કથન પણ ન્યાયાનુકૂળ નથી અર્થાત યુક્તિ સંગત નથી. ૧૬પ पर्यायदृष्ट्या विगलस्वरूपं क्षणे क्षणे यन्नत्तामुपैति / तथापि तद्रव्यदृशाऽन्वयित्वात् न मूलरूपं विजहाति नित्यम् // 66 // अर्थ-पदार्थ प्रतिक्षण में अपने 2 रूप को पूर्व पूर्व पर्याय को छोडकर जो उत्तर पर्यारूप नवीनता को प्राप्त करता रहता है सो उस अवस्था में उसका सर्वथा विनाश नहीं होता है. किन्तु उन दोनों पर्यायों में द्रव्य की दृष्टि से मूलद्रव्य का अन्वय बना रहता है. इसलिये पर्यायों के परिवर्तन में भी द्रव्य अपने मूलरूप को नहीं छोडता है. अतः वह परिणामि नित्य है सर्वथा नित्य नहीं है. // 66 // - દરેક પદાર્થ ક્ષણે ક્ષણે પિતપેતાના રૂપને પૂર્વ પૂર્વના પર્યાયને છોડીને ઉત્તર પર્યાયરૂપ નૂતનપણાને પ્રાપ્ત કરે છે, તો એ અવરથામાં તેને સર્વથા વિનાશ થતો નથી. પરંતુ એ બને પર્યામાં દ્રવ્ય દૃષ્ટિથી મૂળ દ્રવ્યને અનય બનીને રહે છે. તેથી પર્યાના પરિ. વર્તનમાં પણ દૂધ પિતાના મૂળરૂપને છોડતા નથી. તેથી એ પરિણામી નિત્ય છે. સર્વથા नित्य नथी. // 66 // यथा घटाकारतया विनश्यन्मृदादिदव्यं न च सर्वथाऽस्तम् / किन्तूत्तराकारमदोदधत्तद् दशादयव्यापि च नित्यरूपम् // 67 // Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहच रिते अर्थ-जैसे जब भृत्तिकादि द्रव्य अपने पूर्वाकार के रूप से नष्ट हो जाता है तब वह सर्वथा नष्ट हुआ नहीं माना जाता क्यों कि वह उस समय पूर्वाकार का त्याग करके उत्तराकार रूप परिणाम को धारण कर लेता है. इसीलिये वह परिणमन करता हुआ भी दोनों अवस्थाओं में अपनी स्थिति रखने के कारण नित्यरूप-परिणामि नित्य-माना गया है. // 6 // જયારે મૃત્તિકાદિ દ્રવ્ય પિતાના પૂર્વના આકારના રૂપથી નાશ પામે છે, ત્યારે તે સર્વથા નાશ થયું તેમ મનાતું નથી. કેમકે કે એ સમયે પૂર્વના આકારને ત્યાગ કરીને પછીના આકારરૂપ પરિણામને ધારણ કરે છે. તેથી તે પરિણમન કરવા છતાં પણ બેઉ અવસ્થામાં પિતાનું અસ્તિત્વ રાખવાના કારણે નિત્યરૂપ-પરિણમિ નિત્ય માનવામાં આવેલ છે. દા न सर्वथा नित्यमनित्यमित्थं वस्तु प्रसिद्धं भवतीति विज्ञैः। समुच्यते जैनदृशा कथंचित् तथैव तत् सिद्धयति निर्विरोधात् // 6 // अर्थ-इस तरह कोई भी वस्तु न सर्वथा नित्य है और न सर्वथा अनित्य है ऐसा विद्वानों का कहना है जो वस्तु नित्य मानी गई है वही जैन दृष्टि से कथञ्चित् अनित्य और जो अनित्य मानी गई है. वही कचिद नित्य मानी गई है. एसा सिद्ध होता है. इसमें कोई विरोध नहीं आता है. // 68 // આ પ્રમાણે કોઈ પણ વસ્તુ સર્વથા નિત્ય નથી. અને સર્વથા અનિત્ય પણ નથી. તેમ વિદ્વાનનું કહેવું છે, જે વસ્તુને નિત્ય માનવામાં આવી છે, એજ જૈન દૃષ્ટિથી કથંચિત અનિત્ય અને જે અનિત્ય માનવામાં આવી છે, એજ કથંચિત નિત્ય માનેલ છે. તેમ સિદ્ધ થાય છે. આનાથી કંઈજ વિરોધ આવતો નથી. 68 दत्तग्रहादि च्यवहारलोषात क्षणक्षयो नाश्चति सिद्रिसौषट् / कृतप्रणाशा कृतकर्म भोग दोषात्तथा संस्मृतिभङ्गसङ्गात् // 69 // . अर्थ-क्षणक्षय सिद्धान्त एकान्तरूप से इसलिये भी सिद्धिरूपी धवल महलपर विराजमान नहीं हो सकता है कि उसके मानने में दत्तग्रादिरूप व्यवहार नष्ट हो जाता है. क्षण क्षय की मान्यतानुसार जो चीज किसी के लिये दी गई है वह तो उसी समय नष्ट हो जाती है और जो प्राप्त होती है वह अन्य है अतः दी गई वस्तु के ग्रहण करने रूप जो लौकिक व्यवहार है इस क्षणिक सिद्धान्त में निर्दोष नहीं बन सकता है. इसी तरह कृतप्रणाश और अकृतकर्मभोग यह दूषण भी इस सिद्धान्त में आकर उपस्थित हो जता है जैसे-जिसने अच्छे बुरे कर्म किये हैं वह तो सर्वथा नष्ट Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ લંૉમ: ક ___213 हो गया और उत्तर क्षण में जो उत्पन्न हुआ हैं कि जिसने अच्छे बुरे कर्म . नहीं किये हैं उसे उन कर्मों का फल भोगने को मिल रहा है. इस तरह वहां स्मृतिज्ञान भी नहीं बन सकता क्यों कि जिसने अनुभव किया है-वह तो नष्ट हो चुका है. अब स्मरण किसको होगा ? // 69 / / ક્ષણવાદીને સિદ્ધાંત નિશ્ચિતપણાથી એથી પણ સિદ્ધ થઈ શકતો નથી. કે તેને માનવાથી દત્તહાદિરૂપ વ્યવહારનો નાશ થાય છે. ક્ષણક્ષણની માન્યતા પ્રમાણે જે ચીજ કોઈને માટે આપી છે, એને તો એજ સમયે નાશ થાય છે. અને જે પ્રાપ્ત થાય છે તે જુદી છે. તેથી આપેલી વસ્તુને લેવારૂપ જે લૌકિક વ્યવહાર છે તે આ ક્ષણિકના સિદ્ધાંત પ્રમાણે કૃતપ્રણાશ અકૃત કર્મભેગ આ દૂષણ પણ આ સિદ્ધાંત પ્રમાણે આવી જશે. જેમકે—કોઈએ સારા કે ખોટા કર્મ કર્યા હોય તે તો સર્વથા નાશ પામ્યા અને ઉત્તર ક્ષણમાં જે ઉત્પન્ન થયેલ છે કે જેણે સારા ખોટા કર્મ કર્યા નથી. તેને એ કર્મોને ફળ ભોગવવા પડે છે, આ રીતે ત્યાં અતિજ્ઞાન પણ બની શકતું નથી. કેમકે-જેણે અનુભવ કર્યો છે તે તે નાશ પામેલ છે હવે તેનું સ્મરણ કોને થશે? 69 अतोऽस्ति जीवः परिणामि नित्यः ध्रुव स्वरूपोऽव्ययधर्मरत्वात् / पर्यायदृष्टया स भवेदव्ययात्मा, उत्पादधर्मा च न सर्वथाऽजः / 70 // अर्थ-अतः जीव परिणामि नित्य है. सर्वथा कूटस्थ नित्य नहीं है. वह अपने मौलिक स्वरूप से किसी भी अवस्था में रहित नहीं होता है. इसलिये अव्ययधर्मवाला होने से यह ध्रुव स्वरूप है. कभी यह नरकपर्याय धारण करता है कभी तिर्यंच पर्याय धारण करता है. कभी मनुष्य पर्याय धारण करता है और कभी देवपर्याय धारण करता है इस तरह नवीन 2 पर्यायों को धारण करने की अपेक्षा से यह उत्पाद और व्यय धर्मवाला है अतः यह सर्वथा नित्य नहीं है. // 70 // તેથી જીવે પરિણામી નિત્ય છે રસર્વથા કુટસ્થ નિત્ય નથી. તે પોતાના મૌલિકપણાથી કઈ પણ અવસ્થામાં રહિત થતો નથી. તેથી અવ્યય ધર્મ પાળે હોવાથી તે ધૃવરૂપ છે. કોઈ વાર તે નરક પર્યાય ધારણ કરે છે, કયારેક તિર્યંચ પર્યાય ધારણ કરે છે, કયારેક મનુષ્ય પર્યાપ ધારણ કરે છે, અને કયારેક દેવ પર્યાય ધારણ કરે છે. આ પ્રમાણે નવા નવા પર્યાયને ધારણ કરવાના કારણે તે ઉત્પાદ અને વ્યય ધર્મવાળે છે. તેથી તે સર્વથા નિત્ય નથી. ૭૦ના Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214 लोकाशाहचरिते 71 से 74 तक मूल श्लोक उपलब्ध हुवा नहीं है। ___ अर्थ-कोई 2 प्रवादी ऐसा कहते हैं कि जीव स्वभावतः चेतना-ज्ञान से रहित है. उसमें चेतना का समवाय संबंध है. इसलिये जीव ज्ञानवान है ऐसा बोध होता है. // 7 // કઈ કઈ વાદી એવું કહે છે કે-જીવ સ્વભાવથી જ ચેતના-જ્ઞાનથી રહિત છે. તેમાં ચેતનાનો સમવાય સંબંધ છે. તેથી જીવ જ્ઞાનવાન છે એવો બંધ થાય છે. 71 ___ अर्थ-ऐसा जो नैयायिकादि का कथन है ठीक नहीं है क्यों कि स्वभावतः जीव जब जड है तो उसमें चेतना का समवाय संबंध रूपी जो योग है वह नहीं हो सकता है. और यदि होता है. तो आकाश में भी उसका योग होना चाहिये. इस तरह होने से अजीव तत्व सिद्ध नहीं हो सकता है // 72 // એવું જે નૈયાયિકનું કથન છે તે બરાબર નથી. કેમ કે-જે જીવ સ્વભાવથી જડ છે, તો તેમાં ચેતનાનો સમવાય સંબંધ રૂપી જે યોગ થાય છે તે થઈ શકે નહીં અને જો થાય તો આકાશમાં પણ તેને વેગ થ જોઈએ. આમ હોવાથી અજીવતત્વ સિદ્ધ થતું નથી. ૭રા अर्थ-इसलिये जीवतत्व चैतन्य स्वरूप ही है. यदि ऐसा न माना जावे तो स्वरूप की हानि होने से स्वयं उस जीव का भी अभाव हो जावेगा. इसलिये इस हानि से बचने के लिये जीव स्वभावतः चैतन्य स्वरूप ही है ऐसा मानना चाहिये. इस प्रकार में कोई विवाद की बात नहीं है // 73 // તેથી જ તત્વ ચેતન્ય સ્વરૂપ જ છે. જે તેમ ન માનવામાં આવે તે સ્વરૂપની હાની થવાથી રાય એ જીવન પણ અભાવ થઈ જશે. તેથી આ હાનીથી બચવા માટે જીવ સ્વભાવથી જ ચિતન્ય સ્વરૂપ છે તેમ માનવું જોઈએ આમાં કંઈ જ વિવાદની વાત નથી. 73 ___अर्थ-इसी प्रकार सांख्य आत्मा अझती है. ऐसा मानते हैं और कहते हैं कि वह मोक्ता है. सो ऐसी यह मान्यता भी ठीक नहीं है. क्यों कि ये दोनों बातें परस्पर विरुद्ध हैं. यदि वहाँ अकर्तृत्व है तो भोक्तृत्व वहां सिद्ध नहीं होता. जो कर्ता होता है वही मोका होता है. ऐसा माना गया है. अचेतन प्रकृति में कतृत्व है ऐसा जो उनका मानना है वह वहां बनता नहीं है. / / 74 / / એજ પ્રમાણે સાંખ્યમતવાળા આત્મા અકર્તા છે, તેમ માને છે, અને કહે છે કે-એ ભકતા છે, તો આ માન્યતા પણ બરાબર નથી. કેમ કે આ બંને વાત પરસ્પર વિરૂદ્ધ છે. જે ત્યાં અકર્તાપણું છે, તો કતાપણું સિદ્ધ થતું નથી. જે કર્તા હોય છે, એજ ભોક્તા હોય છે. તેમ માનવામાં આવેલ છે. અચેતન પ્રકૃતિમાં કર્તા પણું છે એમ જે તેમની માન્યતા છે, તે ત્યાં બની શકતી નથી. ૭જા Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सप्तमः सर्गः 215 नित्यत्ववादे खलु विक्रियाया अभावतः कार्यसमुद्भवः स्यात् / * कथं, यतो नात्र भवोऽस्ति तस्याः, क्रमाक्रमाभ्यां तदवस्वभावात् // 75 // ___अर्थ-जो सवाँ नित्यपक्ष को अंगीकार करता है उसके इसपक्ष में किसी भी प्रकार की विक्रिया-अर्थक्रिया-नहीं बनती है. अर्थक्रिया के अभाव में कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती है. क्यों कि वहां ऐसा प्रश्न उपस्थित होता है कि जो नित्य है वह क्रम से अर्थक्रिया करता है, या अक्रम से अर्थक्रिया करता है ? क्रम से वह अर्थ क्रिया इसलिये नहीं कर सकता है कि वह प्रथम क्रिया काल में ही कालान्तर भाविनी अर्थक्रियाओं को करने में समर्थ है फिर उसे काल की प्रतीक्षा करने की जरूरत ही नहीं है. यदि वह भिन्न 2 काल में होने वाली अर्थक्रियाओं को भिन्न 2 काल में करता है तो वह समर्थ नहीं माना जा सकता. और यदि वह अकम से अर्थक्रिया करता है तो द्वितीयादिक क्षण में फिर वह क्या करेगा. इस तरह नित्य पक्ष में क्रम और अक्रम से अर्थ क्रिया नहीं हो सकने के कारण वह जिला पदार्थ अवस्तु स्वरूप ही ठहराता है. // 75 // જે સર્વથા નિત્ય પણાના પક્ષનો સ્વીકાર કરે છે. તેના એ પક્ષમાં કોઇપણ પ્રકારની વિડિયા–અર્થ ક્રિયા બનતી નથી. અર્થ ક્રિયાના અભાવમાં કાર્યની ઉત્પત્તિ થતી નથી. કેમ કે ત્યાં એવો પ્રશ્ન ઉપસ્થિત થાય છે કે- જે નિત્ય છે તે કમથી અર્થ ક્રિયા કરે છે કે એકમથી અર્થ ક્રિયા કરે છે? ઠેમથી તે અર્થ ક્રિયા એ માટે નથી કરતા કે તે પ્રથમ ક્રિયાકાળમાં જ કાલાન્તરમાં થનારી અર્થ ક્રિયાઓને કરવામાં સમર્થ છે. તો પછી તેને કાળની રાહ જોવાની જરૂરત જ રહેતી નથી, જે તે અલગ અલગ કાળમાં કરે છે, તે તેને સમર્થ માનવામાં આવશે નહીં અને જે તે અક્રમથી અર્થ ક્રિયા કરે તો દ્વિતીયાદિ ક્ષણમાં પછી તે શું કરશે? આ રીતે નિત્ય પક્ષમાં ક્રમ અને અકમથી અર્થ ક્રિય ન થવાના કારણે એ નિત્ય પદાર્થ અવસ્તુ વરૂપથી જ સિદ્ધ થશે. ૭પા न्याय रत्नस्य टीकाया मस्माभिर्बहुचर्चितः / युक्त्याऽवलोकनीयोऽयं विषयश्च बुभुत्सुभिः / 76 / / अर्थ-न्यायरत्न जो कि दर्शन शास्त्र का ग्रन्थ है उसकी टीका में यह विषय हमने युक्ति पूर्वक बहुत विस्तार के साथ स्वष्ट किया है. अतः जिज्ञासुओं को वहां से ही इसे समझ लेना चाहिये. // 76 // ન્યાયરત્ન કે જે દર્શન શાસ્ત્રને ગ્રંથ છે તેની ટીકામાં આ વિષય અમે યુક્તિપૂર્વક ઘણા જ વિરતારથી સ્પષ્ટ કરેલ છે. તેથી જીજ્ઞાસુઓને ત્યાંથી જ આ વિષય सभ०० तेवो, // 76 // Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते दुर्लभं तरजन्मेदं लब्या स्वहितकाम्यया / सुधीभिः स्वधिया बुद्धया सेव्यं सद्भिः सुसेवितम् // 77 // अर्थ-दुर्लभ इस नर जन्म को पाकर के बुद्धिमान् पुरुष का कर्तव्य है कि वह अपने कल्याण की कामना से इस बात का विचार करे कि संत पुरुषों ने जिस मार्ग का सेवन किया है वही मार्ग मुझे सेवनीय है. // 77 // દુર્લભ એવા મનુષ્ય જન્મને મેળવીને બુદ્ધિમાન પુરૂષનું કર્તવ્ય છે કે–તે પિતાના કલ્યાણની ભાવનાથી આ વાતને વિચાર કરે કે સંત પુરૂષોએ જે માર્ગનું સેવન કરેલ છે એજ માર્ગ મારે પણ સેવનીય છે. 477 गुरुमुखोद्गतां वाणीं श्रुत्वा तौ दम्पती तदा। गुरुं नत्वा गती मोदै र्वाह्यमानक्रमो गृहम् // 78 / / अर्थ-इस प्रकार की गुरुदेव के मुख से निर्गत वाणी को सुनकर वे दोनोंगंगा देवी एवं हैमचन्द्र-गुरु की वन्दना करके हर्ष से जिनके दोनों पैर जल्दी 2 आगे 2 बढ रहे हैं ऐसे होकर अपने घर पर गये // 78 // આ પ્રમાણેની ગુરૂદેવના મુખેથી નીકળેલી વાણીને સાંભળીને એ બન્ને ગંગાદેવી અને હેમચંદ્ર ગુરૂને વંદના કરીને હર્ષથી જેના બન્ને પગ ત્વરિત ગતિથી આગળ આગળ વધે છે તે રીતે પિતાને ઘેર ગયા. 78 साङ्गा बन्धुकुटुम्बसंगिनिकरा नो शक्तिपन्तोऽभवत्, / धैर्याच्चालयितुं स्थिरादपि मनाक् स्वान्तं यदीयंजवात् / वीरस्यास्य विचालने कथाहो शक्तो भवेयं हहाऽ ! नङ्गत्वादिति वीक्ष्य घासिमुनिपं त्यक्त्वा सकामिस्थितः // 79 // अर्थ-शरीरधारी ऐसे बन्धु और कुटुम्बी जम जिसके मन को अपने धैर्य से विचलित करने में जरा भी समर्थ नहीं हो सके तो भला ऐसे उस वीर (घासिलाल मुनिराज) को विचलित करने में शरीर रहित मैं कैसे समर्थ हो सकना हूं ऐसा सोच विचार करके वह कामदेव घासिलाल मुनिपति को छोडकर अन्य कामि पुरुषों में स्थित हो गया. // 79 // શરીરધારી એવા બન્યું અને કુટુંબી જેના મનને પિતાને વૈર્યથી ચલિત કરવામાં જરા પણ સમર્થન થયા તે પછી એ વીર મુનિરાજને વિચલિત કરવામાં શરીર વિનાને હકેવી રીતે સમર્થ થાઉં આ પ્રમાણે સમજી વિચારીને એ કામદેવ ઘાસીલાલ મુનિને છોડીને બીજા કામિ પુરૂષોમાં સ્થિર થઈ ગયે 79 // सप्तमः सर्गः समाप्तः॥ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मष्टमः सर्गः 217 अथाष्टमः सर्गः प्रारभ्यतेसंदोहलां पूर्णमनोरथां तां प्रसन्नमुद्रां दयितां निरीक्ष्य वाचामगम्यां मुदमाप्नुवन् स तदुभाविचिन्ताकुलिनो बभूव // 1 // ... अर्थ-गर्भस्थ बालक के प्रभाव से अनेक मनोरथोंवाली और फिर उनकी : पूर्ति हो जाने से प्रसन्नमुद्रावाली ऐसी अपनी पत्नी को देखकर हैमचन्द्र श्रेष्ठि को अनिर्वचनीय आनन्द होता था. परन्तु फिर भी वे उसके भावी जीवन की चिन्ता से आकुलित थे. // 1 // ગર્ભમાં રહેલ બાળકના પ્રભાવથી અનેક મનોરથે વાળી અને તેની પૂર્તિ થવાથી પ્રસન્ન મુખવાળી એવી પિતાની પત્નીને જોઈને હેમચંદ્ર શેઠને અવર્ણનીય આનંદ થતે હતો. તે પણ તેઓ એના ભવિષ્યના જીવનની ચિંતાથી વ્યાકુળ થતા હતા. 1 कदाचिदेषा गुरुगर्भभारालसा प्रयान्ती स्खलिता भवेच्चेत् / तदा कृतशाङ्गयाः कथमस्य रक्षा गर्भस्य वास्याश्च मया कृता स्यात् ? // 2 // : अर्थ-(वे सोचते) गर्भ के गुरुतरभार से सुस्त बनी हुई यह यदि चलते 2 कदाचित् गिर पडती है तो कृश अङ्गोवाली इसकी और इसके गर्भ की रक्षा मुझ से कैसे की जायगी ? // 2 // (તેઓ વિચારતા કે) ગર્ભના ગુરૂતર ભારથી સુસ્ત બનેલ આ જ ચાલતાં ચાલતા કદાચ પડિ જશે તો દુર્બળ અંગવાળી તેની અને તેના ગર્ભની રક્ષા મારાથી કેવી રીતે થઈ શકશે? રા अस्याः क्षताङ्गया अबलाबलायाः स्यादगर्भपातो यदि दैवयोगात् / निमित्तमासाद्य जनास्तदा मां विनिन्दयिष्यन्ति मुहुर्मुहुर्वा |3 // . अर्थ-इधर उधर चलते समय गिर पड़ने के कारण चोट से युक्त शरीरपाली तथा अन्य अबलाओं को अपेक्षा बल रहित ऐसी इस पत्नी का यदि देव के रोग से गर्भ पतित हो जाता है तो इस निमित्त को लेकर मनुष्य मेरी पार 2 निन्दा करेंगे. // 3 // આમ તેમ ચાલવાના સમયે પડિ જવાના કારણે ઘા લાગી જવાથી તથા અન્ય સીએના કરતાં નિર્બળ એવી આ મારી પત્નીને ગર્ભ જો દેવગે પડી જશે તો આ કારણથી અન્ય મનુષ્ય મારી વારંવાર નિંદા કરશે તેવા Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहबरिते अस्याः कृशाङ्गया निकटप्रभूते रितस्ततश्चक्रमणाद्भवेच्चेत् / . मयि स्थिते दैववशात्क्वचिदा गर्भस्य पातोऽपयशो ममैव // 4 // अर्थ-जिसका प्रसव काल बिलकुल निकट है ऐसी इस शिथिल शरीरवाली पत्नी का इधर उधर बार 2 घूमने से-चलने फिरने से-गर्भ का पतन यदि कहीं पर मेरे रहते हो जाता है. तो यह मेरे लिये ही कलङ्क की बात होगी // 4 // - જેને પ્રસવકાળ એકદમ નજીક છે, એવી અને દુબળા શરીર વાળી આ મારી પત્નીનું આમ તેમ વારંવાર કરવાથી ગર્ભનું પતન થઈ જશે તે આ મારે માટે મોટા કલંકરૂપ છે. 4 इत्थं तदीयाहितशंकयाऽसावकल्प्य संकल्पशतोत्थयाऽथ / / स्वापेन वाहारविहाररुच्या विवर्जितोऽभूललना हितैषी // 5 // अर्थ-इस प्रकार कल्पना के अयोग्य सैकडों संकल्पों से उत्पन्न हुई अपनी कान्ता के अहित की आशङ्का से ये अपनी वल्लभा के हित की अभिलाषावाले हैमचन्द्र श्रेष्ठी निद्रा से एवं आहार विहार की रुचि से रहित हो गये. // 5 // આ પ્રમાણેના અગ્ય કલ્પનાઓના સેંકડો વિચારોથી ઉત્પન્ન થયેલ પિતાની પત્નીના અહિતની શંકાવાળા એ પિતાની પત્નીના હિતની ઇચ્છાવાળી હેમચંદ્ર શેઠ નિદ્રાથી અને આહાર વિહારની રૂચિ રહિત બની ગયા. પા स स्वस्त्रियाः मंगलकामनाढ्यः यदा कदाचिन्मिलितैः सुहृभिः। प्रमोदितं संस्तुतिभिर्जिनानां भक्त्या गुरूणां समयं निनाय // 6 // अर्थ-अपनी पत्नी के मंगल की कामना से भरे हुए उन हैमचन्द्र सेठ को उनके निकटवर्ती मित्रों ने उन्हें जिनेन्द्र देव की स्तुति और गुरुदेवों की भक्ति के लिये प्रेरित किया. अतः वे अपने दिनों को इसी प्रकार की दैनिक चर्या से ध्यतीत करने लगे. // 6 // પિતાની પત્નીના મંગળની કામના વાળા એ હેમચંદ્ર શેઠને તેમના સમીપના મિત્રોએ તેમને જીને દ્રદેવની સ્તુતિ અને ગુરૂદેવની ભક્તિ માટે પ્રેરણા કરી. તેથી તેઓ પિતાના એ પ્રમાણેની દિનચર્યાથી વીતાવવા લાગ્યા. 6 गर्भच्युति यावदसौ नियम्य व्रतोपवासहितकाम्यया स्वम् / दिनानि शेषाण्यतिवाहते स्म धर्मानुरागात्सकलार्थसिद्धिः // 7 / Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्ग: __अर्थ-इन्हों ने अपनी धर्मपत्नी गंगादेवी के निर्विघ्न संतान उत्पन्न हो जावे इस प्रकार की उसकी हित चाहना से यावत्-तबतक अपने आपको व्रत और उपवासों द्वारा नियमित करके शेष दिनों को व्यतीत किया. सच है धर्मानुराग से सकल प्रयोजनों को सिद्धि होती है. // 7 // તેઓએ પિતાની ધર્મપત્ની ગંગાદેવીને નિર્વિને સંતાનોત્પત્તી થાય આ પ્રમાણેની તેમની હિતની ઈચ્છાથી યાતુ ત્યાં સુધી પોતે વ્રત અને ઉપવાસો દ્વારા નિયમિત રહીને બાકીના દિવસે વિતાવવા લાગ્યા. સાચું જ છે કે—ધર્માનુરાગથી તમામ પ્રજને સિદ્ધ થાય છે. શા यथाऽऽलयद्वारि स वैनतये स्थिते प्रतीहारपदे गृहस्थः / सर्पोद्भवातंकनिःशंकिताको भूत्वा सुखस्थः स्वपिति स्वतल्पे // 8 // अर्थ-जिस प्रकार जिस गृहस्थ के मकान पर गरुड पहरा देता हो तो वह सर्प के आतंक से निःशंकित होकर सुखपूर्वक अपनी सेज पर सोता है. // 8 // જેમ કોઈ ગૃહેરથને ઘેર ગરૂડ પહેરે ભરતું હોય તો તે ગૃહસ્થ સપના ભયથી નિઃશંક થઈને સુખ પૂર્વક પિતાની શય્યા પર સુવે છે. આટલું तथा जिनेन्द्रक्रमकंजयुग्मं चित्ते स्थितं यस्य न कापि तत्र / आपत्तिरागच्छति पुण्ययोगाद्विपत्ति निघ्ना प्रभुभक्तिरेव // 9 // . अर्थ-उसी प्रकार जिसके अन्तःकरण में जिनेन्द्र के चरण कमल निवास करते हैं उसके तजन्म पुण्य के योग से विपत्ति नहीं आती है. सच है प्रभुभक्ति ही विपत्ति को चकनाचूर करनेवाली होती है // 9 // એજ પ્રમાણે જેના અંતઃકરણમાં જીનેન્દ્રપ્રભુના ચરણે વાસ કરે છે, તેને તે પુણ્યના - યોગથી વિપત્તી આવતી નથી. સાચું જ છે કે પ્રભુ ભકતીજ વિપત્તીને દૂર કરનારી છે. 9 स्तुत्या मयूरधनिनेव सर्पाणां बन्धनानि द्रुतसंस्थितानाम् / भान्ति शैथिल्ययुतानि कर्मबन्धा मनोमंदिरसंस्थितानु // 10 // अर्थ-जिस प्रकार मयूर की ध्वनि से द्रुम-वृक्ष-चन्दनवृक्षों पर लिपटे हुए 'सों के बंधन ढीले पड जाते हैं उसी प्रकार स्तुति से-जिनेन्द्र प्रभु के गुणगान 'से-मनुष्य के मन मंदिर में स्थित कर्म बन्धन भी ढीले पड जाते हैं. // 10 // . જેમ મારા અવાજથી ચંદન વૃક્ષ પર લપેટાયેલા સર્પોના બંધન ઢીલા પડી જાય છે, એજ પ્રમાણે જીતેન્દ્ર પ્રભુના ગુણગાનથી મનુષ્યના મનમંદીરમાં રહેલા કર્મબંધને પણ "den डी जय छ, // 10 // Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220 . लोकाशाहचरिते कुर्वन्तु से मंगलपशु येषां पादारविन्देऽवनर्ताः शतेन्द्राः / / हृत्स्थे महोत्पादशतै मनुष्यो मुक्तो भवेदहति तस्कर गौः // 11 // ___ अर्थ-जिनके चरण कमलों में सौ इन्द्र नमस्कार करते हैं ऐसे वे अरहन्न भगवान मुझे मंगलकारी हो. जिप्स मनुष्य के हृदय में इनका विश्वास है ऐसे उस मनुष्य को जिस प्रकार (प्रातः होते ही) चोर गाय को छोडकर भाग जाते हैं उसी प्रकार बडे 2 सैकडों उपद्रव भी छोडकर भाग जाते हैं. // 11 // જેના ચરણ કમળમાં સે ઈન્દ્રો નમકાર કરે છે. એવા એ અરિહન્ત ભગવાન મને મંગળ કરનાર થાવ. જે મનુષ્યના હૃદયમાં તેને વિશ્વાસ છે એવા એ મનુષ્યને જેમ ( પ્રભાત થતાં) ચાર ગાયને છોડીને ભાગી જાય છે, એ જ પ્રમાણે મેટા મેટા સેંકડે ઉપદ્રવ પણ તેવા મનુષ્યને છોડીને ભાગી જાય છે. 11 - जिनेन्द्र देव स्मरणं शुभंकृत् तन्नाम मंत्रं दुरितापहारि। - तदेव रक्षाकृन्मेऽस्तु नित्यम् तदेव भूयादधुना शरण्यम् // 12 // ____ अर्थ-जिनेन्द्र देव का स्मरण ही मंगलकारी (लोक में) है. जिनेन्द्रदेव का नामरूपी मंत्र ही मनुष्यों के पापों का विनाशक है. वही नाममंत्र नित्य मेरी रक्षा करने वाला हो और वही मुझे शरणभूत हो. // 12 // . . . જીનેન્દ્રદેવનું મરણ જ લેકમાં મંગળ કરનાર છે. જીનેન્દ્રદેવના નામરૂપી મંત્ર જ - મનુષ્યના પાપને નાશ કરનાર છે. એજ નામમંત્ર નિત્ય મારું રક્ષણ કરે. અને એજ મને શણુભૂત થાવ. /૧રા तेषां जनानां निखिलापदोवा नश्यन्ति ये तान हृदयारविन्दे / .. ध्यायन्ति जन्मोदधिमुत्तरीतुं धन्या जनास्ते शुभजन्म तेषाम् // 13 // अर्थ-जो मनुष्य जन्मरूपी समुद्र से पार होने के निमित्त उन्हें अपने हृदय कमल में (स्थापित करके) ध्यान में जमाते हैं वे मनुष्य धन्य हैं और उनका ही जन्म पवित्र है. // 13 // * જે વ્યક્તિ જન્મરૂપી સમુદ્રથી પાર ઉતરવા માટે તે શ્રી જીતેન્દ્રપ્રભુને પિતાના હૃદયકમળમાં રાખીને ધ્યાન મગ્ન થાય છે તે મનુષ્યને ધન્ય છે. તેને જન્મ સફળ છે. 13 यश्चित्ततल्पेऽस्ति धृतो जिनेन्द्रः शक्रादिभिस्तेच धृताः स्वलोके / अत्रापि ते मान्यपदं लभन्ते सान्निध्यतस्तस्य न कस्य सिद्धिः // 14 // Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः . अर्थ-जिन्हों ने जिनेन्द्रदेव को अपनी चित्तरूपी शय्या पर बैठाया है वे शक्रादिकों द्वारा स्वर्गलोक में अपने पास में बैठाये जाते हैं तथा यहां पर भी उन्हें प्रतिष्ठित पद मिलता है. सच है प्रभु की निकटता से सिद्धि प्राप्त नहीं होती है. // 14 // જેમણે જીનેન્દ્રદેવને પિતાના ચિત્તરૂપી શય્યા પર બેસાર્યા છે. તેને શક્રાદિ દ્વારા સ્વર્ગલોકમાં પિતાની પાસે બેસારવામાં આવે છે. તથા અહીં પણ તેને માનનીય પદ મળે છે. સાચું જ છે કે પ્રભુના સમીપણાથી કોને સિદ્ધિ પ્રાપ્ત થતી નથી ? 118aa व्यथाऽधुना यास्ति मदीयचित्ते जानन्ति ते किन्नु वदाम्यहं ताम् / त्रैकालिकं वस्तु यतोस्ति तेषामध्यक्षगम्यं च शयाङ्गलीव // 15 // अर्थ-जो व्यथा इस समय मेरे चित्त में हैं वे उसे जानते हैं उसे मैं क्या कई क्योंकि त्रैकालिक जो समस्त वस्तुऐं हैं वे उनके प्रत्यक्ष ज्ञानमें हस्तस्थित अङ्गुली की तरह झलकती हैं // 15 // જે પીડા આ વખતે મારા ચિત્તમાં છે, તેને એઓ જાણે છે. તેમને હું શું કહું? કેમ કે ત્રણે કાળમાં થનારી સઘળી વસ્તુઓને તેઓના પ્રત્યક્ષ જ્ઞાનમાં હાથની આંગળીની જેમ ઝળકે છે. ઉપા माता यथाऽऽक्रन्दनमन्तरेण स्वस्तन्धयं स्तन्यमशेष विज्ञा। न पाययत्यैव तथैव जीवो गुरोः पुरालोचनमन्तरा नो // 16 // प्राप्नोति शान्ति ननुतत्प्रभावात् पापस्य हानिः सुकृतोदयश्च / तस्माद्भवेस्मिन व्यवहार रीत्या जीवः सुखस्थं मिलमन्यते स्वम् // 17 // . अर्थ-जिस प्रकार बच्चे के सम्बन्ध में पूर्णरूप से माता विना रोये अपने बच्चे को दूध नहीं पिलाती है उसी प्रकार गुरुदेव के समक्ष आलोचना किये विना जीव-॥१६॥ ___अर्थ-शान्ति नहीं पाता है आलोचना से पापकी हानि और पुण्य का उदय जीव के होता है. इसलिये इस संसार में वह जीव व्यवहारनय की अपेक्षा अपने को सुखी मानता है. // 17 // જેમ બાળકના રડા શિવાય માતા તેને પૂર્ણ પણે દૂધ પાતી નથી એજ પ્રમાણે ગુરૂદેવ સમુખ આલોચના કર્યા વિના જીવને શાંતી મળતી નથી. આલોચનાથી જીવને પાપની હાની અને પુણ્યનો ઉદય થાય છે. તેથી આ સંસારમાં તે જીવ વ્યવહાર ન ની अपेक्षाथी पोताने सुभी माने छे. // 16-17 // Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222 लोकाशाहचरिते यावान् भवः सोऽसि गृहं व्यथायाः नैवास्ति सौख्यं क्षणमात्रमत्र / तथाऽपि सातोदयतोऽथ जीवः स्वं मन्यते तावदसौ सुखस्थम् // 18 // ___ अर्थ-जितना संसार है वह व्यथा का ही घर है. यहां क्षणमात्र भी सुख नहीं है फिर भी यह जीव सातावेदनीय कर्म के उदय में अपने को सुखी मानता है. // 18 // . જેટલે સંસાર છે તે આપત્તિનું જ ઘર છે. તેમાં એક ક્ષણ પણ સુખ નથી. છતાં પણ આ જીવ સાતવેદનીય કર્મના ઉદયથી પિતાને સુખી માને છે. I18. आस्तां व्यथा काच कथाऽपि तस्या तस्यास्ति चित्ते भगवन्निवासः / नश्यन्ति पापानि च तस्य शीघ्रं तमांसि सूर्यप्रभया यथाशु // 19 // .. अर्थ-जिसके चित्त में अर्हन्त प्रभु का निवास है वहां व्यथा की बात तो बहुत दूर है. कथातक भी वहां उसकी सुनाई नहीं देती उस मनुष्य के पाप ऐसे शीघ्र नष्ट हो जाते हैं कि जैसे सूर्य की प्रभा से अन्धकार नष्ट हो जाता हैं. // 19 // - જેના ચિત્તમાં અન્ત પ્રભુના નિવાસ છે, ત્યાં વ્યથાની વાત તો ઘણી દૂર રહી. પણ તેની વાતો પણ ત્યાં સંભળાતી નથી. એ મનુષ્યના પાપો એવા જ૮િ નાશ પામે છે કેજેમ સૂર્યના પ્રકાશથી અંધકાર નાશ પામે છે 19 शैत्यं यथा धर्मतति निहत्य ह्युत्पादयच्छीतलतां तनोति / मुदं क्षिता वाकुलितां निरस्य तथैव तस्याद्भुतसंस्मृति नः // 20 // आवीर्भवन्ती समतां ददाति करोति शान्ति हृदयालवाले / पुष्णाति सा चित्त समीहितानि पुनाति जीवं मुदमातनोति // 21 // अर्थ-जिस प्रकार अत्यन्त ठंड गर्मी को दूर करके पृथ्वी पर शीतलता उत्पन्न करती हुई आनन्द का साम्राज्य जमा देती है उसी प्रकार उनकी अनौखी स्मृति हमारी आकुलता को दूर करके -- // 20 // समता प्रदान करती है, उससे हृदय में शान्ति आती है. शान्ति से मानसिक सद्भावनाओं का पोषण होता है. इनके पोषण से जीव की शुद्धि . होती है और शुद्धि से आनन्द मिलता है // 21 // જેમ અત્યંત ઠંડી ગરમીને દૂર કરીને પૃથ્વી પર શીતપણું ફેલાવીને આનંદનું સામ્રાજ્ય જમાવે છે. એ જ પ્રમાણે તેની સ્મૃતિ આપણી આકુળતાને દૂર કરીને સમતા Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कष्टमः सर्गः 223 આપે છે. તેનાથી હૃદયમાં શાંતિ આવે છે. શાંતિથી માનસિક સદ્ભાવનાઓનું પોષણ * થાય છે. તેના પિષણથી જીવની શુદ્ધિ થાય છે. અને શુદ્ધિથી આનંદ પ્રાપ્ત थाय छे. // 20-21 // कृषीवलोवाथ कृषौ यथा वाऽऽनुषंगिकं घासतृणादिवस्तु / प्राप्नोति जीवोऽपि जिनेन्द्र भक्त्या सांसारिकं सौख्यमनेकरूपम् // 22 // अर्थ-अथवा-किसान जिस प्रकार खेतीमें आनुषंगिक घासतृण आदि वस्तु पालेता है उसी प्रकार जीव भी जिनेन्द्र की भक्ति से अनेक प्रकार के सांसारिक सुख प्राप्त करता है. // 22 // અથવા ખેડુત જેમ ખેતિમાં અકસ્માત ઘાસ, વણ વિગેરે વસ્તુ મેળવે છે, એજ પ્રમાણે જીવ પણ જીનેન્દ્રદેવની ભક્તિથી અનેક પ્રકારના સાંસારિક સુખ પ્રાપ્ત કરે છે. રરા मनोव्यथाऽऽस्तां कथयापि तस्याः नैवास्ति साध्यं ममकिंचिदत्र / अतो गुणोत्कीर्तनमेव मंत्री निहन्तु तां मां च सुखी करोतु // 23 // _ अर्थ-भले ही मनोव्यथा रही आवे. यहां इसे इधर उधर कहने से मुझे कोई लाभ नहीं है. प्रभु के गुणों का स्तवन रूप मंत्र ही उस व्यथा को शान्त करेगा और वही मुझे सुखी बनावेगा. // 23 // ભલે મનની પીડા રહ્યા કરે, અહીં તેને આમ તેમ કહેવાથી મને કંઈ જ લાભ ' નથી. પ્રભુના ગુણોના ગાનરૂપ મંત્ર જ એ વ્યથાને શાંત કરશે અને એજ મને સુખી કરશે. રવા इत्थं विनिश्चित्य स शान्तभावैर्गतो गुरूणां सविधे सुपार्श्वः / प्रणम्य चास्थाय चकार धाः क्रियास्तदादेशमवाप्य तत्र :23 // अर्थ-इस प्रकार हैमचन्द्र सेठ शान्त भावों से निश्चय करके गुरुजनोंसाधुमहाराजों के पास (उपाश्रय में) पहुंचे वहां जाकर उन्होंने विराजमान मुनियों की वन्दना की और वहीं बैठकर उन्होंने उसका आदेश प्राप्तकर धार्मिक क्रियाएं की. // 24 // આ પ્રમાણે હેમચંદ્ર શેઠે શાંત ભાવથી નિશ્ચય કરીને ગુરૂજન-સાધુ મહારાજાની પાસે ગયા ત્યાં જઈને તેમણે ત્યાં બિરાજમાન મુનિને વંદના કરી અને ત્યાં જ બેસીને તેણે તેમની આજ્ઞા મેળવીને ધાર્મિક ક્રિયાઓ કરી. પારકા Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224 लोकाशाहचरिते धर्म्यक्रियान्ते श्रुतवान श्रुतज्ञः सश्रावकैः श्राद्ध गुणाभिरामैः। दिव्योपदेशं वेरुणोपदिष्टं समागतैस्तत्र सहोपविष्टैः // 25 // अर्थ-हैमचन्द्र सेठ की जब धार्मिक क्रियाएं समाप्त हो चुकी तब शास्त्र के ज्ञाता उन्हों ने श्रावक के गुणों से श्रद्धा, तुष्टि, भक्ति आदि सदगुणों सेसुन्दर ऐसे पहिले से ही आकर बैठे हुए आवकों के साथ 2 गुरुदेव के दिव्य उपदेश को सुना. // 25 // હેમચંદ્રશેઠની ધાર્મિક ક્રિયા જયારે સમાપ્ત થઈ શાસ્ત્રમાં જાણકાર એવા તેમણે શ્રાવકના ગુણોથી શ્રદ્ધા, તુષ્ટિ, ભક્તિ વિગેરે સદ્ગુણથી સુંદર અને પહેલેથી જ આવીને બેઠેલા શ્રાવકની સાથે ગુરૂદેવનો દિવ્ય એ ઉપદેશ સાંભળે. રપા उपदेश: आख्यायिवाचंयमिना तदा भो ! भो ! भव्यवृन्दाः शृणुतावधानात् / संसारसिन्धौ पतितस्य धर्मो जीवस्य संरक्षक एष एव // 26 // . अर्थ-वाचंयमी-मुनिराज ने कहा-हे हे भव्य जनो! आप सब सावधान होकर सनीये-यह संसार एक समुद्र है. इसमें जीव गोते खा रहा है. ऐसी स्थिति में-यदी कोई इनका संरक्षक है तो वह यह एक धर्म ही है. // 26 // વાચંયમી એવા મુનિરાજે કહ્યું કે-હે ભવ્યજનો ! તમો સૌ સાવધાન થઈને સાંભળે. આ સંસાર એક સમુદ્ર છે, તેમાં જે ડુબકા ખાઈ રહ્યા છે, આવી સ્થિતિમાં કોઈ તેનું રક્ષણ કરી શકે તેમ હોય તો તે આ એક ધર્મ જ છે. રા धर्माप्तिमूलं यदि किञ्चिदस्ति दयैव तद्भव्यजनाः शृणुध्वम् / आख्यानमेकं कथयामि तावत्पुष्ट्य मनोमोदकमत्र सम्यक् // 27 // ____ अर्थ-इस धर्म की प्राप्ति का यदि कोई मूल कारण है तो वह एक दया ही है. मैं उसकी पुष्टि के निमित्त एक सुन्दर रोचक कथानक कहता हूं उसे हे भव्य जनो आप सुने. // 27 // ધર્મની પ્રાપ્તિ થવાનું જો કેઈ મૂળ કારણ હોય તે એક દયા જ છે. આ વાતની પુષ્ટિ માટે હું એક સુંદર કથા કહું છું હે ભવ્યજને ! તે તમે સાવધાન થઈને સાંભળો. રબા अथारित भूमण्डलमण्डनेऽस्मिन् श्री भारताख्ये प्रथितो निवेशः / क्षेत्रे चतुर्वर्ग समुत्थकीर्तिप्रभूति भूत्या खलु मालवाख्यः // 20 // Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भष्टमः सर्गः 225 अर्थ-समस्त भूमण्डल के अलङ्कार स्वरूप इस भरत क्षेत्र में एक मालव नाममा देश-स्थान है. यह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार वर्षों से उदभूत हुई कीर्ति रूपी विशिष्ट विभूति से प्रसिद्ध है. अर्थात् यहां की जनता इन चार पुरुषार्थों के सेवन करने में दत्तचित्त रहती है. // 28 // સઘળા ભૂમંડળના આભૂષણરૂપ આ ભરત ક્ષેત્રમાં માલવ નામનો એક પ્રદેશ છે, એ ધર્મ, અર્થ, કામ અને મોક્ષ એ ચારે વર્ગોથી ઉત્પન્ન થયેલ કીર્તિરૂપી વિશેષ પ્રકારની વિભૂતિથી પ્રસિદ્ધ છે, એટલે કે ત્યાંને જનસમૂહ આ ચારે પુરૂષાર્થોના સેવન કરવામાં तत्५२ २डी इत्तयित्त 2 छ. // 28 // . ग्रामाः समस्ता महिषीयुतत्वात् नरेन्द्ररूपाः प्रतिभान्ति यत्र / नक्षत्रराजि द्विजराजवत्वात् निशीथमावं ह्यनुकुर्वते ते // 29 // अर्थ-यहां के समस्त ग्राम महिषी-भस या पट्टरानी से युक्त होने के कारण नरेन्द्र के जैसे लगते हैं तथा नक्षत्र राजि और द्विजराज-चन्द्रमा वाले होने से वे रात्रि का अनुकरण करते हैं अर्थात् यहां ग्रामों में न क्षत्रिय हैं न द्विजराज हैं-केवल किसान ही हैं रात्रि का वे अनुकरण इसलिये करते हैं कि रात्रि में ही नक्षत्रों का और चन्द्रमा का उदय होता है. रात्रि को देखता है // 29 // આ પ્રદેશના સઘળા ગામે મહિષી ભેંસ અથવા પાણીથી યુક્ત હોવાથી નરેન્દ્ર જેવા જણાય છે. તથા નક્ષત્રરાજી અને બ્રિજરાજ ચન્દ્રમા વાળા હેવાથી તેઓ રાત્રિનું અનુકરણ કરે છે. એટલે કે અહીંના ગામમાં ક્ષત્રિય કે દ્વિજે હેતાનથી, કેવળ ખેડુતો જ હોય છે તેથી તેઓ રાત્રિનું અનુકરણ એ કારણે કરે છે કે–રાત્રે જ નક્ષત્રોને અને ચંદ્રમાનો ઉદય થાય છે. ર૯ पुर्यस्ति तत्रोज्जयिनी विशाला चतुर्वृहद्गोपुर वैर्यगम्या / विभाति यातीव दिवौकसां या पुरीं विजेतुं गगनंकषैः स्वैः // 30 // सौधैः सुधादीधिति भूर्तिवद्भिः सुधा विलिप्ताङ्गविराजमानैः / अहर्निशं रक्षति या महीशो वप्रच्छलात्कुण्डलिताङ्गकान्तः // 31 // अर्थ-इसी मालव देश में एक बहुत बडी नगरी है. जिसका नाम उज्जयिनी है. इसके चार बडे 2 दरवाजे हैं जिन के कारण शत्रुजन इसमें प्रवेश तक नहीं कर सकते हैं इसमें जो राजमहल बने हुए हैं वे इतने ऊँचे हैं कि इन्हों ने आकाश को छू लिया है. इससे ऐसा होता है कि मानों यह नगरी सुर पुर को ही परास्त करने के लिये कटिबद्ध हो रही है वे राजमहल चन्द्रमा की जैसी Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226 लोकाशाहचरिते कान्ति वाले हैं उनकी भित्तियां चूना की कलई से पुती हुई हैं कोट के बने इसपुरी की रक्षा स्वयं शेषनाग कि जिसने अपने शरीर को कुण्डलाकार कर लिया है रात दिन करता रहता है. // 30-31 // આ માળવા પ્રદેશમાં ઉજજયિની નામની એક મટિ અને સુપ્રસિદ્ધ નગરી છે, તેના મોટા મોટા ચાર દરવાજાઓ છે. જેથી શત્રુઓ તેમાં પ્રવેશ કરી શકતા નથી. તેમાં જે રાજમહેલ છે તે એટલા ઉંચા છે કે–તેમણે આકાશને સ્પર્શ કરી લીધું છે. તેથી એવું જણાય છે કે જાણે એ નગરી ઈદ્રપુરીને પરાજ્ય કરવા કટિબદ્ધ થયેલ છે. એ રાજમહેલ ચન્દ્રમાના જેવી કાંતીવાળા છે. તેની ભીંતો યુનાથી ઘળેલ છે. કેટના બહાનાથી આ નગરીનું રક્ષણ સ્વયં શેષનાગ કે જેણે પિતાના શરીરને કુંડલાકાર બનાવી દીધું છે તે रात विस 20 // 27 छ. // 30-31 // जना मनोज्ञाः सुमनोऽभिरामाः सुलक्षणाः पुण्य विभूतिमन्तः। पुण्यप्रभावार्जितभूरिवित्ता प्रापतस्तर्जित शत्रुचित्ताः // 32 // अर्थ-यहां के मनुष्य पुष्प के जैसे सुन्दर हैं दूसरों के अन्तःकरण को अपनी ओर खींचने वाले हैं, सामुद्रिक शास्त्रोक्त अच्छे 2 लक्षणों से युक्त हैं पुण्यरूपी विभूति से संपन्न हैं: पवित्र प्रभाव से संचितधन वाले हैं और प्रताप से अपने शत्रुओं के चित्त को कंपित कर देने वाले हैं // 32 // અહીંના મનુષ્ય પુષ્પના જેવા સુંદર છે. બીજાના અંતઃકરણને પિતાના તરફ ખેંચનારા છે. સામુદ્રિક શાસ્ત્રોક્ત સારા સારા લક્ષણોથી યુક્ત છે. પુણ્યરૂપી વિભૂતિવાળા છે. પવિત્ર પ્રભાવથી મેળવેલ ધનસંપત્તિવાળા છે. અને પ્રતાપથી પોતાના શરઓના હૃદયને કંપાવનારા છે. ૩રા अत्रत्य योषा ललना युवत्यः पतिप्रिया प्रीणित पोष्यवर्गाः / पुरन्ध्रयः सन्ति पतिव्रतास्ता विपत्प्रतीकारपरा विनीताः // 33 // अर्थ-यहां की स्त्रियां अपने पति देवों को हर तरह से लाड प्यार से प्रसन्न करनेवाली है. यौवन के राग रंग से मंजी हुई हैं. अतः अपने 2 प्राणनाथों के लिये बडी प्यारी हैं नौकर चाकरों को समय 2 पर सन्तुष्ट करने वाली हैं. पुत्रवती पतिव्रता हैं, यदि कदाचित् किसी प्रकार की आपत्ति आ जावे तो उसके प्रतीकार करने में कटिबद्ध रहने वाली हैं और अपने सौभाग्यपर इठलाने वाली नहीं है-विनीत हैं. // 33 // - અહીંની શ્રિયે પિતાના પતિદેવોને દરેક પ્રકારથી પ્રસન્ન કરવાવાળી છે. યૌવનના રાગરંગથી રંગાયેલ છે. તેથી પિત પિતાના સ્વામીઓને પ્રિય છે. નેકર ચાકરોને સમયે Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः 227 સમયે સંતોષ આપનારી છે. પુત્રવતી અને પતિવ્રતા છે. જે કદાચ કઈ પ્રકારની વિપત્તિ આવી પડે તો તેને સામને કરવામાં તત્પર રહે છે. અને પિતાના સૌભાગ્ય પર મગરૂબી કરનાર હોતી નથી પણ વિનયવાનું હોય છે. 33 तस्याः प्रशास्ता नपालकान्तः बभूव भूपो वृषभाभिधानः / दधौ स्वचित्तं वृषभावनाढ्यः प्रजाहितायैव स दुर्जनारिः // 34 // अर्थ-उस नगरी के शासक वृषभ (सेन) नामके राजा थे. ये दुर्जनों के शत्रु एवं राजाओं में सब से अधिक अच्छे थे. धार्मिक भावना से ये भरपूर थे. प्रजा के हित में ही ये अपने चित्त लगाते रहते थे // 34 // તે નગરીનું શાસન કરનાર વૃષભસેન નામને રાજા હતો તે દુર્જનનો શત્ર અને રાજાઓમાં સૌથી શ્રેષ્ઠ હતા. તે ધાર્મિક ભાવનાથી રંગાયેલ હતા. પ્રજાના હિતમાં જ તેઓ પિતાનું ચિત્ત લગાવે છે. 34 तदेकनाम्नी महिषी तदीया बभूव तच्छंदसि वर्तमाना / स्मन्स्य पत्नीव विधोः प्रभेव मेवाभवत्सा तरणेः स्वमत्तुः // 35 // अर्थ-उस राजा की उसी नामवाली-वृषभसेना इसनामकी पट्टरानी थी. जो कि उसको इच्छा के अनुसार चलती थी, अतः वह अपने पति के लिये काम की पत्नी के जैसी, चन्द्रमा की प्रभा जैसी और सूर्य की प्रभा जैसी लगती थी. // 35 // . એ રાજાની વૃષભસેના એ નામની પટ્ટરાણી હતી. કે જે રાજાની ઇચ્છા પ્રમાણે ચાલનારી હતી. તેથી તે પોતાના પતિને માટે કામદેવની પત્નીની જેમ ચંદ્રમાની પ્રજાની માફક અને સૂર્યની પ્રભા જેવી જણાતી હતી. રૂપા धन्येषु धन्यो गुणगल नाम्ना गतः प्रसिद्धि क्षिति पालमान्यः / आसीच्च तत्रैव गुणी गुणज्ञः श्रेष्ठी परस्त्र्यम्बक मित्रतुल्यः // 36 // अर्थ-धन वालों में विशेष धनवाला ऐसा गुणपाल नामका एक राजमान्य सेठ वहीं पर रहता था. यह स्वयं गुणी था और गुणीजनों की प्रतिष्ठा किया करता था. (देखनेवालों को यह) कुवेर तुल्य प्रतीत होता था // 36 // - ધનવામાં વિશેષ ધનાઢય ગુણપાલ નામને એક રાજમાન્ય શેઠ ત્યાં જ રહેતો હતું, તે તે ગુણવાન હતો અને ગુણવાનનું સન્માન કરતે રહેતે હતો. (જેનારાઓને તે કુબેર જે જણાતું હતું. મારા Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 328 लोकाशाहचरिते गुणेष्वनेकेषु च सत्सु तस्मिन् संकल्पदाढय गुण एव मुख्यः / आसीदतोस्मै ह्यरुचद् यथैव सोऽयं तथैवाथ चकार तत्तत् // 67 // ___ अर्थ-उस सेठ में अनेक सद्गुण थे, परन्तु उन गुणों में प्रधान इसमें एक संकल्प की दृढतारूप गुण ही था. इसलिये यह जिस कार्य को जैसा करना चाहता उसे वैसा ही करके छोडता था. // 37 // એ શેઠમાં અનેક સગુણો હતા. પરંતુ એ ગુણમાં મુખ્ય ગુણ સંકલ્પનું નિશ્ચયપણું એ એક જ ગુણ હતો તેથી તે જે કાર્ય જેમ કરવા ઈચ્છતા તેને તેમજ કરીને રહેતા હતા. 37 कृष्णस्य लक्ष्मीखि भामिनी ममन्वेव भार्याथ बभूव तस्य / रतिः स्मरस्यापि च शंकरस्यापर्णेव सौभाग्यवती गुणश्रीः 30 // अर्थ-कृष्ण की पत्नी लक्ष्मी के समान, मेरी पत्नी मनवा के समान, काम की पत्नी रति के समान और शंकर की पत्नी पार्वती के समान उस सेठ के सौभाग्यशालिनी धर्मपत्नी गुणश्री थी. // 38 // કૃષ્ણની પત્ની લક્ષ્મીજીની જેમ મારી પત્ની મનવા તુલ્ય, કામની સ્ત્રી રતીની જેમ અને શંકરની પત્ની પાર્વતીની જેમ એ શેઠને સૌભાગ્યશાળી ધર્મ પત્ની ગુણશ્રી હતી. 38 यथाब्धितः कीर्तिरभूत्तथाऽस्माज्जाता सुतैकाच विषाभिधाना। निशोऽवनौ नाम तदीयमेतन्न सार्थकं तद्रजनीव जातम् // 39 // .. अर्थ-जिसप्रकार समुद्र से कीति उत्पन्न हुई उसी तरह इस सेठ से एक सुता उत्पन्न हुई. इसका नाम विषा था. परन्तु उसका वह नाम रात्रि के नाम रजनी के जैसा सार्थक नहीं था. जो चमकती हो या पीली हो उसे रजनी कहते हैं परन्तु रात्रि तो अन्धकारपूर्ण होती है फिर भी दुनिया में लोग उसे "रजनी' इस नाम से कहते ही हैं. इसी प्रकार भी अपने नाम से उल्टे ही गुणवाली थी. // 39 // જેમ સમુદ્રમાંથી કીર્તિ ઉત્પન્ન થઈ એજ પ્રમાણે એ શેઠને એક પુત્રી પ્રાપ્ત થઈ, તેનું નામ વિષા રાખવામાં આવ્યું. પરંતુ તેનું એ નામ રાત્રીનું નામ રજની છે તેવું સાર્થક ન હતું. જે ચમકદાર હોય અગર પીળી હોય તેને રજની કહેવામાં આવે છે. પરંતુ રાત્રી તે - અંધકારમય હોય છે. તે પણ દુનિયાના લોકો તેને “રજની' એ નામથી કહે જ છે. એજ પ્રમાણે વિષા પણ પિતાના નામથી ઉલ્ટા ગુણવાળી હતી. 39 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः 229 युग्मम् अर्थकदा तत्र समागतौ द्वौ महामुनी मार्ग प्रकाशनार्थम् / / तपस्यया क्षीणकलेवरौ तावुच्छिष्टभक्तं च सुभक्षयन्तम् // 40 // अपश्यतां नन्दनमेकमेवं दृष्ट्वाऽपरः पृच्छति भो मुनीन्द्रो / सुलक्षणैः शोभित एष बालः, कस्माच्च दैन्यं गतवाँश्च दायात् // 41 // अर्थ-एक दिन की बात है कि सम्यग्दर्शनादिरूप सन्मार्गके प्रकाशन निमित्त दो महामुनि कि जिनका शरीर तपस्या से कृश था सेठ गुणपाल के घर पर आये वहां आते ही उन्होंने झूठे भोजन को रुचिपूर्वक खाते हुए॥४०॥ एक बालक को देखा. देखकर एक मुनि ने दूसरे मुनिराज से पूछा-हे मुनि ! सुलक्षणों से शोभित यह बालक किस पाप से इस प्रकार की दीन दशा वाला हुआ है. // 41 // એક દિવસે સમ્યફ દર્શનરૂપ સન્માર્ગના પ્રકાશન નિમિત્તે બે મહામુનિ કે જેમનું શરીર તપસ્યાથી દુર્બલ હતું. તેઓ ગુણપાલ શેઠને ઘેર આવ્યા. ત્યાં આવતાં જ તેમણે એંઠા ભેજનને રૂચિપૂર્વક ખાતા એવા એક બાલકને જે. તેને જોઇને એક મુનિએ બીજા મુનીને પૂછ્યું–હે મુને ! સુલક્ષણથી શોભાયમાન આ બાલક કયા પાપના પ્રભાવથી આ રીતની દીન દશાવાળું છે ? A80-41 दशाऽस्य कीदृग्भविता ? प्रकाश्या त्वयेति साधो ! विरतेऽथ तस्मिन् / उवाच तावच्छृणु सर्वमेतद्वृतं मयोक्तं यदभृच्च मावि // 42 // अर्थ-तथा आगे इसकी क्या दशा होने वाली है. हे साधो ! आप इस पर प्रकाश डाले ऐसा पूछकर जब वे प्रथम मुनि चुप हो गये. तब दूसरे मुनिराज बोले. सुनो-मैं इसकी हुई और होने वाली दशा तुम्हें सुनाता हूं. // 42 // તથા આગળ તેની કેવી દશા થવાની છે? હે સાધે ! આપ આ વિષે મને જણાવો. આમ પૂછીને જ્યારે તે પૂછનાર મુનિ શાંત થયા. ત્યારે બીજા મુનિરાજે કહ્યું–સાંભળો હું આ બાળકની થયેલી અને થનારી દશા વિશે કહું છું. સારા अत्रावसत्कोऽपि च सार्थवाहः श्रीदत्तनामाऽशुभकर्मपात्रः। निः वः स्वबन्धुप्रभृतीद्धवगैस्तिरस्कृतस्तोष विनोदरिक्तः // 43 // Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 230 लोकाशाहचरिते ___अर्थ-यहाँ एक श्रीदत्त नामका सार्थवाह रहता था. यह अशुभ कर्म का पात्र था. निधन था. एवं अपने बन्धु आदि धनिक वर्ग द्वारा सदा तिरस्कृत था, अतः इसके चित्त में न चैन थी और न संतोष जैसी सुन्दर वस्तु ही थी // 43 // આ નગરીમાં એક શ્રીદત્ત નામના વ્યાપારી રહેતો હતો તે અશુભ કર્મ કરવાવાળો હતો. નિધન હતો અને પોતાના બંધુ વિગેરે ધનવાન વર્ગ દ્વારા હંમેશાં તિરસ્કૃત હતા. તેથી તેના ચિત્તમાં ચેન કે સંતોષ જેવી કંઈ જ સુંદર વસ્તુ હતી નહી. 43 यदावतीर्णः खलु चैप कुक्षौ हा हन्त हन्तास्य मृतोऽथ तातः / जातेऽपि तस्मिन् जननी परासु बभूव धिर धिग् दुष्कर्मवृत्तिम् // 44 // अर्थ-जब यह बालक अपनी माता के गर्भ में आया-तो इसके गर्भ में आते ही पिता का देहांत हो गया. और जब यह पैदा हुआ तो इसके पैदा होते ही इनकी माता मर गई. दुष्कर्म, पाप कर्म की वृत्ति को अनेक बार धिक्कार है. // 44 // જ્યારે આ બાળક પિતાની માતાના ગર્ભમાં આવ્યું તો તેના ગર્ભમાં આવતાં જ તેના પિતાનો દેહાંત થઈ ગયો. અને જયારે તે પેદા થયું ત્યારે તેની માતા મરી ગઈ દુષ્કર્મ પાપકર્મની વૃત્તિને અનેકવાર ધિક્કાર છે. 44 अस्यैव सच्छ्रेष्ठि महोदयस्य भवेत्सुताया दयितः प्रियोऽसौ / कालान्तरे स्याच्च नृपालमान्यः अहो विचित्रारित विधेर्व्यवस्था // 45 // अर्थ-कालान्तर में यही बालक यहां के धनपतियों में जिसकाउदय महान् वर्त रहा है ऐसे इसी गुणपाल सेठ की सुता का प्यारा पति और राजा से भी सन्मानित होगा. देखो-कर्म की गति बडी विचित्र है. // 45|| કાલાન્તરમાં આજ બાળક અહીંના ધનપતિમાં જેને પ્રભાવ વર્તાય રહ્યો છે, એવા આ ગુણપાલ શેઠની પુત્રીને પ્રિય પતિ થશે. અને રાજાથી પણ સન્માનિત થશે જુ કર્મની ગતિ ઘણી જ વિચિત્ર છે. Iઝપા उक्त्वाऽथ पश्चात्पुनरस्य वृत्तं भवान्तरस्थं ह्यवदद्दयालुः / विज्ञायते कन्दुकवज्जनस्य भवे भवे वोत्यतनं निपातः // 46 // __ अर्थ-ऐसा कह कर पश्चात् उन मुनिराज ने पुनः इसका अन्यभव सम्बन्धी वृत्तान्त कहा. जिससे यह प्रतीत हो जाता हैं कि प्राणी का कन्दुक की तरह हर एक भव में उत्थान और पतन होता है. // 46 // Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः 231 આમ કહીને તે પછી એ મુનિરાજે ફરીથી તેના બીજા ભવ સંબંધી વૃત્તાંત કહ્યુંજેથી એ નિશ્ચિત થઈ જાય છે કે પ્રાણીનું ઉત્થાન અને પતન દડાની માફક પ્રત્યેક ભવમાં थया रे छ. // 4 // आसीदयं पूर्वभवे तटिन्यास्तटेऽसिप्राभिधाया अवधौ स्थितायाम् / पल्यां स्वपत्न्या सह घंटया शिंशपाभिधायां वसता ववात्सीत् // 47 // - अर्थ-यह पूर्वभव में सिप्रा नामकी नदी के तट पर स्थित शिंशपा नाम की वस्ती में एक झोपडी में अपनी घंटा नाम की पत्नी के साथ रहता था.। 47 // આ પૂર્વભવમાં ક્ષિપ્રા નામની નદીને કિનારે આવેલ શિશપા નામના ગામમાં એક પડામાં પોતાની ઘટા નામની પત્નીની સાથે રહેતું હતું. ૪છા धियाज्वरोऽसौ मृगसेन नामर सुधीवरो धीवर जाति जात्रः। ख्यातो बभवाद्भूतजीवहिंसायां वेत्यहिंसां व्यसनप्रदात्रीम् // 48 // अर्थ-इसका नाम मृगसेन था. यह धीवर जाति में उत्पन्न हुआ था. बुद्धि इसकी अच्छी नहीं थी. जीवों की हिंसा करने में यह प्रख्यात था इसकी ऐसी मान्यता थी फि अहिंसा दुःख की देने वाली है. // 48 // આનુ નામ મૃગસેન હતું તે ભિલ જાતમાં ઉત્પન્ન થયે હતું તેની બુદ્ધિ સારી ન હતી. જેની હિંસા કરવામાં તે પ્રસિદ્ધ હતું. તે એવું માનતા કે અહિંસા દુઃખ દેવાવાળી છે. 5485 अथाऽन्यदा जालमसौ गृहीत्वा मत्स्यान परिग्रहीतुमना अयासीत् / सितां समीरेण च शुष्कसिप्रोऽपश्यत् पदव्यां नरवृन्दमेकम् // 49 // अर्थ-एक दिन की बात है कि मृगसेन जाल लेकर मछलियों को पकडने के लिये सिप्रा नदी पर गया. रास्ते पर चलने के कारण इसे पसीना आ गया. वह वायु ने शुष्क करदिया चलते 2 इसने मार्ग में मनुष्यों की भीड देखी.॥४९॥ કોઈ એક દિવસે મૃગસેન જાળ લઈને માછલિને પકડવા માટે ક્ષિપ્રા નદી પર ગયે. રરતામાં ચાલવાથી તેને શરીરે પરસેવે આવી ગયો અને તે પવનથી સુકાઈ ગયે. ચાલતા ચાલતા તેને માર્ગમાં મનુષ્યની ભીડ જોવામાં આવી. 49 दृष्ट्वाऽवहद्विस्मयमेषयातः कुतूहलाकृष्टमना अपश्यत् / दया स्वरूपं प्रतिपादयन्तं मुनि तनौ निस्पृह वृत्तिमन्तम् // 50 // Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % 3D 232 लोकाशाहचरिते अर्थ-भीड को देखकर इसे आश्चर्य हुआ. फिर भी यह कौतुक वश उस ओर गया, यहां उसने दया के स्वरूप को प्रति पादन करते हुए मुनि को कि जिन्हें अपने शरीर पर कोई अनुराग नहीं था देखा. // 50 // ભીડને જોઇને તેને અચરજ થઈ તો પણ તે કૌતુકવશાત તે તરફ ગમે ત્યાં તેણે દયાના સ્વરૂપનું પ્રતિપાદન કરનારા એક મુનીને જોયા કે જેને પોતાના શરીર પર પણ કાંઈ પ્રીતિ ન હતી. પવા शशाङ्कबिम्बं किमयं स्वशिष्यैखि वन्दैः परिवेष्टितोऽथ / वितर्कयन्नित्थपसौ च तस्थौ तत्रैव विस्मृत्य निजस्य कृत्यम् // 51 // अर्थ-नक्षत्र मंडली के जैसी अपनो शिष्यमंडली से परिवेष्टित हुआ क्या .. यह चंद्र मंडल है इस प्रकारकी वितर्कणा करता हुआ मह मृगसेन धीवर अपने काम को भूलकर वहीं पर बैठ गया, // 51 // નક્ષત્ર મંડળની જેમ પોતાના શિષ્ય સમૂહથી યુક્ત થયેલ તેઓ આ શું ચંદ્ર મંડળ છે? આ પ્રમાણે તક કરતો આ મૃગસેન પારધી પિતાનું કામ ભૂલીને ત્યાં જ બેસી ગયે. 51 यथात्मदेहे विशतः क्षुरप्रात् सह्या भवति प्रपीडा / जन्तोः कथं स्यान्न तथाऽसिपाते परस्य बुद्धा करुणेति धार्याः // 52 // अर्थ-जिस प्रकार प्राणी को अपने शरीर में तीक्ष्ण कांटे के प्रवेश करने पर असह्य वेदना होती है उसी प्रकार वह वेदना क्या उन परं तलवार का वार करने पर उन्हें नहीं होती होगी अवश्य होती होगी. ऐसा समझकर हर एक प्राणी को दया का पालन करना चाहिये. // 52 // જેમ પ્રાણીને પિતાના શરીરમાં તીક્ષ્ણ કાંટે લાગવાથી અસહ્ય પીડા થાય છે, એજ પ્રકારની એ વેદના શું તેના પર તવાર ઘા કરવાથી તેને નહીં થતી હોય ? અવશ્ય થતી જ હશે. તેમ સમજીને દરેક પ્રાણિએ દયાનું પાલન કરવું જોઈએ. પરા यथाऽस्मदीये हृदये समस्ति जिजीविषा सैव तथाऽपरस्य / मृत्योर्भयं सर्वभयप्रधानम् विभेति जीवो निखिलोऽपि तस्मात् // 53 // अर्थ-जिस प्रकार हम जीने की इच्छा करते हैं उसी प्रकार दूसरे जीव भी जीने की इच्छा करते हैं. क्यों कि मृत्यु का भय समस्त भयों में प्रधान हैं इससे समस्त जीव डरते हैं // 53 // Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मष्टमः सर्गः 233 જેમ આપણે જીવવાની ઈચ્છા રાખીએ છીએ એજ પ્રમાણે બીજા જે પણ જીવવાની ઈરછા રાખે છે. કેમ કે મરણને ભય તમામ ભયથી ભયંકર છે. તેનાથી સઘળા જ उरे छ, // 5 // श्रुत्वैव जीवो मरणेति शब्दं यः स्वं प्रयुक्तं कलहं करोति / स मारयेछा कथमन्य जन्तून् सुधीवरः स्याच्च कथं स हन्ता // 54 // ___ अर्थ-जो जीव अपने प्रति कहे गये "मरण'' इस प्रकार के शब्दों को सुनते ही लडने को तैयार हो जाता है वह बडे दुःख की बात है कि दूसरे जीवों को कैसे मारता हैं और उन्हें मारते हुए वह समझदार कैसे कहा जाता है. // 54 // જે જીવ પિતાને ઉદ્દેશીને કહેલા મરણ” શબ્દને સાંભળીને જ લડવા પ્રેરાય છે, તેજ જીવ દુઃખની વાત છે કે-બીજા ને કેમ મારે છે? અને તેને મારનાર એ સમજદાર કેવી રીતે કહી શકાય? 54 इत्थं गुरूक्तं हृदि संप्रधार्य विचारयामास स धीवगे द्राक् / महात्मनानेन यदुच्यते तत् सम्यग् यतः स्यां न सुधीवरोऽहम् // 55 // ___ अर्थ-इस प्रकार गुरुदेव का उपदेश सुनकर मृगसेन ने विचार किया कि इस महात्मा ने जो कुछ कहा है वह सत्व कहा है. जीवों की हिंसा करने वाले मैं सुधीवर कैसे हो सकता हूं // 55 // આ પ્રમાણે ગુરૂદેવને ઉપદેશ સાંભળીને એ મૃગસેને વિચાર કર્યો કે–આ મહાત્માએ જે કાંઈ કહ્યું છે, તે સાચું જ છે. જેની હિંસા કરવાવાળો હું સારો પારધી કેવી રીતે બની શકું? પપા यथा प्रियाः सन्ति ममासस्ते तथा परस्यापि च सन्ति तेऽपि / यथाऽधिकारो मम जीवनेऽस्ति तथाऽस्ति सर्वस्य स तुल्यरूपः // 56 / / ___ अर्थ-जैसे मुझे अपने प्राण प्यारे हैं वैसे वे दूसरों को भी प्यारे हैं. तथा जिस प्रकार मुझे जीने का अधिकार है. उसी प्रकार वह समानरूप से सब जीवों को है. // 56 // જેમ મને પિતાના પ્રાણ પ્યારા છે, એ જ પ્રમાણે તે અન્યને પણ યાર છે. તથા જેમ મને જીવવાને હક્ક છે, એજ પ્રમાણે તે સમાન રીતે બધા જ જીવન છે. પદ્દા ...इत्थं विचायैव गतो गुरूणां पार्श्व समुत्थाय निपत्य भूमौ / संस्पृश्य पादौ वदति स्म देव मां पापिनं त्राहि दयां विधाय // 57 // Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234 लोकाशाहचरिते ___ अर्थ-इस प्रकार से विचार करके वह उठकर गुरुदेव के पास गया. वहां भूमि पर पडकर उसने गुरुदेव के दोनों चरणों का स्पर्श किया और कहने लगा कि हे देव ! दया करके मुझ पापी की रक्षा करो. // 57 // આ પ્રમાણે વિચાર કરીને તે ત્યાંથી ઉભો થઇને ગુરૂદેવ પાસે ગયે. ત્યાં જઈ ભૂમિ પર પડીને તેણે ગુરૂદેવના બેઉ ચરણને સ્પર્શ કર્યો અને કહેવા લાગે કે હે દેવ ! દયા કરીને પાપી એવા મારું રક્ષણ કરે. આપણા पापीयसो मे भगवान् ! कथं स्यादुद्धार एवं ह्युदितेऽथ साधुः / उवाच भो ! भव्य ! शृणु यथा ते मवेत्स तन्मार्गमहं वदामि // 58|| अर्थ-हे भगवन् : मुझ पापी का उद्धार कैसे होगा ? इस प्रकार उसके कहने पर साधु महाराज ने कहा-हे भव्य ! तूं सुन. मैं तेरे उद्धार का मार्ग तुझे बताता हूँ // 58 // હે ભગવન! પારધી એવા મારે ઉદ્ધાર કેવી રીતે થશે? આ પ્રમાણે તેના કહેવાથી સાધુમહારાજે કહ્યું- હે ભવ્ય! તું સાંભળ! હું તારા ઉદ્ધારને રસ્તો તને બતાવું છું. 58 ज्ञानेन पूर्वापरमस्य सर्व मिमृश्य वृत्तं निजगाद साधुः / हिंसां परित्यक्तमना अपि त्वम् न तां विहातुं निखिलां क्षमोऽसि // 59 // अर्थ-अपने ज्ञान से इसके आगे पीछे का सब वृत्तान्त विचार जानकर साधु महाराज ने इससे कहा-तुम हिंसा छोडना चाहते हो पर तुमसे पुरी हिंसा का त्याग नहीं हो सकता है. // 59 // / સાધુમહારાજે પિતાના જ્ઞાનથી તેને આગળ પાછળનું તમામ વત્તાંત જાણીને તેને કહ્યું-તૂ હિંસાને છોડવા ઇચ્છે છે, પરંતુ તારાથી પૂરેપૂરી હિંસાને ત્યાગ થઈ શકશે નહીં. 59 तथापि जाले पतितो भवेच्चेदादौ च जन्तुर्न स मारणीयः / त्याज्यस्त्वयेत्युक्तिमसौ निशम्य, साधोंः पुरस्तवृतमाददौ सः // 60 // अर्थ-इसलिये-तुम ऐसा करो कि जाल में सब से पहिले जो जन्तु मछली आदि प्राणी-आ जावे. उसे मत मारो. छोडदो इस प्रकार के मुनिराज के कथन को सुनकर उसने उनके समक्ष उसव्रत को अङ्गीकार कर लिया. // 6 // તેથી તું એમ કર કે–જાળમાં સૌથી પહેલો જે જીવ જંતુ કે માછલા વિગેરે આવી જાય તેને ન મારવા છોડી દેવા. આ પ્રમાણેના મુનિ મહારાજના કથનને સાંભળીને તેણે તેમની પાસે એ વ્રતને સ્વીકાર કરી લીધે. દવે Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः व्रतं .यथा शक्ति जनेन तावद्ग्राह्यं प्रपाल्यं बहुयत्नतस्तत् / प्राणापहारेऽपि न तस्य कार्या विराधनाऽऽरादनयैव शंस्यात् // 61 // अर्थ-मनुष्य को अपनी शक्ति के अनुसार व्रत ग्रहण करना चाहिये. और उसे बहुत ही सावधानी के साथ पालन करना चाहिये. प्राण भले ही चले जावें पर उसकी आराधना से ही सुख प्राप्त होता है. // 61 // દરેક મનુષ્ય પોતાની શક્તિ પ્રમાણે વ્રત ગ્રહણ કરવું જોઈએ, અને તેને ઘણી જ સાવધાનીપૂર્વક પાળવું જોઈએ. કેમકે તેના પાલનથી જ સુખ પ્રાપ્ત થાય છે. છેલ્લા शुक्तिप्रसङ्गाज्जलबिन्दुवत्सत् सङ्गाज्जनो हीनतरोऽपि तावत् / संजायते मौक्तिकवत्पवित्रः संत्संगतिः किं न करोति पुंसाम् // 62 // अर्थ-शक्ति (सोप) के संबंध से-शुक्ति की सङ्गति से-जिस-प्रकार जल की बिन्दु मोती है. बन जाती उसी प्रकार सजन की संगति से हीन जाति का प्राणी भी पवित्र हो जाता है. सत्संगति मनुष्यों को क्या नहीं बना देती है. // 62 // છીપના સંગથી જેમ પાણીનું ટીપુ મેતી બની જાય છે, એ જ પ્રમાણે સજજનના સંગથી હીન જાતના પ્રાણી પણ પવિત્ર થઈ જાય છે. સત્સંગતિ મનુષ્યને શું નથી બનાવી દેતી ? ૬રા गतोऽथ तस्माद गुरुपादमूलात्स्वजालमादाय नदीं स सिप्राम् / .' क्षिप्रश्च जालः खलु तेन तस्यां तत्रारतत्कश्चिन्मीन एकः // 63 // अर्थ-इसके बाद वह मृगसेन धीवर गुरु के पास से अपने जाल को लेकर सिप्रा नदी पर गया. वहां उसने नदी में जाल डालो उस जाल में एक मछली आ गई॥६३॥ તે પછી તે મૃગસેન પારધી ગુરૂજીની પાસેથી પિતાની જાળ લઈને ક્ષિપ્રા નદી પર ગયે, ત્યાં જઈને તેણે નદીમાં જાળ નાખી ત્યારે તેમાં એક માછલી આવી ગઈ. હુંકા सचिहमेनं प्रविधाय पश्चान्मुक्त्वापुनर्जाल मसावमुञ्चत् / स एव तस्मिन् खल्वागतस्तं तथैव बुवा व्यजहादिदानीम् // 6 // ' अर्थ-उस मछली को चिह्न युक्त कर करके छोड दिया और छोड कर पुनः -उसने जाल डाला. परन्तु वही छोडी हुई चिह्नवाली मछली उस जाल में आगई Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 236 लोकाशाहचरिते यह पहिले की ही मछली है ऐसा समझकर उसने इस समय भी उसे छोड दिया. // 64 // એ માછલીને નિશાન કરીને તેણે છોડી દીધી અને ફરીથી તેણે જાળ નાખી તો એજ છોડી દીધેલ ચિહ્નવાળી માછલી એ જાળમાં આવી આ પહેલાની જ માછલી છે તેમ સમજીને ફરીથી પણ તેને છોડી દીધી. 64 एवं चतुर मपीह मौनः स एव चागत्य चकार तस्य / .यत्नेन साफल्यमतः स चिन्तां खिन्नश्चकाराथ करोमि हा किम् // 65 // ___ अर्थ-इस तरह उसने चार बार किया. परन्तु चारों बार भी वही मछली उसके जाल में आई. अतः उसका प्रयत्न सफल न हो सका. तब वह खिन्न होकर चिन्ता करने लगा कि हाय / अब मैं क्या करूं // 65 // આ પ્રમાણે તેણે ચારવાર કર્યું પણ ચારેવાર એજ માછલી તેની જાળમાં આવી તેથી તેની મહેનત સફળ ન થઈ ત્યારે તે દુઃખી થઈને વિચારવા લાગે કે હાય ર હવે હું शु३१ // 6 // जाले समायाति झषः स एव हन्तव्य एषोऽत्र मया न नाथ ! / क्व यानि किंवा करवाणि पुत्र दाराः प्रतीच्छन्ति बुभुक्षिता माम् // 66 // अर्थ-जाल में वही मछली आती है. इस समय यह मेरे द्वारा मारने योग्य नहीं हैं, हेनाथ ! अब मैं कहां जाऊं ? क्या करूं ? भूखे मेरे बाल बच्चे स्त्री आदि जन मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं. // 66 // જાળમાં એજ માછલી આવે છે અત્યારે તેને માર મારવી યોગ્ય નથી. હે નાથ ! હવે હું ક્યાં જાઉં અને શું કરું ?ભૂખ્યા એવા મારા બાળબચ્ચા અને સ્ત્રી વિગેરે મારી વાટ ने २२शे. // 66 // अम्बाधुना यावदनांगतोऽथ क्व तातपादः क्व गतः कदा वा / आयास्यतीहा कुलितं मनोऽमे भ्रष्टः पथः किं चल मार्गणाय / 67 // अर्थ-हे मा ! अभीतक पिताजी नहीं आये हैं. वे कहां रह गये हैं ? कहां पर गये हैं ? अब कब आवेंगे. मेरा मन आकुलित हो रहा है. वे रास्ता तो नहीं भूल गये, चलो उनकी खोज करें // 17 // હે મા ! અત્યાર સુધી મારા પિતાજી આવ્યા નથી. તેઓ ક્યાં ગયા છે? અને ક્યાં રોકાયા હશે? હવે કયારે આવશે ? મારું મન વ્યાકુળ થાય છે. તેઓ રસ્તે તે ભૂલી નહીં ગયા હોય ચાલે તેમની શોધ કરીએ. છા Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः मार्गे प्रयातस्य च वास्य कैश्चित् हिौ मिलित्वा पशुभिः कृतंचेत् / हा ! भक्षणं, तात ! गतस्त्वमित्थं दुरन्तमन्तं किमु जीवनेन 168 // अर्थ-अथवा-रास्ते में चलते हुए उनका मिलकर किन्हीं हिंसक जीवों ने भक्षण कर लिया हो, और इस तरह से हे तात ! तुम्हारी दुःख दायक मृत्यु हुई हो तो हम लोगों के जीवन से अब क्या ? // 68 // અથવા રસ્તામાં આવતાં તેમનું કઈ હિંસક છે મળીને તેમને ખાઈ ગયા હોય અને આ રીતે હે પિતાજી ! તમારું દુઃખદ મરણ થયું હોય તો અમારે જીવીને હવે શું કરવું ? 68 क्षुत्क्षाम कुक्षिः खलु तातपादः केनापि प्रदात्रा कशिपु मदानात् / आहारपूर्णोदवान कृतश्चेत्तेनार्जितं पुण्यमगण्य पण्यम् / / 69 / / अर्थ-पिताजी भूखे हैं / यदि किसी दाताने आहार देकर उनके उदर को भर दिया है-तो उसने संसार में अगण्य पण्य देने वाले पुण्य का संचय कर लिया है. // 69 // . પિતાજી ભૂખ્યા છે, જે કઈ દાતાએ ભેજન આપીને તેમનું ઉદર ભર્યું હોય તે તેમણે સંસારમાં અગણિત પુણ્ય આપનારા પુણ્યને સંચય કરી લીધો છે. છેલ્લા बुभुक्षिताः स्मो वयमद्य सर्व असाम कामं खलु चिन्तयाऽलम् / प्रत्यागतश्चेत्सुखसातयाऽसावुद्गादगारे मन हैमचन्द्रः // 70 // अर्थ-यद्यपि हम सब आज भूखे हैं सो भले ही रहे. इसको हमें चिन्ता नहीं है यदि पिता जी सुखशाता से घर पर वापिस आजाते हैं तो हम समझेंगे-कि घर में सुवर्ण का चन्द्रमा उदित हुआ है. // 70 // જેકે અમે સૌ આજે ભૂખ્યા છીએ તે ભલે રહ્યા તેની ચિંતા અમને નથી. જો પિતાજી સુખપૂર્વક ઘેર આવી જાય તો અમે માનીશું કે ઘરમાં સેનાને સુરજ ઉગ્યો છે. બા दिवस्करोऽयं घुमणिर्गभस्तिमाली भ्रमन् व्योम्न्यधुना प्रयाति / श्रान्तश्च विश्रान्ति निमित्तमस्ताचलं गृहं यामि च रिक्तपाणिः // 71 // अर्थ-आकाश मंडल का मणि यह सूर्य कि जिसने किरण रूपी माला ओं को धारण कर रखा है आकाश में भ्रमण करते हुए थक गया है. अब वह विश्राम करने के निमित्त खाली हाथ ही-प्रकाश की मंदता युक्त हुआ ही Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 238 लोकाशाहचरिते अस्ताचल की ओर जा रहा है. में भी अब थक गया हूं अतः मैं भी अब विश्राम करने के लिये घर पर खाली हाथ ही चलूं. // 71 // આકાશ મંડળનો મણિ આ સૂર્ય કે જેણે કિરણરૂપી માળાઓને ધારણ કરી રાખી છે. તે આકાશમાં ભ્રમણ કરતાં કરતાં થાકી ગયો છે. હવે તેઓ વિશ્રામ માટે ખાલી હાથે અર્થાત્ મંદ પ્રકાશવાળા થઈને અસ્તાચલ તરફ જઈ રહ્યો છે. હું પણ હવે થાકી ગયો છું તેથી હું પણ વિશ્રામ કરવા માટે ખાલી હાથે ઘેર જાઉં. 71 संध्याऽऽगता पक्षिकुला रवैः सा काष्ठां प्रतीची वदति स्म बाले ! / यावन्न ते नाथ उदेति तावत्त्वया प्रतीक्षा नियमाद्विधेया // 72 // अर्थ-अब संध्या हो गई है. वह पक्षि कुलों की चहचहाट से प्रतीचीपश्चिम दिशा से कह रही है-हे ले, जब तक तेरा नाथ-चंद्रमा उदित नहीं . . होता है-तबतक तूं नियम से उसकी प्रतीक्षा करती रह. // 72 // હવે સંધ્યાકાળ થયા છે, તે પક્ષિસમૂહોના કિલકિલાટથી પશ્ચિમ દિશાને કહી રહ્યા છે. કે હે બાળા ! જ્યાં સુધી તારા સ્વામી ચંદ્રમાને ઉદય ન થાય ત્યાં સુધી તું તેની રાહ જે. !Iછરા खौ प्रयाते दिवसोऽपि यातः, याते च तस्मिन् तमसावृते मे / नेत्रे भवेतां गमनं कथं स्यादतोऽधुनैवेत्थमसौ विचार्य // 73 // प्रदोषकालेऽथ गतः स्वपुर्यां सजाल पाणि विलोकितो द्राक् / तया स्वपल्या खलु घंटयाऽऽदौ क्रुधारुणाक्ष्याऽकमनीयकान्त्या !74 // अर्थ-सूर्य के अस्त होते ही दिन भर समाप्त हो गया है इसकी समाप्ति होने पर अब अंधेरा छा जायेगा. उससे मेरी दोनों आंखें आवृत हो जावेंगी अतः मुझ से चला नहीं जायगा. इसलिये अब ही चलदेना चाहिये. इस प्रकार विचार कर यह-॥७३॥ प्रदोष के समय में अपनी वस्ती में आया उसके हाथ में केवल जाल ही था सब से पहिले उसे क्रोध से जिसकी आखें लाल हो रही हैं और इसीसे जिसकी आकृति भी विकराल-अशोभनीय बन गई है पत्नी घंटा ने देखा // 74 // સને અસ્ત થતાં જ દિવસ સમાપ્ત થયો છે તે સમાપ્ત થતાં હવે અંધકાર છોઈ જ જશે. તેથી મારી બેઉ આંખ ઢંકાઈ જશે તેથી મારાથી ચાલી શકાશે નહીં તેથી હવે ચાલવું જ જોઈએ. આ પ્રમાણે વિચારીને તે સંધ્યાકાળે પિતાના ગામમાં આવ્યું. તેના Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः હાથમાં કેવળ જાળ હતી. સૌથી પહેલાં તેને કેવથી જેની આંખો લાલ થઈ છે, અને તેથી જ જેની આકૃતિ પણ વિકરાળ બની ગઈ છે, એવી તેની પત્ની ઘંટાએ જોયે. II73-74 युग्मम्-प्रतीक्षया तस्य च चिन्तया च रुष्टाऽसती सा तं रिक्तपाणिम् / दृष्ट्वैव हाऽचारविचारहीनाऽवदत्कथं निघृण ! रिक्तपाणी- // 75 // भूत्वागतोऽऽरे तव बाल ! बाला इमे किमत्स्यन्त्यधुना प्रगेवा / उक्त्वा तयेत्थं गृहतोथ चक्रे बहिः स साऽभ्यन्तरमाविवेश // 76 // अर्थ-उसकी प्रतीक्षा और चिन्ता से रुष्ट हुई वह असती घंटा खाली हाथ उसे देखकर ही आचार और विचार से रहित बन गई और कहने लगी हे निर्दय ! तुम खाली हाथ होकर क्यों आये हो। रे मूर्ख ! ये तेरे बालक अभी तथा प्रातःकाल क्या खायेंगे? ऐसा कह कर उसने उसे घर से बाहर निकाल दिया और आप स्वयं भीतर घुस गई // 75-76 / / તેની વાટ જોઈ અને ચિંતાથી રૂઠેલી તે ઘટાએ ખાલી હાથે આવેલ તેને જોઈને તે આચાર કે વિચારશન્ય બની ગઈ અને કહેવા લાગી કે નિર્દય ! તું ખાલી હાથે કેમ આવે? અરે મૂર્ખ ! આ તારા બાળકે અત્યારે અને સવારે શું ખાશે! આમ કહી તેણીએ તેને ઘરની બહાર કહાડી મૂકે અને પોતે અંદર જતી રહી. II75-765 कपाटमुद्धाटय चारुनेत्रे ! श्रानोऽस्मि खेदं परिहाय कल्ये / यास्यामि, कोपं च कुरुष्व मात्वं बुभुक्षितानां रजनी प्रियैव (शरण्या) // 77 // अर्थ-हे सुन्दर नेत्रोंवाली प्रिये ! किवाड खोल दो मैं थका हुआई थकावट उतार कर मैं फिर प्रातः काल जाऊंगा तुम क्रोध मत करो जो भूखे होते हैं उन्हें रात्रि ही प्यारी लगती है (शरण दायी होती है) // 77 // તે સુંદર નેત્રોવાળી પ્રિયે! બારણા ઉઘાડો હું થાકેલે છું થાક ઉતારીને હું ફરી સવારે જઈશ તું ગુસ્સે ન કર જેઓ ભૂખ્યા હોય છે, તેમને રાત્રી જ મારી લાગે છે. તેનું શરણરાત્રી જ હેય છે. 77 अथैव मुक्तेऽपि तया न दत्तः प्रवेशमार्गः स्वरहे तदाऽयम् / संतोषमास्थाय निमाल्यमेकं पार्श्वस्थवृक्षं तदधोऽधिशिश्ये / / 78 // * अर्थ-इस प्रकार कहने पर भी उसने उसे अपने घर में प्रवेश मार्ग नहीं दिया-अर्थात् दरवाजा नहीं खोला तब यह संतोष धर कर पास के एक वृक्ष को देखकर के उसके नीचे सो गया // 78 // Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 240 लोकाशाहरिते આ રીતે કહેવા છતાં પણ તેણીએ તેને પિતાના ઘરમાં આવતા રસ્તો ન આપ્યો અર્થાત બારણું ન ખોલ્યું ત્યારે તેણે સંતોષ રાખીને નજીકના એક ઝાડ નીચે સુઈ ગયા. 78 निद्रागमात्पूर्वमसावचेतत् स्वार्थैकनिष्ठा जगतीह सत्त्वाः / या माम दृष्ट्वाऽऽकुलिताऽभवत्सा गृहाइवहिः मामऽधुना करोति // 79 // ___ अर्थ-निद्रा आने से पहिले इसने विचार किया-इस संसार में जितने भी प्राणी हैं-वे सब अपने 2 स्वार्थ में लीन हैं यह कितने दुःख की बात है कि जो पत्नी मुझे देखे विना आकुलित हो जाती थी. उसीने आज मुझे घर से बाहर कर दिया है // 79 // ઉંઘ આવતાં અગાઉ તેણે વિચાર કર્યો કે આ સંસારમાં જેટલા પ્રાણિ છે, તે બંધ જ પિતાના હાથમાં લીન છે, એ કેટલા દુઃખની વાત છે કે-જે સ્ત્રી અને વિના દેખે આકુળ-વ્યાકુળ થતી હતી તેણીએ આજે મને ઘર બહાર કાઢી મૂક્યો છે. 79 आज्ञातमद्यैव मया यदेतन्नारी तुगम्बा भगिनी सुता वा।। न कोऽपि कस्यास्ति मतं तदेतत् सम्यग्न मिथ्याऽन मनागिवागः॥८॥ ___ अर्थ-यह बात मुझ (अधम) को आज ही ज्ञात हुई है कि " स्त्री, बेटा, माता, बहिन और बेटी ये कोई किसी के नहीं है " ऐसा जो यह सिद्धान्तमत है वह सच्चा है. झूठा नहीं हैं. और इसमें थोड़ी सी भी गल्ती नहीं है // 8 // આ વાત અધમ એવા મને આજે જ જણાઈ કે સ્ત્રી, પુત્ર, માતા, બહેન અને પુત્રી કેઈ કોઈના નથી. આ જે મત છે તે જ સાચો છે, ગૂઠો નથી. અને તેમાં જરા પણ ભૂલ નથી. તેના शरण्यमेवास्तु च केवलं मे, अस्यां दशायां पतितस्य नाथ ! / आत्तं तदेव व्रतमित्थान्ते निधाय चित्ते स्वपिति स्व सोऽज्ञः // 8 // अर्थ -इस स्थिति में पड़े हुए मुझे हे नाथ ! वही ग्रहण क्रिया हुआ व्रत शरण्यभूत हो इस प्रकार वह मन में रखकर निद्रा के वशीभूत हो गया.॥८१॥ આ પરિસ્થિતિમાં આવી પડેલા મને હે નાથ ! એજ પૂર્વે ગ્રહણ કરેલ વ્રત શરણભૂત થાવ, આ પ્રમાણે તે મનમાં વિચારીને નિદ્રાધીન થઈ ગયા. 81 प्रगाढनिद्रो विकरालकाल स्वरूपिणा तावदसौ च दष्टः। सर्पण सन् दीर्पभवापनिद्रां वल्मीकतस्तत्र विनिर्गतेन // 8 // Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः 241 अर्थ-उसे गाढ निद्रा आ गई इतने में वहां एक बिल में से विकराल काल की आकृति जैसा सर्प निकला. और उसने उसे काट लिया. और यह दीर्धनिद्रा पतित हो गया-मर गया. // 8 // તેને એકદમ ગાઢ ઉંઘ આવી ગઈ એ વખતે ત્યાં એક દરમાંથી વિકરાળ કાળની આકૃતિ જેવો કાળીભમ્મર સપ નીકળે અને તે તેને કયો અને તે દીર્ધ નિદ્રાધીન થે અર્થાત મરણશરણ થઈ ગયો. ૮રા स एव जातः खलु जातरूपः एषोऽर्भको वस्त्रविहीनगात्रः / उच्छिष्टभोजी स्वजनैविहीनः हीनस्थितिर्हितकर्मणैव / / 83 / / अर्थ-वह मृगसेन धीवर ही यह अच्छे रूप वाला बालक हुआ है. इस समय यह जो वस्त्र विहीन, उच्छिष्ट अन्न खाने वाला, स्वजन विहीन एवं हीन स्थिति वाला बना है वह अपने पूर्वोपार्जित गहित कर्म-पाप-कर्म से ही बना है.॥८३॥ એ મૃગસેન પારધી જ આ વરૂપવાન બાળક થયેલ છે. અત્યારે તે વસ્ત્રવિનાને, એ ખાનાર, રવજનોથી રહિત અને અધમ રિથતિવાળે બન્યો છે, તે પોતાના પૂર્વોપાર્જીત પાપ કર્મથી બનેલ છે. ૮કા शनैः शनैः मा शमितप्रकोपा विचारयामास मयार्यवृत्तम् / कृतं न, मे चंवलचित्तवृत्ति धिास्तुतस्यास्मि कथं सुनारी ? / / 84 // अर्थ-धीरे 2 जब घंटा का क्रोध शान्त हो गया तब उसने विचार किया कि मैं ने यह आर्य पुरुष के योग्य व्यवहार नहीं किया है. मेरी इस चंचल वृत्ति को धिक्कार हो. मैं ऐसी हालत में उसकी अच्छी नारी कैसे हो सकती हैं // 4 // ધીરે ધીરે જ્યારે ઘંટાનો ગુસ્સો ઉતરી ગમે ત્યારે તેણીએ વિચાર્યું કે મેં આ આર્યનારીને યોગ્ય વ્યવહાર કર્યો નથી. આ વૃત્તિને ધિક્કાર છે. આ સ્થિતિમાં હું સન્નારી 37ii ते मनी 1 // 14 // दौविस्यवृत्या न मया कृतं हा ! सम्यक सुनार्या अनुकूलमेतत् / श्रान्तोऽथ नाथः क्षुधयाऽऽतुरोऽपि निष्कासितो दार कवग्रहाद्धा // 85 / अर्थ-हा हा ! पागल जैसी चित्तवृत्ति वाली मैंने यह काम अच्छी-नारी के अनुक्ल नहीं किया है जो थके हुए तथा भूखे अपने पति को बालक की तरह घर से बाहर निकाल दिया है. // 85 / / Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242 लोकाशाहचरिते હાયહાય! ગાંડા જેવી વૃત્તિવાળી મેં આ કામ સન્નારીને અનુરૂપ કરેલ નથી. જે થાકેલ તથા ભૂખ્યા પોતાના પતિને બાલકની જેમ ઘર બહાર કહાડી મૂકેલ છે. આ૮પા गत्वाऽथ कुत्रास्त्यधुना धवो मे सोऽन्येषणीयो व्यवहारसूर्यः। मयैव मे मूर्धनि वज्रपातः कृतः सुरद्राव कुठारपातः // 86 // ) अर्थ-अब जाकर मैं अपने सौभाग्य के सूर्य रूप पतिदेव की खोज-करूंकि वे इस समय कहां पर हैं. अरे ! मैंने ही अपने हाथों से मस्तक पर वज्र गिरा लिया है. और एक कल्पवृक्ष को मैंने ही कुल्हाडी से काट डाला है. // 86 // હવે હું મારા સૌભાગ્યના સૂર્ય જેવા પતિદેવની તપાસ કરું કે તેઓ અત્યારે ક્યાં છે? અરે ! મેં જ પિતાના હાથે જ માથા પર વાપાત કરેલ છે. અને કલ્પવૃક્ષને મેં જ કુહાડીથી કાપી નાખેલ છે. ૮દા इत्थं विनिश्चित्य गता स्वपत्युः कर्तुं समीक्षां च निशावसाने / निद्रागतं तं प्रविलोक्य घंटा चकांक्ष चास्थापयितुं महीस्थम् / / 87 // अर्थ-इस प्रकार वह घंटा निश्चय करके रात्रि की समाप्ति होने पर अपने पति की गवेषणा करने कि लिये निकली और जमीन के ऊपर सोये हुए उसे देखकर वह उसे जगाने लगी. // 8 // આ પ્રમાણે તે ઘંટાએ વિચારીને રાત્રી સમાપ્ત થતાં જ પિતાના પતિની શોધ કરવા માટે બહાર નીકળી અને જમીન પર સુતેલા તેને જોઈને તે તેને જગાડવા લાગી. ૮ળા कृतप्रयत्नेऽपिचनोत्थितोऽसौ यदा तदा सा रुदती ह्यवोचत् / क्षमस्त दोषान् मम जीवितेश ! न विप्रियं तेऽथ पुनः करिष्ये // 88 // अर्थ-प्रयत्न करने पर भी जब मृगसेन नहीं उठा तब उसने रोते 2 कहा-हे नाथ ! मेरे अपराधों को आप क्षमा करें. अब मैं तुम्हें बुरा लगे ऐसा व्यवहार आगे नहीं करूंगी. // 88 // મહેનત કરવા છતાં પણ જયારે મૃગસેન ન જાગે ત્યારે તેણીએ રડતાં રડતાં કહ્યુંહે નાથ ! મારા અપરાધની મને માફી આપે હવે હું તમને ખરાબ લાગે એ વહેવાર કરીશ નહીં 88 सगद्गदं साथ मुहुर्मुहु हा ! बाष्पाईनेत्रोक्तवती प्रभो !.माम् / न भाषसे किश्चिदपीह जोषमास्थाय सुप्तोऽसि च जाग्रहि त्वम् / / 89 // Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः 243 अर्थ-वह बार बार आंखों में पानी भर कर गद्गद कंठ से कहने लगी कि हे नाथ ! आप मुझ से इस समय कुछ भी नहीं कह रहे हो. तो क्या गुस्से में भर कर सोये हुए हो ? अब जग जाओं ! // 89 // તે વારંવાર આંખોમાં આંસુ લાવીને ગદગદિત કંઠથી કહેવા લાગી હે નાથ ! અત્યારે આપ મને કંઈ જ કહેતા નથી તે શું ગુસ્સાથી સૂતા છો? હવે જાગે. 89 विभावरी देव ! गताऽऽगता वा प्रभातवेला वमिहोत्थितः स्याः। सुप्तं च वीक्ष्यात्र भवन्तमीशं मां निन्दयिष्यन्ति जन्ना इमे मे // 90 // अर्थ-हे देव ! रात्रि समाप्त हो गई है. प्रभात की वेला आ चुकी है. अब तुम उठ बैठो. यहां जमिन पर सोये हुए आप नाथ को देखकर मेरे आत्मीयजन मेरी निन्दा करेंगे // 10 // હે દેવ ! રાત પૂરી થઈ ગઈ છે. પ્રભાતકાળ આવી ગયા છે. તો ઉડીને બેઠા થાવ અહીં જમીન પર સુતેલા આપને જોઈને આપણા વજને મારી નિંદા કરશે. ૯ના उत्तिष्ठ समेहि जहीहि रोषं, मौनं विमुञ्चाथ मयैव सार्धम् / निशान्तमम्येत्य विधायसुप्तान विनिन्द्रितान् स्वान् परिचुम्ब बालान् // 91 // अर्थ-उठो. घर चलो रोष को छोड़ो, मौन को त्यागो और मेरे साथ घर पर चलकर सोये हुए अपने बच्चों को जगाकर उनका चुम्बन करो-उन पर प्यार बरसाओ // 91 // ઉઠે, ઘેર ચાલે ગુસે છેડે, મૌનનો ત્યાગ કરે અને મારી સાથે ઘેર આવીને સુતેલા આપણા બાળકોને જગાડીને તેમને પ્યારથી ચુંબન કરી પાર વરસા. 91 इत्थं गदित्वाथ गता समीपं संस्पृश्य तं नन्तुमसौ पपात / तत्पादयोः शैत्यमियं विबुद्धय गतांसु देहो तमतो बुबोध // 92 // अर्थ-इस प्रकार कहकर वह उसके समीप गई वहां जाकर उसने उसकी पादचन्दना की और फिर उसके शरीर को छुआ उसमें उसे शीतलता का मनुभव हुआ. इससे उसे निश्चय हो गया कि यह मर चुका है // 92 // ( આ પ્રમાણે કહીને તે એની પાસે ગઈ ત્યાં જઈને તેના પગમાં પડી અને તે પછી તેના શરીરને સ્પર્શ કર્યો ત્યારે તેણીને તેમાં ઠંડકનો અનુભવ થયે તેથી એનેશિયા થયો કે આ મરણ પામેલ છે. ૯રા Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244 लोकाशाहचरिते घंटा शिरस्ताउनपूर्वकं हा ! रुरोद संस्मृत्य निजस्य दोषम्।। अन्ते मृता साप्यहिनैव दष्टा जाता विषाख्या गुणपालवाला // 13 // अर्थ-घंटा छातीमृढ कूट 2 कर खूब रोई और मेरे दोष से ही इनकी यह दशा हुई है ऐसा उसने माना. अन्त में उसे भी सांपने काटा और मर कर वह इस गुणपाल सेठ की विषा नामकी कन्या के रूपमें उत्पन्न हुई // 93 // . તે પછી ઘંટા છાતી ટીટીને ખૂબ રડી અને મારા વાંકથી જ આની આ દશા થઈ તેમ તેણીએ માન્યું. અને તેણીને પણ સાપ કરડે અને તે મરીને ગુણપાલ શેઠની વિષા નામની કન્યારૂપે ઉત્પન્ન થઈ છે. ઉલ્લા इत्थं सुनीन्द्रोक्तासी प्रश्रुत्य वृत्तं तदीयं गुणपालपुत्रः / पित्रेऽथ स तदुवाच सम्यग यथाश्रुतं विस्मय मावहत्सः // 94 // अर्थ-जब वे दोनों मुनि महाराज आपस में इस प्रकार से कह रहे थे तब वहां पर गुणपाल सेठका पुत्र भी खड़ा हुआ था. वह उन दोनों की बातों को सुन रहा था. यह भिखमंगा उच्छिष्ट भोजी मेरी बहिन विषा का होनिहार पति है. जब ऐसी बात उसने सुनी तो उसने पिता गुणपाल से जैसी बात सुनी थी वैसी कह दी. सुनकर गुणपाल को आश्चर्य हुआ. // 94 // - જ્યારે તેઓ બંને મુનિમહારાજે પરસ્પર આ પ્રમાણે વાત કરતા હતા ત્યારે ત્યાં ગુણપાલશેઠને પુત્ર પણ ઉભે હતો. તે એ બન્ને જણાની વાતો સાંભળતો હતો. આ ભીખમાંગનાર એંડુ ખાનાર મારી બહેન વિષાને થનાર પતિ છે, તેમ જયારે તેણે સાંભળ્યું ત્યારે તેણે પિતાના પિતા ગુણપાલને જેવી વાત સાંભળી હતી એજ રીતે કહી સંભળાવી તે સાંભળીને ગુણપાસને અચરજ થઈ. 94 वेणु प्रणष्टान्न यथाऽस्ति वीणोद्भवस्तथाऽस्य क्षयतो भवेन्नो। वृत्तं मुनीन्द्रोक्तमिदं स्वचित्ते निश्चित्य संतोषमथो दधौ सः // 95 // ___ अर्थ-"न रहेगा वांस न बजेगी बांसुरी" इसबात के अनुसार उसने अपने मन में ऐसा निश्चय किया कि जब मैं इसका विनाश ही कर दूंगा तो फिर मुनीन्द्र ने जो यह बात कही है वह बन ही नहीं सकेगी. इस तरह निश्चित कर के उसने संतोष की सांस ली // 95 // / ન રહેશેવાંસ નહી વાગે વાંસળી ' એ કહેવત પ્રમાણે તેણે પોતાના મનમાં એવો નિશ્ચય કર્યો કે જે હું આને નાશ કરી દઉં તે પછી મુનિમહારાજે આ વાત કહી છે તે બની જ નહીં શકે તેમ વિચારીને તેણે સંતોષ માને. ૯પા Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 245 अष्टम: सर्गः आहूय मातङ्गमसौ करालं च्युतं नु कण्ठाद्गरलं भवस्य / मलीमसं स्वेष्टमनोथं तं ब्रूते स्म नीला लमिमं जहि द्राक् // 96 // अर्थ-महादेव के कण्ठ से च्युत हुए विष के तुल्य भयङ्कर एक मातङ-चाण्डाल को उसने बुलाया और उससे अपना मलिन इछ अभिप्राय कहा कि तू इस बालक को ले जाकर जल्दी मार डाल. // 16 // મહાદેવના કંઠમાંથી પડી ગયેલ વિષ જેવા ભયંકર એક માતંગ-ચાંડાળને તેણે બેલા અને તેને પિતાને મેલે વિચાર જણાવી કહ્યું કે તું આ બાળકને લઈ જઈને જદિથી મારી નાખ. ૫૯દા प्रभूतमूलि तदहं च तुभ्यं, दास्ते धनाशा न पुनर्यतः स्यात् / त्वं महिते जीववधे कुकृत्ये निरुद्धश्रया सततं सुखी स्याः // 97 / / अर्थ-मैं तुम्हें इतनी अधिक धनसंपत्ति दूंगा कि जिससे तुझे धनकी इच्छा ही फिर नहीं होगी. तथा निन्दित जो जीववध करने रूप कार्य है उसमें तेरी प्रवृत्ति सदा के लिए रुक जायेगी. इससे तुम बहुत ही सुखी हो जाओगे. // 17 // તેથી હું તને એટલું બધું ધન આપીશ કે જેથી ફરી તને ધન કમાવાની ઈચ્છા જ થશે નહીં તથા જીવ વિધરૂપ નિહિત કાર્યમાં તારી પ્રવૃત્તિ સદાને માટે રોકાઈ જશે અને તેનાથી તું ઘણો સુખી થઈશ. 9 છા इत्थं गिरं तस्य निशम्य सोऽयं स्वकृत्यकृत्यं च विचार्य सम्यक् / जगाद “ओमेति” गृहं च पश्वानिवृत्य तत्रैव मुदा समागात् // 98 // ___ अर्थ-इस प्रकार गुणपाल सेठ की बात सुनकर उसने अपने करने योग्य कार्य का अच्छी तरह विचार किया. और विचार कर उसने अपनी स्वीकृति देदी. पश्चात् वह अपने घर चला गया. बाद में वह लौटकर वहां से हषित होता हुआ आगया. // 98 // આ પ્રમાણેની ગુણપાલશેડની વાત સાંભળીને તેણે પોતાને કરવાના કામને સારી રીતે વિચાર કર્યો. અને વિચાર કરીને તેણે તે કબુલ કર્યું. તે પછી તે પોતાને ઘેર જઈને હર્ષ થી પાછો આવી ગયે. 98 भवेद् धनानिर्भवतान्ममैवं विधं न कृत्यं मयकायमेन / विधेयमस्य प्रतिपादनाद्धा निरागसोऽहं न करोगि हत्याम् // 99 // Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते अर्थ-मुझे धन की प्राप्ति होती हो तो भले हो जावे. परन्तु मुझ अधम के द्वारा इस सेठ के कहने से ऐसा कृत्य तो नहीं होगा. क्यों कि मैं निरपराधी जीव की हत्या नहीं करता हूं // 99 // મને ધન મળતું હોય તે ભલે પણ નીચ એવા મારાથી આ શેઠના કહેવાથી આવું કૃત્ય થશે નહીં કેમકે હું વિના અપરાધી જીવની હત્યા કરી નથી. 199 इत्थं स्वचित्तेऽह्यवधार्य तेन प्रोक्तं भवद्भिः प्रतिपाद्यते यत् / तथैव तत्सर्वमहं करिष्ये भवादृशामस्मि निदेशवर्ती // 10 // अर्थ-इस प्रकार उसने अपने चित्तमें निश्चय करके कहा कि आप जिस तरह करने को कहते हैं वह सब मैं उसी तरह से करूंगा. क्यों कि मैं तो आप जैसों की आज्ञा में चलने वाला हूं // 10 // આ પ્રમાણે તેણે પિતાના મનમાં નિશ્ચય કરીને તેણે કહ્યું કે આપ જે પ્રમાણે કરવાનું કહે છે તે એજ પ્રમાણે કરીશ કેમ કે હું તે તમારા જેવાની આજ્ઞાને पशवती छु'. // 10 // गते त्रिया चरमे च यामे प्राप्ते रजन्यां सफलं विधास्ये / अद्यैव नाथस्य तुगोऽथ हत्यां विधाय संकल्पमहं त्वदीयम् // 101 // अर्थ-हे नाथ ! मैं आज ही रात्रि में तीन पहर समाप्त हो जाने पर और चतुर्थ पहर के आने पर इस बालक की हत्या कर के आपके मनोरथ को सफल कर दूंगा // 101 હે નાથ! આજે રાત્રે ત્રણ પર વિતિ ગયા પછી અને ચોથા પિરના આરંભમાં આ બાલકની હત્યા કરીને તમારા મનોરથ સફળ બનાવીશ. I101 उक्त्वाथ तं बालमसौ त्रियामा यां निद्रितं गाढतपोन्वितायां / उत्थाय कान्तारमुपा जगाम निरापदस्थानमिदं च मत्वा // 102 // अर्थ-इस प्रकार कह कर उस मातङ्ग ने गाढ अन्धकार वाली रात्रि में सोये हुए उस बालक को उठाकर "यह निरापद स्थान है" ऐसा सम. झकर वह जंगल में आगया. // 102 // આ પ્રમાણે કહીને તે માતંગે ગાઢ અંધકારમય રાત્રે સૂતેલા એ બાળકને ઉઠાવીને “આ નિરાપદ સ્થાન છે તેમ માનીને તે જંગલમાં આવી ગયે. ૧૦રા Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः 247 द्रुमावलीभिश्च लताप्रसूनैस्तृणैश्चितं वीक्ष्य स भूमिभागम् / विमुच्य तत्रैव तमाजगाम निकेतनं स्वाकृतिलुब्धचित्तः // 103 // अर्थ-वहां उसने ऐसे भूमिभाग को देखा कि जो वृक्षों की पङ्क्ति से लताओं से पुष्पों से एवं घास से युक्त था. उसे देखकर उसने उस बालक को वहीं पर रख दिया और रखकर फिर वह उस बालक की सुन्दर आकृति में लुब्ध चित्त हुआ अपने घर पर आ गया // 103 / / ત્યાં એણે એવું સથાન જોયું કે જે વૃક્ષોના સમૂહથી વેલેથી પુષ્પોથી અને ઘાસથી યુક્ત હતું, તે જોઈને તેણે એ બાળકને ત્યાં જ મૂકી દીધું. અને તે પછી તે માતંગ એ બાળકના સુંદર આકારમાં પ્રેરાઈને પિતાને ઘેર ગયે. 103 विनिद्रितो यावदसौ निरीक्ष्य सुरम्यमेतं विजनं प्रदेशम् / बभूवचित्ते चकितोऽथ हन्त ! कुत्रास्म्यहं किं करवाणि हाऽत्र // 10 // स्थानं किमेतन्ननुकोऽत्र हृत्वा मां दुःखिनं हन्त ! च नीतवान् हा। मयाऽपराधो न कृतश्च कस्य को मे ऽस्ति निष्कारणमत्र शत्रुः // 105 // अर्थ-इतने में बालक जग गया. जगते ही उसने इस निर्जन किन्तु सुरम्य स्थान को देखा. देखकर वह भयभीत हुआ. कुछ उसकी समझ में नहीं आया. वह सोचने लगा. मैं कहां हूं. मैं यहां क्या करूं ? यह स्थान कौनसा है मुझ दुःखी को यहां कौन हरकर ले आया है. मैंने किसी का अपराध तो किया नहीं है. फिर कौन मेरा निष्कारण वैरी हुआ है. // 104-105 // એટલામાં તે બાળક જાગી ગયું. જાગતાં જ તેણે આ નિર્જન છતાં રમણીય સ્થાન જોઈને તે ડરી ગયું તેને કંઈ પણ સમજવામાં આવ્યું નહીં. તે વિચારવા લાગ્યું કે હું કયાં છું? હું અહીં શું કરું ? આ કયું સ્થાન છે? દુઃખી એવા મને અહીં કોણ હરી લાગ્યું હશે? મેં ઈનો અપરાધ તે કર્યો નથી. તે પછી વિના કારણે કોણ મારું વેરી मन्यु. // 104-10 // शब्दायितस्तावति ताम्रचूडो ध्रुवन्निवेदं जनता समक्षम् / यदानवेन क्रियते कुकर्म तन्मानवेनाथ कथं ह्यकारि // 106 / / Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 248 लोकाशाहचरिते अर्थ-इतने में ही जनता के समक्ष मानों इस बात को कि जो कुकृत्य दानव करता उसे मनुष्यने कैसे कर डाला कहता हुआ मुर्गा बोलने लग गया // 106 // એટલામાં જ જનસમૂહને જાણે એમ કહેતા હોય કે-જે દુષ્કર્મ દાવો કરે તે માણસે કેમ કર્યું તેમ જણાવતા કુકડા બોલવા લાગ્યા. 10 अहारि तन्नन्दनरत्नमत्र धूर्तेन सत्यां मयि संस्थितायाम् / हियन्त एभि न मदीयतारा रत्नान्युपादाय गता क्षिा किम् // 107|| अर्थ-यहां मेरे रहते हुए भी पुत्ररूपी रत्न जब धूर्त ने चुरा लिया तो इन धृतों के द्वारा मेरे तारा रूपी रत्न क्या नहीं चुरा लिये जायेंगे ? ऐसा विचार कर रात्रि उन्हें लेकर चली गई // 107 // અહીં હં હોવા છતાં પણ તે પુત્રરત્નને જયારે ઠગે ગોરી લીધું તો એ ધૂર્તો મારા તારરૂપી રત્નો કેમ ચેરી નહીં જાય તેમ વિચારીને રાત્રી તેને લઈને ચાલી ગઈ.in૧૦૭ી. बालं हृतं वीक्ष्य सरोजबन्धु निरागसंतं क्षुधितं च भूत्वा / क्रोधारुणः क्षुब्ध इवाथ किश्चित्कालान्तरं व्योम्नि रवि ख़ुदस्थात् // 108]! अर्थ-बालक को कि जो निरपराधी एवं भृग्दा था हाण किया गया देखकर कुछ समय के बाद सरोजयन्यु सूर्य क्षुब्ध हुा पुरुष की तरह क्रोध से लाल होकर आकाश में उदित हो आये // 108 / / / વિના અપરાધી અને ભૂખ્યા બાળકનું હરણ કરેલ જાણીને થોડીવાર પછી સરાજસહોદર એ સૂર્ય શુશિત થયેલા પુરૂષની જેમ કે ધથી લાલ થઈને આકાશમાં ઉદિત થયો. /108 जाते प्रभातेऽधिपतिः समागात् स्वगोकुलं गोपजनस्य नीला। गोविन्दनामा खलु भोपवृन्दैर्युतोऽथ लव तदीयपुण्यात् / 109 // अर्थ-प्रातः हो जाने पर ग्वालों का अधिपति गोविन्द नाम का ग्वाला अपनी गायों को लेकर उस बालक के पुण्य से ग्वालों से युक्त हुआ वहीं पर आया. // 109 // સવાર થતાં જ ગોવાળોને મુખી ગોવિંદ નામ ગોપાલ પોતાની ગાયોને લઈને એ બાલકના પુણ્યદયથી ગવાળિયાઓ સાથે ત્યાં આવ્યા. 109 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः 249 तिष्ठद्गु तत्रास्य पिकीव दृष्टिः रसालतुल्येऽथ पपात तस्मिन् / मयूर वत्सोऽथ बलाहकं तं निरीक्ष्य डिम्भं सहसो ननन्दः // 110 // ___ अर्थ-जहां गायें उठती बैठती हैं ऐसे उस स्थान पर उसकी कोयल जैसी दृष्टि रसाल के तुल्य इस बालक पर पडी. अतः बलाहक-मेध को देखकर जैसे मयूरआनंदित होता है उस प्रकार यह भी सहसा उस बालक को देखकर हर्षित हुआ // 110 // જ્યાં ગાયે ઉઠે બેસે એવા એ સ્થાન પર તેની નઝર જેમકેયલની નઝર આંબા પર પડે તેમ એ બાલક પર પડી. મેઘને જોઈને જેમ મેર આનંદ પામે છે. તેમ એ ગોવિંદ પણ એ બાળકને જોઇને એકદમ હર્ષાયમાન થયે. 110 कोऽयं कुतस्त्योऽथ कथं च केन कस्माच हेतो रधुनात्र नीतः। वितर्कयन्नित्थमसौ तमाप्तुं द्रुतं गतस्तन्निकटे सयष्टिः // 111 // अर्थ-यह कौन है ? कहो से आया है ? किस कारण से कौन इसे कैसे यहां लाया है. ? इस प्रकार वितर्क करता हुआ यह उसे लेने के लिये उसके पास अपनी लाठी सहित गया. // 111 // આ કોણ છે? અને કયાંથી આવેલ છે ? કયા કારણથી અને કણ અને અહીં લાવેલ હશે? આ પ્રમાણે સંશય કરે તે તેને લેવા માટે પિતાની લાકડી સાથે તેની पासे यो. // 11 // संहृत्य दुष्टेन च मारणार्थ केनापि हा ! ऽसाविह रम्यरम्यः / संस्थापितोऽस्तीत्यनुमीयते तु प्रातर्भयात्सोऽथ विनिर्गतोऽस्मात् // 112 // अर्थ-मुझे ऐसा अनुमान होता है कि किसी दुष्ट ने मारने के निमित्त इस सुन्दर शरीर बाले बालक को यहां हरण करके रखा है. और प्रातः काल के भय से वह दुष्ट अब यहां से चला गया है. // 112 // મને એમ લાગે છે કે-કઈ દુષ્ટ આને મારવા માટે આ સુંદર કૃતિ બાળકનું હરણ કરીને અહીં રાખેલ છે, અને સવાર થઈ જવાથી ડરીને તે દુષ્ટ અહીંથી ચાલ્યો ગયો છે. ૧૧રા मदीयसौभाग्यवशान्मयाऽयं, विचिन्त्यजग्राह तमर्मकं सः ! नीत्वाऽथ तं शान्त निशान्तमस्माद् ददौ स्वनायें मुदितोऽन्तरङ्गे // 113 // - अर्थ-मुझे यह बडे सौभाग्य से ही प्राप्त हुआ है ऐसा विचार करके उस गोविन्द ने उस बच्चे को उस स्थान से उठा लिया और उस वन से उसे 0 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 250 लोकाशाहचरिते अपने शान्त-बालक के हल्ला गुल्ला से रहित घर पर ले आया. लाकर मन में हर्षित हुए उसने अपनी पत्नी के लिये दे दिया. // 113 // આ બાળક મારા ભાગ્યથી જ મને મળેલ છે, તેમ કહીને એ ગોવિંદે એ બાળકને ત્યાંથી ઉપાડી લીધું અને તે વનમાંથી તેને શાંત અર્થાત બાળકોના તેફાને વિનાના પિતાને, ઘેર લાવ્યું. અને મનમાં હર્ષ પામતાં તેણે પોતાની સ્ત્રીને એ બાળક સે. 113 . पति प्रसादोऽयमिति प्रबुद्धय प्रत्यग्रहीत्सापि पतिव्रता तम्। / प्रपालयामास सरस्वतीव विपश्चितं मां विभवेन हीनम् // 114 // .. . अर्थ-यह पतिदेव ने मुझे प्रसाद दिया है ऐसा समझकर उस पतिव्रता ने उसे ले लिया, और मुझ गरीब पण्डित को जिस प्रकार सरस्वती ने पाला है उसी प्रकार उसने भी उसे पाला. // 114 // મારા પતિદેવે આ મને પ્રસાદરૂપે આપેલ છે. તેમ માનીને પતિવ્રતા એવી તેણીએ તે બાલકને લઇ લીધું અને પંડિતનું જેમ સરવતી પાલન કરે છે તેમ તેણીએ એ બાલકનું सासन-पासन यु. // 114 // अङ्कागतेन प्रसवप्रपीडा विवर्जिताऽपुत्रवती कलङ्कात् / रिक्ता कृता यौवनहानिहीना कथं न सौभाग्यवतीषु धन्या / / 115 // अर्थ-गोदी में आये हुए इस पुत्र के द्वारा प्रसव की पीडा से रहित मैं "अपुत्रवती हूं" इस प्रकार के कलङ्क से विहीन कर दी गई हूं और यौवन की हानि से रहित कर दी गई हूं, अतः मैं सौभाग्यशालिनी स्त्रियों में धन्य कैसे नहीं हूं. अवश्य हूं // 115 // ગોદમાં આવેલ આ પુત્રથી પ્રસવની પીડા વીના જે હું અપુત્ર !' છું આ રીતના કલંક રહિત થયેલ છું અને યૌવનથી રક્ષાયેલી રહી છું. તેથી હું સૌભાગ્યવતી સ્ત્રિમાં ધન્ય કેમ ન બનું? અર્થાત્ ધન્યવાદને ગ્ય જ છું. ૧૧પા द्वाभ्यां च ताभ्यां खलु गोप गोपीभ्यां पालितोऽसौ द्वितीयेन्दुवत्सः / .. गतोऽभिवृद्धिं स्पृहणीयभावं पुपोष नृणां ननु देहकान्त्या // 116 // अर्थ-गोप और गोपी इन दोनों द्वारा पालित होता हुआ यह बालक-द्वितीया के चन्द्रमा की तरह वृद्धिंगत होने लगा और अपनी शारीरिक कान्ति से लोगों की चाहना को पुष्ट करने लगा. // 116 // ..............: Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः 251 કે ગોવાળ અને ગોવાલણ એ બન્નેથી પળાતે તે બાળક બીજના ચંદ્રમાની માફક વધવા લાગે અને પિતાના શરીરની કાંતિથી લેકની ચાહના વધારે રહ્યો. 116 शनै शनैयौवनमापसोऽयं चातुर्यमुद्राङ्कितचास्वेषः। किलौरसादप्यधिकं सुतात्तं मुमोह तातं कुशली च गोपीम् // 117 // . अर्थ-धीरे 2 यह युवावस्थापन्न हो गया और चतुराई की मुद्रा से इस की वेष भूषा अङ्कित रहने लगी. इस चतुर ने उस गोपरूप पिता को और गोपी को अपने व्यवहार से खाश पुत्र जैसे उन्हें विमोहित नहीं करता उससे भी अधिक उन्हें अपने ऊपर विमोहित कर लिया. // 117 // ધીરે ધીરે તે યુવાન બની ગયે અને ચતુરાઇની આકૃતિથી તેના વેષભૂષા ભવા લાગી. ચતુર એવા એ બાળકે તેના માતપિતારૂપ ગોવાળ અને ગોવાલણને પિતાના વર્તનથી સગા સુત્રની જેમ જ નહીં પણ તેનાથી પણ અધિક રીતે મેહિત કરી દીધા. d૧૧છા सर्वेऽपि तत्रत्यजनाः प्रसन्ना आसन्नमुष्यव्यवहारवृत्त्या। पुण्योदये जन्मवतां जगत्यां फलन्ति सर्वाणि समीहितानि // 118 // 'अर्थ-वहां के जितने भी जन थे वे सब इसके व्यवहार से प्रसन्न थे. मनुष्यों के जय पुण्य का उदय होता है तो उसको सब भावनाएँ सफल होती हैं // 1.18 // ત્યાંના જેટલા મનુષ્યો હતા તે બધા તેના વર્તનથી ખુશ હતા મનુષ્યોને જ્યારે પુણ્યને ' ઉથ થાય છે ત્યારે તેની તમામ ભાવનાઓ સફળ થાય છે. 118 / अथैकदा कार्यवशात् समागात् तस्यां च वस्त्यां खलु वल्लवानाम्।। स एव धन्यो गुणपालनामा कृत्यैर्जघन्योऽपि च राजमान्यः॥११९॥ . अर्थ-किसी एक समय वही गुणपाल सेठ जो कि अपने कृत्यों से नगण्य था फिर भी राजमान्य था उस ग्वालों की वस्ती में किसी कार्यवश आया // 119 // કઈ સમયે એજ ગુણપાલશેઠ કે જે પોતાના કૃત્યથી નિંદિત હતું છતાં તે રાજયમાન્ય હતે તે કોઈ કાર્ય પ્રસંગે એ ગોવાળના ગામમાં આવ્યું. 119 दृष्ट्वा च तं यौवनभारननं कान्तं निशान्तं रमणीयतायाः।। 'सौभाग्यलक्ष्म्यङ्कितपुष्टगानं गोपालयस्थं बहु विस्मितोऽभूत् // 120 // Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 252 लोकाशाहचरिते ___ अर्थ-यौवन के भार से नम्र सौन्दर्य के घर रूप एवं सौभाग्यलक्ष्मी से चिह्नित पुष्ट शरीर वाले ऐसे उस लड़के को गोपाल के घर में रहता हुआ देखकर गुणपाल को बहुत आश्चर्य हुआ // 120 // યૌવનના ભારથી નમ્ર, અને સૌંદર્યના ધામરૂપ તથા સૌભાગ્ય લક્ષ્મીના ચિહ્ન યુક્ત તથા હૃષ્ટપુષ્ટ શરીરવાળા એ બાળકને ગોપાળને ઘેર રહેલ જોઈને ગુણપાલને ઘણું જ આશ્ચર્ય થયું. ૧ર तं वीक्ष्य खिन्नोऽथ विकल्पमेनं समाप मे शत्रुश्यं स पापः। भाति प्रतापोस्ति विधेरगम्यो यन्मारितोऽप्येष कथं जिजीव // 121 // __ अर्थ-उस हृष्ट पुष्ट शरीर संपन्न बालक लडके को देखकर वह दुःखी हुआ और उसने मन में ऐसा विचार किया यह पापी वही मेरा शत्रु प्रतीत होता है उसे तो मैंने मरवा दिया था. फिर वह जिन्दा कैसे रहा, भाग्य का-दैव का प्रताप अगम्य है. // 121 // હૃષ્ટપુષ્ટ શરીરવાળા એ યુવાનને જોઈને તેને દુ:ખ થયું. અને તેણે મનમાં વિચાર્યું કે આ પાપી મારે શત્ર જણાય છે. તેને તે મેં મરાવી નાખ્યો હતો. તે પછી એ જીવતે કેવી રીતે રહ્યો ? દેવને પ્રતાપ ખરેખર અગમ્ય છે. d૧રલા , एवं विमृश्याथ पपृच्छ तं सः गोपालकं तेऽस्त्ययमेक एव / उतास्ति कश्चिद्धयपरोऽङ्गजोऽसावुवाच मे सन्ततिरेव नाभूत् // 122 // अर्थ-इस प्रकार विचार कर उसने गोपाल गोविन्द से पूछा यही तेरे एक लडका है या और भी कोई दूसरा लडका है ? तब गोविन्द गोपालने कहामेरे यहां तो कोई सन्तान ही नहीं उत्पन्न हुई. // 122 // આ પ્રમાણે વિચાર કરીને તેણે એ ગોવાળ ગોવિંદને પૂછ્યું કે તારે એક જ છોકરે છે? કે બીજા પણ છે? ત્યારે ગોવિંદ ગોવાળે કહ્યું કે-મારે તો કોઈ સંતાન જ નથી. ૧રરા वनप्रदेशे घटता मयाऽयं लब्धस्तरोर्नाथ ! गतस्तलेऽथ / आदाय तं लालनपालनाभ्यां संवर्धितः पुत्रसमानबुद्धया // 123 // . अर्थ-(एक दिन) मैं वन में गया था. वहां इधर उधर घूमते हुए मुझे यह एक वृक्ष के नीचे पडा हुआ मिला. उसे मै ले आया. और पुत्र की जैसी बुद्धि से इसे मैंने लाडप्यार से बडा किया है. // 123 // Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेष्टमः सर्गः 253 કોઈ એક દિવસે હું વનમાં ગયે હતો ત્યાં આમતેમ ફરતા મને એક ઝાડ નીચે પડેલ આ છોકરો મળે છે. તેને હું લઈ આવ્યા અને પુત્રના જેમ તેને મેં લાડકોડથી ઉછેર્યો છે. 123 विनीतभावेन ममायमस्ति प्रियः स्वपुत्रादपि रागवृद्धया। तदौरसात् स्नेहविहीनभावादिनम्रतारिक्तहृदोधिकोऽथ // 124 // ____ अर्थ-यह विनय शील है अतः इसके ऊपर मेरा अनुराग बढ गया है, इसलिये यह उस औरस पुत्र की अपेक्षा कि जो प्रीतिभाव से रहित एवं नम्रता से रिक्त हृदयवाला हो मुझे अधिक प्रिय हो गया है // 124 // આ વિનયી છે. તેથી તેના પર મારો પ્રેમ વધારે છે તેથી આ કોઈ પ્રેમભાવ વિનાના અને નમ્રતાન્ય સગા પુત્ર કરતાં મને વધારે પ્રેમાસ્પદ છે. ૧ર तदीयभावं ह्यधिगम्य सोऽयं, व्यचिन्तयधूर्त्तजनेन तेन / प्रवंचितोऽहं ननु बंचकोऽपि प्रत्यक्षमेवं तमुवाच तस्य // 125 // अर्थ-गोविन्द के भाव को अच्छी तरह समझकर गुणपाल सेठ ने विचार किया कि उस धूर्त मातङ्ग ने मुझ ठगिया को भी ठग लिया है. इसके बाद उसने उस गोपाल के समक्ष उस लडके से ऐसा कहा / 125 // ગોવિન્દના કથનને સારી રીતે સમજીને ગુણપાલશેઠે વિચાર કર્યો કે–એ ધૂર્ત માતંગે ઠગ એવા મને પણ ઠગી લીધે તે પછી તેણે એ ગોપાળની સામે જ એ છોકરાને આ રીતે કહ્યું. ૧રપા धन्योऽसि यत्त्वं ह्यनुकूलवृत्त्या प्रीणासि मातापितरौ स्वभक्त्या / कृतज्ञतां तेऽथ मनोज्ञरूपा मूर्तिस्त्वदीयेत्थमसौ व्यनक्ति // 126 // अर्थ-तुम धन्य हो जो अपने इन माता पिता की अनुकूल वृत्तिवाली अपनी भक्ति से उन्हें संतुष्ट कर रहे हो ! तुम कितने कृतज्ञ हो यह बात तो तुम्हारी यह मनोज्ञरूपवाली मूर्ति ही स्पष्टरूप प्रकट कर रही है // 126 // તને ધન્ય છે કે તું પોતાને આ માતપિતાની અનુકૂળ વૃત્તિવાળી પિતાની ભક્તિભાવથી તેને પ્રસન્ન કરી રહ્યો છું તું કેટલે કૃતજ્ઞ છે ? એ વાત તે તારી આ સુંદર રૂપવાળી મૂર્તિ જ સ્પષ્ટ રીતે દેખાઈ આવે છે. ૧રદા # गोविन्द ! विन्द त्वं जीवनस्य, अमन्द मानन्दममुष्यसार्धम् / पुण्योदयाप्तेन च बालकेन नैसर्गिकर्जुप्रकृतिस्थितेन // 127 // Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 254 लोकाशाहचरिते - अर्थ-हे गोविन्द ! इस जीवन का जो उत्तम आनन्द है वह तुम पुण्योदय से प्राप्त हुए इस बालक के साथ जो कि सहज सरल स्वभाव वाला है प्राप्त करो. // 127 // હે ગોવિંદ ! આ જીવનને જે ઉત્તમ આનંદ છે, તે તું પુણ્યગથી પ્રાપ્ત થયેલ સહજ સરળ સ્વભાવવાળા આ બાળકની સાથે પ્રાપ્ત કર. ૧૨છા - - - - कृतार्थवित्तोऽस्युपयुक्तकृत्य ! - श्लाघ्योऽसि निष्कंटकजीवनोऽसि / / अग्रेसरः पुण्यवतां च पुत्रवतां त्वमेगऽस्यमुना सुतेन // 128 // अर्थ-हे गोविन्द ! तुम्हारा धन सफल है. तुमने यहकार्य अच्छा किया. तुम प्रशंसा के योग्य हो. तुम्हारा जीवन निष्कंटक बन गया है. तुम ही इस पुत्र के द्वारा पुण्यशालियों में और पुत्र वालों में अग्रेसर बन चुके हो. // 128 // गोवि! तभा पन सण छे.ते // स म यु तु यावासाय छ।. તારું જીવંત નિષ્ફટ બની ગયું છે, તું આ પુત્રથી પુણ્યવાનમાં અને પુત્રવાને માં अग्रेसर गनेस छ।. // 128 // ::: ::..... भद्रः प्रकृत्याऽसि सुभद्र ! भद्रा भद्राकृते ! ते भणिति भणामि / / शृणुष्व गोविन्द सुनन्दन ! त्वं भद्रं दिशेत्सा च मदुक्तिरेषा // 129 // अर्थ-हे सुभद्र ! तुम प्रकृति से श्रेष्ठ हो आकृती भी तुम्हारी सुहावनी है. मैं (तुम्हारे हित की दृष्टि से) एक अच्छी बात कहता हूं. हे गोविन्द के सुनन्दन ! तुम उसे सुनो. मेरे द्वारा कही गई यह बात तुम्हारे कल्याण के लिये होगी. // 129 // હે સુભદ્ર ! - સ્વભાવથી ઉત્તમ છે. તારે આકાર પણ શોભામણો છે. (તારા હિત માટે) એક સારી વાત કહું છું હે ગોવિંદના સુપુત્ર! તું તે સાંભળ. મેં કહેલ આ વાત 'તારા કલ્યાણની છે. 129 तातं कृतार्थ कुरु पुत्र ! भक्त्या कदापि कुत्रापि भवेन तस्मात् / विरुद्धवृत्तिस्त्वं, पितृभक्तः सुतः सुखी स्यात सततं समृद्धः // 130 // अर्थ-हे पुत्र ! तुम अपनी भक्ति से पिताजी को सदा कृतार्थ करते रहो किसी भी अवस्था में कहीं पर भी उनसे विरुद्धवृत्ति वाले नहीं बनना. क्योंकि पितृभक्त सुध सदा सुखी और समृद्धिशाली होता है / / 130 // Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः 255 હે પુત્ર ! તારી ભક્તિથી તારા પિતાને સદા કૃતાર્થ કર કોઈ પણ અવસ્થામાં કયાંય પણ તેનાથી વિરૂદ્ધાચરણવાળું ન બનવું. કેમકે પિતૃભક્ત પુત્ર સદા સુખી અને સમૃદ્ધિવાળા થાય છે. 130 इत्थं स माधुर्यमयैर्वचोभिः पुत्रं च तत्तातमयं विधाय / / स्वरागिणं स्वीयमनोरथाप्त्यै तयोः प्रियोऽभूत्कपटानभिज्ञम् // 131 // अर्थ-इस प्रकार उस सेठने अपने मधुर वचनों द्वारा पुत्र को और उसके पिता को अपने मनोरथ की सिद्धि के निमित्त अपने प्रति अनुरक्त बना लिया. अतः उसके कपट से अनभिज्ञ वे पिता पुत्र दोनों उस पर प्यार करने लगे // 131 // આ પ્રમાણે એ શેઠે પિતાના મીઠા વચનથી પુત્રને અને તેના પિતાને પિતાના મનેની સિદ્ધિ માટે પોતાના પ્રત્યે રાગવાનું બનાવી દીધા. તેથી તેને કપટથી અજાણ તે પિતા પુત્ર તેના પર પ્રેમ કરવા લાગ્યા. /131" अथेकदोवाच सुभद्रमेवं विशालशाला नगरी प्रयातुम् / अस्त्यत्र कश्चिन्ननु शस्त्रजीवी पत्रं समादाय च मामकीनम् // 132 // . अर्थ-एक दिन गुणपाल सेठने सुभद्र से ऐसा कहा कि क्या कोई यहां ऐसा भी मजूर है कि जो हमारे पत्र को लेकर विशाल कोटवाली नगरीउज्जयिनी में जावे. // 132 // ...मे दिवस गुरपासशेठे सुभद्रने या प्रमाणु यु 3-24613005 मेभाशुस छ ! કે જે મારો પત્ર લઈને વિશાળ કોટવાળી ઉજજૈની નગરીમાં જાય. ૩રા दास्ये च तस्मै भरणं स श्रुत्वा पितुः सकाशं गतवान् सुभद्रः / / वृत्तं च पूर्वोक्तमुवाच तस्मै त्वमेव याहीत्यवदन्च सोऽपि // 133 // अर्थ-मैं उसके लिये मजदूरी दूंगा. इस प्रकार गुणपाल की बात सुन कर सुभद्र अपने पिता के पास गया और गुणपाल के ये सब पूर्वोक्त समाचार उनके लिये सुना दिये सुनकर गोविन्दने उससे कहा तुम ही जाओ. // 133 // .. . . ... હું તે કામ બદલ મજુરી આપીશ આ પ્રમાણે ગુણપાલની વાત સાંભળીને સુભદ્ર પોતાના પિતા પાસે જઈ ગુણપાલે કહેલ સમાચાર કહી સંભળાવ્યા તે સાંભળી ગોવિંદે તેને કહ્યું કે તું જા. ૧૩યા Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहबरिते पितुर्निदेशं ह्यधिगम्य सोऽयं, पत्रं समादाय मुदप्रकर्षात् / यत्नान्नथाऽनाय पुरस्य पार्श्वे, समासदवृक्षतले समस्थात् // 134 // अर्थ-पिताका आदेश प्राप्तकर और सेठ के पत्रको लेकर बडे हर्ष से चलता हुआ यह बहुत ही जल्दी नगर के पास आ गया और एक वृक्ष के नीचे बैठ गया. // 234 // | પિતાની અનુમતિ મેળવીને શેઠને પત્ર લઈ હર્ષ પૂર્વક ચાલીને તે ઘણો જ જહિદ ઉજજોની પાસે આવી પહોંચ્યા, તથા વિશ્રામ માટે એક ઝાડની નીચે તે બેઠા. 134 अवश्रमश्रान्तिवशेन सोऽयं, सुष्वाप तत्रैव वसन्तसेना। वाराङ्गना तत्समये च काचिन्मनोविनोदाय समागताऽथ // 135 // .. अर्थ-मार्ग में चलते 2 यह थक गया था. सो उस थकावट के कारण इसे निद्रा आगई. इतने में वसन्तसेना नामको एक वेश्या चित्त बहलाने के लिये वहां पर आई // 135 // રસ્તામાં ચાલવાથી તે થાકી ગયો હતો અને તેને લીધે તેને ઉંઘ આવી ગઈ એટલામાં વસન્તસેના નામની એક વેશ્યા મનોવિદ માટે ત્યાં આવી f135 कोऽयं युवा मन्मथतुल्यरूपो भ्रान्तेः पथो वान्तर्हितविसगः। स्थानातिकमागाच विनिद्रयाऽसौ वशीकृतो वात्र कथं प्रसुप्तः // 136 // अर्थ-कामदेव के जैसी आकृतिवाला यह युवा है कौन ? (मालूम पडता है) यह रास्ता भूल गया है. इसलिये गन्तव्य स्थान पर जाने के लिये यह उदासीन हो गया है. यह आया क्यों ? और क्यों निद्रा के वशीभूत होकर यहां सोया हुआ है ? // 136 // કામદેવ જેવા સ્વરૂપવાન આ યુવાન કેણ હશે? (મને લાગે છે કે આ રસ્તો ભૂલી ગે છે. તેથી જવાના સ્થાન પર જવા તે ઉદાસી છે. અહીં કેમ આવ્યો હશે? અને નિદ્રા ધીન થઈને અહીં કેમ સૂતો હશે ? 136 इत्यादिभिः कल्पनिभैर्विकल्पै, सालिङ्गिता वीक्ष्य च तं प्रसुप्तम् / पश्चाद्गले साऽथ लुलोक तस्य लंबायमानं दलमेव शुभ्रम् // 137 // . अर्थ-इस प्रकार उसे सोया हुआ देखकर वह वसंतसेना कल्पकालकेजैसे अपरिमित विकल्पों में पड गई. बाद में उसने उसके गले में लटकता हुआ एक सफेद पत्र देखा. // 137 // Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः 257 આ પ્રમાણે તેને સૂતેલે જોઈને તે વસંતસેના કલ્પકાળ જેવા અસંખ્ય સંકલ્પ વિકલ્પમાં પડિ ગઇ, તે પછી તેણીએ તેના ગળામાં લટકતો એક સફેદ પત્ર જોયે. ૧૩છા कश्चिद्भवेदस्य जनस्य तावत्पत्रादमुष्मात् गलदेशबद्धात् / स्थानादिबोधो मम सेत्यवेत्य तस्मात्तदादाय पपाठ मोदात् // 138 // अर्थ-गले में बंधे हुए इस पत्र से शायद इसके रहने के स्थान आदि का मुझे थोडा बहुत पता लग जाय इस प्रकार उसने सोचकर उसके गले से उस पत्र को खोल लिया और फिर आनन्द से उसे पढा // 138 // ગળામાં બાંધેલા આ પત્રથી કદાચ તેના રહેઠાણ વિગેરે સંબંધી કદાચ મને ડીઘણી માહિતી મળી જાય આ રીતે વિચારીને તેના ગળામાના એ પત્રને ખેલીને આનંદથી તે વચ્ચે. 138 पत्रं पठित्वा परमाससाद परं च तत्सा गणिकाऽथचोद्यम् / यतश्च तवृत्त मरुन्तुदासीत्तया तदेतत्पठितं किलेत्थम् // 139 // अर्थ-परन्तु उस पत्र को पढकर उस वसंतसेना गणिकाको बडा आश्चर्य हुआ. क्योंकि वह लिखित समाचार मर्मस्थान को भेदनेवाला था उसने उसे इस प्रकार से पढा // 139 // પરંતુ એ પત્રને વાંચીને એ વસંતસેના ગણિકાને ઘણું આશ્ચર્ય થયું કેમકેએ લખેલ સમાચાર મર્મવિદારક હતા. તેણીએ તે આ પ્રમાણે વાંચ્યા. 139 विषं सन्दातव्यं भवति परमागन्तुक नरे, त्वयाऽमुष्मै सद्यो नहि किमपि चान्यत् प्रविचरेः / प्रिय ! वं चे द्भार्या सुबल ! यदि पुत्र स्त्वमथ मे, मदादेशोद्धारे न पुनरधुना जातु विरमेः // 140 // अर्थ-हे प्रिये ! अगर तूं मेरी अर्धाङ्गिनी है और हे महाबल ! तूं अगर मेरा सच्चा बेटा है तो यह जो पत्र लेकर मनुष्य आया है उसे तुरन्त तुम विष दे देना. इसमें कुछ भी विचार नहीं करना मेरे इस आदेश को सफलित करने में बिलकुल ढील नहीं होनी चाहिये // 140 // - હે પ્રિયે! જો તૂ મારી પત્ની હો અને હે મહાબલ! તું જ મારો પુત્ર છે તો આ મનુષ્ય પત્ર લઈને આવે છે, તેને તમે વિષ આપી દેજો તેમાં જરા પણ વિચાર કરશે નહીં મારી આ આજ્ઞાને સફળ કરવામાં જરા પણ ઢીલ કરવી નહીં. 14 Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 258 लोकाशाहचरिते चित्र विचित्रं खलु पत्रमेतत्तेनैव दब्धं गुणपालनाम्ना / धन्येन नाहं वितनोमि चास्थां यतोऽसि भव्योत्तम एष साधुः // 14 // ___ अर्थ-अत्यन्त आश्चर्यकारक यह पत्र उसी गुणपाल नाम के सेठ का लिखा हवा है यह मैं नहीं मानती हूं क्योंकि यह सेठ तो बहुत ही भला व्यक्ति है. // 141 // અત્યંત આશ્ચર્ય ભરેલો આ પત્ર એજ ગુણપાલ નામના શેઠે લખેલ છે, તે મારા માનવામાં આવતું નથી. કારણ કે એ શેઠ તે ઘણું જ ભલે આદમી છે. 141 अहो ! महाभाग्य युतः किमेषः, विषप्रदानेन च मारणार्हः / शिरः प्रधार्योऽथ मणिर्न कुत्र कदापि पादस्खलनस्य योग्यः // 142 // अर्थ-ओह ! महा भाग्यशाली यह क्या विष देकर मारने के योग्य है भला ! जो मणि शिर पर धारण करने के योग्य हो वह क्या कहीं किसी भी काल में पैरों द्वारा आघात करने के योग्य होता है ? // 142 // અરે! મહાભાગ્યશાળી એવા આને શું વિષ આપીને મારે એગ્ય છે? જે મણિ મસ્તક પર ધારણ કરવા લાયક હોય તેને શું કોઈ કાળે પગથી તરછોડે તે એગ્ય છે ? ૧૪રા ज्ञातं मया तस्य समस्ति काचित् विषाभिधाना तनया वयः स्था। जाताऽधुना सैषयुवा तदर्थ संप्रेषितस्तेन च प्रोषितेन // 143 // अर्थ-हां अब मुझे खबर आई कि उस गुणपाल सेठ की कोई एक विषा नाम की पुत्री है. वह अब तरुण हो चुकी है. उसके योग्य वर की तलाश के लिये वह परदेश गया हुआ है. उसने ही उस कन्या के निमित्त इस युवक को भेजा है. // 143 // હા હવે મને યાદ આવ્યું કે એ ગુણપાલશેઠને એક વિષા નામની પુત્રિ છે. તે હવે યુવાઅવરથાવાળી થઈ છે. તેને યોગ્ય વરની શેધ માટે તે અન્યત્ર ગયેલ છે, તેણે જ એ કન્યા માટે આ યુવાનને મોકલ્યો હશે. 143 संलग्नचित्तस्य च राज्यकार्ये तस्य प्रमादादभवच्चलेखे। . विषाप्रयोगेऽथ विषप्रयोगो मन्येऽहमस्वस्थ हृदीस्थमेव // 14 // अर्थ-मैं ऐसा समझती हूं कि राज्यकार्य में गुणपालका चित्त व्यस्त हो रहा होगा. इसलिये उसने असावधानी से इस लेख में लिखते समय विषा की Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः 255 जगह विष लिखा दिया है. मनुष्यका जब चित्त अस्वस्थ होता है तब ऐसा बनाव बन ही जाता है / / 144 // મને એવું જણાય છે કે–રાજકાજને લઈ ગુણપાલનું ચિત્ત ભ્રમિત થયું હશે તેથી તેણે અસાવધપણાથી આ લખાણમાં લખતી વખતે વિષાને ઠેકાણે વિષ એમ લખી દીધું છે. માણસનું ચિત્ત જયારે અરવરથ હોય ત્યારે તેમ બની જાય છે. 144 विभावरी चन्द्रमसा च चन्द्रस्तया यथा राजति राजतां तौ। मिथस्तथानेन वि4तयाऽसौ, गुणानुरूपो ह्ययमस्ति योगः // 145 // अर्थ-जैसे चन्द्रमा से रात्रि और रात्रि से चन्द्रमा सुहावना लगता है उसी प्रकार वे दोनों भी परस्पर में सुहावने लगें. इससे विषा और विषा से यह. इन दोनोंका यह योग गुणों के अनुरूप ही है / / 145 // જેમ ચંદ્રથી રાત અને રાતથી ચંદ્ર સોહામણા લાગે છે, એજ પ્રમાણે આ બન્ને પણ એકબીજાથી સેહામણા લાગે આનાથી વિષા અને વિષાથી આ બંનેનો વેગ ગુણાનું રૂપ જ છે. ૧૪પા बुद्ध्वेति विज्ञा निजलोचनस्य, शलाकया कज्जल युक्तयाऽऽशु / .. "विष" स्थले साऽथ “विषा” विधाय गलेऽस्य बद्धा च जगाम पत्रम्॥१४६।। ... अर्थ-पूर्वोक्त रूप से विचार करके इसने कजलयुक्त अपनी आंखोंकी सलाई से बहुत ही जल्दी " विषं " की जगह " विषा" बना दिया फिर * पत्रको उसके गले में बांधकर वह चली गई // 146 // પૂર્વોક્ત પ્રમાણે વિચાર કરીને તેણે કાજળવાળા પોતાના નેત્રમાંથી સળી વડે ‘વિષને ઠેકાણે “વિષા લખી નાખ્યું. તે પછી પત્રને તેના ગળામાં બાંધીને તે ત્યાંથી જતી રહી. ./146 उत्थाय निद्रापगमे सुभद्र पुरीमवन्ती प्रति संचचाल / गत्वा च तस्यां भवनं विलोक्य तच्छेष्ठिनोऽसौ किमिदं पपृच्छ // 147 // ____ अर्थ-निद्रा की समाप्ति होने पर सुभद्र उठकर उज्जयिनी नगरीकी और चल दिया। वहां पहुंच कर उसने भवन को देखकर क्या यही गुणपाल सेठका भवन है ऐसा पूछा. // 147 // ઉંઘ પૂરી થયા પછી સુભદ્ર ત્યાંથી ઉઠીને ઉજજૈની નગરી તરફ ચાલતો થયો. ત્યાં જઈને તેના રહેઠાણને જોઈને શું આજ ગુણપાલશેઠનું ઘર છે? તેમ પૂછ્યું. 147 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरि ते ओमित्यथोक्त्वा गुणपालपुत्रो ज्येष्ठः समुद्रीक्ष्य मनोजरूपम् / आगन्तुकं तं सुकुमारमेकं स्थीयतामासन इत्यवोचत् // 148 // ___ अर्थ-हाँ, यही गुणपाल सेठ का भवन है ऐसा गुणपाल सेठ के पुत्रने उससे कहा. और कहकर कामदेव के जैसे रूपवाले उस सुकुमार आगन्तुक को ऊपर से नीचे तक देखकर ऐसा कहा आप इस पर विराजिये. // 148 // હા આજ ગુણપાલશેઠનું ઘર છે તેમ ગુણપાલશેઠના પુત્રે તેને કહ્યું અને કામદેવ જેવા સ્વરૂપવાનું એ સુકુમાર આગતુકને જોઇને કહ્યું કે આપ આ આસન પર બેસો, 148 सर्वच शिष्टाचरणं विधाय स्थितौच तस्मिन् गुणपालपुत्रः / तस्मात्समादाय दलं पठित्वा च रत्नवृष्टिः पतिता नभस्तः // 149 // .. अर्थ-जब सुभद्र आसन पर बैठ गया तो गुणपाल सेठ के पुत्रने उसके साथ शिष्ट पुरुषों जैसा व्यवहार किया. एवं लाये हुए पत्र को उससे लेकर वांचा और वांच कर. "आकाश से रत्न वृष्टि हुई है " ऐसा कहा. // 149 // જ્યારે સુભદ્ર આસન પર બેઠે ત્યારે ગુણપાલ શેઠના પુત્રે તેની સાથે સભ્ય પુરૂષ જે ઉચિત વ્યવહાર કર્યો, અને તેણે આપેલ પત્ર લઈને વાંચ્યો અને વાંચીને આકાશમાંથી રત્નોને વરસાદ થયો છે તેમ કહ્યું. 149 , कृत्यस्य बाहुल्यवशाच्च तातेऽनुपस्थिते तेन समं जनन्या। विचार्य सर्व विहितं विवाह योग्यं सुकार्य महतोत्सवेन // 150 // अर्थ-कार्य की अत्यधिकता के कारण सेठ गुणपाल नहीं आसके तब ज्येष्ठ-पुत्रने अपनी माता के साथ विवाह के योग्य समस्त करने लायक कार्य का विचार किया और उस सब को बडे उत्सव के साथ सम्पादित किया // 150 // કાર્યની મહત્વતાને લીધે ગુણપાલશેઠ આવી શક્યા નથી. તેથી મોટા પુત્રે માતાની સાથે વિવાહ યોગ્ય કરવા લાયક સઘળા કાર્યને વિચાર કર્યો, અને તે બધું ઘણું જ ઉત્સાહપૂર્વક ગોઠવણ કરી લીધું. I15 शुभ मुहूर्तेच तिथौ शुभायां जातोऽनयो मंगलकामनाभिः / प्रशंसितो मंगलकामिनीभिर्विवाहयोगो विधिना प्रणीतः // 151 // अर्थ-शुभ मुहूर्त में और शुभ तिथि में मांगलिक कामनाओं से प्रशंसित एवं सौभाग्यवती स्त्रियो द्वारा अच्छी तरह से गाया गया इन दोनों का विवाहरूप सम्बन्ध विधिपूर्वक हो गया. // 151 // Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः શુભ મુહૂર્તમાં અને શુભ તિથિએ માંગલિક કામનાઓથી ભરપુર તથા સૌભાગ્યવતી શ્રી વડે સારી રીતે ગવાયેલા આ બેઉને વિવાહસંબંધ વિધિપૂર્વક થઈ ગયો. 151 वधूर्विषाऽऽसीच्चवरः सुभद्रः, जातोऽनयो मंगलयोग एषः / पुण्येन साध्यानि भवन्ति जन्तो रसाध्यकर्माण्यपि नात्र चित्रम् // 152 // ___ अथे-विषा वधू थी सुभद्र वर था. उनका यह मंगल प्रद संबंध हुआ है. असाध्य कार्य भी प्राणी के पुण्य से साध्य हो जाते हैं. इसमें कोई अचरज की बात नहीं है. // 152 // વિષા વધૂ હતી અને સુભદ્ર વર હતો અને આ મંગળમય સંબંધ છે. અસાધ્ય કામો પણ પુણેથી સાધ્ય બની જાય છે. તેમાં કંઈજ આશ્ચર્યની पात नथी. // 152 // दीप्या प्रदीपस्य यथाम्बुधेर्वा नद्या च सूर्यस्य यथाऽस्ति भासा / शोभा यथेन्दोः प्रभया तथाऽऽसीत्तयापि तस्यापि वरस्य तत्र // 153 // अर्थ-जैसी दिसि से प्रदीप की, नदी से समुद्रकी, कान्ति से सूर्यकी एवं चन्द्रमा को प्रभा-ज्योत्स्ना से शोभा है वैसी उस वर सुभद्र की भी उस विषा से शोभा वहां पर थी. // 153 // જેમ દીપ્તિથી દિવાની, નદીથી સમુદ્રની, કાન્તિથી સૂર્યની અને ચંદ્રમાના પ્રકાશની શોભા છે, એ જ પ્રમાણે એ વર સુભદ્રની શોભા પણ એ વિષાથી શોભિત થઈ. 153 ज्येष्ठे सुते तज्जनकेच याते दिवं दयापालनजन्यपुण्यात् / बभूव तस्यैव गृहस्य भोक्ता सर्वाधिकारी स च राजमान्यः // 154 // अर्थ-ज्येष्ठ पुत्र और उसके पिता गुणपाल जब दिवंगत हो गये तब वही सुभद्र उसी घर का सर्वाधिकारी भोक्ता दयापालन जन्य पुण्य के प्रभाव से बन गया और राजमान्य भी हो गया. // 154 // ગુણપાલશેઠ અને તેને મેટે પુત્ર જયારે સ્વર્ગસ્થ થયા ત્યારે એજ સુભદ્ર એજ ઘરને સર્વાધિકારી કર્તાહર્તા ને ભક્તા બન્ય, દયાપાલનરૂપ પુણ્યના પ્રભાવથી આ સઘળું બની ગયું તથા તે રાજમાન્ય પણ બન્યા. 154 विस्तृतमिदमाख्यानं संक्षेपाकथितं मया / श्रुत्वा शिक्षा गृहीतव्या दयायाः पालनस्य वै // 155 // Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262 लोकाशाहचरिते अर्थ-यह कथानक बहुत विस्तृत है, मैंने तो उसे यहां संक्षेप से ही कहा है. अतः इसे सुनकर दया पालने की शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये // 155 // આ કથા ઘણી જ મોટી છે. મેં આને અહીં ટુંકાણથી જ કહેલ છે. તેથી આ સાંભળીને દયા પાળવાનું શીખવું જોઈએ. ૧૫પા इत्थं श्रीपति पूज्यपादगुरुभिः ख्यातं दयाख्यानकम् , _श्रुत्वाऽऽयात् स्वगृहं प्रसन्नमनसा हैमः स्वपत्नी प्रति / एतत्सर्वमसावदच सुकृती धन्यानिशम्याऽभवत् , प्रोचेऽहं न गतेति दुःखितमनाः पत्या समाश्वासिता // 156 // अर्थ-इस प्रकार से श्रीपतिपूज्यपाद गुरुदेव के द्वारा कहे गये दया के सम्बन्ध में दृष्टान्त को सुनकर हैमचन्द्र सेठ अपने घर पर आये. वे उस समय बहुत अधिक प्रसन्न चित्त थे. आते ही उन्होंने यह सब कथानक अपनी धर्मपत्नी गंगादेवी को सुनाया. सुनकर वह अपने आप को धन्य मानने लगी. और कहने लगी कि (आज मैं व्याख्यान-सुनने के लिये) नहीं गई इसका मेरे मनमें बडा दुःख है (सो ऐसा सुनकर) पतिदेवने उसे धैर्य बंधाया // 156 // આ પ્રમાણે શ્રીપતિ પૂજ્યપાદ ગુરૂદેવે કહેલ દયા સંબંધી દષ્ટાન્ત સાંભળીને હેમચંદ્રશેઠ પિતાને ઘેર આવ્યા. તે વખતે તેઓ ઘણુ જ વધારે પ્રસન્ન હતા. ત્યાં આવીને તેમણે એ તમામ કથા પિતાની ધર્મપત્ની ગંગાદેવીને સંભળાવી. સાંભળીને તેઓ પિતાને ધન્ય માનવા લાગી. અને તેણીએ કહ્યું કે આજે હું વ્યાખ્યાન સાંભળવા ન ગઇ. તેનું મારા મનમાં ઘણું જ દુઃખ છે. તે સાંભળીને તેના પતિ હેમચંદ્રશેઠે તેને આશ્વાસન આપ્યું. 1 પદ્દા वृत्तं विस्मयकारि सत्पथिक ! ते मुनेरिदं प्रोन्यते, ___पुण्याभिर्वितनोषि योऽमृतप्रदाभिर्गोभिरात्यन्तिकम् / / निर्दोषोऽप्यकलंकितोऽस्मरसखो हर्षप्रकर्षाश्चितम् , जीवंजीवमतो विदांवरगुरो ! चन्द्रोऽस्य पूर्वोभुवि / 157 / / अर्थ-विद्वानों में श्रेष्ठ हे गुरुदेव ! आप इस संसार में एक अपूर्व चन्द्रम्म हैं. चन्द्रमाको अपेक्षा आप में यही अपूर्वता है कि आप निर्दोष हैं, अकलंकित हैं, कामदेव के मित्र नहीं हैं और अमृत-मुक्तिप्रदान करनेवाली अपनी वाणी से प्रत्येक जीव को अत्यन्त आनन्द प्रदान करने वाले हैं. तब कि प्रसिद्ध Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः सर्गः चन्द्रमा ऐसा नहीं है. क्योंकि वह दोषा-रानि-से युक्त होता है. कलंक सहित है. कामदेव का सखा है. और अमृतप्रदान करनेवाली अपनी पवित्र किरणों द्वारा वह जीवंजीव-चक्रवाक और चक्रवाकी को अत्यन्त वियोगजन्य दुःखका देनेवाला है. अतः हे सत्पथ के पथिक गुरुदेव ! आप आचार्य का यह वृत्तचरित्र-बडा ही अनोखा है. ऐसा मैं कहता हूं // 157 // વિદ્વાનમાં ઉત્તમ એવા હે ગુરુદેવ! આપ આ સંસારમાં એક અપૂર્વ ચંદ્રમા જેવા છે, એટલું જ નહીં પણ ચંદ્રમાં કરતાં આપનામાં એ વિશેષતા છે કે આપ નિર્દોષ છો, કલંક રહિત છે. કામદેવના મિત્ર નથી, અને અમૃત–મુક્તિ આપવાવાળી આપની વાણીથી દરેક જીવને અત્યંત આનંદ આપનાર છે, ત્યારે પ્રસિદ્ધ ચંદ્રમાં એવા નથી, કેમકે તેઓ દોષા–રાત્રિથી યુક્ત હોય છે. કલંકવાળે છે. કામદેવને મિત્ર છે. અને અમૃત આપવાવાળા પિતાના કિરણોથી તે જીવંજીવ ચક્રવાક અને ચક્રવાકીને અત્યંત વિવેગરૂપી દુઃખ આપનાર છે, તેથી તે સત્પથના પવિક ગુરૂદેવ! આપ આચાર્યનું આ વૃત્ત-ચરિત્ર ઘણું જ જુદા પ્રકારનું છે, તેમ હું કહું છું. આપણા जीयात् काव्यमिदं जीयात् गुरो ! ते शासनं चिरम् / कान्ताचरणमग्नोवो मानवेभ्यो हितं पदम् // 158 // , अर्थ-कान्त-सुन्दर निदर्षो-आचरण-चारित्र में मग्न मनुष्यों के लियेसाधु महात्माओं के लिये हितकारक तथा कान्ता के चरणों में मग्न-ऐसे गृहस्थों के लिये मंगलदायक यह काव्य और हे गुरुदेव ! आपका शासन चिरकाल तक जयवंत रहे. // 158 // - કાંત-સુંદર-નિર્દોષ–આચરણ-ચરિત્રમાં મગ્ન એવા મનુષ્ય માટે તથા સાધુમહાત્માઓ માટે હિતકારક તથા દ્મિના ચરણોમાં મગ્ન એવા ગૃહર મનુષ્ય માટે મંગળપ્રદ આ કાવ્ય અને હે ગુરુદેવ આપનું શાસન દીર્ધકાળ પર્યન્ત જયવંત બની રહો. I158 श्रीमन्तोऽप्यकलंकितागुरुगुणैरावेष्टिता नम्रता, दाक्षिण्यादि विशिष्टशिष्टचरित्रप्रख्यापकैः शोभिनः / सवृत्तै गुरुदेवभक्तिकरणान्नित्योत्सवाः प्रौढतो, पेतास्ते “महताबचन्द्र” इति नामश्लोकिताः स्युश्रिये // 159 // अर्थ-जो श्रीमान होते हुए भी कलङ्क से रहित है, नम्रता चतुराइ आदि शिष्ट पुरुषों के भारी 2 गुणों से कि जिनसे व्यक्तिका चरित्र आंका जाता है जो युक्त हैं. सदाचारसे जो शोभित हैं प्रौढता जिनकी रगरग में भरी हुई है Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264 लोकाशाहचरिते एवं गुरुदेव की भक्ति करने की महिमा से जिनके घर में उत्सव सदा अठखेलियां किया करता है ऐसे वे "महताब चन्द्र " इस नाम से प्रसिद्ध व्यक्ति मेरी श्री वृद्धि में निमित्त बनते रहें // 159 // જેઓ શ્રીમાન હોવા છતાં કલંક વિનાના છે નમ્રપણું ચતુરાઇ વિગેરે શિષ્ટ પુરૂના મહાન ગુણોથી કે જેનાથી વ્યક્તિનું ચારિત્ર આંકવામાં આવે છે, તેનાથી જેઓ યુક્ત છે સદાચારથી જેઓ ભવાળા છે જેની રગેરગમાં પ્રઢતા ભરેલ છે, અને ગુરૂદેવની ભક્તિ કરવાના મહીમાથી જેના ઘરમાં સદા સર્વદા ઉત્સવો થયા કરે છે. એવા એ “મહેતાબચંદ્ર' એ નામથી સુપ્રસિદ્ધ વ્યક્તિ મારી શ્રી-વૃદ્ધિમાં નિમિત્ત બનતા રહે. 159 एतचरित्रं विहितं तदर्थे, तस्यैव सत्पुण्यवशात् पवित्रम् / एषोऽष्टमोत्रोक्त इतः समाप्ति, सर्गो विदध्याद्विदुषां प्रमोदम् // 160 // अर्थ-यह पवित्र लोकाशाह चरित्र उन्हीं के लिये उन्हीं के पुण्य के वश से रचा गया है. इसमें यह कहा गया अष्टम सर्ग समाप्त हो गया है. यह विद्वानों को आनन्ददायी हो. // 160 // આ પવિત્ર એવું લેકશાહ ચરિત્ર તેમના પુણ્યવશાત તેમને માટે રચવામાં આવેલ છે. તેમાં આ આઠમે સર્ણ સમાપ્ત થયો તે વિદ્વાનને આનંદ પ્રમેદ આપનાર નિવડ. 16 जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर श्रीघासीलाल वति विरचिते हिन्दीगुर्जरभाषानुवादसहिते लोकाशाहचरिते अष्टमः सर्गः समाप्तः // 8 // Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 265 __अथ नवमः सर्गः प्रारभ्यते / अथ व्यतीताः क्रमशोऽष्टमासाः सुखादा हैमवधुप्रियायाः। पुण्योदयात्तत्र न कापि चिन्ता चित्तं च तस्या व्यथितं चकार // 1 // अर्थ-सातावेदनीय कर्म के उदय से हैमचन्द्र की धर्मपत्नी गंगादेवी के आठ मास आनन्द पूर्वक समाप्त हो गये, इन दिनों किसी भी प्रकार की चिन्ता ने उसके चित्त को व्यथित नहीं किया // 1 // સાતા વેદનીય કર્મના ઉદયથી હેમચંદ્રશેઠની ધર્મપત્ની ગંગાદેવીને આઠ મહિના આનંદપૂર્વક વીતિ ગયા એ દિવસોમાં કોઈ પણ પ્રકારની ચિન્તાએ એના ચિત્તમાં પીડા ६५वी नही // 1 // यथाऽण्डजा यान्ति सरांसि भुंगा पुष्पस्थली पद्मवनं च हंसाः। कुरङ्गसङ्घाश्च वनस्थली वा तथैव सौख्यानि च पुण्यभाजः // 2 // ___ अर्थ-जिस प्रकार पक्षिगण तालाब पर, भ्रमर पुष्पस्थली बगीचा आदि स्थानों पर, हंस कमलवन में और मृगगण वनमे स्वभावतः पहुंच जाते हैं उसी प्रकार सांसारिक सुख भी पुण्यात्माओं के समीप स्वतः पहुंच जाते हैं // 2 // જે પ્રમાણે પક્ષિસમૂહ તલાવ પર, ભમરાઓ પુષિત વૃક્ષો પર, ભમરાઓ બગીચા વગેરે સ્થાનમાં, હંસે કમળવનોમાં, અને મૃગસમૂહો વનમાં રવાભાવિક રીતે જ પહોંચી ય છે, એજ પ્રમાણે સાંસારિક સુખો પણ પુણ્યાત્માઓની પાસે સ્વયમેવ પહોંચી બય છે, રા यदी हसे सौख्यसमृद्धिद्धि, सौभाग्यसबुद्धियशांसि रूपम् / तन्मन्दिरं सुन्दर मिन्दिरां सन्मित्राणि चेत्पुण्यमुपार्जयत्वम् // 3 // अर्थ-हे भाई ! यदि तुम सौख्य और समृद्धि की कामना करते हो, सौभाग्य, सदबुद्धि, यश और रूपकी चाहना रखते हो और यह चाहते हो कि हमें सुन्दर भवन-मन्दिर-गृह-मिले, लक्ष्मीदेवी हम पर प्रसन्न बनी रहे तथा अनेक अच्छे 2 मित्रों का हमें लाभ होता रहे तो तूं पुण्य का पार्जन कर. // 3 // હે ભાઈ ! જો તમે સુખ અને સમૃદ્ધિની ઇચ્છા કરતા હે, સૌભાગ્ય, સદ્દબુદ્ધિ, યશ મને રૂપની ઈચ્છા રાખતા હો અને એમ ઈચ્છતા હે કે મને સુંદર ભવન-મન્દિર-કે ઘર Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 266 लोकाशाहचरिते મળે લક્ષ્મીદેવી મારા પર પ્રસન્ન બની રહે અને અનેક સારા સારા મિત્રોને મને લાભ મળી રહે તે હું પુણ્ય ઉપર્જનનું કાર્ય કર. મારા मास्यष्टमे यानि च लौकिकानि कृत्यानि कृत्यान्यवमंश्च तानि / सर्वाणि तूत्साहसमन्वितेन कृतानि हैमेन महोत्सवेन // 4 // __ अर्थ-आठवें महिने में गर्भवती के सम्बन्ध में और भी जो करने योग्य लौकिक कृत्य किये जाते हैं. वे सब हैमचन्द्र ने बडे उत्साह के साथ उत्सव पूर्वक किये // 4 // આઠમા માસમાં ગર્ભવતી સ્ત્રીને બીજા પણ કરવા યોગ્ય લૌકિક વ્યાવહારિક કામે કરવામાં આવે છે, તે બધા હેમચંદ્ર ઘણા ઉત્સાહપૂર્વક કર્યા. 4 अहर्निशं धार्मिककृत्यमेषा ग्रहादिकार्यादिनिवृत्तचित्ता / प्राप्ते च मासे नवमे विशेषाच्छक्त्यानुरूपं सुभगा चकार // 5 // अर्थ-जब से गंगादेवी का नौवां महिना प्रारम्भ हुआ तब से इसने घर के कामकाज से अपने चित्त को बिलकुल हटालिया और दिनरात वह अपनी शक्ति के अनुसार विशेषरूप से धार्मिक कार्यों के सेवन करने में दत्तचित्त हो गई. // 5 // યાથી ગંગાદેવીને નવમા માસનો આરંભ થયો ત્યારથી તેણીએ ઘરના કામકાજથી પિતાનું ચિત્ત બિલકુલ હટાવી લીધું અને રાતદિવસ તે પોતાની શક્તિ પ્રમાણે વિશેષ રીતે ધાર્મિક કાર્યોની પ્રવૃત્તિમાં પરાયણ રહી, પા कदाचिदेषा स्तवनं गुरुभ्यः प्रणम्य तेषामकगेन्मनोज्ञा / आहारदाने सततं सुभक्त्या तल्लीनचित्ता तदकारयत्सा 6 // अर्थ-कभी 2 यह गुरुदेवों को नमस्कार कर उनकी स्तुति करती और आहारदान करने में जिसका चित्त निरन्तर प्रसक्त है ऐसी यह गंगादेवी अपने ही घर पर दूसरों के हाथ से आहारदान करवा कर उसका लाभ लेती // 6 // કયારેક કયારેક તે ગુરૂદેવને નમસ્કાર કરીને તેમની સ્તુતિ કરતી અને આહાર પાણી આપવામાં જેનું ચિત્ત હરહમેશાં તત્પર રહે છે એવી આ ગંગાદેવી પિતાને જ ઘેર અન્ય દ્વારા આહારદાન કરાવીને તેનો અલભ્ય લાભ લેતી. દા कदाचिदेषा श्रुतभक्तिनुन्ना सिद्धान्तशास्त्राण्यपठत्सुचित्ता / सरस्वतीमंदिरमध्यसंस्था सामायिकायर्थमसावचेतीत् // 7 // Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 267 ___ अर्थ:कमी 2 यह शात्रीमति से प्रेरित हुई सरस्वती गृह में बैठती और वहां यह सिद्धान्त शास्त्रों का स्वाध्याय करती एवं सुचित्त होकर सामायिक आदि के अर्थ पर विचार करती. // 7 // કયારેક ક્યારેક આ શાસ્ત્રની ભક્તિથી પ્રેરાઈને તે સરસ્વતીગૃહ (વાંચનાલય)માં બેસતી અને ત્યાં સિદ્ધાંત શાને સ્વાધ્યાય કરતી અને સ્થિર ચિત્તે સામાયિક વિગેરેના અર્થ પર વિચાર કરતી. છા कदाचिदेषा श्रुतबोधलब्ध्यै संजातशङ्का गुरुदेवपार्श्व / आस्थाय पृष्ट्वा विनयेन तस्या लब्ध्वा समाधानमसौ तुतोष // 8 // अर्थ-कभी 2 यह "श्रुत का बोध अच्छी तरह हो जावे" इस अभिप्राय से स्वाध्याय किये गये किसी ग्रन्थ के प्रतिपाद्य विषय में जब कभी इसे कोई शङ्का हो जाती तो वह गुरुदेव के पास विनयपूर्वक बैठकर उस का समाधान करती और उसे प्राप्त कर वह बडी संतुष्ट होती. // 8 // ક્યારેક-ક્યારેક આ શ્રુત-શાસ્ત્રનો બેધ સારી રીતે થઈ જાય આ અભિપ્રાયથી સ્વાધ્યાય કરવામાં આવેલા કેઈગ્રન્થમાં પ્રતિપાદન કરેલ વિષયમાં કંઈ પણ શંકા થઈ જાય ત્યારે તે ગુરૂદેવની પાસે જઈ વિનયપૂર્વક બેસીને તેનું સમાધાન મેળવતી અને તે મેળવીને તે ઘણી જ પ્રસન્ન થતી હતી. આટા समस्तविद्याधिगमे निमित्तं निरस्तविघ्ना गुरुभक्तिरेव / .. जलागमे छिद्रमिवाथ साथ्यो मोक्षोऽपि सत्या ह्यनयैव कर्तुः // 9 // अर्थ-समस्त विद्या की प्राप्ति में निर्दोष गुरुभक्ति-गुरुदेव की विनय ही निमित्त होती है. जिस प्रकार कूप आदि के भीतर जलके आने में झिरें निमित्त होती हैं. यदि मन वचन और काय की शुद्धिपूर्वक गुरु भक्ति की जाति है तो वह करनेवाले को मोक्ष भी दे देती हे. // 9 // સઘળી વિદ્યાઓ પ્રાપ્ત કરવામાં નિર્દોષ એવી ગુરૂભક્તિ-ગુરૂદેવ પ્રત્યે વિનય જ નિમિત્ત થાય છે, જેમ કૂવામાં જળ આવવા ઝરણા નિમિત્ત હોય છે, તેમજ મન, વચન, અને કાયાની શુદ્ધિપૂર્વક ગુરૂભક્તિ કરવામાં આવે છે. તે તે કરવાવાળાને મેક્ષ પણ આપે છે. 19 * सखीभिरेषा च यदा कदाचित् समं समास्थाय च पृच्छति स्म / मात्राच्युतं गूढचतुर्थकं वा छन्दो निरौष्ठ्यं च मनोमुदेऽथ // 10 // Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 268 लोकाशाहचरिते - अर्थ-यह यदा कदा सखियोंके भी साथ बैठती और उनसे मनोविनोद निमित्त मात्राच्युत, गूढचतुर्थक एवं निरोष्ठ्य छन्द पूछती. // 10 // કઈ કઈ સમયે સખિયેની સાથે પણ બેસતી અને તેઓને મને વિનદ માટે માત્રા ચુત, ગૂઢચતુર્થક અને નિરેષ્ટ છેદ વિષે પૂછતી હતી. ૧ળા विन्दुच्युतं व्यञ्जनलुप्तकं च स्पष्टान्धकं वाक्षरलुप्तकं च / प्रहेलिकैकाक्षरलुप्तपादं किमस्ति तच्छावय भो ! वयस्ये ! // 11 // अर्थ-हे वयस्ये ! बिन्दुच्युत, व्यञ्जनच्युत, स्पष्टान्धक, अक्षरलुप्त, प्रहेलिक एवं एकाक्षरच्युत छन्द कैसे होते हैं. सुनाओ. // 11 // હે સખિ! બિન્દુયુત, વ્યંજનમ્યુત, પછાંધક, અક્ષર લુપ્ત પ્રહેલિકા ! અને આ એકાક્ષરગ્રુત છન્દ કેવા હોય છે ? તે કહો. 11 पृष्टा वयस्याभिरसौ कदाचिद् ब्रूहि त्वमप्यत्र च पञ्जरस्थः / कः कोऽस्ति वा कर्कश निस्वनो वा कोऽस्ति प्रतिष्ठा खलु जन्मिनां वा // 12 // अर्थ-कभी 2 सखियां भी उससे ऐसा पूछती कि तुम भी तो बताओ. पिंजडे के भीतर कौन रहता है ? कठोर शब्द करनेवाला कौन है ? तथा जीवों का आधार क्या है ? उत्तर में वह कहती // 12 // કઈ કઈ સમયે સખિયે પણ તેને એવું પૂછતી કે તમે કહો કે પાંજરાની અંદ કોણ રહે છે ? કઠોર શબ્દ કોણ કરે છે ? તથા પ્રાણિયેને આધારે શું છે ?રા शुकश्च काकः खलु लोक एषः कलापिनः सन्ति च किं च केऽत्र ? / को मञ्जुलालापपर किलास्ति ब्रूझुत्तरं साथ जगौः तदत्र // 13 // अर्थ-शुक-तोता कौवा और यह लौक, पिंजडे में तोता रहता है कठोर शब्द बोलने वाला कौवा होता है और जीवोंका आधार यह लोक है. इस प्रकार प्रश्न वाचक "क" के पहिले एक एक शब्द जोडकर इन प्रश्नोंका उत्तर हो जाता है. पुनश्च सखियोंने गंगादेवी से पूछा-यहां मीठे बोलने वाले कौन है। तथा मञ्जुल आलाप करनेवाला कौन हैं ? इन प्रश्नों का उत्तर दीजिये. तब गंगादेवीने कहा-इन प्रश्नोंका उत्तर इसी श्लोक में है-अर्थात् मीठे बोलने वाले "कलापिनः" मयूर हैं और मञ्जुल आलाप करनेवाला जीव. "कोकिला" कोयल है. // 13 // Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः . પોપટ, કાગડા, અને આલેક અર્થાત પાંજરામાં પિપટ રહે છે. કઠોર શબ્દ કાગડા બોલે છે. અને જેનો આધાર આલેક છે. આ રીતે પ્રશ્નવાચક “ની પહેલાં એક એક અક્ષર બદલવાથી આ પ્રશ્નનો ઉત્તર થઈ જાય છે. ફરીથી સખિઓએ ગંગાદેવીને પૂછ્યું–અહીં મીઠું બોલનાર કોણ છે? તથા મધુર આલાપ કરવા વાળું કોણ છે? આ પ્રશ્નને ઉત્તર કહે તે સાંભળી ગંગાદેવીએ કહ્યું–આ પ્રશ્નનો ઉત્તર આજ શ્લોકમાં અર્થાત મીઠું બોલવાવાળા મયૂર હોય છે મધૂર આલાપ કરનાર કોયલ છે. નવા उवाच काचित्सरिख ! देहि मेत्वं समुत्तरं “योनि च तस्य पादः। एको भवेनिम्नगतास्त्रयश्च मेघं विना वर्षति वारि कः? श्वा // 14 / अर्थ-एक सखीने गंगा से पूछा-हे सखि ! तुम मेरे प्रश्नका उत्तर दो ऐसा वह कौनसा जीव है कि जिसका एक पैर आकाश में हो जाता है और तीन 3 पैर जमीन ऊपर रहते हैं तब उससे पानी बरसता है. फिर भी बह मेघ नहीं है. तय उत्तर में गंगाने कहा-"श्वा” सखि ! ऐसा वह जीव कुत्ता है. कुत्ता एक पैर ऊपर करके और तीन 3 पैर नीचे जमीन पर रखकर के पेशाब किया करता है. // 14 // એક સખીએ ગંગાદેવીને પૂછયું–હે સખિ ! તમે મારા પ્રશ્નનો ઉત્તર આપ એવા એ કયા છે છે કે જેને એક પગ આકાશમાં હોય છે, અને ત્રણ પગ જમીન ઉપર રહે છે, ત્યારે તેમાંથી જલ વર્ષે છે છતાં પણ તે મેઘ નથી. તેના ઉત્તરમાં ગંગાદેવીએ કહ્યુંહે સખિ ! એ તે જીવ કુતરે છે. કારણ કતરે એક પગ ઉંચો અને ત્રણ પગ જમીન પર રાખીને પેશાબ કરે છે. 14 तल्पस्थितायां मयि तत्क्षणे य द्वारुह्य वक्षो मम कमते में। सकम्पतन्व्यै खल्लु रोचते तत्पतिश्च किं ? नो सखि ! तालबन्तम् // 15 // अर्थ-हे सखि ! जब मैं अपनी सेज पर सोने को जातो हूं तो उसे में अपने साथ ले जाती हूं. जब में लेटती हूं तो वह मेरी छाती के ऊपर चढ आता है और फिर आप हिलता है और मुझे भी हिलाता है. मुझे उसका हिलना बडा अच्छा लगता है. तो कहो क्या वह पति हैं ? उत्तर-सखि ! वह पति नहीं है वह तो पंखा है। यह प्रश्नोत्तर गर्मी के समय पंखा चलानेवाली नायिका को लक्ष्य में लेकर हुआ है // 15 // હે સખિ ! જ્યારે હું મારી શય્યા પર સુવા માટે જાઉં છું તો તેને હું મારી સાથે લઈ જાઉં છું. જ્યારે હું સુઉ છું ત્યારે તે મારી છાતી પર ચઢી જાય છે. અને પછી પિતે હલે Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 270 लोकाशाहचरिते છે ને મને પણ હલાવે છે, તેનું હલવું મને ઘણું સારું લાગે છે, તે કહે તે શું પતિ છે? તેના ઉત્તરમાં ગંગાદેવીએ કહ્યું હે સખિ તે પતિ નહીં પંખે છે. આ પ્રશ્નોત્તર ગર્મિના સમયમાં પંખો ચલાવનાર નાયિકાને ઉદ્દેશીને કરવામાં આવેલા છે. ઉપા परस्परालापपराभिरिस्थं साधं सखीभिः कृतवाग्विलासा। सुखेन गच्छन्तमपि स्वकालं न बोधति स्माथ पतिप्रिया सा // 16 // अर्थ-इस प्रकार से परस्पर में वार्तालाप में प्रसक्त सखियोंके साथ अपने विचारों का आदान प्रदान करनेवाली उस गंगाने सुखपूर्वक व्यतीत होते हुए अपने समय को नहीं जाना. // 16 // આ પ્રમાણે એકબીજાની સાથે વાર્તાવિદમાં સખિયેની સાથે વિચારોના આદાન-પ્રદાન કરવાવાળી એ ગંગાદેવીએ સુખપૂર્વક વિતતા પિતાના સમયને જાણે નહીં. 16aaaa ' प्रसूतिकालो निकटो मदीयः तदेति बुद्धं न निराकुलत्वात् / सत्यं सुखस्थै ने हि बुध्यते स्म गच्छन्नवि स्वीयसुखात्य कालः // 17 // अर्थ-मेरा प्रसव का समय समीप है यह उसने निराकुल होने के कारण नहीं जाना. सच बात है जो जीव सुखी होते हैं वे जाते हुए भी अपने सुख के समय को नहीं जानते हैं // 17 // મારો પ્રસવકાળ નજીક છે તે તેણિએ વ્યાકુળતા ન હોવાથી જાણ્યું નહીં. સાચી જ વાત છે કે-જે જીવ સુખી હોય છે તેઓ જતા એવા પિતાના સુખના સમયને જાણતા નથી. i1 सुखेन भूयात्प्रसवोऽङ्गनाया इतीव सद्भाववशं गतेन / हैमेन दानादिप्रशस्तकार्ये द्रव्यव्ययस्तत्समये ह्यकारि // 10 // अर्थ-गंगादेवी का प्रसव आनन्दपूर्वक हो इसी सद्भावनाके वशीभूत हुए हैमचन्द्र शेठने दानादिक प्रशस्त कार्य में उस समय अपने द्रव्य का व्यय किया. // 18 // ગંગાદેવીને પ્રસવ સુખપૂર્વક થાય એ સભાવનાને વશ થઈને હેમચંદ્રશેઠે દાનાદિ ઉત્તમ કાર્યમાં પિતાના દ્રવ્યને વ્યય આનંદથી કર્યો. 18 सौभाग्यतोऽस्या भविताथ पुत्रो मनोरथो मे सफलो ध्रुवं स्वात् / इतीव हेतोः सुतलाभकाम्या युतः स हैमो व्यथितं पुपोष // 19 // Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 271 ___ अर्थ-सौभाग्य से यदि गंगा के पुत्र होगा तो मेरा मनोरथ नियम से सफल होगा. इसी कारण को लेकर मानों हैमचन्द्र सेठने सुत-प्राप्ति की कामना से युक्त होकर दीन दुःखितजनों का पोषण किया. // 19 // સૌભાગ્યવશાતુ જો ગંગાદેવીને પુત્ર થશે તો મારો મનોરથ નિશ્ચય સફળ થશે. એ કારણથી હેમચંદ્રશેઠે પુત્ર પ્રાપ્તિની કામનાથી યુક્ત થઈને દીનદુ:ખીજનનું પિષણ કર્યું. 19 विवस्रकेभ्योऽथ ददौ स वस्त्रं बुभुक्षितेभ्यः कशिपु स्वभृत्येभ्योऽदात सुवृत्तिं सुमनाः श्रियं च कौटुम्बिकेभ्यो बहुमानभक्त्या // 20 // ___ अर्थ-अच्छे मनवाले हैमचन्द्र सेठने जिन के पास वस्त्र नहीं थे उन्हें वस्त्र प्रदान किये, भूखों के लिये अन्न दिया. अपने नौकर चाकरों के लिये अच्छी आजीविका दी. और अपने कुटुम्ब के लोगों के लिये बहुत सन्मान और भक्ति पूर्वक लक्ष्मीप्रदान की. // 20 // સારા મનવાળા એ હેમચંદ્રશેઠે જેની પાસે કપડાં ન હતા તેને કપડા આપ્યા. ભૂખ્યાએને અન્નદાન કર્યું. તેમજ નોકર ચાકરેને સારી આજીવિકા કરી આપી અને પિતાના કુટુંબીજનેને ઘણા જ સન્માનપૂર્વક દ્રવ્યદાન કર્યું. રવા गंगा प्रसूत्या भवतात्सखिभ्यो हर्षोत्करोन्तःकरणे मदीये / समाधिराधिव्यसनादि हानिश्चकार सत्कारमसौ सखीनाम् // 21 // . अर्थ-गंगा को प्रसूति से मेरे मित्र जनोंके लिये अधिक आनन्द होगा और मेरे चित्त में समाधि-स्थिरता आजावेगी. मानसिक चिन्ता दूर हो जावेगी एवं कष्टोंकी समाप्ति हो जावेगी. इस ख्याल से हैमचन्द्रने अपने मित्रोंका मन खोलकर खूब सत्कार किया // 21 // ગંગાદેવીની પ્રસૂતિથી મારા મિત્રોને ઘણું જ હર્ષ થશે, અને મારા ચિત્તમાં સમાધિસ્થિરતા આવી જશે. મારી માનસિક ચિંતા દૂર થશે. અને કો સમાપ્ત થશે. એવા વિચારથી હેમચંદ્રશેઠે પોતાના મિત્ર વર્ગને મન મૂકીને ખૂબ સત્કાર કર્યો. ર૧ सधर्मणां स्वदविणानुरूपं चकार वात्सल्यमसौ दधानः / समानमानन्दमथ प्रलेभे तेषां शुभाशीर्वचनान्यमानि // 22 // अर्थ-अपने विभव के अनुसार हैमचन्द्रने साधर्मि बन्धुओंका वात्सल्य भी समान आदर को धारण करते किया. सबने उनके लिये अमित आशीर्वाद दिया. // 22 // Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 272 लोकाशाहचरिते પિતાના વૈભવ પ્રમાણે હેમચંદ્ર શેઠે સાધર્મિક બંધુઓનું વાત્સલ્ય પણ આનંદપૂર્વક કર્યું. અને બધાએ તેને ઘણા જ આશીર્વાદ આપ્યા. રરા अथैकदा तल्पतले शयानां गंगामकालेऽस्तगतप्रनिद्राम् / वीक्ष्य प्रबुद्धां स जगाम पाश्वेऽवोचत्कथं त्वं सहसाह्य जागः // 23 // __ अर्थ-एक दिन की बात है कि अपनी शैया पर सोयी हुई गंगा को अकाल में जागती हुई देखकर हैमचन्द्र सेठ ने उसके पास जाकर कहा कि तुम बीच में ही कैसे जग पड़ी हो. // 23 // એક દિવસે પિતાની શય્યા પર સૂતેલ ગંગાદેવીને અકાળમાં જાગેલ જોઇને હેમચંદ્ર શેઠે તેની પાસે જઈને તૂ એકાએક કેમ જાગી ગયેલ છો ? પારકા चित्ते च ते कास्ति मदङ्गशोभे मनोज्ञरूपे ! युवधैर्यलोपि / तारुण्यमुद्राङ्कित चारुदेहे ! चिंता प्रिये ! जीवति जीवितेशे // 24 // अर्थ-हे मेरे शरीर की शोभास्वरूप ! हे सुन्दर रूप संपन्न ! हे युवापुरुषों के धैर्य को विचलित करनेवाले तारुण्य की मुद्रा से अडित मनोहर शरीरवाली ! हे प्रिये ! मुझ जीवितेश के जीते तेरे चित्त में कौनसी चिंता है. // 24 // હે મારા શરીરની શોભાસ્પદ ! હે સુંદર રૂપવાળી ! હે યુવાન પુરૂષોના વૈર્યને ચલિત કરવાવાળા તારૂણ્યની મુદ્રાથી અંકિત મનોહર શરીવાળી ! હે પ્રિયે ! મારા જીવતાં તારા ચિત્તમાં કઈ ચિંતા રહેલ છે? રજા पद्माक्षि ! चिंताग्रसितं त्वदीयं मुखं निरीक्ष्याद्य मदीयचित्तम् / दुनोति मां भामिनि ! तन्निवेद्यं निवेदय त्वं ननु कास्ति चिन्ता // 25 // अर्थ-हे कमल के जैसी नेत्रोंवाली भामिनि-प्रिये ! चिन्ता से ग्रसित तुम्हारे मुख को देखकर मेरा चित्त मुझे इस समय बहुत दुःखीकर रहा है. अतः जो कहने के योग्य हो तो उसे कहो-चिंता का कारण क्या है ? // 25 // હે કમળ સરિખા નેત્રવાળી પ્રિયે ! ચિંતાથી રાસાયેલ તારા મુખને જોઈને મારૂં ચિત્ત આ વખતે મને ઘણું જ દુઃખી કરે છે. તેથી જે કહેવા લાયક હોય તો મને કહો તમારી ચિંતાનું કારણ શું છે? રપા भृत्येन वा केन तवाथ तन्नि ! निदेश भङ्गोऽद्य कृतोऽथवा ते / / सख्या कयाचित्परिहासकाले गर्वोक्ति रुक्ता कथयाशुकान्ते ! // 26 // Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 273 ___ अर्थ-हे कान्ते ! क्या किसी नौकरने आज तुम्हारी आज्ञा का भंग किया किसी ने हंसी मजाक में तुम से कोई अहंकार भरी बार कह दी है. शीघ्र षताओ // 26 // હે કાન્તા ! શું કેઈ નેકરે તારી આજ્ઞાને ભંગ કરેલ છે? કેઈએ ઠઠા મશ્કરીમાં તમને કોઈ માનહાની થાય તેવી વાત કહી છે? તે જલિ કહે. સરદા मयापि तेऽशेषनिदेशसाध्ये त्रुटिन काचिदिहिता कदाचित् / तथापि ते तन्वि ! न बुध्यते किं चिंता निदानं वद चन्द्रवक्त्रे ! // 27 // अर्थ-हे चन्द्रवदने ! मैंने भी जो 2 कार्य करने को तुमने मुझ से कहावे सब किये हैं. उनके करने में किसी भी प्रकार की त्रुटि मेरी और से नहीं हुई है. फिर भी हे तन्वि ! समझ में नहीं आ रहा है कि तुम्हारी चिन्ता का कारण क्या है ? // 27 // હે ચંદ્રાનને ! મને જે જે કાર્ય કરવાનું તમે કહેલું તે તમામ કામ કરેલ છે. તે કરવામાં કોઈ પણ પ્રકારની ખામી મારા તસ્કુથી થયેલ નથી. છતાં પણ હે તન્વાંગી! સમજાતું નથી કે તારી ચિંતાનું કારણ શું છે. સરકા सम्बन्धिनाकेन शुभे ! पुरन्ध्रया गर्विष्ठया वाऽथ कयाचिदुक्तम् / वार्ताप्रसङ्गे च कथाप्रसङ्गे मदादहंकारखशाविरुद्धम् // 28 // अर्थ-हे प्रिये ! मेरे किसी सम्बन्धी जनने या किसी गर्वीली पुरन्ध्रीने वार्तालाप के प्रसङ्ग मे या कथा के प्रसङ्ग में मद और अहंकार के वशवर्ती होकर क्या कोई ऐसी विरुद्ध बात कह दी है कि जो तुम्हें अरुचिकर हो. // 28 // હે પ્રિયે ! મારા કોઈ સમ્બન્ધીજને કે કોઈ ગર્વિલી નગરસ્ત્રીએ વાર્તાલાપના પ્રસંગમાં મદ અને અહંકારને વશ થઈને શું કઈ એવી વાત કહી છે કે જે તમને અણુગમતી હેય. ધર૮ प्राणप्रियेणोक्तमिदं निशम्य चन्द्रानना सा निजगाद गंगा। नाथ ! त्वदीयानुपमप्रभावात्संभाव्यते नैव तदत्र किञ्चित् // 29 // अर्थ-अपने प्राणप्रिय के द्वारा पूर्वोक्तरूप से कहे गये इस कथन को सुनकर चन्द्रानना गंगा ने कहा हे नाथ ! आपके अनुपम प्रभाव से ऐसा व्यवहार किसी का भी मेरे साथ नहीं हो सकता हैं // 29 // 35 Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते પિતાના પ્રાણ પ્રિયે પૂર્વોક્ત પ્રકારથી કહેલ આ કથનને સાંભળીને ચંદ્રવદના એવી ગંગાદેવીએ કહ્યું હે નાથ ! આપના અનુપમ પ્રભાવથી એ અણછાજતે વ્યવહાર કેઈએ. મારી સાથે કરેલ નથી. રહા दरिद्रनारायण ! पुण्ययोगान्मयाऽथ संकल्पशतैरजस्रम् / पतित्वरूपेण भवान् सुलब्धः सौभाग्यमीहग्जनिष्वस्त्यकल्प्यम् // 30 // . अर्थ-हे दरिद्रों के नारायण ! मैंने आपको प्राप्त करने लिये निरन्तर सौकडों संकल्प किये-तब कहीं पुण्य के उदय से मुझे पति के रूप में आपकी प्राप्ति हो सकी है. ऐसी सौभाग्य की कल्पना अन्य महिला में नहीं की जा सकती है. // 30 // હે દરિદ્રોના નારાયણ ! મેં આપને પ્રાપ્ત કરવા માટે હમેશાં સેંકડો સંકલ્પ કર્યો ત્યારે કેઈ પુણ્યના ઉદયથી મને પતિરૂપે આપની પ્રાપ્તિ થયેલ છે. આવા સૌભાગ્યની કલ્પના અન્ય મહિલા માટે કરી શકાય તેમ નથી. 30 भवत्प्रभावात्सुरदुर्लभानि सौख्यानि नित्यं परिशीलयामि। कथं भवेदन्यकृताथ पीडा यदस्ति मेतां विनिवेदयामि // 31 // अर्थ-हे नाथ ! आपके प्रभाव से मैं नित्य देव दुर्लभ सुखों को भोगती आ रही हूं. फिर ऐसी स्थिति में मुझे अन्यजन द्वारा कृत पीडा कैसे हो सकती है. अर्थात् नहीं हो सकती. परन्तु जो पीडा हो रही है उसे मैं कहती हूं. // 31 ' હે નાથ ! આપના પ્રભાવથી હું હર હમેશાં દેવને પણ દુર્લભ સુખ ભોગવું છું. તે આ સ્થિતિમાં અને અન્યને કરેલ પીડા કેવી રીતે થાય? અર્થાત્ ન જ થાય. પરંતુ જે પીડા થઈ રહી છે તે હવે હું આપને કહું છું. 31 अद्य प्रगे मे जठरे च किञ्चित किञ्चिच्च पीडा पतिदेव ! जाता। मया च बुद्धा भविताथ शान्ता शनैः शनैः सा त्वधुना विवृद्धा // 32 // अर्थ-हे पतिदेव ! आज प्रातः मेरे पेट में कुछ 2 पीडा हुई. मैंने समझा कि यह शान्त हो जावेगी. परन्तु वह शान्त न होकर धीरे 2 अब वह बढ रही है. // 32 // હે પતિદેવ આજ સવારે મારા પેટમાં કંઈક કંઈક દઈ થયું. મેં જાણ્યું કે તે મટી જશે પરંતુ તે ન મટતાં હવે ધીરે ધીરે વધતું જાય છે. ૩રા Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 275 मा गाः शुचं देवि ! जगाद तस्याः श्रुत्वा वचस्तन्मनसि प्रवृत्तम् / दुःखं विभक्तुं त्वरमाणवृत्तिः स व्याकुलोऽभूच समानदुःखः // 33 // गंगा के वचन को सुनकर हैमचन्द्र सेठ ने उससे कहा-हे देवी ! तुम दुःखित मत हो ओ. इस प्रकार कह कर वे उसके मन में समाये हुए दुःख को विभक्त करने के लिये उतावली वाले बन गये और समान दुःखवाले होकर व्याकुल हो गयेः // 33 // ગંગાદેવીના વચન સાંભળીને હેમચંદ્ર શેઠે તેણીને કહ્યું- હે દેવી ! તમે દુઃખી ન થાવ તેમ કહીને તેઓ તેના મનમાં સમાયેલ દુઃખને દૂર કરવા ઉતાવળા થઈ ગયા અને સરખા દુઃખવાળા થઈને વ્યાકુળ થઈ ગયા. ફરા प्रसूतिकालो निकटोऽथ जातः बहूनि यास्याश्च दिनानि तावत् / गतानि मासस्य च सेयमस्य भवेत्प्रपीडा खलु गर्भमुक्त्यै // 34 // अर्थ-अब इसका प्रसव काल निकट आ गया है. क्यों कि इस नौवें महिने के इसके दिन भी बहुत व्यतीत हो चुके हैं अतः इसे जो यह पीडा हो रही है हो सकता है कि वह गर्भमुक्ति के लिये ही हो. // 34 // હવે આને પ્રસવકાળ નજીક આવેલ છે. કારણ કે આ નવમાં મહિનાના પણ ઘણા દિવસો વીતી ગયા છે. તેથી આને જે પીડા થાય છે તે બનવા જોગ કે ગર્ભ મુક્તિ માટે જ सा श. // 34 // इत्थं स्वबुद्धया परिकल्प्य सोऽयं तदैव कौटुम्बिकवृद्धनार्याः / गतोऽथ पार्श्व निखिलं च तस्यै न्यवेदयवृत्तमसौ सहागात् // 35 // __ अर्थ-इस प्रकार अपनी बुद्धि से विचार कर हैमचन्द्र अपने कुटुम्ब की किसी वृद्धा के पास उसी समय गये. और सब समाचार उससे कहा. (सुनते हो) वह उनके साथ चली आई. // 35 // આ પ્રમાણે પોતાની બુદ્ધિથી વિચાર કરીને હેમચંદ્ર પિતાના કુટુંબની કઈ વૃદ્ધ સ્ત્રીની પાસે એજ વખતે ગયા. અને સઘળા સમાચાર તેને કહ્યા તે સાંભળીને તે તેમની સાથે જ ત્યાં તેમને ઘેર આવી. કપા दृष्ट्वाऽवदत्सा निकटोऽस्ति पुत्र ! प्रसूतिकालः कुरु सद्भयवस्थाम् / अतो यथाऽवादि तथैव तेन सर्वा व्यवस्था झुचिता व्यधायि, // 36 // Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 276 / लोकाशाहचरिते ___ अर्थ-देखकर उसने कहा-हे पुत्र ! इसका प्रसव का समय बिल कुल निकट है. तुम इसकी सुन्दर व्यवस्था करो. अतः जैसी व्यवस्था करने को उसने कहा वैसी सब उचित व्यवस्था हैमचन्द्र ने कर दी. // 36 // જોઈને તે વૃદ્ધ સ્ત્રીએ કહ્યું- હે પુત્ર! આના પ્રસવનો સમય ઘણો જ નજદીક છે. તમે આની સારી વ્યવરથી કરો તેથી જે પ્રમાણેની વ્યવસ્થા કરવા તેણે કહ્યું તેજ પ્રમાણેની સઘળી ઉચિત વ્યવરથા હેમચંદ્ર કરી આપી. 36 तिथौ शुभायां च शुभग्रहेषु घुञ्चस्थितेषूत्तमवासरेऽथ / / सा भावि साधूत्तमसाधुरत्नं देहप्रदीप्तं सुषुवे कुमारम् // 37: अर्थ-शुभतिथि में जब कि शुभग्रह अपने 2 उच्च स्थान पर स्थित थे उस गंगा देवी ने शुभदिन में आगे होने वाले साधुओं में उत्तम साधुरत्न ऐसे पुत्र को जो कि अपनी देह की दीप्ति से चमक रहा था जन्म दिया. // 37 // શુભ તિથિમાં કે જયારે શુભગ્રહ પોત પોતાના ઉચ્ચ સ્થાન પર રહ્યા હતા ત્યારે એ ગંગાદેવીએ આગળ થનારા સાધુઓમાં ઉત્તમ સાધુરત્ન એવા પુત્રને કે જે પિતાના દેહની કાંતીથી ચમકી રહ્યો હતો તેને જન્મ આપે. આવા शुक्ले शुभे कार्तिकमासि राकातिथिश्च तज्जन्मदिनं बभूव / चतुर्दशाब्देऽभ्यधिके द्वयशीत्या हैमोऽभवपितृपदाधिरूढः // 38 // अर्थ-८२ से अधिक 14 संवत्सर में 1482 संवत् में कार्तिक सुदी पूर्णिमा का कुमार का जन्म दिन हुआ. उस दिन हैमचन्द्र पिता के पद पर आसीन हुए. // 38 // 82 વ્યાસી અધિક 14 ચૌદમાં સંવત્સરમાં અર્થાત 1482 ચૌદસે વ્યાસી સંવતમાં કાર્તિક સુદ પુનમના દિવસે કુમારને જન્મ થયે તે દિવસે હેમચંદ્ર પિતાને સ્થાને સ્થાપિત થયા. 38 दिशः प्रसेदुः पटहाश्चनेदुः कौटुम्बिकानां च मनांसि रेजुः / वाता ववुः स्पर्शसुखावहाश्च प्रमोदमग्ना जनता प्रजज्ञे // 39 // ___ अर्थ-जब बालक का जन्म हुआ-तब चारों दिशाएं निर्मल हो गई. बाजे घजाये गये. कुटुम्बिजनों के मन प्रफुल्लित हो गये हवाएं सुख स्पर्शवाली होकर चली और जनता में आनन्द छा गया // 39 // જ્યારે બાળકને જન્મ થયે ત્યારે ચારે દિશા નિર્મળ બની ગઈ. વાજા વગાડવામાં આવ્યા. કુટુંબિજનેના મન આનંદિત થઈ ગયા. હવા સુખ સ્પર્શવાળી બની. અને જનસમૂહમાં આનંદ આનંદ થઈ ગયે. 39 Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 277 प्रांची यथाऽक च तथैव गंगा सुतं प्रभामेदुरमस्तदोषम् / असूत तं वीक्ष्य न सा प्रजज्ञे प्रसूतिपीडां सुतजन्मतुष्टा // 40 // अर्थ-पूर्व दिशा जिस प्रकार सूर्य को जन्म देती है उसी प्रकार प्रभा से पुष्ट एवं निर्दोष पुत्र को गंगाने जन्म दिया उसे देखकर सुत के जन्म से संतुष्ट हुई गंगा को प्रसूति की पीडा का अनुभव नहीं हुआ. // 40 // પૂર્વ દિશા જેમ સૂર્યને જન્મ દે છે, એ જ પ્રમાણે પ્રભાથી પુષ્ટ અને નિર્દોષ પુત્રને ગંગાદેવીએ જન્મ આપે. તેને જોઈને બાળકના જન્મથી સંતુષ્ટ થયેલ ગંગાને પ્રસુતિની પીડા જણાય નહીં. જો गंगाऽभवत्पुत्रवतीति नार्यः श्रुत्वा समेत्याजग्मुस्तदैव / गृहांगणं गीतरवैस्तदीयैः रम्यैश्च नान्दीव बभूव तस्याः // 41 // अर्थ-गंगा के पुत्र हुआ है ऐसी बात जब नगर की स्त्रीयोंने सुनी तो वे सुनकर एकट्ठी होकर गंगा के घर के आंगण में उसी समय उपस्थित हो गई और सुन्दर 2 गीत-गाना उन्होंने प्रारंभ कर दिया उन गीतों के शब्दों से गंगा का गृहांगण नान्दी के जैसा बन गया // 41 // - ગંગાને પુત્ર પ્રસવ થયે છે, એ વાત જ્યારે નગરના સ્ત્રી વર્ગે સાંભળી ત્યારે તે સાંભળીને બધી સ્ત્રીઓ એકઠી થઈને ગંગાના ઘરના આંગણામાં એજ વખતે આવી ગઈ અને સારા સારા ગીત ગાવાનું તેમણે ચાલુ કર્યું. એ ગીતના શબ્દોથી ગંગાના ઘરનું આંગણું નાટક શાળા સરખુ બની ગયું 41 चिरं जयेत् देवि ! तवैष पुत्रः नंदेचिरं देवि ! तवैष डिम्भः / वर्धेत तेऽयं सुत एष बालो भूयात्पबुद्धो जगतीह वृद्धः // 42 // ___ अर्थ-हे देवि ! यह तेरा बालक चिरकालतक जयवंता वर्ते. हे देवि ! तेरा यह बालक चिरकालतक सुख समृद्धिका भोक्ता बने हे देवि ! तेरा यह बालक दिन दना और रात चौगुना बढे हे देवि ! तेरा यह बालक इस जगत में विशिष्ट ज्ञानो हो और पूर्ण आयु का भोक्ता हो-वृद्ध हो // 42 // હે દેવી! આ તારો બાળક લાંબા કાળ પર્યત જયવંત બને. હે દેવી! તારું આ . બાળક ઘણા કાળપર્યત સુખ સમૃદ્ધિને ભેગવનાર બને. હે દેવી! તારું આ બાળક દિવસે બમણું અને રાત્રે ચાર ગણું વધતું રહે. હે દેવી ! તારું આ બાળક આ જગતમાં વિશેષ જ્ઞાનવાન બનો. અને પૂર્ણ આયુષ્ય ભોગવનાર બને અર્થાત અતિવૃદ્ધ બને. જરા Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 278 लोकाशाहचरिते इत्थं शुभाशंसि सहस्रगीतै भृतं तदीयं भवनं तदानीम् / वाचालितं शब्दमयं बभूव पुण्यात्मनां जन्म परोदयाय // 43 // अर्थ-इस प्रकार की मांगलिक कामनावाले हजारों गीतों से वाचालित हुआ उसका भवन शब्दमय बन गया. सच बात है. पुण्यात्माओं का जन्म दूसरों की उन्नति के लिये होता है. // 43 // આ પ્રમાણેની મંગળમય કામનાવાળા હજારો ગીતથી વાચાલિત થયેલ તેનું ભવન શબ્દમય બની ગયું. સાચી જ વાત છે કે–પુણ્યાત્માઓને જન્મ બીજાના ઉત્કર્ષ માટે જ હોય છે. 43 दिशावधूटी प्रमदातिरेकात् स्वच्छाम्बरा सा कलहंसनाद। .. च्छलेन जन्मोत्सववर्धनार्थ गीतान्यगासीद् ध्वनिभिर्गभी रैः॥४४॥ अर्थ-दिशारूपी नवोढा ने स्वच्छ कपडे पहिन कर कलहंसों के नाद के बहाने से जन्मोत्सव को बढाने के निमित्त गंभीर ध्वनि द्वारा गीतों को गाया // 44 // દિશારૂપી નવોઢાએ સ્વચ્છ કપડા પહેરીને કલહંસોના નાદના બહાનાથી જન્મોત્સવ વધારવા માટે ગંભીર બનીથી ગીત ગુંજારવ કર્યો. 44 , नक्तंचरैर्जीवचयैः समेत्य स्वस्थानमित्य मिलितैरमीभिः। कृता प्रतिज्ञा दिवसे न हत्या केनापि कस्यापि कदापि कार्या. // 45 // ___ अर्थ-रात्रि में जीवोंकी हत्या करनेवाले इन नक्तंचर जीवोंने अपने 2 स्थान पर मिलकर ऐसी प्रतिज्ञा करली कि किसी भी जीव की कभी भी कोई जीव दिन में हत्या नहीं करे. // 45 // રાત્રે જીની હત્યા કરનારા આ રાત્રેિચર જીવોએ પોતપોતાના સ્થાન પર એકઠા થઈને એવી પ્રતિજ્ઞા કરી કે કોઈ પણ જીવની ક્યારેય કોઈપણ દિવસે હત્યા કરવી નહીં ૪પા लताः प्रसूनानि विशिष्टमोदा दवाकिरं स्तज्जननाभिषेक / जलच्छलेनाथ तदीयपुत्रोपरि प्रसन्ना सुमनोभिरामाः // 46 // अर्थ-लताओं ने पुत्र के उस अभिषेक के जल के छल से गंगा देवी के पुत्र के ऊपर प्रसन्न मन होकर बडे ही हर्ष के साथ मानो पुष्यों की ही वर्षा की // 46 // લતાએ પુત્રના એ અભિષેકના જળના બહાનાથી ગંગાદેવીના પુત્ર ઉપર પ્રસન્ન મનવાળા થઈને ઘણા જ હપૂર્વક જાણે પુણેને જ વર્માદ વસાવ્યું. 46 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः 279 केचन नगा गन्धवहेन धूता तदाददुः पुष्पफलानि तस्मै / . परोक्षभूताय विधाय लक्ष्ये हेमार्भकायाथ सुरक्षकाय // 47 // अर्थ-हवा से कंपित हुए कितनेक वृक्षों ने उस समय परोक्ष में वर्तमान हेमचन्द्र के शिशु के लिये जो कि अच्छा रक्षक था अपने लक्ष्य में लेकर पुष्प और फल प्रदान किये. // 47 // હવાથી કંપાયમાન થયેલા કેટલાક વૃક્ષોએ એ સમયે પક્ષમાં રહેલા હેમચંદ્રના બાળક માટે કે જે સારી રીતે રક્ષક હતા તેને પિતાનું લક્ષ્ય બનાવીને પુષ્પ અને ફળ मा . // 47 // नभोऽपि नक्षत्रचयच्छलेन महोञ्चितं तं प्रविलोकितुं द्राक् / सहस्रमक्ष्णां च दधद्विरेजे तेजोदिदृक्षा प्रबला न केषाम् // 48 // अर्थ-आकाश ने भी मानों नक्षत्रों के बहाने से प्रभावशाली उस पुत्र को देखने के लिये ही हजार आंखें धारण करली सच बात है तेज को देखने कि इच्छा किन के प्रबल नहीं होती. अर्थात् सब के प्रबल होती है. // 48 // આકાશે પણ નક્ષત્રના બહાનાથી પ્રભાવશાળી એ પુત્રને જોવા માટે જ હજારનેત્રે ધારણ કરી લીધા, સાચી જ વાત છે કે–તેજને જોવાની કેને પ્રબળ ઈચ્છા થતી નથી? અર્થાત સૌને પ્રબળ ઇચ્છા થાય જ છે. 48 .वर्धापनं कृत्यममूच पश्चात्सीमन्तिनीभिः कलकंठनीभिः / गीतानि गीतानि च मंगलार्थ मोदैस्तदा विह्वल चित्तवृत्या // 49 // : अर्थ-जब वर्धापन कृत्य हो चुका-अर्थात् बच्चे के नाल काटने की विधि समाप्त हो चुकी-तब नवेली नायिकाओं ने मिलकर मधुर कंठ से आनंद में विभोर होकर मांगलीक गीत गाये. // 49 // - જ્યારે વધુપન અર્થાત બાળકના નાળ છેદની ક્રિયા સમાપ્ત થઈ ગઈ ત્યારે નેઢા લાયકાઓએ મળીને મધૂર કંઠથી આનંદવિભોર બનીને મંગળ કામનાથી માંગલિક મીતા ગાયા. 49 बभूव मेघवनिवद्गभीरैर्वादिननादैश्च हिमस्य वेश्म / वाचालितं पौरजना निरित्य हृष्टास्तदा स्वीयग्रहात्समीयुः // 50 // Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 280 लोकाशाहचरिते ___ अर्थ-मेघ की ध्वनि के समान गंभीर बाजों के शब्दों से जब हैमचन्द्रका घर वाचालित हो गया-तब अपने 2 घर से निकलकर पुरवासी जन आनन्द में मग्न होकर वहां पर आये. // 50 // મેઘની દવની સરખા ગંભીર એવા વાજાઓના શબ્દોથી જ્યારે હેમચંદ્રનું ઘર મુખરિત થયું ત્યારે પોતપોતાના ઘેરથી નીકળીને નગરનિવાસીજન આનંદવિભોર બનીને ત્યાં આવ્યા. પછી लब्धोऽधुना भाग्यवता त्वयाऽयं वर्धस्व नन्दत्वमिति बुद्भिः / पोरै नैर्दत्त शुभाशिषं स हेमोऽथ जग्राह निबद्धपाणिः // 51 // ___ अर्थ-और कहने लगे-आप भाग्यशालीने आज पुत्ररत्न प्राप्त किया है अतः आपको बधाई है. आप आनन्दित हों. इस प्रकार पुरवासियों द्वारा दिये गये शुभाशीर्वाद को हैमचन्द्रने दोनों हाथ जोड़कर स्वीकार किया. // 51 // છે અને કહેવા લાગ્યા કે–આપ ભાગ્યશાળીએ આજે પુત્રરત્ન પ્રાપ્ત કરેલ છે. તેથી આપને વધાઈ આપીએ છીએ આપ સદા આનંદિત રહે. આ પ્રમાણે નગરવાસઓએ આપેલ આશીર્વાદને હેમચંદ્રશેઠે બન્ને હાથ જોડીને સ્વીકાર કર્યો. પલા स्वकिंकरेभ्यः सुतजन्मवार्ता निवेदयद्भयोऽथ ददौ यथेच्छम् / नाजीगणद्देयमदेयमत्र विक्षिप्तचित्तं न विचारदक्षम् // 52 / अर्थ-सुत जन्म के समाचार देनेवाले अपने नौकर चाकरों के लिये हैमचन्द्र ने इच्छानुसार जो उन्होंने मांगा वह दिया. उन्होंने यह विचार नहीं किया कि यह इन के लिये देने योग्य है और यह देने योग्य नहीं है. सच बात है. जब चित स्थिर नहीं होता है तब वह विचार करने में असमर्थ बन जाता है // 52 // પુત્ર જન્મના સમાચાર આપનારા પિતાના નોકર ચાકરેને હેમચંદ્રશેઠે ઈચ્છા પ્રમાણે જે તેમણે માગ્યું તે તેમને આપ્યું. તેમણે એ વિચાર ન કર્યો કે–આ વસ્તુ આપવા યોગ્ય છે અને આ આપવા ગ્ય નથી. સાચું જ છે કે-જ્યારે ચિત્ત સ્થિર ન હોય ત્યારે તે વિચાર કરવામાં અસમર્થ બની જાય છે. પરા स याचकेम्यः सुतजन्मवार्ता श्रुत्वाऽऽलयद्वारि समागतेभ्यः / ददौ यथेच्छं वसुवर्जवस्त्रादिकं यथायोग्यमनल्पबुद्धिः // 53 // अर्थ-विशिष्ट बुद्धिशाली उस हैमचन्द्र ने पुत्रजन्म के समाचार को सुनकर दरवाजे पर आये हुए याचकों के लिये धनको छोड़कर वस्त्रादिक उनकी इच्छा के और योग्यता के अनुसार दिये // 53 // Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः વિશેષ બુદ્ધિમાન એ હેમચંદ્ર પુત્રજન્મના સમાચાર સાંભળીને આંગણે આવેલા વાચકોને ધન શિવાય વસ્ત્ર વિગેરે તેમની ઈચ્છા અને યોગ્યતા પ્રમાણે આપ્યા. પગા पुरं समस्तं परितोऽभवत्तद्धर्षाकुलं गायदतीव रम्यम् / नृत्यच्च बलाद्रमसेन नासीज्जनः स चित्तं न विकासि यस्य // 54 // अर्थ-वह समस्त पुर उस समय हर्ष से विभोर हो गया. कोई उसमें गा रहा था, कोई नाच रहा था, कोई बडे वेग से इधर से उधर दौड़ रहा था. ऐसा उस समय कोई मनुष्य नहीं बचा था कि जिसका मन प्रफुल्लित नहीं हुआ हो. // 54 // એ સઘળું નગર એ સમયે હર્ષવિભોર બની ગયું. તેમાં કઈ ગાઈ રહ્યું હતું. કોઈ નાચી રહ્યું હતું. કેઈ ઘણા જ વેગપૂર્વક આમતેમ દેડી રહ્યું હતું. તે વખતે એ કઈ પણ માણસ ન હતો કે જેનું મન વિકસિત થયું ન હોય 54 कौटुम्बिकानां च गृहेगृहेऽस्तं गतो विरोधोऽथ बभूव मैत्री। परस्परं तैर्मिलित व्यधायि प्रभावशाली जननोत्सवोऽस्य // 55 // अर्थ-कुटुम्वियों के घर घर में विरोध शान्त हो गया और आपस में उनमें मैत्री हो गई सबने मिलकर प्रभावशाली उसके जन्मका उत्सव मनाया. // 55 // ઘેર ઘેર કુટુંબિયને પરપને વિરોધ શાંત થઈ ગયે. અને પરસ્પર મિત્રતા થઈ ગઈ. સૌએ સાથે મળીને પ્રભાવશાળી એવા એ બાળકને જન્મોત્સવ ઉજપપા खौ तमस्तोम झोदितेऽस्मिन् विरोवलेशोऽपि दिवंगतोऽथ / कौटुम्बि कानां न विचित्रमेतत् पुण्यात्मनां जन्म जगद्धिताय / 56 // अर्थ-जिस प्रकार रवि के उदित होने पर अंधकार विलीन हो जाता हैं उसी प्रकार उस पुत्र के उत्पन्न होने पर कुटुम्बीजनों का विरोध नष्ट हो गया. तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है. क्योंकि पुण्यशालियों का जन्म जगत् के हित के लिये होता है. // 56 // જેમ સૂર્યના ઉગવાથી અંધકાર નાશ પામે છે. એ જ પ્રમાણે એ બાળકને જન્મ થવાથી કુટુંબિયને વિરોધ નાશ પામ્યા. તેમાં કંઈ જ આશ્ચર્ય જેવું નથી. કેમકે પુણ્યશાલિયાને જન્મ જગતના હિત માટે જ હોય છે. પદા Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242 लोकाशाहचरिते अथाह्नि तावदशमे व्यतीते संभूय सर्वेश्च विनिश्चितं यत् / संबंधिभिः बन्धुजनैश्च वंश्यैः महोत्सवः पुत्रभवाद्विधेयः // 57|| अर्थ-जय दशमा दिन व्यतीत हो गया तब सब कुटुम्बियोंने सम्बन्धियों ने एवं बन्धुजनोंने मिलकर निश्चय किया कि पुत्र के जन्मका एक महोत्सव करना चाहिये. // 57 // જયારે દસમો દિવસ વિતિ ગયો ત્યારે બધા જ કુટુંબિઓ અને સંબંધિઓએ તથા બંધવ મળીને નિશ્ચય કર્યો કે આ પુત્રના જન્મ નિમિત્તે એક મહોત્સવ કરવો જોઈએ. પછા केनापि तावत्सुकृतोदयेन महज्जनानां सदनुग्रहेण / चिरेण दृष्टं खलु हैमगेहे पुत्रारविन्दं महनीयमेतत् // 58 // ____ अर्थ-किसी पुण्य के उदय से एवं महान् पुरुषों के श्रेष्ठ अनुग्रहसे लोगों ने बहुत दिनों में हैमचन्द्र के घर में यह महनीय पुत्ररूप कमल देखा है. 58 // કઈ પુણ્યના ઉદયથી અને મહાન પુરૂષના અત્યંત અનુગ્રથી અમોએ ઘણા લાંબા કાળે હેમચંદ્રના ઘેર આ પુત્ર જન્મરૂપ કમળ દેખેલ છે, બાપા प्रभावशाली भवितैष बालो जातेऽपि यस्मिन् भवत्प्रशान्तः / कौटुम्बिकानां बहुशो विरोधो विवर्धितस्तत्र च रागभावः // 59 // अर्थ-यह बालक प्रभावशाली होगा. इसके उत्पन्न होते ही कुटुम्बि जानों का अनेक प्रकार का विरोध शान्त हो गया और उनमें रागभाव -पारस्परिक प्रेमभाव-बढ़ गया है. // 59 // આ બાળક પ્રભાવશાળી છે તેના ઉત્પન્ન થતાં જ અનેક પ્રકારને કૌટુંબિક વિરોધ શાંત થઈ ગયો છે. અને તેઓમાં પરસ્પર પ્રેમભાવની વૃદ્ધિ થઈ રહી છે. પહેલા इत्थं विताथ महोत्सवस्तैः कृतस्तदानीं तदरिष्टशान्त्यै / त्र्यहानि तस्मिन् जनता बभूव एकत्रिताऽस्याश्च कृता व्यवस्था // 60 // अर्थ-इस प्रकार अच्छी तरह से निश्चय करके उन सबने उस समय उसके अमंगल की शान्ति के निमित्त तीन दिनतक महोत्सव किया उसमें जनता एकत्रित हुई. उसकी सब व्यवस्था उन्होंने की. // 6 // આ પ્રમાણે નિશ્ચય કરીને તે સૌએ એ વખતે તેના અમંગળની શાંતિ માટે ત્રણ દિવસ પર્યન્ત મહોત્સવ ઉજવ્યું. તેમાં જે જનસમૂહ એકઠા થયે તેની સઘળી વ્યવસ્થા તેઓએ કરી દો Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 283 LAL नवमः सर्गः संमेलनेऽस्मिन् मिलितजनैश्च कैश्विद्वयधायि स्वभवो गुरूणाम् / संस्पृश्य पादौ सफलश्च कैश्चित्तद्देशनां धर्ममयीं निशम्य // 61 // अर्थ-इस महोत्सवरूप संमेलन में आये हुए-संमिलित हुए-कितनेक मनुष्यों ने गुरुदेवों के-मुनिमहाराजों के-पादों का स्पर्श कर और कितनेक मनुष्योंने उनकी धर्ममयी देशना का पान कर अपने भव-मनुष्य पर्याय को सफल किया. // 61 // આ મહત્સવરૂપ સંમેલનમાં આવેલા કેટલાક માણસોએ મુનિમહારાજાઓના ચરણને સ્પર્શ કરીને અને કેટલાક માણસોએ તેમની ધર્મમયી વાણીનું પાન કરીને પિતાના મનુષ્યપર્યાયને સફળ બનાવ્યા. 6 1 कैश्चिद् यथाशक्ति जनै ब्रतानि ह्यात्तानि कैश्चित् परिशीलितानि / कैश्चिन्मुनीनां खलु वंदनाये रुपार्जितं पुण्यमनेकरूपम् // 2 // ___ अर्थ-कितनेक मनुष्यों ने यथाशक्ति उन से व्रतों को ग्रहण किया और कितनेक मनुष्यों ने उन व्रतों की बार 2 आराधना की. तथा कितनेक मनुष्यों ने मुनिजनों की वंदना करने आदि रूप शुभ कार्यों से अनेक प्रकार का पुण्य उपार्जित किया. // 6 // કેટલાક મનુષ્યએ શક્તિ પ્રમાણે તેમની પાસેથી વ્રતને સ્વીકાર કર્યો અને કેટલાક માણસેએ મુનિજનેને વંદના કરવા આદિરૂપ શુભ કાર્યોથી અનેક પ્રકારના પુણ્યનું ઉપાર્જન કર્યું. એ દરા श्राद्धैश्च कैश्चित्प्रतिबुद्धय दीक्षा धृतार्हताया प्रतिपादिता सा / इत्थं वृषोत्कर्षकरः स जातः महोत्सवस्तज्जनने कृते यः // 63 // अर्थ-कितनेक श्रावकों ने प्रतिबुद्ध होकर जो दीक्षा अरिहंत प्रभु ने धारण करने को कही है उसे धारण किया. इस तरह बालक की उत्पत्ति के समय में उन लोगों द्वारा किया गया महोत्सव धर्म की प्रभावना करने वाला हुआ.॥६३ કેટલાક શ્રાવકોએ પ્રતિબુદ્ધ થઈને જે દીક્ષા અરિહંત પ્રભુએ ધારણ કરવા કહેલ છે, તે દીક્ષા ધારણ કરી આ પ્રમાણે બાળકના ઉત્પત્તિકાળે એ લેકેએ કરેલ મહત્સવ ધર્મની પ્રભાવના કરનાર બને. 63 हैमोऽपि सर्वैः खलु "चौधरीति” पदेन मान्येन विभूषितश्च / अलंकृतस्तेन रराज सोऽयं ज्ञातीय पुंभिर्वहु सत्कृतश्च // 6 // Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 284 लोकाशचाहरिते ___ अर्थ-सब पुरुषों ने हैमचन्द्र को भी “चौधरी" इस मान्य पद से विभूषित किया, उस मान्यपद से अलंकृत हुए ये हैमचन्द्र बडे अच्छे ढंग से सुशोभित हुए और ज्ञातीय बन्धुओं ने इनका बहुत सत्कार किया // 64 // સી પુરૂષોએ હેમચંદ્રને પણ “ચૌધરી' એ માનનીય પદથી શોભિત કર્યા. એ માનનીય પદથી શોભિત થયેલા એ હેમચંદ્ર સારી રીતે શોભા પામ્યા. અને જ્ઞાતિ સમૂહ તેમને ઘણો જ સત્કાર કર્યો. દુકાન तौ दम्पतीत्थं सुतजन्मही सुचेतसौ वंशविवृद्धिहेतुम् / सुदुर्लभं रत्नमिवार्भकं तं दिनानि शान्त्या विनिन्यतुः स्म // 65 // अर्थ-इस प्रकार सुत के जन्म से जिन्हें हर्ष है और इसी कारण जो अच्छे चित्त वाले हैं-अशान्ति से रहित जिनका चित्त है ऐसे वे दोनों स्त्री पुरुष-हैमचन्द्र और गंगा-रत्न के जैसे दुर्लभ पुत्रको कि जो वंश की वृद्धि का हेतु था प्रास करके शान्ति पूर्वक दिनों को निकालने लगे. // 65 // આ પ્રમાણે પુત્રના જન્મથી જેને હર્ષ થયેલ છે, અને એ જ કારણથી જે પ્રસન્ન ચિત્તવાળા છે. અશાંતિ વિનાના જેના ચિત્ત છે એવા એ બન્ને સ્ત્રી પુરૂષ-હેમચંદ્રશેડ અને ગંગાદેવી રન જેવા દુર્લભ પુત્રને કે જે વંશ વૃદ્ધિના કારણરૂપ હતો તેને પ્રાપ્ત કરીને શાંતિપૂર્વક પિતાના દિવસે વીતાવવા લાગ્યા. એ૬પા धर्मो मुक्ति सुखाकरो भवभूतां सर्वेन्द्रियार्थप्रदः, लक्ष्मीलाभनिमित्तमिन्द्रपदवी सदायकं तं भजे / धर्मेणैव महोन्नति भवति वै जीवस्य तस्मै नमः, धर्मान्नास्त्यपरः सुमार्ग इतिवा तस्मिन् दधेऽहं मनः // 66 // अर्थ-धर्म मुक्ति सुख-अव्यायाध सुख की खानि है, वही जीवों को समस्त इन्द्रियों के विषयों को देनेवाला है. वही लक्ष्मी की प्राप्ति में निमित्तभूत है. वही इन्द्र पद्वी का प्रदाता है. अतः ऐसे धर्म की मैं सेवा करता हूं। धर्म से ही जीव की उन्नति होती है. इसलिये मै ऐसे धर्म को नमस्कार करता हूं. धर्म के अतिरिक्त और कोई निष्कंटक मार्ग नहीं है. इसलिये मैं उसमें अपने मनको लगाता हूं // 66 // ધર્મ, મુક્તિસુખ-અવ્યાબાધ સુખની ખાણ છે. એજ જેને સ્વળી ઈન્દ્રિયેના વિષયને આપવાવાળે છે. એજ લક્ષ્મી પ્રાપ્ત થવામાં નિમિત્તરૂપ છે. એજ ઈન્દ્ર પદવી આપવાવાળે છે. તેથી એવા ઘર્મની હું સેવા કરૂં છું. ધર્મથી જ જીવની ઉર્ધ્વગનિ થાય Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः सर्गः છે. તેથી એવા ધર્મને હું નમસ્કાર કરું છું. ધર્મ શિવાય બીજો કોઈ સરળ માર્ગ નથી. તેથી હું તેમેં જે મારું મન પરાવું છું. 6 દા धर्मस्वरूपा ननु सन्तु मे ते श्रीघासिलाला मुनिराज सेव्याः। दयार्णवा दीनहितैषिणोऽस्या भुवश्च चूडामणयोऽर्थलब्ध्यै // 67 // अर्थ-मुनिराज जिनकी सेवा में रत रहते हैं और जो साक्षात् धर्म-स्वरूप हैं दया के सागर हैं, दीनों के हितेषी हैं ऐसे वे श्री घासीलाल महाराज जो इस पृथ्वी के चूडामणि हैं मेरे प्रयोजन की प्राप्ति के हो // 67 // મુનિરાજ જેમની સેવામાં તત્પર રહે છે. અને જેઓ સાક્ષાત ધર્મ સ્વરૂપ છે. દયાના સમુદ્ર છે. દીનદુખિયાના હિતકારક છે એવા એ શ્રી ઘાસીલાલ મહારાજ કે જેઓ આ પૃથ્વીમાં ચૂડા મણિ જેવા છે. તેઓ મારા ઈષ્ટ પ્રયજન પ્રાપ્ત કરવામાં ઉપકારક થાવ. ૬ળા जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर श्रीघासीलाल व्रति विरचिते हिन्दीगुर्जरभाषानुवादसहिते . लोकाशाहचरिते नवमः सर्गः समाप्तः // 9 // Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते अथ दशमः सर्गः प्रारभ्यतेअथ स्वपित्रोनयनाभिरामः, श्रिया समालिङ्गिन सुन्दराङ्गः / वृद्धिं प्रपेदे स शशीव नित्यं शनैः शनैश्यम्बकवत्स्वरूपः // 1 // ___ अर्थ-अपने माता पिताकी आंखोंका सितारा ऐसा वह कुमार कि कामके समान स्वरूप वाला था धीरे 2 प्रतिदिन चन्द्रमा की तरह वृद्धिंगत होने लगा. // 1 // પોતાના માતપિતાની આંખેના સિતારા જેવો એ કુમાર કામદેવ જે સ્વરૂપવાન હતો. તે ધીરે ધીરે દરરોજ વધવા લાગ્યો. 1 बभौ निशान्ते रमयन् जनानां मनांसि चक्षुषि कुमार एषः। बभूव स क्रीडनकं च तेषां मनो विनोदे शिशुरस्ति हेतुः // 2 // अर्थ-इस कुमारने घर पर मनुष्यों के चित्त को और नेत्रों को सुख पहुंचाया. अतः वह उनके लिए सुहावना लगा और वह उनका एक खिलौना बन गया. ठीक बात है. मनके बहलाने में शिशु प्रवल निमित्त होता है // 2 // આ કુમારે ઘેર મનુષ્યના ચિત્ત અને નેત્રને આનંદ આપે તેથી તે તેઓને સેમણે લાગ્યો, અને તે તેઓનું એક રમકડું બની ગયો ઠિક જ છે કે મનને બહેલાવવામાં બાળક એક બળવત્તર નિમિત્તરૂપ હોય છે. અરા दिनानुसारेण शनैः स वृद्धिं प्रपेदे खलु लाल्यमानः। ' अङ्कान्तरं रागवशेन वृद्धैरकात्समा कृष्य च नीयमानः // 3 // अर्थ-जैसे 2 दिन व्यतीत होते गये वैसे 2 लाड प्यार से पालित हुआ वह कुमार बढने लगा और वृद्धजन उसे प्रेम के वशवर्ती होकर एक गोदी से दुसरी गोदी में खींच 2 कर लेने लगे. // 3 // જેમ જેમ દિવસે વીતવા લાગ્યા તેમતેમ લાડકોડથી ઉછરતો એ બાળક પ્રતિદિવસ વધવા લાગ્યો. અને વૃદ્ધજનો પ્રેમને વશ થઈને તેને એક ખોળામાંથી બીજા મેળામાં ખેંચી ખેંચીને લઈ જવા લાગ્યા. tia यदा यदोत्तानशयोऽथ वृद्धा जनैश्च दोलाधिगतो विशिष्टः / गीतैरमान्दोलित एप बालः, जोषं समास्थाय च तच्छृगोति // 4 // Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः अर्थ-जब जब वह बालक झूला पर ऊपर मुंह करके चित्त होकर सोतातव 2 वृद्धाजन गीतों के साथ 2 इसे झुलाती और यह बालक चुपचाप होकर उन गीतों को सुनता // 4 // જ્યારે જ્યારે તે બાળક પારણામાં ઉંચું મુખ કરીને ચ7 સુતું હોય ત્યારે ત્યારે વાસ્ત્રીયે ઝૂલણા ગાતા ગાતા તેને ઝુલાવતી અને એ બાળક ચૂપચાપ રહી એ ગીતને સાંભળી રહેતું. જા शुद्धोऽसि तात ! त्वमसि प्रबुद्धो निराकुलो राग विविक्तचित्तः / निरंजनो निस्पृह संगवृत्ति स्तथापि कर्मग्रह बद्धचित्तः / 5 / / अर्थ-झूला झुलाते समय वे वृद्धा माताएं कहती-हे पुत्र ! तुम बिलकुल शुद्ध हो. बुद्ध हो, निराकुल हो, रागरहित चित्त हो, निरंजन हो, एवं परिग्रह से सर्वथा रहित हो. परन्तु फिर भी तुम कर्मरूपी ग्रह से जकड़े हुए हो. // 5 // પારણું ઝુલાવતી વખતે વૃદ્ધ માતાઓ કહેતી કે-હે પુત્ર તું એકદમ શુદ્ધ છો. બુદ્ધ છે. નિરકુળ છે. રાગરહિત ચિત્તવાળે છે. નિરંજન છો. અને પરિગ્રહથી સર્વથા રહિત છે, તો પણ તું કર્મરૂપી ગ્રહથી ઝકડાયેલ છો. પા अनादितः कर्मपरंपराभिर्विस्मृत्य रूपं खल्वेष जीवः / कृतः स्वतन्त्रो विविधा सासां कष्टं निकष्टं सहतेऽनभिज्ञः // 6 // - अर्थ-अनादिकाल से यह कर्मपरम्परा इस जीव के पीछे पड़ी हुई है. सो इस कारण जीवने अपने निज स्वरूप को भुला दिया है. उस कर्म परंपरा ने अपने स्वरूप को भूले हुए इसे अपने वश में करके अनेक विध योनियों में कष्टों को दिया है. और यह जीव अपने स्वरूप से अनभिज्ञ हुआ उन निकृष्ट कष्टों को सहन कर रहा हैं. // 6 // અનાદિકાળથી આ કર્મ પરંપરા આ જીવની પાછળ પડેલી છે. તે કારણથી જીવે પિતાના નીજ સ્વરૂપને ભૂલાવી દીધેલ છે, એ કર્મ પરંપરાએ પિતાના સ્વરૂપને ભૂલેલાએને પિતાના વશવતિ બનાવીને અનેક પ્રકારની નિમાં અનેક કષ્ટો આપ્યા છે. અને આ જીવ પોતાના સ્વરૂપને ન જાણવાથી એ દુઃખને સહન કરી રહેલ છે. દા इत्थं सुगीतैः खलु ते तदीये वपन्ति बीजं हृदये वृषस्य / यत्नो हि सत्यं नवनिर्मितेऽथ पात्रे गतः स्यान्न कदापि मिथ्या // 7 // Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 288 लोकाशाहचरिते अर्थ-इस प्रकार के सुगीतो द्वारा वे वृद्धा माताएं उसके हृदय में धर्म का बीज बोती रहती. सच बात है. नवनिर्मित पात्र में लगा हुआ यत्न-संस्कार कदापि मिथ्या नहीं होता है. // 7 // આવા પ્રકારના સારા ગીતે દ્વારા એ વૃદ્ધ માતાઓ તે બાળકના હૃદયમાં ધર્મના બી વાવતી રહેતી. સાચી જ વાત છે કે–નવા પાત્રમાં કરેલ યત્નસંસ્કાર કયારેય પણ મિથ્યા જતો નથી. છેલ્લા शशी सदोषो ननु कृष्णवर्मा विभावसुः स कामस्वरूपः / अब्धिः समुक्तश्च विमुक्त एषः तथा न केनाप्युपमीयते न // 8 // अर्थ-बाल्यावस्था में वर्तमान यह कुमार चन्द्रमा के समान नहीं है क्योंकि वह सदोष-दोषा-रात्रि से युक्त है और यह दोषो से रहित है. अग्नि कृष्णवा है. क्योंकि यह जहां जलतो है वह स्थान काला हो जाता है. यह कुमार "कृष्णं वर्त्म यस्य सः'' काले रास्ते पर चलनेवाला नहीं है. यह उसके भविष्य काल की अपेक्षा विशेषण है. अतः यह अग्नि के जैसा भी नहीं है. कामदेव के समान यह इसलिये नहीं है कि वे सदा से उग्र-क्रोधयुक्त स्वभाववाले हैं. पर यह ऐसा नहीं है अब्धिके समान यह इसलिये नहीं है कि वह मुक्ताओं से युक्त है. और यह मुक्ताओं से रहित है. अतः इसे हम किसी के भी साथ उपमित नहीं कर सकते हैं // 8 // બાલ્યવસ્થામાં રહેલ એ કુમાર ચંદ્રમાં બરાબર નથી. કેમકે–તે સંદેશ–ષા રાત્રીથી યુકત છે. અને આ કુમાર દ વિનાનો છે. અગ્નિ કૃષ્ણવર્મા છે-કેમકે તે જ્યાં બળે છે. ते स्थान आणु थ य . 24 // मा२ 'कृष्णं वर्त्म यस्यः सः' / / २२ता 52 या - વાળ નથી. આ તેના ભાવિકાળ ને લઈને કહેલ છે. તેથી તે અગ્નિ જેવો પણ નથી. કામદેવ સરખોએ એ કારણથી નથી કે તે સદા કેવી સ્વભાવવાળે છે. આ કુમાર એ નથી. સમુદ્ર બરોબર એ કારણથી એ નથી કે તે મતિથી યુક્ત છે. અને આ મે તિ વિનાનો છે. આ કારણથી તેને કોઈની બરોબર અમે કહી શકતા નથી. પાટા दामोदरः "कृष्ण” इति प्रसिद्धः प्रजापतिः सोऽथ चतुर्मुखश्च / प्रद्युम्न पुत्रोऽपि च मन्मथोऽस्ति नायं तथा ह्यस्त्युपमान बाह्यः // 9 // अर्थ-दामोदर "कृष्ण" इस नाम से प्रसिद्ध हैं-प्रजापति चार मुखवाले हैं और प्रद्युम्नबेटा-कृष्णजी का सुपुत्र प्रद्युम्न मनको मथन करनेवाली है पर यह कुमार ऐसा नहीं है. इसलिये हम यह नहीं कह सकते है कि यह किसके समान हैं // 9 // Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः દામોદર કૃષ્ણ આ નામથી પ્રસિદ્ધ છે. પ્રજાપતિ ચાર મુખવાળા છે. અને પ્રધુમ્નકૃષ્ણને પુત્ર પ્રદ્યુમ્ન અર્થાત મનનું મંથન કરવાવાળે છે. પરંતુ આ કુમાર એ નથી. તેથી અમે એ કહી શકતા નથી કે આ કોની સરખે છે કે હું मित्रेऽपि शत्रावपि तुल्यवृत्तिश्वकास सोऽयं विधुवत्प्रशान्तः / बाल्येऽपि तस्मिन् खलु वर्तमाने समो न तस्याथ बभूव कश्चित् // 10 // अर्थ-इस कुमार की वृत्ति शत्रु और मित्र में समान थी. अतः यह प्रशान्त बालक चन्द्रमा के जैसा चमकता. बाल्य अवस्था में भी इसके वर्तमान रहने पर इसके जैसा और कोई दूसरा बालक नहीं था // 10 // આ કુમારની વૃત્તિ શત્રુ અને મિત્રમાં સરખી હતી. તેથી આ પ્રશાત બાળક ચદ્રમાં જે ચમકતે તેની બાલ્યઅવરથામાં તેના જે બીજે કઈ બાળક ન હતું. निरामयं श्रीसदनं तदीयं वपुर्विलोक्याथ दिगंगतास्ताः। स्वाङ्के समुत्थापयितुं च काझुमूर्तरभावान्न तथा विचक्रुः // 11 // ... - अर्थ-रोग रहित-स्वस्थ एवं लक्ष्मी या शोभा का भवन उसके शरीर को देखकर दिशारूपी अङ्गनाओंने उस कुमार को अच्छी तरह से उठाकर अपनी गोदी में बिठाना चाहा. पर शरीर के अभाव में वे वैसा नहीं कर सकी. // 11 // - નિરોગી અર્થાત સ્વી તથા લક્ષ્મી એટલે કે શોભાના સ્થાનરૂપ તેના શરીરને જોઇને શિારૂપી સ્ત્રીઓએ તે કુમારને સારી રીતે ઉઠાવીને પિતાના ખોળામાં બેસાડવા વિચાર્યું, પરંતુ શરીરના અભાવથી તેઓ તેમ કરી શકી નહીં. 11 यथा यथाऽवर्धतलोचनश्रीस्तथातथा ह्यस्य गतं शिशुत्वम् / ... बभूव चापीकर चारुमूर्तिः, राजीवरम्यः प्रभयान्वितोऽभूत् // 12 // . . अर्थ-आंखों का प्यारा यह कुमार जैसा जैसा बढा वैसा वैसा इसका शिशुस्व भी घट और सुवर्ण के जैसी इसकी जूर्ति हो गई. यह कमल के समान सुहावना लगने लगा तथा प्रभा से युक्त भी हो गया. // 12 // - આંખોને યારે આ કુમાર જેમ જેમ વધતો ગયો તેમ તેમ તેનું બાળક પણું ઘટીને વર્ણ સરખી તેની મૂર્તિ બની ગઈ ને કમળ જે સોહામણું લાગવા મંડયો, તથા કતાથી વિકસિત પણ થઈ ગયે. ૧રા Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 190 लोकाशाहचरिते - प्रमोद बाष्पाम्बुकम्बितोऽसो हैमः प्रपश्यन्नपि दारकं तम्। तृप्तिं न लेमेऽथ तदा मनं सः, मुहुर्मुहूरागवशाच्चुचुम्ब // 13 // अर्थ-हर्षाश्रुओं से व्याप्त हैमचन्द्र उस पुत्रको देखते 2 भी तृप्त नहीं होते और पार 2 राग के वशवर्ती होकर उसके मुखको चूमते // 13 // * હર્ષાશ્રઓથી વ્યાપ્ત હેમચંદ્રશેઠ તે પુત્રને વારંવાર જોઈ ને પણ તૃપ્ત થતા ન હતા. અને વારંવાર રાગને વશ થઈને તેના મુખનું ચુંબન કરતા હતા. ll13 आदायतत्पाणिपुटाग्रमग्रेसरः स तत्कौतुकहृष्टचित्तः / करेण संस्थाप्य सुखेऽनुरागाच्चुचुम्ब लेभे न तथापि तृप्तिम् // 14 // अर्थ-हैमचन्द्र जब उसके कौतुक से प्रसन्न चित्त होते तो वे उसके हाथ को अपने हाथ से पकड़कर अपने मुख पर रख लेते और उसे बडे अनुराग से चूमते. फिर भी उन्हें तृप्ति नहीं मिलती // 14 // હેમચંદ્ર જ્યારે તેના કૌતુકથી પ્રસન્ન મનવાળા થતા ત્યારે તેઓ તેના હાથને પિતાના હાથથી પકડીને પોતાના મુખ પર રાખી લેતા અને તેને ઘણા જ સ્નેહથી ચુંબન કરતા. છતાં પણ તેઓ તૃપ્ત થતા ન હતા. 14 कपोलपाली स्फटिकाश्मकान्ति गुणैर्गरिष्ठेश्च गरीयसोऽस्य / सौभाग्यलब्ध्या च समुद्भवस्य चुचुम्ब हैमो न जगाम तृप्तिम् // 15 // अर्थ-श्रेष्ठ गुणों से युक्त कुमार के जो कि सौभाग्य की प्राप्ति से उत्पन्न हुआ है. स्फटिक की जैसी कान्तिवाले गालों को वे हैमचन्द्र बार 2 चूमते. परन्तु फिर भी उन्हें तृप्ति प्राप्त नहीं होती // 15 // પિતાના સૌભાગ્યથી ઉત્પન્ન થયેલા અને શ્રેષ્ઠ ગુણોવાળા એ કુમારની સ્ફટિક જેવી કાંતીવાળા ગાલેને એ હેમચંદ્ર વારંવાર ચૂમતા તે પણ તેઓ તૃપ્ત થતા ન હતા. 1 પા. स्वाङ्गे समारोप्य यदैव हैमः स्वाङ्गेन सार्धच तदीयमंगम् / संयोजयत् भाति विलोचने द्वेध्यानस्थयोगीव निमीलयन् सः // 16 // अर्थ-जिस समय वे हैमचन्द्र अपनी गोदी में बैठाकर अपने शरीर के साथ उस बालक के शरीर को चिपकाते तो उनके दोनों नेत्र मिंच जाते. उस समय वे ऐसे मालूम होते कि मानों यह कोई ध्यानस्थ योगी ही है // 16 // Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः 291 જે વખતે એ હેમચંદ્રશેઠ એ બાળકને પોતાના ખોળામાં બેસારીને પિતાના શરીરની સાથે એ બાળકના શરીરને લગાડતા ત્યારે તેમના બન્ને નેત્રો મીચાઈ જતાં તે વખતે તેઓ એવા જણાતા કે જાણે તે કોઈ ધ્યાનમાં લીન યોગી જ છે. 16 सुताङ्गसंस्पर्शसमुत्थमोदः प्रमाणतः स्यादधुना कियान सः / मयीति समीलितनेत्रयुग्मः करोति मन्ये प्रमिति स तस्य // 17 // ___ अर्थ-हैमचन्द्र को सुत के अङ्ग के स्पर्श से जो आनन्द उत्पन्न होता उससे उनकेदोनों नेत्र बन्द हो जाते-इस पर यह कल्पना है कि हैमचन्द्र "वह आनंद प्रमाण में मुझ में इस समय कितना है" इस बात की वे बडे ध्यान से ही मानों प्रमिति करते हों ऐसा मैं मानता हूं // 17 // હેમચંદ્રને પુત્રના અંગના સ્પર્શથી જે આનંદ પ્રાપ્ત થતો તેનાથી તેમના બેઉ નેત્રો બંધ થઈ જતા. તેથી એવી કલ્પના થાય છે કે-હેમચંદ્ર “તે આનંદનું પ્રમાણ મારામાં આ સમયે કેટલું છે? એ વાતની ઘણા જ ધ્યાનપૂર્વક ખાત્રી કરતા ન હૈય? તેમ હું भानु छुः // 17 // आनन्दकन्दं निजनंदनं सः विलोक्य मोदान्वितचित्तयुक्तः। तृणाय मत्त्वा स्पृहयां बभूव धर्माय तस्मै च सुताय सर्वम् // 18 // अर्थ-आनन्द के कारण ऐसे अपने नन्दन को देखकर हर्षित चित्त हुए हेमचन्द्र ने सब को तृण के जैसा माना और धर्म एवं सुत की ही उन्होंने चाहना रखी.॥१८॥ આ નંદના કરણ જેવા પિતાના નંદનને જોઈને હર્ષિત ચિત્તવાળા હેમચંદ્ર બધાને તણ સરખા માન્યા. અને ધર્મ અને પુત્રની જ તેમણે ચાહના કરી. 18 गृहे सुबालोचित लीलयाऽसौ प्रसन्नमुद्रां जनतां प्रकुर्वम् / आनन्दबाधैः परिवर्धकत्वान्नवोदितश्चन्द्र इवाबभाषे // 19 // यह कुमार अपने घर पर अपनी सुवालोचित लीला से जनता को प्रसन्न मुद्रावाली करता और उसके आनन्द रूपी समुद्र को खूब बढाता इसलिये वह नवोदित चन्द्र के समान प्रतीत होता. // 19 // - આ કુમાર પિતાના ઘેર પિતાની બાળોચિત્ત લીલાથી જનતાને પ્રસન્ન કરો. અને તેન આનંદસાગરને ખૂબ જ વધારતો તેથી તે નવા ઉગેલા ચંદ્ર સરખો લાગત. ૧લા Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते पुत्रेण जुष्टां प्रविलोक्य गंगां संध्यां नवार्कण युतामिव द्याम् / तवंशजा मोदभरेण नम्रा वाचामगम्यं ननु लेभिरे शम् // 20 // अर्थ-जिस प्रकार प्रातः कालीन संध्या के समय नवोदित सूर्य से युक्त आकाश को देखकर लोग सुख पाते हैं, उसी प्रकार हैमचन्द्र के आनंद से विभोर हुए वंशज भी पुत्रवती गंगा को देखकर सुखी हुए // 20 // જેમ પ્રભાત કાળની સંધ્યા સમયે નવા ઉદય થયેલા સૂર્યથી યુક્ત આકાશને જોઇને લેકે સુખ પામે છે. એ જ પ્રમાણે હેમચંદ્રના આનંદથી વિભેર થયેલા વંશજો પુત્રવતી ગંગાદેવીને જોઈને સુખી થયા. પરંવા संबंधिभिः प्रीतिविशेष योगा तस्मै कुमाराय शुभ मुहूर्ते / सौर्णिका भूषणमंगुलीय मनग्रंवत्रादिकवस्तुदत्तम् // 21 // अर्थ-अच्छे मुहूर्त में सम्बन्धी जनों ने कुमार के लिये प्रीति विशेष को लेकर सुवर्ण के आभूषण एवं अंगूठी तथा वेश कीमती वस्त्रदिक वस्तुएँ प्रदान की. // 21 // સારા મુહૂર્તમાં સંબંધીજનોએ કુમાર પ્રત્યેની વિશેષ પ્રીતિને લઇને સેનાના આભૂઘણે અને વીંટી તથા મૂલ્યવાન વસ્ત્રાદિ વસ્તુઓ અર્પણ કંરી. ર૧u अङ्कायायावकमसी कुमारः शुभोदयान्मंडनमण्डिताङ्गः / सम्बन्धिभिन्नोऽपि हिमान्वयस्य रागस्तदेकायतनं बभूव // 22 // अर्थ-कुमार का पुण्योदय बलिष्ठ था. इसलिये वह प्रतिदिन आभूषणों से अलंकृत रहता और एक गोद से दूसरी गोद में बैठता, हैमचन्द्र के खान दान का स्नेह यद्यपि सम्बन्धियों में विभक्त हो गया था. परन्तु फिर भी सब का वह स्नेह उस कुमार में ही आकर इकट्ठा हो गया. // 22 // કુમારને પુણ્યદય બળવાન હતો તેથી તે દરરોજ આભૂષણોથી શણગારેલ રહે. તથા એક ખોળેથી બીજા ખોળામાં બેસ. હેમચંદ્રના કુટુંબનો સ્નેહ જોકે સંબંધિમાં વહેંચાઈ ગયેલ હતો. છતાં પણ બધાને એ નેહ આ કુમારમાં આવીને એકઠો થઈ ગયો.રરા यथायथावर्धत बाल एषः कला अवर्षन्त तथातथाऽस्मिन् / अतो जनैश्चन्द्रमसा तदानीमसावुपामीयत हैमपुत्रः // 23 // अर्थ-जैसा जैसा यह कुमार बडा हुआ वैसे वैसे अनेक कला' भी उसमें बढी. इस कारण उस समय लोगों ने इस हैमचन्द्र के पुत्र को चन्द्रमा से उपमित किया. // 23 // Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः જેમ જેમ આ કુમાર માટે થતો ગયો તેમ તેમ તેનામાં અનેક કળાઓ પણ વધી, તેથી તે સમયે લોકોએ આ હેમચંદ્રના પુત્રને ચંદ્રમાની ઉપમા આપી. રક્ષા लोकानसोह्लादयतीति कृत्वा पित्रा कृतारख्याऽस्य च लोकचन्द्रः / आहूत एषोऽत्र तयैवलोके जनैरभूचन्द्रगुणानुरूपः // 24 // ___ अर्थ-लोगों को यह आनन्दित करता है ऐसा मानकर पिता हेमचन्द्र ने इसका नाम लोकचद्र रखा, अतः लोग भी इसे इसी नाम से बुलाने लगे अन्त में यह दुनियां में चन्द्रमा के गुणों के अनुरूप ही हुए // 24 // લેકેને આ બાળક આનંદ કરાવે છે. તેમ માનીને પિતા હેમચંદ્ર તેનું નામ લેકચંદ્ર રાખ્યું, તેથી લેકે પણ તેને એ નામથી જાણવા લાગ્યા, છેવટે તે દુનિયામાં ચંદ્રમાના ગુણે જે ગુણગાન . पुत्रो भवेत्सार्थकनामशेयः निमित्तविदितं तदेतत् / निशम्य तुष्टः खलु हैमचन्द्रः क्षणे द्वितीये च विचिन्तितोऽभूत् // 25 // __अर्थ-आपका यह बेटा अपने नामको सार्थक करने वाला होगा. ऐसी ज्योतिषियों द्वारा कही गई बात को सुनकर संतुष्ट हुए वे हैमचन्द्र द्वितीय क्षण में विशेष चिन्ताग्रस्त हो गये. // 25 // તમારે આ બાળક પિતાના નામને સાર્થક કરવાવાળા થશે તેમ જયોતિષિએ કહેલ વાત સાંભળીને સંતોષ પામેલ છે. હેમચંદ્ર બીજક્ષણે વિશેષ ચિંતાયુક્ત બન્યા. રપા अयं मुनिस्ते भविता कुमारो नियोगतः पश्य निवेदयन्ति / ग्रहागि पस्त्य महनीयमेतत्स्वजन्मनाऽनेन पवित्रितं यत् // 26 // अर्थ-चिन्तित होने का कारण यह था कि उन्होंने कहा-यह तुम्हारा कुमार नियम से मुनि होगा. देखो ये ग्रह इसी बात को सूचित कर रहे हैं. यही एक बहुत बड़ी बात हुई जो इसने अपने जन्म से तुम्हारे घर को पावन कर दिया. // 26 // ચિંતિત થવાનું કારણ એ હતું કે-તેઓએ કહ્યું કે આ તમારો બાળક જરૂર મુનિ થશે. જુઓ આ ગ્રહ એજ વાત સાબિત કરે છે. એ જ એક મોટિ વાત થઈ કે આણે પોતાના જન્મથી તમારા ઘરને પાવન કરી દીધું. રહા यथा कथंचिदिनिवृत्त्य चिन्तां तस्यैव संवर्धनतत्परोऽभूत् / हैमः स तत्पुण्यवशाबभूव जनाग्रणी मान्य जनेषु मान्यः // 27 // Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 294 लोकाशाहचरिते अर्थ-वे हेमचन्द्र जैसे तैसे चिन्ता को दूर करके कुमार के हो संव. धन करने में दत्तचित्त हो गये उस बालक के पुण्य के वश से वे जननेता और माननीय जनों में भी मान्य माने जाने लगे. // 27 // એ હેમચંદ્રશેઠે જેમ તેમ કરીને ચિંતા છોડીને કુમારના જ સંવર્ધનમાં ચિત્ત પરોવ્યું. અને તે બાળકના પુણ્ય પ્રતાપે તે માનનીયજમાં માન્ય થવા લાગે. રા बभार दृग्दोषनिषेधयित्रीं रेखां ललाटे सुकुमारकान्तः / स षटपदामस्य च कज्जलस्य मात्रा कृतां चन्द्र वदावदातः // 28 // ___ अर्थ-उस सुकुमार सुन्दर बालक ने कि चन्द्र के समान जिसकी निर्मल कान्ति है अपने ललाट पर दृष्टि दोष को दूर करने के लिये माता के द्वारा की गई भ्रमर के समान अत्यन्त काले कजल की रेखा को धारण किया. // 28 // એ સુકુમાર સુંદર બાળકે કે જેની નિર્મળકાંતી ચંદ્રમાના જેવી છે, પિતાના ભાલ પર દષ્ટિદેષ દૂર કરવા માટે માતાએ કરેલ ભમરાના જેવી અત્યંત કાળા કાજળની રેખા ધારણ કરી. અર૮ प्रातः समुत्थाय स मातुरङ्कात् भून्यस्तपादः पितृपादमूलम् / गत्वा स्ववाण्याऽस्कुटवणेयायत् किञ्चित् प्रवक्तुं खलु चेष्टते स्म // 29 // अर्थ-जब प्रातः काल हो जाता तब वह बालक की गोद से उठकर करडता हआ पिता के पास पहुंच जाता और अपनी अस्फुट वर्णवालो वाणी से जो मनमें आता उसे कहने के लिये चेष्टा करता // 29 // જ્યારે પ્રભાતકાળ થતો ત્યારે આ બાળક માતાના ખોળામાંથી ઉઠીને પિતાની પાસે પહોંચી જતા અને પિતાની અસ્પષ્ટ વાણીથી જેમ મનમાં આવે તેમ કહેવાની ચેષ્ટા કરતો. ર૯ पदैः स्वर्गृिहभूमिभागे गच्छन् पतन् स्वंच दिदृक्षयाऽन्यात् / उपस्थितान हास्ययुतान प्रकुर्वन् सक्रीति स्माथ हसन्नमातैः // 30 // अर्थ-लड खडाते हुए पैरों से जब यह बालक अपने मकान के भूमिभाग पर चलता तो गिर पडता इस बात को लेकर उसे देखने की इच्छा से अन्य बालक वहां उपस्थित हो जाते और इस तरह वे इसे देख 2 कर हंसने लगते उनके साथ 2 यह भी हंसने लगता और पीछे उन्हीं के साथ खेल ने लगता. // 30 // Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः 295 લથડાતા પગથી જ્યારે આ બાળક પિતાના મકાનમાં ચાલતે ત્યારે તે પડિ જ તે જોવા માટે અન્ય બાળકે ત્યાં આવી ચડતા. અને આ રીતે તેને જોઈ જોઈને હસવા લાગતા, તેમની સાથે એ પણ હસવા લાગી અને પછી તેઓની જ સાથે રમવા લાગતો હતો. 30 यदाऽऽपणं गच्चछति हैमचन्द्रस्तदा तदग्रसरतामुपेत्य / द्वारे समागत्य च तिष्ठिति स्म, प्रतीक्षमाणो गमनं स तत्य // 31 // अर्थ-जब हेमचन्द्र अपनी दुकान पर जाने लगते तो बालक लोकचन्द्र पहिले से ही दरवाजे पर उनके निर्गमन की प्रतीक्षा करता हुवा बैठ जाता. // 31 // જયારે હેમચંદ્ર પોતાની દુકાને જતા ત્યારે બાલક લેકચંદ્ર પહેલેથી જ દરવાજા પર આવીને તેમના જેવાની રાહ જોઈને બેસી જતા. 31 सुतं यियाखं प्रप्तमीक्ष्य हैमः संवोधर्यस्तं मधुरैचोभिः / ब्रूतेस्म ते पुत्र ! न तत्र गन्तुं योग्यास्त्ववस्था त्वमिहेव तिष्ठ // 32 // अर्थ-वे हैमचन्द्र जब लोकचन्द्र को अपने साथ जानेकी अभिलाषा वाला देखते-तब उसे मीठे 2 वचनों से वे समझाते और कहते हे पुत्र ! अभी वहां जाने के योग्य तेरी अवस्था नहीं है-अतः तुम घर पर ही रहो // 32 // એ હેમચંદ્ર જયારે લેકચંદ્રને પિતાની સાથે જવાની ઇચ્છાવાળો જતા ત્યારે તેને મીઠા મીઠા વચનોથી સમજાવતા અને કહેતા હે પુત્ર ! હજી ત્યાં જવાને ગ્ય તારી ઉંમર નથી તેથી હમણું તું ઘેર જ રહે. ૩રા निवृत्य नेष्यामि फलान्यहं त्वाम् दास्यामि मिष्टान्नमहं च तुभ्यम् / अत्रैव शान्त्या जननी सकाशे त्वं क्रीडने क्रीडनकं नयामि // 33 // ___ अर्थ-मैं जब लौटकर आऊँगा तब तुम्हें फल लाऊँगा, मिठाई लाऊँगा यहीं तुम अपनी मां के पास शांति से खेलो, मै तुम्हें खिलोना लाकर दूंगा // 33 // હું જયારે પાછો આવીશ ત્યારે તારે માટે ફળે અને મીઠાઈ લાવીશ જેથી અહીં જ તું તારી મા પાસે રમ હું તમને રમકડા લાવી આપીશ. હવા त एव योग्याश्चतुरास्त एव मत्पुत्र ! पुत्रा कुशलास्त एव / .. त एव गण्या पितृमातृभक्ताः ये सेवया ताननु रंजयन्ति // 34 // Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %3D3D% 3D लोकाशाहचरिते ____ अर्थ-हे मेरे बेटे ! जो सेवा द्वारा माता पिता को अपने ऊपर अनुरक्त कर लेते हैं वे ही पुत्र योग्य, चतुर, कुशल, गणनीय एवं माता पिता के भक्त माने जाते हैं // 34 // હે મારા લોલજે સેવા દ્વારા માતાપિતાને પિતાનામાં અનુરક્ત કરી લે તેજ પુત્ર યેગ્ય, ચતુર, કુશળ, ગણુની માતપિતાને ભક્ત માનવામાં આવે છે. 34 त्वं श्रेष्ठपुत्रोऽसि ममैकपुत्र ! वृथाऽऽग्रहं मा कुरु तत्र गन्तुम् / यथेच्छमत्रैव रमस्व मातुः पार्श्वेऽथ मे दुर्ललितात्मजत्वम् / / 35 // भर्थ-हे अद्वितीय पुत्र ! तुम मेरे श्रेष्ठ पुत्र हो. तुम दुकान पर चलने का आग्रह मत करो और यहीं पर इच्छानुसार हे मेरे दुर्ललितात्मज ! तुम अपनी मांके पास खेलो, // 35 // હે અદ્વિતીય પુત્ર ! તું મારે ઉત્તમ પુત્ર છે. તું દુકાન ઉપર આવવાને આગ્રહ ન કર અને અહીં જ તારી ઇચ્છા પ્રમાણે તારી મા પાસે જ રમ્યા કર. રૂપા इत्थं गदित्वा विरते च तस्मित् स शान्तिमाश्रित्य ततोऽथ मातुः / पार्श्व समागान निजनंदनं सा स्वाके निधायैव चुचुम्ब गण्डे // 36 // अर्थ-इस प्रकार कहकर जब हैमचन्द्र चुप हो गये. तब कुमार लोकचन्द्र शान्ति भाव से वहां से मां के पास आगये। माताने अपने पुत्रको (उठाकर) गोद में रख लिया और रखने के साथ ही उसने उसके गाल को चम लिया. // 36 // આ પ્રમાણે કહીને જયારે હેમચંદ્ર બંધ થયા ત્યારે તે લેકચંદ્ર શાંત રીતે ત્યાંથી પિતાની માતા પાસે આવી ગયે. માતા પિતાના પુત્રને ઉપાડીને ખોળામાં બેસાડે, અને તે પછી તેણીએ તેના ગાલ પર ચુંબન કર્યું. 36 विकारहेतौ सति विक्रियन्ते येषां न चेतांसि त एव धीराः। सत्योक्तिरेपाऽत्रगता प्रत्यक्षं श्रीलोकचन्द्रे समभावयुक्तः // 37 // ___ अर्थ-"विकार के कारणों के उपस्थित होने पर भी जिनके चित्त में विकार भाव नहीं आता है वे ही धीर हैं" ऐसी जो यह उक्ति वह बिलकुल सत्य है यह बात प्रत्यक्ष से लोकचन्द्र में जो कि समान भाववाले बने रहे देखने में आई. // 37 // Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः 297 વિકારના કારણે થવા છતાં પણ જેના મનમાં વિકારભાવ આવતું નથી તેજ ધીર છે, એવું જે કથન છે તે એકદમ સાચું જ છે. એ વાત પ્રત્યક્ષ રીતે લેકચંદ્રમાં કે જે સમાન ભાવવાળી બન્યા હતા તેમનામાં જોવામાં આવી. ૩છા वाल्यं व्यतिक्रम्य स लोकचन्द्रः समुन्नति देहगतां वभार / पुपोष लक्ष्मी नयनाभिरामः कलाभृतश्चन्द्रमसस्तदानीम् // 30 // अर्थ-बाल्यावस्था को पारकर लोकचन्द्र ने अपनी शारीरिक उन्नति की देखने में वे नेत्रों को सुहावने लगने लगे और उनके शरीर में चन्द्रमा की कान्ति जैसी कान्ति झलकने लगी // 38 // બાલ્યકાળ વીતાવીને લોકચંદ્ર પિતાની શારીરિક પ્રગતિ કરી. જોવામાં તે તેને સોહમણો લાગવા માંડે. અને તેના શરીરમાં ચંદ્રમાં જેવી કાંતી ઝળવા લાગી, 38 बाल्यव्यपायेन किमप्यपूर्व नैसर्गिक तस्य महो बभूव / गुरुन् गुरुन् सम्यगुपास्य तेभ्यो विद्यामधीत्याशु बहुश्रुतोऽभूत् // 39 // ' अर्थ-बाल्यअवस्था के निकल जाने से उनका स्वाभाविक कोई अपूर्व प्रभाव जगा. उन्होंने श्रेष्ठ गुरुओं की उपासना-सेवा आदि करके उनसे विद्या पढी और थोडे ही समय मे ये बहुश्रुत-विद्वान बन गये // 39 // બાલ્યકાળ વીતિ જવાથી તેને કઈ રવભાવિક અપૂર્વ પ્રભાવ જાગૃત થયે. તેણે શ્રેષ્ઠ ગુરૂઓની સેવા વિગેરે કરીને તેમની પાસેથી વિદ્યાભ્યાસ કર્યો, અને થોડા જ સમયમાં તે વિદ્વાન બની ગયે. 39 लक्ष्मी न तस्याङ्गियुगं विहातुं बभूव शक्ता सुकृतोदयस्य / चक्राब्जशंखादि सुचिह्नितस्य सौभाग्यमुद्रा हि शुभप्रदेव // 40 // अर्थ-पुण्यशाली लोकचन्द्र के कि जो चक्र, कमल एवं शंख आदि के चिह्नों को धारण किये हुए थे, चरणयुग को छोड़ने के लिये लक्ष्मी समर्थ नहीं हो सकी. सच बात है जिसके पास सौभाग्य की मुद्रा है. वह उसे शुभ फल को ही देनेवाली होती है. // 40 // ચક, કમળ, અને શંખ વિગેરે ઉત્તમ ચિહ્નોને જેણે ધારણ કર્યા છે એવા અને પુણ્યશાળી એવા લેકચંદ્રના પાદયુગને છોડવા લક્ષ્મી સમર્થન થયાં. સાચી જ વાત છે કે-જેની પાસે સૌભાગ્યની મુદ્રા છે, તે એને શુભ ફળ જ દેનારી બને છે. શાળા Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 298 लोकाशाहचरिते दयावतोऽन्तःस्करणेऽजनिष्ट विशालता सद्गुणसंभृतस्य / लक्ष्मीपतेः स्यात्कथमन्यथाऽत्र तयो निवासो ह्यविरोधभावात् // 41 // अर्थ-दयालु लोकचन्द्र के हृदय में विशालताने जन्म लिया था. यह बात इसलिये सिद्ध होती है कि ये सदगुणों से भरे हुए थे और लक्ष्मी के पति थे अर्थात् सरस्वती और लक्ष्मो दोनोंने इन्हें अपना समान अधिकारी बना लिया था यदि ऐसी बात न होती-अर्थात् इनके हृदय में विशालता न होती तो ये दोनों विना किसी विरोध भावके लोकचन्द्र के पास कैसे रहतीं // 41 // દયાળુ એવા લેકચંદ્રના હૃદયમાં વિશાળતાએ જન્મ ધારણ કર્યો હતો એ વાત એ માટે સિદ્ધ થાય છે કે–તે સગુણોથી ભરપુર હતા. અને લક્ષ્મીના પતિ હતા. અર્થાત સરસ્વતી અને લક્ષ્મી એ બન્નેએ તેને પોતાને સમાન અધિકારી બનાવી લીધું હતું જો એમ ન હેત એટલે કે તેના હૃદયમાં વિશાળપણું ન હેત તો એ બને કેઈ જાતના વિરોધ વગર લોકચંદ્રની પાસે કેવી રીતે રહેત? 541 शशाङ्कवदकललाटपट्टः स मांसलस्कन्धयुगो विशालवक्षः स्थलो भारकेशकान्तमूर्धा युवाऽभून्मृगलाच्छनास्यः / / 42|| अर्थ-युवा लोकचन्द्र का ललाट अष्टमी के चन्द्रमा के जैसा था. दोनों स्कंध पुष्ट थे. वक्षःस्थल विशाल था मस्तक धुंघराले बालों से शोभित था और मुख चन्द्रमा के समान था. // 42 // * યુવાન એવા ચંદ્રનું લલાટ આઠમના ચંદ્રમા જેવું હતુ. અને ખભા પુષ્ટ હતા, છાતી વિશાળ હતી. મરતક વાંકડિયાવાળોથી સુશોભિત હતું. અને મુખ ચંદ્રમાં સરખું હતું. જરા स पुष्टगात्रो व्यवहारविज्ञः कृतोऽथ तातेन बभूव दक्षः / जनेषु विश्वस्तवचा अभृत्स निमित्त नैमित्तिककर्मनिष्ठः // 43 // - अर्थ-लोकचन्द्र का युवावस्था में शरीर पुष्ट हो गया पिता हेमचन्द्र ने इन्हें व्यावहारिक कार्यों का जानकार बना लिया. इसलिये उन कार्यों में ये दक्ष हो गये. मनुष्यों में इनकी धाक जम गई और निमित्त नैमित्तिक कार्यों के संपादन में ये विशेष निपुण माने जाने लगे. // 43 // યુવાવસ્થામાં લેકચંદ્રનું શરીર પુષ્ટ બન્યું. પિતા હેમચંદ્ર તેને વ્યાવહારિક કામને જાણકાર કરી દીધો. તેથી તે કામમાં એ ચતુર બની ગયે. માણસમાં તેની ધાક બેસી ગઈ અને નિત્યના અને નૈમિત્તિક કામ કરવામાં તે વિશેષ પ્રવીણ મનાવા લાગે. આવા Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः विलोक्य तं यौवनशालिनं सद्वृत्त्याभिरामं नयशीलवन्तम् / भूयादयं धर्मविशेषविज्ञः पवित्रसंस्कारयुतश्च मादृक् // 44 // अर्थ-यौवन से सुशोभित, सदाचार से सुन्दर ऐसे लोक चन्द्रको नीति और शीलशाली देखकर "यह मेरा जैसा धर्मका" विशेषज्ञाता और पवित्र संस्कारवाला बने" // 44 // યૌવનથી સુશોભિત, સદાચારથી સુંદર એવા ચંદ્રને નીતિ અને શીલસંપન્ન જઇને આ મારા જે ધર્મને વિશેષ જાણકાર અને પવિત્ર સંરકાવાળ બને. 44 इत्थं स्व सद्भावनयाऽनया सौ प्रत्येककार्ये सह त व्यनैपीत् / / स्याल्लौकिकं वाथ च धार्मिकं तत्सर्वत्र पित्रैव सहास्य यानम् // 45 // अर्थ-इस प्रकार की इस अपनी सद्भावना से वे हेमचन्द्र प्रत्येक कार्य में उन्हें अपने साथ ले जाते थे. लोकचन्द्र भी चाहे वह लौकिक कार्य हो चाहे धार्मिक कार्य हो सर्वत्र पिता ही के साथ रहते. // 45 // આવા પ્રકારની એ પોતાની ભાવનાથી તે હેમચંદ્ર દરેક કાર્યોમાં તેને પિતાની સાથે રાખતા. લેકચંદ્ર પણ ચાહે તે લૌકિક કામ હોય કે ધાર્મિક કામ હોય બધે જ પિતાની સાથે રહેતા. ૪પા व्यापारकार्ये परिपूर्णरीत्या विशेषविज्ञः कुशलश्च जातः / एवं विनिश्चित्य च तातपादैःस्वकार्यभारो निहितो अमुस्मिन् // 46 // ... अर्थ-यह लोकचन्द्र अय व्यापार कार्य में परिपूर्ण रीति से विशेषविज्ञ और कुशल हो गया है ऐसा जब हैमचन्द्र को अच्छी तरह निश्चय हो गया तब उन्होंने अपने ऊपर का समस्त कार्यभार उस पर रख दिया // 46 // [ આ લેકચંદ્ર હવે વ્યાપારના કાર્યમાં સંપૂર્ણ રીતે વિશેષ જાણકાર અને કુશળ બની ગમે છે, તેમ જયારે હેમચંદ્રને સારી રીતે નિશ્ચય છે ત્યારે તેમણે પિતાના ઉપર सधणे मार तेना 52 भूटी . // 46 // यथारलिन्दस्य समीरणेन प्रसार्यते गन्धरणो हरित्सु तथैव पुंमोऽपि गुणाः सुवृत्त्या नास्त्यत्र केषामपि संविवादः // 17 // अर्थ-जिस प्रकार कमल के गन्ध गुण को हवा चारों दिशाओं में फैला देती है उसी प्रकार पुरुष के भी गुणोंको सदाचार सर्वत्र फैला देता है इस कथन में किसी की भी दो रायें नहीं हैं // 47 // Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते D જેમ કમળના ગંધગુણને હવા ચારે બાજુ ફેલાવે છે. એ જ પ્રમાણે પુરૂષના ગુણોને પણુ સદાચાર ચારે બાજુ ફેલાવે છે આ કથનમાં કેઈને પણ બે મત નથી. શા श्रीलोकचन्द्रो स्वविशिष्टकृत्या बभूव सवृत्तपवित्रचित्तः / प्रामाणिकत्वेन जनेषु मान्यः रुपातश्च साऽभूच जनप्रियोऽथ / 48 // __अर्थ-श्री लोकचन्द्र अपनी विशिष्टवृत्ति के द्वारा सदाचार से पवित्र कार्य करनेवाले बने और प्रामाणिक पुरुष रूप से वे जनता में माने जाने लगे और इसी रूप से उनकी प्रसिद्धि हुई. इस तरह वे जन प्रिय बन गये. // 48 // શ્રીલેકચંદ્ર પિતાની વિશેષ વૃત્તિથી સદાચારથી પવિત્ર કાર્ય કરવા લાગ્યા. અને પ્રામાણિક પુરૂષપણાથી તેઓ જનતામાં મનાવા લાગ્યા. અને એજ રીતે તેમની પ્રસિદ્ધિ થઈ એ રીતે તેઓ લોકપ્રિય બની ગયા. 48 तं लोकशाहेति जनप्रियत्वात नाम्ना जनो बन्धुजनो जुहाव / कालक्रमेणाभवदेष लोकाशाहाभिधानेन पुनश्च वाच्यः // 49 // अर्थ-जनता को प्रिय हो जाने के कारण स्वजन और परजन इन्हें "लोकाशाह " इस नाम से कहने लगे. पुनः जैसा जैसा समय निकलता गया लोग इन्हें लोकाशाह ऐसा कहने लग गये // 49 // લોકપ્રિય બનવાથી સ્વજને અને અન્ય જનો તેમને કાશાહ' એ નામથી જાણવા લાગ્યા, અને જેમ જેમ સમય વીતતે ગમે તેમ તેમ તેને સીલેકશાહ' એ રીતે કહેવા લાગ્યા. 49 हितं मितं चित्तहरं च सत्यं वचो ब्रुवन्नैष पवित्रचित्तः / विश्वासभूरापणिकेषु जातः कार्येषु तेषां क्रयविक्रयादौ // 50 // अर्थ-माया चार से विहीन होने के कारण पवित्र चित्तवाले ये लोकाशाह हितकारी परिमित एवं मनोहर सत्य वचन बोलते. इसलिये दुकान दारों के साथ लेन देन के व्यवहार में इनकी शाखा जम गई. // 50 // માયાચાર રહિત હોવાથી પવિત્ર ચિત્તવાળા આ લેકશાહ હિતકારી, પરિમિત, અને મનહર સત્ય વચન બોલતા તેથી વ્યાપારિમાં લેવડદેવડના વેપારમાં તેમની શાખા બંધાઈ ગઈ. પગ शनैः शनैः रत्नपरीक्षकोऽसौ बभूव तत्संगवशादपीच्यः। - तत्तज्ज्ञपुंसां ननु संगति र्हि करोति तत्तज्ज्ञनरं न चित्रम् / 51 // Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः 301 ___ अर्थ-बहुत सुन्दर शरीर वाले ये लोकाशाह धीरे 2 जौहरियों की संगति से रत्न परीक्षक भी बन गये. ठीक बात है जो जिस 2 विषय का ज्ञाता होता है उस उस की संगति से मनुष्य उस 2 विषय का ज्ञाता बन जाता है. इसमें कोई अचरज की बात नहीं है // 51 // અત્યંત રમણીય શરીરધારી આ કાશાહ ધીરે ધીરે ઝવેરીના સમાગમથી રત્નપરીક્ષક પણ બની ગયા. સાચું જ છે કે–જે કેઈ જે જે વિષયના જાણકાર હોય છે, તે તેના સમાગમથી માણસ તે તે વિષયના જાણકાર બની જાય છે, તેમાં કંઈ જ આશ્ચર્યની વાત નથી. આપના निमित्तमासाद्यहि कर्मठो ना स्वकार्थसिद्धौ न च मायतीह / निमित्तमित्रं महदस्ति पुंसां स्वार्थप्रसिद्धौ प्रथमं निदानम् / / 52 / / अर्थ-जो मनुष्य कर्मठ होता है वह निमित्त की सहायता से अपने काम को बना लेता है. उसमें वह प्रमाद पतित नहीं होता है. निमित्त अपने अभिलषित कार्य की सिद्धि में पुरुषों का एक बहुत बडा मित्र और सब से पहिला. कारण है. // 52 // જે માણસ કર્મ હોય છે, તે નિમિત્તની સહાયતાથી પિતાનું કામ બનાવી લે છે. તેમાં તે પ્રમાદી થતો નથી. નિમિત્ત એ પિતાના ઇચ્છિત કાર્યની સિદ્ધિ માટે પુરૂષોને એક ઘણે મેટ મિત્ર છે. અને સૌથી પહેલું કારણ છે. પરા ये सन्ति लोके प्रतिभा धनाढयाः प्राह्वाः स्वभावात्सरलाई चित्ताः। .' दयासनाथाः सविधे च तेषां लक्ष्मीः स्वयं याति निवासमाप्तुम् // 53 // अर्थ-इस संसार में जो प्रतिभा रूपी धन से युक्त हैं, विनम्र हैं स्व. भावसे सरल और आर्द्र चित्त वाले हैं, एवं दया से युक्त है ऐसे मनुष्यों के पास लक्ष्मी स्वयं रहने के लिये जाती हैं, // 53 // આ જગતમાં જે પ્રતિભારૂપી ધનવાળા છે, વિનમ્ર છે, સ્વભાવથી સરળ અને આદ્ર ચિત્તવાળા છે. અને દયાપરાયણ છે એવા માણસો પાસે લક્ષ્મી રહેવા આવે છે. પર तमेव लक्ष्मीरमृतं ह्यमेयं प्रपाययित्वा सुखिनं करोति / तां प्राप्य यो नैव च निजितः स्यान्मदेन पंचेन्द्रियतस्करेण // 54 // . अर्थ-उसी पुरुष को लक्ष्मी नियम से अमित अमृत पिलाकर सुखी करती है कि जो उसे पाकर मद और पंच इन्द्रिय रूप चोरों से निर्जित नहीं होता है. // 54 // Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 302 लोकाशाहचरिते એજ પુરૂષને લક્ષ્મી અવશ્ય અમૃત પીવરાવીને સુખી કરે છે, કે જે તેને પામીને મદ અને ઈંન્દ્રિરૂપી ચેરેથી જતા નથી. પઝા यः संपदामायतनं च भूत्वा मदेन बन्धूश्च तिरस्करोति / त एव लब्ध्वावसरास्तमेनं निपातयन्तीह गदाश्च रूग्णम् // 55 // अर्थ- जो संपत्ति शाली होकर अहंकार वश अपने बन्धुजनों का तिरस्कार करता है. वे ही बन्धु समय पाकर रोग जिस प्रकार रोगी को नष्ट कर देते हैं उसी प्रकार उसे नष्ट कर देते हैं // 55 // જેઓ સંપત્તિવાળા થઈને અહંકારને વશ થઈને પિતાના બંધુ વર્ગને તિરરકાર કરે છે, એજ બધુ સમય આવેથી રોગ જેમ રોગીને નાશ કરે છે, એજ રીતે એને નાશ કરે છે. આપપા गुणाधिकानां धुरि वर्तमानः स लोकशाहः खलु मत्सरेण / दोषैः कृतज्ञो न च पस्पृशेऽथ गुणैश्चतैस्तै विनिवार्यमाणैः // 56 // अर्थ-गुणशाली मनुष्यों के अग्रभाग में वर्तमान वे. लोकाशाह जो दुर्गुणों से स्पृष्ट नहीं हुए उसका कारण यह था कि गुणों ने उन दोषों को भगा दिया था. इसलिये वे उनसे इर्ष्या करने लगे थे // 56 // ગુણવાનમાં અગ્રેસર એવા એ લેકશાહ દુર્ગણોને વશ ન થયાં તેનું કારણ એ હતું કે-ગુણોએ એ દોષને ભગાડી મૂક્યા હતા. તેથી તે એના પ્રત્યે ઈર્ષા કરતા હતા. પ૬ लक्ष्मीपति नैव बमार गर्व स्वप्नेऽपि सद्भावभरावनम्रः / सत्यं धरायां धरणीध्वजा ये विनश्वराया न मदं भजन्ते // 57 // अर्थ-लक्ष्मीपति लोकाशाह ने जो स्वप्न में भी अभिमान धारण नहीं किया उस का एक मात्र कारण यही था कि वे सद्भावों के भार से झुके हुए थे. सच बात है जो जन पृथ्वी पर पृथ्वी की ध्वजा रूप होते हैं वे क्षणविनश्वर लक्ष्मी का मद नहीं किया करते हैं // 57 // લક્ષ્મીવાન લેકશાહે સ્વપ્નમાં પણ અભિમાન કર્યું ન હતું તેનું એક માત્ર કારણ એજ હતું કે તેઓ સભાને ભારથી નમેલા હતા. સાચું જ છે કે જેમનુષ્ય પૃથ્વી પર તેની ધજારૂપ હોય છે, તેઓ ક્ષણમાત્રમાં નષ્ટ થવા વાળી લક્ષ્મીને મદ કરતા નથી. પછી कर्तव्यकर्मण्यथ लब्धकीर्तिः पितुर्निदेशाद् गतवान सिरोहीम् / व्यापारपण्यानयनाय लोकः स्वस्मात्पुरात् तद्वणिजामभीष्टः // 50 // Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः अर्थ-अपने करने योग्य कार्य में-व्यापार में जिसने कीर्ति संपादित 'करली है ऐसे वे लोकाशाह पिता की आज्ञा प्राप्तकर दुकानदारी के माल को लेने के लिये अपने ग्राम से सिरोही शहर गये. // 58 // પિતાના કરવા લાયક કાર્યોમાં જેમણે કીર્તિ મેળવી લીધી છે, એવા એ લેકશાહ પિતાની આજ્ઞા મેળવીને દુકાનદારીને સામાન લેવા માટે પિતાના ગામેથી શિરેહી શહેરમાં ગયા. 58 युग्मम्अथैकदा रत्नपरीक्षकस्य हट्टास्थिते रत्नपरीक्षमाणम् / तमापणे वीक्ष्य वणिक प्रधानस्तत्रत्यवासी श्री ओधवाख्यः // 59 // श्रेष्ठी स्वचित्ते व्यमृशत्तदानीं गुणाश्रयेणाथ न केवलं - / पक्षो भृशं हर्पित एव किन्तु चित्तं नितान्तं च ममाप्यनेन // 60 // ___ अर्थ-एक दिन की बात है कि जब वे बाजार में स्थित किसी जौहरी की दुकान में रत्न की परीक्षा कर रहे थे तो उन्हें इस स्थिति में वहीं के एक श्रीमान् शेठ ओंधवजीने देखा और देखकर उन्होंने अपने चित्त में विचार किया कि यह मार तो बडा गुणशाली है. यह केवल अपने पक्षको ही आनन्दित नहीं करता है किन्तु मेरे चित्त को भी यह आनन्दित कर रहा है. // 59-60 // એક દિવસે જ્યારે તેઓ બજારમાં કોઈ ઝવેરીની દુકાનમાં રત્નની પરીક્ષા કરતા હતા, ત્યારે તેમને એ સ્થિતિમાં ત્યાંના જ એક શ્રીમાન શેઠ ઓધવજીએ જોયા અને જોઈને તેણે પિતાના મનમાં વિચાર કર્યો કે આ કુમાર ઘણો ગુણવાન છે, એ કેવળ પિતાના પક્ષવાળાને જ આનંદિત કરે છે તેમ નથી પણ મારા ચિત્તને પણ આનંદિત કરે છે. 59-6 द्विषन्नपि स्याद् यदि नूनमस्य विलोक्य रूपं सफले स्वनेत्र। मन्येत, मन्येऽस्मिन् नन्दने मे मनो न तृप्ति समुपैत्यतृप्तम् // 61 // अर्थ-यदि कोई इसका शत्रु भी होगा तो वह भी इसके रूप को देखकर अपने नेत्रों को सफल मानेगा. ऐसा मैं मानता हूं. न जाने इस नन्दन में-कुमार में अतृप्त हुआ मेरा मन तृप्तिको क्यों नहीं प्राप्त कर रहा है. // 61 // કદાચ કોઈ આને શત્રુ પણ હશે તે તે પણ આના સ્વરૂપને જોઈને પિતાના નેત્રને સફળ માને તેમ હું માનું છું. સમજ નથી પડતી કે કુમારમાં અતૃપ્ત રહેલ મારું મન પ્ત કેમ થતું નથી ? 6 1. Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 304 लोकाशाहचरिते प्रपश्यतो मे भवति प्रमोदो महानियान्यस्य महात्मनोऽयम् / गृहं कुलं वाङ्कमलं करोति पुण्यात्मनस्तस्य कियान् भवेत्सः // 62 // अर्थ-जब इसे देखकर मुझे इतना महान् हर्ष हो रहा है तब जिस भाग्यशाली के घर को, या कुल को अथवा उसकी गोदीको इसने अलङ्कृत किया है उस पुण्यशाली को कितना आनंद नहीं होता होगा-अर्थात् उसके आनन्द का तो कहना ही क्या है. // 62 // - જ્યારે આને જોઈને મને આટલે બધે હર્ષ થઈ રહ્યો છે, ત્યારે જે ભાગ્યશાળીને ઘરને, અગર કુળને કે તેના ખોળાને આણે શોભાવ્યા છે એ પુણ્યવાનને કેટલો બધો આનંદ થતો હશે ? અર્થાત્ તેના આનંદની તે વાત જ શી કરવી. 62 स एव धन्यः सफलं च जन्म तस्यैव यस्यास्ति कुपार एषः / महानुभावो धुरि वर्तमानः सुदारकाणां बहु रोचते मे // 3 // अर्थ-यह कुमार कि जो महा प्रभावशाली है और अच्छे पुत्रों के बीच में भी जो श्रेष्ठ है जिसका है वही धन्य है और उसोका जन्म सफल है. यह मुझे बहुत सुहावना लग रहा है. // 63 // . આ કુમાર કે જે મહાપ્રભાવવાળો છે, અને સુપુત્રોમાં પણ જે ઉત્તમ છે, તે જે પુત્ર હોય તેને ધન્ય છે, અને તેને જ જન્મ સફળ છે, આ મને ઘણું જ સોહામણું લાગે છે. 63 सुदर्शना मे तनुजाऽधुना सा जाता वयस्का च विवाहयोग्या / अयं कुमारोऽपि तथा नयोः स्यादुद्राहबंधश्च गृहे कृतार्थे / 64 // __ अर्थ-मेरी पुत्री कि जिसका नाम सुदर्शना है अब वयस्क हो चुकी है और विवाह योग्य हो गई है. यह कुमार भी ऐसा ही है अतः इन दोनों का विवाह सम्बन्ध हों जाय तो दोनों घरों की शोभा है // 64 // મારી પુત્રી કે જેનું નામ સુદર્શન છે, તે અત્યારે ઉમરલાયક થઈ છે, અને લગ્ન યોગ્ય છે. આ કુમાર પણ લાયક જ છે તેથી આ બન્નેને વિવાહ સંબંધ થાય તે બન્ને ઘરની શોભારૂપ છે. 64 गत्रिर्यथा चन्द्रमसाच चन्द्रस्तयाऽर्यमा स्वप्रभयाऽमुनाऽसौ / विराजते राजतु योग एषोऽनयोर्मियः काञ्चनवज्रयोर्वा // 65 // अर्थ-चन्द्रमा से रात्रि और रात्रि से चन्द्रमा अपनी प्रभा से सूर्य और सूर्य से प्रभा जिस प्रकार शोभित होते हैं उसी प्रकार काश्चन और हीरे की तरह इन दोनोंका विवाह बन्धन भी सुशोभित होगा // 65 // Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः 305 ચંદ્રમાથી રાત્રી અને રાત્રીથી ચંદ્રમા, પિતાની પ્રભાથી સૂર્ય અને સૂર્યથી પ્રભા જેમ પરસ્પરને શોભાવે છે, એ જ પ્રમાણે તેનું અને હીરાની માફક આ બન્નેને વિવાહ સંબંધ પણ શોભાસ્પદ થશે. 6 પા सुदर्शना सार्थकनामधेया भवेदनेनैव समं विवाहात् / यतो हि शस्तं खलु वस्तु शस्ते तद्योग्यपात्रे क्षिप्तं विराजते // 66 // ___ अर्थ- सुदर्शना सार्थक नामवाली तभी हो सकती है कि जब उसका वैवाहिक सम्बन्ध इस कुमार के साथ हो जाय. क्योंकि अच्छी वस्तु तभी अच्छी लंगती है कि जब वह अपने योग्य पात्र में धरी जाती है. // 66 // સુદર્શન એ સાર્થક નામવાળી ત્યારે જ કહી શકાય કે- જ્યારે તેનો વિવાહ સંબંધ આ કુમાર સાથે થઈ જાય કેમકે સારી વસ્તુ ત્યારે જ સારી લાગે કે જ્યારે તે પિતાને याज्य पात्र मा 271 ले।य. // 66 // सौभाग्यमेतन्मम दारिकाया संप्रार्थितो मंगलरूप एषः / वरो मयाप्तः फलितोक्तिरेषा गन्तव्यदेवो गृह मागतोऽद्य / 67 // __ अर्थ-यह मेरी पुत्री का ही सौभाग्य है जो मन चाहा मंगल रूप यह वर मैंने प्राप्त कर लिया है. यह बात तो ऐसी हुई कि जिस देव के घर जाना चाहिये था. वह देव घर पर आज ही आ गया है. // 67 // - આ મારી પુત્રીનું જ ભાગ્ય છે કે જે મનગમતો મંગળરૂપ આ વર મેં મેળવી લીધે છે. આ વાત તે એવી બની કે જે દેવને ઘેર જવું જોઈએ એ દેવ જ મારે ઘેર આવી ગયેલ છે. છા इत्थं सुनिश्चित्य शुभे मुहूर्ते बन्धून् समादाय महोत्सवेन। गतोऽथ हैमस्य सुवस्त्रवेषो गृहं शुभायां च तिथौ सयानः // 68|| - अर्थ-इस प्रकार निश्चय करके ओधवजी अपने बन्धुओं को साथ लेकर बडे उत्सव के साथ वेशभूषा से सुसज्जित होकर और सवारी में बैठ कर हैमचन्द्रजी के घर पहूंचे // 68 / આ પ્રમાણે વિચાર કરીને ઓધવજી પોતાના બન્ધવર્ગને સાથે લઇને ઘણા જ ઉત્સવપૂર્વક વેષભૂષાથી સુસજજીત થઈને અને વાહનમાં બેસીને હેમચંદ્રને ઘેર ગયા. 68 * समागतांस्तानथ वीक्ष्य हैमो मोदप्रकर्षाञ्चितगात्रयष्टिः / सवी व्यवस्थामुचितां विधाय प्रपच्छ तेषां कुशलं सुवृत्तम् // 67 / / 2. Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 306 लोकाशचाहरिते ___ अर्थ-महिमानो को आया हुआ देखकर हैमचन्द्र का शरीर हर्ष के मारे फूल गया. उसी समय उन्हों ने उनकी पूरी 2 उचित व्यवस्था करदी. बाद में फिर उन्हों ने उनकी कुशलता के समाचार पूछे. // 69 // મહેમાનોને આવેલા જોઇને હેમચંદ્ર હર્ષાવેશથી ફૂલી ગયા. અને એજ સમયે તેમણે તેઓ માટે સુંદર વ્યવસ્થા કરી અને પછી તેમના કુશળ સમાચાર પૂછ્યા. 69 पश्चाच संफुलमुखारविन्दः प्रोवाच युष्माभिरयं सनाथः / कृतः, कृतं मे सदनं पवित्रं भवत्प्रसादं प्रतिनन्य नौमि // 70 // अर्थ-इसके बाद प्रफुल्लित मुख कमल वाले हैमचन्द्र ने उनसे कहां-कि आपने सुझे सनाथ किया है और मेरे घर को पवित्र किया है. अतः मैं आपके अनुग्रह का अभिनन्दन करता हूं और उसे नमस्कार करता हूं // 7 // તે પછી પ્રસન્ન મુખવાળા હેમચંદ્રે તેઓને કહ્યું કે આજે આપે મને સનાથ બનાવ્યો છે, અને મારા ઘરને પાવન કરેલ છે. તેથી તમારી આ કૃપાને હું અભિનંદુછું અને આપને નમરકાર કરું છું. 70 पुण्येन लब्धोऽथ मयैष योगो युष्माकमेतद् यद् दर्शनं मे / जातं कियद्वच्मि कृपामिमां वः आज्ञां प्रदायैव च मां ग्रहाण // 71 // अर्थ-यह अवसर मुझे बडे पुण्य के उदय से प्राप्त हुआ है जो आप सबके मुझे दर्शन हुए हैं. आप को उस कृपा के लिये जितना कहा जाय वह सब थोडा है. अतः आज्ञा प्रदान कर मुझे अनुगृहीत कीजिये. // 71 // આ અવસર મને ઘણા જ પુણ્યદયથી પ્રાપ્ત થયેલ છે. કે જેથી આપ સૌના મને દર્શન થયા છે. આપની આ કૃપા નિમિત્તે જે કંઈ કહેવામાં આવે એ તમામ ડું જ છે. તેથી જે કંઈ ઉચિત કારણ હેય તે કહી મને અનુયહીત કરો. 71 युष्माकमेतत्खलु दर्शनं मे पुण्योदय वक्ति यतोऽल्पपुण्यैः / / न लभ्यते भाग्यवतां जनानां जनैः कृपादृष्टिरयत्नसाध्या // 72 // अर्थ-आपका यह दर्शन निश्चय से मेरे पुण्य के उदय को कह रहा है क्यों कि अल्प पुण्य वालों के भाग्यशाली मनुष्यों की अयत्न साध्य कृपादृष्टि प्राप्त नहीं होती है. // 72 // આપનું આ દર્શન નિશ્ચય પૂર્વક મારા પુણ્યના ઉદયને જ કહી રહેલ છે. કેમકે ઓછી પુષ્યવાળાને ભાગ્યશાળી માણસોની પ્રયત્ન વિના જ કૃપાદૃષ્ટિ પ્રાપ્ત થતી નથી. છરા Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः 307 बदाज्ञयाऽऽस्मानमहं कृतार्थ कर्तुं समिच्छामि कथय किमस्ति / -कृत्यं निशम्येति स ओधव स्वं मनोगत वृत्तमुवाच चेस्थम् // 73 // अर्थ-मैं आपकी आज्ञा से अपने आपको कृतार्थ करना चाहता हूं-अतः कहिये मेरे योग्य क्या कार्य है. इस प्रकार हैमचन्द्र की बात सुनकर ओधव जी ने अपने मनोगत भाव को इस प्रकार प्रकट किया.॥७३॥ હું તમારી આજ્ઞાથી મને પિતાને કૃતાર્થ કરવા ઈચ્છું છું. તેથી મારા સરખું શું કામ છે? તે કહો, આ રીતે હેમચંદ્રના કથનને સાંભળીને ઓધવજીએ પિતાના મનમાં રહેલ ભાવે આ પ્રમાણે નિવેદિત કર્યા. 73 नामानुरूपा नवयौवनाढ्या चैत्राश्रिता चन्द्रकलेव दृष्टुः / मोदं वितन्वन्ति सुदर्शनाख्या कन्याऽस्ति भद्राकृति भव्यरूपा // 4 // __ अर्थ-चैत्रमास की चन्द्र कला के समान दृष्टाजन को आनन्द प्रदान करने वाली सुदर्शना नाम को मेरी एक कन्या है. वह यथा नाम तथा-गुणवाली है. वह जवान हो चुकी है. उसकी आकृति भद्र है और रूप भी उसका भव्य है // 74 // ચિત્ર માસની ચંદ્રકળા સમાન દર્શકોને આનંદ આપવાવાળી સુદર્શના નામની મારી એક કન્યા છે, તે નામ પ્રમાણેના ગુણવાળી છે. તે ઉમરલાયક થઈ છે, તેને આકાર કલ્યાણકારી છે. અને તે સુરૂપ છે. હજા गार्हस्थ्यकार्ये चतुराऽथ पट्वी सामायिकादौ मुनिदानकृत्ये / निरालसा सा सहधर्मिणीस्यात् सुतस्य तेऽयं च मनोस्थो मे // 75 // . अर्थ-मेरी ऐसी भावना है कि गृहस्थ के कार्य में चतुर सामायिक आदि सत्कृत्य में पटु एवं मुनिदान में आलस्य विहीन वह कन्या आप के पुत्र की सहधर्मिणी हो // 7 // મારી એવી ભાવના છે કે–ગૃહરીના કાર્યમાં ચતુર સામાયિક વિગેરે સત્કામાં પ્રવીણ અને મુનિ દાનમાં ઉદ્યમશીલ આ કન્યા આપના પુત્રની સહ ધર્મિણી થાવ. ૭પ धन्योऽस्म्यहं जीवितमद्यजातं श्लाध्यं च यत्स्नेहभरालसेन / त्वया सुदृष्टया ननु वीक्षितोऽहं धन्या त्वदीया च विनम्रतैषा // 76 / / अर्थ-मै अपने आपको धन्य मानता हूं एवं अपने जीवन को प्रशंसनीय मानता हूं जो आपने मुझे बडे ही स्नेह पूर्वक अच्छी दृष्टि से देखा है. आप की यह विनम्रता धन्य है. // 76 // Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 308 लोकाशाहचरिते હું મને પિતાને ધન્ય માનું છું. અને મારા જીવનને સફળ માનું છું કે આપે મને ઘણા જ સ્નેહપૂર્વક સારી દષ્ટિથી જોયેલ છે. તમારા આ વિનયભાવને ધન્ય છે. પાછા भवद्विधाः सत्पुरुषा न लभ्या भवन्ति सर्वत्र तदर्थिनां वै / वने वने चन्दनपादपा नो गजे गजे नैवच मौक्तिकश्रीः / 77 // ___ अर्थ-जो सत्पुरुषों को प्राप्त करने के अभिलाषी जन हैं उन्हें आप जैसे सत्पुरुष सर्वत्र प्राप्त नहीं होते हैं. क्यों कि नतो प्रत्येक वन में चन्दन के वृक्ष होते हैं और न प्रत्येक हाथी में मुक्ता श्री होती है. // 77 // જેઓ પુરૂષને પ્રાપ્ત કરવાની ઇચ્છાવાળા છે, તેમને તમારા જેવા સત્પરૂષ બધે મળતા નથી. કેમકે દરેક વનમાં ચંદનવૃક્ષો હોતા નથી. તેમજ દરેક હાથીમાં સુંદર મેતી હેતા નથી. આ૭ળા अतो भवान प्रयतु प्रशस्तं मनोरथ मे सविधे स्थितस्य / कन्यां कुमाराय विधाय वश्यां याश्चाममोघां दयया करोतु // 78 // अर्थ-अतः आपके निकट स्थित मेरे प्रशस्त मनोरथ की आप पूर्ति करें और कुमार के लिये कन्या को रोक कर मेरी याचना को कृपा कर सफल करें॥७८॥ એથી આપને નિવેદન કરેલ મારા ઉત્તમ એવા મનોરથની આપ પૂર્તિ કરો અને કુમાર માટે કન્યાને સ્વીકાર કરીને મારી યાચનાને આપ સ્વીકાર કરીને તેને સફળ બનાવે. II78 प्रसीद मे त्वं युररीकुरुष्व स्पष्टाक्षरैः प्रार्थनयाऽनयोक्तम्। सद्भावनामेष भवेत् कुमारः कन्यापतिः सत्पतिलक्षणादयः // 79 // अर्थ-आप मुझ पर प्रसन्न हों और स्पष्ट अक्षरों द्वारा इस प्रार्थना के रूप में अभिव्यक्त हुई मेरी सद्भावना को आप स्वीकार करें. बश कहने का तात्पर्य यही है कि आप का यह कुमार जो सत्पति के लक्षणों से भर पूर है मेरी कन्या का पति बने. // 79 // આપ મારા પર પ્રસન્ન ચિત્તવાળા થઈને સ્પષ્ટ કથન દ્વારા આ પ્રાર્થનરૂપે પ્રદર્શિત કરેલ મારી સંભાવનાને આપ સ્વીકાર કરે. મારા કહેવાને ભાવ એ જ છે કે આપને આ કુમાર કે જે સન્મતિના લક્ષણેથી સમ્પન્ન છે, તે મારી કન્યાને વામી બને. 79 इत्थं गदित्वा विरते च तस्मिन् हैमोऽवदत्तत्र विमुच्यते भोः / श्रेष्ठिस्त्वदीया विभुता क्व मेऽल्पा श्रीः स्यात् कथं नौ व्यवहार एषः // 8 // Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः अर्थ-इस प्रकार कह कर और बाद में चुप हो जाने पर हैमचन्द्रने ओध. वजी से कहा हे श्रेष्ठिन् ! कहां आपकी प्रभुता और कहां मेरी छोटीसी श्री. हम दोनों का यह विवाह सम्बधरूप व्यवहार कैसे हो सकता है ? // 8 // આ પ્રમાણે કહીને મૌન રહેલા ઓધવજીને હેમચંદ્રે કહ્યું કે શેઠિયા ! ક્યાં આપની મેટાઈ અને કયા મારી આ નાની એવી શ્રી આપણા બેઉને આ વૈવાહિક સંબંધ કેવી રીતે થઈ શકે ? u8 क्व राजमान्यो बहुशक्तिशाली पुराधिवासी द्रविणाधिपस्त्वम् / क्व ग्रामवासी सहजाल्पशक्ति वणिग्जनोऽयं कथमावयोः सः / / 81 // अर्थ-राज्यमान बहु शक्तिशाली नगर निवासी और धनपति आप कहां और ग्रामवासी स्वाभाविक अल्पशक्तियुक्त साधारण यह वणिक् जन कहां हमारा और ओपका सम्बन्ध कैसे हो सकता है ? // 8 // રાજમાન્ય અધિક શક્તિસંપન્ન નગરનિવાસી અને ધનવાન એવા આપ કયાં અને સાધારણ ગામમાં રહેનાર અલ્પશક્તિવાળા સાધારણ અમે કયાં તેથી આપનો અને અમારો સંબંધ કેવી રીતે સંભવી શકે ? 81 समानपक्षे खलु जायमानः सबंधबंधो दृढतामुपैति / .. न कापि शङ्कोद्भवति प्रसङ्गान्न रङ्गभंगोऽपि न रागभङ्गः // 82 // __ अर्थ-समान पक्षमें जो सम्बन्धरूप बंध होता है वह दृढ-स्थिर होता है उसमें किसी प्रसङ्ग वश किसी को भी किसी प्रकार की शङ्का नहीं होती * है। यहां न रङ्ग में भङ्ग होता है और न राग में भंग होता है. // 82 // સમાન પક્ષવાળામાં જે સંબંધ જોડાય છે તે મજબૂત અને સ્થાયિ નિવડે છે. તેમાં ઈ પ્રસંગોપાત કોઈને કોઈ પણ પ્રકારની શંકા રહેતી નથી. ત્યાં રંગમાંભંગ થતો નથી કે રાગમાં વિરાગપણું આવતું નથી. ૮રા समानपक्षे व्यवहार एष संशोभते नीतिविदामभीष्टः। तद्भिन्नपक्षे विषमस्थितिः स्यात् सम्बन्धिनः शोक विरोधहेतुः // 3 // अर्थ-जहां दोनों पक्ष-कन्या पक्ष और वरपक्ष-बराबर के होते हैं वहां किया गया व्यवहार-विवाहरूप सम्बन्ध शोभित होता है. यही बात नीतिज्ञों को अभीष्ट है. इससे भिन्न पक्ष में-कन्यापक्ष अथवा वर पक्ष में असमानता में सम्बन्धी की-कन्या अथवा वरपक्षवाले की विषम स्थिति हो जाती है और वह उसके शोक या विरोध की कारण बन जाती है. // 83 // Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 310 लोकाशाहचरिते જ્યાં કન્યાપક્ષ અને વરપક્ષ સમાન હોય ત્યાં કરવામાં આવેલ વ્યવહાર શોભાસ્પદ બને છે. એજ વાત નીતિને જાણનારાઓ ઈષ્ટ માને છે. આનાથી ભિન્ન અસમાનતાવાળાએમાં સંબંધ કરનારાઓની સ્થિતિ વિષમ બની જાય છે. અને તેથી તેમને શક કે વિરોધના કારણરૂપ બની જાય છે. 83 दुग्धं मनो मौक्तिकमक्षतं सत् मनोरथं साधयति प्रसिद्धम् / निमित्तमासाद्य च विकृत चेन पूर्ववद्राग विवर्धकं स्यात् // 84 / / अर्थ-दूध, मन और मोती ये जबतक अक्षत रहते हैं. दूध जबतक फटता नहीं है, मन आपस में बिगडता नहीं है और मोती में किसी भी प्रकार का विकार आता नहीं है तबतक ये मनुष्य के मनोरथ को सिद्ध करते हैं-दुग्ध पीनेवाले के शरीर का पोषण करता है. आपस में विश्वस्त हुआ मन एक दूसरे के कार्य साधन में सहायक होता है, मोती जोहरी की अपनी पूरी कीमत द्वारा धारणा आदि को पुष्ट करता है. इस तरह ये सब अपनी 2 अविकृत अवस्था-स्वाभाविक स्थिति में प्राणी के मनोरथ को साधते हैं यह बात प्रसिद्ध है, परन्तु जब ये किसी निमित्त को लेकर विकृत हो जाते हैं.-दूध फट जाता है, मन अविश्वस्त हो जाता है, मोती विकार युक्त हो जाता है तो ये ही पूर्वकी तरह-अक्षत अवस्था की तरह मनुष्यों में अपने प्रति रागवर्धक-नहीं होते है. // 84 // દૂધ, મન અને ખેતી એ જ્યાં સુધી અવિકૃત રહે છે, એટલે કે દૂધ ફાટિ ન જાય, મન પરપર અવિશ્વસ્ત ન બને મેતીમાં જ્યાં સુધી કોઈ જાતને વિકાર ન આવે ત્યાં સુધી તે માણસના મનોરથો સિદ્ધ કરે છે. દૂધ પીનારને પોષણ આપે છે. પરંપર વિશ્વાસુ મન એકબીજાના કાર્ય સાધનમાં સહાયક થાય છે. મોતી ઝવેરીને પિતાની પૂરી કિસ્મત દ્વારા ધારણા વિગેરેને પુષ્ટ બનાવે છે. આ રીતે બધા પોતપોતાની વિકાર વિનાની અવસ્થામાં પ્રાણીના મને સફળ બનાવે છે. તે વાત પ્રસિદ્ધ છે. પણ જ્યારે તે કેઈ કારણસર વિકૃત બની જાય અર્થાત દૂધ ફાટી જાય, મન અવિશ્વાસુ બની જાય, મોતી વિકારવાળું થઈ જાય ત્યારે તે પહેલાની જેમ મનુષ્યમાં પોતાના પ્રતિ રાગને વધારનાર થતા નથી. એટલે કે શંકાશીલ બનાવી દે છે. 84 किमत्र तावत्मवतोदितेऽस्मिन् वे-भवानेव मम प्रमाणम् / सत्यं महान्तो ह्यपरं महान्तं जानन्ति तेषां प्रकृतिः समैव / / 85 // अर्थ-हैमचन्द्रने ओधवजी सेठ से कहा-आपने जो मेरे समक्ष प्रस्ताव प्रस्तुत किया है उस सम्बन्ध में मैं आप से क्या कहूं. मैं तो आपको ही Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः इस विषय में प्रमाणभूत मानता हूँ. यह बात सच है कि जो महान होते हैं वे दूसरों को भी महान् ही माना करते हैं. क्योंकि उनकी प्रकृति में विषमता-छोटे बडे का भाव ही नहीं होता है. वह तो सबके प्रति समरूप ही रहती हैं // 45 // હેમચંદ્ર ઓધવજી શેઠને કહ્યું–આપે જે મારી સામે ઠરાવ રજુ કર્યો છે, એ બાબતમાં હું આપને શું કહું? હું આ વિષયમાં આપને જ પ્રમાણિક કરૂં છું એ વાત સાચી જ છે કે જેઓ મહાન હોય છે, તેઓ અન્યને પણ મહાન જ માનતા હોય છે, કેમકે તેમના સ્વભાવમાં વિષમ પણું અર્થાત્ નાના-મોટાપણાને ભાવ જ હેત નથી. તે તે સૌને સમાનરૂપે જ જુવે છે. આપા अहो ! जनानां महतां विशिष्टा रीति नयते स्वमुखेन किञ्चित् / सत्त्वेऽपि सर्वाभ्युदये वदन्ति स्वगौखाख्यापकशब्दमात्रम् // 86 // अर्थ-महान् पुरुषों की यही एक विशिष्ट रीति होती है कि वे अपने मुख से सब प्रकार का अभ्युदय होने पर भी अपने गौरव को प्रकट करनेवाले किसी भी शब्द का प्रयोग नहीं करते हैं. // 86 // મહાન પુરૂષની એજ એક વિશેષ રીત હોય છે, કે તેઓ પેતાના મુખેથી દરેક પ્રકારને અભ્યદય હોવા છતાં પણ પિતાના ગૌરવને દેખાડનાર કોઈ પણ શબ્દને પ્રગ २ता नथी. // 86 // परं च तेषां भवति प्रवृत्ति यदीदृशी ज्ञायत एव लोके / अवाग विसंगच तयैव सम्यक महत्त्वमेषां सुजनैश्च सर्वैः // 7 // अर्थ-परन्तु-उनकी प्रवृत्ति ऐसी होती है कि जिससे विना कहे ही लोक में अच्छी तरह अच्छे. मनुष्यों द्वारा उनका महत्व जान लिया जाता है. // 87 // પરંતુ તેમની પ્રવૃત્તિ એવી હોય છે કે-જેથી કહ્યા વિના જ લેકમાં સારી રીતે સજજનો દ્વારા તેમનું મેટ પણે જાણી લેવાય છે. પાછલા अहो ! कियानस्ति महान् जनोऽयं ऐश्वर्यवर्योऽपि निरस्तगर्वः / गृहस्थमार्गे निरतोऽपि भाति विरक्तवत्तत्र वसन्नसौ मे / / 88 // अर्थ-ओह ! यह कितना महान् जन है. जो ऐश्वर्य से संपन्न होते हुए भी अहंकार से रहित है. यद्यपि यह गृहस्थ मार्ग में निरत हैं फिर Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते भी मुझे तो ऐसा लगता है कि यह वहां विरक्त की तरह ही रहता है. // 8 // અરે ! આ કેટલે મહાન પુરૂષ છે કે જે ઐશ્વર્ય યુક્ત હોવા છતાં પણ અહંકાર વિનાને છે. જોકે આ ગૃહસ્થમામાં રત રહ્યો છે. તે પણ મને તે એવું લાગે છે કે-તે ત્યાં વિરકતની જેમ જ રહે છે. i88 युग्मम्-- सौहार्दसंपूरित वाग्विलासौ तौ तत्र पुर्याच विशिष्ट शोभौ / स्वबन्धुवृन्दैखि देववृन्दैवतौ किमेतौ हरिखाहनी द्वौ // 89 // अत्रत्यलक्ष्मीमवलोकितुं स्वस्वर्गात्समुत्तीर्य समागतौ वै / निरीक्ष्य तद् भाषणसक्तचित्तो लोकस्तदित्थं व्यमृशत्तदानीम् // 90 // अर्थ-लोकचन्द्र ने जब इन दोनों को बड़े प्यार से परस्पर में बातचीत करते हुए देखा तो उन्हों ने उस समय इस प्रकार विचार किया विशिष्ट शोभाशाली क्या ये दोनों यहां की श्री देखने के लिये स्वर्ग से उतर कर आये हुए दो इन्द्र हैं जो देवों के जैसे अपने 2 बन्धुवृन्द से घिरे हुए हैं // 89-90 // લેકચંદ્ર આ બન્નેને ઘણા સ્નેહથી પરસ્પર વાર્તાલાપ કરતા જોયા ત્યારે તેણે એ સમયે એમ વિચાર્યું કે-વિશેષ શોભા–સંપન્ન આ બન્ને અહીંની શોભા નિરખવા માટે સ્વર્ગથી ઉતરીને આવેલ બે ઈદ્રો છે? જેવો દેવોની જેમ પોતપોતાના બન્ધવર્ગથી ઘેરાયેલ છે. 89-901 प्रस्तावितां तां च तयो विचारधारां निशम्य व्यमृशत्तदानीम् / स लोकशाहो मम बन्धनाय विवाह दंभाद्रचयंति जालम् / / 91 // अर्थ-प्रस्तावित उन दोनों की विचार धारा को सुनकर लोकाशाह ने उस समय विचार किया कि ये सब मुझे बन्धन में डालने के लिये विवाह के बहाने से जाल की रचना कर रहे हैं. // 11 // ઉપરોક્ત એ બન્નેની વિચારસરણીને સાંભળીને કાશાહે વિચાર્યું કે–આ બધું મને બંધનમાં નાખવા માટે મારા વિવાહના બહાનાથી જાળની રચના કરાઈ રહી છે. 91 वैवाहिक जीवनमत्र केषां द्वन्द्वेन हीनं ह्यभवज्जनानाम् / तथापि मूढा विषयाभिलाषा तत्रैव धावन्ति न तृप्तिभाजः // 92 // Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः ___ अर्थ-किन प्राणियों का वैवाहिक जीवन यहां कलह शोक आदि से रहित हुआ है अर्थात् किसी का नहीं. तथापि विषयाभिलाषा वाले मूर्ख प्राणी उसी ओर दौडते हैं और तृप्ति को प्राप्त नहीं करते हैं // 92 // કયા પ્રાણિયેનું વૈવાહિક જીવન અહીં કલહ શેક વિગેરેથી રહિત થયેલ છે? અર્થાત કેઇનું જ નહીં. તો પણ વિધ્યાભિલાષાવાળા મૂર્ણ પ્રાણી એજ તરફડે છે, પરંતુ તેમને તૃપ્તિ મળતી નથી. ૧૯રા युग्मम्पिपासया व्याकुलिनों यथैणः मरीचिकां धावति नीरबुद्धया। तथापि नाप्नोति जलं स तत्र भ्रमभ्रमन्मृत्युमुपैति तदत् / / 93 // जीवोऽप्ययं सौख्यसमाप्तुकामः पंचेन्द्रियार्थेषु निमग्नबुद्धिः / सुखेच्च्या तानथ सेवते नो प्राप्नोति तदुःखमुपैति नूनम् // 94 // ___ अर्थ-जिस प्रकार प्यास आकुलित हुआ मृग जल की बुद्धि से मरीचिका की तरफ दौडता है पर वह वहां जल नहीं पाता है. केवल इधर उधर चक्कर काट 2 कर मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, उसी प्रकार यह जीव भी सुख प्राप्त करने का अभिलाषी होकर पांचों इन्द्रियों के विषयों में अपने ज्ञान को निमग्न कर देता है-अर्थात् इन विषयों के सेवन से मुझे सुख प्राप्त होगा इस आशा से उनका सेवन करता है. परन्तु इसे वहां सुख नहीं मिलता है केवल दुःख ही मिलता है. // 93-94 // જેમ તરસથી પીડાયેલ મૃગ જલ સમજીને તડકા તરફ દોડે છે, પણ ત્યાં તેને જળ પળતું નથી કેવળ આમતેમ આંટાફેરા મારીને મરણને શરણ થાય છે. એ જ પ્રમાણે આ જીત પણ સુખ મેળવવાને ઇચ્છીને પાંચે ઈદ્રિયના વિષયમાં પોતાના જ્ઞાનને ડુબાડી દે છે અર્થાત આ વિષયેના સેવનથી મને સુખ મળે છે એવી આશાથી તેનું સેવન કરે છે, ५१तु त्यां सु५ मा नथी 11 // 5 // भणे छ. // 63-64 // शनैः शनैस्तद्विषयैर्वराकः प्रवंचितोऽसौ च गतस्थितिः स्यात् / श्वम्रादि भूमौच निपत्य भुङ्क्ते शीतोष्णजन्यां बहुवेदनां हा ! / 95 // , अर्थ-उन पंचेन्द्रियों के विषयों से ठगे गये इस जीव की जब भुज्यमान मायु धीरे 2 समाप्त हो जाती है तो यह नरकादि गतियों में उत्पन्न हो कर वहां शीत और उष्ण जन्य वेदना को भोगता है. // 95 / / Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते એ પાંચે ઇન્દ્રિયના વિષયેથી ઠગાયેલ આ જીવની જ્યારે ભુજમાન આવરદા ધીરે ધીરે પૂર્ણ થાય છે, ત્યારે તે નરક વિગેરે ગતિમાં ઉત્પન્ન થઈને ત્યાં શીતષ્ણ જન્ય વેદનાઓને ભેગવે છે. ૯પા यस्यां गतौ जन्म धृतं ह्यनेन तत्रैव भोगस्य कथानुभूता। श्रुताऽत्मनो नैव ततश्च तत्तत्संस्कारहेतोविषयानुरागी // 16 // अर्थ-जिस गति में इस जीव ने जन्म धारण किया उस गति में उसने भोग की कथा सुनी, और वही अपने अनुभव में लाई, आत्मा की कथा इसने नहीं सुनी और न वह अनुभव में लाई. इसीलिये उसी संस्कार के कारण यह विषयों का अनुरागी बना हुआ है. // 96 // જે ગતિમાં આ જીવે જન્મ ધારણ કર્યો એ ગતિમાં તેણે ભેગની જ વાત સાંભળી, અને એજ તેણે અનુભવી આત્માની વાત સાંભળી જ નહીં તેમ તેને અનુભવમાં પણ ન લાવી. તેથી જ એજ સંસ્કારવશાત આ જીવ વિષેનો અનુરાગી બનેલ છે. 96 भोगानुरागात्करिमीनभृङ्गपतंगसारंगकुला विनष्टाः / तन्मूलसंहारकनृत्वलब्धौ कृतं न तच्चेत् किमतोऽस्ति कष्टम् // 97 // ___ अर्थ-लोकाशाह ने विचार किया-भोगों में पंचेन्द्रियों के एक 2 विषय में-अनुराग, से हाथी, मीन, भौंरा, पतंग और सारंग नष्ट हुए हैं. इन भोगों में अनुराग का मूल कारण मोह है. उसे नष्ट करने वाला यह मानव भव है. यह मुझे प्राप्त हुआ है. तो ऐसी स्थिति में उस भोगासक्ति के मूल कारण मोह है. उसे नष्ट करनेवाला यह मानव भव है. यह मुझे प्राप्त हुआ है. तो ऐसी स्थिति में उस भोगासक्ति के मूल कारण मोह का यदि संहार नहीं किया तो इससे और क्या कष्ट है. अर्थात् यही एक बड़ा भारी कष्ट है जो मोह का मैं संहारा नहीं कर पाया. // 97 // લેકશાહે વિચાર કર્યો કે-ભગોમાં પદ્રિયોના એક એક વિષયમાં અનુરાગથી હાથી, માછલી, ભમરો અને હરણને નાશ થયેલ છે. આ ભેગોમાં અનુરાગનું મૂળ કારણ મેહ છે. તેને નાશ કરવાવાળે આ મનુષ્યભવ છે. તે મને પ્રાપ્ત થયેલ છે. તો આ પરિ સ્થિતિમાં એ ભેગાસક્તિના મૂળ કારણરૂપ મોહને જો નાશ ન કર્યો છે તેથી વિશેષ દુઃખકારક બીજું શું છે? અર્થાત્ આજ એક મહાન દુઃખ છે કે મોહને હું સંહાર કરી ન શક્ય. ૧૯શી Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः इत्थं स्वचित्ते परिभाव्य सोऽयं सम्बन्धकार्ये शिथिलादरोऽभूत् / तथापि पित्रोः परिलक्ष्य मोहं माध्यस्थ्यभावं ह्यवलम्ब्य तस्थौ // 98 // ___ अर्थ-इस प्रकार अपने मन में सोचकर लोकाशाह सम्बन्ध कार्य के प्रति अपने विवाह होने के प्रति-शिथिल भाववाले बन गये. परन्तु फिर भी माता पिता का मोह देखकर उन्होंने उसके प्रति माध्यस्थ्य भाव का ही अवलम्बन किया. // 98 // આ પ્રમાણે પિતાના મનમાં વિચારીને કાશાહ એ સંબંધના કાર્ય પ્રત્યે શિથિલભાવવાળા બની ગયા. છતાં પણ માત-પિતાને મોહ જોઈને તેમણે એ કાર્ય પ્રત્યે માધ્યભાવને જ ધારણ કર્યો. 98 आलोचितं तेन पदेकपुत्रः स तातपादश्च मदेक नीवः / मे संस्थितिर्यस्य च संस्थिति संमोद एवास्ति यदीयमोदः // 99" वाईक्य यष्टिर्ननु यस्य वाहं यस्याशियुग्मं ह्यहमेव तस्मात् / कथं भवेयं प्रतिकूलती कृतघ्नतादोषकलङ्कितः स्याम् // 10 // अर्थ-उस समय उसने विचार किया-मेरे पिताजी मुझ पुत्र से ही पुत्रवान् हैं. अर्थात् उनका मैं ही एक पुत्र हूं इसलिये मेरी अच्छी स्थिति ही उनकी अपनी अच्छी स्थिति है. मैं हो उनका एक जीवन हूं. मेरा आनन्द ही उनका अपना आनन्द' है. मैं ही उनकीवृद्धावस्था का एक यष्टिरूप सहारा हूं और मैं ही उनकी आंखों के जैसा हूं अतः मैं उनसे प्रतिकूल कैसे हो सकता हूं यदि होता हूं तो मैं कृतघ्न-तादोष से कलंकित होता हूं.॥९९-१००। તે સમયે તેમણે વિચાર કર્યો કે મારા પિતા પુત્ર એવા મારાથી જ પુરવાનું છે. અર્થાત તેમને હું એક જ પુત્ર છું તેથી મારી સારી સ્થિતિ એજ એમની સારી સ્થિતિ છે. હું જ તેમને એક જીવનાધાર છું. મારો આનંદ એજ એમને પિતાને આનંદ છે. હું જ તેમની વૃદ્ધાવસ્થાની એક લાકડીરૂપ સહાયક છું, અને હું જ તેમના નેત્રો સમાન છું. તેથી હું તેમનાથી વિરૂદ્ધ કેમ વતી શકું? જે વિરૂદ્ધ થાઉ તે હું કૃતન ગણાઈ kaisa . // 88-100 // इत्थं पितुर्मोहमयं ममत्वं विचार्य निश्चित्य व तन्निदेशं / प्रपालयिष्यामि पुनर्यया स्यात्तथा यथा कालमहं करिष्ये / / 101 // Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते ____ अर्थ-इस प्रकार पिता के मोहमय ममत्व का विचार करके उसने ऐसा निश्चय किया कि पिता जी जो आदेश देगें उसे मैं पालन करूँगा फिर बादमें जैसा होगा वैसा मैं यथा समय कर लूंगा. // 101 // આ રીતે પિતાના મયુક્ત મમત્વને વિચાર કરીને તેણે એવો નિશ્ચય કર્યો કે–પિતાજી જે આજ્ઞા કરશે તેનું હું પાલન કરીશ. તે પછી એગ્ય સમયે જે કરવા ચોગ્ય હશે તે હું કરીશ. 101 खबान्धवैः सार्धमसीच सम्यग् निश्चित्य वाग्दा विशेश्च वेलाम् / तस्यां चकाराथ सुनिश्चितं तं सुतस्य पोदान्महतोत्सवेन // 102 // अर्थ-हेमचन्द्र ने अपने बन्धुओं के साथ अच्छी तरह से वाग्दान विधि के सगाई के. समय निश्चित किया और निश्चय करके ठीक उसी समय में पुत्र लोकशाह की वाग्दान विधि उत्सव पूर्वक बडे हर्ष के साथ निश्चित करलीस्वीकृत करली. // 102 // હેમચંદ્ર પિતાના બન્ધ વર્ગની સાથે એકત્ર થઈને સારી રીતે વાદાનવિધિ-સગાઈ માટે સમય નક્કી કર્યો. અને નિશ્ચિત કરેલા સમયે પુત્ર લેકશાહની વાગ્દાનવિધિ ઘણી જ હર્ષ પૂર્વક કરી લીધી. ll૧૦રા तत्कालमोदोद्भव गोधघोषै योपिज्जनानां ललितैः सुगीतैः / _ वाद्यास्वैः संकुलिनान्तरङ्ग जातं च तत्कान्तनिशान्तमस्य // 103 // अर्थ-उस समय के हर्ष के वेग से उत्पन्न हुए मनुष्यों के घोषोंसे महिला जनों के ललित गीतों से एवं बाजों की ध्वनियों से हेमचन्द्र का सुन्दर भवन जिसका भीतरी भाग व्याप्त हो रहा है ऐसा हो गया था. // 10 // તે સમયે હર્ષના આવેશથી ઉત્પન્ન થયેલા મનુષ્યના અવાજોથી, સ્ત્રીજના રમણીય ગીતથી અને વાજાઓની વનીથી હેમચંદ્રનું ભવન વાચાલિત બની ગયું. 13 तत्रागतानां फलपुष्पनारिकेलादिभिस्तत्समयानुरूपम् / यथोचितं स्वागतमाननन्द विधाय हैमो हिमचन्द्रतुल्यः // 10 // ___ अर्थ-वाग्दान विधि में आये हुए मनुष्यों का उस समय के अनुरूप स्वागत सत्कार यथा योग्य रीति से करके तुषार एवं चन्द्रमा के जैसा शीतल एवं प्रिय हैमचन्द्र बहुत अधिक प्रसन्न हुए. // 104 // Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः વાગ્યાનવિધિમાં આવેલા મનુષ્યનું સ્વાગત અને સત્કાર એ સમયને અનુસરીને યોગ્ય રીતે કરીને હિમકણ અને ચંદ્રમા જેવા શીતળ અને પ્રિય હેમચંદ્ર ઘણા જ વિશેષ રીતે પ્રસન્ન થયા. d૧૦જા पीतानि पुष्पाणि समागतैस्तैः सर्वैर्मित्वाच शुभाशिषाऽमा / . लोकोत्तमाङ्गे मुदितान्तरङ्गैनिक्षिप्य जग्मु भवनं स्वकीयम् // 105 // अर्थ-वाग्दान विधि में संमिलित हुए समस्त जनों ने मिलकर बडे ही हर्ष से अपने 2 शुभाशीर्वादों के साथ लोकचन्द्र के मस्तक पर पीले पुष्प प्रक्षिप्त किये और अपने 2 घर चले गये. // 105 // વાગ્યાન વિધીમાં આવેલા સઘળા જનસમૂહે મળીને ઘણા જ હર્ષ પૂર્વક અને શુભાશીર્વાદ સાથે લેકચંદ્રના મસ્તક પર પીલા પુષ્પો વેર્યા અને પિતાને ઘેર ગયા. /૧૦પા सौभाग्यालभ्यते लक्ष्मीः सौभाग्याच्चगुणावली / सौभाग्याल्लभ्यते रामा वामा सारङ्गालोचना // 106 // अर्थ-सौभाग्य से ही लक्ष्मी की प्राप्ति होती है, सौभाग्य से ही अच्छे गुणों का लाभ होता है. और सौभाग्य से ही भृग के जैसी लोचन वाली सुन्दर स्त्री का लाभ होता है // 106 // સૌભાગ્યથી જ લક્ષ્મીની પ્રાપ્તિ થાય છે, સૌભાગ્યથી જ સારા ગુણોનો લાભ થાય છે. , સૌભાગ્યથી જ મૃગનયની સ્ત્રીને લાભ થાય છે. 106 एकतावदयं मदीयनिलयस्याधारभूतः सुत , मेऽयं सुन्दरमालयं युपत्नं विश्रान्ति भूश्चेतसः / क्रोडश्रीरुरसश्च शीतलमही निर्वाण भर्नेत्रयोः, जीयात्सद्गुरुभक्तितः प्रतिदिनं भूयाच धर्मोत्सवः // 107 अर्थ-एक यही सुत मेरे भवन का आधार भूत-शिला है. यही मेरा सुन्दर आलय-घर है., यही मेरा उपवन है, यही चित्त के विश्राम की भूमि है, यही मेरी गोदी की शोभा है, यही मेरी छाती को ठंडी करने वाली शीतल मही है, यही नेत्रों की निर्वाणभूमि हैं-नयनों को सर्वथा शान्ति देने वाली जगह है. अतः यह सद्गुरु की भक्ति से जयवन्त रहे और प्रतिदिन धर्म का है उत्सव जिसे ऐसा यह होवे. // 107 // Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते એક આજ પુત્ર મારા ભવનના આધારશિલારૂપ છે. આજ મારું સુંદર આલય-ઘર છે. આજ મારૂં ઉપવન છે. આજ ચિત્તના વિશ્રામની ભૂમિ છે. આજે મારા ખોળાની શેભા છે. આજ મારી છાતીને ઠંડી કરનારી ભૂમિ છે, અને આજ નેત્રોને એકદમ શાંતિ આપનારી જગ્યા છે, તેથી સદ્દગુરૂની ભક્તિથી આ જ્યવત રહે અને દરરોજ ધર્મને જ જેને ઉત્સવ છે તે આ બને. 10 इत्थं ममत्वभावेन पित्रा दत्तशुभाशिषा / ... विसर्जितोऽभिनन्द्यासौ सवित्र्याः सविधे गतः // 108 / ___ अर्थ-इस प्रकार ममताभाव वाले पिता ने अपने शुभ आशीर्वाद से इसे अभिनन्दित कर विसर्जित कर दिया. पश्चात् यह अपनी माता के पास गया. // 108 // આ પ્રમાણે મમતા ભાવવાળા પિતાએ પિતાના શુભ આશીર્વાદથી તેને અભિનંદિત કરીને વિદાય કર્યા તે પછી તે પિતાની માતાની પાસે ગયા. 108 तत्यादयो नैनामासौ विनयश्री विराजितः। चिरं जीव चिरं नन्द मा भूनन्दन ! दुःखभाक् ! // 109 // अर्थ-वहां जाकर उसने माता के दोनों चरणों को बडी विनय के साथ नमस्कार किया ! माता ने हे मेरे नन्दन ! तुम चिरंजीव रहो, सदा सुखी रहो" * ऐसा उसे आशीर्वाद दिया. और-॥१०९॥ ત્યાં જઈને તેમણે માતાના બને ચરણેમાં ઘણા જ વિનયપૂર્વક નમસ્કાર કર્યા. તે પછી માતાએ હે મારા કુળદીપક ! - દીર્ધાયુ થા. અને સદાકાળ સુખી રહે અને આનંદિત રહો આ પ્રમાણે તેને આશીર્વાદ આપ્યા. 109 त्वत्पादौ परिचुम्ब्य नाकसदृशं जातं मदीयं गृहं, त्वत्सद्वर्त्तनतश्च शान्तिरधिका हृदालये संस्थिता / सम्बन्धिष्वपि त्वद्विनम्रचनैर्नोद्वेगवेगोऽजनि, सौभाग्येन युतोऽर्भक ! त्वमिति भो ! भूयाज्जनन्याशिषा // 110 // अर्थ-हे पुत्र / तेरे चरणों को चूमकर मेरा यह भवन स्वर्ग के जैसा-हुआ है, तेरे संद्वयवहार से मेरे हृदयरूपी आलय-घर में शांति अधिक आगाई है एवं सम्बन्धी जनों में भी तेरे विनप्रवचनों से कभी उद्वेग का वेग नहीं आया / अतः हे मेरे बेटे ! सौभाग्य से युक्त रहो यही तुम्हारी मां का तुम्हें शुभाशीर्वाद है // 11 // Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमः सर्गः 319 હે પુત્ર ! તારા ચરણોને સ્પશને મારું આ ભવન વગના જેવું થયું છે. તારા સુવ્યવહારથી મારા હૃદયરૂપી આલય-ઘરમાં ખૂબ જ શાંતિ પ્રસરી છે, અને સંબંધી વર્ગમાં પણ તારા વિનયવાળા વચનોથી કયારેય ઉદ્વેગ પ્રવેશી શકેલ નથી. તેથી હે પુત્ર! તું સદા ભાગ્યદયવાળો બન રહે એજ આ તારી માતાને તને આશીર્વાદ છે. 11 भोः ! भोः ! मुनीन्द्र ! विबुधेन्द्र ! पदारविन्द, संपूजयन्ति गुणरागहृतान्तरङ्गाः। - भव्या भवाब्धितरणे तरणीयमानं, पारं व्रजन्ति भवतो भवतोऽथ नूनम् / 111 // अर्थ-हे मुनीन्द्र / हे विद्वन्मूर्धन्य ! गुणों के अनुराग से जिनका अन्तरङ्ग आकर्षित हो गया है ऐसे भव्य जीव संसार रूपी समुद्र को पार करने में नौका के समान आपके चरणों रूपी कमलों की सेवा करते हैं वे संसार से नियमतः पार हो जाते हैं. // 111 // હે મુનીન્દ્ર ! હે વિન્માર્તડ ! ગુણના અનુરાગથી જેનું અંતઃકરણ આકર્ષિત બની ગયેલ છે, એવા ભવ્ય જીવ સંસારરૂપી સમુદ્રને પાર કરવામાં નૌકા જેવા આપના ચરણરૂપી કમળોની સેવા કરે છે, તેઓ સંસારમાંથી અવશ્ય પાર થઈ જાય છે. 111 पान्तु वो गुरखो नित्यं जीवानामभयप्रदाः / जिनेन्द्रमार्गमारूढा घासिलालाभिधा बुधाः // 112|| अर्थ-जीवों को अभय देने वाले ऐसे गुरु घासिलाल महाराज जो कि जिनेन्द्र के मार्ग पर आरूढ हैं सदा आपकी रक्षा करें / // 112 // * જીને અભય આપવાવાળા એવા ગુરૂવર્ય ઘાસીલાલ મહારાજ કે જેઓ જીનેન્દ્ર ભગવન્ત નિર્દિષ્ટ કરેલ માર્ગ પર આરૂઢ છે તેઓ સદા તમારું રક્ષણ કરો. ૧૧ર. जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर श्रीघासीलाल व्रति विरचिते हिन्दीगुर्जरभाषानुवादसहिते लोकाशाहचरिते दशमः सर्गः समाप्तः // 9 // Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 320 लोकाशाहचरिते अथ एकादशः सर्गः प्रारभ्यतेसोऽर्हन जयेत् सर्वपदार्थवेत्ता लोकत्रयी नो धुतकर्मबन्धः / निर्वाणवार्गप्रतिपादको यस्त्रियोगशुद्धया तमहं प्रणौमि // 1 // अर्थ-जिसने मोक्ष मार्ग का प्रतिपादन किया ऐसा वह सर्वपदार्थों का ज्ञाता तीनों लोकों का नाथ और कर्मबन्ध का विनाशक अर्हत देव प्रभु सदा जयवन्त रहें / मैं उन्हें मन वचन और काय की शुद्धिपूर्वक नमस्कार करता हूं // 1 // જેણે મોક્ષમાર્ગનું પ્રતિપાદન કર્યું છે એવા અને સર્વ પદાર્થોના જ્ઞાતા, ત્રણેકના નાથ તથા કર્મબંધને નાશ કરનાર અહંતદેવ સદા જયવંત રહે. હું તેમને મન, વચન અને કાયાની શુદ્ધિપૂર્વક નમસ્કાર કરું છું. 1 गुरुं सदा मंगलकस्वरूप धर्मोपदेशे प्रवणं प्रवीणम् / स्वोत्थानमार्गे भवभीतिभाजां रक्षाकरं तं ह्यनिशं नमामि // 2 // अर्थ-जिनका स्वरूप मंगलरूप है. धर्मोपदेश करने में जो चतुर हैं, और आत्म कल्याण के मार्ग में सांसारिक विभीषिकाओं से डरने वाले प्राणियों की जो रक्षा करनेवाले हैं ऐसे गुरु को मैं सर्वदा नमस्कार करता हूं // 2 // - જેનું સ્વરૂપ મંગળમય છે, ધર્મોપદેશ કરવામાં જે ચતુર છે. અને આત્મકલ્યાણના મામાં સાંસારિક ભયથી ડરવાવાળા પ્રાણિની જે રક્ષા કરનારા છે એવા ગુરૂને હું સર્વદા નમસ્કાર કરું છું. હેરા अथौधवः श्रीपतिमान्यवृत्तः विवाहदीक्षाविधिमन्वतिष्ठत् / , समेत बन्धु दुहितुः शुभायां तिथौच पक्षे धवलेऽथ माघे // 3 // __अर्थ-श्री संपन्न व्यक्तियों में जो अपने सदाचार से मान्य हैं ऐसे ओधवजी सेठने अपने बन्धुओं को एकत्रित करके अपनी पुत्री सुदर्शना के विवाह का कार्य माघ महिना के शुक्ल पक्ष में शुभतिथि में-वसंतपंचमी के दिन ठान दिया. // 3 // શ્રી થીયુક્ત વ્યક્તિઓમાં જે પોતાના સદાચારથી માન્ય છે, એવા ઓધવજીશેઠે પિતાના બધુસમૂહને એકઠા કરીને પોતાની પુત્રિ સુદર્શના વિવાહ માધમાસના શુકલ પક્ષની શુભ તિથિ પાંચમ-વસંત પંચમીના દિવસે નિશ્ચિત કર્યો. ફા वैवाहिकेस्तकृत संविधानस्तत्रत्य लोका मुदितान्तरङ्गाः। तस्यानुरागाच पुरन्धिवर्गा गृहे गृहे व्यग्रतरा बभूवुः // 4 // Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः 321 __ अर्थ-औधवजी सेठ का सव के प्रति स्नेह था इसलिये उसके द्वारा की गई विवाह की तैयारी से वहां के लोग घर 2 में प्रसन्नचित्त हुए तथा स्त्रियां भी प्रत्येक घर में धूमधाम मचाने लगीं // 4 // ઓધવજીશેઠનો સૌ પ્રત્યે નેહભાવ હતો. તેથી તેમણે કરેલ વિવાહની તૈયારીથી ત્યાંના લેકે ઘેર ઘેર પ્રસન્ન મનવાળા થયા, તથા ઢિયે પણ દરેક ઘરમાં ધૂમધામ કરવા લાગી. જા चीनांशुकक्लप्तलघुध्वजाभिः श्रेण्याः च बद्धाभिरनेकपाल्यैः। तस्कृत्रिमैारचयैः सुरम्य विभूषितो राजपथो बभासे / 5 / अर्थ-कतारों में टंगी हुई छोटी 2 झंडियों से, अनेक पुष्य मालाओं से और बनाये गये प्रवेश द्वारों से विभूषित नगर का राजपथ बडा सुहावना लगने लगा. // 5 // લાઈનસર લટકાવવામાં આવેલ નાની નાની ધજાઓથી, અનેક પુષ્પમાળાઓથી અને બનાવવામાં આવેલ સુંદર પ્રવેશદ્વારથી શોભાયમાન નગરને રાજમાર્ગ ઘણો જ સુંદર सारात si. // 5 // पदे पदे कोष्णजलप्रपाभि द्युतं बभूवाद्भुतमेघरूपम्। आसन्नपाणिग्रहणोत्सवेऽस्मिन् पुरं तदेतत् खलु पानवेभ्यः // 6 // ___ अर्थ-सुदर्शना के विवाह का समय बिलकुल समीप आ चुका था. इसलिये ओधवजी शेठने पहिले से ही स्थान 2 पर कुछ कुछ गरम जलवाली प्याऊओं की व्यवस्था कर दी. अतः वह नगर मनुष्यों के लिये अदभुत मेघरूप ही प्रतीत होने लगा. // 6 // સુદર્શનના વિવાહનો સમય ઘણો જ નજીકમાં આવી જવાથી ઓધવજશેઠે પહેલેથી જ સ્થળે રળેિ કંઈક કંઇક ગરમ પાણીવાળી પરબોની વ્યવસ્થા કરી દીધી તેથી એ નગર મનુષ્યને મેઘ સમાન જ જણાવા લાગ્યું 6in धूल्यादिसंमार्जनतः कृतोऽत्र महापथः सर्वजनाभिगम्यः / स्वर्गवत्सर्वमनोभिरामः सर्व सहः सर्वजनाभिरामः // 7 // - अर्थ-जिस तरह स्वर्ग अधिक सुन्दर-मनोभिराम, सर्वसह और सर्वजनों के लिये सुन्दर होताहै. इसी तरह यहां का विशाल पथ-धूली आदि की सफाई करा देने के कारण सर्वजन सुख से जिस पर जा सकें ऐसा साफ सुथरा Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 322 लोकाशाहचरिते करा दिया था और इसी कारण वह सर्वजन के मन को हरण करने वाला बन गया था, तथा कितना ही अधिक भार क्यों न हो उसके ऊपर से आनन्द के साथ आ जा सकता था इसलिये वह सर्व सह था और कहीं उस महापथ में खड्डे न हों जावें इस कारण उन्हें भर देने के लिये आसपास में घन रखे गये थे इसलिये वह सर्वजनाभिराम था. // 7 // જેમ સ્વર્ગ વધારે સુંદર-મનને આનંદ આપનાર સર્વ સહ અને સર્વજનને માટે સુંદર લાગે છે, એજ પ્રમાણે ત્યાં વિશાળ માર્ગ ધૂળ વિગેરેને સાફ કરાવવાથી સર્વજને સુખપૂર્વક જઈ શકે એવો સાફ અને સુરમ્ય બનાવી દીધો હતો અને એથી જ એ સર્વ જનના મનને હરણ કરવાવાળો બની ગયો હતે. તથા ગમે તેટલે અધિક ભાર કેમ ન હોય છતાં તેના ઉપરથી આનંદપૂર્વક અવરજવર કરી શકાતો હતો તેથી તે સર્વસહ હતે. અને એ માર્ગમાં કયાંય ખાડા ન પડી જાય તે કારણે તેને પૂરી દેવા માટે આસપાસ ઘણ રાખવામાં આવેલ હતા. તેથી તે સર્વ જનાભિરામ હતો. છો वैवाहिकान्निश्चितकार्यकाल क्रमानुसारात् करणीयमस्य / कार्यं च संपादयतोऽथ सर्वं दिनानि सर्वाणि गतानि मछु // 8 // अर्थ-विवाह के सम्बन्ध में निश्चित किये गये कार्य क्रम के समयानुसार करने योग्य कार्य को करते 2 ओधवजी सेठ के सब दिन बहुत ही शीघ्र समाप्त हो गये // 8 // - વિવાહ સંબંધી નિશ્ચિત કરવામાં આવેલ કાર્યક્રમના સમય પ્રમાણે કરવા યોગ્ય કાર્યને કરતાં કરતાં ઓધવજીશેઠના સઘળા દિવસે એકદમ સમાપ્ત થયા. 8 शुभ मुहूर्तेऽथ शुभग्रहस्थे चन्द्रे शुभायां च तिथौच संख्याम् / सुदर्शनाङ्गे प्रतिकर्मचक्रुः सम्बन्धिनार्यः पतिपुत्रवत्यः / / 9 / / ___ अर्थ-शुभ मुहूर्त में शुभतिथि में जब कि चंद्रमा शुभग्रहों के साथ युक्त था संबंधी जनों की पतिपुत्र वाली सुहागिन स्त्रियों ने सुदर्शना के शरीर को शृंगारित करना प्रारंभ कर दिया. // 9 // શુભ મુહૂર્તમાં શુભ તિથિમાં કે જયારે ચંદ્રમાં શુભ ગ્રહોની સાથે યુક્ત હતો ત્યારે સંબંધિજની સપુત્રા સૌભાગ્યવતી સ્ત્રીઓએ સુદર્શનના શરીરને શણગારવાને આરંભ કર્યો. 9 तदुत्तमाङ्गे खलु मंगलार्थं ताश्चिक्षिपुः सर्पपपीतराजीः। . पश्चात्तदभ्यङ्गमिमाविधाय तस्याश्च नेपथ्यविधिं च चक्रुः // 10 // Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक दशः सर्गः 223 अर्थ-उन स्त्रियों ने मंगल के निमित्त उसके मस्तक पर पीले सरसों को प्रक्षिप्त किया. बाद में उसके शरीर का उबटन किया-तेल चढाया और फिर उसे श्रृंगारित किया. // 10 // એ સ્રિઓએ મંગળકામનાથી તેના મસ્તક ઉપર પીળા સરસવ છાંટયા. તે પછી તેના શરીરને તેલ લગાવી માલીસ કર્યું અને તે પછી તેને શણગાર સજાવ્યા. 10 तस्या ललाटेऽरुणवर्णविन्दू नक्ष्णोश्च ता अञ्जनकं च चक्रुः / आजानु कौशेय मुपात्तवर्ण सुदर्शनां तां परिधापयित्वा // 11 // अर्थ-जिसमें कुंकुम के छोटे जगह 2 दिये गये हैं ऐसी कुंकुम की साडी उसने जो कि घुटनों तक लटक रही थी पहरी थी. स्त्रियों ने उसके ललाट पर कुंकुम की बिन्दुएं की थी और दोनों नेत्र में उसे अचन भी लगाया था // 11 // જેમાં કંકુના છાંટણા છટકારવામાં આવ્યા છે એવી કુકમ રંગની સાડી કે જે તેના ગોઠણ પર્ણત લટકતી હતી તે તેણીએ પહેરી. સ્ત્રિઓએ તેના ભાલ પ્રદેશ પર કંકુના બિંદુ બનાવ્યા હતા. અને તેના બને નેત્રોમાં આંજણ લગાવ્યું હતું. 11 धत्तं दुकूलं च तयाऽथ तन्व्याऽधोवस्त्रयुक्तं च सकंचुकं च / तागञ्चितं तेन रराज चन्द्रप्रभेव सा मण्डलतारकाङ्का // 12 // अर्थ-उस तन्वी सुदर्शना ने अधोवस्त्र-पेटीकोट-पहिरा. चोलीपहिरी और रेशमी साडी पहिरी. साडी छोटी 2 बुंदकियों से युक्त थी. अत:-जिस प्रकार चन्द्रप्रभा परिवेष और ताराओं से युक्त सुहावनी लगती है उसी प्रकार यह भी सुहावनी लगने लगी. // 12 // તન્વાંગી એ સુદર્શનાએ અવશ્વ-પેટિકોટ અને ચોળી પહેર્યા. તેમજ રેશમી સાડી પહેરી. તે સાડી નાની નાની ટીકીથી યુક્ત હતી. તેથી ચંદ્રપ્રભા જેમ પરિવેષ અને તારાઓથી યુક્ત હોય ત્યારે સોહામણી લાગે છે, એજ પ્રમાણે આ સુદર્શને કન્યા પણ સોહામણી લાગવા માંડી, 12 कयाचिदस्याः कटिसूत्रमष्टापदस्य संख्याऽथ कटिप्रदेशे / वनायितं कामनिधेः सुरक्षाकृतेजतिं गूढतया धृतस्य // 13 // अर्थ-गुप्तरूप से धरी हुई कास की निधि की रक्षा के लिये कोट के तुल्य प्रतीत होने वाला सुवर्ण का कटिसूत्र किसी स्त्री ने इसके कटि प्रदेश में पहिराया. // 13 // Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224 लोकाशाहचरिते ગુપ્તરૂપે ધારણ કરેલ કામના ખજાનાનું રક્ષણ કરવા કોટના સમાન જણાતું સેનાનું કટિસૂત્ર-કંદોરો કઈ ચિએ તેના કટિપ્રદેશમાં પહેરાવે. 13 सज्जीकृतं बाहुयुगे कयाचित्सोवर्णिकाभूषणमेव रम्यम् / वातायनीभूतमनगमत्र सुप्तं तदर्थं मरुदागमाय // 14 // अर्थ-यहां काम देव सोया हुआ है अतः उसे खिडकियों द्वारा हवा मिलति रहनी चाहिये ताकि वह बीच में जग न सके. सोता रहे-इसी ख्याल से किसी सखी ने उसके बाहुओं में सुवर्ण के बने हुए सुन्दर आभूषणों को जो कि गवाक्ष के जैसे प्रतीत हो रहे थे पहिराया. // 14 // - અહીં કામદેવ સૂતેલ છે. તેથી તેને બારિવાટે હવા મળતી રહેવી જોઈએ કે જેથી એ વચમાં જાગી ન જાય. સૂત જ રહે એ ભાવનાથી કઈ સખીએ તેના બાહુઓમાં સેનાના બનાવેલ સુંદર આભૂષણો કે જે બારી જેવા લાગતા હતા તે પહેરાવ્યા. 14 शिरोधरायां च कयापि सख्या हारोऽपितो नेत्रमनोभिगमः / पाशाय मानोदित दृष्टिनागं बद्धं च वक्षोजकलापि युग्मम् // 15 // अर्थ-जन की दृष्टिरूपी नाग को पीडित करने वाले वक्षरूपी मयूर को बाँधने के लिये जाल के जैसा प्रतीत होने वाला हार जो कि नेत्र और मन को सुहावना लगता था किसी सखीने उसके गले में पहिराया. // 15 // - મનુષ્યની દષ્ટિરૂપી નાગને પીડવાવાળા વક્ષજરૂપી મેરને બાંધવા માટે જાળના જેવો જણાતે હાર કે જે આંખો અને મનને સહામણું લાગતું હતું તે કઈ સખીએ તેના ગળામાં પહેરા. ૧પ. तदंधियुग्मेऽपरया कयाचिदत्तान्यनाणि न नूपुगणि / जितानि पद्मानि स्तच्छलेन ब्रान्ति तत्पादगतप्रभावम् // 16 // अर्थ-किसी एक दूसरी सखी ने कीमती नूपुर उसके दोनों पैरों में पहिराये. "इन पैरों ने कमलों को जीत लिया है" इस प्रकार से उसके चरणों के प्रभाव को अपने रुणझुन शब्दों के छल से प्रकट कर रहे थे-कह रहे थे // 16 // કઈ એક બીજી સખીએ બહુમૂલ્ય નૂપૂર (ઝાંઝર) તેના બન્ને પગોમાં પહેરાવ્યા. “આ પગોએ કમળને જીતી લીધા છે.' એવા પ્રકારના તેના ચરણના પ્રભાવને પિતાના રૂમમાં રૂમઝુમ શબ્દના બહાનાથી પ્રગટ કરતા હતા. અર્થાત કહેતા હતા. 16 ताटङ्ग-युग्मं श्रवणद्वयेऽस्याः कया च सख्या नयनाभिरामम् / विदग्धनाडिन्धमयुग्मकारार्पितंत्र सज्जीकृतमाशु मोदात // 17 // Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः "अर्थ-किसी सखी ने वडे हर्ष के साथ चतुर दो सुवर्णकारों द्वारा बनाये गये दो नयनाभिराम कर्णाभरण इसके दोनों कानों में पहिराये. // 17 // કોઈ સખીએ હર્ષપૂર્વક ચતુર એવા બે સોનીઓએ બનાવેલા નેત્રને આનંદ આપનાર બે કાનના આભૂષણ તેના બને કાનમાં પહેરાવ્યા. ૧છા सचिक्क गाः केशवयाश्च तस्या धूपोष्मणा त्यक्तसमाभावाः / कयापि संस्कृत्य सुकंकतेन प्रसाधिता वेणितया निबद्धाः // 18 // अर्थ-धूप की उष्मा से जिन का गीलापन सुखाया गया है ऐसे उसके चिकने केश किसी सखी ने सुन्दर कंघी से ऊंछ कर संभाले और फिर उन्हें जूडे के रूप में बांधा. // 18 // તડકાની ગરમીથી જેનું ભીનાપણું સુકાવી નાખ્યું છે, એવા તેના ચિકણા કેશે કોઈ સખીએ કાંસકીથી ઓળીને અંબોડારૂપે બાંધ્યા. I18 इत्थं तदीयं प्रति कर्मकृत्वा ता मंगलस्नानविशुद्धगात्राम् / तस्मात्प्रदेशात्परिगृह्य निन्युस्तां मंडपाभ्यन्तरवेदिकान्ते // 19 // अर्थ-इसी प्रकार से उस सुदर्शना को शृंगारित करके वे मंगल स्नान से पवित्र शरीर वाली उसे उस स्थान से उठाकर विवाह मंडप के भीतर वेदी के पास ले गई // 19 // આ પ્રમાણે એ સુદર્શનાને શણગારીને તથા મંગળ નાનથી પવિત્ર શરીવાળી તેને એ સ્થાનેથી વીવાહ મંડપની વેદીની પાસે લઈ ગયા. 19 तम्भैश्चतुर्मी रचितं तमेतं वितानवन्तं प्रसमीक्ष्य लक्ष्मीः / अम्भोजवासं परिहाय मन्ये विवाह पर्यन्तमुवास तत्र // 20 // अर्थ-मंडप चार स्तंभो से बनाया गया था उसके ऊपर एक चन्दोवा भी ताना गया था. इसे ज्यों ही लक्ष्मी ने देखा तो मैं ऐसा मानता हूं कि उन्हों ने विवाह पर्यन्त यहीं पर रहना पसन्द किया है-इसी कारण इस मंडप की शोभा अनुपम थी. // 2 // એ મંડપ ચાર થાંભલાઓથી બનાવેલ હતો. તેના ઉપર એક ચંદરે પણ બાંધવામાં આવ્યો હતો. તેને જયાં લક્ષ્મીએ જોયે તેથી હું એમ માનું છું કે તેણે વિવાહ પર્યન્ત અહીં રહેવા નિશ્ચય કર્યો. તેથી જ આ મંડપની શોભા અનુપમ હતી. રિબા Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32% लोकाशाहचरिते विद्युत्प्रदीपावलितोऽधिक श्री प्रदीपपंक्त्या परितः परीते / वैवाहिकेऽस्मिन् खलु मंडपेऽस्थात् दीपावलीपर्व दिदृक्षयेव. // 21 // अर्थ-विजली के दीपकों से भी जिनकी रोशना अधिक है ऐसे प्रदीपों की पंक्ति से सब तरफ से जगमगाते हुए इस विवाह के मंडप में मानों विवाह की शोभा देखने की इच्छा से स्वयं दीपावली पर्व ही बैठा हुआ था.॥२१॥ વિજળીના દિવાઓથી પણ જેની રોશની વિશેષ છે, એવા દીવાઓની પંક્તિથી ચારે તરફ જગમગતા આ વિવાહના મંડપમાં જાણે વિવાહની શોભા નિરખવાની ઈચ્છાથી રવયં દીપાવલી પર્વજ બેઠેલ હતું. ર૧ उद्धाहयोग्यं वसनं वसाना विन्यस्तपीठासनमाससाद। .. निषेदुषी तत्र बभौ मनोज्ञा तूर्य ध्वनि स्तावति चोज्जहार // 22 // अर्थ-विवाह के योग्य वस्त्रों को पहिरी हुई वह सुदर्शना पहिले से वहां रखे गये पोठासन के पास पहुंची और उस पर बैठ गई. उस पर बैठी हुई वह सब के मन को बहुत अच्छी लगी. इतने में ही बाजों की आवाज आने लगी. // 22 // વિવાહ વસ્ત્રો ધારણ કરેલ તે સુદર્શના પહેલેથી ત્યાં રાખવામાં આવેલ પીઠાસનની પાસે જઈ તેના પર બેસી ગઈ તેના પર બેઠેલ તે સૌના મનને ઘણી જ સુંદર લાગી એટલામાં ત્યાં વાજાઓના અવાજ થવા લાગ્યા. રરા वरस्य यात्राऽत्र समागतेति बभूव घोषो जनचित्तहारी / कुतूहलापौरजनैः सुदृष्टाऽऽगता पुरद्वारमुपान्तभागे // 23 // ___ अर्थ-"बरात यहां आगई" इस प्रकार का जनचित्त हारी घोष हुआ. पुरवासियों ने बडे कौतृहल से उस बरात को देखा. तब तक वह नगर के द्वार के बिलकुल नजदीक आचुकी थी. // 23 // જાન અહીં આવી ગઈ આ પ્રકારને મનુષ્યના મનને હરણ કરનાર નાદ થયે. નગરવાસીઓએ ઘણા જ કુતૂહલપૂર્વક એ જાન જોઈ. એટલામાં એ નગરના દરવાજાની બિકુલ નજદીક આવી ગઈ હતી. ર૩ कोलाहलोद्भूतजनप्रघोषं श्रुत्वा स्त्रियः स्वस्य गृहान्निरीयुः / त्यक्तत्रपा वेगयुता मुखावगुंठेन हीना स्फुरिताधरास्याः // 24 // अर्थ-जब नगरी की नारियों ने कोलाहल की आवाज सुनी तो वे विना किसी संकोच के चूंघट को छोडकर परस्पर में बतलाती हुई जल्दी 2 अपने 2 घर से बाहर निकल पडी // 24 // Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः 327 જ્યારે નગરની સ્ત્રીઓએ કોલાહલને અવાજ સાંભળે ત્યારે તેઓ કોઈ પ્રકારના સંકોચ વગર ઘૂમટાને છોડીને પરરપર અથડાતી જથિી પિતતાના ઘરની બહાર નીકળી પડી. રજા मध्ये स्वकार्य परिवर्ण्य काश्चित्तत्रागता विस्मृतभीररूपाः / वरं विलोक्यैव सुदर्शनायाः पुण्यं वेरण्यं सुभगाः शशंसुः // 25 // अर्थ-बीच में ही अपना कार्य छोडकर कितनीक सौभाग्यवती स्त्रियां भयशील अपने स्वभाव को छोडकर-भूलकर जहां पर बरात थी वहां पर आगई और सुन्दर श्रेष्ठ वर को देखकर सुर्दशना के पुण्य की प्रशंसा करने लगी // 25 // વચમાં જ પોતાના કામકાજને છોડીને કેટલીક સૌભાગ્યવતી સ્ત્રી ભયપણાના પિતાના સ્વભાવને છોડીને-ભૂલીને જ્યાં જાન હતી. ત્યાં આવી ગઈ અને સુંદર એવા વરને જોઈને સુદનાના પુણ્યને વખાણવા લાગી, રપ काश्चित्तरुण्यस्तरुणं वरं तं निरीक्ष्य वध्वाः पितुरस्यचापि / प्रकीर्तयन्ति स्म धियं कृतोऽयं वयोनुरूपो ह्यनयो विवाहः // 26 // अर्थ-कितनीक तरुण महिलाओंने उस तरुण वर को देखकर वधू सुदर्शना के और वर के पिता की बुद्धि की प्रशंसा की, क्यों कि यह उनकी ही सूझ का फल है जो इन दोनों का वय के अनुरूप ही यह विवाह हुआ है. // 26 // કેટલીક યુવતીઓએ એ યુવાન વરને જોઈને વધૂ' સુદર્શનાના અને વરના પિતાની બુદ્ધિના વખાણ કર્યા. કેમકે એ તેમની જ સૂઝનું પરિણામ છે. કે જેથી આ બનેની વયને અનુરૂપ જ આ વિવાહ સંબંધ થયેલ છે. શારદા तप्तं तयोऽनेन तया च पूर्व जातोऽनयोर्योग इतो भवेऽस्मिन् / इत्थं च काभिर्महिलाभिरुक्तं पुण्येन नूनं भवतीष्टसिद्धिः // 27 // ___ अर्थ-इससे पहिले इस वर ने और कन्या ने तप तपा है. इसीलिये इस भवमें इन दोनों का यह संबंध हुआ है. सच है-पुण्य के द्वारा ही जीव को इष्ट की प्राप्ति होती है. // 27 // સૌથી પહેલાં આ વરે અને આ કન્યાએ તપ તપ્યું છે. તેથી જ આ ભવમાં આ બન્નેને આ સંબંધ જોડાયેલ છે. સાચું જ છે કે–પુણ્ય મારફત જ જીવને ઈષ્ટની સિદ્ધિ થાય છે. પરિણા Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 328 लोकाशाहचरिते कासां च कालेऽस्मिन् सुन्दरीणां सुसंभ्रणाहतमानसानाम् / यथा बभूवुश्च विचेष्टितानि वदाम्यहं तानि तथा च तासाम् // 28 // अर्थ-उतावली से जिनका मन आहत हो रहा है ऐसी कितनीक सन्दरियों की उस समय जो चेष्टाएं हुई. अब हम उनकी उन चेष्टाओं को उसी प्रकार से कहते हैं. // 28 // ઉતાવળને લઈ જેનું મન આઘાત પામ્યું છે, એવી કેટલીક એિની એ સમયે જે ચેષ્ટાઓ થઈ તે હવે અમે તેઓની એ ચેષ્ટાઓનેએજ રીતે જણાવી એ છીએ. ર૮ काचिच्च वामा नयनाभिरामा श्यामाऽऽगता संश्लिथकेशबन्धा / एकेन बालं च परेण वालं करेण धृता झवलोकितुं द्राक् // 29 // ... ___ अर्थ-नेत्रों को सुहावनी लगनेवाली ऐसी कोई एक जवानवामा कि जिसका केशबन्धन शिथिल था एक हाथ से अपने बालक को और दूसरे हाथ से केशों को पकडे हुए ही वहां देखने के लिये चली आई. // 29 // નેને સેહામણી લાગનારી એવી કોઈ એક યુવતી કે જેના વાળનું બંધન ઢીલું હતું, તેણીએ એક હાથે પિતાના બાળકને અને બીજા હાથથી વાળને પકડીને જ ત્યાં જાન જોવા માટે આવી પહોંચી. ર૯ : नेत्राञ्जनं यावमिति प्रबुध्य काचिच मुग्धा स्वपदे नियुज्य / उत्सृष्टलीला गतिराजगाम सत्यं विमुग्धा ह्युचितानभिज्ञा // 30 // अर्थ-किसी विमुग्धावामा ने नेत्र के अंजन को यह महावर है ऐसा समझकर अपने पैरों में लगा लिया और जल्दि से वह बरात देखने को चली आई. // 30 // કોઈ મુગ્ધા સ્ત્રીએ આંખના આંજણને મહાવરધારીને પિતાના પગોમાં લગાવી લીધું. અને જદિ જસ્ટિ તે જાનને જોવા ત્યાં આવી પહોંચી. 30 काचिच नारी स्वशिशुं विहाय स्वागे समारोप्यपरस्य बालम् / तत्कौतुकं द्रष्टुमगान्न कांचित्क्रियां विदध्यात सहसा विपश्चित् / / 31 // अर्थ-कोई एक स्त्री उतावली के कारण अपने बच्चे को छोड कर दूसरे के बच्चे को अपनी गोदी में उठाकर बरात के कौतुक को देखने के लिये चली आई. कवि कहता है कि विना विचारे समझदार प्राणी को कोई भी क्रिया नहीं करनी चाहिये // 31 // Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः 329 કોઈ એક સ્ત્રી ઉતાવળને લીધે પિતાના બાળકને મૂકીને અન્યના બાળકને પોતાની ગોદમાં લઇને જાનને જોવા માટે આવી પહોંચી. કવી કહે છે કે-સમઝદારે વગર વિચાર્યું કઈ કામ કરવું ન જોઈએ. 31 मनस्विनी काचिदुवाच नारी परां सुभद्रे ! त्वं याहि दरम् / अलंकुरुष्वाथ सुदर्शनेन नो चेदजीर्ण तव तच्च भूयात् // 32 // अर्थ-किसी एक मनस्विनी महिला ने दूसरी महिला से कहा हे सुभद्रे ! अब तूने बहुत देख लिया-बशकर दूर हो जा नहीं तो यह दर्शन तेरे लिये अजीर्ण हो जायगा. पचेगा नहीं. // 32 // કોઈ એક મરિની સ્ત્રીએ અન્ય સ્ત્રીને કહ્યું કે- સુભદ્રા ! હવે તે ઘણું જોઈ લીધું. હવે બસકર અને હવે દૂર થી નહીં તો આ દર્શન તારા માટે અજીર્ણરૂપ થઈ જશે. અર્થાત પચશે નહીં. ૩રા उवाच काचित्वमितः प्रयाहि तवाक्षियुग्मं न वरावलोके / : सक्तं, परं तस्य च रूंपपाने लीनं विरूपोऽथ भवेद्वरोऽस्मात् // 33 // अर्थ-कोई एक महिला दूसरी महिला से इस प्रकार कहने लगी तुम यहां से चली जाओ. तुम्हारे लोचन वर के विलोकन करने में थोडे ही लगे हैं-वे तो उस के रूप पान करने में लीन हो रहे हैं. अतः ऐसा करने से तो यह वर विरूप हो जायगा. // 33 // " કઈ એક સ્ત્રી બીજી સ્ત્રીને કહેવા લાગી કે તું અહીંથી ચાલી જા તારા નેત્રે વરને જોવામાં જ થોડા લાગ્યા છે? એ તો એના રૂપનું પાન કરવામાં જ લીન છે. તેથી તેમ કરવાથી તે આ વર કુરૂપ બની જશે. 33 - एकाऽपरा काचिदुवाच कान्तां मा वावदृके ! परिहासमत्र ! कुरुष्प, शान्ता भर पश्य शान्त्या नोचेद्गृहं गच्छ मदोद्धतास्याः // 34 // अर्थ-किसी एक स्त्रीने किसी एक सुन्दर महिला से कहा हे वावदूके ! यहां हंसी मजाक मत कर चुप रह और शान्ति से देख नहीं तो घर चली जा और वहीं पर इतरा // 34 // | કઈ સ્ત્રીએ કેઇ એક સુરૂપ સ્ત્રીને કહ્યું–હે વાડિયણ ! અહીં ઠામશ્કરી ન કરો. ચૂપ રહે અને શાંતીથી જુવે નહીં તો ઘેર ચાલી જા અને ત્યાં બોલ્યા કર. 34 Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 230 लोकाशचाहरिते पसंच काचित् कलहायमानां ब्रूते स्म संवीक्ष्य च गाय गीतम् / / पिकस्वरादप्यधिकस्वगत्ते विनिः मृतं गानमिदं न भाति // 35 // ___ अर्थ-किसी एक दूसरी महीलाने लडती झगडती हई कीसी महीला को देखकर उससे कहा-तेरा स्वर तो कोयल के स्वर से भी अधिक अच्छी है. अतः ऐसे अच्छे स्वर से निकला हुआ यह कलहरूप गाना अच्छा नहीं जचता है. दूसरा सुहावना गीत गा. // 35 // કોઈ એક બીજી સ્ત્રીએ ઝગડો કરતી એવી કેઈ સ્ત્રીને જોઈને તેણીએ કહ્યું-તારે. અવાજ તે કોયલના અવાજથી પણ વધારે સારો છે, તેથી એવા સારા સ્વરથી નીકળેલા આ કલહકંકાસરૂપી ગાયન સારું લાગતું નથી તે બીજું સુંદર ગીત ગા. આપા काचित्स्वधिष्ण्यस्य गवाक्षजालैर्बिलोकयन्त्र्योऽथवरं वरेण्यम् / . . चक्रुः स्वनेत्राणि फलान्वितानि यतो हि लोकोऽभिनवप्रियोऽयम् // 36 // अर्थ-कितनीक महीलाओं ने अपने 2 मकान की खिडकियों से ही उस श्रेष्ठ वरराज को देखा और अपनी आंखों को सफल माना ठीक है-इस लोक को नवीन वस्तु प्यारी ही लगती है. // 36 // ' કેટલીક સ્ત્રીઓએ પોતપોતાના ઘરની બારીયોથી જ એ ઉત્તમ વરને નીરખ્યો અને પિતાની આંખને સફળ માની. ઠીક જ છે. આ લેકમાં સૌને નવી વસ્તુ જ મારી લાગે છે. 36 सुदर्शना रूपवती यथाऽस्ति वरोऽप्ययं रूपनिधानमेनम् / त्यक्त्वा क्व गच्छेन्ननु सत्यमेतत्तरङ्गिणी तोयनिधि प्रयाति // 37 // / अर्थ-जैसी सुदर्शना रूपवती है वैसा ही यह वर भी रूपका खजाना है. अतः इसे छोडकर वह कहां जाती-सत्य है नदी समुद्र की ओर ही तो जाती है. // 37 // જેવી સુદર્શન રૂપાળી છે, એ જ આ વર પણ રૂપને પ્રજાને છે. તેથી આને છોડીને તે ક્યાં જાય ? સાચું જ છે કે નદી સમુદ્ર તરફ જ જાય છે. પાછલા न चेदिदं द्वन्द्व मभन्स्यदत्र विवाहबन्धेन विशिष्ट पुण्यम् / अस्मिन् द्वये रूपनिधानयत्नस्तस्या भविष्यविफलोऽथनूनम् // 38 // अर्थ-इनका विशिष्ट पुण्य यदि इन दोनोंको विवाह बन्धन से नहीं बांधता तो इन दोनों में जो उसने रूप के निर्माण करने का प्रयत्न किया है वह उसका नियम से विफल हो जाता. // 38 // Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः આમનું વિશેષ પ્રકારનું પુણ્ય જો આ બેઉને વિવાહના બંધનથી ન બાંધે છે એ બન્નેમાં જે તેણે રૂપની રચનાને યત્ન કર્યો છે, તે તેને પ્રયત્ન નિશ્ચય રીતે નિષ્ફળ થઈ જાત. 38 यावदाजतिशासनं जिनपतेर्यावच्च गंगाजलम्, यावच्चंद्रदिवाकरौ वितनुतः स्मीयां गतिं चाम्बरे। तावद्राजतु भूतले वरवधू द्वद्वं किलेदं गुणैः, स्वीयर्देवमनोहरं च भवताज्जन्मेतयो मानवम् // 39 // अर्थ-जबतक जिनेन्द्र का शासन इस संसार में चमकता रहता है. गंगा का जलं बहता रहता है और जबतक चंद्र और सूर्य आकाश में अपनी गति करते रहते हैं तबतक यह वधूवर की जोडी इस संसार में चमकती रहे तथा अपने गुणों द्वारा इन दोनों का यह मनुष्य जीवन देवों के भी मन को आनन्द देने वाला बना रहे // 39 // જયાં સુધી જીનેન્દ્રદેવેનું શાસેન આ સંસારમાં ચમકતું રહેશે, ગંગાનું પાણી વહેશે, અને જ્યાં સુધી ચંદ્ર અને સૂર્ય આકાશમાં પોતાની ગતિ કરતા રહે ત્યાં સુધી આ વરવહુની જેડ આ સંસારમાં ચમકતી રહે તથા પોતાના ગુણોથી આ બન્નેનું આ મનુષ્ય જીવન દેવોના મનને પણ આનંદ આપવાવાળું બની રહો. 39 अनेन सम्बन्धमुपेत्य सोऽयं श्री ओधवः श्रेष्ठितमोऽद्यजातः। 'पुण्येन पुण्यात्मजनस्य योगः प्रलभ्यते रत्न निधानवत्सः // 40 // 'अर्थ-इस के साथ सम्बन्ध करके श्री ओधवजी आज श्रेष्ठियों में विशिष्ट श्रेष्ठी बन गये हैं क्यों कि रत्न के निधान की तरह पुण्यात्मा का संयोग पुण्य से प्राप्त होता है. // 40 // આની સાથે સંબંધ બાંધીને શ્રી ઓધવજી આજે શેઠિયાઓમાં અગ્રેસર છેઠ બની ગયા છે. કેમકે રત્નની ખાણની જેમ પુણ્યાત્માઓને સંબંધ પુણ્યથી જ થાય છે. જો शनैः शनैरिस्थमसौ प्रयान्ती मृदगनादैः परिपूरिताशा। प्रत्युद्गताऽस्थाच्च जनाधिवासे सर्वव्यवस्थाङ्कितमध्यभागे 11 // :: अर्थ-धीरे 2 चलती हुई वह बरात मृदङ्ग के शब्दों से विशम्भों को व्याप्त करती हुई कन्या पक्षवालों के द्वारा अगवानी से युक्त होकर जिसमें सर्वप्रकार की व्यवस्था की गई है ऐसे जनवासे आकर ठहर गई // 41 // Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 332 लोकाशाहचरिते ધીમે ધીમે ચાલતી એ જાન મૃદંગના શબ્દોથી દિશાઓને વ્યાપ્ત કરીને કન્યાપક્ષવાળાઓની આગેવાનીવાળા થઈને જેમાં દરેક પ્રકારની વ્યવસ્થા કરવામાં આવી છે. એવા જાનીવાસે આવીને રહી. 415 युग्मम्पश्चाच्च सज्जीकृतवाजिराजमारुह्य तस्माच्च जनाधिवासात् / विनिर्गतः सर्वजनैः परोतः वरश्रियाऽलंकृत चारुदेहः // 42 // श्री लोकचन्द्रोऽथ ततः प्रतस्थे प्रस्थानवेदी च बभूव तूर्य / ध्वनिर्निशम्यैव ततश्च कन्यागृहेऽपि वादित्ररवा बभूवुः // 43 // अर्थ-इसके बाद श्रीलोकचन्द्र वरराज जो कि वरश्री से अलङ्कृत थे वरातियों से परिवृत होकर जनवास से बाहर आये और एक सुसज्जित घोडे पर बैठ कर वहां से चले उस समय वर के प्रस्थान का सूचक बाजा बजा इस की ध्वनि सुनकर कन्या के घर पर भी बाजे बजने लगे. // 42-4 // તે પછી શ્રીલેકચંદ્ર વરરાજા કે જે વરની શોભાથી શોભાયમાન હતા. તેઓ જાનૈયા એથી વીંટળાઈને જાનીવાસથી બહાર આવ્યા. અને એક શણગારેલા ઘોડા પર બેસીને ત્યાંથી ચાલ્યા. તે સમયે વરના પ્રયાણ ને સૂચિત કરતા વાજા વગાડવામાં આવ્યા. તેને અવાજ સાંભળીને કન્યાના ઘેર પણ વાજા વાગવા લાગ્યા. ૪ર-૪ कन्याग्रहद्वारमुपागतस्य बभूव काप्यद्भुतसक्रियाऽस्य / सौवर्णिकाभूषणदानमानै नैवस्त्वगम्यं कृतिनोऽस्ति किच्चित् // 44 // अर्थ-जब ये वरराज कन्या के द्वार पर पहुंचे तब वहां इनका सुवर्ण के आभूषणादिकों को देने द्वारा अदभूत-अभूतपूर्व-सत्कार किया गया. सच हैसौभग्य शाली के लिये कोई भी वस्तु अगम्य नहीं होती है. // 44 // જ્યારે તે વર-કન્યાના મંડપના દ્વારે પહોંચ્યા ત્યારે ત્યાં તેનું સેનાના અલંકારે વિગેરે આપીને તેને અભૂતપૂર્વ સત્કાર કરવામાં આવે. સાચું જ છે કે-ભાગ્યશાળીને કઈ વસ્તુ અપ્રાપ્ય હેતી નથી. 44 तत्रत्यलोकैरपि शक्ति भक्ति द्रव्यानुरूपं च वराय वस्तु / दत्तं यथायोग्यमसौ प्रलभ्य बभूव संतुष्टमना गुणाढ्यः // 45 // . अर्थ-वहां के लोगों ने भी अपनी शक्ति, भक्ति एवं विभवके अनुरूप वरराज को वस्तुएं प्रदान की. यथायोग्य वस्तु प्राप्तकर यह गुणाढय संतुष्ट चित्त हुआ.॥४५॥ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः ત્યાંના લોકોએ પણ પોતાની શક્તિ, ભક્તિ અને વૈભવ પ્રમાણે વરરાજાને વસ્તુઓ આપી. એગ્ય વસ્તુઓ પ્રાપ્ત કરીને આ ગુણગ્રાહક સંતુષ્ટ ચિત્ત બન્યા. ૪પા महाजनानामिदमेव तावन्महत्त्वमल्पेऽपि यथा प्रभूते / लाभेऽथ जाते भवति प्रमोदस्तथैव तेषां स सदैकरूपात् // 46 // __ अर्थ-महान् पुरुषों की यही एक विशेषा है कि जिस प्रकार उन्हें बहुत लाभ होने पर हर्ष होता है उसी प्रकार उन्हें अल्पलाभ होने पर भी हर्ष होता है. क्यों कि वे सदा एकरूप ही बने रहते हैं // 46 // મહાન પુરૂષની એજ એક વિશેષતા છે કે-જેમ તેમને અધિક લાભ થાય ત્યારે હર્ષ થાય છે, એજ પ્રમાણે તેમને શેડો લાભ થાય ત્યારે પણ હર્ષ થાય છે, તેઓ સદા એક 351 मनेसा रहे थे. // 4 // वैवाहिकेऽस्मिन् खलु मंडपेऽस्थुः वरस्य संबंधिजना परत्र / पुत्र्याश्च पक्षीयजनास्तदाऽत्र, एकत्र भागे च दिक्षवोऽन्ये // 47 // -- अर्थ-इस समय विवाह मंडप में वर के संबंधी जन एक ओर बैठे और कन्या पक्ष के जन तथा अन्य दर्शक गण दूसरी ओर बैठे // 47 // આ સમયે વિવાહ મંડપમાં વરના સંબંધીઓ એક તરફ બેઠા અને કન્યા પક્ષના સંબંધી અને બીજા જનાર વર્ગ બીજી તરફ બેઠા. ૪છા वरश्रिया शोभितचारुदेहं कुमारमेनं च वधू समीपम् / कश्चित्तदीयाप्तजनो निनाय वेलान्तरा ह्यब्धिमिवेन्दुपादः // 48 // अर्थ-वर की विभूषा से शोभित सुन्दर शरीर वाले इस कुमार वधू सुदर्शना के पास वर का ही कोई एक आप्त जन उसे इस प्रकार से लेगया कि जिस प्रकार से चन्द्र किरणें समुद्र को तट-वेला के पास ले जाती है // 48 // વરના વેષથી શોભાયમાન સુંદર શરીરવાળા આ કુમારને વધૂ સુદર્શનાની પાસે વરને જ કઈ સંબંધીજન તેને એવી રીતે લઈ ગયા કે-જેમ ચંદ્રના કિરણો સમુદ્ર કિનારા પાસે લઈ જાય છે. 48 निरीक्ष्य तामद्भुतशोभयाऽसौ विशोभित मिन्दुमुखी कुमारः। जहर्ष केकीव पयोधरालीं विलोक्य कान्तां विरहीव शान्ताम् // 49 // Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 334 लोकाशाहचरिते __ अर्थ-अनोखी शोभा से सुशोभित उस इन्दुमुखी सुदर्शना को देखकर जैसे घनावली को देखकर मयूर हर्षित होता है और वियुक्त अपनी शान्त रही कान्ता को देखकर हर्षित होता हैं वैसे ही वह कुमार हर्षित हुआ, // 49 // અનેરી શોભાથી શોભાયમાન આ ચંદ્રમુખી સુદર્શનાને જોઇને જેમ મેધ પંક્તિને જોઈને માર હર્ષ પામે છે, અને વિછુટી પડેલ પોતાની શાંત એવી સ્ત્રીને જોઈને હર્ષ પામે છે, એ જ પ્રમાણે એ કુમાર હર્ષ પામ્યો. 49 परस्परं नेत्रयुगं तयोश्च ततान वार्तामथ मूकयैव / गिरा क्षणं हीवशतः परं तत् पुनर्नलेभेऽवसर हिलोलम् // 50 // __ अर्थ-उन दोनों के नेत्रों ने एक क्षण भर में ही अपनी मूक वाणी द्वारा परस्पर में बात करली. पश्चात् मिलने के चाव वाले वे लज्जा के वश फिर अवसर नहीं पा सके. // 50 / / એ બન્નેના નેત્રેએ એક ક્ષણમાત્રમાં જ પિતાની મૌન વાણીથી એકબીજાએ વાત કરી લીધી. તે પછી મળવા ચાહનાવાળા તેઓ લજજાને લઇને ફરી અવસર ન પામ્યા. પછી स ओधवः प्राह हिमं तदैव श्रीमन् ! कुमाराय संमपर्यामि / कन्यामिमामद्यगृहाण हैमोऽवदच्च गृह्णामि यथा निदेशम् // 51|| अर्थ-उन ओधवजी ने हैमचन्द्र जी से कहा-श्रीमान् ! मैं अपनी इस कन्या को कुमार के लिये प्रदान करता हूं आप इसे स्वीकार कीजिये. तब स्वीकार करता हूं' // 51 // એ ઓધવજીએ હેમચંદ્રને કહ્યું –શ્રીમાન હું મારી આ કન્યાને કુમારને અર્પણ કરૂં છું. આપ તેને સ્વીકાર કરે ત્યારે “સ્વીકાર કરું છું તમારા કહ્યાથી તેમ કહ્યું. 51 ताम्रागुलिस्तेन समर्पितोऽस्या वरस्य हस्ते स्वकरेण हस्तः। रत्नांगुलीयप्रभयाऽश्चिते तो सूर्येन्दुकान्तीव तदा स्म मातः // 52 / अर्थ-लाल है अंगुलियां जिस की ऐसा सुदर्शना का हाथ ओधवजी ने अपने हाथ से रत्न की अंगूठियों की कान्ति से युक्त वर के हाथ में. उस समय वे दोनों हाथ सूर्य और चन्द्रमा की कान्ति की तरह शोभित हुए. // 52 // :: લાલ છે આંગળી જેની એ સુદર્શનાને હાથ ઓધવજીએ પિતાના હાથથી રત્નની વિટિયેની કાન્તિથી યુક્ત વરના હાથમાં અર્પણ કર્યો. એ સમયે એ બન્ને હાથે સૂર્ય અને यंद्रभानी तानी मा शोमा पाभ्या. // 52 // . Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः 335 वधूकरस्पर्श भवास्यतस्य तत्पाणिसंस्पर्शवशाच्च तस्याः / रोमोद्गमः प्रादुरभून्ममत्वभावोऽपि सार्ध प्रविवेश तत्र // 53 // / अर्थ-वधू के हाथ का स्पर्श पाकर और वर के हाथ का स्पर्श पाकर वरवधू के शरीर में रोमांच हो आया और उसी समय दोनों में-वर वधू में-एक ही साथ ममत्व भाव ने प्रवेश कर दिया. // 53 // વધૂના હાથને સ્પર્શ પામીને વરના અને વરના હાથને સ્પર્શ પામીને વધૂના શરીરમાં રોમાંચ થશે. અને એજ સમયે બન્નેમાં એકસાથે જ મમત્વભાવે પ્રવેશ કર્યો. આપણા * धर्मोक्तरीत्या च तयोर्बभूवुः परस्परं सप्तपदानि तत्र / पश्चाच्च पाणिग्रहणस्य जातः पूर्णस्तयोरेषविधिः प्रयुक्तः // 54 // अर्थ-धर्मोक्त विधि के अनुसार वर वधू की उस मंडप में आपस में सप्तपदी हुई. इस के बाद उन दोनों की पाणिग्रहण की प्रारंभ की गई विधि समाप्त हो गई // 54 // ધર્મોકત વિધિ પ્રમાણે એ મંડપમાં વર વધૂની સપ્તપદી વિધિ થઈ. તે પછી એ બન્નેની પાણિગ્રહણની વિધિ સમાપ્ત થઈ. પ૪ स्थापितायाः खलु वेदिकायाः प्रदक्षिणाप्रक्रमणाच्चकासे / मेरोरुपान्तेष्विव वर्तमानं शचीन्द्रयुग्मं मिथुनं तदेतत् // 55 // ___ अर्थ-पहिले से स्थापित वेदी की प्रदक्षिणा करते समय सुदर्शना और लोकचन्द्र इस प्रकार से शोभित हुए कि जिस प्रकार सुमेरु की प्रदक्षिणा करते समय शची और इन्द्र शोभित होते हैं // 55 // * પહેલેથી બનાવેલી વેઠીની પ્રદક્ષિણા કરવાના સમયે સુદર્શન અને લેકચંદ્ર એવી રીતે શોભિત થયા કે-જેમ સુમેરૂની પ્રદિક્ષિણા કરતી વખતે ઇન્દ્ર અને ઇન્દ્રાણી શોભિત या हता. // 55 // . . अखंडितं प्रेम लभस्व भर्त्त वर्धव पौत्रैश्च सुतादिभिश्च / मास्म प्रतीपं च गमः कदापि तस्य त्वमाराधय नित्यमाज्ञाम् // 56 // गुरुन् प्रसन्नान कुरु सेवयव भवन्ति नार्यः कुलदीपिकास्ताः / विलोक्य तत्रैव च तत्प्रभावं सुरा रमन्तेऽत्र रमाऽवलापि // 57 // Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते ___ अर्थ-तुम अपने पति का अखंडित प्यार प्राप्त करो. पौत्र और पुत्रादि को से तुम खूब फलों फूलो, कभी भी पति के प्रतिकूल न बनो, उनकी आज्ञा का नित्य आदर करो, अपनी सेवा से अपने सास श्वशुर को प्रसन्न करती रहो. इस तरह की प्रवृत्ति से नारी कुलदीपिका-कुल को सुशोभित करने वाली होती हैं. उनके प्रभाव को देखकर वहां देवता क्रीडा किया करते हैं और स्वभावतः चंचल लक्ष्मी वहां अचल हो जाती है. // 56-57 // તું તારા પતિને અખંડ સ્નેહ પ્રાપ્ત કર, પુત્ર પૌત્રાદિથી ખૂબ ફળ અને ફૂલે, કયારેય પતિને પ્રતિકૂલ ન બનવું. તેમની આજ્ઞાને હરહમેશાં આદર કરે. પોતાની સેવાથી પિતાના સાસુસસરાને પ્રસન્ન કરતી રહો. આ રીતની પ્રવૃત્તિથી નારી કુલદીપિકાકુલને શોભાવનારી બને છે. તેના પ્રભાવને જોઈને ત્યાં દેવો કીડા કર્યા કરે છે. અને સ્વભાવથી જ ચંચલ એવી લક્ષ્મી ત્યાં સ્થિર બની જાય છે. 56 -5 अनेन भर्ना सह धर्मचर्या त्वयाऽथ कार्या ह्यविरोधभावात् / धर्मस्य संसेवनयैव शान्ति जीवेन लभ्या भवतीति // 58 // अर्थ-तुम अपने पति के साथ विना किसी विरोध भाव के धार्मिक कार्य करो. क्योंकि जीव को धर्म के सेवन से ही शान्ति मिलती है. // 58 // તું પિતાના પતિની સાથે કોઈ પ્રકારના વિરોધ વિના જ ધાર્મિક કાર્ય કરતી રહે. કેમકે-જીવને ધર્મના સેવનથી જ શાંતી મળે છે. પઢા पुण्यं प्रसुप्तं फलितं त्वदीयं यतोऽनुकूलोवर एष आप्तः / पुत्रि! त्वयाऽतो ह्यशुभं विहाय कृत्यं शुभं सेव्यमितीह शिक्षा // 59 // अर्थ-हे पुत्रि ! तेरा सोया हुआ पुण्य ही यह फला है जो तूने अनुकूल स्वामी-पति-पाया है, इसलिये पाप को छोडकर पुण्य का सेवक करना. यही तेरे लिये मेरी सीख है. // 59 // હે પુત્રિ ! તારૂં સૂઈ ગયેલ પુણ્ય જ આજે આ રીતે ફળ્યું છે. કે જેથી તેને અનુકૂલ પતિ મળેલ છે. તેથી પાપને છોડીને પુણ્યનું સેવન કરવું એજ તને મારી શિખામણ છે. પહેલા धर्मार्थकामैस्त्वमिमां मदीयां सुतां च संपालयतेऽपितेयम्। अस्यास्त्वमेवासि पतिश्च भर्तास्वामी प्रभुर्वा त्वदधीनवृत्ते // 60 // . अर्थ-आप इस मेरी पुत्री का धर्म, अर्थ और काम इन तीन पुरुषार्थों द्वारा अच्छी तरह पालन करना. इसीलिये आपको यह प्रदान की है. आज से आप Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' / एकादशः सर्गः ही इसके पति हैं, भर्ती हैं, स्वामी हैं और प्रभु हैं: क्यों कि इसका जीवन.. आपके ही हाथ में है. // 6 // આપ આ મારી પુત્રીનું ધર્મ, અર્થ કામ આ ત્રણે પુરૂષાર્થોથી સારી રીતે પાલન કરજે. તે માટે આપને આ મારી પુત્રી અર્પણ કરી છે. આજથી આપ જ આના પતિ, ભર્તા અને સ્વામી છે. અને પ્રભુ . કેમકે આનું જીવન આપના હાથમાં છે. 6 ના ! दत्ता सुकन्या खलु येन यस्मै तस्मै प्रदत्तो नियमेन तेन / त्रिवर्गयुक्तश्च गृहाश्रमोऽसौ प्रोचुश्च विज्ञा गृहिणीं गृहं हि // 61 // अर्थ-जिसने जिसके लिये अच्छी कन्या दी है उसने उसके लिये नियम से त्रिवर्गयुत गृहाश्रम ही दिया है. क्यों कि विज्ञ जनों ने गृहिणी को ही घर कहा है. // 61 // જેણે જેના માટે સુકન્યા પ્રદાન કરી છે, તેણે તેના માટે ત્રણવર્ણવાળા ગૃહસ્થાશ્રમ જ આપેલ છે. કેમકે-જાણકારોએ ગૃહિણીને જ ઘર કહેલ છે. 46 सांसारिकं कृत्यमनित्यमन्यत् सद्धर्मकृत्यं भूपमित्यवेत्य / प्रधानभावेन तदेव नित्यं संसेवनीय व्यवहार कृत्ये // 62 // अर्थ-संसार के जितने भी कार्य हैं वे सब अनित्य हैं-स्थायी नहीं है. स्थायी तो एक धर्म कार्य ही है. ऐसा समझकर प्रधान रूप से उस धर्म कार्य का ही सांसारिक कार्य करते समय भी ख्याल रखना. // 62 // સંસારના જે કંઈ કર્યો છે, તે બધા જ અનિત્ય છે, સ્થાયિ નથી. સ્થાયી તો એક ધર્મકાર્ય જ છે. તેમ સમજીને મુખ્યતયા સંસારિક કાર્ય કરતી વખતે પણ એ ધર્મકાર્યને જ ખ્યાલ રાખવો જોઈએ. 6 રા गृहस्थ कार्येऽपि दया न हेया सा यत्न साध्या भवतीति पुत्र ! / दया स्वरूपो ह्ययमस्ति धर्मोऽधर्मस्तु सा यत्र न संस्थिताऽस्ति // 63 // अर्थ-गार्ह स्थ्यिक कार्य करते समय में भी दद्या को नहीं छोडना. वह दया हे पुत्र ! यत्न-यतना-साध्य होती है. जहां दया है वहीं धर्म है और जहां यह नहीं है वही अधर्म है // 6 // | ગૃહરથના કાર્ય કરતી વખતે પણ દયાને છોડવી નહીં. તે દયા હે પુત્ર ! યતના સાધ્ય હૈય છે. જયાં દયા છે, ત્યાં જ ધર્મ છે. અને જ્યાં એ નથી. ત્યાં જ અધર્મ છે. 63 Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 338 लोकाशाहचरिते ., जामातरं चाप्यनुशास्य सोऽयं श्रीओधवो हैममुवाच साधो ! / सेवा यथार्था न मयाऽभवत्ते क्षम्यो जनोऽयं भवतोऽनभिज्ञः // 6 // . अर्थ-पूर्वोक्तरूप से अपने जमाता श्रीलोकचन्द्र को समझाकर फिर श्री ओधवजी ने अपने समधी श्री हेमचन्द्र जी से निवेदन किया-हे साधो ! हम सेवाकार्य से अनभिज्ञ हैं. अतः आपकी जैसी सेवा होनी चाहिये-वैसी सेवा मुझ से आपकी नहीं हो पाई है. इसके लिये हम आप से क्षमा मांगते हैं // 64 // પૂર્વોક્ત રીતે પિતાના જમાઈ લેકચંદ્રને સમજાવીને તે પછી શ્રી ઓધવજીએ પિતાના વેવાઈ શ્રી હેમચંદ્રને નિવેદન કર્યું કે-હે સજજન ! હું સેવા કાર્યથી અજાણું છું. તેથી આપની જેવી સેવા થવી જોઈએ તેવી સેવા મારાથી થઈ શકી નથી. તે માટે હું આપની ક્ષમા ચાહું છું. 64 पश्चाच सर्वान् विभवानुरूपं सत्कृत्य सोऽयं विससर्ज नम्रः / सर्वेऽपि संतोषमवाप्य तुष्टाः प्रप्तन्नमुद्रा अभवन् गताश्च // 65 // अर्थ-इसके बाद ओधवजी ने अपने विभव के अनुसार बरातियों की सत्कार कर विदाकी. वे सब संतुष्ट होकर प्रसन्नता के साथ वहां से रवाना हो गये. // 65 // તે પછી ઓધવજીએ પોતાના વૈભવ પ્રમાણે જાનૈયાઓને સત્કાર કર્યો અને તેઓ સૌ પ્રસન્ન થઈને સંતોષપૂર્વક ત્યાંથી રવાના થઈ ગયા. 6 પા प्रयाणकाले गलदश्रुनेत्रां शोकाकुलां वीक्ष्य सुदर्शनां स्वाम् / पुत्री समाश्लिष्य सगद्गदाम्बा प्रोवाच बाले च पतिप्रियास्याः // 66 // - ' अर्थ-प्रयाण के समय जिसकी आंखों से अश्रुगिर रहे हैं और जो शोक से व्याकुल हो रही है ऐसी अपनी पुत्री सुदर्शना को देखकर और उसे कंठ से लगाकर गद्गदकंठ हुई माता ने हे "बाले तुम अपने पति को प्यारी बनो" ऐसा शुभाशीर्वाद दिया. // 66 // વિદાયના સમયે જેમની આંખમાંથી આંસુઓ વર્ષિ રહ્યા છે, અને જે શેકથી આકુળવ્યાકુળ થઈ રહી છે, એવી પિતાની પુત્રી સુદર્શનાને જોઈને અને તેને કંઠે લગાવીને ગાદિત કંઠવાળી તેની માતાએ “હે બાળા ! તારા પતિને મારી બનજે. એ शत शुभाशीवाद साप्या. // 66 // यतोऽस्ति कन्या परकीयवित्तं संरक्ष्यते न्यासवदेव पित्रा। प्राप्ते तु काले च वराय तस्मै योग्याय देया भवतीति रीतिः // 67 // Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः . अर्थ-कन्या दूसरे का द्रव्य है इसलिये धरोहर के समान मातापिता उसकी रक्षा करते हैं. जब समय आ जाता है तो वे उसे ऐसे वर के लिये देते हैं जो योग्य होता है. यही संसार की रीति है. // 17 // કન્યા એ પારકું ધન છે. તેથી અનામતની જેમ માબાપ તેનું રક્ષણ કરે છે. જયારે સમય આવે ત્યારે તેઓ તેને એવા યોગ્ય વરને આપે છે. એજ ગ્ય છે અને સંસારની પણ એજ રીત છે, દા प्रथामिमां पुत्र्यनुसृत्य दत्ताऽद्य याहि धिष्ण्यं वस तत्र भर्ना / सत्रा शुभं ते भवताच भूयाः सर्वप्रिया पूर्णमनोरथा त्वम् // 6 // अर्थ-हे पुत्रि ! इसी प्रथा का अनुसरण करके तुम्हारा विवाह किया गया है. अब तुम अपने पति के साथ अपने घर जाओ और वहां रहो तेरा कल्याण हो. तुम वहाँ सब को प्यारी बनो और तेरी सब कामनाएं सफल हो // 68 // હે પુત્રિ એજ પ્રથાને અનુસરીને તારો વિવાહ કરવામાં આવેલ છે. હવે તું તારા પતિની સાથે પેતાના ઘેર જા. અને ત્યાં જ રહો. તારું કલ્યાણ થાય. તું ત્યાં સૌને વહાલી બનજે. અને તારી સઘળી કામનાઓ સફળ થાવ. 6i8 भर्तुः सुखं तेऽस्ति सुखं च दुःखं तद्दुःखमेवास्ति तदीयमोंदः / तव प्रमोदः प्रविचिन्त्य मैवं कदाचि तस्य प्रतिपन्थिनी स्याः // 67 // - अर्थ-पति का सुख तेरा सुख है. पतिका दुःख तेरा दुःख है और पतिका आनन्द हो तेरा आनंद है ऐसा विचार कर तुम कभी भी उनके प्रति कूल मत होना. // 69 // પતિનું સુખ એજ તારૂં સુખ છે. અને પતિનું દુઃખ એજ તારૂં દુ:ખ છે. તથા પતિનો આનંદ એજ તારે આનંદ છે. તેમ સમજી વિચારીને તું કયારેય તેનાથી પ્રતિકૂળ થઈશ નહીં. 69 - भत्तेः सवित्री जननी त्वदीया पिता च ते तज्जनकश्च बाले ! / स्वसा च ते तद्भगिनी तदीयो भ्रातास्ति ते पुत्रि! सहोदरश्च // 70 // , अर्थ-हे बेटी ! पति की माता तेरी माता है. पति के पिता तेरे पिता हैं पति. की बहिन तेरी बहिन है और पति का भाई तेरा सहोदर-भाई है // 7 // 'હે દિકરી પતિની માતા એજ તારી માતા છે. પતિના પિતા એ તારા પિતા છે. પતિની मन तारी महेन छे. अने पतिनो माघ मे तारे मा छे. // 70 // Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते 'आज्ञा न भर्द्धश्च विलोपनीयाऽऽराध्या सदा सा सुखवृद्धि हेतुः / सौभाग्यगर्यो न कदापि कार्यः विनम्रता शीलवषश्च सेव्यः // 71 // __ अर्थ-हे पुन्नि ! पति की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करना, यदि सुख शांति की वृद्धि चाहती हो तो जो कुछ वे कहें उसे मानना. तथा अपने सौभाग्य पर अहंकार नहीं करना. // 71 // હે પુત્રી ! પતિની આજ્ઞાનું ઉલ્લંઘન ન કરવું. જો સુખ શાંતીની વૃદ્ધિ ઈચ્છતી હે તે જે કંઈ તેઓ કહે તે માનવું. તથા પોતાના ભાગ્ય પર અહંકાર કરે નહીં. 71 दास्यादि वर्गोऽथ च बोधनीयः सुस्नेहदृष्ट्या न च ताडनीयः चर्चाऽधिका वा बहुशः प्रलापा न तेन साधै खल्लु साधनीयः // 72 // अर्थ-घर पर जो नौकर चाकर हों उन्हें बडे अच्छे स्नेह के साथ समसाना उन्हें ताडना नहीं करना और न उनके साथ अधिक चर्चा या व्यर्थ का पकवाद ही करना. // 72 // ઘેર જ નોકર ચાકરે હોય તેમને ઘણા જ સ્નેહપૂર્વક સમજાવવા. તેમને મારવા નહીં. તેમજ તેઓની સાથે વધારે પડતી વાતચિત કે નકામે બંકવાદ કરે નહીં. /૭ર कुलकम्प्रकाशनीया न च गुप्तवार्ता गृहादिकार्ये यतना विधेया। न सेवकेभ्यो ह्यशनप्रदाने प्रमादभावोऽपि कदापि सेव्यः // 73 // ... कार्य यथाकाल मनेकमेकं त्वया विधेयं, वचनं च मिष्टम् / . भिक्षार्थिने द्वारि समागताय वक्तव्यमेवं गृहगोमिनी सा // 4 // नारी स्वधर्मोह्यभिवर्धनीयः दानेऽथ भावः खलु रक्षणीयः / ईर्षाल्लुवृत्तिः पखिर्जनीया व्ययों यथायं च समीक्ष्य कार्यः // 75 / / अर्थ-अपनी गुप्तवात बाहर प्रकट नहीं करना, घर के कामकाज में साथधानी रखना, सेवकों को भोजन देने में प्रमाद कभी नहीं करना, समय के अनुसार ही सब काम करना और द्वार पर आये हुए भिक्षुकों से मीठे वचन बोलना. इस तरह नारी घर की लक्ष्मी बन जाती है. अपने धर्म की प्रभवना बढाना, दान देने में भाव रग्वना. किसी के साथ ईर्षा नहीं रखना और जैसी भाय हो उसी के अनुसार देख भालकर खर्च करना // 73-74-75 / / Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः પિતાની ગુપ્ત-ખાનગી વાત બહાર પાડવી નહીં, ઘરના કામકાજમાં સાવધ રહેવું. સેવકવર્ગને જમાડવામાં ક્યારેય પણ ઉપેક્ષા કરવી નહીં. સમય પ્રમાણે જ બધા કામે કરવા અને બારણે આવેલા ભિક્ષાર્થિઓ સાથે મીઠાશથી બોલવું. આ રીતે વર્તવાથી નારી ઘરની લક્ષ્મી બની જાય છે. પિતાના ધર્મનું મહાસ્ય વધારવું. દાન આપવા સદાકાળ ભાવી રાખો, કોઇની સાથે ઇર્ષાભાવ રાખવો નહીં અને જેવી આમદાની હેય તે અનુસાર संभाजीने पर्य 2. 73-74-75 // वचः प्रवृत्तिः कुशला विधेया यतोऽनया कोऽपि भवेन्न शत्रुः / मिष्टं वचः प्राणिवशक्रियायां प्रधानमंत्रः पर मंत्रः पर मंत्र छेदी // 76 // अर्थ-वचन की प्रवृत्ति कुशल रखना, क्योंकि इससे कोई भी अपना सत्र नहीं बन पाता है. प्राणियों को वश करने की क्रिया में मिष्ट वचन प्रधान मंत्र है. यह शत्रु की अनिष्ट विचार धारा को भी नष्ट कर देता है. // 7 // વાણીની પ્રવૃત્તિ કુશળતાપૂર્વક કરવી, કેમકે તેમ કરવાથી કેઈ પણ આપણે શત્ર બનતું નથી. પ્રાણિને વશ કરવાની ક્રિયામાં મીઠા વચન જ મુખ્ય હોય છે. તે શત્રની भरा५ वियाया।। 59 ना। 30 4 छ. // 7 // प्रापूर्णिकैर्वा प्रतिवेशिभिश्च साधं “ममैते" ममताप्रपर्णा / सदा त्वया शांति सुखेच्छया वै वाले विधेया व्यवहारशुद्धिः // 77 // अर्थ-हे बेटी ! महिमानों के साथ तथा पड़ोसियों के साथ “ये मेरे हैं ऐसी ममता से भरी हुई व्यवहार शुद्वि तुझे सर्वदा शान्ति और सुख की भावना से करते रहना चाहिये. / / 77 // હે દિકરી! આપણા મહેમાનની સાથે તથા પાડેસિની સાથે આ મારા છે' આવી મમતાથી ભરેલ વ્યવહાર શુદ્ધિ તારે સદાકાળ શાંતિ અને સુખની ભાવનાથી કરતા રહેવું જોઈએ. IIછા द्वयोः प्रकर्षः कुलयो यथा स्वात्तथा त्वया तत्रं च वर्तितव्यम् / त्रुटिन ते मे श्रवणेऽप्यथायात् शोकाकुला मा भव पुत्रि ! याहि // 78) अर्थ-तथा जिस प्रकार से दोनों कुलों की बडाई हो उस प्रकार से तुझे ससुराल में अपनी प्रवृत्ति रखनी चाहिये तेरी किसी भी प्रकार की गल्ती मेरे सुनने में नही आनी चाहिये हे पुत्रि ! अब तू शोक से व्याकुल मत हो और जा॥७८॥ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ઉછરે लोकाशाहचरित જે રીતે બને ફળોની શોભા વધે તે રીતે તારે સસરાળમાં પિતાની પ્રવૃત્તિ રાખવી જોઈએ. તારી કોઈ પણ જાતની ભૂલ મારા સાંભળવામાં આવવી ન જોઇએ. હે દિકરી ! હવે તું દુઃખી ન થા અને તારે ઘેર જા. 78 आयुष्मतीस्या गुणशालिपुत्रं लभस्व सौभाग्यमखण्डितं स्यात् / मार्गाः शिवाः सन्तु च वान्तु वातास्तवानुकूलाः सुखदाताः स्यात् / / 79 // भर्थ-हे पुत्रि ! तुम चिरं जीव रहो. गुणशाली पुत्र को प्राप्त करो. तेरा सौभग्य अखण्ड रहे तेरे रास्ते कल्याणकारी हों, वायु तुम्हारे अनुक्ल वहे और आतप सुख दाता हों // 79 // હે દિકરી તું ચિરંજીવી રહે. ગુણવાન પુત્ર પ્રાપ્ત કરજે. તારૂ સૌભાગ્ય અખંડ રહે, તારો માર્ગ કલ્યાણકારી અને વાયુ તમારી અનુકૂળ રહે. અને સૂર્ય પ્રકાશ સુખદાયી હો. 79 पतिप्रसूः पुत्र्यभिवंदनीया तदाशीषाऽऽत्मा परिपोषणीयः / संबाह्य पादौ पुनरात्माऽस्याः संतोषभावेन च तर्पणीयः 180 // अर्थ- हे बेटी ! अपनी सासुजी का अभिवादन करना और उनके आशीबर्षाद से अपना पोषण करना उनके दोनों पैर दाबना और उनकी आत्मा को संतोषभाव से भर देना-संतुष्ट कर देना. // 80 // હે દિકરી! પિતાની સાસુને અભિવાદન કરવું. અને તેમના આશીર્વાદથી પિતાના આત્માનું પિષણ કરવું. તેમના બન્ને પગ દબાવવા અને તેના આત્મામાં સંતોષ ભાવ ભરી દે. અર્થાત તેમને સંતોષી રાખવા इत्याशिषा चामि सुशिक्षया तां माताऽभिनंद्याथ वरेण सार्धम् / विसर्जयामास वरोऽपि नत्वाश्व प्रतस्थे स्वपुरी प्रहर्षात् // 81 // .. अर्थ-इस प्रकार के आशीर्वाद से और अच्छी सीख से सुदर्शना को अभिनंदित कर माता ने उसे वर के साथ भेजदिया, पर भी अपनी सासुजी के प्रणाम कर हर्ष के साथ वहां से अपनी नगरी की ओर चल दिया. // 81 // આ પ્રકારના આશીર્વાદથી અને સારી શિખામણથી સુદર્શનને અભિનંદન આપીને માતાએ તેને તેના પતિની પાસે મોકલી આપી. વરે પણ પોતાના સાસુને પ્રણામ કરી હર્ષ પૂર્વક ત્યાંથી પિતાના નગર તરફ પ્રયાણ કર્યું. 81 Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः वधूप्रवेशे बहुशो बभूवुर्या लौकिकाचार विचारमालाः। हैमालये सोत्सवर्विकास्ताः सर्वा सुसंपन्नतया विरेजुः // 82 // अर्थ-हेमचन्द्रजी के गृह में जब वधू का प्रवेश हुआ तब लौकिक जितने भी आचार विचार उस समय होते थे-वे सब बड़े हो उत्सव के साथ अच्छी तरह संपन्न हुए // 82 // હેમચંદ્રને ઘેર જયારે કુલવધૂન પ્રવેશ થયે તે સમયે લૌકિક જે કંઈ આચાર વિચાર એ સમયે થતા હતા એ બધા ઘણું જ ઉત્સાહપૂર્વક સારી રીતે કરવામાં આવ્યા. ૮રા गंगा मनोमंदिरमिन्दिराया आगास्तुल्यं तु तदा बभूव / लब्धं यथेच्छं च वनीयकैस्तै स्तैरतो द्रव्यमनेकरूपम् // 83 // अर्थ-वह के आने पर तो गंगा का मन लक्ष्मी का भंडार जैसा हो गया था! क्यों कि अनेक प्रकार के याचकों ने इन से अपनी इच्छा के अनुसार मुंहमांगा द्रव्य प्राप्त किया था. // 83 // વહુના આવવાથી ગંગાનું મન લક્ષ્મીના ભંડાર જેવું બની ગયું. કેમકે ત્યાં અનેક પ્રકારના વાચકોએ તેમની પાસેથી પોતાની ઈચ્છા પ્રમાણે મેઢે માગ્યું ધન પ્રાપ્ત કર્યું હતું. 83 यथा यथाऽसौ स्वजन प्रकृत्या ज्ञात्री बभूवाय तथा तथा सा / तद्रूप नैन प्रकृति प्रवृत्त्या गृहेऽभवत्सर्वजनप्रिया सा // 4 // - अर्थ-जैसी जैसी यह अपने घर के मनुष्यों की प्रकृति से परिचित होती गई वैसी 2 यह उनके अनुकूल अपनी प्रवृत्ति करती गई. इस कारण यह घर में सब को प्रिय हो गई. // 84 // જેમ જેમ સુદર્શના પિતાના ઘરના માણસના સ્વભાવથી પરિચિત થતી ગઈ તેમ તેમ તેમને અનુકૂળ પોતાની પ્રવૃત્તિ કરતી તેથી તે ઘરમાં સૌને પ્રિય બની ગઈ. 84aa. धन्या सा जननी पिताऽपि सुकृती गेहं च तत्पावनम्, रम्या सा घटिकाति सुन्दरतरस्तद्वासरो वाऽनया। स्वोत्पत्त्या समलंकृतः कुरुविधे ! पुत्रप्रियां प्रेयसीम, ... नित्यं मद्धृदयैकहारलतिका सौख्यश्रिया शालिनीम् // 85 // अर्थ-वह माता धन्य है. यह पिता भी पुण्यशाली है. घर वह पवित्र है. वह घडी भी बहुत सुन्दर है और दिवस भी अत्यन्त श्रेष्ठ है कि जिसे Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते इसने अपने जन्म से अलंकृत किया है / हे विधे ! तुम इस मेरी प्यारी पुत्र प्रिया को जो कि मुझे मेरे हृदय के हार की लडी के समान है सदा सौख्यश्री से सुशोभित रखना. // 85 / / એ માતાને ધન્ય છે, એ પિતા પણ પુણ્યવાન છે, એ ઘર પવિત્ર છે, એ ઘડી પણ ઘણું જ સુંદર છે, અને દિવસ પણ ઘણો જ ઉત્તમ છે, કે જેમને આણે પિતાના જન્મથી શોભાવ્યા છે. હે વિધાતા ! તું આ મારી પુત્રી કે જે મને મારા હૃદયના હારની લહેરની માફક છે તેને સદા સૌખ્યની શેભાથી શોભિત રાખજે 85 शिष्टा मिष्टवचोऽनुकृष्टहृदया हृष्टा च तुष्टा सदा, कृत्याकृत्यविचारचारुचतुरा मत्संमुखे सस्मिता। स्वल्पेन व्ययतोऽप्यखिन्नमनसा गार्हस्थ्य सत्कृत्यकृत. सौभाग्येन समन्विता भवतु मेऽवडेन पुत्रप्रिया // 86 // अर्थ-यह मेरे पुत्र की पत्नी बडी शिष्ट है. अपने मिष्ट वचनों से इसने मेरे हृदय को अपनी ओर आकृष्ट कर लिया है यह सदा खुश 2 रहती है. संतुष्ट रहती है कौन सा काम करने योग्य है कौन सा नहीं करने योग्य है इस प्रकार के विचार करने में यह बड़ी चतुर है मेरे समक्ष यह सदा मुस क्याती रहती है थोडे से व्यय से भी विना किसी प्रकार के खेद के अपने घर गृहस्थी के काम को करलेती है ऐसी यह मेरी बहू अखण्ड सौभाग्य से युक्त बनी रहे // 86 // આ મારા પુત્રની પત્નિ ઘણી જ શિષ્ટ છે, તેણે પિતાના મીઠા વચનથી મારા હૃદયને પિતાના તરફ ખેંચી લીધેલ છે. તે હમેંશા ખુશખુશાલ રહે છે. સંતોષી રહે છે. કયું કામ કરવા લાયક છે અને કયું કામ કરવા લાયક નથી. તે પ્રકારનો વિચાર કરવામાં તે ઘણી ચતુર છે. મારી સામે તે સદા મુરકરાતી રહે છે. થોડા ખર્ચથી પણ કઈ જતના ખેદ વિના પિતાના ઘરનું કામ નભાવી લે છે. એવી આ મારી વહૂ અખંડ સૌભાગ્યશાલી मानी रहे. // 86 // प्राणेभ्योऽपि गरीयसी मम शुभकाशंसिनी सद्गुणा, मुग्धा शीलसमन्विता मम निदेशाशेष संवर्तिनी। हर्षाहर्षसमस्वभावरसिका कृत्या प्रकृत्या स्थिरा, सौभाग्येन समन्विता भवतु मेऽखंडेन पुत्रप्रिया. // 87 // Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशः सर्गः अर्थ-यह मुझे अपने प्राणों से भी अधिक प्यारी है. अच्छे 2 गुणों वाली है भोरी है. शील से युक्त है. मेरी आज्ञा में पूर्ण रूप से तत्पर रहती है. सुख दुःख में समस्वभाव रखती है. जिस काम को यह करने का विचार कर लेती है उसे पूरा करके ही सांस लेती है. प्रकृति से भी यह स्थिर है. ऐसी यह मेरी पुत्रवधू अखंड सौभाग्य से सदा चमकती रहे / बडे पुण्य से ही मुझे यह प्राप्त हुई है // 87 // આ મને પોતાના પ્રાણથી પણ મારી છે. સારા સારા ગુણવાળી છે, ભેળી છે. શીલવતી છે, મારા કહ્યામાં સંપૂર્ણ પણે તત્પર રહે છે. સુખદુ:ખમાં સરખી રીતે રહે છે. જે કામ કરવાનો તે વિચાર કરે છે, તેને પૂરું કરીને જ ધાસ લે છે, પ્રકૃતીથી પણ તે થિર છે. એવી આ મારી પુત્રવધૂ અખંડ સૌભાગ્યથી સદા ચમકતી રહે. તે ઘણા પુણેદયથી જ મને પ્રાપ્ત થઈ છે. 87 यत्पादौ परिचुम्व्य नाकसदृशं जातं मदीयं गृहम्, यत्सद्वर्त्तनतश्च शान्तिरधिका हृदभवने संस्थिता / भृत्यादिष्वपि यद्रिनम्रवचनै नोद्वेग वेगोऽजनि, सौभाग्येन समन्विता भवतु मेऽखंडेन पुत्रप्रिया // 88|| ____ अर्थ-जिसके पैरों का चुम्बन करके यह मेरा घर स्वर्ग के जैसा हो गया है. जिसके सदव्यवहार से हृदयों में शान्ति आगई है. और जिसके विनीत वचनों से नौकर चाकर आदिकों में भी कभी उद्वेग का वेग परिलक्षित नहीं होता है, ऐसी वह मेरी पुत्रवधू अखंड सौभाग्य से सुशोभित बनी रहे. // 88 // ' જેના પગને સ્પર્શ કરીને અમારું ઘર સ્વર્ગ જેવું થઈ ગયેલ છે, જેને સદ્વ્યવહારથી હૃદયમાં શાંતી વ્યાપી ગઈ છે, અને જેના વિનયવાળા વચનોથી નોકર ચાકર વિગેરેમાં પણ કયારેય ઉગ કે અસંતોષ જણા નથી. એવી આ મારી પુત્રવધૂ અખંડસૌભાગ્યવતી બનો. 88 अस्तीयं मम पूर्वसंचित शुभा-नां कर्मणां सकलं, यहोदर्क इयं विशिष्टतपसः सत्याभृतं वा विधेः / मर्यादाऽभिजनस्य वा समुदयो पदभागधेयस्य वा, मद्गेहस्य निधिः सदा विलसताअद्भवनाभ्यन्तरे // 89 // अर्थ-पूर्व में संचित किये हुए मेरे शुभ कर्मों का यह एक सुन्दरफल हे, अथवा यह विशिष्ट तपस्या का परिणाम है, अथवा भाग्यको यह एक सुन्दर भेंट है अथवा-कुल की यह मर्यादा है ? अथवा मेरे भाग्य का यह समूह है. 44 Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 346 लोकाशाहचरिते अथवा-यह मेरे घर की निधि है. सो वह निधि मेरे भवन के भीतर सदा चमकती रहे // 89 // પૂર્વે સંચય કરેલા મારા શુભ કર્મોનું આ એક સુંદર ફળ છે. અથવા આ વિશેષ પ્રકારની તપસ્યાનું પરિણામ છે. અથવા ભાગ્યની આ એક સુંદર ભેટ છે. અગર આ કુળની મર્યાદા છે? કે મારા ભાગ્યને આ સમૂહ છે? અથવા આ મારા ઘરનો ભંડાર છે, તે આ નિધિ મારા ભવનમાં સદા ચમકતા રહે. 89 यदा गता सा मुनिवन्दनार्थ तदा सुरुस्तामनुशिक्षतेस्म / यतो हि संसारस मुद्रमग्नान गुरुं विना तारयितुं क्षमः कः / / 90 // अर्थ-जब सुदर्शना मुनि महाराज का दर्शन करने के लिये गई तब गुरुदेवने उसे समझाया-क्यों कि संसारसमुद्र में मग्न प्राणियों को पार लगाने के लिये गुरु के विना कौन समर्थ हो सकता है. // 9 // જયારે સુદર્શન મુનિ મહારાજના દર્શન કરવા ગઈ ત્યારે ગુરૂદેવે તેને સમજાવ્યું. કેમકે સંસાર સાગરમાં ડૂબેલા પ્રાણિને પાર ઉતારવા માટે ગુરૂ વિના કણ શક્તિમાન થઈ શકે ? 9o पुण्येन लब्धं नर जन्म धन्ये ! भवेद् यथा तत्सफलं विधेयम् / पापानुबंधि प्रविहाय पुण्यं पुण्यप्रदं पुण्यमुपार्जय त्वम् // 9 // अर्थ-हे भाग्ये ! यह नरजन्म पुण्य से प्राप्त हुआ है इसलिये जैसे भी बने इसे सफल बनाना चाहिये. अतः पापमुबंधि पुण्यको छोडकर तुम पुण्यानुबंधि पुण्यका उपार्जन करो.॥ 11 // હે ભાગ્યવતી ! આ નરજન્મ પુણ્યથી પ્રાપ્ત થયેલ છે. તેથી જેમ બને તેમ આને સફળ બનાવવો જોઈએ તેથી પાપાનુબંધી પુણ્યને છોડીને તમે પુણ્યાનુબંધી પુણ્યનું ઉપાર્જન કરો, 191 संसारभावा अशुभा अनित्या दुःखप्रदा नैव सुखप्रदास्ते / पापास्रवेकारणमित्यवेत्य विहाय पुण्यात्रव एव सेव्यः // 92 // अर्थ-संसार संबंधी जितने भी जीव के भाव हैं वे सब अशुभ अनित्य और दुःख देने वाले हैं. सुख देने वाले नहीं हैं. क्यों कि वे पापास्रव के कारण हैं. ऐसा समझकर उन भावों को छोडना चाहिये और पुण्यास्रव के हेतुओं का सेवन करना चाहिये. // 12 // સંસાર સંબંધી જેટલા પણ જીવના ભાવો છે તે સઘળા અશુભ અનિત્ય અને દુઃખ દેવાવાળા છે, સુખ આપવાવાળા નથી, કેમકે તે પાપાસવના કારણરૂપ છે. તેમ સમજાવીને એ ભાવેને છોડવા જોઈએ. અને પુણ્યાત્સવના હેતુઓનું સેવન કરવું જોઈએ. ૯રા Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऎकादशः सर्गः 347 धर्यकिया परा सेयं दानादि शुभकर्मणा / गार्हस्थ्यकक्रियां योग्यां निर्वहन्ती शुभां बभौ // 13 // अर्थ-धर्मिक क्रियाओं के करने में तत्पर ऐसी यह सुदर्शना दानादिक शुभ कार्यों द्वारा योग्य शुभ गार्हस्थ्यिक क्रियाओं का निर्वाह करती हुई सुशोभित हुई. // 13 // ધાર્મિક ક્રિયાઓ કરવામાં તત્પર એવી આ સુદર્શના દાનાદિ શુભકાર્યો દ્વારા યોગ્ય શુભ ગૃહરથ સંબંધી ક્રિયાઓ ને નિર્વાહ કરતી શભા પામી. 93 लोकचंद्रोऽपि कार्याणि यथायोग्यं समुद्रहन् / . सातवेदोदयाल्लाभं लभमानो राज सः // 94 // अर्थ-वे लोकचन्द्र भी यथा योग्य कार्यों को करते एवं सातावेदनीय कर्म के उदय से उनसे लाभ लेते हुए सब को बडे प्यारे लगते // 14 // એ લેકચંદ્ર પણ યથાયોગ્ય કાર્યો કરતા અને સાતવેદનીય કર્મના ઉદયથી તેનાથી લાભ લેતા સૌને ઘણુ પ્રેમારપદ લાગતા હતા. 94 पित्रामा लोक चंद्रोऽयं गंगया च वधूः समम् / ____स्व स्व कार्यस्य नेताऽभूत् नेत्रीय स्वानुभावतः // 95 // अर्थ-पिता के साथ लोकचन्द्र और गंगा के साथ यह सुदर्शना बहू अपने अपने कार्य के अपने प्रभाव से नेता और नेत्री हुए // 95 // પિતાની સાથે લેકચંદ્ર અને ગંગાદેવીની સાથે આ સુદર્શના વહુ પોતપોતાની કાર્ય કુશળતાથી અને પોતપોતાના પ્રભાવથી નેતા અને મૈત્રી બન્યા. છેલ્પા मूलोत्तरान् गुण्यगुणानगण्यान् संधारयंस्तान सततं सुमत्या। चंद्रांशुवन्निर्मलभावजुष्टः श्रीघासीलालोऽस्तु मुदे मुनीन्द्रः // 95 // अर्थ- जो उपयोगपूर्वक निरन्तर मुनिमान्य उन२ मूलगुणों को और उत्तर गुणों को धारण करते हुए चंद्रकी किरणों जैसे निर्मल आत्मपरिणामों से युक्त हैं ऐसे वे मुनीन्द्र घासीलाल जी महाराज मेरे लिये आनन्दके निमित्त हों // 96 / / જેઓ ઉપગપૂર્વક હમેશાં મુનિ માન્ય છે તે મૂલ ગુણને અને ઉત્તર ગુણને ધારણ કરીને ચંદ્રના કિરણો જેવા નિર્મળ આત્મપરિણામોથી યુક્ત છે, એવા એ મુનિન્દ્ર ઘાસીલાલજી મહારાજે મને આનંદ આપનારા થાવ. ૧૯દા एकादशः सर्गः समाप्तः // 11 // Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते __ अथ द्वादशः सर्गः प्रारभ्यतेकल्पद्रुमाच्छेष्ठतरोऽस्ति धर्मो, गतस्पृहाणामपि यद्ददाति / स्वर्गापवर्गों ध्रुवमर्थितोऽपि यतो न तो दातुमसो समर्थः / / 1 / / अर्थ-धर्म, कल्पवृक्ष-से भी अत्यन्त श्रेष्ठ है. क्यों कि यह विना भोगे ही अपने सेवकों को स्वर्ग और मोक्ष देता है. लय कि कल्पवृक्ष ऐसा नहीं है क्योंकि वह तो मांगने पर भी इन्हें मोक्षसुख को देने में असमर्थ है // 1 // ધર્મ, કલ્પવૃક્ષ કરતાં પણ ઘણું જ ઉત્તમ છે. કેમકે તે ભોગવ્યા વિના જ પિતાના સેવકોને સ્વર્ગ અને મોક્ષ આપે છે. અને કલ્પવૃક્ષ એવું હોતું નથી કારણ કે કલ્પવૃક્ષ તે માગવા છતાં પણ મોક્ષ સુખ આપવા શક્તિમાન નથી. 11 संसारदुःखान्मृतिजन्मरूपाज्जीवान् बहिष्कृत्य च मुक्तिमार्गे / आनाय्य संस्थापयति ध्रुवं यः धर्मः स एवास्ति जिनप्रणीतः // 2 // अर्थ-धर्म वही है जो जन्म मरण रूप सांसारिक दुःखों से छुडाकर जीवों को मोक्ष के मार्ग लगा देता है. और ऐसा वह धर्म जिनेन्द्र द्वारा ही कहा गया है // 2 // ધર્મતે એજ છે કે જે જન્મ મરણરૂપ સાંસારિક દુઃખોથી છોડાવીને જીવોને મોક્ષ માર્ગમાં લગાવી દે છે. અને એવો એ ધર્મ જીનેન્દ્રદેવે કહેલ તેજ છે. રા धर्मस्य संसेवनतो जनानां नश्यन्ति दुःखानि सगुभवन्ति / आत्मोत्थितान्येव सुखानि तस्मात्सुखेप्सुमिर्नित्यमसौ सुसेव्यः // 3 // अर्थ-धर्म को जो अच्छी तरह सेवन करता है उसके दुःख नष्ट हो जाते है और आत्मोत्थ सुख उसे प्राप्त होते हैं. इसीलिये सच्चे सुख के अभिलाषियों का कर्तव्य है कि वे नित्य ही धर्म का सेवन करते रहें // 3 // ધર્મનું જેઓ સારી રીતે પાલન કરે છે. તેના દુખે નાશ પામે છે. અને આત્મથિત સુખ તેને પ્રાપ્ત થાય છે. તેથી સાચા સુખના અભિલાષિનું કર્તવ્ય છે કે તેઓ હરહમેંશાં ધર્મનું પાલન કરતા રહે. વા धर्मामृता सेवनतो लभन्ते जना अनौपम्यमनङ्गतम्। . अतीन्द्रियं श्रेष्ठमनाद्यनन्तं शैवं सुखं जन्मजरादि हीनम् // 4 // अर्थ-धर्म यह एक अमृत है. जो प्राणी इसीका सेवन करते हैं वे जन्म जरा और मरण की व्याधि से मुक्ति पा लेते हैं और मोक्ष के अव्यावाध सुख Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशः सर्गः को प्राप्त कर लेते हैं यह मोक्षसुख अनुपम है इसकी न आदि है और न अन्त है. यह किसी भी इन्द्रिय से नहीं जाना जाता है अनीन्द्रिय है केवल ज्ञान से जाना जाता है अतः यह अनङ्गपूत है इसे प्राप्तकर जीव फिर जन्म जरा एवं मरण धर्मवाले शरीर से सदा के लिये रहित हो जाते हैं-अशरीरी हो जाते हैं अतः यह श्रेष्ठ है॥४॥ ધર્મ એ એક પ્રકારનું અમૃત છે. જે પ્રાણી તેનું સેવન કરે છે. તે જન્મ, જરા અને મરણની પીડાથી મુક્ત થઈ જાય છે. અને મોક્ષના અગ્યાબાધ સુખને પ્રાપ્ત કરી લે છે. આ મોક્ષ સુખ અનુપમ છે. તેની આદિ કે અત નથી. એ કોઈ પણ ઈદ્રિય દ્વારા જાણી શકાતું નથી. અપતિ ઇન્દ્રિયજ્ઞાનથી પર છે. તે કેવળ જ્ઞાનથી જ જાણી શકાય છે. તે આદિ અંત રહિત છે. તેને પ્રાપ્ત કરીને જીવ ફરીથી જન્મ, જરા કે મરણ ધર્મવાળા શરીર થી સદા માટે છુટિ જાય છે. અર્થાત્ અસારી બની જાય છે. તેથી જ એ શ્રેષ્ઠ છે. 4 धर्मानुरागप्रभवप्रभावाज्जनः स्वकर्तव्यरतः प्रकृत्या। : भद्रोऽय संतोषतः सुपात्रे दानादि सस्कृत्य पवित्र वित्तः / / 5 / / अर्थ-जो प्राणी धर्म में अनुरागवाला होता है वह अपने कर्तव्य के पालन में तत्पर रहता है. भद्रपरिणामी होता है-मंदकषायो होता है. संतोष से युक्त होता है और सत्पात्रदान आदि सत्कार्यों में अपने द्रव्यको खर्च करने वाला होता है // 5 // જે પ્રાણી ધર્મમાં પ્રીતિવાળો હોય છે, તે પિતાના કર્તવ્યના પાલનમાં તત્પર રહે છે, ભદ્રપરિણામી હોય છે. મંદ કષાયવાળા હોય છે. અને સત્પાત્રદાન વિગેરે સત્કાર્યોમાં પિતાના ઘનનો વ્યય કરવાવાળા હોય છે. પણ न्यायानुकूलाचरणं च तत्र, तत्रास्ति सदभावनया पवित्रम् / चारित्रमन्तःकरणस्य शुद्धिः वचोऽनुसारी व्यहारकृतिः // 6 // जीवानुकंपा महतां पुरस्तादु विनम्रता सम्यदि नाभिमानम् / परत्रलोकेऽस्ति मतिर्विरक्तिः पंचेन्द्रियाणां विषयेऽपरागः // 7 // परस्य दुःखे सति सोऽस्ति दुःखी सुखे च स स्थान्मुखितो विवेकी / परिग्रहे नैव कदापि शुद्धया हीनो भवेद्वा यदि पितृभक्तः // 8 // __ अर्थ-धर्म से युक्त का न्य नीति के अनुकूल आचरण होता है. सद्भावना से पवित्र आचार विचार होता है मानसिक स्थिति उसकी सुन्दर होती है. Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते कथन के अनुकूल उसकी व्यावहारिक प्रवृत्ति होती है. वह जीवों पर दयाभाव रखता है, महान् व्यक्तियों के प्रति वह सन्मान प्रदर्शित करता है. अपने अभ्युदय में उसके अहंकार का भाव नहीं होता है. परलोक है ऐसी उसकी मान्यता रहती है. पचेन्द्रियों के विषयों में उसको विरक्ति रहती है या स्वल्पराग होता है. दूसरे जीवों को दुःखित देखकर यह दुःखी होता है और सुखी देखकर सुखी रहता है परिग्रह में वह विवेकशाली होता है तथा आपत्ति काल में भी वह शुद्धि से रहित नहीं होता है और न माता पिता तथा गुरु की सेवा से विमुख रहता है / / 6-7-8 // ધર્મના આચરણવાળી વ્યક્તિનું આચરણ ન્યાય અને નીતિને અનુકૂળ આચરણ હોય છે. સભાવનાથી પવિત્ર આચાર વિચાર હોય છે. તેની માનસિક સ્થિતિ સુંદર હોય છે. બેલવા પ્રમાણેની તેની વ્યાવહારિક પ્રવૃત્તિ હોય છે. તે જીવો પર દયાભાવ રાખે છે. મહાન વ્યક્તિ પ્રત્યે તે સન્માનપૂર્વક વર્તે છે. તેને પોતાની ઉન્નતિમાં અહંકાર ભાવ હતો નથી. પરલેક છે તે પ્રમાણે તેની માન્યતા હોય છે. પંચેનિદ્રના વિષયમાં તે વિરકતભાવ રાખે છે. અથવા ઓછો રાગ રાખે છે. અન્ય જીવને દુઃખી જોઈને તે દુઃખી થઈ જાય છે. અને સુખી જોઈને સુખી બની જાય છે. પરિગ્રહમાં વિવેકી હોય છે. તથા આપત્તિના સમયે પણ તેઓ શુદ્ધિ રહિત હોતા નથી. તથા માતા પિતા અને ગુરૂની સેવાથી તે વિમુખ રહેતા નથી. 6-7-8 व्यर्थप्रलापं न करोति भक्ष्याभक्ष्यस्य तत्रास्ति विशिष्टबोधः / गृहागतं शिष्टजनं निरीक्ष्य प्रहर्षचित्तः स करोति तस्य // 9 // सत्कारवृत्तिं न च रात्रि मुक्तिं कदापि निंद्याचरणं करोति / न गर्हितां वापि कथां शृणोति न वक्ति तां वाक्यमरुन्तुदं वा // 10 // न भाषतेऽगालितमम्बरेण पिवत्ययं वारि न हीनवृत्तिं / / द्रव्याप्ति लोषाविदधाति नैव न बन्धु वगैः कलहायतेऽसौ // 11 // अर्थ-वह वृथावकवाद नहीं करता, भक्ष्य क्या है और अभक्ष्य क्या है ऐसा विशिष्ट बोध उसे होता है. कोई भी शिष्टजन-साधर्मिबन्धु-यदि घर पर आ जाता है तो उसे देखकर उसका चित्त पुलकित हो उठता है, उसका वह सत्कार करता है. रात्रि में वह कभी भोजन नहीं करता. निंद्य आचरण से वह दूर रहता है. गर्हित कथा को वह न सुनता है और न कहता ही है. तथा वह सी वाणी भी नहीं बोलता जो दूसरों के मर्मस्थान Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशः सर्गः को भेदन करने वाली हो. अनछना पानी वह नहीं पिता द्रव्य प्राप्ति के लोभ से वह हीन आजीविका नहीं करता और न अपने बन्धुओं के साथ वह लडाई झगडा ही करता है / / 9-10-11 // તેઓ વિના કારણ બકવાદ કરતા નથી. તેને ખાવા ગ શું છે? અને અખાદ્ય શું છે? તેને વિશેષ બોધ તેઓને હોય છે. કોઈ પણ શિષ્ટ પુરૂષ–સાધર્મિક બન્યું ને ઘેર આવી ચડે તે તેને જોઈને તેનું ચિત્ત આનંદિત થઈ જાય છે, તેને તે સત્કાર કરે છે. તે કોઈ પણ સમયે રાત્રે ભજન કરતા નથી. નિંદનીય આચરણથી તે દૂર રહે છે. નિંકથાને તે સાંભળતો કે કહેતું નથી. તે એવી વાણી બોલતા નથી કે જે બીજાના મર્મ સ્થાનને ભેદનારી હોય. વિના ગાળેલ પાણી તે પોતે નથી. ધન પ્રાપ્તિના લોભથી તે નિંદનીય રીતે આજીવિકા કરતો નથી. તથા પોતાના કુટુંબિયે સાથે તે લડાઈ ઝઘડા रतो नथी. // 6-10-11 // परोन्नति वीक्ष्य न दृयते सः न भाषते धर्मविरुद्धभाषाम् / मित्रेण सार्धं कपटं च न चासौ चरत्यनाचार विदूरगः स्यात् // 12 // अर्थ-दसरे की उन्नति देखकर वह मन में कुडता नहीं है. धर्म विरुद्ध भाषा का प्रयोग नहीं करता, मित्र के साथ कपट नहीं करता और अनाचार से वह दूर रहता है // 12 // બીજાની ઉન્નતિ જોઈને તે મનમાં બળાપો કરતું નથી, ધર્મ વિરૂદ્ધની વાણીને પ્રગ કરતો નથી. મિત્રની સાથે તે કપટભાવ રાખતા નથી. તથા દુરાચારથી દૂર રહે છે. I૧ર क्रोधादिभि नैव च दग्धचित्तो भवत्स तै नैव विलुप्तबोधः / तेष्वागतेषु प्रियवाक्यमेव वदत्ययं तांश्च रुणद्धि शक्त्या // 13 // अर्थ-क्रोधादिक कषायों द्वारा यह दग्ध चित्त नहीं होता, यदि कषायें उद्भवित हो भी जावे तबभी उसका बोधलुप्त नहीं होता है. जहांतक बनता है वह प्रियवचन ही बोलता है. गाली आदि का प्रयोग नहीं करता. कषाय न जगे इस प्रकार का ही वह अपनी शक्ति के अनुसार प्रयत्न करता रहता है // 13 // તે ધાદિ કષાયથી દગ્ધ ચિત્તવાળો હોતો નથી. જો કષાયને ઉદ્દભવ થાય તે પણ તેનો બોધ લુપ્ત થતો નથી. બનતા સુધી તે પ્રિય વચન જ બેસે છે. ગાળ વિગેરે કુભાષાનો પ્રયાગ કરતા નથી. કષાયભાવ જાગ્રત ન થાય તે પ્રકારે જ તે પિતાની શક્તિ પ્રમાણે પ્રયત્ન કરતો રહે છે. [1] Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 352 लोकाशाहचरिते टातं सुगं मांस पसौ च चौर्य वेश्यां परत्री च हिंसां / जहाति निंदां च परस्य, तृष्णां यथा कथञ्चिच्च तनू करोति // 14 // अर्थ-यह जुआ खेलना मदिरापान करना, मांस खाना, चोरी करना, वेश्या सेवन करना, परस्त्री सेवन करना और पंचेन्द्रिय जीवों की हिंसा करना, इन सब बातों को छोड़ देता है. और जैसे भी होता है यह अपनी तृष्णा को कम करता है और दूसरों की निन्दा करना-यह भी छोड़ देता है // 14 // તે જુગાર ખેલો કે મદિરાપાન કરવું, માંસ ખાવું. ચોરી કરવી, વેશ્યાસેવન કરવું. પરસ્ત્રી સેવન કરવું. અને પંચેન્દ્રિયની હિંસા કરવી. આ સઘળી વાતને છોડી દે છે. અને જેમ બને તેમ પોતાની તૃષ્ણ ઓછી કરે છે. અને બીજાની નિંદા કરવાનું પણ છોડી દે છે. ૧૪મા नीत्यानुकूलं समुपाय॑ द्रव्यं करोति निर्वाहमसौ विवेकी / न धूम्रपानं विदधाति नैव दुःसंगति श्रेष्ठजनैः सहेति // 15 // अर्थ-जितने द्रव्य से अपनी आवश्यकता की पूर्ति होती है उतने ही द्रव्य को यह नीति के अनुसार कमाता है उसी से अपना निर्वाह करता है धूम्र पान यह नहीं करता. तथा खोटी संगति से यह दूर रहता है. केवल श्रेष्ठधार्मिक व्यक्तियों को ही यह संगति करता है // 15 // , જેટલા દ્રવ્યથી પિતાની આવશ્યકતાની પૂર્તિ થાય એટલા જ દ્રબને તે નીતિ પ્રમાણે કમાય છે. અને તેનાથી જ પોતાનો નિર્વાહ ચલાવે છે. તે ધૂમ્રપાન કરતા નથી. તથા ખોટા સંગથી તે દૂર રહે છે. કેવળ ધાર્મિક વ્યક્તિઓની જ તે સંગતિ કરે છે. ઉપા इत्येवमुक्तः खलु गेहिनोऽयं सास्ति संक्षेपतयाऽथ धर्मः / सामान्यरूपेण विशेषतो वा ऽऽगमेषु बद्धस्तत एव बोध्यः // 16 // ___ अर्थ-इस प्रकार से जो यह पूर्वोक्त रूप से कहा गया है वह सामान्यरूप से गृहस्थ का धर्म-आचार कहा है-विशेषरूप से इसका आचार आगम ग्रन्थों में कहा गया है अतः वहां से ही यह ज्ञात कर लेना चाहिये // 16 // આ રીતે જે આ પૂર્વોક્ત રીતે કહ્યું છે, તે સામાન્ય રીતે ગ્રહસ્થનો ધર્મ-આચાર કહ્યો છે. વિશેષ રીતે તેને આચાર આગમ ગ્રોમાં કહેલ છે, તેથી ત્યાંથી તે જાણી લેવો જોઈએ. 16 हैमेन वा तत् प्रियया गृहस्थ धर्मस्य सापान्यतयोपदेशः। . श्रुतश्च पश्चात् खलु आगमेषु तथैव ताभ्यां स च वाचितश्च // 17 // Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशः सर्गः 353 अर्थ-हेमचन्द्र सेठ और उनकी धर्मपत्नी ने सामान्य रूप से गृहस्थ धर्म का यह उपदेश सुना और बाद में आगमों में ऐसा ही वांचा // 17 // * હેમચંદ્રશેઠ અને તેની ધર્મપત્નીએ સામાન્ય રીતે આ ગૃહથ ધર્મને ઉપદેશ સાંભળે અને તે પછી આગમાં તે પ્રમાણે જ અવકન કર્યું. ૧છી अथान्यदा तौ विजनं गृहीत्वा परस्परं चावदतां विमृश्यवधूसुतौ कार्यविधानदक्षौ जातावतो नोऽस्ति न कृत्यमत्र // 18 // अर्थ-एक दिन की बात है कि हैमचन्द्र और गंगा देवी ने जब कि ये दोनों एकान्त में बैठे हुए थे परस्पर में विचार किया-पुत्र और वधू दोनों गार्हस्थ्यिक कार्य करने में दक्ष हो चुके हैं अतः अब हम लोगों को कोई काम करने जैसा नहीं रहा है // 18 // એક દિવસે હેમચંદ્ર અને ગંગાદેવીએ કે જયારે તેઓ એકાન્તમાં બેઠા હતા ત્યારે પરસ્પર વિચાર કર્યો કે-પુત્ર અને પુત્રવધૂ બન્ને ગૃહરથાઈ સંબંધી વ્યવહારિક કાર્યમાં ચતુર થઈ ગયા છે. તેથી હવે આપણે કંઈ પણ કામ કરવા જેવું રહેલ નથી. 18 अतोऽहमिच्छामि पदे स्वकीये संस्थाप्य तं स्वात्महितं च कुर्याम् / कष्टेन लब्धं नरजन्म चेडा व्यर्थ गतं कष्टमतोऽधिकं किम् // 19 // अर्थ-इसलिये मेरी भावना है कि मैं अपने पद पर उसे स्थापित कर अपनी आत्मा का हित करूं, क्यों कि कष्ट से प्राप्त हुआ मनुष्य भव यदि व्यर्थ ही चला गया तो इससे अधिक और क्या कष्ट हो सकता है // 19 // ' તેથી મારી ભાવના છે કે-હું મારા રથાન પર તેને સ્થાપિત કરીને મારા આત્માનું હિત સાધું. કેમકે-ઘણી જ મુશ્કેલીથી પ્રાપ્ત થયેલ આ મનુષ્યભવ જો ફેગટ ચાલ્યા જાય તે તેનાથી વધારે અન્ય કષ્ટકારક શું કહેવાય. 19 संसारभोगा निखिलाश्च भोगास्तथापि तेभ्योऽस्य भवेन्न तृप्तिः। तरङ्गिणीभ्यो न कदापि दृष्टः संतोषपोषोऽथ सरस्वतीह // 20 // अर्थ-मैंने संसार के सभी भोग भोग लिये हैं. फिर भी इस आत्ना को इनसे तृप्ति नहीं हो पाई है. सच है-नदियों से समुद्र को कभी तृप्ति नही होती // 20 // મેં સંસારના સઘળા ભોગો ભેગવી લીધા છે. તે પણ આ આત્માને તેનાથી તૃતિ મળી નથી સાચું જ છે કે-નદીથી સમુદ્રને કયારેય તૃપ્તિ થતી નથી. ર૦ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते यथा न वह्ने भवतीन्धनानां प्रक्षेपतः शान्तिदचिरेवम् / न प्राणिना मिष्टपदार्थलाभात् प्रशाम्यति भोग्यपदार्थलिप्सा // 21 // ___ अर्थ-जिस प्रकार अग्नि में ईधन के डालने से वह शान्त नही होती प्रत्युत बढती है-उसी प्रकार प्राणियों के भोग्य पदार्थ लिप्सा इष्ट पदार्थों के लाभ से कभी शान्त नहीं होती है // 21 // જેમ અગ્નિમાં બળતણ નાખવાથી તે શાંત થતું નથી કે વધે છે. એ જ પ્રમાણે પ્રાણિઓને ભાગ્ય પદાર્થ ભેળવવાની ઈચ્છા ઈટ પદાર્થોની પ્રાપ્તિથી કયારે ય શાંત થતી નથી. ર૧ लूता यथा निर्मितजालमाला मग्ना सती मृत्युमरक्षितैय / आप्नोति जीवोऽपि तथैव धिक तं परिग्रहारंभविलीनचित्तम् // 22 // अर्थ-जिस प्रकार मकडी अपने द्वारा बनाये जाल में फंसकर प्राणों गंवा देती है. उस समय उसकी कोई रक्षा करने वाला नहीं होता, उसी प्रकार यह जीव भी जो कि परिग्रह और आरंभ में फंसा हुआ है उसी में प्राण गंवा देता है-तो इसे धिक्कार है. // 22 // જેમ કરોળી પોતે બનાવેલ જાળમાં ફસાઈને પ્રાણ ગુમાવી દે છે. તે વખતે તેનું રક્ષણ કરવાવાળું કોઈ હેતું નથી. એજ પ્રમાણે આ જીવ પણ કે જે પહિ અને આર. ભમાં ફસાયેલ છે. તેમાં જ પોતાના કીમતી પ્રાણ ગુમાવી દે છે, તેથી તેને ધિકાર છે. મારા यावज्जा देहमिमं विवर्ण करोति नो जर्जरितं हितं स्पम् / जीवेन तावत्करणीयमेवं वदन्ति ते वीरजनाः शरण्याः // 26 // अर्थ-भव्य जीवों को शरण देने वाले श्री वीर जिनेन्द्र ऐसा कहते हैं कि जब तक वुढापा इस देह को कान्ति हीन एवं जर्जरित नहीं कर पाता है तब तक जीव को अपना हित कर लेना चाहिये // 23 // ભવ્ય જીને શરણું આપવાવાળા શ્રી વીરજીને દ્ર એવું કહે છે કે-જયાં સુધી વૃદ્ધાવસ્થા આ શરીરને કાંતિ રહિત અને શિથિલ કરી ન દે ત્યાં સુધીમાં જે પિતાનું હિત સાધી લેવું જોઈએ. રક્ષા यावद्धृषीकेषु समस्ति शक्तिः स्वस्वार्थबोधकता विशिष्टा। जीवेन तावत्स्वहिते विधेयो यत्नो गृहीते च कालेन किं स्यात् // 24 // Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशः सर्गः 355 अर्थ-जब तक इन्द्रियों में अपने 2 विषय को ग्रहण करने की विशिष्ट शक्ति है तब तक जीव को अपने हित साधन में प्रयत्न कर लेना चाहिये. काल-(आयुष्य पूरा होने) पर फिर कुछ करते नहीं बनेगा // 24 // જયાં સુધી ઈદ્રિમાં પિતતાના વિષયને ગ્રહણ કરવાની વિશેષ પ્રકારની શક્તિ રહે છે, ત્યાં સુધીમાં જીવોએ પિતાનું હિત સાધવાનો પ્રયત્ન કરી લેવો જોઈએ. કાલે (આયુષ્ય પૂરું થયા પછી) કંઈ પણ કરી શકાશે નહીં. ર૪ स्वकार्य संपादनशक्तिमन्तौ कलेवरेऽस्मिन् खलु पाणिपादौ / यावच्च तावत्स्वहितं विधेयं दिशन्ति जीवाननिशं मुनीन्द्राः // 25 // अर्थ-इस शरीर में वर्तमान हाथ पैर जबतक शिथिल नहीं होते हैं. वे शक्ति संपन्न बने हुए हैं-अर्थात् अपना 2 कार्य करने में सक्षम हैं-तब तक जीव को अपना हित साध लेना चाहिये ऐसा मुनीन्द्र भव्य जीवों को निरन्तर समझाते रहते हैं // 25 // આ શરીરમાં રહેલા હાથપગ જયાં સુધી ઢીલા પડતા નથી. તે શક્તિશાળી બનેલા રહે છે, અર્થાત પિતાપિતાનું કાર્ય કરવામાં પાક્તિશાળી હોય ત્યાં સુધી જીવે પોતાનું હિતા સાધી લેવું જોઈએ. એ પ્રમાણે મુનિન્દ્ર ભવ્ય જીવોને હમેશાં સમજાવતા રહે છે. રપા भवोऽस्त्ययं तावदनित्य एव संयोगिनोऽप्यत्र न नित्यरूपाः। अस्यां स्थिती ब्रूहि मया विधेयं किमत्र कान्ते ! समवर्तिताऽदये / 26 // अर्थ-यह भव-पर्याय अनित्यही है तथा संयोगी जितने भी पदार्थ हैं वे भी सब नित्य नहीं हैं-अनित्यहैं ऐसी हालत में हे प्रिये ! कहो-कालके आधीन बने हुए इस भव में मुझे क्या करना चाहिये // 26 // આ ભવ–પર્યાય અનિત્ય જ છે. તથા સંગી જેટલા પદાર્થો છે, તે બધા પણ નિત્ય નથી. અર્થાત અનિત્ય જ છે. હે પ્રિયે! કહે એ સ્થિતિમાં કાળને વશ થયેલા મારે આ भवमा शु७२ लेये. // 26 // लक्ष्मी-सुता-पुत्र-कलन-भृत्याः सर्वेऽस्थिरा एषु विमुग्धचित्ता स्वस्याहितं ह्याचरमाण एषः कथं मुखस्थं ननु मन्यते स्वम् // 27 // अर्थ-लक्ष्मी (धन-संपत्ति) सुता, पुत्र, कलत्र और भृत्य ये सब अस्थिर हैं इन में मोहित हुआ यहजीव अपना स्वयं का अहित करता हुआ कैसे अपने को सुखी मान रहा है // 27 // Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - लोकाशाहचरिते सभी (धन-संपत्ति ) सुता, पुत्र, श्री मने सेवामा प्रथा मस्थिर छे. તેમાં મોહ પામેલ આ જીવ પોતાનું જ કરીને પિતાને સુખી કેવી રીતે માનતો હશે ? રા रूपं विरूपं जरसा विधीयम नं स्वदृष्ट्या प्रविलोक्यतेऽत्र / श्रीविद्युदामेव च यौवनं हा ! वनापगाम्भोनिभमस्थिरं वत् // 28 // अर्थ-यह जाव अपने शारीरिकरूप को वुढापे से विरूप किया जा रहा लक्ष्मी (धन) को विजली की जैसी चञ्चल होती हुई और यौवन को जंगल की नदी के पानी के जैसा अस्थिर होता हुआ अपनी आखों से देख रहा है // 28 // આ જીવ પોતાના શરીરના રૂપને ગઢપણથી કદરૂપું બનાવતું, લક્ષ્મી (ધન)ને વિજવીના જેવી ચંચળ-અસ્થિર બનતી અને યૌવનને જંગલની નદીના પાણીની જેમ અસ્થિર બનતું પિતાની આંખોથી જોઈ રહ્યો છે. રટા आयुर्घटीयंत्रगताम्बुबद्धा प्रतिक्षणं निर्गलतिच्छरीरम् / अत्यन्त दुर्गन्धि जुगुप्सितं च विलोकयन्ने कथं प्रमत्तः // 29 // अर्थ-और देख रहा है कि आयु घटीयंत्र गत जल, की तरह क्षण में निकलती जा रही एवं शरीर अत्यन्त दुगैधित और धृणास्पद है फिर भी यह अपने हित करने में प्रमादी क्यों हो रहा हैं. // 29 // તથા એ પણ જઈ રહેલ છે કે-આયુષ્ય ઘટિયંત્ર (ટ)માં રહેલ પાણીની માફક ક્ષણે ક્ષણે નીકળતું જાય છે. અને શરીર અત્યંત દુર્ગધ યુક્ત તથા ઘણાપદ છે. તે પણ તે પિતાનું હિત કરવામાં પ્રમાદી કેમ બને છે? ર૯ जीवःस्वकल्याणकृतौ भवेऽस्मिन् सुखस्य लेशोऽप्यति दुर्लभोऽस्ति / दुःखं महत्तस्मिन् सौख्यकांक्षा तैलाप्तिवत्सैकततोऽथ तस्य // 30 // अर्थ-शायद इसलिये कि इसे यहां सुख प्राप्त होता है सो-इस संसार में सुख का अंश भी नहीं है. यहां तो केवल महान् दुःख ही है. अतः यहां सुख की कामना जीव की ऐसी है कि जैसी वालुका के ढेर से तैल प्राप्त की कामना होती है // 30 // ઘણું કરીને એટલા માટે કે તેને અહિં સુખ મળે છે. તો આ સંસારમાં અંશ માત્ર પણ સુખ નથી. અહીં તો કેવળ મહાન દુઃખ જ છે, તેથી અહીં જીવની સુખની કામના એવી છે કે જેમ રેતીના ઢગલામાંથી તેલ મેળવવાની કામના કરાય છે. આવા Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशः सर्गः 357 अनादितः संभ्रमताऽमुनाऽत्र जीवेन लब्धं न गतौ च कस्याम् / निराकुलं तच सुखं यदाप्तं सर्वं सवाधं सपरं क्षणस्थम् // 31 // अर्थ-अनादिकाल से इस संसार में भ्रमण करते हुए इस जीवने कीसो गति में निराकुल सुख प्राप्त नहीं किया है और जो सुख इसने प्राप्त किया है वह सब बाधासहित-दुःख सहित, एवं क्षणस्थायी ही प्राप्त किया है // 31 // અનાદિકાળથી આ સંસારમાં ભ્રમણ કરતા આ જીવે કઈ પણ ગતિમાં અવ્યાબાધ સુખ મેળવેલ નથી. અને તેણે જે સુખ મેળવ્યું છે, તે સઘળું બાધાસહિત, દુખસહિત અને ક્ષણ સ્થાયિ જ મેળવેલ છે. l31u दुर्ध्यान रौद्रातमुपागतस्य पंचेन्द्रियार्थेषु विमुग्धवृत्तेः / जीवस्य पातो नरकादियोनौ नूनं भवत्येव च दुर्विपाकात् // 32 // अर्थ-जो जीव पांचों इन्द्रियों के विषयों में लवलीन रहता है वह आत. ध्यान और रौद्रध्यान इन दो ध्यानों वाला होता है और ऐसे उस जीव का पतन नरकादि गतियों में नियम से होता है // 32 // - જે જીવ પાંચે ઈદ્રિના વિવેમાં ખરડાઈને રહે છે, તે આર્તધ્યાન અને રૌદ્રધ્યાન એ બે ધ્યાનોવાળો હોય છે. અને એવા એ જીવનું પતન નિયમથી નરકાદિ ગતિમાં થાય છે. ૩રા श्वभ्रेषु जीवेन महन्ति यानि दुःखानि भुक्तानि यदीह तानि / स्मृतानि स्युस्तर्हि न कोऽपि जीवो . भोगान् विमोक्तुं किल सक्षमः स्यात् // 33 // अर्थ-नरकों में जीवने जिन 2 महान् दुःखों को भोगा है वे यदि इस पर्याय में स्मरण हो जावें तो कोई भी जीव भोगों को भोगने के लिये तैयार ही नहीं हो (अर्थात्-मृगापुत्र के जैसे) ! 'उत्तराध्ययनसूत्र, // 33 // નરકમાં જીવે છે જે મહાન દુઃખો ભોગવ્યા છે, તે જો આ પર્યાયમાં યાદ આવી જાય તો કોઈ પણ જીવ ભેગોને ભેગવવા તૈયાર જ ન થાય (અર્થાત્ મૃગાપુત્રની જેમ) ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર. 33 दुर्ध्यानमाला सहितेन तेन सौख्येहया या भोगमाला / भुक्ता तयैवात्र विपच्यते हा ! दुःखैकरूपेण गतावमुष्याम् // 34 // Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते ____ अर्थ-आर्तरौद्रध्यान सहित होकर सुख की वृद्धि से जीवने जिन भोगों को भोगा है-वेही भोग वहां नरक में दुःखरूप होकर उदयमें आते हैं // 34 // આર્ત અને રૌદ્રધ્યાન યુક્ત થઈએ સુખના વધારાથી જીવે જે ભોગો ભેગવ્યા છે, એજ ભોગો અહીં નરકમાં દુઃખરૂપ થઈને ઉદયમાં આવે છે. 34 चतुर्गती जन्मजराकृतीनां कष्टानि लब्धानि तथापि नास्य / भोगस्पृहा शान्ति मिताऽबुधस्य धिगस्त्विमांतंच जनं ह्यतृप्तम् // 35 // अर्थ-चारों गतियों में इस मूर्खजीव ने जन्म, जरा और मरण के कष्टों को प्राप्त किया हैं. फिर भी इसकी भोग स्पृहा शान्त नहीं हुई है अतःइस भोगस्टहा को और इस अतृप्त हुए जन को धिक्कार है // 35 // ચારે ગતિમાં આ મૂર્ણ જીવે જન્મ, જરા અને મરણના દુઃખને જ મેળવ્યા છે. છતાં પણ તેની ભેગેછા શાંત થયેલ નથી. તેથી આ ભોગેચ્છાને અને આ અતૃપ્ત રહેલ જીવને ધિક્કાર છે. રૂપા नृ जन्म लब्ध्वापि न तत्र लब्धा जीवेन शान्ति निशं कषायैः। परिग्रहारंभ समार्जनस्तै भौगोपभोगैश्च समाकुलेन // 36 // अर्थ-मनुष्य जन्म पाकर भी इस जीवने वहां शान्ति प्राप्त नहीं की. क्यों कि यह निरन्तर कषाय, परिग्रह, आरंम और भोगोपभोगों द्वारा आकुलित बना रहा // 36 // મનુષ્ય જન્મ પામીને પણ આ જીવે ત્યાં શાંતી મેળવી નહીં. કેમકે આ હમેશાં કષાય, પરિગ્રહ આરંભ અને ગોપભોગો દ્વારા આકુળ થઈ ગયેલ છે. ઉદા मोक्षकहेतावपि दुःखराशिं यमश्नुते कर्म च यैः प्रणुन्नः। अत्रापि जीवः स्वर्जघन्यै रुदीरितैस्तावदयं जघन्यम् // 37 // अर्थ-यह मनुष्य गति मुक्ति प्राप्त कराने में असाधारण कारण है. फिर भी इसमें वर्तमान यह जीव अपने द्वारा किये गये जघन्यकों के द्वारा जब कि वे उदय में आते हैं प्रेरित हुआ निकृष्ट दुःखोंकी राशि को ही भोगता है // 37 // આ મનુષ્પગતિ મુક્તિ પ્રાપ્ત કરવામાં અસાધારણ કારણ છે. તે પણ આમાં રહેલી આ જીવ પોતે કરેલા નિંદનીય કર્મો દ્વારા કે જયારે તે ઉદયમાં આવે છે. પ્રેરિત થઈને હલકામાં હલ્કા દુઃખ સમૂહોને જ ભોગવે છે. પાકા Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशः सर्गः 359 अनिष्टयोगेष्टवियोगजन्यां दु खैकरूपां महतीं प्रभुके / अस्यां गतौ स्वस्य हितानभिज्ञः धर्मप्रसेवा विमुखो शान्तिम् // 38 // ___ अर्थ-वह जीव जो धर्म की मन, वचन और काय से सेवा करने से विमुख रहता है एवं अपना हित किस काम में है ऐसा जानता नहीं है इस मनुष्यगति में अनिष्ट के योग से और इष्ट के वियोग से उदभूत हुई दुःख स्वरूप अशान्ति को भोगता रहता है // 38 // - તે જીવ કે જે મન, વચન અને કાયાથી ધર્મની સેવા કરવાથી વિમુખ રહે છે. અને પિતાનું હિત ક્યા કામથી છે તે જાણતો નથી, તે આ મનુષ્ય ગતિમાં અનિષ્ટના યોગથી અને ઈષ્ટના વિયેગથી ઉદ્ભવેલી દુઃખરૂપ અશાંતિને ભગવત રહે છે. 38 जरादितस्तावदयं यदा स्यात् भवेदनीशोध भृतानुरूपः / कथं भवेत्स्वस्य हिते प्रसक्तः गात्रेन्द्रियार्थेष्वसमर्थवृत्तिः 39 // __ अर्थ-जब यह वृद्धावस्था से पीडित हो जाता है तब शक्ति रहित हुआ यह आधे मरे हुए के जैसा बन जाता है. फिर यदि यह चाहे कि मैं इस अवस्था में अपने हित में लग जाऊं तो यह कैसे हो सकता है. क्यों कि उस स्थिति में यह अपने शरीर और इन्द्रियों के विषयों में असमर्थ वृत्तिवाला हो जाता है. // 39 // - જ્યારે તે ગઢપણથી પીડાય છે, ત્યારે શક્તિ વિનાને થઇને અર્ધા મરેલાની જેમ બની જાય છે. તેમાં જો એ એમ છે કે હું આ અવસ્થામાં મારું હિત સાધવામાં લાગી જાઉ, તો તે કેવી રીતે બની શકે? કેમકે એ સ્થિતિમાં તે પિતાના શરીર અને ઇન્દ્રિયના વિષયમાં જ અશક્ત વૃત્તિવાળે થઈ જાય છે. 39 रामा रमा-राधनसक्तचित्तः वृथैव संकल्पशतैरजस्रम् / नयत्ययं हा ! रमणीरमण्या सहैव तारुण्यमनङ्गकेल्या // 40 // अर्थ-जवानी में यह स्त्री और लक्ष्मी की आराधना करने में चिपका रहता है. एवं वृथा ही सैकडो प्रकार के संकल्पों से तथा निरन्तर सुन्दर स्त्री के साथ अनङ्ग क्रीडा से-कामसेवन से. अपनी जवानी को निकाल देता है. व्यतीत कर देता है // 40 // યુવાન અવરથામાં તે સ્ત્રી અને લક્ષ્મીની આરાધના કરવામાં ચિપકી રહે છે. અને નક્કામો જ સેંકડે પ્રકારના સંકલ્પથી અને હમેશાં સુંદર સિની સાથે કામક્રીડામાં– કામસેવનમાં પિતાની યુવાની ગુમાવી દે છે. જો Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 360 लोकाशाहचरिते तदा च कान्ताचरणे प्रसक्ति भवेद्धि कान्ताचरणं च यूनः। वैराग्यरङ्गोऽपि यतोऽस्य चित्ते तरङ्गमालायत एव मारात् // 41 // __ अर्थ-युवावस्था में कामदेव की कृपा से युवा कान्ता के चरणों में लवलीनता ही सुहावना आचारण बन जाता है और उस पर वैराग्य का रङ्ग तरङ्ग माला के जैसा स्थिर नहीं रहता है. // 41 // યુવાવરથામાં કામદેવની કૃપાથી યુવાન સ્ત્રીના ચરણમાં લીન થવું એજ સોહામણું આચરણ બની જાય છે. અને તેના પર વૈરાગ્યનો રંગ તગની માળાની જેમ સ્થિર રહેતું નથી. 41 हा ! बाल्य कालोऽपि न चास्य योगक्षेमावहस्तावदिहास्ति यस्मात् / अज्ञानमोहावृतचेतसोऽस्ति कथं स्वकल्याणपथं स व्यायात् // 42 // ___ अर्थ-मनुष्यपर्याय में विराजमान इस जीव का बाल्य काल भी योग और क्षेम का कारक नहीं होता है. क्यों कि उस समय यह जीव अज्ञान और मोह से ढका हुआ चित्त वाला रहता है. अतः वह अपने कल्याण कारक पथ पर कैसे चल सकता है. // 42 // મનુષ્ય પર્યાયમાં રહેલ આ જીવની બાલ્યાવસ્થા પણ ગ અને ક્ષેમનું કારણ બનતી નથી. કેમકે એ સમયે આ જીવ અજ્ઞાન અને મોહથી ઢંકાયેલ ચિત્તવાળા રહે છે. તેથી તે પિતાના કલ્યાણ માર્ગ પર કેવી રીતે ચાલી શકે ? u૪રા अस्यां दशायां वद साध्विभार्ये ! किमावयो रस्तिं विमृश्य कृत्यम् / हिते प्रमादाचरणं न भाव्यं श्वः किं भवेत् कोऽपि न वेत्तु मीशः // 43 // अर्थ-हे साध्विभार्थे ! सोच समझ कर कहो कि इस स्थिति में हम दोनोंको क्या करना चाहिये. हित में प्रमाद का सेवन करना यह अच्छा नहीं है. कल क्या होगा यह कौन कह सकता है. अर्थात् इस बात को ज्ञानी जानते हैं / / 43 // છે સાળી સ્ત્રી ! સમજી વિચારીને કહે કે આ રિથતિમાં આપણે બેઉએ શું કરવું ગ્ય છે?.હિત સાધવામાં આળસ કરવી તે સારું નથી. કાલે શું થશે ? એ કોણ કહી શકે તેમ છે ? અર્થાતુ એ વાત તો કેવળ જ્ઞાની જ જાણી શકે છે. 43 कृतान्तकान्ताहतवैरिवृन्दा कृतान्तकान्ता अपि ते समन्तः। भद्राश्च जाताश्च समन्तभद्रा न कोऽपि मह्यां यमराज राजः // 44 // Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशः सर्गः ___ अर्थ-जिन्हों ने वैरियों के समूह को नष्ट कर दिया है एवं बारह अंग और 14 पूर्व के जो ज्ञाता हो गये हैं तथा सब ओर से जो कल्याणों के भोक्ता हुए है ऐसे भी नर पुङ्गव कृतान्त-काल पूर्ण होने पर मोक्ष में तथा देवलोक मे चले गये // 44 // જેઓએ દુશ્મનોના સમૂહનો નાશ કરેલ છે, તથા બાર અંગ અને ચૌદ પૂર્વના જ્ઞાતા બની ગયા છે. તથા બધી બાજુથી જેઓ કલ્યાણને ભોગવનાર બન્યા છે, એવા નર શ્રેષ્ઠ પણ કૃતાન્ત-કાળ પૂર્ણ થવાથી મેક્ષમાં તથા દેવલોકમાં ચાલ્યા ગયા. 44 नाथोक्तमेतन्निखिलं निशम्य गंगाऽवदत्सत्यमिदं तथापि / प्रपाल्य शीलं व्रतमत्र सम्यग्गृहस्थधर्मः खलु सेवनीयः // 45 // अर्थ-हे नाथ ! आप-जो कुछ कह रहे हैं वह बिलकुल सत्य है ऐसा हैमचन्द्र सेठ के कथन को सुनकर गंगा देवी ने कहा और कहा कि शील और व्रतों का-देशव्रतों का पालन करके यहीं घर में रहते हुए गृहस्थ धर्म का सेवन करना चाहिये // 45 // પિતાના સ્વામી હેમચંદ્રશેઠનું પૂર્વોક્ત કથન સાંભળીને ગંગાદેવીએ કહ્યું–હે નાથ ! આ૫ જે કહી રહ્યા છો તે બિલકુલ સત્ય જ છે. માટે આપણે શીલ અને વ્રત-દેશવ્રતનું પાલન કરીને અહીં ઘરમાં રહીને જ ગૃહાથે ધર્મનું સેવન કરવું જોઈએ. જપા शक्याऽऽनुरूप्यं प्रतिपाल्य सम्यग्नतानि चान्यानि गृहस्थधर्मः / प्रभावनीया जिनदेव शिक्षा गृहे समास्थाय मतिर्मदीया // 46 // __ अर्थ-तथ-गृहस्थ धर्म से सम्बन्ध रखने वाले और भी व्रतनियमदिकों को अपनी शक्ति के अनुसार अच्छी रीति से पालन करके गृहस्थ धर्म की प्रभावना-उद्योत-करना चाहिये. ऐसी प्रभु की शिक्षा है. अतः घर में ही रह कर गृहस्थ धर्म का हम पालन करें यही मेरी राय है // 46 // તથા ગૃહર ધર્મ સાથે બંધબેસતા બીજા પણ વ્રત નિયમો વિગેરે પિતાની શક્તિ પ્રમાણે સારી રીતે પાલન કરીને ગૃહરથ ધર્મને દીપાવે જોઈએ એમ પ્રભુએ શિક્ષા કહી છે, તેથી ઘર પર જ રહીને ગૃહસ્થ ધર્મનું આપણે પાલન કરીએ એજ મારી સલાહ છે. 46 गृहे समास्थाय गता विमुक्तिं व्रतानि संसेव्य जना अनेके / भव्या यथाशक्ति मया त्वया च गृहस्थधर्मो गृह एव सेव्यः // 47 // 46 Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते अर्थ-गंगा ने पुनः कहा-कि अनेक भव्यजीव घर पर रह कर ही व्रतों का सेवन करके इस संसार में पारंगत हो गये हैं. अतः तुमको और हम को घर पर रह कर ही गृहस्थ धर्म का पालन करना चाहिये. // 47 // ગંગાદેવીએ ફરીથી કહ્યું કે અનેક ભવ્ય જીવે ઘેર રહીને જ વ્રતનું પાલન કરીને આ સંસારને પાર કરી ગયા છે. તેથી આપણે ઘેર રહીને જ ગૃહસ્થ ધર્મનું પાલન કરવું એજ ઈષ્ટ છે. 147 श्रवोऽमृतस्यन्दिवचो निशम्य देव्याः स हैमो मनसि प्रतुष्टः / सुतं समाहूय तदाऽवदत्तं चेत्थं शृणु त्वं यदहं ब्रवीमि // 48 // अर्थ-कानों को सुख पहुंचाने वाली गंगा देवी की वाणी को सुनकर वे हैमचन्द्र मन में बड़े प्रसन्न हुए. उन्हों ने उसी समय अपने पुत्र लोकचन्द्र को बुला कर उससे "मैं जो कहता हूं उसे तुम तुनो" ऐसा कहा // 48 // કાનને આનંદ આપનારી ગંગાદેવીની વાણીને સાંભળીને હેમચંદ્રજી મનમાં ઘણે જ હર્ષ પામ્યા. તેમણે એજ સમયે પોતાના પુત્ર લેકચંદ્રને બોલાવીને તેને હું જે કહું છું. તે તું સાંભળે તેમ કહ્યું. 48 तात धियावद्गृहकार्यभारः सम्यक्तया संविहितो मयैषः / कार्यक्षम त्वां प्रविलोक्य वाञ्छाम्यहं पदं नः सुत ! निर्वहत्वम् // 49 // अर्थ-हे प्रिय पुत्र ! आजतक यह घर का कार्यभार मैंने बहुत ही अच्छीतरह से चलाया है. अब तुम्हें इस भार को संभालने में समर्थ देवकर मैं अपने इस उत्तरदायित्व पद को तुम्हें देने की इच्छा कर रहा हूं-सो तुम इसे संभालो. // 49 // ' હે પ્રિય પુત્ર! આજ પર્યન્ત આપણા ઘરને વ્યવહાર મેં યોગ્ય રીતે સંભાળપૂર્વક ચલાવ્યું છે. હવે તને આ ભાર સંભાળવામાં શક્તિશાળી જાણીને હું મારું આ સ્થાન તને સોંપવા ઈચ્છું છું. તે તું એ સંભાળી લે. 49 आज्ञां त्वदीयामधिगम्य पुत्र ! वाञ्छाम्यहं स्वस्य हिताभिलाषी / गृहस्य कार्यादिनिवृत्ति मस्मात् प्रयच्छ तां मह्यमिदं स ऊचे // 50 // अर्थ-हे पुत्र ! तुम्हारी आज्ञा प्राप्तकर अपने हित की अभिलाषा वाला में इस घर के कार्य से सर्वथा निवृत्ति चाहता हूं. इसलिये तुम मुझे आज्ञा दो. // 50 // હે પુત્ર ! તારી રજા મેળવીને પિતાનું હિત કરવાની ઈચ્છાવાળે હું આ ઘરના કાર્ય ભારથી બિલકુલ નિવૃત્ત થવા ઈચ્છું છું તેથી તું મને રજા આપ મને Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशः सर्गः यथाभिलाषं कुरु पूज्यपाद ! नाहं भवामि प्रतिकूलवर्ती / श्रुत्वेति पुगर्पितकार्यभारो गृहस्थधर्मे निस्तोऽभवत्सः // 51 // अर्थ-हे पूज्यपाद ! आपकी जैसी इच्छा हो वैसा आप कीजिये. मैं आपके कार्य में रुकावट नहीं डालना चाहता हूं। इस प्रकार का पुत्र का कथन सुनकर हैमचन्द्र ने सब अपना कार्यभार पुत्र के लिये अर्पित कर दिया. और स्वयं गृहस्थधर्म के सेवन करने में निरत हो गये // 51 // હે પૂજપિતાશ્રી ! આપની જેવી ઇચ્છા હોય એ પ્રમાણે આપ કરે, હું આપના કાર્યમાં અડચણ કરવા ઈચ્છતું નથી, આ પ્રમાણે પુત્રનું વચન સાંભળીને હેમચંદ્ર પોતાને તમામ કારભાર પુત્રને સોંપી દીધું. અને પોતે ગૃહસ્થ ધર્મનું સેવન કરવામાં લાગી ગયા. 51 गंगाऽपि भ; सह धर्ममार्गे बभूव लीना गृहकार्यभारात् / विरक्तचित्तेत्थरसौ स्वगेहे तयैव साधै वृषतत्परोऽभूत् // 52 // ___ अर्थ-गंगा देवी भी गृह के कार्यभार से विरक्त चित्त होकर अपने पति के साथ धर्ममार्ग में लवलीन हो गई. इस तरह हैमचन्द्र सेठ अपने ही घर में पत्नी के साथ धर्माराधन में दत्तचित्त हो गये // 52 // ગંગાદેવી પણ ગૃહરથના કાર્યભારથી વિરકત ચિત્ત બનીને પોતાના પતિની સાથે ધર્મમાર્ગમાં જોડાઈ ગયા. આ રીતે હેમચંદ્રશેઠ પિતાના જ ઘરમાં પત્નીની સાથે ધર્મારાધનમાં જોડાઈ ગયા. પરા श्रीलोकचन्द्रोऽथ सुपुत्र एषः, स्वभार्यया मा पितृमातृ सेवा / कार्ये विलग्नः समभूत् स एव पुत्रः पुतस्त्राय इत्युदनः // 53 // अर्थ-लोकचन्द्र अपनी पत्नी के साथ अपने माता पिता के सेवा कार्य में संलग्न हो गये. उत्तम पुत्र वही है जो (अपने जन्म दाता को) नरक में गिरने से बचाता है. तात्पर्य-इसका यही है कि जो पुत्र धर्माराधन में लगे हुए अपने माता पिता की सेवा करता है. उसकी सहायता से किया निश्चिन्तरूप से वह धर्माराधन उन्हें नरक तिर्यच के दुःख से छुडाकर मोक्ष-देवगति का देने वाला होता है. अतः ऐसा ही पुत्र सच्चा पुत्र है // 53 // લેકચંદ્ર પિતાની ધર્મપત્નીની સાથે પોતાના માતા-પિતાની સેવામાં લાગી ગયા. ઉત્તમ પુત્ર એ જ છે કે જે પોતાના જન્મ દાતાને) નરકગમનથી બચાવે છે. આ કથનને ભાવ એ છે કે-જે પુત્ર ધર્મારાધનમાં લાગેલા પિતાના માતા-પિતાની સેવા કરે છે, તેની Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहरिते સહાયતાથી કરવામાં આવેલ એ ધર્મારાધન નિશ્ચિતપણાથી તેને નરક અને તિર્યંચ ગતિના દુખેથી છોડાવી મોક્ષ-દેવગતિના સુખ આપે છે. તેથી એવો પુત્ર જ સાચો પુત્ર છે. પલા स मातृ देवो जनकस्य भक्तः, तयोश्च सेवा निस्तो यदाऽऽसीत् / जातस्त्रयोविंशतिवर्षमात्रः, तदाऽस्य माता सुरसद्म याता // 54 // अर्थ-अपने पिता के परम भक्त वे लोकचन्द्र जो अपनी माता को देव-स्वरूप मानते थे जब उन दोनों की सेवा में लवलीन थे. तब उनकी अवस्था केवल 23 तेवीस वर्ष की थी उस समय उनकी माता संलेखना-संथारा करके स्वर्गवासी हो गये // 54 // પોતાના પિતાને પરમભક્ત એ લેકચંદ્રકે જે પોતાની માતાને દેવ જેવી માનતે હતો તે જ્યારે એ બન્નેની સેવામાં તત્પર હતા ત્યારે તેની ઉંમર કેવળ ર૩ ત્રેવીસ વર્ષની હતી તે વખતે તેમની માતા ગંગાદેવી સંથારે કરીને સ્વર્ગવાસી થયા. 54 दिवंगतायां दिवमभ्युपेतस्तातोऽपि तस्यां च वियोगखिन्नः। जातश्चतुर्विशति वर्षमात्रः श्रीलोकचन्द्रो विधिदुर्विपाकात् // 55 // ___ अर्थ-माता गंगा देवी के दिवंगत हो जाने पर एक वर्ष के बाद हैमचन्द्र सेठ भी इसी तरह संलेखना-संथारा करके स्वर्गवासी हो गये. उस समय श्री लोकचन्द्र 24 वर्ष के हो चुके थे. कर्म के दुर्विपाक से इन्हें माता पिता के वियोग से खिन्न होना पडा // 55 // માતા ગંગાદેવીને સ્વર્ગવાસ થયા પછી એક વર્ષ બાદ હેમચંદ્રશેઠ પણ આજ રીતે, સંથારો કરીને રવર્ગથે થયા. તે વખતે લેકચંદ્ર ર૪ ચોવીશ વર્ષના હતા. કર્મના દુર્વિપાકથી તેને માતપિતાને વિયેગથી ખિન્ન થવું પડયું. પપા अष्टादशाब्दायुषि वर्तमानो यदाऽयमासीत् खलु लोकचन्द्रः / श्री पूर्णचन्द्रेण सुतेन गेहं स्वजन्मना योतितमस्य रम्यम् // 56 // अर्थ-जब लोकचन्द्र 18 वर्ष के थे तब इनके सुरम्य गृह को श्रीपूर्णचन्द्र पुत्र ने अपने जन्म से प्रकाशित कर दिया था. // 56 // જ્યારે લેકચંદ્ર 18 અઢાર વર્ષના હતા ત્યારે તેના રમણીય ઘરને શ્રી પૂર્ણચંદ્ર નામના પુત્રે પિતાના જન્મથી દીપાવ્યું હતું. પદ્દા सिरोहि राज्ये खलु दुर्व्यवस्थायाः सत्वतः केचन मान्यगोधाः। मुक्त्वा च तत्रत्य निवासमन्यत्स्थलं समाजग्मुरतः समृद्धाः // 57 / / Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशः सर्गः अर्थ-सिरोही राज्य में व्यवस्था अच्छी नहीं थी. इसलिये कितनेक समृद्ध मान्य जन वहां के निवास को छोड़कर दूसरी जगह वस गये थे // 57 // * સિરોહી રાજ્યમાં રાજ્યવ્યવસ્થા સારી ન હતી. તેથી કેટલાક સમૃદ્ધ માનનીય પુરૂષ ત્યાંના રહેઠાણને છોડીને અન્યત્ર પિતાને વસવાટ કરતા હતા. પછા श्री लोकचन्द्रोऽपि समाजगाम ततोऽमदावाद पुरं विशालम् / आसीत्तदा मंहमदो भिषिक्तो राज्ये महाराज पदेऽरहट्टात् // 50 // अर्थ-श्री लोकचन्द्र भी अपने स्थान अरहद्दवाडा से अहमदायाद आकर बस गये. उस समय वहां राज्य पद पर महाराज-बादशाह-महंमदशाह अभिषिक्त हुए थे. // 58 // શ્રીલેકચંદ્ર પણ પિતાનું ગામ અરહટવાડાથી અમદાવાદ આવીને વસ્યા હતા. તે વખતે રાજયપદ પર બાદશાહ મહંમદશાહ અભિષિકત થયા હતા. 58 आगत्य रत्नादि परीक्षकोऽयं तत्रैव रत्नक्रयविक्रयादौ / कार्येऽथ लग्नोऽलभत प्रसिद्धिं भाग्येऽनुकूले सति सर्वसिद्धिः // 59 // अर्थ-ये रत्नपरीक्षा में तो निपुण थे ही. यहां अहमदाबाद में आकर इन्हों ने अपना जवाहरात का कार्य प्रारंभ किया. रत्न खरीदना और बेंचना बस-इसीकाम में ये लग गये. इस कार्य से इनकी प्रसिद्धि भी हो गई. सच बात है. जब भाग्य अनुकूल होता है तो सब काम सिद्ध हो जाते हैं // 59 // લેકચંદ્ર રત્નપરીક્ષામાં તો કુશળ હતા જ અહીં અમદાવાદમાં આવીને તેણે પોતાના રાતના કામકાજની શરૂઆત કરી. જવેરાત ખરીદવું અને વેચવું એજ કામકાજમાં તેઓ લાગી ગયા. એ કામકાજથી તેની પ્રસિદ્ધિ પણ થઈ ગઈ. સાચું જ છે કે-જ્યારે ભાગ્ય અનુકૂળ થાય છે, ત્યારે સઘળું કામ સિદ્ધ થાય છે. પેલા तत्कालसिंहासनसंस्थितेन महम्मदाख्येन च तेन राज्ञा / आमंत्रिता रत्नपरीक्षकास्ते सर्वे यथाकालमुपस्थिताः स्युः // 60 // अर्थ-उस समय राज्य सिंहासन पर आसीन हुए उन बादशाह मुहंमदशाह ने समस्त जोहरियों को आमंत्रित किया यथा समय वे सब वहां पर आकर उपस्थित हो गये // 6 // એ વખતે અમદાવાદના રાષાસન પર રહેલા એ બાદશાહ મહમ્મદશાહે પ્રસિદ્ધ સઘળા ઝવેરીને બોલાવ્યા અને નિદેશેલા સમયે તેઓ બધા ત્યાં આવીને હાજર થયા. 6 | Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते निर्दोष रत्नानि च संचितानि पार्श्व भवेयु मम चेदृशीहा / चेत्सन्ति तावद् भवतां समीपे प्रदर्शनीयानि च तानि सवैः // 61 // अर्थ-बादशाह ने कहा-हमारी इच्छा निर्दोष रत्नों को संचित करने की है, यदि आप लोगों के पास रत्न हों तो आप सब उन्हें दिखावें // 61 // બાદશાહે કહ્યું મારી ઈચ્છા નિર્દોષ રત્નોને સંગ્રહ કરવાની છે. જો તમારી પાસે તેવા રત્ન હોય તો તે તમો અમને બતાવો, 6 1 इत्थं तदीया मधिगम्य वाञ्छां ससर्वेश्च तैः रत्नपरीक्षकैस्तैः / स्व स्वानि रत्नानि नृपाय तस्मै प्रदर्शितानि प्रमुदन्तरङ्गः // 2 // ___ अर्थ-इस प्रकार से बादशाह की इच्छाको जानकर उन सब रत्न परीक्षकों ने हर्षित मन होकर अपने 2 रत्न उस बादशाह को दिखलाये. // 62 // આ પ્રમાણે બાદશાહની ઈચ્છા જાણીને તે સઘળા રત્નપરીક્ષકોએ પ્રસન્ન મનવાળા બનીને પોતાના રસ્તે એ બાદશાહને બતાવ્યા. દુર आसीत्तदा सूरतपुर्निवासी तत्र स्थितः कश्चिद्रनवित्सः। प्रदर्शयामास नृपाय तस्मै स्वे मौक्तिके द्वे बहु मूल्यसाध्ये // 63 // अर्थ-उस समय वहां सूरत शहर का रहने वाला एक जौहरी बैठा था. उसने अपने विशेष अधिक मूल्य वाले दो मोती उस बादशाह के लिये दिखलाये. // 63 // તે વખતે ત્યાં સુરતના રહેવાવાળા એક ઝવેરી બેઠા હતા. તેણે પોતાના બહુ કીમતી બે મેતી બાદશાહને બતાવ્યા. 6 3 लक्षं द्विसप्तत्यधिकं च मूल्यं नृपाल मौले! ह्यनयोः समस्ति / पृष्टोऽथ सोज्वोचदिमां च वाचं श्रुत्वा नृपोऽसौ च परीक्षणार्थम् // 4 // दत्त्वा च तेभ्यः खलु मौक्तिके ते आहस्म तान बा किमस्ति सत्यम् / मूल्यं यदेतेन महोदयेन प्रोक्तं तदा ओमिति तैनिरुक्तम् // 65 // अर्थ-इन दोनों का मूल्य क्या है इस प्रकार से जब बादशाह ने उस जौहरी से पूछा तब उत्तर में उसने कहा-महाराज ! इनका मूल्य 1 लाख 72 हजार रुप्या है. ऐसी उस की बात को सुनकर बादशाह ने उनकी परीक्षा के लिये उन दोनों मोतियों को जौहरीयों के लिये दिया और उनसे कहा-जो इस Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशः सर्गः महाशय ने इनका मूल्य कहा है वह क्या सत्य है ? तब सबने "हां यही है" . ऐसा कहा. // 64-65 // આ બન્નેની કિમત શું છે? એ પ્રમાણે જ્યારે બાદશાહે એ ઝવેરીને પૂછયું ત્યારે ઉત્તરમાં તેણે કહ્યું–મહારાજ ! આની કીમત 1 એક લાખ ૭ર તેર હજાર રૂપિયા છે. તેની એ વાત સાંભળીને બાદશાહે તેની પરીક્ષા કરવા એ બને મોતી ત્યાં હાજર થયેલા બીજા ઝવેરીને આપ્યા. અને તેઓને કહ્યું–આ મહાશયે આની જે કીમત કહી છે, તે शुभरामर छ ? त्यारे ते सोये / ते परामर छ, तेभ यु'.' // 64-65 / / परन्तु तत्रस्थित लोकचन्द्रं स्मेराननं वीक्ष्य नृपो बभूव / संदेहयुक्तो वदति स्म साधो ! किमस्ति ते हास्य निदानमत्र // 66 // अर्थ-परन्तु वहां बैठे लोकचन्द्र को हास्ययुक्त मुखवाला देखकर बादशाह को संदेह हुआ-सो उसने लोकचन्द्र से पूछा, भद्र ! तुम्हारी हँसी का क्या कारण है // 66 // પરંતુ ત્યાં બેઠેલા ચંદ્રને હસતા જોઈને બાદશાહને શંકા થઈ તેથી તેમણે લેક ચંદ્રને પૂછ્યું કે હે ભદ્રિક ! તમારું હસવાનું શું કારણ છે ? 6 દા उवाच राजन् ! शृणु कारणं यत् समस्ति हासस्य निवेदयामि / कार्य न किञ्चित् खलु कारणेन विना भवज्जातु विलोक्यते यत् // 67 // ___ अर्थ-तब लोकचन्द्र ने कहा-बादशाह ! सुनिये-में अपनी हँसी का जो कारण है उसे कहता हूं. यह तो निश्चित है कि कोई भी कार्य विना कारण के होता हुआ प्रतीत नहीं होता // 67 / બાદશાહના પૂછવાથી લોકચંદ્રે કહ્યું–મારા હસવાનું જ કારણ છે તે સાંભળે. એ તો નક્કી જ છે કે કઈ પણ કામ કારણ વિના થતું નથી. 6 છો युग्मम्सदोषवस्तुन्यपि यत् समस्तै निर्दोषता घोषि जनैरमीभिः / राजेन्द्र ! हास्यस्य तदेव जातं तावन्निदानं मम तेन चोक्तम् // 68 // किं रत्नविज्ञोऽस्ति भवान् नरेन्द्र ! “अस्मीति” किश्चिद्गदितं च तेन / गृहाण तर्हि त्वमिमे कुरुष्व परीक्षणं मौक्तिकयोखादीत् // 69 // Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते अर्थ-क्या आप रत्न की परीक्षा करना जानते हो ? हां, जहांपनाह कुछ२ जानता हूं तो लो इन दोनों की परीक्षा करों ऐसा बादशाहने लोकचन्द्र से कहा. // 68-69 // શું તમે રત્નને પારખવાનું જાણે છે ? હા જહાંપનાહ ! કંઈક કંઈક જાણું છું. તે લે આ બન્નેની પરીક્ષા કરે. એમ બાદશાહે લેકચંદ્રને કહ્યું. 68-69 आदाय ते सूक्ष्मदृशा निरीक्ष्य लोकेन्दुनोक्त च तदैव भूप ! / एकं च सम्यङ् बहुमूल्यसाध्यं परं सदोषं खलु मूल्यहीनम् // 70|| अर्थ-दोनों मोतियों को लेकर लोकचन्द्र ने उन्हें सूक्ष्म दृष्टि से देखा और-देखकर उसी समय कहा-जहांपनाह ! इनमें एक निर्दोष है-अतः वह बहुमूल्य साध्य है और दूसरा सदोष है. इसलिये उसकी कोई कीमत नहीं है-वह व्यर्थ है // 70 // બેઉ મેતીઓ લઈને લેકચંદ્ર તેને સૂક્ષ્મ નજરથી જોયું. અને જોઈને એજ સમયે કહ્યું-જહાંપનાહ આમા એક મતી નિર્દોષ છે, તેથી તે ઘણું કીમતી છે. અને બીજી ખામીવાળું છે. તેથી તેની કંઈજ કમ્મત નથી તે નકામું છે. 70 व्यर्थ कथं चेन्ननु दर्शयामीति पारदर्शाख्यं यंत्रमेकम् / नृपस्य नेत्रोपरि तस्य संस्थापयन्नुवाचात्र किमस्ति पश्य // 7 // अर्थ-दूसरा मूल्यहीन व्यर्थ-कैसे है इस प्रकार से नृप के पूछने पर लोकचन्द्र ने कहा-मैं इसे आपके लिये प्रमाणित करके, बताता ऐसा कहकर लोकचन्द्रने एक पारदर्शक यंत्र बादशाह की आंख पर लगाया और फिर कहा-देखो-इसके भीतर क्या है ? // 71 / / બીજું સ્મિત વગરનું નકામું કેવી રીતે છે? આ પ્રમાણે બાદશાહના પૂછવાથી લેકચંદ્ર કહ્યું–હું આને તમારી પાસે ખાત્રી કરાવવા બતાવું છું. એમ કહીને લેકચંદ્ર એક પારદર્શક યંત્ર બાદશાદની આંખે લગાવ્યું. અને તે પછી કહ્યું જુવે આની म४२ शुछ 1 // 71 // अभ्यन्तरेऽस्यास्ति झपस्य चिह्न नृपेण दृष्ट्वा कथितं तदेव / / लोकेन्दुना प्रोक्तमतोऽभ्यधायि सदोषमेतच्च निरर्थकं च // 72 // अर्थ-इसके भीतर मछली का चिह्न है ऐसा देखकर उसी समय बादशाह ने कहा-तब लोकचन्द्र ने कहा-कि इसीलिये मैंने कहा है कि वह मोती सदोष है और व्यर्थ है // 72 // Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशः सर्गः તેની અંદર માછલીને આકાર જોઇને તેજ વખતે બાદશાહે તે પ્રમાણે કહ્યું ત્યારે લેકચ દે કહ્યું તેથી જ હું કહું છું કે આ મોતી દેલવાળું છે. તેથી તે નકામું છે. वराटिकैकाऽपि न मूलमस्य किमत्र वाहं ह्यधिकं वदेयम् / शङ्काऽत्र चेच्चेतसि ते नृपेन्द्र ! प्रमाणतस्तां च निराकरोमि // 73 // अर्थ-हे नृपेन्द्र ! और अधिक क्या कहूं-इसकी तो एक कौडी किमत नहीं है. मेरे इस कहने में यदि आपको शंका हो तो मैं प्रमाण पूर्वक उसका निराकरण कर सकता हूं // 73 // હે બાદશાહ !વધારે શું કર્યું? આની તે એક ફેટિ બદામ જેટલી પણ કિસ્મત નથી. મારા આ કથનમાં જે આપને શંકા હોય તો હું સપ્રમાણ તેનું નિરાકરણ કરી शम छु. // 73 // . अयोधने तेन निधाय पश्चात् कूटेन तस्मिन्नुपरि प्रदत्तः / आघात एकोऽथ विभग्नमेतन्निरीक्ष्य सर्वेचकिता बभूवुः // 7 // अर्थ-लोकाशाहने अयोधन-एरण के ऊपर उसे रखकर उस पर हथौडा की एक चौट मारी मारते ही वह फूट गया. इस बात को देखकर सब के सब चकित हो गये. // 74 // - તે પછી કાશાહે એરણ ઉપર તેને રાખીને તેને હથોડાથી એક ટકોર મારી તે મારતાં જે તૂટિ ગયુ. એ જોઈને બધા જ આશ્ચર્યચકિત થઈ ગયા. 7 જા विसर्जितास्तेन समस्तरत्न विज्ञा जनाः स्वालयमागतास्ते। स्थितः स एको नृपदत्तहस्त संकेततस्तत्र विकल्पचितः // 75 / ___ अर्थ-बादशाह ने उन सब जौहरियों को विदाकर दिया. वे सब अपने 2 घर पर आगये. सिर्फ बादशाह के द्वारा दिये गये हाथके संकेत से एक अकेले लोकचन्द्र ही वहां रह गये // 75 // તે પછી બાદશાહે એ સઘળા ઝવેરીને ત્યાંથી રજા આપી જેથી તેઓ સૌ પોતપોતાને ઘેર ગયા. ફક્ત બાદશાહે કરેલ હાથના સંકેતને લીધે એકલા લેકચંદ્ર ત્યાં રહ્યા. ૭પા धन्योऽसि रत्नज्ञ ! विदांवरेण्य ! यथार्थतां ते प्रसमीक्ष्य चित्ते / हर्षप्रकर्पोऽजनि पृच्छति स्म तदीयवृत्तं गुणरागभृत्सः // 76 // 47 Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते ___ अर्थ-हे रत्नज्ञ ! विद्वद्वरेण्य ! तुम धन्य हो तुम्हारी यथार्थता को देखकर मुझे अपार हर्ष हुआ है. " आप अपना परिचयदें " गुणराग से भरे हुए पादशाह ने उनसे ऐसा कहा // 76 // હે રન પરીક્ષામાં વિદ્વરેણ્ય ! તમો ધન્ય છો, તમારી યથાર્થ પરીક્ષા જોઈને મને ઘણો જ આનંદ થયો છે. તમે તમારી ઓળખાણ આપો' ગુણાનુરાગી બાદશાહે તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું. 76 लोकेन्दुना स्वीयसमस्तवृत्तं न्यवेदि राज्ञःपुरतो यथार्थम् / श्रुत्वा च तुष्टेन नृपेण तस्य सम्बन्धिनो योग्यपदे नियुक्ताः // 77 // __ अर्थ-लोकचन्द्र ने अपना समस्त वृत्तान्त बादशाह के समक्ष यथार्थ स्पष्ट कहदिया सुनकर बादशाह बहुत प्रसन्न हुआ और उसने लोकचन्द्र के सम्ब न्धियों को (राज्य में) योग्य पदों पर नियुक्तकर दिया // 77 // લેકચંદ્ર પિતાનું સઘળું વૃત્તાન્ત બાદશાહને યથાર્થ રીતે કહ્યું. તે સાંભળીને બાદશાહ ઘણા જ પ્રસન્ન થયા અને તેણે લેકચંદ્રના સંબંધિને (રાજ્યમાં યોગ્ય સ્થાન પર નિમણુક કરી આપી. //૭થી स लोकचन्द्रं विनियुज्य कोषाध्यक्षस्य सन्मान्यपदेऽथ भूपः / संप्रेषयामास पुरे वरेण्ये मनस्विनं पट्टणनामधेये // 78 // अर्थ-मनस्वी लोकचन्द्रको कोषाध्यक्ष के सन्मान्य पद पर नियुक्त करके बादशाह ने उन्हें श्रेष्ट पट्टण नामके नगर में भेज दिया // 78 // મનરવી એવા લેકચંદ્રને કોષાધ્યક્ષના માનનીય સ્થાન પર નિમણુક કરીને બાદશાહે તેમને ઉત્તમ એવા પાટણ શહેરમાં મોકલી આપ્યા. 78 आसीच्च तत्रत्य समस्तकार्य व्यवस्थया हीनमसौ चकार / व्यवस्थितं तत् प्रविलोक्य भूपः तत्कार्यकौशल्यवशात्प्रहृष्टः // 79 // अर्थ-वहां का समस्त कार्य अव्यवस्थित था. अस्तव्यस्तथा-इन्होंने उसे सुव्यवस्थित किया. यह बात जानकर बादशाह उनकी कार्यकुशलता से बहुत प्रसन्न हुआ // 79 // ત્યાંનું સઘળું કાર્ય અવ્યવસ્થિત અને અસ્તવ્યસ્ત હતું. તેમણે આ બધું વ્યવસ્થિત કર્યું તે વાત જાણીને બાદશાહ તેમની કાર્યકુશળતાથી ઘણા જ ખુશ થયા. 79aaaaN ततो नृपस्तं निकटस्थमेव चकांक्ष तस्मात्पुरतोऽमदावा- .. दं पाटणा दानयति स्म तेन तत्रैव तस्मिन् स पदे नियुक्तः / 80 // Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कादशः सर्गः 100 __ अर्थ-तब बादशाह ने चाहा कि लोकचन्द्र को हमारे पास ही रखना चाहिये. इसलिये उन्हों ने उन्हें पाटण से अहमदाबाद बुलवा लिया और वहां पर उनकी नियुक्ति कोषाध्यक्षके पद कर दी. // 8 // તે પછી બાદશાહે વિચાર કર્યો કે-લેકચંદ્રને મારી પાસે જ રાખવા જોઈએ, તેથી તેમણે તેમને પાટણથી અમદાવાદ બોલાવી લીધા અને ત્યાં કેવાધ્યક્ષ–ખજાનચી તરીકે તેમની નિમણુક કરવામાં આવી. 8 स्वकार्यकौशल्यवशात्स्व सत्यनिष्ठा प्रभावादभवत् क्षितीशप्रियः स राज्ये प्रथितो बभूव राज्ञः करः सत्यतया प्रजासु // 1 // अर्थ-अपने कार्य की कुशलता से एवं अपनी सत्यनिष्ठा से ये राजाके बहत अधिक प्रिय बन गये. आत राज्य में "ये राजा के दाहिने हाथहैं,, इस रूप में प्रजाजनों में ये प्रख्यात हो गये. // 81 // પિતાની કાર્ય કુશળતાથી અને પિતાની સત્ય નિષ્ઠાથી તેઓ બાદશાહના પ્રીતિપાત્ર બની ગયા. તેથી રાજ્યમાં આ બાદશાહને જમણો હાથ છે, એ રીતે પ્રજાજનેમાં प्रण्यात या. // 8 // . प्रजाजनैः सार्धमसौ महःसु सभासु विद्वज्जनसंस्कृतासु / उपस्थितः मैं विमलै गुणीधै निष्पक्षताख्यां समवायधीरः // 82 // . अर्थ-प्रजाजनों के साथ ये प्रत्येक उत्सवों में एवं विद्वानों द्वारा स्थापित सभाओं में उपस्थित रहते और अपने निर्मल गुणों द्वारा निष्पक्षता की छाप उन पर लगाते // 82 // પ્રજાજનોની સાથે તેઓ દરેક ઉત્સવમાં તથા વિદ્વાનોની સભામાં હાજરી આપતા અને પિતાના નિર્મળ ગુણ દ્વારા નિષ્પક્ષપાતની છાપ તેઓને લગાવતા. ૮રા दयोज्झितोऽसौ कृतधर्मपोषः सौजन्यभूतः कलितोरुकीर्तिः। सुपात्रदत्तोज्ज्वलवित्तराशि; अनाथनाथोऽजनि मुक्तदोषः // 8 // अर्थ-ये निरभिमानी थे, धर्मका पोषण करनेवाले थे स्वजन-परजन के हितकारी थे प्राप्तकीर्ति थे, न्यायोपात्त द्रव्य को सुपात्रदान में व्यय करते थे. दीन दुःखियोंके बन्धु थे और दोष रहित थे. // 83 // તેઓ નિરાભિમાની હતા, ધર્મનું પોષણ કરવાવાળા હતા, સ્વજન અને પરજનના હિતસાધક હતા. કીર્તિ પ્રાપ્ત કરેલ હતા, ન્યાયથી મેળવેલા દ્રવ્યને સુપાત્રને દાન આપવામાં વ્યય કરતા હતા. દીન અને દુખીના બંધુ હતા. તથા નિર્દોષ હતા. ટકા Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 372. लोकाशाहचरिते दयास्वरूपं भवतीति कीग्जानात्वयं भावनयाऽनयाऽसौ / यदा कदाचित्पुरतस्तदस्य न्यवेदयत्पुण्ययशा दयालुः // 84 // अर्थ-दया का स्वरूप कैसा होता है वह बात बादशाह को भी जाननी चाहिये. इसी भावना से उसका स्वरूप यदाकदा बादशाह के समक्ष निवेदित किया करते. // 84 // દયાનું સ્વરૂપ કેવું હોય છે? એ વાત બાદશાહે પણ જાણવી જોઈએ એ ભાવનાથી તેઓ દયાનું સ્વરૂપ વખત મળેથી કે કોઈ સમયે બાદશાહને નિવેદન કરતા. 84 दशाब्दपर्यन्तमसौ चकार तस्मिन् महीं शासति शासितारौ / राज्यस्य कार्य विधिदुर्विपाकान्नृपः स पञ्चत्वमितश्च पश्चात् // 85 // अर्थ-महम्मदशाह के शासन काल में इन्होंने १०वर्ष तक राज्यका कार्य किया, बाद में विधि की विडम्बना से बादशाह का देवलोक हो गया // 86 // મહમ્મદશાહના શાસનકાળમાં તેમણે 10 દસ વર્ષ પર્યત રાજયનું કાર્ય કર્યું તે પછી વિધિની વિચિત્રતાથી બાદશાદ દેવલોક પામ્યા. ૮પા तदीयपुत्रः कुतुबाभिधानो बभूव तद्राज्यपदेऽभिषिक्तः / प्रचण्डदोर्दण्डसुभण्डितेऽस्मिन् राशि प्रजापुत्र इवानुरक्ता // 86 // अर्थ-महम्मदशाह बादशाह का कुतुबशाह नाम का पुत्र उनकी गादी पर अभिषिक्त हुआ. यह बहुत शूरवीर था. पुत्र की तरह प्रजा इस राजा में विशेष प्रेम रखने लगी // 86 // મહમ્મદશાહ બાદશાહની પછી કુતુબશાહ નામને તેમને પુત્ર તેમની ગાદિ પર આવ્યું. તે ઘણે જ શસ્વીર હતા. પુત્રની માફક પ્રજાનું પાલન કરવાથી પ્રજા તેમના પર વધુ પ્રેમાળ બની. ૮દા शनैः शनैश्चेतसि मृत्युराजाद्विभीषिका मंमदशाहमृत्युम् / विलोक्य जाता विचचार सोऽयं न मृत्युकालो मम निश्चितोऽस्ति // 87 // अर्थ-बादशाह महम्मदशाह की मृत्यु को देखकर धीरे 2 इनके चित्त में मृत्युराज से विभीषिका हो गई और ईन्होंने विचार किया कि मेरा मृत्युकाल निश्चित नहीं है // 87 // બાદશાહ મહમ્મદશાહનું મૃત્યુ જોઈને લેકચંદ્રના મનમાં ધીરે ધીરે યમરાજને ડર લાગવા મંડયો અને તેમણે વિચાર્યું કે-મારા મૃત્યુને સમય નક્કી નથી. 87 Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____373 द्वादशः सर्गः सांसारिकं सर्वसुख ममास्ति न कापि चिन्ताऽऽकुलितं मनोमे / जातं विलोक्यैव दशां नृपस्य विशिष्ट पुण्यस्य भवोऽयमीहक // 8 // अर्थ-यद्यपि संसार के समस्त सुख मुझे प्राप्त हैं. किसी प्रकार की मुझे चिन्ता नहीं है. फिर भी विशिष्ट पुण्यशाली बादशाह की दशा को देखकर ही मेरा मन आकुलित हो गया है. क्यों कि यह संसार हो ऐसा है. // 88 // જેકે સંસારના સઘળા સુખો મને પ્રાપ્ત થયેલા છે. મને કોઈ પ્રકારની ચિંતા નથી, તો પણ વિશેષ પુણ્યવાન બાદશાહની દશા જોઈને જ મારું મન પીડા પામે છે. કેમકે આ સંસાર જ એવા પ્રકારનો છે. 88 न कोऽपि केनापि सहैति यातः न यास्यतीहैव समस्तयोगाः। प्रयाणकाले न परत्र यान्ति जीवेन साधं च विमोहिनं धिक् // 89 // अर्थ-न कोई किसी के साथ गया है, न जाता है और न जावेगा. समस्त संबंध यहीं पर हैं, परलोक में प्रयाण काल में जीव के साथ कोई सम्बन्ध नहीं जाता है. इस विमोही जीव को धिक्कार है. तात्पर्य इसका यही है कि जितने भी सम्बन्ध हैं वे सब इस पर्याय के ही आश्रित हैं. पर्याय के छूटने पर कैसे ही नाते क्यों नहीं-वे कोई भी जीव के साथ नहीं जाते हैं। फिर भी यह जीव उनके प्रति मोहित रहता है-अतः ऐसे जीव को धिक्कार है. // 89 // છે કે કોઈની સાથે ગયું નથી. જતું નથી અને જશે પણ નહીં. સઘળે સંબંધ અહીં જ છે. પરલકના પ્રયાણ સમયે જીવની સાથે કોઈ સંબંધ જતો નથી. આ માહિત જીવને ધિકાર છે. કહેવાનો ભાવ આનો એ છે કે-જેટલા સંબંધે છે, તે બધા આ પર્યાયના જ આશ્રિત છે. પર્યાય છુટી ગયા પછી ગમે તે સંબંધ કેમ નથી હોતે પણ તે કોઈ જીવની સાથે જતા નથી. છતાં પણ આ જીવ તેના પ્રત્યે મેહિત રહે છે, તેથી એવા એ જીવને ધિકાર છે. 8 सर्वेऽपि संयोगिपदार्थसार्थाः, स्व स्वार्थलीना न च कोऽपि किञ्चित् / कालेन दष्टं कुशलीविधातुं विश्वत्रयेऽस्मिन्नजनिष्ट शकः // 10 // अर्थ-सब संयोगी पदार्थ अपने 2 स्वार्थ में लीन हैं कोई भी किसी भी प्राणी को जो कि काल से कवलित है कुशल युक्त करने के लिये इस विश्वत्रय में समर्थरूप से उत्पन्न नहीं हुआ है. // 10 // Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 374 लोकाशाहचरिते સંગી સઘળા પદાર્થો પિતાના સ્વાર્થ માં લીન છે, કઈ પણ વ્યક્તિ કોઈ પણ પ્રાણીને કે જે કાળનો કોળિયે બનેલ છે, તેને કુશળ બનાવવામાં આ ત્રણે લોકમાં સમર્થ થવાને ઉત્પન્ન થયેલ નથી. ૧૯ના राज्यस्य सेवां परिहाय कार्या मया स्वसेवा, परलोकयात्रा। यतो भवेन्मे सफलेति कृत्वा तत्त्यागपत्रं स ददौ च राजे // 11 // ___ अर्थ-अतः राज्य की सेवा छोडकर मुझे अब अपनी आत्मा की सेवा करनी चाहिये. क्यों कि इसी से मेरी परलोक-यात्रा सफल होगी. ऐसा विचार कर लोकचन्द्र ने अपना त्याग पत्र राजा के लिये दे दिया. // 91 // તેથી હવે મારે રાજયની સેવા છેડીને મારા આત્માની સેવા કરવી જોઈએ. કેમકે-- તેથી જ મારી પહેલેકની યાત્રા સફળ થશે, આમ વિચાર કરીને લેકચક્ટ્ર રાજ્યમાં પિતાનું રાજીનામું આપી દીધું. છેલ્લા जगज्जनस्तुल्ययशाः ! कृतज्ञ ! किमर्थमेवं क्रियते त्वयेदम्।। वृत्तौ क्षतिश्चेदधिकां च कुर्याम् वासेऽथ यच्छामि महालयंते // 92 // अर्थ-जिसका यश जगत के जनों द्वारा श्लाघनीय हो रहा है ऐसे हे कृतज्ञ ! लोकचन्द्र ! तुम यह क्या कर रहे हो. यदि वेतन में कमी होती मैं उसमें वृद्धि करदूं और यदि आवास की कमी हो तो मैं एक बडा मकान तुम्हें दे दूं // 92 // જેને યશ જગજજનોમાં વખાણવા લાયક હોય છે, એવા હે કૃતજ્ઞ ! લેકચંદ્ર! તમે આ શું કરી રહ્યા છે? જે વેતનમાં ન્યૂનતા લાગતી હોય તે હું તેમાં વધારો કરી આપું. અને કદાચ રહેઠાણમાં કસર લાગતી હોય તો એક વિશાળ ભવન તમને અપાવી દઉં. ઘ૯રા प्रभो ! त्वदीय प्रभुता प्रभावात्सर्वं सुखं नृत्यति मे पुरस्तात् / पुण्यात्मनाऽनुग्रहतो जगत्यां जनः को यो न भवेत्सुखस्थः // 13 // भवदयापुण्यबलेन लब्धा मया प्रभो ! सा प्रसभं व्यनक्ति / एवं युदकं मम मङ्गलाख्यं यतोऽल्पपुण्यैः खलु दुर्लभा सा / / 94 // ___ अर्थ-हे प्रभो ! आपकी प्रभुता के प्रभाव से मुझे सब सुख प्राप्त हैंऐसा कौन मनुष्य है जो पुण्यात्मा के अनुग्रह से सुखी नहीं हो जाता हो. आपकी दया मैंने पुण्य के बल से हो प्राप्त की है. अतः वह मेरे भविष्य को मंगल पूर्ण प्रगट करती है. क्यों कि अल्पपुण्य वालों को वह आपकी दया दुर्लभ है. // 93-94 // Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बादशः सर्गः 375 હે પ્રભુ! આપની પ્રભુતાના પ્રભાવથી મને સઘળું સુખ પ્રાપ્ત થયેલ છે. એવો કર્યો માણસ છે કે જે પુણ્યાત્માની કૃપાથી સુખી ન થાય? આપની દયા મેં પુણ્યના બળથી જ મેળવેલ છે. તેથી તે મારા ભવિષ્યને મંગળમય બનાવે છે. કેમકે-ઓછા પુણ્યવાનને તે આપની દયા દુર્લભ હોય છે. 93-94 स्वयं सखा यस्य भवेद्विधाता किमस्ति सौभाग्यमतोऽधिकं मे / तथापि संवर्तिवशं गतं मां न कोऽपि संत्रातुमलं समस्ति // 95 // अर्थ-जिसका सखा स्वयं शुभ पुण्य हो तो उससे अधिक मेरा और क्या सौभाग्य हो सकता है. फिर भी मैं काल के वश में हूं. अतः मेरी रक्षा करने वाला यहां कोई नहीं है // 15 // - જેને મિત્ર સ્વયં શુભ પુણ્ય જ હોય છે તેનાથી વધારે મારૂ સૌભાગ્ય બીજું કર્યું હેઈ શકે? તે પણ હું કાળને વશવર્તિ છું, તેથી મારું રક્ષણ કરવાવાળું અહીં કોઈ નથી. છેલ્લા अतोऽहमिच्छामि यथाकथं स्वं निराकुलीभूय हितान्वितं ते। प्राज्ये सुराज्ये भगवन्नुपित्वा कुर्यां कृतान्तागमनाच्च पूर्वम् // 16 // . अर्थ-इसलिये हे भगवन् ! मैं यह चाहता हूं कि जैसे भी बने वैसे मैं आपके इस विशाल सुराज्य में रह कर काल-मृत्यु के आने के पहिले 2 निरा. कुल होकर अपनी आत्मा का कल्याण करूं // 96 // . . તેથી હે ભગવન્! હું એ ચાહું છું કે-જેમ બને તેમ હું આપના વિશાળ સુરાજ્યમાં રહીને કાળ-મૃત્યુના આવતા પહેલાં જ નિરાકુળ બનીને મારા આત્માનું કલ્યાણ કરૂં.૯૬ इत्थं तदुक्तिं विनिशम्य भूपो नायं कथंचित्स्थितिमत्र कुर्यात् / अतो मयाऽस्मै नियमेन देया स्वाज्ञेति चित्तेऽथ स निश्चिकाय // 97 // ___ अर्थ-इस प्रकार लोकचन्द्र के कथन को सुनकर बादशाहने अपने मन में विचार किया कि यह किसी भी तरह यहां-काम पर-नहीं रहना चाहता है। अतः मुझे इसे नियम से राज्यकार्य से मुक्त करने की अपनी आज्ञा दे देनी चाहिये. // 97 // આ પ્રમાણે લેકચંદ્રના કથનને સાંભળીને બાદશાહે પોતાને મનમાં વિચાર્યું કેઆ કોઈ પણ રીતે અહીં કાર્ય કરવા ઈચ્છતા નથી. તેથી મારે આમને રાજયકાર્યથી છુટા કરવા હુકમ આપવો જોઈએ. છા Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 376 लोकाशाहचरिते विधाय सत्कारमसौ तदस्य मुक्तिं चकाराथ राज्यकार्यात् / आगत्य तस्मात् खलु पाटणेऽयं स्त्रीयांच तत्रैव चकार वस्ति / / 98 // अर्थ-बादशाह ने इनका खूब सत्कार किया. बाद में इन्हें राज्यकार्य से मुक्ति प्रदान कर दी. ये वहां से आकर पाटण में बस गये // 98 // તે પછી બાદશાહે તેમને ઘણે જ આદર સત્કાર કર્યો. તે પછી રાજકારોબારથી તેમને મુક્તિ આપી તેઓ ત્યાંથી પાટણ આવીને વસ્યા. 98 अथैकदाऽसौ कुशलो विमृश्य स्वधर्मपन्या सह धर्म्यकृत्यम् / आज्ञां तदीयामधिगम्य पश्चाद्गतो यतेः श्रीसुमते' सपीपम् // 19 // अर्थ-एक दिन की बात है-इस कुशल व्यक्तिने अपनी धर्मपत्नी के साथ धार्मिक कार्य का विचार किया और विचार कर उसकी आज्ञा लेकर ये यति श्री सुमति विजय के पास गये. 99 // . કેઈ એક દિવસે આ કુશળ પુરૂષે પિતાની ધર્મપત્નીની સાથે ધાર્મિક કાર્યનો વિચાર કર્યો. અને વિચાર કર્યા પછી તેની આજ્ઞા મેળવીને તેઓ સુમતિનિજ નામના વ્યક્તિની પાસે ગયા. 09 प्रणम्य तं नाथ ! जगाद भीरुं भवादमुष्माद् भगवन् ! विधाय / दयाममुं ते चरणारविन्दे, उपस्थितं रक्ष शरण्यगण्य ! // 100 // अर्थ-वहां जाकर इन्हों ने उन्हें नमस्कार किया और नमस्कार कर कहा हे नाथ ! इस संसार से डरे हुए इस चरणारविन्दमें उपस्थित जन की दया करके रक्षा कीजिये // 10 // ત્યાં જઈને તેમણે તેમને વંદના કરી અને તે પછી કહ્યું કે હે નાથ ! આ સંસાથી કરેલા અને આપના ચરણારવિંદના આશ્રયે આવેલ આ મનુષ્ય પર દયા કરીને મારૂં રક્ષણ કરે. ll100 सगद्गदां तस्य निशम्य वाणी निश्चित्य भव्योऽयमिति स्वचित्ते / संघटय संघं च तदीयबन्धून् भार्या समापृच्छय च तस्य दीक्षाम् // 10 // महोत्सवेनाथददौ च तस्मै पक्षे शुभे श्रावणमासि शुक्ले / / नवाधिके सार्धशते च संवत्सरे च शुके दिवसे पवित्रे // 102 // Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशः सगः 377 अर्थ-लोकचन्द्र की गद्गद वाणी को सुनकर यति श्री सुमति विजयजीने "यह भव्य है" ऐसा अपने चित्त में विचार किया और विचार करके उन्हों ने श्री संघ को एकत्रित किया. एकत्रित करके लोकचन्द्र के बन्धुजनों से और उनकी धर्मपत्नी से उन्हें यति दीक्षा देने की आज्ञा ली. बाद में उन्हें यतिदीक्षा उन्हों ने प्रदान की. यह बात विक्रम संवत् 1509 की है. श्रावण शुक्ला में शुक्रवार के दिन इनकी दीक्षा हुई // 101-102 // લેકચંદ્રની ગદ્દગદિતવાણી સાંભળીને યતિશ્રીસુમતિવિજયે ‘આ ભવ્ય છે' તેમ પિતાના મનમાં વિચાર કર્યો, અને વિચાર કરીને તેમણે શ્રીસંઘને એકઠો કર્યો. એકઠો કરીને લેકચંદ્રના કુટુંબિયો અને તેના ધર્મ પત્ની પાસેથી તેમને દીક્ષા આપવાની આજ્ઞા લીધી અને તે પછી તેમને યતિ દીક્ષા તેમણે આપી. આ રીતે વિક્રમ સંવત ૧૫૦૯ના શ્રાવણ शु३५ ५क्षमा शुपारे 6 // मापी. // 101-102 / / एकादशी तदा साऽऽसीत्तिथी निष्क्रमणोत्सवे / वीर्योल्लासाव्य यस्यां सा जाता दीक्षास्य शांतिदा / / 103 // अर्थ-जब इन्हों ने यति दीक्षा ली-तब' एकादशी तीथि थी-उस तिथि में इनकी वीर्योल्लास होने से शांति प्रदान करने वाली दीक्षा संपन्न हुई थी. इस तरह विक्रम संवत्-१५०९ श्रावण शुक्ल एकादशी शुक्रवार के दिन ये यति की दीक्षा से दीक्षित हुए // 103 // જ્યારે તેમણે યતિ દીક્ષા લીધી ત્યારે અગીયારસનિ તિથિ હતી. તે તિથિમાં તેમને વર્ષોલ્લાસ થવાથી શાંતી આપનારી દીક્ષાસંપન્ન થઈ આ રીતે વિક્રમ સંવત ૧૫૦હ્ના શ્રાવણ શુક્લ અગીયારસ અને શુક્રવારે તેઓ યતિદીક્ષાથી દીક્ષિત થયા. 01ળ્યા जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर श्रीघासीलाल व्रति विरचिते हिन्दीगुर्जरभाषानुवादसहिते. लोकाशाहचरिते द्वादशः सर्गः समाप्तः // 12 // Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते अथ त्रयोदशः सर्गः प्रारभ्यतेजिनेन्द्रचन्द्रं प्रणिपत्य मूर्ना धर्माचार्यश्च स्मरणं विधाय / प्रारभ्यते संप्रति सर्गहर्षः कान्तोज्ज्वलाभिश्च पदावलीभिः / अर्थ-मैं जिनेन्द्रचन्द्र को मस्तक झुका करके और धर्माचार्य का स्मरण करके अब यह '१३वां सर्ग कान्त एवं उज्ज्वल पदों द्वारा निर्मित करता हं / 1 / હું જીનેન્દ્રચંદ્રને મસ્તક નમાવીને તથા ધર્માચાર્યનું મરણ કરીને હવે આ 13 મા સર્ગને કાંત અને ઉજજવલ પદ દ્વારા નિર્મિત કરું છું. છેલ્લા तारुण्यलक्ष्म्याङ्कित चारुदेहः सुवर्णभासोज्ज्वलकान्तियुक्तः श्रीलोकचन्द्रोऽजनि साधुवृन्दवृन्दारकः श्रीपतिज्यपादः // 2 // अर्थ-जिनका सुन्दर शरीर तरुणाई की शोभा से युक्त बना हुआ था और जो सुवर्ण की जैसी कमनीय कान्ति से शोभित हो रहे थे ऐसे वे लोक-। चन्द्र साधूओं के बीच में ऐसे सर्वोत्तम साधू बनें कि जिनके चरणों की पूजा अच्छे २वैभवशाली मनुष्योंने की. // 2 // જેનું કાંત શરીર તરૂણાઈની શોભાથી સુશોભિત બનેલ છે, અને જે સેનાની જેવી ઉજજવલ કાન્તિથી શોભિત થઈ રહ્યા હતા એવા એ લેકચંદ્ર સાધુઓમાં એવા ઉત્તમ સાધુ બન્યા કે જેના ચરણોની પૂજા સારા સારા વૈભવશાલીઓએ કરી. રા तामिन्दिरां मंदिरमध्यवासां पतिप्रियां तां ललनां विहाय ! लोकेन्दुनाऽऽदापि यतेश्च दीक्षा बृहत्तरं कार्यमकार्यनेन // 3 // अर्थ-लोकचन्द्र ने घर में वसी हुई उस लक्ष्मी का और पति जिस को प्यारा है ऐसी उस पतिव्रता नारी का परित्याग करके जो यति दीक्षा धारण की सो यह उन्होंने बहुत बडा कार्य किया है. // 3 // લેકચંદ્ર ઘરમાં વસેલી એ લક્ષ્મીને અને પતિ જેને મારા છે, એવી એ પતિવ્રતા પત્નીને ત્યાગ કરીને જે યતિદીક્ષા સ્વીકારી તે તેમણે ઘણું જ ઉત્તમ કામ કરેલ છે. કા पुत्रं च मुक्त्वा परिहाय बन्धून् गृहं परित्यज्य विमुच्य संगम् / श्री लोकचन्द्रेण धृतं पवित्रं व्रतं यतेः कारणमन्तरेण // 4 // अर्थ-विना किसी वैराग्य के कारण के पुत्र को छोडकर बन्धुजनो से मुंह मोडकर परिग्रह का परित्याग कर और घर से निःसंग होकर लोकचन्द्र ने यति के पवित्र व्रतों को अंगीकार किया है // 4 // Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशः सर्गः વિરાગના કંઈ પણ કારણ વિના પુત્ર તથા કુટુંબ વર્ગને છોડીને તથા પરિગ્રહને ત્યાગ કરીને તથા ઘરથી નિઃસંગ થઈને ચંદ્ર યતિના પવિત્ર તે સ્વીકાર્યા છે. 4 चित्रं चरित्रं समभूत्तदस्य किमत्र चित्रं महतां चरित्रम् / विचित्रवृत्त्यान्वितमेव तावत् संजायतेऽयं न च लौकिकोना // 5 // अर्थ-सो यह बात इसकी सबको बडी अनोखी मालूम देती है (ऐसा कहने पर) किसीने कहा-इसमें कौनसी अनोखी बात है-क्यों कि जो महान् पुरुष हुआ करते हैं उनका चरित्र विचित्रवृत्ति से युक्त होता है यह भी तो कोई साधारण व्यक्ति नहीं है // 5 // એ વાત તેમની સૌને ઘણી જ આશ્ચર્યકારક જણાય છે. (તેમ કહેવાથી) કેઈએ કહ્યુંઆમાં કઈ આશ્ચર્યકારક વાત છે, કેમકે જેઓ મહાન પુરૂ થાય છે, તેમનું ચરિત્ર વિચિત્ર વૃત્તિવાળું હોય છે. આ પણ કોઇ સાધારણ વ્યક્તિ તે નથી જ. પા शुभोदयेनैव पवित्रसाधोगवारवित्तः खल लभ्यतेऽत्र / देवाश्च देवत्वदशाविशिष्टा विशिष्यमेतत्परिकाङ्क्षयन्ति // 6 // अर्थ-पुण्य के उदय से ही यह पवित्र साधु का आचार यहां प्राप्त होता है देव भी जब वे देवत्व पर्याय विशिष्ट होते हैं-तब वे इस असाधारण चारित्र की चाहना करते है // 6 // પુણ્યના ઉદયથી જ આ પવિત્ર સાધુને આચાર અહીં પ્રાપ્ત થાય છે, દેવ પણ જ્યારે તેઓ દેવત્વ પર્યાયથી યુક્ત હોય ત્યારે તેઓ આ અસાધારણ ચારિત્રની ચાહના કરે છે. एतस्य लाभोऽन्यगतौ न तावद्भवेच्च जीवस्य गतावमुष्याम् / एवास्ति तस्मादयमस्ति धन्यः संप्राप्य भव्योत्तमजीव एतत् // 7 // अर्थ-इस सकल चारित्र का लाभ जीव को अन्यगति में नहीं होता है. केवल इसी मनुष्यगति में ही होता है. इसलिये इस चारित्र को प्राप्त कर भव्यों में यह उत्तम जीव धन्य है // 7 // આ સકલ ચારિત્રનો લાભ જીવને અન્ય ગતિમાં થતું નથી. કેવળ આ મનુષ્યગતિમાં જ થાય છે. તેથી આ ચારિત્રને પ્રાપ્ત કરીને ભવ્યમાં એ ઉત્તમ જીવને ધન્ય છે. તેના इंदं क्व तारुण्यभियं मुनीनां वृत्तिः क्व पंचेन्द्रियनिग्रहः क्व स्वतन्त्रवृत्तेर्यमनं क्वचैतत्सर्वं पवित्राचरणं का तेषाम् // 8 // Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 380 लोकाशाहचरिते अर्थ-कहां तो यह जवानी और कहां यह मुनिजनों की वृत्ति कहां यह पंचेन्द्रियों का निग्रह. कहां स्वच्छन्द वृत्ति का संयमन और कहां मुनियों का यह सब पवित्र आचरण // 8 // કયાં આ યુવાવરથા અને જ્યાં આ મુનિજનોની વૃત્તિ, ક્યાં આ પંચેન્દ્રિોને નિગ્રહ, કયાં સ્વચ્છcવૃત્તિનું સંયમન અને ક્યાં મુનિનું આ પવિત્ર આચરણ. 8aaaa लक्ष्मीपतिभ्यो ललनापतिभ्यो बभूव तद्विस्मयकारकं यत् / वतं गृहीतं सुखसाधनेऽपि अनेन धर्मै कधिया विशुद्धया // 9 // . अर्थ-सर्व प्रकार के सुख साधनों के होने पर भी केवल विशुद्धधर्म की आराधना की भावना से जो चारित्र इस लोकचन्द्र ने अंगीकार किया है वह लक्ष्मीप्रति और ललनापतियों के लिये आश्चर्य कारक हुआ // 9 // દરેક પ્રકારના સુખસાધને હોવા છતાં પણ કેવળ વિશુદ્ધ ધર્મની આરાધનાની ભાવનાથી જે ચારિત્ર આ લેન્ગદ્ર સ્વીકાર્યું તે લક્ષ્મીપતિ અને લલના પતિને આશ્ચર્યજનક બન્યું. કલા सन्त्यत्र ये केऽपि च पुद्गलायां संसेवनातो मुदितान्तरङ्गाः / तेभ्यश्च बहिरात्मजनेभ्य एतच्चारित्रमाश्चर्यकरं पवित्रम् // 10 // अर्थ-जो यहां पुग्दलों की सेवा करने से हर्षित चित्त होते हैं उन बहिरात्मा जीवों को यह प्रवित्र चारित्र आश्चर्यकारक ही होता है // 10 // જેઓ અહીં પુદગલોની સેવા કવાથી હર્ષિત મનવાળા થાય છે. એ બહિરાત્મા જેને આ પવિત્ર ચરિત્ર આશ્ચર્યજનક હોય છે. તેને सांसारिकं सर्वसुखं विहाय जिनेन्द्रमार्ग प्रतिपद्य ये, ते। भुवं स्वकीयं सफलं विधातुं दीक्षां समादाय चरन्ति केऽपि // 11 // अर्थ-वे ऐसे तो कोई ही भाई के लाल होते हैं जो सर्व प्रकार के सांसारिक सुखों को छोडकर जिनेन्द्र के मार्ग को अंगीकार करके अपने भवको सुधारने के लिये दीक्षा धारण करते हैं / / 11 // એવા તો કોઈક જ માઈનાલાલ હોય છે કે જેઓ બધા જ પ્રકારના સાંસારિક સુખોને છોડીને જીનેન્દ્રના માર્ગને સ્વીકાર કરીને પિતાના જન્મને સુધારવા માટે દીક્ષા ધારણ કરે છે. I11 सातोदयात्सर्वसुखं च लब्धा धन्यास्त एवात्र विहाय तत्सत् / स्वात्मोपलब्धौ प्रयतन्ति तेषामाशास्ति दासी च लोकदासाः // 12 // Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशः सर्गः 381 अर्थ-जो सातावेदनीय कर्मके उदय से प्राप्त गर्वसुखों को छोडकर अपनी * आत्मा की उपलब्धि में अपने आपको शुद्धकरने प्रयत्न करते हैं वे ही इस संसार में धन्य हैं. क्यों कि ऐसे मानवों की आशा दासी बन जाती है और समस्तलोग उनका दास बन जाता है // 12 // જેઓ સાતવેદનીય કર્મના ઉદયથી પ્રાપ્ત થયેલ સર્વ સુખને છોડીને પિતાના આત્માની ઉપલબ્ધિમાં અર્થાતુ પિતે પિતાને જે શુદ્ધ કરવા માટે પ્રયત્ન કરે છે. તેઓ જ આ સંસારમાં ધન્યવાદને પાત્ર છે, કેમકે એવા મનુષ્યની આશા દાસી બની જાય છે. અને સઘળા લેકે તેમના દાસ બની જાય છે. [૧રા धन्या जनास्ते विविधैस्तपोभिर्मलीमसं स्वं परिशोधयन्ति / आदर्शरूपा जगतीह भूत्वा निर्विघ्न मायान्ति विमुक्तिसोधे // 13 // __ अर्थ-वे मनुष्य धन्य हैं जो अनेक विध तपस्याओं द्वारा अपनी आत्माका संशोधन करते हैं और इस संसार में आदर्शरूप होकर मुक्ति के महल में पहुंच जाते हैं // 13 // તે મનુષ્ય ધન્યવાદને પાત્ર છે કે જેમાં અનેક પ્રકારની તપસ્યાઓ દ્વારા પિતાના આત્માનું સંશોધન કરે છે. અને આ સંસારમાં આદર્શરૂપ બનીને મુક્તિના મહેલમાં પહોંચી જાય છે. 13 कायेऽपि यस्यां न विमोहवृत्तिः संजायते साधुजनात्य तस्याम् / विवर्तमानस्य च तस्य वृत्तिः कथं न सा पूज्यतराऽमरैः स्यात् // 14 // अर्थ-जिस जैनेन्द्री दीक्षा में वर्तमान साधु को अपने शरीर पर भी मोह वृत्ति नहीं होती है-तो ऊस दीक्षा में रहे हुए साधु को वह वृत्ति देवताओं द्वारा पूज्यतर क्यों नहीं होगी. अवश्य 2 होगी. // 14 // જે જૈનેન્દ્રની દીક્ષામાં રહેલ સાધુને પિતાના શરીર પર પણ મોહવૃત્તિ હતી નથી. તે એ દીક્ષામાં રહેલા સાધુની તે વૃત્તિ દેવતાઓ દ્વારા પૂજયતર કેમ ન થાય? અર્થાત્ 132 132 थशे. // 14 // उपवावाथ परीपहा वा यत्र काचित्संचरतोऽथ साधोः। पार्श्व समायान्ति बिभेति नायमालम्ब्य साम्यं सहते विधिज्ञः // 15 // ___ अर्थ-चाहे जहां विहार करने वाले साधु के ऊपर उपद्रव और परीषह आते हैं पर वह उनसे डरता नहीं है उल्टा समता भाव धारण कर "मेरे कर्मों का ही यह उदय है" ऐसा समझ करके उन्हें सहन करता है // 15 // Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते ચાહે ત્યાં વિહાર કરનારા સાધુઓ ઉપર ઉપદ્રવ અને પરીષહ આવે જ છે. પરંતુ તેઓ તેનાથી ડરતા નથી. ઉલ્ટા wતાભાવ ઘારણ કરીને “મારા કર્મો જ આ ઉદય છે તેમ समलने तेने सन 72 छे. // 11 // हितावहा सैव भवेत्तपस्या कषायत्तिश्च ययाऽथ तन्वी। निरन्तरं स्याद्विपरीतवृत्ती व्यथैव सा कायविकार हेतुः // 16 // अर्थ-तपस्या वही हितकारक होती है कि जिससे कषाय की वृत्ति निरंतर मन्द होती जाती है. यदि वह भंद नहीं होती है तो वह तपस्या केवल शरीर में विकार की हेतुभूत होने से व्यर्थ ही है // 16 // તપસ્યા એજ હિતકારક હોય છે, કે જેનાથી કષાયની વૃત્તિ હમેશાં મંદ થતી જાય છે. જો તે મંદ ન થાય તે તે તપસ્યા કેવળ શરીરમાં વિકારના કારણરૂપ હેવાથી व्यर्थ / छे. // 16 // . नमोऽस्तु तस्मै गुरवे गुरूणां जगज्जनानां च हितंकराय / संसारसंवर्धककारणानां विच्छेदिने स्वात्महिते रताय // 17 // अर्थ-जगत के समस्त जीवों के हितविधायक, संसार बढाने वाले कारणों के विनाशक और अपनी आत्मा के कल्याण में लवलीन ऐसे गुरुओं के भी गुरु देव को हमारा नमस्कार हो. // 17 // જગતના સઘળા જીવના હિતકારક, સંસારને વધારનારા કારણોના વિનાશક અને પિતાના આત્માના કલ્યાણમાં લાગેલા એવા ગુરૂઓના પણ ગુરૂદેવને અમારા નમસ્કાર હો. 1 दुःखेसुखे वैरिणि बन्धुहन्दे योगे वियोगे भवने वने वा। समैव येषां सततं प्रवृत्तिः नमोऽस्तु तेभ्यो मुनिनायकेभ्यः // 181 अर्थ-दुःख में, सुख में, कैरी में, बन्धुओं में, योग में, वियोग में, भवन में एवं वन में जिनकी प्रवृत्ति एकसी रहती है ऐसे उन मुनिरूप नेताओं के लिये हमारा नमस्कार हो. // 18 // દુ:ખમાં, સુખમાં, વરીમાં, બધુઓમાં, બેગમાં, વિયેગમાં ભવનમાં અને વનમાં જેની પ્રવૃત્તિ એક્સરખી રહે છે, એવા એ મુનિરૂપ નેતાઓને અમારા નમસ્કાર હો. 18 वसन्तु ते मे हृदये मुनिन्द्रा भवोदधेः संतरणे प्रसक्ताः। यत्सेवयाऽन्येऽपि जनाश्च भक्ताः स्वं तारयन्त्याशु भवादमुष्मात // 19 // Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशः सर्गः 383 __ अर्थ-वे मुनिन्द्र जो कि संसार रूपी समुद्र से पार होने में लगे हुए हैं मेरे हृदय में वसें. जिनकी सेवा से अन्य संसारी भक्त जन भी इस संसार से बहुत ही शीघ्र अपना उद्धार कर लेते हैं // 19 // એ મુનિન્દ્ર કે જેઓ સંસારરૂપી સમુદ્રની પાર થવામાં લાગેલા છે, તેઓ મારા હૃદદયાં વસે જેમની સેવાથી અન્ય સંસારી ભક્તો પણ આ સંસારથી ઘણા જ જસ્ટિથી પિતાને ઉદ્ધાર કરી લે છે. 19 गोहाख्यश च विजित्य भुक्त्वा गृहं च संगं परिवर्य दीक्षा / दधे शरीरं खलु रोगसद्म मत्वाऽथ भोगानुरगेन्द्र तुल्यान् // 20 // ___ अर्थ-मोहरूपी शत्रु को परास्त करके जिन्हों ने घर और परिग्रह का परित्याग कर दिया और यह समझ कर कि यह शरीर रोगों का घर है और भोग शेष नाग के समान हैं दीक्षा धारण करली. // 20 // મેહરૂપી શત્રને પરાજ્ય કરીને જેમણે ઘર અને પરિગ્રહને ત્યાગ કર્યો છે, તથા ભગો શેષનાગની સમાન છે, તથા આ શરીર રોગોનું ઘર છે તેમ સમજીને દીક્ષા पा२३ 421. // 20 // . रम्भा समानोऽस्ति भवो ह्यसारः कामः प्रतापी परितापहेतुः / विचिन्त्य चित्ते निखिलं विहाय धन्याः स्वसेवा निरता भवन्ति // 21 // अर्थ-यह संसार केले के वृक्ष के समान असार है, और प्रतापशाली कामदेव परिताप का कारण है ऐसा विचार कर जिन्हों ने सांसारिक समस्त वस्तुओं का परित्याग कर अपनी आत्मा की ही सेवा में तल्लीनता धारण करली है-वे धन्य हैं // 21 // આ સંસાર કેળના ઝાડની જેમ અસાર છે, અને પ્રતાપશીલ કામદેવ સંતાપના કારણરૂપ છે, તેમ વિચાર કરીને જેઓ સાંસારિક સઘળી વસ્તુઓનો ત્યાગ કરીને પિતાના આત્માની જ સેવા કરવામાં તલ્લીન બની ગયા છે. તેમને ધન્ય છે. રક્ષા रत्नत्रयं पंच महाव्रतानि गुप्तित्रयं वा समितीस्विकालम् / ये पालयन्त्यादरतो मुनीस्तानाश्रित्य भव्या भवपारगास्ते // 22 // अर्थ-जो रत्नत्रय को, पांच महाव्रतों को, तीन गुप्तियों को और पांच समितियों को त्रिकाल-सदा-आदरपूर्वक धारण करते हैं ऐसे मुनिजनों का आश्रय पाकर वे भव्यजन भव से पार हो जाते हैं // 22 // Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते . જેઓ રત્નત્રય, પાંચ મહાવ્રતને, ત્રણ ગુપ્તિને અને પાંચ સમિતિને સદાકાળ આદરપૂર્વક ધારણ કરે છે, એવા મુનિજનોને આશ્રય પામીને ભવ્યજને ભવથી પાર उतरे छ. // 22 // . . रात्रौ यथाऽऽलोक सहायतातो घटादिवस्तून्यवलोयन्ति / तथैव जीवादि पदार्थसार्थ स्वरूपमप्यत्र गुरूपदेशात् // 23 // अर्थ-रात्रि में जिस प्रकार प्रकाश की सहायता से जीव घटादिक वस्तुओं को जान लेते हैं उसी प्रकार वे गुरुजनों के उपदेश से जीवादि पदार्थों के स्वरूप को भी जान लेते हैं // 23 // રાત્રે જેમ પ્રકાશની સહાયથી જીવે ઘટાદિ વસ્તુઓને જાણી લે છે. એ જ પ્રમાણે તે ગુરૂજનોના ઉપદેશથી જીવાદિ પદાર્થોના સ્વરૂપને પણ જાણી લે છે. રક્ષા अत्यन्तमुष्णा प्रवहन्ति वाताः सूर्याशवो यत्र तपन्ति देहम् / / क्षितिश्च धूम ध्वजवद्धयगम्या तथापि ते पाद विहारिणोऽमी // 24 // अर्थ-जब अत्यन्त गरम 2 लू चलती है, सूर्य की किरणें देह को तपा देती हैं और पृथिवी अग्नि जैसी अगम्य बन जाति है. तब भी ये साधुजन नंगे पैर ही विहार किया करते हैं // 24 // જ્યારે અત્યંત ગરમ ગરમ લું ચાલે છે. સૂર્યના કિરણ દેહને તપાવી દે છે, અને જમીન અશ્ચિના જેવી અગમ્ય બની જાય છે, ત્યારે પણ આ સાધુજને ઉઘાડા પગે જ વિહાર કરતા રહે છે. રજા उपानहं नैव न चातपत्रं न मस्तकत्राणममी न चान्यत् / वाञ्छन्ति, वाञ्छन्ति परं वशुद्धिं तदन्तरा नैव मुनिसिद्धिः // 25 // अर्थ-ये मुनिजन न जूतों की चाहना करते हैं न छत्ते की इच्छा करते हैं और न पगडी आदि की कामना करते हैं केवल आत्मा की शुद्धि की ही चाहना करते हैं। क्यों कि आत्मशुद्धि के विना कभी भी मुनित्य की सिद्धि नहीं होती है // 25 // આ મુનિજને પગરખાને ઈચ્છતા નથી, તેમ છત્રીની પણ ઈચ્છા રાખતા નથી તેથી પાઘડી વિગેરેને પણ ઇરછતા નથી કેવળ આત્માની શુદ્ધિની જ ચાહના રાખે છે. કેમકે આત્મશુદ્ધિ વિના કોઈ કાળે મુનિની સિદ્ધિ થતી નથી. પરિપા Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयोदशः सर्गः भोगान्न भुक्तान परिचिन्तयन्ति वाञ्छन्ति नैवाथ च भाविनस्तान् / चतुर्गतिभ्यः सततं बिभीता मुक्त्यर्थमेते पुरुषार्थ वित्ताः // 26 // अर्थ-ये मुनि जन भोगे गये भोगों का चिन्तवन नहीं करते हैं और न आगामी भोगों को वाञ्छा करते हैं ये तो निरन्तर चतुर्गतिरूप संसार से भय. भीत होकर मुक्ति प्राप्ति के लिये ही पुरुषार्थ करने में पटु होते हैं // 26 // આ મુનિજને ભેટેલા ભેગોનું ચિંતવન કરતા નથી. તથા ભવિષ્યમાં આવનારા ભેગોને પણ ઈચ્છતા નથી. તેઓ તે નિરંતર ચાર ગતિવાળા સંસારથી ભયભીત થઈને મુક્તિને પ્રાપ્ત કરવા જ પુરૂષાર્થ કરવામાં તત્પર હોય છે. શરદ पुष्पावलीभी रचितासु सुप्तं विलासधिष्ण्ये रजनीषु पूर्वम् / ... शय्यासु तस्यामधुना त एव स्वपन्ति भूमौ मुनिवृत्ति रेषा // 27 // . अर्थ-जो पहिले विलास भवन में रात्रि के समय फूलों की रची-गई शय्या पर-कोमल सेज. पर-सोते थे वे ही रात्रि में जमीन पर सोते हैं यही मुनि वृत्ति है. // 27 // જેઓ પહેલાં વિલાસભવનમાં રાત્રિના સમયે ફૂલેની રચેલી શય્યા પર-કમળ શમ્યા પર સુતા હતા તેઓ જ રાત્રે જમીન પર સૂવે છે. એજ મુનિવૃત્તિ છે. રા गजेन्द्रमारुह्यपुराऽवलन् ये अखर्वगर्वादधुना त एव / संवीक्ष्य संवीक्ष्य महीं, चलन्ति जीवानुकंपाशयतो मुनित्वे // 28 // - अर्थ-जो पहिले गजराज पर सवार होकर बहुत गर्व के साथ चलते थे वे ही अब इस मुनि अवस्था में जीवों की दया के अभिप्राय से पृथ्वी को देख 2 कर चलते हैं // 28 // જેઓ પહેલાં હાથી પર સવાર થઈને ઘણા જ ગર્વપૂર્વક ચાલતા હતા તેઓ જ હવે આ મુનિ અવરથામાં જીવ પર દયાભાવ રાખીને જમીનને જોતાં જોતાં ચાલે છે. પરિતા न क्षौर कर्माणि जलाभिषेकं नाभ्यङ्गपङ्गस्य च संस्कारम् / न दन्त काष्ठादिभिराचरन्ति शुद्धिं रदानां च कदापि चैते // 29 // - अर्थ-ये मुनिजन न उस्तरे से अपने बाल बनवाते है, न जल से स्नान करते हैं, न शरीर पर तैल की मालिश करते हैं, और न दातुन आदि से ये कभी भी दांतों की सफाई करते हैं // 29 // Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 386 लोकाशाहरित આ મુનિજને અસ્તરાથી પિતાની હજામત કરાવતા નથી. જાળવી રાન કરતા નથી, શરીર પર તેલની માલીશ કરાવતા નથી. તથા દાતણ વિગેરેથી તેઓ કયારેય દાંતે સાફ કરતા નથી. સારા कचांस्तृणानीव करेण तावदुत्पाटयन्तीह सहर्ष मेते / जीर्णानि वस्त्राणि यथागमोक्तान्येवाल्पमूल्यानि वहन्ति तानि // 30 // अर्थ-ये मुनिजन घास फूस की तरह अपने बालों को बडे हर्ष के साथ उपाडते हैं और आगम में जितने वस्त्रों को रखने का विधान है उतने ही जीर्ण एवं अल्प मूल्यवाले वस्त्रों को रखते हैं // 30 // આ મુનિયે ઘાસ કે ફૂલની જેમ પિતાના વાળને હર્ષ પૂર્વક ઉખાડે છે. તથા આગમમાં જેટલા વસ્ત્રો રાખવાનું વિધાન કહે છે. એટલા જ જીર્ણ અને અલ્પ મૂલ્યવાળા વો તેઓ રાખે છે. 30 निर्दोषमाहारमिमे च धर्मध्यानस्य सिद्धयर्थप्रदन्त्यवृष्यम् / मूलोत्तरेषु श्रियमादधानं गुणेष्वलोल्यान्नवकोटिशुद्धम् // 31 // अर्थ-ये मुनिजन ऐसा ही आहार ग्रहण करते हैं जो निर्दोष होता है. कामोत्तेजक नहीं होता है, मूलगुण और उत्तरगुणों के पालने में बाधाकारी नहीं होता है एवं नौ कोटि से शुद्ध होता है. ऐसे आहार से ही धर्मध्यान की सिद्धि होती है. उसी निमित्त लोलुपता रहित होकर मुनि जन ऐसे ही आहार को ग्रहण करते हैं // 31 // આ મુનિજને એવો આહાર ગૃહણ કરે છે કે જે નિર્દોષ હોય છે. કામદીપક ન હોય, મૂળ ગુણ અને ઉત્તર ગુણોને પાળવામાં બાધા કરનાર ન હોય તથા નવ કોટિથી શુદ્ધ હોય છે. એવા આહારથી જ ધર્મધ્યાનની સિદ્ધિ થાય છે. એ નિમિત્તે લેલુપતા રહિત થઇને મુનિજને એવા પ્રકારના આહારને જ ગ્રહણ કરે છે. તેના तपांस्यनेकानि तपन्ति यावज्जीवं जिनेन्द्राध्वनि वर्तमानाः। जितेन्द्रियास्ते यमिनो रिमित्रे समाश्च शास्त्राध्ययनादिकृत्याः // 32 // अर्थ-जिनेन्द्र के मार्ग में वर्तमान ये जितेन्द्रिय मुनिजन जीवन भरतक अनेक प्रकार के तपोंको तपते हैं और शास्त्रों के अध्ययनादि कार्यों में लवलीन रहते हैं // 32 // જનેન્દ્રના માર્ગમાં વર્તમાન આ જીતેન્દ્રિય મુનિજને જીવન પર્યત અનેક પ્રકારના તપે તપે છે. અને શાસ્ત્રોના અધ્યયન વિગેરે કાર્યોમાં લાગેલા રહે છે. આકરા Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयोदशः सर्गः देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राज्ञः भक्तस्य चैते न कदापि कुत्र। कथां प्रकुर्वन्ति यतो हि शास्त्रे एताः कथाः सूरिभिरत्र नोक्ताः // 33 // अर्थ-ये मुनिजन देश की, राष्ट्र की, पुर की राजा की और भोजन की कथाकभी भी कहीं पर नहीं करते. क्योंकि शास्त्र में भगवान ने ऐसी कथाओं के करने का इस अवस्था में निषेध किया है // 33 // આ મુનિજને દેશની, રાષ્ટ્રની, પુરની, રાજાની અને ભોજનની વાર્તા કયારેય કયાંય પણ કરતા નથી. કેમકે શાસ્ત્રમાં ભગવાને એવી વાર્તાઓ કરવાની આ અવસ્થામાં નિષેધ કરેલ છે. ૩રા सदा च सर्वत्र समस्त सत्त्वे वेते च सन्त्येव समत्त्वभावैः। शिष्टा विशिष्टा जगतीहीयेषां शेषाः समक्षेऽग्रसरा न केऽपि // 34 // . अर्थ-ये मुनिजन सदा सब जगह समस्त जीवों पर समताभाव रखते हैं जगत में इनके सिवाय और भी जितने प्राणी हैं वे कोई भी ऐसे नहीं हैं जो इनके समक्ष उत्तम मानें जा सके // 34 // આ મુનિજન સદાકાળ બધેરથળે સઘળા જી પર સમાનભાવ રાખે છે. જગતમાં તેના સિવાય બીજા જેટલા પ્રાણિ છે, તે પૈકી કોઈ પણ એવા નથી કે તેમની સામે ઉત્તમ માનવામાં આવે. 34 कथं च जीवस्य हितं भवेत्ते दिवानिशं भावनयाऽनयाऽनयाऽऽन्याः / भवन्त्यतो धर्ममहोपदेशे तदेव तेषां पुरतो वदन्ति // 35 // ___ अर्थ-इन मुनिजनों की यही भावना रहती है कि जीवों का हित कैसे होवे. इसी से जब ये धर्म का उपदेश देते हैं तब उसमें उनके समक्ष उसी का कथन बरते हैं. // 35 // આ મુનિજનાની એજ ભાવના રહે છે કે-જીનું હિત કેવી રીતે થાય? તેથી તેઓ મારે ધર્મને ઉપદેશ આપે છે. ત્યારે તેમાં જનતાની સામે તેનું જ કથન કરે છે. રૂપા यतो निरारंभ परिग्रहस्य चिंता न चित्तं व्यथितुं ह्यलं स्यात् / साधोरतः सा हृदयारविन्दे वस्तुं क्षमानास्य भवेदशक्ता // 36 // अर्थ-आरंभ और परिग्रह से रहित प्राणी के चित्त को चिंता व्यथित नहीं कर सकती है इसीलिये उस निरारंभ परिग्रही साधु के हृदय कमल में Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते असमर्थ बनी हुई उस चिंता को निवास करने के लिये स्थान नहीं मिलता है // 36 // આરંભ અને પરિગ્રહથી રહિત પ્રાણીના ચિત્તને ચિંતા પીડા કરતી નથી. એ આરંભ વગરના પરિગ્રહવાળા સાધુના હૃદયકમળમાં અસમર્થ બનેલી એ ચિંતાને વાસ કરવા માટે स्थान भगतु नथी. // 6 // ध्यानेन तावत्तपसा श्रुतेन दुर्भाववृत्तिं ह्यशुभोपयोगम् / शुभोपयोगेन सदा रुणद्धि दुष्कर्मणामागमनं च साधुः // 37 // अर्थ-धर्मध्यान से, तपस्या से और शास्त्र से-शास्त्रों के पठन पाठन से अशुभ भावों की वृत्ति को और शुभ उपयोग से दुष्कर्मों के आगमन को साधु सदा रोकता रहता है, तात्पर्य इसका ऐसा है कि साधुजन ध्यान के बल से अपने भीतर आने वाले दुष्ट परिणामों का अकुशल भावों का, तपस्या एवं शास्त्र के बल से अशुभ उपयोग का तथा शुभोपयोग के बल से दुष्कर्मों के आश्रव का निरोध करते रहते हैं // 37 // / ધર્મધ્યાનથી, તપસ્યાથી, અને શાસ્ત્રથી-શાસ્ત્રોના, પઠન પાઠનથી અશુભ ભાવેની વૃત્તિને અને શુભ ઉપગથી દુષ્કર્મોના આગમનને સાધુ સદા રોકતા રહે છે. તાત્પર્ય આ કથનનું એવું છે કે-સાધુજન ધ્યાનના બળથી પિતાની અંદર આવનારા દુષ્ટ પરિણામે અકુશળભાને, તપસ્યા અને શાસ્ત્રના બળથી અશુભ ઉપગને તથા શુભ ઉપગના બળથી દુષ્કર્મોના આસવને રોતા રહે છે. ૩છા अलौकिकी वृत्तिरतो ह्यमीषां वाचं यमानां भवतीति शास्त्रे / प्रोक्तं मुनीनामभिवंद्यपादमवद्य भेदंकुरुतेऽथ भक्तः // 38 // अर्थ-वचनों की प्रवृत्ति पर अङ्कुश रखने वाले इन मुनिजनों की वृत्ति अलौकिक होती है ऐसा शास्त्रों में कहा है. इसीलिये इनके भक्त इनके चरणों को नमस्कार करके अपने पापों का विनाश कर लेते हैं // 38 // વચનની પ્રવૃત્તિ પર અંકુશ રાખવાવાળા આ મુનિજનેની વૃત્તિ અલૌકિક હેય છે. એવું શાસ્ત્રોમાં કહ્યું છે તેથી તેમના ભક્તો તેમના ચરણોમાં નમસ્કાર કરીને પિતાના પાપને નાશ કરે છે. 38 तदेव तीर्थ निपतन्ति यत्र तेषां गुरूणां गुरखोऽघयस्ते / त्रैलोक्यवंद्या रजसां जनानां संहारका सर्वहितंकराणाम् // 39 // Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशः सर्गः अर्थ-जहां पर समस्त जीवों के हितकारक उन गुरुदेवों के त्रैलोक्यवंद्य -एवं प्राणियों के पापों के संहारक वाणी का उपदेश होता है वहीं चतुर्विध संघ मोक्षमार्ग की आराधका कर सकते हैं // 39 // જયાં સઘળા જીવોના હિતકરનારા એ ગુરૂદેવોની ત્રણે લેકમાં વંદનીય અને પ્રાણિના પાપની સંહારક વાણીનો ઉપદેશ થાય છે. એજ ચતુર્વિધ સંઘ મોક્ષ માર્ગની આરાધના કરી શકે છે. 39 इत्थं जनानां सद्भावनाभिः पुरस्कृतः सोऽथ नवीन साधुः / बभारलक्ष्मी विजयाभिधानमासीच यो लोकविधुश्च पूर्वम् // 40 // अर्थ-इस प्रकार मनुष्यों की सद्भावनाओं से पुरस्कृत हुए उन नवीन साधु ने जो कि कुछ क्षण पहिले लोकचन्द्र थे लोकाशाह इस नाम से प्रसिद्ध हुए // 40 // આ પ્રકારની મનુષ્યની સંભાવનાઓથી પુરસ્કૃત થયેલા એ નવીન સાધુએ કે જે કંઈક ક્ષણ પહેલા લેકચંદ્ર હતા. તેઓ લેકશાહ એ નામથી પ્રસિદ્ધ થયા. જગા यथा मुनीनां गदिता प्रवृत्तिः सामान्य संक्षेपतया मया सा / वृत्तिर्वभूवास्य यतेर्यतः सा गुणोद्भवेन्नैव हितंकरा स्यात् // 41 // ___ अर्थ-जैसी मुनिजनों की प्रवृत्ति संक्षेप रूप से मैंने यहां कही है वैसी वृत्ति इस लोकाशाह मुनि की हुई. क्यों कि प्रवृत्ति गुणों की प्रसूति से ही * हितकारक होती है // 41 // જેવી મુનિજનોની પ્રવૃત્તિ સંક્ષેપથી મેં અહીં કહી છે, એવી વૃત્તિ આ લોકશાહ મુનિની હતી. કેમકે-પ્રવૃત્તિ ગુણની પ્રસૂતિથી જ હિતકારક થાય છે. 41 कदाचिदेतेऽनशनं कदाचिद् ऊनोदरंवाथ तपो ह्यनेकम् / कुर्वन्त्यतः सन्ति तपोधनाढ्या धनेन हीना अपि लोकपूज्याः / 42 // अर्थ-ये मुनिजन कभी अनशनरूप तपस्या करते हैं कभी उनोदर रूप तपस्या करते हैं-इस तरह अनेक प्रकार की तपस्या करने के कारण तपोधन कहे जाते हैं-अतः ये धन से हीन होने पर लोकपूज्य हो जाते हैं // 42 // . આ મુનિ કયારેક અનશનરૂપે તપસ્યા કરે છે. ક્યારેક ઉનોદરરૂપે તપસ્યા કરે છે. આ રીતે અનેક પ્રકારની તપસ્યા કરવાથી તેઓ તપાધન કહેવાય છે. તેથી એ ધનથી રહિત જ હોવાથી લેક પૂજ્ય બની જાય છે. જરા Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते गुरून गुरून् सम्यउपास्य तेभ्यो वियोपविद्याः सकला अधीत्य / जातोऽथ विद्वान् गणितैरहोभिः प्रतिष्ठितोऽभूद्विदुषां सपङ्क्तो // 43 // अर्थ-विशिष्ट गुरुजनों की उपासना करके इन लोकाशाह महाराज ने उनसे समस्त विद्याएं एवं उपविद्याएं प्राप्त करली और कुछ ही दिनों में ये विद्वान् बन गये एवं विद्वानों की श्रेणी में इनकी प्रतिष्ठा होने लगी. // 43 // વિશેષ પ્રકારના ગુરૂજનની ઉપાસના કરીને આ લેકશાહ મહારાજે તેમની પાસેથી સઘળી વિદ્યાઓ અને ઉપવિધાઓ મેળવી લીધી. અને થોડા જ દિવસોમાં તેઓ વિદ્વાન બની ગયા અને વિદ્વાનોની પંક્તિમાં તેમનું સન્માન થયા લાગ્યું. 43 सिद्धान्तशास्त्राण्यवगाद्य सोऽयं विशेषजिज्ञासुरथो बभूव / ज्ञानावृतेर्जात विशिष्ट योग्यात् क्षायोपशम्याद भवत्तदस्य // 44 // ज्ञाने च वैशिष्टयमतः स्मृतेश्च विकासभावोऽजनि तत्प्रभावात् / पूर्वापरस्थस्य समस्तवेद्यस्य विस्मृति धिगतस्य जाता // 45 // अर्थ-आचारांग आदि बत्तीस सूत्रों का अध्ययन करने से इनकी जिज्ञासा तत्त्वोंकी ओर बढी ज्ञानावरणीय कर्म के विशिष्ट योग्य क्षयोपशम होने के कारण इनके ज्ञान में वैशिष्टय आ गया और इससे स्मरणशक्ति इनकी विकसित हो गई. अतः जो कुछ भी विषय ये पढते वह पूर्वापर रूप से इन के ज्ञान में जमा रहता. वह विस्मृत नहीं होता // 44-45 // આચારાંગ વિગેરે બત્રીસ સૂત્રોનું અધ્યયન કરવાથી તેમની જીજ્ઞાસા તો જાણવાની તરફ આગળ વધી, જ્ઞાનાવરણીય કર્મને વિશેષ પ્રકારથી ગ્ય રીતે ક્ષય થવાના કારણે તેમના જ્ઞાનમાં વિશેષતા આવી ગઈ અને તેમાંથી તેમની સમરણ શક્તિને વિકાસ થયો તેથી જે કોઈ વિક્ય તેઓ વાંચતા તે પૂર્વાપરપણાથી તેમના જ્ઞાનમાં સ્થિર થતું. તે ભૂલાતું નહીં, ૪૪-૪પા सिद्धान्तशास्त्राध्ययनेन सोऽयं यतिक्रियां वीक्ष्य च वर्तमाने। पूर्वे च तैस्तैर्यतिभिः कृतां तामाराध्यमाणामतुदत्स्वचित्ते // 46 // अर्थ-सिद्धान्त शास्त्रों के अध्ययन से यति क्रियाओं के सम्बन्ध में विशिष्ट ज्ञान प्राप्त कर और पूर्व में यतिजनों ने इनका पालन किस तरह से किया है और अब वर्तमान में ये यतिजन किस तरह से - (स्व. च्छंदवृत्ति से) इनका पालन कर रहे हैं यह देख करके ये अपने मन में भीतर ही भीतर बडे दुःखित रहने लगे. // 46 // Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशः सर्गः સિદ્ધાંત શાસ્ત્રોના અધ્યયનથી યતિક્રિયાઓના સંબંધમાં વિશેષ જ્ઞાન મેળવીને અને પૂર્વે યતિજનોએ તેનું પાલન કેવી રીતે કર્યું છે, અને હાલમાં આ યતિજનો કેવી રીતે (સ્વછંદ વૃત્તિથી) તેનું પાલન કરતા રહે છે, તે જોઈને તેઓ પિતાના મનમાં અંદરને 21 घ हुमी रहे। साया. // 46 // उन्मार्गगास्ते यतयस्तदाऽऽसन् स्वेच्छानुरूषां प्रतिपालवन्तः। यतेः क्रियां हार्दिकभावशून्या आडम्बरै स्तैर्बहुभिः सनाथाम् // 17 / ___ अर्थ-लोकाशाह मुनि के समय में यतिजन अपनी मनमानी करते थे अपनी इच्छा के अनुसार वे यति क्रियाओं को पालते थे. शास्त्रों में जैसी प्रवृत्ति यति जनों को करने योग्य कही गई है उसकी ओर उनका ध्यान नहीं था अतः वे हार्दिक भावना से शून्य होकर केवल बाह्य आडंबरों से परिपूर्ण बनाकर यतिक्रिओं को पालते. इसलिये वे उन्मार्ग-गामी थे // 47 // કાશાહ મુનિના સમયમાં યતિજને પિતાના મનધાર્યું વર્તન કરતા હતા. પોતાની ઈચ્છા પ્રમાણે તેઓ યતિ ક્રિયાઓનું પાલન કરતા હતા શાસ્ત્રોમાં યતિજનેને કરવા યોગ્ય જેવી પ્રવૃત્તિ કહી છે, તે તરફ તેઓ ધ્યાન આપતા ન હતા. તેથી તેઓ હાર્દિક ભાવના એથી શૂન્ય થઈને કેવળ બહારના આડંબરથી પરિપૂર્ણ બનાવીને યતિક્રિયાઓનું પાલન કરતા હતા. તેથી તેઓ ઉન્માર્ગગામી હતા. ૪ના सिद्धान्त सिद्धामवमत्य मान्यामाज्ञां स्वरुयैव परं भजन्तः / जिनेन्द्रमार्गाबहिरेव जाता एतेच तन्मार्गकलवरूपाः // 48 // अर्थ-सिद्धान्त मान्य आज्ञाकी अवहेलना करके केवल अपनी रुचि के अनुसार उन क्रियाओं को पालने वाले वे यतिजन जिनेन्द्र के मार्ग से बाहर थे और जिनेन्द्र मार्ग के कलङ्करूप थे // 48 // સિદ્ધાંતથી માન્ય થયેલ આજ્ઞાની અવહેલના કરીને કેવળ પિતાની રૂચી પ્રમાણે એ ક્રિયાઓને પાલનારા એ યતિજને જીનેન્દ્રના માર્ગથી બહાર હતા. અને જીનેન્દ્રના માર્ગના કલંકરૂપ હતા. 48 यानं समारुह्य चतुभिरुह्य नरैस्तदा तेह्यशनंच भोक्तुम् / श्राद्धस्य यान्ति स्म गृहं च तस्मादादाय रायं च महोत्सवेन // 49 // ___ अर्थ-ये जब श्रावक के यहां आहार लेने जाते-तो बडे उत्सवके साथ जाते पालखी में बैठ कर जाते. उसे चार आदमी उठाते, जिसके यहाँ इनका आहार होना उससे ये रूपया आदिद्रव्य लिया करते. // 49 // Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते તેઓ જયારે શ્રાવકને ઘેર આહાર લેવા જતા તો ઘણા જ ઉત્સવપૂર્વક જતા, પાલખીમાં બેસીને જતા, તેને ચાર પુરૂષો ઉઠાવતા જેને ત્યાં તેઓને આહાર થત તેની પાસેથી તેઓ દ્રવ્ય લેતા. 49 युग्मम्मैत्रादि भैषज्य विशेषयोगैः प्रलोभ्य भूपान् स्ववशान विधाय / स्वमान्यता ख्यापकमातपत्रादिकं तदा तैः परिदीयमानम् // 50 // संगृह्यते सा जनता विमुग्धा दृष्ट्वा प्रभावं च यतिब्रुवाणाम् / / एषां न किञ्चिद्वदतिस्मतेऽपि मदेन मत्ताश्च निरर्गलाः स्युः // 51 // अर्थ-मंत्रादिकों द्वारा तथा भैषज्य आदिकों के विशेषयोगों द्वारा ये उसः . समय राजाओं को लुभाकर अपने प्रभाव में ले लेते और उनसे अपनी मान्यता बढाने के निमित्त छत्र-चामर-छडी आदि प्राप्त करते. जनता भोली थी वह इन यतिवेषधारियों के प्रभाव को देखकर इनसे कुछ नहीं कहती . अतःये मदोन्मत्त होकर निरर्गल बने गये थे // 50-51 // મંત્ર પ્રયોગથી કે ઔષધાદિના વિશેષ યોગોથી તેઓ એ સમયે રાજાદિકને લેભ ઉપજાવી. પિતાના વર્ચરવમાં લઈ લેતા. અને તેમની પાસે પોતાની માન્યતા વધારવા માટે છત્રચાર-છડી વિગેરે લેતા. જનતા તે ભોળી હતી. તે આ યતિષધારીના પ્રભાવને–આડંબરને જોઈને તેમને કોઈ કંઈ કહેતું નહીં તેથી તેઓ મદોન્મત્ત થઈને નિર્ગળ બની ગયા હતા. 50-51 ते निर्भयीभ्य गजेन्द्रतुल्या इच्छानुकूलाप्तविशिष्ट भक्ताः। वायु प्रकोपेन च पुष्ट देहा इतस्ततोवा विचरन्त्यविज्ञाः ॥५थ।। अर्थ-ये अनात्मज्ञ यतिजन कि जिन्हें अपनी इच्छाके अनुकूल विशिष्ट आहार प्राप्त हो जाता था और बात के प्रकोप से जिनका शरीर स्थूल रहा करता था निर्भय होकर गजराज की तरह इधर उधर विहार करते रहते // 52 // આ આત્માને ન ઓળખનાર યતિજનકે જેને પિતાની ઈચ્છા પ્રમાણે વિશેષ આહાર મળી જતો અને વાને કોપથી જેનું શરીર રધૂળ રહેતું તેઓ નિર્ભય થઇને હાથીની માફક આમતેમ વિહાર કરતા રહેતા. પરા स्वनामधेयेन च कारयित्वा उपाश्रयं तत्र विमुग्धवृत्त्या / निवासमास्थाय नवांगपूजां स्वीयामिमे हा किल कारयन्ति // 53 // Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयोदशः सर्गः अर्थ-ये यतिजन अपने नामका उपाश्रय बनवाते और उसे अपना मानकर उसी में रहते एवं अपनी नवांगी पूजा कराते // 53 // એ યતિજને પિતાના નામથી ઉપાશ્રય બનાવતા અને તેને પોતાને માનીને તેમાં જ રહેતા અને પિતાની નવાંગી પૂજા કરાવતા. 23 इत्थं च तेषां दयनीयवर्ति निरीक्ष्य तेषां हितकाम्ययाऽसौ / धृतं पदं तं प्रविहाय साधो दीक्षां समादाय मुनिर्बभूव // 54 // अर्थ-इस प्रकार उन यतिजनों को दयनीय दशा को देखकर इन लोकाशाह मुनि ने उनके हितकी कामना से अपना गृहीत यति पद छोडदिया और मुनि दीक्षा धारण करली // 54 // એ રીતે એ યતિજનોની દયનીય દશાને જોઈને આ લેકશાહ મુનિએ તેમના હિતની ઈચ્છાથી પોતે સ્વીકારેલ યતિપદ છોડી દીધું અને મુનિદીક્ષા ધારણ કરી પજા सिद्धान्तशास्त्राब्धि विलोडनेन सरस्वती रत्नभवापि तेन / तस्यानुभावात्तदन्तरात्मा यथार्थबोधेन सुवासितोऽभूत् // 55 // ___ अर्थ-मुनि अवस्था में वर्तमान लोकाशाह मुनि ने सिद्धान्त शास्त्रों का खूब गहरा अध्ययन किया अतः इससे सरस्वती रत्न इन्हें प्राप्त हो गया। अतः अन्तरात्मा बने हुए इन्हें यथार्थ बोधने सुवासित कर दिया. // 55 // મુનિ અવરથામાં રહેલા કાશાહ મુનિએ સિદ્ધાંત શાસ્ત્રોને ઘણે ઉંડો અભ્યાસ કર્યો, તેથી સરસ્વતીરત્ન તેઓ બની ગયા. તેથી સરસ્વતીની કૃપાથી તેમને અંતરાત્મા યથાર્થ બેધથી સુવાસિત બની ગયે. પપ तान् बोधयामास विशुद्ध बोधिः स जैनमार्गप्रतिपन्थिभूतान् / उत्सूत्रभाषांश्च परिग्रहादौ प्रसक्तचित्तान् विपरीतबुद्धीन् // 56 // .. अर्थ-अब विशुद्ध बोध वाले श्रीलोकाशाह मुनि ने उन जैनमार्ग से बिलकुल विपरीत बुद्धिवाले. उत्सूत्र प्ररूपणा करने वाले एवं परिग्रह आदि में लवलीन चित्तवाले उन यतियों को समझाना शुरू किया // 56 // વિશુદ્ધ બેધવાળા લેક શાહ મુનિએ જેનમાર્ગથી બિલકુલ ઉલ્ટી બુદ્ધિવાળા, ઉસૂત્ર પ્રરૂપણ કરનારા, અને પરિગ્રહ વિગેરેમાં રચ્યાપચ્યા રહેવાની વૃત્તિવાળા એ યતિને સમજાવવાની શરૂઆત કરી. પદ્દો 1 कितनेक लोक लोकाशाहने दीक्षा नही ली ऐसा मानते हैं, किंतु सांप्रदायिक बहुसंख्यक विद्वबृन्द लोकाशाह दीक्षित हुवे हैं ऐसा अभिप्राय व्यक्त करते हैं / 50 Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते उक्तंच तेनाथ भुजी प्रसार्य ब्रवीमि सुस्पष्टमिदं वचोऽहम् / नैतच्चरित्रं यतये हिताय यत्साल्यते तज्जिनमार्गबाह्यम् // 57 // अर्थ-उन्हों ने कहा-मैं हाथ पसार कर यह स्पष्ट रूप से घोषणा करता हूं कि जो आप लोग कर रहे हैं-वह यतियों के लिये हितावह नहीं है क्यों कि यह सब जैनमार्ग से बिलकुल बाह्य है // 57 // તેમણે કહ્યું હું હાથ ફેલાવીને સ્પષ્ટ રીતે આ ઘોષણા કરું છું કે-આપ લે કે જે કરી રહ્યા છો તે યતિ માટે હિતકારક નથી. કેમકે આ બધું જૈનમાર્ગથી બિલકુલ જુદું જ છે. પછા सुस्पष्टशब्दैर्जनता समक्ष मुद्घोषयाम्यत्र सुमंगलाय / दृग्बोधशुद्धं चरणं पवित्रं तदेव संसारहरं हिताय // 58 // अर्थ-उन्हों ने जनता के समक्ष स्पष्ट शब्दों में यह घोषणा की कि सम्यक् चारित्र वही है जो सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन से विशुद्ध होता है. ऐसा चारित्र ही संसार का विनाशक होता है और वही हितकारक होता है // 58 // તેઓએ જનતાની સામે સ્પષ્ટ શબ્દોમાં એવી ઘોષણા કરી કે–સચચારિત્ર એજ છે, કે જે સમ્યફજ્ઞાન, સમ્યફદર્શનથી વિશુદ્ધ હૈય, એવું ચારિત્ર જ સંસારનું વિનાશક હોય છે. અને એજ હિતકારક હોય છે. કેપટા शल्यत्रयेणैव विहीनवृत्तं वाराधकस्याथ फलप्रदायि / ' स्वकल्पनाकल्पितमेतदेव मनो विकल्पादि वदस्त्यपार्थम् // 59 // अर्थ-माया मिथ्या और निदान इन तीन शल्यों से रहित व्रत ही अपने आराधक साधक को फल देने वाला होता है. अपनी इच्छा से कल्पित आचार नहीं. वह तो मनोराज्यादि विकल्पों की तरह निष्फल ही होता है // 59 // માયા મિથ્યા અને નિદાન એ ત્રણ શલ્યથી રહિન વ્રત જ પિતાના આરાધક સાધકને સફળ થાય છે. પિતાની ઇચ્છા પ્રમાણે કલ્પિત આચાર સફળ થતું નથી. એ તે મોરાજયાદિની માફક નિષ્ફળ જ થાય છે. પેટા इत्थं तदीयं प्रबलप्रमाणान्वितं ध्वनि ते नितरां निपीय। विमुच्य सूत्राच विरुद्धवृत्ति तदिष्टवृत्तिं विदधुः प्रबुद्धाः // 60 / / Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशः सर्गः अर्थ-इस प्रकार से अकाट्य प्रमाणों वाली उसकी देशना को अच्छी तरह सुनकरके उन लोगों ने सूत्र से विरुद्ध अपनी प्रवृत्ति को छोड दिया और सूत्र से समर्थित वृत्ति को धारण कर लिया. // 60 // આ રીતે બળવાન પ્રમાણે વાળી તેમની દેશનાને સારી રીતે સાંભળીને એ લેકેએ સૂત્રથી વિપરીત પોતાની પ્રવૃત્તિને છોડી દીધી. અને સૂત્રમાં કહેલ વૃત્તિને ધારણ કરી. ૬ના बभूव साधोः खलु देशनायाः ख्याति विशिष्टा विदुषः पुरेऽस्मिन् / जाता जनास्तां च विचारकस्य श्रोतुं सभायामभवत्समेताः // 61 // अर्थ-विचारक इन विद्वान् साधु महाराज के प्रवचन को ख्याति इस पाटण शहर में विशिष्टरूप से हो गई. अतः मनुष्य उसे सुनने के लिये सभा में एकत्रित होने लगे. // 61 // વિચારક એવા આ વિદ્વાન સાધુમહારાજના પ્રવચનની ખ્યાતિ તે પાટણ શહેરમાં વિશેષ રીતે થઈ. તેથી અનેક મનુષ્યો તેને સાંભળવા સભામાં એકઠા થયા લાગ્યા. આ૬ 1 स्वतन्त्ररूपेण विचारकोऽयं तस्यां सभायां स्वविचारधाराम् / स श्रावयामास च निर्भयः सन् सिद्धान्तवार्ता समुपस्थितांस्तान् // 62 // अर्थ-स्वतन्त्र विचारक इन्होंने उस सभा में निर्भय होकर सिद्धान्तचर्चावाली अपनी विचारधारा उपस्थित मनुष्यों को सुनाई // 12 // સ્વતંત્ર વિચારક એવા તેમણે એ સભામાં નિયપણે સિદ્ધાંતની ચર્ચાવાળી પિતાની વિચારધારા ત્યાં ઉપસ્થિત થયેલા મનુષ્યને કહી સંભળાવી. 6 રા सिद्धान्तशास्त्रैः परिपुष्टदेहं तस्योपदेशं परिणीय जीवाः। प्रभाविनः क्षाति समन्वितत्य तं श्रद्वया स्वस्य दधुश्च चित्ते // 63 // अर्थ-सिद्धान्त शास्त्रों के अनुकूल उन प्रभाव शाली एवं क्षमाशील लोकाशाह मुनि की देशना को सुनकर जीवों ने उसे श्रद्धापूर्वक अपने चित्त में धारण कर लिया // 63 // સિદ્ધાંત શાસ્ત્રોમાં કહ્યા પ્રમાણેની એ પ્રભાવશાળી અને ક્ષમા ન લેકશાહ મુનિની દેશનાને સાંભળીને ત્યાં ઉપસ્થિત જી એ શ્રદ્ધાપૂર્વક તેને પિતાના હૃદયમાં ધારણ કરી લીધી. 63 धर्मप्रभावादिहकश्चिदात्मा मनुष्यपर्यायमुपागतोऽयम् / धर्मप्रचाराय विनाशनाय पापाङ्करस्याथ विशिष्टशक्तिः // 4 // Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरित अर्थ-धर्म के प्रभाव से ही कोई विशिष्ट शक्ति शाली जीव धर्म के लिये और पाप के अंकुर को विनाश करने के लिये इस मनुष्य पर्याय में आया है. // 64 // . ધર્મના પ્રભાવથી જ કઈ વિશેષ શક્તિશાળી જીવ ધર્મના પ્રચાર માટે અને પાપના અંકુરના વિનાશ માટે આ મનુષ્ય પર્યાયમાં આવેલ છે. 64 जगत् पवित्रं कर्तुं किमेषोभूता विभूतिर्महतो हि पुण्यात् / जगज्जनानां न महाजनस्य समुद्भवः कारणमन्तरेण // 65! ___ अर्थ-क्या यह लोकविजय रूपी विभूति जगत् के जीवों के महान् पुण्य के उदय से प्रकट हुई है. क्यों कि कारण के विना विशिष्ट महान्व्यक्ति का जन्म नहीं होता है. // 65 // શું આ લેકવિજયરૂપી વિભૂતિ જગતના જીના મહાન પુણ્યના ઉદયથી પ્રગટ થયેલ છે. કેમકે-કારણ વિના વિશેષ એવી મહાન વ્યક્તિને જન્મ થતો નથી. 6 પા जगज्जनानां खलु पुण्ययोगाद्विभूतिरेषा जनुषा पवित्रा / इदं जगत्त्रातुमथापथात्स्यात् क्षमा सतो जन्म परोदयाय // 66 // ___ अर्थ-सांसारिक जीवों के पुण्य के योग से यह पवित्र विभूति अपने जन्म से इस संसार को कुमार्ग से रक्षा करने के लिये समर्थ है. क्यों कि दूसरों का अभ्युदय हो इसीलिये सत्पुरुष का जन्म होता है. // 66 // સાંસારિક જીના પુણ્ય ભેગથી આ પવિત્ર વિભૂતિ પિતાના જન્મથી આ સંસારને કુમાર્ગથી બચાવવા માટે સમર્થ છે. કેમકે બીજાની ઉન્નતિ થાય તે માટે જ પુરૂષ न्म वा रे छ. // 16 // आविर्भवन्ती भवभूतिरेषा नूनं कुमार्गस्थजनं सुमार्गम् / बोधपः स्वीयवचोभि रानेष्यतीति मत्वाथ तमर्चयन्ति // 67|| ___ अर्थ-प्रकट हुई यह भवभूति-जगत् की उत्तम विभूति-नियम से अपने बोधप्रद वचनों द्वारा-उपदेशों द्वारा कुमार्गस्थ मनुष्य को अच्छे मार्ग में ले आवेगी. ऐसा मानकर उसकी वाणी सुनने लगे // 67 / / પ્રગટ થયેલ આ ભવભૂતિ-જગતની ઉત્તમ વિભૂતિ નિશ્ચયપૂર્વક પોતાના બેધપ્રદ વચને–ઉપદેશથી કુમાર્ગમાં રહેલા મનુષ્યને સારા માર્ગમાં લાવશે. તેમ માનીને તેઓની વાણી સાંભળવા લાગ્યા. 6 છા Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 397 त्रयोदशः सर्गः सांसारिकं सर्वसुखं विहाय मनस्विना येन जिनेन्द्र दीक्षा / / धृता च मोहं परिवर्त्य नूनं वैराग्यमेवास्त्यभयं हि सत्यम् // 6 // -- अर्थ-संसार के सर्व सुखों को छोडकर एवं मोह को परास्तकर जिस मनस्वी व्यक्ति ने जिनेन्द्र दीक्षा धारण की है उससे यही निश्चय होता है कि वैराग्य ही एक निर्भय स्थान है // 68 // સંસારના સઘળા સુખને છોડીને અને મેહને ત્યાગ કરીને જે મનરવી વ્યક્તિએ અને દ્રદીક્ષા ધારણ કરી છે, તેનાથી એજ નિશ્ચય થાય છે કે–વૈરાગ્ય જ એક નિર્ભય સ્થાન છે. આ૬૮ मोहारिणा खंडितमानश्रृंगा वयं क्य चायं दलितारिमोहः / क्व स्वात्कथं पूजकपूज्यभावा भावः कथं स्याच समानता वा // 69 / / ___ अर्थ-जिनका मोहरूपी शत्रु मानरूपी शृंग को खंडित करता रहता है ऐसे हम लोग तो कहां, और यह लोकाशाह मुनि कहां कि जिसने मोह रूपी शत्रु को ही परास्त कर दिया हैं. हम में और इसमें समानता कैसे हो सकती है. // 69 // - જેમને મેહરૂપી શત્ર માનરૂપી સીંગને ખંડિત કરે છે, એવા આપણે કયાં? અને આ લેકશાહ મુનિ કયાં? કે જેણે મેહરૂપી શત્રને જ પરાજય કર્યો છે. આપણામાં અને તેમનામાં સરખાપણું કેવી રીતે થઈ શકે? અને કેવી રીતે પૂજયપૂજક ભાવને અભાવ થઈ શકે ? 69 सानोति कार्य परकीयमेवं स्वीयं च यः साधुरसौ निरुक्त्या / समन्वितोऽयं तदभिख्ययाजो यथार्थरूपेण समस्ति साधुः // 70 // __अर्थ-जो अपना और पर का भला करता है वही साधु है ऐसी साधु शब्द की इस व्युत्पत्ति के अनुसार यह यथार्थ रूप में साधु है केवल नाम का साधु नहीं है // 7 // જે આપણું અને અન્યનું ભલું કરે છે, એજ સાધુ છે. એમ સાધુ શબ્દની વ્યુત્પત્તિ પ્રમાણે આ યથાર્થ રીતે સાધુ છે. કેવળ નામના સાધુ નથી. 70 न निन्दया यो भवति स्म दुःखी स्तुत्या न स्याद् यः सुखिः स साधुः / एवंविधा वृत्ति रिहास्त्यतोऽयं पूज्यः पवित्रः परिसेवनीयः // 7 // Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 318 लोकाशाहचरिते ___ अर्थ-जिसे अपनी निंदा से दुःख नहीं होता और प्रशंसा से प्रसन्नता नहीं होती वही साधु है. इसी प्रकार की वृत्ति इस लोकाशाह मुनि में है अतः ये पूज्य हैं, पवित्र हैं और आराधनीय हैं. // 71 // જેને પોતાની નિંદાથી દુઃખ થતું નથી, અને વખાણથી પ્રસન્નતા થતિ નથી એજ સાધુ છે. એ રીતની વૃત્તિ આ લેકશાહ મુનિમાં છે. તેથી તેઓ પૂજાય છે. અને याराथनीय छ. // 71 // हिता पिता यस्य भवेच्च भाषा दिवंगताशाऽस्तगता च भूषा / प्रियस्तपस्वी स्वपगनुकंपायुतो मुनिःस्याच्च तथैव चायम् // 72 // ___ अर्थ-जिसकी भाषा हितकारक और परिमित होती है-आशा जिसकी दिवंगत होती है. वेष भूषा की ओर जिसका थोडा सा भी लक्ष्य नहीं होता है सब का जो प्यारा होता है विविध प्रकार के जो तप करता है जिसके हृदय में स्वकीय और परकीय दया होती है वही मुनि होता है वैसा ही यह मुनि है // 72 // જેમની ભાષા હિતકરનારી અને પરિમિત હોય છે, જેની આશા દિવંગત હોય છે. પહેરવેશ તરફ જેનું જરાપણુ લક્ષ્ય હેતું નથી, જે સૌના પ્રીતિપાત્ર હોય છે, જે અનેક પ્રકારના તપ તપે છે. જેના હૃદયમાં સ્વસંબંધી અને પસંબંધી દયાભાવ હોય છે એજ મુનિ કહેવાય છે. એવા જ આ મુનિ છે. Iછરા अतो महीयान महतां समर्व्यः वाचंयमानां गुणराजिरम्यः / कारुण्यरत्नाकर एष पुण्यात् दृशोश्च मार्ग यवतात्सुलब्धः // 73 // अर्थ-अतः वे महान हैं और महान् पुरुषों द्वारा पूजने योग्य हैं मुनियों के जितने भी गुण हैं उनसे ये भर पूर हैं ये दया के सागर हैं बडे पुण्य से ये हम लोगों को प्राप्त हुए हैं अतः ये हम लोगों की दृष्टि के मार्ग की रक्षा करते रहें-अर्थात् हम लोगों की आखों से ओझल न हो॥७३॥ તેથી આ મહાન છે. અને મહાન પુરૂ દ્વારા પૂજવાલાયક છે. મુનિના જે ગુણે હોવા જોઈએ તે સધી મા આમનામાં છે. આ દયાના સાગર છે, ઘણા પુણ્યદયથી આપણને પ્રાપ્ત થયેલ છે, જેથી તેઓ આપણી દષ્ટિ માર્ગની રક્ષા કરતા રહે છે. અર્થાત આપણી આંખોથી તેઓ દૂર ન થાય. ૭ફા इत्थं मुनीनां गुणवर्णनाभिरलं कृतः ख्यातदिगन्तकीर्तिः! .. लोकैषणाहीनसुचित्तवृत्तिः सर्वत्र विनम्भवचा बभूव // 7 // Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशः सर्गः अर्थ-इस प्रकार मुनिजनों के गुणों के वर्णन से अलंकृत हुए वे लोकाशाह मुनि कि जिन की कीर्ति दूर दूर तक फैल चुकी है लोकैषणा से रहित चित्तवृत्ति वाले होकर सर्वत्र विश्वास करने योग्य वचन वाले बन गये // 74 // આ પ્રમાણે મુનિજનોના ગુણેના વર્ણનથી શોભાયમાન એ લેકશાહ મુનિ કે જેમની કીર્તિ દૂર દૂર ફેલાઈ ગઈ છે. લોકેષણાથી રહિત ચિત્તવૃત્તિવાળા થઈને બધે જ વિશ્વાસપાત્ર વચનવાળા બની ગયા. આ૭૪ जनेषु संमान्यवचा अथायं जगाम शिष्यैर्यतिभिः कदाचित् / युतोऽमदावाद पुरं विशालं महोत्सवेनाथ विवेश तत्र // 75 // ___ अर्थ-मनुष्यों में जिनके बचन मान्य हो चुके हैं ऐसा ये लोकाशाह मुनिराज किसी एक समय अपने शिष्य यतियों से युक्त हुए विशाल शहर अहमदाबाद पधारें वहां बडे उत्सव के साथ इनका प्रवेश हुआ. 75 // મનુષ્યમાં જેમના વચનો માન્ય થયેલા છે, એવા એ લેકશાહ મુનિરાજ કોઈ સમયે પિતાના શિષ્ય યતિની સાથે આ વિશાળ અમદાવાદ શહેરમાં પધાર્યા. ત્યાં ઘણાં જ ઉત્સવપૂર્વક તેમને પ્રવેશ થયો. છપા झवेरि वाडस्थितमुन्यगारे स तस्थिवान् प्रावृषिकाल अत्र / वस्तुस्वरूपप्रतिपादिका गीः श्रुत्वाऽनुयायी समभूज्जनौ घः // 7 // .. अर्थ-अहमदाबाद में इन्हों ने झवेरी वाडा के उपाश्रय में वर्षायोग वीर संवत् 2000, विक्रम सं. 1531 में चातुर्मास रहे, इनकी वस्तु स्वरूप प्रतिपादक वाणी को सुनकर वहां का समस्त जनसमूह इनका अनुयायी हो गया // 76 // અમદાવાદમાં તેમણે ઝવેરીવાડના ઉપાશ્રયમાં વર્ષાગ વીર સંવત ર૦૦૦, વિક્રમ સંવત 1531 માં ચાતુર્માસ કર્યો, તેમની વસ્તુસ્વરૂપ પ્રતિપાદક વાણીને સાંભળીને ત્યાંને સઘળે જનસમૂહ તેમના અનુયાયી બની ગયે. આ૭૬ आसंश्च ये केऽपि यतिप्रियावा जनाश्च वा ये यतयोऽत्र सर्वे / ते संप्रबुद्धा मुनिदीक्षयाऽथ सुसंस्कृताचारयुता अभूवन // 77 // ' अर्थ-यहां पर जो भी कोई यति प्रिय जन थे वे तथा जो भी यतिजन थे वे सब इनके उपदेशों द्वारा संप्रबुद्ध होकर मुनिदीक्षा से सुसंस्कृत आचार वाले बन गये, // 77 // Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 400 लोकाशाहचरिते અહીં જે કોઈ યતિપ્રિયજન હતા તેઓ તથા જે યતિજનો હતા તે બધા તેમના ઉપદેશ કારા જોત થઈને મુનિદીક્ષાથી સુસંસ્કૃત આચારવાળા બની ગયા. ૭છા श्री वीतरोगोक्त वृषोपदेशान् श्रुत्वा यथार्थान् मुनिषस्य तस्य / मुखारविन्देन विनिर्गतां स्तान् जना प्रसेदुश्च विचारदक्षाः // 78|| अर्थ-श्री वीतराग जिनेन्द्र देव के द्वारा कथित धर्म के उस मुनिराज के मुखारविन्द से निर्गत उन 2 यथार्थ उपदेशों को सुनकर विचार चतुर मनुष्य बडे प्रसन्न होते // 78 // શ્રી વીતરાગ જીતેન્દ્રદેવે કહેલ ધર્મને એ મુનિરાજના મુખેથી નીકળેલા તે તે યથાર્થ ઉપદેશને સાંભળીને વિચારવાનું ચતુર મનુષ્ય ઘણા જ પ્રસન્ન થતા. 78 परस्परं चोचु रहोद्ययावत् न बोधिता ईदृश देशनातः। . पुरा वयं साधुजनेन सम्यक सुस्वादु रसरक्तधिया भियावा // 79 // अर्थ-और आपस में इस प्रकार से कहने लग जाते कि आजतक हमे किसी भी साधु महाराज ने पहिले इस प्रकार की देशना से प्रबोधित नहीं किया है // 79 // અને પરસ્પર એમ કહેવા લાગતા કે આજ સુધી અમને કઈ પણ સાધુમહારાજે આ પ્રમાણેની દેશનાથી પ્રબોધિત કરેલ નથી. છઠ્ઠા वस्तुस्वरूपं गुरुणा ह्यनेन निरूप्यते नैव निरूप्यमाणम् / श्रुत च तद्धन्त ! मुनीन्दुनाऽपि धन्या इमे सद्गुरखो विशेषात् // 40 // ___ अर्थ-वस्तु का जैसा स्वरूप इन गुरु देव के द्वारा निरूपित किया जाता है वैसा वस्तु का स्वरूप अन्य श्रेष्ठ मुनि महाराज के द्वारा निरूपित होता हुआ हमने नहीं सुना हैं. अतः ये सद्गुरु विशेषरूप से धन्यवाद के पात्र हैं // 8 // વસ્તુનું જેવું સ્વરૂપ આ ગુરૂદેવ દ્વારા નિરૂપિત કરવામાં આવે છે, એ રીતે વસ્તુનું વરૂપ અન્ય ઉત્તમ મુનિ મહારાજ દ્વારા નિરૂપિત થતું અમે સાંભળેલ નથી. તેથી આ સર્શરૂ વિશેષ રીતે ધન્યવાદને પાત્ર છે. ૮ના इत्थं जनानां मनसि प्रभूतस्तस्य प्रभावोजनि सोऽपि सर्वान् / संबोध्य तावद्धयवदच्च भव्याः ! स्यात्संशयों मत्कथने निर्वायः // 81 // अर्थ-इस प्रकार मनुष्यों के अन्तःकारण में उनका विशेष प्रभाव जमगया. वे सब सभ्यों को संबोधित कर उनसे कहते कि यदि मेरे कहने में आप लोगों को संशय हो तो आप उसका निवारण कर सकते हैं // 81 // Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 401 त्रयोदशः सर्गः આ રીતે મનુષ્યના અંતઃકરણમાં તેમનો વિશેષ પ્રભાવ પડયો. તેઓ તમામ સભ્યને સંબોધિત કરીને તેઓને કહે છે કે-જો મારા કહેવામાં તમને શંકા હોય તો તમે તેનું નિવારણ કરી શકે છે. 81 अनिश्चकाले “अणहिल्ल पट्टण" वास्यथाऽऽयाद्धनिकोऽत्रकश्चित् / यः सूत्रसिद्धान्तविशेषविज्ञो नामास्य चासील्लकवमशी भाई // 8 // अर्थ-इसी समय अणहिल्ल (पुर) पट्टण का रहने वाला एक कोई धनिक श्रावक जो कि सूत्र सिद्धान्त का ज्ञाता था यहां अहमदाबाद आया. इसका नाम लक्खमशीभाई था // 82 // એજ વખતે અણહિલ્લપુર પાટણના નિવાસી એક ધનિક શ્રાવક કે જે સૂત્રસિદ્ધાંતને જણનારા હતા. અને અમદાવાદ આવેલ હતા તેમનું નામ લખમશીભાઈ હતું. ૮ર " श्रुत्वोपदेशं मुमुदे स पश्चात्-एकान्तमास्थाय चकार चर्चाम् / तेनाथ साधं हृदि संनिधाय जहर्ष विज्ञाय यतो महात्मा // 3 // - अर्थ-लक्खमशीभाई ने लोकाशाह महाराज का धर्मोपदेश सुना. सुनकर वे अपने आप में बहुत संतुष्ट हुए पश्चात् एकान्त में बैठकर उसने उनके साथ चर्चाकी उसे हृदय में धारणकर और यह जानकर कि यह कोई महान् आत्मा है उसे बडा हर्ष हुआ. // 83 // તેમણે લેકશાહ મહારાજના ધર્મોપદેશ સાંભળીને પિતે ઘણા જ પ્રસન્ન થયા. તેથી તેએા એકાન્તમાં બેસીને તેમણે તેઓની સાથે ચર્ચા વિચારણા કરી. તેને હૃદયમાં ધારણ કરીને તથા તેઓ એમ સમજયા કે આ કઈ મહાન આત્મા છે, તેમને આ તમામ બાબત ધણીને ઘણે હર્ષ થે. આ૮૩ वीरोक्तवाण्या गुणिना रहस्यं महात्मनाऽनेन महोदयेन ! ज्ञातं समीचीनतया ह्यतोऽस्य भवेत्प्रचारः खलु देशनायाः // 4 // अज्ञानसंच्छिन्नमनांसि तस्माज् ज्ञानप्रकाशेन विकासवन्ति / भवेयु रेषाऽस्ति मदीयकाम्या वीरोक्तवाण्यैव हितं जनानाम् // 85 // अर्थ-वीर प्रभु के द्वारा कही गई वाणी का रहस्य इस महात्माने कि जिस महान् उदय होने वाला है अच्छी तरह से जान लिया है अतः इसकी शना का प्रचार होना चाहिये. जिस से मनुष्यों के अज्ञ मन ज्ञान के Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते प्रकाश से विकसित हो जावें यही मेरी कामना है. क्यों कि मनुष्यों का हित वीर प्रभु की वाणी से ही हो सकता है. // 84 85 / / વીર પ્રભુએ કહેલ વાણીનું રહસ્ય આ મહાત્માએ કે જેને મહાન ઉદય થવાને છે. તેમણે સારી રીતે જાણ્યું છે. તેથી આમની દેશના પ્રચાર થે જોઈએ જેથી મનુષ્યના અજ્ઞાનથી છુપાયેલ મન જ્ઞાનના પ્રકાશથી પ્રકાશિત થઈ જાય ! એજ મારી ઈચ્છા છે. કેમકે-મનુષ્યનું હિત વીર પ્રભુની વાણીથી જ થઈ શકે છે ૮૪-૮પા रागादि दोषैर्मलिनात्म जीवै धर्मप्रचारो भवितुं ह्यशक्यः / यतो न तेषां वचसि प्रमाणत्वमस्य मानात्खलु मानताऽत्र // 86 // अर्थ-रागादि दोषों से दूषित जीवों के द्वारा धर्म का प्रचार होना अशक्य है. क्यों कि उनके वचनों में प्रमाणता नहीं आती है / "वक्तुः प्रामाण्यावचसि प्रामाण्यम्" इस कथन के अनुसार वक्ता की प्रमाणता से ही उसके कथन में प्रमाणता आती है // 86 // રાગાદિ દેથી દુષિત જીવો દ્વારા ધર્મને પ્રચાર થ અશક્ય છે. કેમકે તેમના क्या प्रमाणभूत 2 शता नथी 'वक्तुःप्रामाण्याद्वचसि प्रामाण्यम्' २५७५न प्रभार વક્તાના પ્રમાણપણથી જ તેના કથનમાં પ્રમાણતા આવે છે. માટે श्री वीतरागाधनि संस्थितस्य सहस्रवर्षद्वयसंभृतं यत् / तमः प्रयत्नाच महोदयस्य महात्मनो नाशमवाप्स्यतीति // 87 // अर्थ-श्री वीतराग के मार्ग में वर्तमान इस महोदय शाली महात्मा के प्रयत्न से दो हजार वर्ष से भरा हुआ अज्ञान रूपी अंधकार नष्ट हो जावेगा. // 8 // શ્રીવીતરાગના માર્ગમાં વર્તમાન આ મહેદયશાલી મહાત્માના પ્રયત્નથી બે હજાર વર્ષથી ભરાયેલ અજ્ઞાનરૂપી અંધકાર નાશ પામશે. ટંકા एवं स्वकीयां सद्भावनां सः तस्मै निवेद्याथ चकार पाणी। निबद्धय भक्त्यानत पूर्वकायः निवेदनं साग्रहमेवमेव // 8 // अर्थ-इस प्रकार की अपनी भावना को लोकाशाह मुनि के समक्ष प्रकट करके बाद में हम दोनों हाथ जोड कर उन्हें नमस्कार किया और ऐसा ही आग्रह भरा निवेदन किया. // 88 // . पा Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशः सर्गः 403 આ પ્રમાણેની પિતાની ભાવના લેકશાહ મુનિ સમીપે જણાવીને તે પછી તેમણે બન્ને હાથ જોડી તેમને નમરકાર કર્યા. અને એવું જ આગ્રહપૂર્વક નિવેદન કર્યું. 88 शुद्धस्य मार्गस्य जिनोदितस्य त्वयैकसाधो ! प्रतिपाद्यतत्वम् ! प्ररूपणीयं जनतासमक्षं यतश्च तद्बोधरा भवेत्सा / / 89 // अर्थ-हे अनोखे गुरुदेव ! जिनेन्द्र देव के द्वारा कहे गये शुद्धमार्ग का रहस्य जो कि समझाने के योग्य है आप जनता के समक्ष कहिये. इससे वह इसे जानने के लिये तत्पर हो जावेगी. // 89 // હે ગુરુદેવ! જીનેન્દ્રદેવે કહેલ શુદ્ધ માર્ગનું રહસ્ય કે જે સમઝાવવા લાયક છે, તે આપ જનતાને સમજવો જેથી તેઓ એ જાણવા તૈયાર થઈ જશે. 589 एवं कटीबद्धपरोऽभविष्यत् प्राप्स्यद्भवानत्र विशेषलाभम् / इत्थं निवेद्यैव. गते च तस्मिन् जातं च वृत्तं विनिवेदयामि // 9 // . अर्थ-इसलिये आप यदि इस प्रकार के कार्य करने में तत्पर हो जाते हैं तो अवश्य ही आप विशेष लाभ को-सफलता को प्राप्त कर सकते हैं. इस प्रकार गुरु देव से निवेदन करके वह चला गया. अब उस समय जो हाल हुआ उसे मैं कहता हूं // 10 // તેથી આપ જે આ રીતનું કાર્ય કરવા માટે તત્પર થાય તે જરૂર આપ વિશેષ લાભસફળતા પ્રાપ્ત કરી શકશેઆ પ્રમાણે ગુરૂદેવને નિવેદન કરીને તેઓ ઘેર ગયા. હવે એ સમયે જે હાલત હતી તે હું તમને કહું છું. હું મા तस्मिन्नवसरे तत्र जैनसंधाधिपा मताः। आगताः पुरुषा विज्ञाश्चत्वारस्तेऽथ संख्यया // 91 // - अर्थ-उसी अवसर पर वहां जैन संघ के मुखिया आये वे समाजमान्य व्यक्ति थे. और विद्वान थे. इनकी संख्या 4 थी. // 91 // એ સમય ત્યાં જૈન સંઘના અગ્રેસરો આવેલ હતા. તેઓ સમાજમાં માનનીય હતા. અને વિદ્વાન હતા, તેઓ ચાર જણા હતા. 191 स्वकुलं भूषयामास विमलैः शीतलै र्गुणै / तेषासीन्नागजीभाई त्याख्यो यो विश्रुतो धनी // 92 // Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 404 लोकाशाहचरिते अर्थ-जिसने अपने विमल शीतल गुणों से कुल को विभूषित किया है ऐसा उनमें "नागजीभाई" इस नामका एक धनी पुरुष था // 92 // જેમણે પિતાના નિર્મળ શીતળ ગુણેથી કુળને શોભાવેલ છે. તેમનામાં ‘નાગજીભાઈ નામના એક ધનવાનું પુરૂષ હતા. ૧૯રા अतिदानप्रदाने च व्यसनी कृती पुण्यवान् / दुलीचन्द्रोऽथ तेष्वासीद्वितीयो द्वितीयेन्दुवत् // 93 / / अर्थ-दूसरा उनमें दलीचन्द्र भाई था. जो दान देने में विशेष अनुरागी था, पुण्यशाली था, और द्वितीया के चन्द्रमा जैसा (दर्शनीय) था // 13 // તેમનામાં બીજા “દલીચંદભાઈ હતા. જેમાં દાન આપવામાં વિશેષ અનુરાવાળા હતા. અને બીજના ચંદ્રમાની જેમ દર્શનીય હતા. lલ્લા सर्वश्री साधको वाग्मी ज्ञानी ध्यानी परार्थकृत् / स्वकार्यकुशलस्तेषु मोतीचन्द्र स्तृतीयकः // 14 // अर्थ-समस्त जीवों को श्री का साधक विद्वान, ज्ञानी, ध्यानी, परोपकार परायण और अपने कार्य में कुशल तीसरा मोतीचन्द्र था // 94 // સઘળા જીવોની શ્રીના સાધક વિદ્વાન જ્ઞાની, ધાની. પરોપકાર પરાયણ અને પોતાના કાર્યમાં કુશળ ત્રીજા “તીચંદ્ર' હતા. 94 नीतिमार्गस्य नेता यः भेत्ताऽकुशलकर्मणः / चतुर्थो रामजीभाई त्याख्य आसीत्प्रभावकः // 953 अर्थ-जो नीतिमार्ग का नेता था और अकुशल कार्य का नाशक था ऐसा चौधा रामजी भाई था. यह प्रभावशाली था. // 95 // જે નીતિમાર્ગના નેતા હતા, અને અકુશળ કાર્યના નાશ કરનારા હતા, એમ ચોથા “રામજીભાઈ હતા. તેઓ પ્રભાવશાળી હતા. ૯પા एतैश्च साधं ह्यनुयायिनोऽन्ये धर्मस्य वार्तामधिगन्तुकामाः। जना समाजग्मुरभाणि तेन धर्मोपदेशोनयभङ्गयुक्त्या // 96 // अर्थ-इन व्यक्तियों के साथ और भी अनेक इनके अनुयायी व्यक्ति धर्मों पदेश सुनने की इच्छा वाले वहां आये थे, लोकाशाह मुनि ने इस समय जो धर्मोपदेश दिया-वह नयों की विवक्षा से. युक्त था. // 16 // Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशः सर्गः 405 આ વ્યક્તિની સાથે બીજા પણ અનેક તેમના અનુયાયિ ધર્મોપદેશ સાંભળવાની ઈચ્છાથી ત્યાં આવ્યા હતા તે સમયે લેકશાહે જે ધર્મોપદેશ આપે તે નયેની વિરક્ષાથી युक्त हतो. u. // 8 // निर्व्या जपीयूषसहोदरः स यथार्थतत्त्वस्थितिवेदकश्च / कणैरनेकैः परिपीयमानो न तृप्तयेऽभूत्खलु मानवीनाम् // 97 / / अर्थ-वास्तविक अमृत के जैसा और जिस पदार्थ की जैसी स्थिति है-स्व' रूपादिक हैं उसी प्रकार से उसका वेदक ऐसा वह उपदेश अनेक कानों द्वारा सुना जाकर उस उपस्थित जनसमूह की तृप्ति का कारण नहीं हुआ. अर्थात् उपस्थित जन समूह की यही लालसा थी कि और अधिक अभी कहा जावे // 17 // વાસ્તવિક અમૃતના જેવું અને જે પદાર્થની જેવી સ્થિતિ–સ્વરૂપાદિ હોય એજ પ્રકારથી તેનો વેદક એ એ ઉપદેશ અનેક કાનથી સાંભળે. અને તે સાંભળીને પણ ત્યાં ઉપસ્થિત જનસમૂહને તૃપ્તિ થઈ નહીં, અર્થાત ઉપસ્થિત જનસમૂહની એજ ઈચ્છા હતી કે હજી કંઈક વિશેષ કહેવામાં આવે. 9. तस्मिन् गुणाढ्ये हृदयावतीर्णे महोपदेशे जनता बभूध / मुग्धा सुमन्त्रे च फणीव साधोर्मनोज्ञ मूर्तेर्गुणरागिचित्ता // 98 // . अर्थ- श्री लोकशाह मुनि महाराज के उपदेश के जो कि सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन आदि सदगुणों से भरपूर था हृदय में उतर जाने पर गुणीजनों पर अनुराग चित्तवाली जनता सुमन्त्र में फगी की तरह बहुत मुग्ध हो गई. // 98 // લેકશાહ મુનિ મહારાજનો ઉપદેશ કે જે સમ્યફજ્ઞાન, સમ્યક્દર્શન વિગેરે સદ્દગુણોથી ભરપૂર હતો. અને હૃદયમાં ઉતારવાથી ગુણીજને પર અનુરાગ ચિત્તવાળી જનતા સુમંત્રમાં ફણીની (સર્પ) માફક ઘણી જ મુગ્ધ થઈ. 98 बृहस्पति वा किमसौ प्रबुद्धो वाग्मी महात्माऽन्यभवाप्तबोधः / पीयूषधाराभिरिखोपदेशै यः सिञ्चतीह स्थिामरीचित्तम् // 99 / / ' अर्थ-यह बृहस्पति है अथवा पूर्वभव में जिसे बोध प्राप्त हुआ है ऐसा वह कोई विशिष्ट प्रबुद्ध-प्लुलझा हुआ-आत्मा है जो यहां स्थित मनुष्यों के चित्त को अमृत की धारा जैसे उपदेश से सिञ्चित कर रहा है // 99 // Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 406 - D लोकाशाहचरिते આ બૃહસ્પતિ છે. કે પૂર્વભવમાં જેને બાધ પ્રાપ્ત થયેલ છે, એ આ કેઈ વિશેષ પ્રબુદ્ધ-જાગ્રત આત્મા છે, જેઓ અહીં ઉપસ્થિત મનુષ્યના ચિત્તને અમૃતની ધારાની જેમ ઉપદેશથી સિંચિત કરી રહેલ છે. 99 इत्थं स्वचित्त परिभाव्य सर्वे स्तदेव तैतिमयं तपस्वी। अजेयशक्ति र्जिनमार्गगामी न चान्यथा वाद्यथ धर्मवेदी // 10 // अर्थ-इस प्रकार अपने चित्त में विचार करके उन सबने यह जान लिया कि यह तपस्वी अजेयशक्तिवाला है. जिनमार्गगामी है. जिनसूत्र के विपरीत प्ररूपणा नहीं करने वाले है और धर्मतत्व का वेत्ता है // 10 // આ પ્રમાણે પિતાના મનમાં વિચાર કરીને એ સૌએ એ જાણ્યું કે–આ તપવી અજેય શક્તિવાળા છે, જીન માર્ગગામી છે, જન સૂત્રથી વિપરીત પ્રરૂપણ કરવાવાળા नथी. मने धर्म तत्वने लशुनार छ. // 100 // अतोऽस्त्वयं सत्यनिरूपकत्वात् , भवाब्धितो नौखि तारकत्वात् / हितोपदेष्ट्रवशाच्च पूज्यो गुरुगरीयानिति तैश्च सर्व H // 101 // निश्चित्य तस्यांघ्रियुगं प्रपूज्य निवेदयामासुरिदं तदैव / आज्ञाऽस्य संघ भवतु प्रमाणमित्थं च तेषामजनिष्ट घोषः // 102 // अर्थ-सत्य के निरूपक होने से, संसाररूपी समुद्र से नौका के समान पार करने वाले होने से एवं हितकारक उपदेश के दाता होने से ये हम लोगों के घहत बडे गुरु है ऐसा सबने निश्चय किया और निश्चय करके यही अभिप्राय श्री लोकाशाह मुनि को वंदन नमस्कार करके निवेदन किया. तथा संध में अब इनकी आज्ञा प्रमाण भूत मानी जावेगी ऐसी घोषणा करदी. // 101-102 // સત્યનું નિરૂપણ કરવાવાળા હેવાથી સંસારરૂપી સમુદ્રથી નૌકાની જેમ પાર પમાડનારા હોવાથી અને હિતકર ઉપદેશ આપવાવાળા હોવાથી તેઓ અમારા મહાન ગુરૂ છે. એમ સૌએ નક્કિ કર્યું. અને નક્કી કરીને એજ હકીકતનું શ્રીલેકશાહ મુનિને વંદના કરીને નિવેદન કર્યું. તથા સંઘમાં હવે તેમની આજ્ઞા પ્રમાણરૂપ માનવામાં આવશે તેમ रात 30. // 101-102 // जयोऽस्तु पूज्याघियुगस्य लोकाशाहस्य साधोश्च महोदयस्य / धर्मोत्सवानंदितमानसानां यो मानवानां गुस्तामुपेतः // 10 // Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशः सर्गः 407 सद्धयानयोगेन तपस्यया वा यः प्राप सूत्रस्य रहस्य सस्यम् / - तद्देशनाव्याजवशाच्च भोक्तुं प्रत्येकजीवं च ददाति नित्यम् // 104 // अर्थ-पूज्यपाद मुनिराज लोकाशाह महाराज की जय हो जो धर्मोत्सव से आनंदित मनवाले मनुष्यों के गुरु हुए हैं। जिन्हों ने धर्मध्यान के प्रभाव से अथवा तपस्या के बल से सूत्रों का यथार्थरहस्य-निचोडरूपी धान्य प्राप्त कर लिया है और अपनी धर्मदेशना के बल से जो प्रत्येक जीव के लिये नित्य वितरण कर रहे हैं. // 103-104 // પૂજ્યપાદ મુનિરાજ લોકાશાહ મહારાજની જય થાવ જેઓ ધર્મોત્સવથી આનંદિત મનવાળા મનુષ્યના ગુરૂ બન્યા છે. જેમણે ધર્મધ્યાનના પ્રભાવથી અથવા તપસ્યાના બળથી સૂત્રનું યથાર્થ રહસ્ય-નિચોડરૂપી ધાન્ય પ્રાપ્ત કરેલ છે. અને પિતાની ધર્મદેશનાના બળથી જેઓ દરેક જીવો માટે નિત્ય વહેંચી રહ્યા છે. 103-104 यस्य ज्ञाने न मान्यं वचसि बहुतमा मिष्टता शिष्टताङ्गे, वृत्तौ चित्ते च साम्यं परिहितनिरता सद्गुणौघे च मैत्री, शत्रौ मित्रे सुवर्णे मणिगणबहुले धाम्नि वा श्मसाने, रागद्वेषौ, जनानां भवतु मुनिवरो घासिलालो हिताय // 105 // ___ अर्थ-जिनके ज्ञान में मन्दता नहीं है, वचन में बहुत अधिक मिष्टता है. शरीर में शिष्टता है. वृत्ति में समानता है. चित्त में दूसरे जीवों की भलाई * ' करने का चाव है. गुणों में जिनके परस्पर में मित्रता है. तथा जिन्हें शत्रु में मित्रमें, सुवर्ण में, मणि बहुल स्थान में और स्मशान में न. राग है और न द्वेष है, ऐसे वे मुनिवर घासीलाल महाराज मनुष्यों के लिये हितकारक हो॥१०५॥ જેના જ્ઞાનમાં મંદતા નથી, વચનમાં ઘણી વધારે મિઠાશ છે, શરીરમાં શિષ્ટપણું છે, વૃત્તિમાં સરખાપણું છે, ચિત્તમાં અન્ય જીની ભલાઈ કરવાની ભાવના છે, ગુણેમાં પરસ્પર જેમને મિત્રતા છે. તથા જેમને શત્રમાં, મિત્રમાં, સોનામાં, મણિવાળા સ્થાનમાં, અને રમશાનમાં રાગ નથી. તેમ પણ નથી. એવા એ મુનિવર ઘાસીલાલ મહારાજ મનુષ્યનું હિતકરનાર થાવ. I૧૦પા एकोनत्रिंशतायुक्ते वैक्रमीये शुभावहे / द्विसहस्रमिते वर्षे कृष्णेऽष्टम्यां तिथौशुभे // 106 // Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 408 लोकाशाहचरिते वैशाखे पासि पक्षे च सर्गोऽयं च महोज्ज्वलः / त्रयोदशभिधः पूर्णो विद्या गूर्वनुकम्पया // 107 / / अर्थ-विक्रम संवत्र 2029 में वैशाखमास के कृष्णपक्षमें अष्टमी के दिन धर्माचार्य की अनुकम्पासे यह 13 वां सर्ग समाप्त हुआ है / / 106-107 // વિક્રમ સંવત ર૦૬૯ના વૈશાખ માસના કૃષ્ણપક્ષની આઠમને દિવસે ધર્માચાર્યની અનુકમ્પાથી આ તેરમો સર્ગ સમાપ્ત થયે. d106-17 कामं ते जगतीह मेऽसमगुणा प्रथयन्त्ववज्ञां जनाः, तेभ्यो नास्ति भयं ममाल्पमपि यल्लोकस्य भिन्ना रुचिः / वर्तन्ते तु गुणानुरागहृदया ये धीधनाः समगुणाः, तेऽवश्यं परिवीक्ष्य मे श्रममिमं तुष्यन्ति नो संशयः // 10 // अर्थ-भले ही इस जगत में वे लोग कि जो असम गुण वाले हैं मेरी अवज्ञा करें मुझे उनसे थोडासा भी भय नहीं है. क्यों कि लोगों की रूचि एकसी नहीं होती है भिन्न होती है. परन्तु जिनका हृदय गुणों के अनुराग से भरा हुआ है ऐसे बुद्धिमान जन मुझे यह विश्वास है कि वे मेरे इस परिश्रम को देखकर अवश्य ही संतुष्ट होंगे // 108 // ભલે આ જગતમાં એ લોકો કે જેઓ અસમ ગુણવાળા છે, તેઓ મારી અવજ્ઞા કરે, તેમનાથી મને જરા પણ ડર નથી કેમકે લેકેની રૂચી એકસરખી હોતી નથી. જુદી જુદી હોય છે. પરંતુ જેમનું હૃદય ગુણોના અનુરાગથી ભરેલ છે. એવા વિચારશીલ મનુષ્ય મને એ ખાત્રી છે કે તેઓ મારા આ પરિશ્રમને જોઇને જરૂર સંતોષ પામશે. I108 यावद्वाजति शासनं जिनपते विच्च गंगाजलं, ___ यावच्चन्द्रदिवाकरौ वितनुतः स्वीयां गतिं चाम्बरे / तावद्राजतु मत्कृता कृतिरियं व्याख्यायमानाङ्गिनाम् ___प्राज्ञानां विदुषां समासु सततं मे भावनैवेदृशी // 109 // अर्थ-जबतक इस भूमंडल पर जिनेन्द्र देव का शासन चमकता रहे, गंगा जल बहता रहे एवं चंद्र और सूर्य आकाश में चलते रहे तबतक मेरी यह कृति विद्वान् पुरुषों की सभा में पढी जाकर चमकती रहे. यही मेरी भावना है // 109 // Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयोदशः सर्गः 409 જયાં સુધી આભૂમંડળ ઉપર જીનેન્દ્રદેવનું શાસન ચમકતું રહે ત્યાં સુધી મારી આ રચના વિદ્વાનોની સભામાં વંચાઈને ચમકતી રહે એજ મારી ભાવના છે. 109 श्री महताबचन्द्रस्य दिल्लीनगरवासिनः। .. उपरोधान्मयाऽऽरब्धं महाकाव्यमिदं मुदे // 11 // अर्थ-दिल्लीनगर निवासी श्री महताबचन्द्रजी के आग्रह से मैं यह महाकाव्य रचा है अतः यह उन्हें आनन्दप्रद हो. // 110 // - દિલ્હી નગર નિવાસી શ્રીમહેતાબચંદ્રજીના આગ્રહથી મેં મહાકાવ્યની રચના કરી છે. તેથી આ તેમને આનંદદાયક બનો. 11 जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर श्रीघासीलाल अति विरचिते हिन्दीगुर्जरभाषानुवादसहिते लोकाशाह चरिते त्रयोदशः सर्गः समाप्तः // 13 // Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशहरिते अथ चतुर्दशः सर्गः प्रारभ्यतेयस्याङ्गकान्ति प्रविलोक्य चन्द्रो वितन्द्रितः सन् चकितो बभूव / चिह्नच्छलेनैव यदंघिसेवा परोऽथ जातस्तमहं नमामि // 1 // अर्थ-जिसके शरीर की कान्ति को निरख कर चन्द्रमा चकित हो गया और इसी कारण वह तन्द्रा से रहित होकर चिह्न के छल से उनके चरणों की सेवा में तत्पर बना ऐसे उस प्रभु को-चन्द्रप्रभभगवान को मैं नमस्कार करता हू // 1 // જેના શરીરની કાન્તિને જોઈને ચંદ્રમાં ચકિત થઈ ગયા અને તેથી જ તે તન્દ્રા રહિત થઈને ચિહ્નના બહાનાથી તેમના ચરણોની સેવામાં તત્પર બન્યા. એવા એ પ્રભુને–ચન્દ્રપ્રભ भपानने नभ२४।२ 3 छु. // 1 // अथैकदा धर्मसभां वरिष्ठो ह्यधिष्ठितो भव्यजनैः सनाथाम् / नक्षत्रवृन्दैःसहितां दिवं स शशीव कान्त्या शुशुभे यमीशः // 2 // अर्थ-एक दिन की बात है कि लोकाशाह महाराज भव्यजनों से युक्त अपनी धर्मसभा में विराजमान थे उस समय वे अपनी कान्ति से ऐसे प्रतीत होते थे कि मानों नक्षत्रों से सहित आकाश में चन्द्रमण्डल ही विराज मान हैं // 2 // એક દિવસ કાશાહ મહારાજ ભવ્યજનોથી યુક્ત પોતાની ધર્મસભામાં બિરાજમાન હતા. તે સમયે તેઓ પિતાની કાન્તિથી એવા જણાતા હતા કે જાણે નક્ષત્રોની સાથે આકાશમાં ચંદ્રમંડળ બિરાજમાન છે. સારા अज्ञानपंके पतितान् निमग्नान् विलोक्य जीवान् करुणाईचित्तः / भास्वद्विवेको जिनधर्मवेत्ता जगाद तत्त्वं स हिताय तेभ्यः // 3 // अर्थ-अज्ञान रूपी कीचड में पडे हुए एवं फसे हुए जीवों को देखकर इनका चित्त दया से गीला हो जाता था. अतः ये उनके हित के निमित्त उन्हें तत्व का-जिससे उनका हित हो सके-ऐसा उपदेश देते; ये जिनधर्म के विशेष ज्ञाता थे और इसीसे इनका विवेक सदा जाग्रत रहता था. // 3 // અજ્ઞાનરૂપી કીચડમાં પડેલા અને ફસાયેલા જીવોને જોઈને તેમનું ચિત્ત દયાથી દ્રવિત થઈ જતું હતું. તેથી તેઓ તેમના હિત માટે તેમને તત્વનો કે જેનાથી તેનું હિત સાધિ શકાય એ ઉપદેશ આપતા હતા. તેઓ જીન ધર્મને વિશેષ પ્રકારથી જાણનારા હતા. અને તેથી જ તેમને વિવેક સદા જાગ્રત રહેતા હતા. આવા Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशः सर्गः भाः ! माः ! सदस्याः शृणुतावधानाजिनेन्द्रदेवैर्यदगादि तत्वम् / अज्ञानपङ्कापहरं तदूचे दुष्कर्मतापापहराय सम्यक् // 4 // ___ अर्थ-ये कहते-हे हे भव्य जीवो ! जिनेन्द्र देव ने जो तत्व कहा है उसे तत्व कहा है उसे आपलोग ध्यान से सुनिये. क्योंकि प्रभु के द्वारा कहा गया यह तत्त्व अज्ञानरूपी पंकका हरण करने वाला है. अतः उसे मैं दुष्कमों के ताप को दूर करने के निमित्त अच्छी तरह से कहता हूं // 4 // - તેઓ કહેતા- ભવ્યજી ! જીનેન્દ્રદેવે જે તત્વ કહેલ છે, તેને આપ સૌ દાનપૂર્વક સાંભળે. કેમકે પ્રભુએ કહેલ આ તત્વ અજ્ઞાનરૂપી કાદવને દૂર કરવાવાળું છે, તેથી દુષ્કર્મના તાપને દૂર કરવા માટે તે હું તમને સારી રીતે કહું છું. આઝા सौभाग्यमेतद्भवतां यदाप्तं मनुष्यजन्मैतदतीव पुण्यात् / लभ्यं नचैतच्च कषायदग्धं भवेद्यथास्याच्च तथा विधेयम् // 5 // अर्थ-यह आप लोगों का परम सौभाग्य है जो अत्यन्त पुण्य से प्राप्त होने योग्य यह मनुष्य जन्म आप महानुभावों ने प्राप्त किया है. अब आपको ऐसा ही प्रयत्न करना चाहिये कि जिससे यह कषायों द्वारा दग्ध-नष्ट न किया जा सके // 5 // એ આપસૌનું પરમ સૌભાગ્ય છે, કે જે અત્યંત પુણ્યથી પ્રાપ્ત કરવા એ આ મનુષ્યજન્મ આ૫ મહાનુભાવોએ પ્રાપ્ત કરેલ છે. હવે આપસીએ એ જ યત્ન કરે જોઈએ કે જેથી આ કવાથી નાશ ન કરી શકાય. પા शास्त्राण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खा यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान् / सत्योक्ति रेषा हितकाम्ययाऽतश्चारित्रधर्मो हृदि धारणीयः // 6 // . अर्थ-शास्त्रों का अध्ययन करके भी मनुष्य मूर्ख होते हैं-विधान नहीं कहलाते विद्वान् तो वही कहलाते हैं जो क्रियावान हैं। ऐसी जो यहउक्ति है सो वह सत्य है. अतः जो आत्महित करने के अभिलाषी हैं उनका कर्तव्य है कि वे चारित्र धर्म का पालन करें. इसके विना आत्महित नहीं हो सकता. आत्महित साधना ही सच्ची विद्वत्ता है // 6 // - શાસ્ત્રોનું અધ્યયન કરીને પણ મનુષ્ય મૂર્ણ રહે છે. અર્થાત વિદ્વાન કહેવાતા નથી, વિદ્વાન તે એજ કહેવાય છે કે જેઓ દિયાવાન હોય છે. આ પ્રમાણેનું જે આ કથન છે. તે સત્ય જ છે. તેથી જ આત્મહિત કરવાના ઈચ્છુક છે, તેમનું કર્તવ્ય છે કે તેઓ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 412 लोकाशाहचरिते. ચારિત્ર ધર્મનું અવશ્ય પાલન કરે તેના સિવાય આત્મહિત સાધિ શકાતું નથી. આત્મહિત સાધવું એજ સાચી વિદ્વત્તા છે. 6 चारित्रधर्मेण विहीनबोधो कर्माणि दग्धु न च शक्तिशाली / यथा तथा बोधविहीन एषोऽपि तानि हन्तुं न च हन्त शक्तः // 7 // अर्थ-जिस प्रकार चारित्र से रहित बोध कमों को नहीं जला सकता है, उसी प्रकार बोध रहित चारित्र धर्म भी कर्मों को नष्ट नहीं कर सकता है // 7 // જેમ ચારિત્ર વિનાને ધ કને બાળી શકતો નથી. એજ પ્રમાણે બોધ વિનાના ચારિત્ર ધર્મ પણ કર્મોને નાશ કરી શકતો નથી. આ यथा हि कश्चित्प्लवनैकबोध विशिष्टशिष्टोऽपि नरो न याति / कियां विना कूपनिमग्नकायस्तसारमत्रापि तथैव बोध्यम् // 8 // अर्थ-जैसे किसी व्यक्ति को तैरने का ज्ञान तो है, पर जब वह किसी कुए में गिर पडता है तो वह केवल उस ज्ञान मात्र से कुएसे बाहर नहीं निकल सकता कुए से बाहर निकलने के लिये ज्ञान को क्रियान्वित करना होता हैं इसी प्रकार अकेला ज्ञान कर्मों को नष्ट नहीं कर सकता है, चारित्ररूप क्रिया से युक्त हुआ ही वह कर्मों को जला सकता है. नष्ट कर सकता है // 8 // જેમ કોઈ વ્યક્તિને તરવાનું જ્ઞાન તો છે, પણ જ્યારે તે કોઈ કુવામાં પડી જાય એ કેવળ એ જ્ઞાનમાત્રથી કુવામાંથી બહાર નીકળી શકતો નથી, કુવામાંથી બહાર આવવા માટે જ્ઞાનને ક્રિયાયુક્ત કરવું પડે છે. એ જ રીતે એકલું જ્ઞાન કર્મોને નાશ કરી શકતું નથી. તેને ચારિત્રરૂપ કિયાથી યુક્ત કરવાથી જ તે કર્મોને બાળી શકે છે. અર્થાત નાશ કરી શકે છે. તે एवं क्रियामात्रविधानदक्षस्तज्ज्ञानरिक्तोऽपि न कोऽपि तस्मात् / पारं प्रयातुं भवति क्षमोजो न यत्नमात्रं खलु सिद्धि हेतुः // 9 // अर्थ-इसी प्रकार जो केवल क्रिया करने में ही लगा हुआ है पर वह उस क्रिया के यथार्थ बोध से रहित है तो ऐसा वह व्यक्ति भी केवल क्रियामात्र से जैसे कुए से पार नहीं हो सकता है उसी प्रकार केवल क्रिया से सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती है. // 9 // Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशः सर्गः એજ રીતે જે કેવળ ક્રિયા કરવામાં જ લાગેલા છે, પરંતુ તે એ ક્રિયાના યથાર્થ બેધ વિનાને છે. એવી તે વ્યક્તિ પણ કેવળ ક્રિયા માત્રથી જેમ કુવામાંથી પાર થવાતું નથી એજ પ્રમાણે કેવળ ક્રિયાથી સિદ્ધિ પ્રાપ્ત થઈ શકતી નથી. હા ज्ञानं च यत्नश्च परस्परं द्वौ सन्तौ स्वकार्यस्य विधानदक्षौ / चक्रेण नैकेन स्थः प्रयाति तच्च सर्वत्र च धार्यमायः // 10 // अर्थ-ज्ञान और क्रिया दोनों साथ 2 हों तभी इनसे कार्य बनता है जैसे एक पहिये से रथ नहीं. चलता, उसी तरह अकेले ज्ञान से या अकेले चारित्र से कार्य नहीं बनता है ऐसा हे सजनो! आपको निश्चय करना चाहिये // 10 // - જ્ઞાન અને ક્રિયા બને સાથે સાથે હોય ત્યારે જ તેનાથી કાર્ય સાધિ શકાય છે. જેમ એક પૈડાથી ગાડું ચાલી શકતું નથી, એજ પ્રમાણે એકલા જ્ઞાનથી અથવા એકલા ચારિત્રથી કાર્ય સિદ્ધ થઈ શકતું નથી. તેમ છે સજજન ! આપે નિશ્ચયપૂર્વક સમજવું. ૧૦ના "ज्ञानक्रियाभ्यां खलु मोक्ष” एषः, महोपदेशो जिनधर्मधर्मज्ञानं प्रमाणं वितथो न बाधा विवर्जितो भव्यजनैःसुसेव्यः // 11 // .. अर्थ-ज्ञान और क्रिया से मोक्ष होता है यह जिन धर्म के मर्म को जानने वालों का जो महोपदेश है वह प्रमाण है क्यों कि इसमें किसी भी तरह से बाधा नहीं आती है. अतः वह झूठा नहीं है. भव्यजनों को यह . उपदेश. अच्छी तरह सेवनीय है-वन्दनीय है // 11 // જ્ઞાન અને ક્રિયાથી મેક્ષ સાધિ શકાય છે. આ જીન ધર્મના મર્મને જાણનારાઓને જે મહોપદેશ છે, તેજ પ્રમાણ છે, કેમકે તેમાં કઈ પ્રકારની બાધા ઉપસ્થિત થતી નથી તેથી તે કથન જુઠું નથી. ભવ્યજનોએ આ ઉપદેશ સારી રીતે સેવે જોઈએ. અર્થાત. वहनीय छे. // 11 // औष्ण्यं यथा वारि निमित्तयोगात्संजायते नैव तथापि तच्च / तस्य स्वरूपं परभावजन्यत्वतो गते तस्य लयोपलम्मात् 12 // __ अर्थ-जिस प्रकार पानी में अग्नि के निमित्त उष्णता आजाती है पर वह उसका स्वरूप नहीं है. क्योंकि वह पर के निमित्त से वहां -- उत्पन्न हुई है अतः आगन्तुक होने से वह निमित्त के हट जाने पर हटजाती है. // 12 // Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते જેમ પાણીમાં અગ્નિના કારણે ઉષ્ણતા આવી જાય છે પણ એ તેનો સ્વભાવ નથી, કેમકે તે અન્યના નિમિત્તથી ત્યાં આવેલ છે. તેથી તે આગન્તુક હોવાથી એ નિમિત્તના દૂર થવાથી તે દૂર થઈ જાય છે. ૧રા शेत्यं जले तस्य च तत्स्वरूपं काले क्वचित्तन्न विनाशमेति / उष्णत्वभावेऽपि च तस्य भावः स्वरूपतस्तत्र समस्ति नो चेत् // 13 // प्रक्षिप्तमेतत्तथाग्निमिद्धं विध्यापयेतर्कणयेति साध्यम् / / यतो न भावो ह्यसतश्च नाशः सतो न कुत्रापि भवेत्सधार्यम् // 14 // अर्थ-जल में शीतलता है, अतः यह शीतलता ही उसका स्वरूप है वह स्वरूप उसका जब जलमें अग्नि के निमित्त से उष्णता आती है तब भी स्वरूप की अपेक्षा उस में विद्यमान रहता है. यदि ऐसा न माना जावे तो वही गरम पानी जब जलती हुई अग्नि पर डाला जाता है तो वह उस जलती हुई अग्नि को क्यों बुझा देता है. इस तरह के तकसे यही सिद्ध होता है कि अग्नि का स्वभाव शीतलता है क्यों कि असत्पदार्थ का उत्पाद और सत्पदार्थका सर्वथा विनाश कहीं पर भी नहीं होता है। ऐसा मानना चाहिये // 13-14 // પાણીમાં ઠંડક છે, તેથી એ શીતપણું જ તેને ગુણ છે. એ તેને ગુણ જ્યારે પાણીમાં અગ્નિના નિમિત્તથી ઉષ્ણપણું આવે છે, ત્યારે પણ એ ગુણ તેમાં રહે જ છે. જો એમ માનવામાં ન આવે તે એજ ગરમ પાણી બળતા અગ્નિ પર નાખવામાં આવે ત્યારે તે એ બળતા અગ્નિને કેમ ઓલવી નાખે છે? આ પ્રમાણેના તર્કથી એજ સિદ્ધ થાય છે કે જલને સ્વભાવ શીતલતા છે, કેમકે–અસત્પદાર્થને ઉત્પાદ અને સત્પદાર્થને સર્વથા વિનાશ ક્યાંય થતો નથી તેમ માનવું જોઈએ. 13-14 प्राज्ञैरतश्चोक्तमिदं हि शक्तिः स्वतोऽसती हन्त न कर्तुमन्यैः / पार्येत बुद्धेति निमित्तयोगात स्वरूपनाशो नहि शंकनीयः // 15 // अर्थ-इसलिये बुद्धिमानोंने ऐसा कहा है कि जिस पदार्थ में जो शक्ति नहीं है वह किसी भी कारणकलाप से वहां नहीं की जा सकती है. ऐसा समझकर निमित्त के योग से स्वरूप का विनाश स्वीकार नहीं करना चाहिये. // 15 // તેથી જ બુદ્ધિમાનોએ એવું કહ્યું છે કે જે પદાર્થમાં જે શક્તિ નથી તે કોઈ પણ કારણ સમૂહથી તેમાં કરી શકાતી નથી. તેમ સમજીને નિમિત્તના યોગથી સ્વરૂપને વિનાશ સ્વીકાર ન જોઈએ. ઉપા Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशः सर्गः 415 स्वरूपनाशे न पदार्थसत्ता भवेद् प्रसङ्गःखल्लु शून्यतायाः * तस्यां च सत्यां न च जीवसिद्धिस्तथाच जातेनुवेदत् क एवम् // 16 // ____अर्थ-यदि ऐसा ही माना जावे कि निमित्त के योग से स्वरूप का नाश हो जाता है तो ऐसी मान्यता में किसी भी पदार्थ की स्वतन्त्रसत्ता सिद्ध नही हो सकती है अतः शन्यता का ही प्रसङ्ग प्राप्त होगा. इस शून्यता के होने पर जीव की सिद्धि होगी नहीं तो फिर ऐसा निमित्त मिलने पर स्वरूप का नाश हो जाताहै'' कहने वाला ही कौन होगा. // 16 // જો એમ જ માનવામાં આવે કે-નિમિત્તના યોગથી સ્વરૂપને નાશ થઈ જાય એ માન્યતાથી કેઈ પણ પદાર્થની સ્વતંત્ર સત્તા સિદ્ધ થઈ શકતી નથી. તેથી શૂન્યપણાને જ પ્રસંગે ઉપસ્થિત થશે. એ શૂન્યતાના હોવાથી જીવની સિદ્ધિ થશે નહીં તે પછી એવું નિમિત્ત’ મળવાથી સ્વરૂપને નાશ થઈ જાય છે. પછી કહેનાર જ કોણ થશે? 16 अतोऽकूनुले सति तन्निमित्ते भावस्वरूपं निजकार्यकारि। तदेव तस्य प्रतिकूलतायां तिरोहितं सद्विपरीतवृत्तिः // 17 // अर्थ-अतः यह मानना चाहिये-कि यदि अनुकूल निमित्त मिल जाता है तो पदार्थ का स्वरूप अपने ही अनुरूप कार्य करता है और यदि निमित्त प्रतिकूल मिल जाता है तो पदार्थ का स्वरूप ऐसा हो जाता है कि वह अपने अनुकूल कार्य नहिं कर पाता है. प्रत्युत स्वभाव से विपरीत ही कार्य होता है. // 17 // તેથી એમ માનવું જોઈએ કે-જો અનુકુળ નિમિત્ત મળી જાય તે પદાર્થનું સ્વરૂપ પિતાને અનુરૂપ કાર્ય કરી શકે છે. જે નિમિત્ત પ્રતિકૂળ મળી જાય તે પદાર્થનું સ્વરૂપ એવું થઈ જાય છે કે–તે પિતાને અનુકૂળ કાર્ય કરી શકતા નથી, પરંતુ રવભાવથી ઉલટુ જ કાર્ય થાય છે. 17 अनिष्टसंयोगदशावशोऽयं यदा भवेदस्य तदा स्वभावे / तिरोहिते तद्विकृतेश्च भावात्-नितान्त 'दुःखी समजायता सौ // 18 // अर्थ-जब यह प्राणी अनिष्ट संयोग की दशा से पराधीन होता है तब इसके स्वभाव में तिरोहिति या विकृति आ जाती है. इस कारण यह अत्यन्त दुःखी होता रहता है. // 18 // જયારે આ પ્રાણી અનિષ્ટ ગની દશાથી પરાધીન થાય છે, ત્યારે તેના સ્વભાવમાં તિરોહિતિ અથવા વિકૃતિ આવી જાય છે, તેથી તે અત્યંત દુઃખિ થતા રહે છે. 18 Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 416 लोकाशाहचरिते तदातरौद्रण वशीकृतोऽसावनिष्टसंयोगवशोस्थितेन / निरन्तरं तत्परिहारमिच्छन्नहो स्वरूपं स्मरतीति नायम् // 19 // अर्थ-क्योंकि यह अनिष्ट संयोग के वश से जायमान आर्त और रौद्र इन दो ध्यान के वश में हो जाता है अतः यह निरन्तर उसके परिहार करने की चिंता में लग जाता है और अपने स्वरूप को भूल जाता है // 19 // કેમકે તે અનિષ્ટ સંગના વશ થવાથી થનાર આર્ત અને રૌદ્રએ બે ધ્યાનને વશ થઈ જાય છે. તેથી તે હમેશાં તેને દૂર કરવાની ચિંતામાં લાગી જાય છે. અને પિતાના સ્વરૂપને ભૂલી જાય છે. 19 दुश्चिन्तनातर्मचयं स बनन् , निरन्तरं चित्तमलीमसत्वात् / / संसारसिन्धौ च निमज्जतीह दुःखानि भुङ्क्ते च शतानि नित्यम् // 20 // अर्थ-उस समय जो इसकी विचार धारा होती है वह शुभ नहीं होती, किन्तु अशुभ ही होती है. अतः यह जीव उस अशुभ चिन्तवन से निरन्तर अशुभ कर्मों का बंध किया करता है. क्यों कि उस विचार धारा से इसका मन मलिन बन जाता है. इस तरह यह संसार सागर में हो डूबा रहता है और सैकडो दुःखों को भोगा करता है. // 20 // તે સમયે એની જે વિચારધારા હોય છે, તે શુભ હેતી નથી. પરંતુ અશુભ હોય છે, કેમકે એ વિચારધારાથી તેનું મન મલીન થઈ જાય છે, તેથી તે આ સંસાર સાગરમાં જ ડૂબેલ રહે છે, અને સેંકડે દુઓને ભેગવ્યા કરે છે. રિવા सम्यक्खलाभो न भवेच्च यावत्तावन्न जीवस्य भवाप्तिछेदः / अतो भवच्छेद चिकीर्षया तत्सम्यक्त्वरत्नं नियमेन धार्यम् // 21 // अर्थ-जब तक जीवको सम्यक्त्व का लाभ नहीं होता है तबतक उसके संसार को प्राप्ति का विनाश नहीं होता 1. अतः यदि दुःखों से छूटने की इच्छा है-संसार के विनाश करने की भावना है-तो नियम से सम्यक्त्वरूप रत्न को धारण करो. // 21 // ત્યાં સુધી જીવને સમ્યકત્વને લાભ થતો નથી ત્યાં સુધી તેને સંસારની પ્રાપ્તિને નાશ થતો નથી. તેથી જે દુખેથી છૂટવાની ઈચ્છા હોય, સંસારને વિનાશ કરવાની ભાવના હોય તે નિશ્ચયથી સમ્યકત્વરૂપ રત્નને ધારણ કરે. ર૧ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशः सर्गः देवे गुरौ धर्मधियश्च धर्मे यास्ति प्रतीति भववारिणी सा। - खड्गस्थिताम्मोवन्निश्चला सैवास्तीह सम्यक्त्वमिति प्रधार्यम् // 22 // ___ अर्थ-धर्म बुद्धि वाले जीव की देव, धर्म और गुरु पर जो तलवार की धार के पानी के समान अडिग प्रतीति-विश्वास है वही सम्यक्त्व है. यह प्रतीति ही जीव के संसार को हटाने वाली है ऐसा पक्का समझना चाहिये. // 22 // ધર્મ બુદ્ધિવાળા જીવની દેવ, ધર્મ અને ગુરૂ પર જે તલવારની ધારના પાણી સરખી જે અડગ પ્રતીતિ–વિશ્વાસ છે એજ સમ્યકત્વ છે. એ પ્રતીતિ જ જીવને સંસારથી મુક્ત કરાવનારી છે, તેમ નિશ્ચયપૂર્વક સમજવું જોઈએ. રા मुक्त्यङ्गनासद्मनि गन्तुभीहा यद्यस्ति ते रत्नमिदं गृहाण / तदासधिष्ण्यस्य यतस्तदेतन्निः श्रेणिकाऽऽद्या च दृढाह्यना // 23 // ___अर्थ-हे आत्मन् ! यदि तुम मुक्तिरूपी अङ्गाना के महल में जाना चाहते हो. तुम इस रत्न को ग्रहण करो. क्यों कि यह उसके निवास भवन की सबसे पहिली मजबून कीमती सीढी है // 23 // આત્મા ! જો તું મુક્તિરૂપી અંગનાના મહેલમાં જવા ચાહતે હે તે તું આ રત્નને ગ્રહણ કર, કેમકે–આ તેના નિવાસ ભવનની સૌથી પહેલી અને મજબૂત નિસરણી છે. રહા सम्यक्त्तलाभेन विना न बोधे वृत्ते च सम्यक्त्वमथाञ्चतीति / सम्यक्त्वसंस्पर्शनमात्रतो हि जीवः परीतं स्वभवं करोति // 24 // .' अर्थ-सम्यक्त्व की प्राप्ति के विना ज्ञान में एवं चारित्र में निर्दोषता नहीं आती है जिस जीव ने सम्यक्त्व का एक बार भी स्पर्शकर लिया है ऐसा जीव अपने संसार को परिमित कर लेता है // 24 // સમ્યકત્વની પ્રાપ્તિ વિના જ્ઞાન અને ચારિત્રમાં નિર્દોષપણું આવતું નથી. જે જીવે સમ્યકત્વનો એક વાર પણ સ્પર્શ કરી લીધો છે, એવો જીવ પિતાના સંસારને પરિમિત કરી લે છે. રજા सम्यक्त्वशुद्धः खलु जीव एषः न दुष्कुलं गच्छति नापमायुः / बध्नाति तिर्यगति मेति नापि श्वभ्रं न दारिद्रयदशावशः स्यात् // 25 // अर्थ-सम्यग्दर्शन से शुद्ध हुआ यही जीव मर कर दुष्कुल में जन्म नहीं लेता है, अल्प आयु का बन्ध नहीं करता है. न मरकर तिर्यग्गति में जाता हैऔर न नरकगति में जाता है / न यह दरिद्री होता है // 25 // Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते સમ્યફદર્શનથી શુદ્ધ થયેલ આજ જીવ મરીને હીનકુલેમાં જન્મ ધારણ કરતા નથી. અલ્પ આયુને બંધ કરતા નથી. મરીને તિર્યગતિમાં જતા નથી. તથા નરકગતમાં પણ જતા નથી તથા દરિદ્રી થતા નથી. મારા सम्यक्त्वमाप्यैव जना भवं स्वं कुर्वन्ति धन्याः सकलं सुरेस्ते। भवन्ति पूज्याश्च परत्रलोके स्वर्ग गताः सर्वसुखं लभन्ते // 26 // अर्थ-सम्यक्त्व को जिन जीवों ने प्राप्त कर लिया है ये अपने भव को सफल कर लेते हैं और वे ही धन्यवाद के पात्र हैं ऐसे जीव परलोक में देवों द्वारा पूजे जाते हैं और स्वर्गीय समस्त सुख उन्हें प्राप्त होते हैं // 26 // જે જીએ સમ્યક્ત્વ પ્રાપ્ત કરી લીધેલ છે, તેઓ પોતાના ભવને સફળ બનાવી લે છે, અને તેઓ જ ધન્યવાદને પાત્ર છે. એવા જીવો પરલોકમાં રહેવાથી પૂજાય છે. અને સ્વર્ગના સધળા સુખે તેમને પ્રાપ્ત થયું છે. રા मिथ्यात्वदोषेण कलङ्कितात्मा जीवों नरत्वेऽपि पशूगते सः। .. सम्यक्त्वयुक्तश्च नरायते स पशुः पशुत्वेऽपि दृशो महत्वम् // 27 // अर्थ-मिथ्यात्व रूपी दोष से जिसकी आत्मा कलर्षित है ऐसा जीव मनुष्य होने पर भी पशु के जैसा है और जो सम्यक्त्व से युक्त है पर वह पशु है तब भी वह मनुष्य के जैसा है. यही सम्यदर्शन का महत्व है. // 27 // મિથ્યાત્વરૂપી દેષથી જેને આત્મા કલંકિત છે, એ જીવ મનુષ્ય હોવા છતાં પણ પશુસમાન જ છે, અને જેઓ સમ્યફત્વથી યુક્ત હેય પણ તે પશુ હોય તે પણ મનુષ્યના જે જ છે. એજ સમ્યકત્વ દર્શનનું મહત્વ છે. સરકા मोक्षस्य बीजं च भवाङ्कुरस्य विनाशकं दर्शनमेव शुद्रम् / विज्ञाय भव्यैः सततं विधेयो यत्नोऽस्य लब्धौ भविभिः प्रकृष्टः 1.28 // अर्थ-मोक्ष का बीज-प्रधान कारण-एवं भवाङ्कर-मिथ्यादर्शन का नाशक यह सम्यग्दर्शन ही है ऐसा जानकर संसार के जीवों को इसकी प्राप्ति के लिये अधिक से अधिक प्रयत्न करते रहना चाहिये. // 28 // મેક્ષનું બી અર્થાત પ્રધાન કારણ અને ભવાંકુર-મિથ્યાદર્શનને નાશ કરનાર આ સમ્યફદર્શન જ છે. તેવું સમજીને સંસારના જીએ તેની પ્રાપ્તિ માટે વધારેમાં વધારે પ્રયત્ન કરતા રહેવું જોઈએ. ર૮ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशः सर्गः सर्वासु तावद्गतिषु प्रलभ्यं प्रलभ्यते प्राणभृताऽथ तेन / आसन्न अव्येन च संज्ञिनैष जीवेन सम्यक्त्वमिदं पवित्रम् // 29 // __अर्थ प्राप्त करने योग्य यह सम्यग्दर्शन प्रर्याप्त संज्ञी, आसन्न भव्य पंचेन्द्रिय जीवों को चारों गतियों में प्राप्त होता है. // 29 // પ્રાપ્ત કરવા યોગ્ય આ સમ્યફદર્શને પર્યાપ્ત, સંશી, આસન્ન ભવ્ય પંચેન્દ્રિય જીવને ચારે ગતિમાં પ્રાપ્ત થાય છે. ર૯ संसारभोगेषु न तृप्तिरस्य जीवस्य तावच्च भवेच यावत् / उदेति नेदं भवछेदकारि स्वान्ते निशान्ते मणिदीपिकेव // 30 // अर्थ-इस जीव को संसार के भोगों से तब तक तृप्ति नहीं होती कि जब तक भय का भेद करने वाला यह सम्यक्त्व गृह में मणिदीपक के समान हृदय में उत्पन्न नहीं हो जाता है // 30 // આ જીવને સંસારના ભેગોથી ત્યાં સુધી નિવૃત્તિ થતી નથી કે જયાં સુધી ભવનો ભેદ કરનાર આ સમ્મફત ઘરમાં મણિના દીવાની માફક હૃદયમાં ઉત્પન્ન થતું નથી. 3 अनायनन्तो भव एष तस्य नाऽापि येनेदमनर्व्यरत्नम्।। नावाप्स्यते संसृति संततीनां, विच्छेदने दातृसमं यतोऽदः // 31 // ___ अर्थ-संसार की परम्परा को छेदने में अत्यन्त तीक्ष्ण कुठार के जैसे इस अमूल्य सम्यग्दर्शन व रत्न को जिसने प्राप्त नहीं किया है और आगे भी जो इसे प्राप्त नहीं करेगा ऐसे जीव का संसार कभी भी सान्त नहीं हो सकता है // 31 // સંસારની પરંપરાને છેદવામાં અત્યંત તીણ-ધારદાર કુહાડા જેવા આ અમૂલ્ય સમ્યફદર્શનરૂપ રત્નને જેણે પ્રાપ્ત કરેલ નથી. અને આગળ પણ જે તેને પ્રાપ્ત કરશે નહીં એવા જીવને સંસાર કયારેય પણ સાન્ત થઈ શકતો નથી. 31 प्राप्तं तदेतत्खलु रक्षणीयं दोषैरतीचारचयैश्च भव्यैः / एभिर्यथेदं मलिनं भवेन्नो तथैव कृत्यं करणीयमत्र // 32 // . अर्थ-हे भव्यो ! यदि सम्यग्दर्शन तुम्हें प्राप्त हो गया हो तो तुम 25 दोष 5 पांच अतिचारों से बचाकर इसे रखना और ऐसा ही कार्य करना कि जिससे यह इनके द्वारा मलिन न किया जा सके. // 32 // Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते હે ભવ્યજીવો ! જે તમને સમ્યફદર્શન પ્રાપ્ત થઈ ગયું હોય તો તમે રપ દોષ અને 5 પાંચ અતિચારોથી બચાવીને તેને રાખજો અને એવું જ કાર્ય કરવું કે જેથી આ તેનાથી મલીન ન થઈ જાય. /૩રા वाचंयमानां सदुपासनाभि नित्यं तदेतत्परिपोषणीयम् / आहारदानादिविशिष्टकृत्यैः भयैश्च पुष्टं परिवर्धनीयम् // 33 // अर्थ-मुनिराजों की नित्य निर्दोष उपासनाओं से भव्य जीव को इस सम्यग्दर्शन को पुष्ट करते रहना चाहिये और उन्हें आहार दान आदि देकर पुष्ट हुए इस सम्यग्दर्शन की वृद्धि करते रहना चाहिये // 33 // મુનિરાજની હમેશાં નિર્દોષ ઉપાસનાઓથી ભવ્ય જીવે એ સમ્યફદર્શનને પુષ્ટ કરતા રહેવું જોઈએ અને તેમને આહારદ્વાન વિગેરે આપીને પુષ્ટ થયેલ આ સમ્યક્દર્શનની વૃદ્ધિ કરતા રહેવું જોઈએ. ઉકા सम्यक्त्वलाभान्न परोऽस्ति लाभः, सम्यक्त्वरत्नान्न परं च रत्नम् / सम्यक्त्वबन्धोर्नपरोऽस्ति बन्धुः सम्यक्त्वमेवास्ति विपत्तिविघ्नः // 34 // अर्थ-सम्यक्त्व के लाभ समान और कोई लाभ नहीं., सम्यक्त्वरूपी रत्न के सिवाय और कोई रत्न नहीं है, सम्यक्त्वरूपी बन्धु के सिवाय और कोई बन्धु नहीं है. इस जीव की विपत्ति का नाशक यदि कोई है तो वह एक सम्यक्त्व ही है // 34 // સમ્યફત્વના લાભ સમાન બીજે કઈ લાભ નથી. સમ્યકત્વરૂપી રત્ન શિવાય બીજું કઈ રત્ન નથી, સમ્યકત્વરૂપી બધુ શિવાય બીજો કોઈ બધુ નથી આ જીવની વિપત્તિને નાશ કરનાર જો કોઈ હોય તે તે એક સમ્યક્ત્વ જ છે. 34 अस्या भवन्नैव यदीह लाभः किमन्यलाभबहुभिः कृतः स्यात् / यतश्च ते संसृति वर्धका हि नैतत्तदल्पीकरणे क्षमत्वात् // 35 // ____ अर्थ-हे आत्मन् ! यदि इस सम्यक्त्व का लाभ नहीं हुआ तो किये गये अन्य लाभों से क्या. क्योंकि ये तो तेरे संसार के बढाने वाले हैं और यह सम्यक्त्व तेरे संसार का कम करने वाला है. // 35 // હે આત્મન જે આ સમ્યફને લાભ ન થાય તે કરવામાં આવેલા બીજા લાભોથી શું?કેમકે–એ તે તારા સંસારને વધાવાવાળા છે. અને આ સમ્યફ તારા સંસારને કમ - કરનાર છે. રૂપા Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 421 .. - . ... . चतुर्दशः सर्गः सम्यक्त्वतुल्यं नहि किञ्चिदस्ति श्रेयस्त्रिकाले भुवनत्रये च भूतं न भावीति विचार्य भव्यैरेतद् यथास्याच तथैव लभ्यम् // 36 // अर्थ-सम्यक्त्व के समान तीन कालमें और तीनलोकमें इस जीव का हितकारक न कोई हुआ है न होगा और न है. ऐसा विचार कर भव्य जीवों को जैसे भी बने वैसे इसे प्राप्त करना चाहिये. // 36 // સમ્યકત્વના સરખું ત્રણે કાળમાં અને ત્રણે લોકમાં આ જીવનું હિતસાધક કિઈ થયું નથી, થશે નહીં અને તે પણ નહીં આમ વિચારીને ભવ્ય જીવોએ જેમ બને તેમ તે भेण नसे. // 6 // एतद्विना ये गमयन्ति जन्म स्वीयं सुदुष्पापमिदं ह्यनय॑म् / ते मर्त्यलोके क्षितिभारभूताः मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति // 3 // अर्थ-इस सम्यग्दर्शन की प्राप्ति किये विना जो अपने कीमती दुर्लभ मनुष्य जन्म को व्यतीत कर रहे हैं वे. इस मर्त्यलोक में पृथ्वी के भाररूप ही है और मनुष्य के रूपमें वे मृगकी तरह इधर उधर घूमते फिरते हैं // 37 // આ સમ્યફ દર્શનની પ્રાપ્તિ કર્યા વિના જેઓ પોતાના કીમતી અને દુર્લભ જન્મને વીતાવી દે છે, તેઓ આ મૃત્યુલેમાં પૃથ્વીના ભારરૂપ જ છે. અને મનુષ્યના રૂપમાં તેઓ મૃગલાની જેમ આમતેમ ધૂમતા રહે છે. અ૩છા चिन्तामणि प्राप्य स वायसाली मुड्डायनाथ क्षिपति प्रमत्तः / एतद्विना यो नरजन्म मूढो व्यर्थव निष्कासयतीन्द्रियार्थः // 38 // अर्थ-जो मनुष्य इन्द्रियार्थ होकर-इन्द्रियों के विषयों को ही सबकुछ समझकर सम्यद्गदर्शन के विना अपने मनुष्य जन्म को व्यर्थ निकाल देता हैगवां देता है- वह प्रमाद पतित हुआ मूर्ख प्राणी चिन्तामणी रत्न को प्राप्त करके मानों उसे कौवों के उडाने के लिये ही फेंकता है // 38 // જે માણસ ઇન્દ્રિયાઈ થઈને અર્થત ઇન્દ્રિયોના વિષયને જ બધું જ સમજીને સમ્યફદર્શન વિના પિતાના મનુષ્યના જન્મને વ્યર્થ ગુમાવી દે છે. તે પ્રમાદ પતિત થયેલ મૂર્ખ પ્રાણી ચિતામણિ રત્નને પ્રાપ્ત કરીને જાણે તેને કાગડાને ઉડાડવા માટે જ ફેંકી દે છે. 38 एतन्नरत्वं बहुदुर्लभं तत्ततोऽपि सम्यक्त्वमतीव वित्त / अपूर्वलब्धाखलु दुर्लभं तल्लब्ध्वा भवं भोः सफलं कुरुध्वम् // 39 // Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 422 लोकाशाहचरिते ____ अर्थ-हे भव्यो ! मनुष्य होकर भी उसमें मनुष्यता बहुतदुर्लभ है. उसमें अत्यन्त दुर्लभ है यह सम्यक्त्व / क्योंकि यह अभीतक भी इस जीव को प्राप्त नहीं हुआ है. इसलिये इसे प्राप्त कर अपने भव को सफल करलो // 39 // હે ભવ્ય છે ! મનુષ્ય થઈને પણ તેનામાં મનુષ્યપણું દુર્લભ છે. તેમાં પણ આ સમ્યકૃત્વ અત્યંત દુર્લભ છે. કેમકે આ અત્યાર સુધી પણ આ જીવને પ્રાપ્ત થયેલ નથી. તેથી તેને મેળવીને પિતાના ભવને સફળ કરી લે. 39 सप्ताष्टमानुष्यभवान् गृहीला जीवः खनिर्वाणगृहं प्रयाति / एतत्प्रथावन्महती प्रतिष्ठा सोत्थानकृत्येऽस्य समाप्यमेतत् // 40 // अर्थ-इसके प्रभाव से जीव मनुष्य भवसंबन्धी सात आठ भवों को लेकर अन्त में निर्वाणरूपी गृह में प्रवेश कर लेता है / अतः आत्मा के उत्थानरूपी कार्य में इसकी बहुत-प्रतिष्ठा-इज्जत है. अतः इसे अवश्य 2 अच्छी तरह से प्राप्त करना चाहिये // 40 // તેના પ્રભાવથી જીવ મનુષ્યભવ સંબંધી સાત-આઠ ભલેને લઇને છેવટે પિતાના નિર્વાણરૂપી ગૃહમાં પ્રવેશ કરે છે. તેથી આત્માના ઉત્થાનરૂપી કાર્યમાં તેની ઘણી જ પ્રતિષ્ઠા થાય છે. તેથી તેને જરૂર જરૂર સારી રીતે પ્રાપ્ત કરી લેવું જોઈએ. 40 धन्यास्त एवात्र धृतं स्वकंठे यैः रत्नमेतन्महनीयकीर्ति / त्रैलोक्यचूडामणयो भगन्ति यस्माच्च महतोऽस्य महान् प्रभावः // 41 // अर्थ-वे ही जीव धन्य है कि जिन्होंने इस पूजनीय कीर्तिवाले रत्न को सम्यक्त्व-को अपने कंठमें धारण किया है क्यों कि इसके धारण करने से जीव तीन लोक का चूडामणि बन जाता है. सच है पह अपने में महान है अतः - इसका प्रभाव भी महान है // 41 // એજ જીવને ધન્ય છે, કે જેણે આ પૂજનીય કીર્તિવાળા રત્નને અર્થાત સમ્યકત્વને પિતાના કંઠમાં ધારણ કરેલ છે. કેમકે તેને ધારણ કરવાથી જીવ ત્રણે લેકને ચૂડામણિ બની જાય છે. સાચું જ છે કે-તે આપણામાં મહાન છે. તેથી તેને પ્રભાવ પણ મહાન છે. 41il जीवादि तत्त्वस्य यथा स्वरूपं वोधस्तथा तस्य तदेव सम्यग-।। ज्ञानं समाहुः सकलज्ञभक्ताः सम्यक्त्वपूर्व खलु जायतेऽदः // 42 // ___ अर्थ-जीवादि नौ तत्वों का जैसा स्वरूप है उनका उसी तरह से जो जानना होता है वहीं सम्यग्ज्ञान है ऐसा सर्वज्ञ के भक्तोंने कहा है. यह सम्य. रज्ञान सम्यग्दर्शन पूर्वक होता है // 42 // Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 423 चतुर्दशः सर्गः જીવાદિ નવ તત્વેનું જેવું સ્વરૂપ છે, તેને એજ રીતે જાણવું તે સમ્યફજ્ઞાન છે. તેમ સર્વશના ભક્તોએ કહેલ છે. આ સમ્યકજ્ઞાન સમ્યફદર્શન પૂર્વક થાય છે. જરા दोषत्रयेणैव विशुद्धमेतत्-अज्ञाननाशोऽस्य फलं च साक्षात् / परंपरातश्च भवत्युपेक्षो पादानहानं गदितं जिनेन्द्रः / / 43 // अर्थ-यह सम्यग्ज्ञान तीन दोषों से-संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय से रहित होता है. इसका साक्षात् फल अज्ञान निवृत्ति है. और परंपराफलहान, उपादान और उपेक्षा है. ऐसी जिनेन्द्र देव की आज्ञा है // 43 // આ સમ્યફજ્ઞાન ત્રણ દોષોથી એટલે કે સંશય, વિપર્યય, અને અનવસાયથી રહિત હોય છે. તેનું સાક્ષાતફળ અજ્ઞાનની નિવૃત્તિ જ છે. અને પરંપરાફલહાન, ઉપાદાન, અને ઉપેક્ષા છે. એમ જીનેન્દ્રદેવની આજ્ઞા છે. જવા अस्यास्ति भेदद्रयमित्थमत्र प्रत्यक्षमेकं ह्यपरं परोक्षम् / मतिश्रुतं ज्ञानमिदं परोक्षं शेषं ह्यवध्यादि परोक्षभिन्नम् // 44 // __ अर्थ-इस सम्यग्ज्ञान के दो भेद हैं-(१) प्रत्यक्ष और (2) परोक्ष. इनमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ये दो ज्ञान परोक्ष हैं. शेष-अविधि, मनः पर्यय और केवलज्ञान ये तीन ज्ञान-प्रत्यक्ष हैं // 44 // આ સમ્યફજ્ઞાનના બે ભેદ છે. (1) પ્રત્યક્ષ અને (2) પરોક્ષ તેમાં મતિજ્ઞાન અને યુનત્તાન આ બે જ્ઞાન પરેલ છે. બાકીના અવધિ, મનઃ પર્યાય અને કેવળજ્ઞાન એ ત્રણ જ્ઞાન પ્રત્યક્ષ છે. 44 प्रत्यक्षभेदे द्विविधत्वमेकस्मिन्नस्ति साकल्यमथान्यभेदे / वैकल्यमेतद्विषयाश्रितं हि न शुद्धयपेक्षं च समस्वतोऽस्याः 145 - अर्थ-प्रत्यक्ष के भेदरूप जो अवधिज्ञान, मनः पर्य यज्ञान एवं केवलज्ञान हैं सो इनमें सकल प्रत्यक्ष और विकल प्रत्यक्ष ऐसे दो भेद हैं. इनमें एक केवलज्ञान ही सकल प्रत्यक्ष है. और अवधिज्ञान एवं मनःपर्ययज्ञान ये दो ज्ञान विकल प्रत्यक्ष हैं. इन ज्ञानों में जो ऐसी व्यवस्था करने में आई है वह इनमें विशदता की कमी के कारण करने से नहीं आई है किन्तु विषयग्रहण करने की अपेक्षा से ही आई है। इन तीनों ज्ञानों में विशदता एकसी है विषय ग्रहण करने में ही अन्तर है // 45 // પ્રત્યક્ષના ભેદરૂપ જે અવધિજ્ઞાન, મન:પર્યવજ્ઞાન અને કેવળ જ્ઞાન છે, તે તેમનામાં સકલપ્રત્યક્ષ અને વિકલપ્રત્યક્ષ એવા બે ભેદ છે. તેમાં એક કેવળજ્ઞાન જ સકલપ્રત્યક્ષ છે. Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 424 लोकाशाहचरिते અને અવધિજ્ઞાન અને મન:પર્યવજ્ઞાન એ બે જ્ઞાન વિકલ પ્રત્યક્ષ છે. એ જ્ઞાનમાં જે એવી વ્યવસ્થા કરવામાં આવી છે, તે તેમાં વિશદપણાની કમીને કારણે કરવામાં આવી નથી. પરંતુ વિષયગ્રહણ કરવાની અપેક્ષાથી જ આવી છે. આ ત્રણે જ્ઞાનમાં વિશદતા એકસરખી છે. વિષય ગ્રહણ કરવામાં જ અંતર છે. જપા अक्ष्णोति जानाति तदक्ष आत्मा प्रतीत्य तं ज्ञानमिदं ह्यवध्या-। दि जायतेऽतोगदितं प्रबुद्धेः प्रत्यक्षशब्दस्य च वाच्यताऽत्र // 46 // अर्थ-जो पदार्थों को जानता है उसका नाम अक्ष है. ऐसा अक्ष आत्मा कहा गया है इस आत्मा मात्र की सहायता से ही अवधि आदि तीन ज्ञान उत्पन्न होते हैं इसलिये ज्ञानियों ने इन्हें प्रत्यक्ष कहा है // 46 // જે પદાર્થને જાણે છે તેનું નામ અક્ષ છે. એ અક્ષ આત્માને કહેલ છે. આ આત્મા માત્રની સહાયતાથી જ આ અવધિ વિગેરે ત્રણ જ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય છે. તેથી જ્ઞાનીએ તેને પ્રત્યક્ષ કહેલ છે. સદા मतिश्रुतं ज्ञानयुगं हृषीकैग्नीन्द्रियेणैव च जायतेऽतः उक्तं परोक्षं यदपेक्षते स्वो-त्पत्ती परं नाति समक्षसख्यम् // 47 // अर्थ-मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ये दो ज्ञान परोक्ष हैं. क्योंकि ये दोनों पांच इन्द्रिय और मन से उत्पन्न होते हैं-तात्पर्य इसका यह है कि मतिज्ञान पांच इन्द्रिय एवं मन से उत्पन्न होता है और श्रुतज्ञान केवल मन से उत्पन्न होता है. अतः जो ज्ञान अपनी उत्पत्ति में पर की अपेक्षा रखता है उसकी मित्रता प्रत्यक्ष से नहीं होती है-अर्थात् ऐसा वह ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं माना गया है. // 4 // મતિજ્ઞાન અને શ્રતજ્ઞાન આ બે જ્ઞાન પરોક્ષ છે. કેમકે એ બન્ને પાંચ ઇન્દ્રિય અને મનથી ઉત્પન્ન થાય છે. આનું તાત્પર્ય એ છે કે–મતિજ્ઞાન પાંચ ઇનિદ્રય અને મનથી ઉત્પન્ન થાય છે. શ્રતજ્ઞાન કેવળ મનથી ઉત્પન્ન થાય છે. તેથી જે જ્ઞાન પિતાની ઉત્પત્તિમાં અન્યની અપેક્ષા રાખે છે. તેની મિત્રના પ્રત્યક્ષથી થતી નથી. અર્થાત એવું તે જ્ઞાન પ્રત્યક્ષ માનવામાં આવેલ નથી. ૪૭ના लोकप्रतीत्याऽत्रभवेत्कथं चेत्प्रत्यक्षशब्दव्यवहारवृत्तिः। . एवं च सत्यामिति नैव वाच्यं तथा प्रवृत्तेरुपचारवृत्या // 48!! __अर्थ-यदि कोई यहां पर ऐसी शंका करे कि इन्द्रिय और मन से उत्पन्न हुए ज्ञान को लोक प्रतीति के अनुसार प्रत्यक्ष कहा गया है फिर Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशः सर्गः 425 आप इसे परोक्ष क्यों कहते हो ? तो इसका उत्तर ऐसा है कि इन्द्रियादिकों, से जन्य हुए ज्ञान को जो प्रत्यक्ष लोक में कहा जाता है वह उपचार से ही कहा जाता है. // 4 // - જે કોઈ અહીં એવી શંકા કરે કે ઇન્દ્રિય અને મનથી ઉત્પન્ન થયેલ જ્ઞાનને લોકપ્રતીતિ અનુસાર પ્રત્યક્ષ કહેવામાં આવેલ છે, તો પછી આપ તેને પરોક્ષ કેમ કહે છે? તે તેને ઉત્તર એ છે કે ઈન્દ્રિયાદિથી ઉત્પન્ન થયેલ જ્ઞાનને લેકમાં પ્રત્યક્ષ કહેવામાં આવે છે, તે ઉપચારથી જ તેમ કહેવામાં આવે છે. 48 हृषीकजन्ये खलु बोधमात्रे समस्तरूपेण न वर्ततेऽदः नैर्मल्यमुक्ताऽस्ति परोक्षताऽत्र तथापि तत्तत्र समस्ति देशात् // 49 // अर्थ-इन्द्रियों द्वारा जितना भी ज्ञान होता है उसमें सब में पूर्णरूप से निर्मलता-विशदता नहीं रहती है अतः वह परोक्ष ही कहा गया है फिर भी इन्द्रियजन्य ज्ञान में देशरूप से-आंशिकरू से निर्मलता रहती है // 49 // ઇંદ્રિયેથી જે કંઈ જ્ઞાન થાય છે, તે બધામાં પૂર્ણ રીતે વિશદપણું આવતું નથી. તેથી તેને પરોક્ષ કહેવામાં આવેલ છે. તે પણ ઇન્દ્રિયથી થનારા જ્ઞાનમાં દેશપણાથી આંશિક રીતે નિર્મળપણું હોય છે. 49 तदिन्द्रियानिन्द्रियजन्यबोधे देशवतो निर्मलतावशाद्धि प्रत्यक्षता सांव्यवहारिकीति प्रोक्ताजिनाज्ञाकुशलैमहद्भिः // 50 // अर्थ-इन्द्रियों एवं मन से जो ज्ञान होता है उस ज्ञान में एकदेश निर्मलता है. इस कारण उसमें जिनाज्ञा में कुशल महान् पुरुषोंने-जैनदाशनिकोने सांव्यवहारिकी प्रत्यक्षता कही है // 50 // ઇંદ્રિય અને મનથી જ જ્ઞાન થાય છે, એ જ્ઞાનમાં એક દેશથી નિર્મળપણું છે, તેનું કારણ તેમાં જનાજ્ઞામાં કુશળ મહાપુરૂષે એ-દર્શનાદિકમાં સાંવ્યવહારિકી પ્રત્યક્ષતા કક્કી છે. 501 ननूक्तमेतन्महदद्भुतं यत्त्वयाऽथ साधो ! प्रतिभाति मह्यम् / अतीन्द्रियाध्यक्षमिहास्ति शुद्धं असंभवित्वान्न च तस्य सिद्धिः // 51 // अर्थ-हे साधो ! आपने जो ऐसा कहा है कि अतीन्द्रिय-इन्द्रियों की सहायता के विना केवल आत्मा से ही उत्पन्न होने वाला-प्रत्यक्ष है सो आपका यह कथन अनौखा प्रतीत होता है. क्योंकि ऐसा प्रत्यक्षतो कोई है ही नहीं. क्योंकि उसकी तो सिद्धि ही नहीं होती है // 51 // Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 426 लोकाशाहचरिते હે સાધે ! આપે છે એવું કહ્યું છે કે-અતિદ્રિય ઈન્દ્રિયની સહાયતા વિના કેવળ આત્માથી જ ઉત્પન્ન થનારૂં જ્ઞાન પ્રત્યક્ષ છે. તો આપનું એ કથન અનેખું જણાય છે. કેમકે એવું પ્રત્યક્ષ તો કોઈ છે જ નહીં. કેમકે તેની તે સિદ્ધિ જ થતી નથી. પ૧ एतद्वचोयुक्तिविहीनमेव प्रमाणतस्तस्य च संस्थितत्वात् / नो चेत्कथं स्यादखिलज्ञसिद्धिस्तस्य प्रसिद्धेश्च तस्य सिद्धिः // 5 // अर्थ-सो ऐसा कहना युक्ति रहित ही है. क्यों कि प्रमाण से अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष की सिद्धि होती है. यदि ऐसो बात नहीं मानी जावे तो फिर सर्वज्ञ की सिद्धि ही नही हो सकती. अतः जब सर्वज्ञ है तो उसका ज्ञान अतीन्द्रिय है-इन्द्रियजन्य नहीं है. इस तरह सर्वज्ञ की प्रसिद्धि से उस अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष की सिद्धि हो जाती है // 52 // તે એમ કહેવું તે યુક્તિશૂન્ય છે. કેમકે પ્રમાણથી અતીનિદ્રય પ્રત્યક્ષની સિદ્ધિ થાય છે. જો એ વાત માનવામાં ન આવે તે પછી સર્વજ્ઞની સિદ્ધિ જ ન થઈ શકે તેથી જ્યારે સર્વજ્ઞ છે, તે તેમનું જ્ઞાન અતીનિદ્રય છે અર્થાત ઇંદ્રિય જન્ય નથી. આ રીતે સર્વજ્ઞની પ્રસિદ્ધિથી એ અતીન્દ્રિય પ્રત્યક્ષની સિદ્ધિ થાય છે. પરા ये सन्ति सूक्ष्मान्तरिताः पदार्थाः दिग्विप्रष्टाश्च शिखीव सर्वे / अध्यक्षगम्या अनुमेयतो हि ते कस्यविद्विश्वविदोऽथ सिद्धिः // 53 // अर्थ-सूक्ष्मान्तरिता दिग्विप्रकृष्टाश्च पदार्थाः कस्यचित् प्रत्यक्षा अनुमेयत्वात् शिखिवत्" सूक्ष्म-परमाणु आदि, अन्तरित-राम रावण आदि और दिग्वि. प्रकृष्ट-सुमेरु पर्वत आदि किसी न किसी के प्रत्यक्ष हैं क्यों कि ये अग्नि आदि की तरह अनुमेय हैं. इस तरह से सर्वज्ञ की सिद्धि हो जाती है // 53 // " सूक्ष्मान्तरिता द्विग्विप्रकृष्टाश्च पद र्थाः कस्यचिन् प्रत्यक्षा अनुमेयत्वात् शिखिवत् " સૂક્ષ્મ–પરમાણુ વિગેરે, અન્તરિત રામરાવણ વિગેરે તથા દિગ્વિપ્રકૃષ્ણ-સુમેર પર્વત વિગેરે કોઈને તે પ્રત્યક્ષ છે, કેમકે તેઓ અગ્નિ વિગેરેની માફક અનુમેય છે. આ રીતે સર્વશની સિદ્ધિ થઈ જાય છે. આપવા सर्वज्ञबोधो यदि चेन्द्रियोत्थः स्थास्थाकथं विश्वपदार्थवेत्ता / स इन्द्रियाणां यत एव योग्ये स्वकीयविषये ग्रहणत्वशक्तेः // 54 // . अर्थ-सर्वज्ञ का ज्ञान यदि इन्द्रियों से उत्पन्न हुआ माना जाये वह सकल पादार्थों को युगपत् ग्रहण करने वाला नहीं हो सकता. क्यों कि इन्द्रियों आने योग्य विषयों को ही ग्रहण करने की शक्ति वाला होती हैं // 54 // Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशः सर्गः 427 સર્વાનું જ્ઞાન જો ઈદ્રિયોથી ઉત્પન્ન થયેલ માનવામાં આવે છે તે સકલ પદાર્થોને એકસાથે ગ્રહણ કરી શકતા નથી. કેમકે-ઇન્દ્રિયો પિતાને ગ્ય વિષયોને જ ગ્રહણ કરવાની શક્તિવાળી હોય છે. 54 अतश्च सिद्धं ह्यखिलज्ञबोधोऽनीन्द्रियोऽशेष पदार्थवित्त्वात् / तदन्यथा स्वीकरणे च तस्य अभाव एवात्र भवेत्तसक्तः // 55 // ___ अर्थ-अतः ऐसा ही मानना चाहिये कि सर्वज्ञ का ज्ञान इन्द्रियजन्य नहीं है अनैन्द्रियक है. तभी वह विश्व के समस्त पदार्थों का वेत्ता हैं. इस मान्यता से विपरीत मान्तता में उसका अभाव ही प्रसक्त होता है // 55 // તેથી એવું જ માનવું જોઈએ કે સર્વજ્ઞનું જ્ઞાન ઇન્દ્રિયજન્ય નથી અનેન્દ્રિયક છે. ત્યારે તે વિશ્વના સઘળા પદાર્થો જાણકાર છે. આ માન્યતાથી જુદી માન્યતામાં તેને અભાવ જ કારણ છે. પપા रागादिदोषाः प्रलयंगता हि यस्यात्मनो विश्वविदेव सोऽस्ति। .. तस्योपदेशाद्भवि मानः स्वकल्यागमार्गोऽवगतो ध्रुवं स्यात् // 56 // अर्थ-रागादिक दोष जिस आत्मा के अपुनर्भव रूप से नष्ट हो गये हैं वहीं जगत्पूज्य सर्वज्ञ है. इसके उपदेश से ही संसार में मनुष्यों को अपने कल्याण मार्ग का ज्ञान नियम से होता है // 56 // - જે આત્માના રાગાદિષો ફરી ઉત્પન્ન ન થાય એ રીતે નાશ પામ્યા હોય એજ જગપૂજય સર્વજ્ઞ છે. તેમના ઉપદેશથી જ સંસારમાં મનુષ્યને પિતાના કલ્યાણ માર્ગનું જ્ઞાન નિયમથી થાય છે, પ निर्दोषता यत्र समस्ति तत्र युक्त्यागमाभ्यामविरोधिवाक्त्वम् / सदोषता यत्र समस्ति तत्र युक्त्यागमाभ्यां च विरोधिवाक्त्वम् // 57 // अर्थ-जहां पर निर्दोषता वहीं पर युक्ति और आगम से अविरोधिवचनता है और जहां पर सदोषता है वहीं पर युक्ति और आगम से विरोधिवचनता है // 57 // જ્યાં નિર્દોષપણું હોય ત્યાં જ યુક્તિ અને આગમના વિરોધ વિનાનું વચનપણું છે. અને જયાં સદે પણું છે, ત્યાં જ યુક્તિ અને આગમ વિરોધી વચન પણું છે. આપણા वक्तुः प्रमाणावचने च तस्य प्रामाण्यमित्थं ह्यवगम्य सम्यक् ! श्रद्धाविशिष्टै विभिश्व भूत्वा तत्रैकनिष्ठा सहितैश्च भाव्यम् // 50 // Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते ___ अर्थ-वक्ता की प्रमाणता से ही उसके वचनों में प्रमाणता आती है ऐसा समझकर भव्य जीवों को उनके वचनों में पूर्ण श्रद्धा वाले होना चाहिये, और वहीं पर एक निष्ठावाले होना चाहिये // 18 // વક્તાના પ્રમાણ પણાથી તેના વચનેમાં પ્રમાણપણું આવે છે. એવું સમજીને ભવ્ય છેતેના વચનમાં પૂર્ણ શ્રદ્ધાવાળા થવું જોઈએ અને ત્યાં જ એક નિષ્ઠાવાળુ થવું જોઈએ. 58 इत्थं मुनेस्तस्य ववो निशम्य उपस्थिता सा जनता जहर्ष / शक्त्या च मक्त्या व्रतमाददात् स्वभवस्य साफल्यकृते तदैव // 59 // अर्थ-इस प्रकार उन मुनि महाराज के उपदेश को सुनकर के उपस्थित जनता बहुत प्रसन्न हुई और उसी समय उसने अपने मनुष्यभव को सफल बनाने के लिये उनसे अपनी शक्ति और भक्ति के अनुसार व्रतोंको ग्रहण किया. // 59 // એ રીતે એ મુનિ મહારાજના ઉપદેશ ને સાંભળીને ત્યાં હાજર થયેલ જનતા ઘણી જ પ્રસન્ન થઈ અને એજ સમયે તેણે પિતાના મનુષ્ય ભવને સફળ બનાવવા માટે તેણે પિતાની શક્તિ અને ભક્તિ પ્રમાણે વ્રતને ગ્રહણ કર્યા. પં संगीतनादैश्च जना यथा वा वीणानिनादैश्च कुरङ्गवृन्दाः / मृदङ्गनादैः सुभटास्तथा सा व्याख्यानतोऽभू-मुदिताऽस्य साधोः // 60 // अर्थ-संगीतध्वनि से जिस प्रकार मनुष्य मुदित होते हैं, वीणा के शब्दों से हिरणों की टोली प्रसन्न होती है और मृदङ्गों की आवाज से जिस प्रकार वीरों में जोश जगता है उसी प्रकार इन मुनिराज के व्याख्यानसे जनता आनंदित हुई. // 60 // સંગીતધ્વનિથી જેમ મનુષ્ય હર્ષિત થાય છે, વીણાના શબ્દોથી હરણાઓ પ્રસન્ન થાય છે, તથા મૃદંગોના અવાજથી જેમ વીર પુરૂષોમાં જોશ આવે છે. એ જ રીતે એ મુનિમહારાજના વ્યાખ્યાનથી જનતા ઘણી જ હર્ષિત થઈ. 6 सर्वेऽपि संसारिजनाः सुखस्य बद्धस्पृहाः सन्ति न कोऽपि दुःखम् / समीहतेऽनेकविधं प्रयत्नं प्रकुर्वते ते च तदर्थमेव // 61 // अर्थ-जितने भी संसार के प्राणी हैं वे सब ही सुख को चाहते हैं दुःख को कोई नहीं चाहता है. और जितने भी वे अनेक प्रकार के प्रयत्न करते हैं वे सब सुख के लिये ही करते हैं // 61 // Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशः सर्गः 429 MADUIDABALCake સંસારમાં જેટલા પ્રાણિ છે, તે બધા જ સુખની ચાહના કરે છે. દુઃખની ચાહના કોઇનું કરતું નથી. અને જેટલા તેઓ પ્રયત્ન કરે છે, તે બધા સુખ માટે જ કરે છે. 61 परन्तु यत्नेऽपि कृतेऽपि सौख्यं निराकुलं ते न समाप्नुवन्ति / संवईते प्रत्युत जायमाने लाभेऽथ लाभे बृहदाकुलत्वम् // 62 / / __ अर्थ-परन्तु यत्न करने पर वे निराकुल सुख प्राप्त नहीं करपाते हैं प्रत्युत जैसा 2 उन्हें लाभ होता रहता है वैसी 2 वहां बढी चढी आकुलता ही देखी जाती है // 62 // . પરંતુ યત્ન કરવા છતાં તેઓ નિરાકુળ સુખ પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી. પ્રત્યુત જેમ જેમ તેમને લાભ થતો રહે છે, તેમ તેમ વધીધટી આફળતા જ દેખવા માં આવે છે. ૬રા पञ्चेन्द्रियार्थान सुखलामबुद्धया संसारणिस्तान् सततं भजन्ते। अतृप्तिभाजां च मरुस्थलस्थानां रुरूणामिव दुर्दशा स्यात् // 63 // अर्थ-संसारी जीव तुख प्राप्त होने की वृद्धि से उन 2 पांचों इन्द्रियों के विषयों का निरन्तर सेवन करते हैं परन्तु उन्हें उनसे संतोष नहीं मिलता, अतः अतृप्त हुए इन जीवों की मारवाड के मृगों की जैसी दुर्दशा होती है // 63 // - સંસારી છે સુખ પ્રાપ્ત કરવાની ઇચ્છાથી તે તે પાંચે ઇદ્રિના વિષયનું નિરંતર સેવન કરે છે. પરંતુ તેમને તેનાથી સંષ મળતો નથી. તેથી અતૃપ્ત થયેલા એ જીની મારવાડના મૃગોના જેવી દુર્દશા થાય છે. છેલ્લા उदन्यया शुष्कमुखारविन्द यथा कुरङ्गः शमितं पिपासाम् / जलस्य बुद्धयैव च याति पातुं मत्त्वा सरस्तां मृगतृष्णिकां वै // 64 // अर्थ-जिस प्रकार प्यास से जिसका मुखकमल कुम्हला रहा है ऐसा मृग अपनी प्यास को शान्त करने के लिये मृगतृष्णा को-मरुमरीचिका को-यह जलाशय है ऐसा मानकर जल की बुद्धि से पीने के लिये जाता है // 64 // જેમ તરશથી જેનું મુખ સુકાઈ રહે છે એવા મૃગો પિતાની તરશને શાંત કરવા માટે મૃગતૃષ્ણામરૂમરીચિકા-જાંજવાના જળને આ જલાશય છે, તેમ માનીને જલની બુદ્ધિથી તે પીવા માટે જાય છે. 64 परन्तु नाम्भोलभते स यत्ने कृतेऽपि घर्मेण सुदीर्घतप्तः / प्राणान् विमुक्त्वैव महातभावा प्रयाति कुत्सां नरकादि योनिम् // 65 // Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते अर्थ-परन्तु प्रयत्न करने पर भी वह पानी नहीं पाता है और बहुत समय से धूप से तपा हुआ वह महान् आर्त परिणामों से प्राणों को छोडकर नरकादि तिर्यंचों चला जाता है // 65 // પરંતુ પ્રયત્ન કરવા છતાં પણ તેને પાણી મળતું નથી. અને લાંબા સમયથી તાપથી તપેલ તે મોટા આર્ત પરિણામેથી પ્રાણ ત્યાગ કરીને નરકાદિ તિર્યોમાં ચાલ્યા જાય છે. ૬પા यत्रास्ति यत्तत्र भवेदवाप्तिस्तस्यान्यथाचेच्च मिलेकथं तत् / संसारिणो मोहवशंगतत्वात् वस्तु स्वरूपं न विचारयन्ति // 66 // अर्थ-जो चीज जहां होती है वह वहां मिलती है और जो जहां नहीं है वह वहां नहीं मिलती है परन्तु संसारी प्राणी मोह के आधीन है. इसलिये वह इस वस्तु स्वरूप को नहीं विचारता है. इसका तात्पर्य ऐसा है कि मोह आत्मा की विचारधारा को विपरीत बना देता है अतः जो जहां नहीं है वह वहां है ऐसी वृत्ति जीव की हो जाती है इसलिये वह परपदार्थों में सुख पाने की कामना से उन्हें अपनाता है-॥६६॥ જે ચીજ જયાં હોય છે, તે ત્યાં જ મળે છે, અને જે જયાં ન હોય તે ત્યાં મલતી નથી. પરંતુ સંસારી પ્રાણી મોહને આધીન છે. તેથી તે આ વસ્તુ સ્વરૂપને વિચારતા નથી. તેનું તાત્પર્ય એવું છે કે-મોહ આત્માની વિચારધારાને વિપરીત બનાવી દે છે. તેથી જે જ્યાં નથી તે ત્યાં છે, એવી જીવની વૃત્તિ થઈ જાય છે, તેથી તે પરपार्थामा सु५ मेगवानी मनाथी तेने अपनावे छ. // 66 // . यथा कुरङ्गा मृगतृष्णकासु धावन्ति प्राणांश्च परित्यजन्ति / तथैव भोगेषु विलीनचित्ताः स्वजीवनं हन्त विसर्जयन्ति // 67 / / अर्थ-जैसे मृग मृगतृष्णा में चक्कर काटते हैं और अपने प्राणों की आहुति दे देते हैं वैसे ही भोगों में लवलीन चित्तवाले ये प्राणी दुःख की बात है कि अपने जीवन को विसर्जित कर देते हैं // 67 / / - જેમ મૃગ જાંજવાના જળની પાછળ ચક્કરે ચડે છે, અને પિતાના પ્રાણની આહુતી આપી દે છે. તે જ પ્રમાણે ભેગોમાં લીન ચિત્તવાળા આ પ્રાણિયે ખેદની વાત છે કે પિતાના જીવનને વેડફી નાખે છે. 6 છા यथा मृगा नैव मरीचिकायां जलं लभन्ते प्रलयं प्रयान्ति / तथैव भोगेषु सुखेच्छये मे रक्ता लभन्ते न सुखं म्रियन्ते // 6 // Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशः सर्गः अर्थ-जैसे मृग मरीचिका में जल तो नहीं पाते हैं और मर जाते हैं वैसे ही भोगों में सुख की इच्छा से आसक्त हुए ये संसारी प्राणी सुख तो नहीं पाते हैं और समाप्त हो जाते हैं-अपनी पर्याय की. इति श्री कर देते हैं // 68 // જેમ જ જવાના જળમાં પાણી તો મળતું નથી અને પોતે મરી જાય છે. એ જ પ્રમાણે ભોગોમાં સુખની ઈચ્છાથી આસક્ત થયેલા આ સંસારી પ્રાણી સુખ પામતા નથી. અને પતે જ સમાપ્ત થઈ જાય છે. અર્થાત પિતાની પર્યાયની ઈતીથી કરે છે. 68 सुखार्थिभिर्विघ्नपरंपराया विघातकं मन्मथनाशकंच / हृषीकचेष्टाङ्कुशतुल्यरूपं तपोऽथ कल्याणकरं सुसेव्यम् / / 69 // अर्थ-इसलिये जो सच्चे सुख के अभिलाषी हैं उन्हें विध्न परंपरा को नाश करने वाले, मन्मथ का मान मर्दन करने वाले एवं इन्द्रियों की वृत्ति के लिये अङ्कुश के जैसे तप का कि जो कल्याण का कारण है सेवन अवश्य करना चाहिये // 69 // તેથી જેઓ સાચા સુખને ઈચ્છનાર છે તેણે વિન પરંપરાને નાશ કરનારા, મન્મથનું માનમર્દન કરવાવાળા અને ઇન્દ્રિયની તૃપ્તિ માટે અંકુશ જેવા તપનું કે જે કલ્યાણનું કારણ છે. તેનું અવશ્ય સેવન કરવું જોઈએ. 69 यथा दवाग्निर्दहति हरण्यं अम्मोधरो नाशयति क्षणतम् / प्रभञ्जनस्तं च निरस्यतीह तपस्तथा हन्ति च कर्मवृन्दम् // 70 // ... अर्थ-जिस प्रकार वन की अग्नि वन नष्ट कर देती है-जलादेती है-मेघ दावाग्नि को नष्ट कर देता है-वुझा देताहै-और मेघ को पवन नष्ट कर देता है उसी प्रकार तपस्या कर्मसमूह को नष्ट कर देता है // 7 // જેમ વનને અગ્નિ સમગ્ર વનનો નાશ કરે છે. અર્થાત બાળી દે છે. મેઘ દવાગ્નિને નાશ કરે છે. અર્થાત ઓલવી નાખે છે. અને મેઘને પવન નાશ કરે છે. એ જ રીતે તપસ્યા કર્મસમૂહનો નાશ કરે છે. છા निर्वाणमार्गे खलु संस्थितानां कृतं तपो विघ्नविदारकं स्यात् / नान्यत्ततः शुद्धिविधायकं तस्त्रियोगशुद्धया परिशीलनीयम् // 71 // अर्थ-मुक्ति के मार्ग में रहे हुए मोक्षाभिलाषियों के विध्नों का नाश करने वाला उनके द्वारा किया गया एक तप ही है / और कोई नहीं है / इसलिये मन वचन एवं काय की शुद्धि पूर्वक उस तप का अच्छी तरह से अभ्यास करना चाहिये // 71 // Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 432 लोकाशाहचरिते મુક્તિના માર્ગમાં રહેલા ક્ષાભિલાષિના વિનેને નાશ કરાવનાર તેઓએ કરેલ એક તપ જ છે. અન્ય કેઈ નથી. તેથી મન, વચન અને કાયની શુદ્ધિપૂર્વક એ તપને અભ્યાસ સારી રીતે કો જોઇએ. આ૭૧ तपस्यया साधुजनो रुणाद्धि कर्मागमद्वारमनेकरूपम् / पूर्वस्थितानां च शनैः शनैः स देशेन तेषां वितनोति नाशम् // 72 // अर्थ-तपस्या के द्वारा ही साधुजन कर्मों के आने के द्वारों को रोक देता है-मिथ्या दर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग-इन अनेक द्वारों को बन्द कर देता है, और पूर्वसंचित हुए कर्मों का धीरे 2 थोडे रूप में विनाश करता जाता है // 72 // તપસ્યાથી જ સાધુજન કર્મોને આવવાના કારોને રોકી દે છે. મિથ્યાદર્શન, અવિરતિ, પ્રમાદ, કષાય, અને વેગ આ પ્રકારના અનેક દ્વારને બન્ધ કરી દે છે. અને પૂર્વ સંચિત કરેલા કર્મોને ધીરે ધીરે ચેડે થડે વિનાશ કરતા જાય છે. આકરા इत्थं च पूर्वस्थितकर्मणां सः समूहनाशं विदधाति नूनम् / प्रयाति लोकाग्रविराजमानं सिद्धालयं क्षायिकभावजुष्टः // 73 // अर्थ-इस तरह पूर्वसंचित कर्म जब उसके समूल नाश को प्राप्त हो जाते हैं तब वह जीव क्षायिक भावों से युक्त हुआ लोक के अग्रभाग में स्थित सिद्धालय में विराजमान हो जाता है / / 73 // આ પ્રમાણે પૂર્વ સંચિતકમાં જયારે તેના સમૂલ નાશને પ્રાપ્ત થઈ જાય છે, ત્યારે તે જીવ ક્ષાવિકભાવોથી યુક્ત થઈને લેકના અગ્રભાગમાં રહેલ સિદ્ધાલયમાં બિરાજમાન થઈ જાય છે, આ૭૩ दुष्टाष्टकर्मक्षजातसम्यक्त्वाद्यैर्गुणैस्तत्र विराजमानाः। ते सन्तु सिद्धा जननादि हिना भवाब्धिसंशोषण हेतवोमे // 74 // अर्थ-दुष्ट अष्ट कर्मों के क्षय से उत्पन्न हुए सम्यक्त्वादि गुणों से सिद्धि स्थान में विराजमान वे सिद्ध भगवान् जो कि पुन जन्म आदि से रहित हो चुके है संसाररूपी समुद्र के शोषण होने में मुझे हेतुभूत बनें // 74 // . દુષ્ટ અષ્ટ કર્મોના ક્ષયથી ઉત્પન્ન થયેલા સમ્યકત્વાદિ ગુણોથી સિદ્ધિરથાનમાં બિરાજમાન એ સિદ્ધભગવાન કે જે પુનર્જન્મ વિગેરેથી રહિત થયેલા છે. તેઓ સંસારરૂપી સમુદ્રના શેષણ કરવામાં મને કારણરૂપ બને. 74 Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशः सर्गः 441 यह अपने स्वरूप से एक द्रव्य है. यहां पर ऐसी, आशंका नहीं करनी चाहिये-कि जब आकाश द्रव्य एक है तो फिर लोकाकाश और अलोकाकाश ऐसे दो भेद रूप इसे क्यों कहा है-कारण कि द्रव्यात्मना आकाश द्रव्य एक ही भेद रूप है-परन्तु उसके जितने भाग में जीवादिक द्रव्य बसते हैं-उतने स्थान-भाग को लोकाकाश कहा गया है-और जहां केवल आकाश ही आकाश है-कोई दूसरा द्रव्य नही है-उस भाग को अलोकाकाश कहा गया है // 10 // જીવાદિ સઘળા દ્રવ્ય જયાં સ્થાન મેળવી રહેલ છે. અર્થાત રહે છે, એ દ્રવ્યનું નામ આકાશ છે. આ આકાશ અમૂર્ત છે. રૂપ, રસ, ગંધ અને સ્પર્શે આ ગુણ વગરનું છે, તેના બે ભેદો છે. એક કાકાશ અને બીજુ અલકાકાશ, તે પિતાના સ્વરૂપથી એક દ્રવ્ય છે. અહીં એવી શંકા કરવી ન જોઈએ કે-જયારે આકાશદ્રવ્ય એક છે, તે પછી કાકાશ અને અલકાકાશ એવા બે ભેદાત્મક તેને કેમ કહેલ છે? કારણ કે-દ્રવ્યાત્મના તો આકાશદ્રવ્ય એક જ ભેદરૂપ છે. પરંતુ તેના જેટલા ભાગમાં જીવાદિક દ્રવ્ય વસે છે, એટલા રથાન–ભાગને કાકાશ કહેલ છે. અને જયાં કેવળ આકાશ જ આકાશ છે. અન્ય કેઈ દ્રવ્ય નથી. એ ભાગને અલકાકાશ કહેવામાં આવેલ છે. 100// द्रव्यपर्यायरूपः कालोऽपरमार्थ एष परिणामा। द्यैश्च क्रियापरवापरत्व चिह्नः समधिगम्यः // 101 // अर्थ-द्रव्य की-जीव और पुद्गल की जो नवीन-जीर्ण आदि रूप अवस्थाएं हैं उनकी समय घडी आदि रूप जो स्थिति है वही जिसका स्वरूप है वह द्रव्य पर्यायरूप अपरमार्थ-व्यवहार-काल है. यह परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व इन चिह्नों से जाना जाता है. // 101 // દ્રવ્યની અને પુણલની જે નવી જીર્ણ વિગેરે પ્રકારની અવરથા છે. તેની સમય ઘડી વિગેરે પ્રકારની સ્થિતિ છે. એજ જેનું સ્વરૂપ છે. તે દ્રવ્યપર્યાયરૂપ અપરમાર્થવ્યવહાર કાળ છે. આ પરિણામ, ક્રિયા, પરત્વ અને અવે એ ચિહ્નોથી જાણવામાં આવે છે. 101 व्यवहारकालहेतुः निश्चयकालोऽथ वर्तनारूपः / आयन्ताभ्यां हीनोऽमूर्तो नित्यश्च तद्व्यम् // 102 // अर्थ-निश्चय काल व्यवहार काल का कारण है और इसका लक्षणवर्त्तना है. यह निश्चय काल आदि और अन्त से रहित है. अमूर्तिक है, नित्य है. व्यवहार काल का यह द्रव्यरूप है और व्यवहार काल इसको विभावरूप पर्याय है // 102 / / Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते નિશ્ચયકાળ વ્યવહારકાળનું કારણ છે. અને તેનું લક્ષણ વર્તન છે. આ નિશ્ચયકાળ વિગેરે આદિ અને અંતવિનાના છે. અમૂર્તિક છે, નિત્ય છે. વ્યવહારકાળના એ દ્રવ્યરૂપ છે. અને વ્યવહારકાળ તેના વિભાવરૂપ પર્યાય છે. I102 धर्माधर्माकाशा मूर्तिकजीयस्तथा च कालश्च / पडिमानि द्रव्याणि हि शास्त्रे भणितानि जिनदेवैः // 103 // अर्थ-धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य, काल, पुद्गल और जीव ये 6 द्रव्य शास्त्र में जिनेन्द्र देव द्वारा कहे गये हैं // 103 // ધર્મદ્રવ્ય, અધર્મ દ્રવ્ય, આકાશદ્રવ્ય, કાળ, પુગલ અને જીવ આ છ દ્રવ્ય શાસ્ત્રમાં જીતેન્દ્રદેવે કહેલા છે. 103 धर्माधर्माकाशा भेदविहीना न पुद्गलो जीवः / कालश्च निष्क्रियः सः, धर्माधर्मों नभश्चेति // 104 // ___ अर्थ-धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य और आकाश द्रव्य ये तीन एक 2 द्रव्य हैं अर्थात् इनके भेद नहीं है। पुद्गल द्रव्य, जीव द्रव्य और काल ये भेदवान् द्रव्य हैं तथा धर्म, अधर्म, आकाश और काल चार द्रव्य निष्क्रिय हैं-गति आदि क्रिया से रहित हैं // 104 // ધર્મ દ્રવ્ય, અધર્મદ્રવ્ય, અને આકાશદ્રવ્ય, એ ત્રણે એક એક દ્રવ્ય છે. અર્થાત તેના અન્ય ભેદ નથી. પુદ્ગલ દ્રવ્ય છવદ્રવ્ય અને કાળ એ ભેદવાળા દ્રવ્યો છે. તથા ધર્મ અધર્મ આકાશ અને કાળ એ ચાર દ્રવ્ય નિષ્ક્રિય છે. અર્થાત ગતિ વિગેરે ક્રિયા વિનાના છે. 104 तो जीवपुद्गलौ द्वौ क्रियावन्तौ विभावपर्यायौ। स्वीयं रूपं मुक्त्वा विविधां क्रियां च हा ! तनुतः // 105 // अर्थ-जीव और पुद्गल क्रियावान हैं. क्यों कि ये विभावपर्याय से परिणत हो जाते हैं. उस समय ये अपने 2 स्वरूप को छोडकर अनेक प्रकार की क्रियाएं करते हैं // 105 // જીવ અને પુલ દિયાવાન છે. કેમકે એ વિભાવ પર્યાયથી પરિણત થઈ જાય છે. એ સમયે એ પોતપોતાના સ્વરૂપને છોડીને અનેક પ્રકારની ક્રિયાઓ કરે છે. 10 પા भवति कदाचिक्रोधी, निमित्तमामाय जायते मानी।। मायावी लोभी वा भोगी पंचेन्द्रियैर्मतः // 106 // अर्थ-पंचेन्द्रियों द्वारा मत्त हुआ यह जीव निमित्त पाकर कदाचित् क्रोधी, दाचित् मानी, कदाचित् मायी कदाचित् लोभी और कदाचित् भोगी न जाता है // 106 // Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशः सर्गः પંચેન્દ્રિ દ્વારા મત્ત થયેલ આ જીવ નિમિત્ત પામીને કોઈવાર ધી, કઈવાર માની, કોઇવાર માયી, કોઇવાર લેભી અને કેઈવાર ભેગી બની જાય છે. 106 पुद्गलपरमाणुरपि हि सूक्ष्मस्निग्धगुणयुगप्रदेशोऽपि / द्वयादि प्रदेशरूपं लभतेऽयं स्कन्धपर्यायम् // 107 // ___ अर्थ-रूक्ष और स्निग्ध गुणों से युक्त हुआ एक प्रदेशी पुद्गल परमाणु भो दो आदि प्रदेशों वाले स्कन्ध पर्याय को प्राप्त करता है. // 107 // રૂક્ષ અને નિષ્પ ગુણોથી યુક્ત થયેલ એક પ્રદેશી મુદ્દગલ પરમાણું પણ બે વિગેરે પ્રદેશેવાળા કંધ પર્યાયને પ્રાપ્ત કરે છે. 107 इदमस्यैवं भूतं परिणमनं तावदस्ति पर्यायः / पंचगुणाढयस्याणोः विभावनाम्ना समाख्यातः // 10 // - अर्थ-पांच गुणों से युक्त-एक रूप, रस, एक गंध और अविरोधी दो स्पर्श सहित-परमाणु का जो इस तरह का परिणमन है सो यही उसकी विभाव पर्याय है // 1.8 // .. પાંચગુણોથી યુક્ત–એકરૂપ, એકસ, એકબંધ અને અવિધિ બે સ્પર્શ સહિતપરમાણુનું જે આ પ્રમાણેનું પરિણમન છે, તે એજ એની વિભાવ પર્યાય છે. 108 संसारमुक्त भेदाज्जीवा द्विविधा जिनागमे कथिताः / आये च त्रसस्थावरभेदाद्धिविधवमायाति // 109 // अर्थ-संसारी जीव और मुक्त जीव के भेद से जिनागम में दो प्रकार के जीव कहे गये हैं / संसारी जीव त्रस और स्थावर के भेद से दो तरह के हैं // 109 // સંસારી જીવ અને મુક્ત જીવના ભેદથી જીનાગમમાં બે પ્રકારના જે કહેવામાં આવ્યા છે, સંસારી જીવ ત્રસ અને સ્થાવરના ભેદથી બે પ્રકારના છે. 109 पृथिव्यप्तेजोवायु बनस्पति भेदतः पञ्चधा सन्ति / एक स्पर्शनवन्तो जीवा एकेन्द्रियास्तत्र // 110 // अर्थ-पृथिवी, अप्, तेज, वायु और वनस्पति के भेद से स्थावर-एकेन्द्रियजीव पांच प्रकार के हैं / इनके केवल एक स्पर्शन इन्द्रिय ही होती है // 110 // પૃથિવી, અ, તેજ, વાયુ અને વનસ્પતિના ભેદથી સ્થાવર એકેનિદ્રય જીવ પાંચ પ્રકારના છે, તેને કેવળ એક સ્પર્શ ઈન્દ્રિય જ હોય છે. 11 Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरिते द्वे स्तः स्पर्शनरसने यस्य संजायते द्वीन्द्रियप्राणी। कृम्यादयो यथैते त्रसजीवा सन्ति तद्रिक्ताः / 111 // अर्थ-स्पर्शन और रसना ये दो इन्द्रियां जिस जीव के होती है वह द्वीन्द्रिय जीव त्रस जीव होता है-जैसे कृमी आदिः एकेन्द्रिय जीव के सिवाय द्वीन्द्रियादिक जीव ब्रस जीव कहे गये हैं // 111 // પર્શન અને રસના એ બે ઇંદ્રિયે જે જીવને હોય છે, તે એવા કીન્દ્રિય ત્રસ જીવે હોય છે. જેમકે કીડા વિગેરે એકેન્દ્રિય જીત શિવાય દ્વાદ્રિાદિ ને ત્રસ જીવ सेवामा मावे छ. // 111 // घाणाधिके इसे द्वे यस्य स्त स्त्रीन्द्रियो ध्रुवं भवति / यूकादयो यथते त्रस जीगः सन्ति सर्वेऽपि // 112 // .. " अर्थ-स्पर्शन, रसना और ध्राग ये तीन इन्द्रियां जिस जीव के होती हैं वह नियमतः तेइन्द्रिय जीव है जैसे कि जू वगैरह. तीन इन्द्रिय वाले जीव सब ही त्रस होते हैं // 112 // સ્પર્શન, રસના અને પ્રાણ એ ત્રણ ઈંદ્રિય જે જીપને હેય છે, તે નિશ્ચયથી તેઇંદ્રિય જીવ છે. જેમકે જૂ વિગેરે આ ત્રણ ઇનિદ્રયવાળા બધા છો ત્રસ હોય છે. ૧૧રા पूर्वेक्तानीमानि च भवन्ति जीवस्य नेत्रसहितानि / यस्य चतुरिन्द्रियःस यथा मिलिन्दादयो जीवाः // 113 // अर्थ-नेत्र इन्द्रिय सहित ये पूर्वोक्त इन्द्रिया जिस जीवके होती है वह चौइन्द्रिय जिव है. जैसे भ्रमर आदि जीव.॥११३॥ ' નેત્ર ઇંદ્રિયની સાથે આ પૂર્વોક્ત ત્રણ ઈંદ્રિયે જે જીવને હેય તે ચી ઇંદ્રિય જીવ છે. જેમકે ભમરા વિગેરે જીવો. 113 कर्णाधिकानीमानि भवन्ति जीवस्य यस्य स ज्ञेयः। पञ्चेन्द्रियो यथा नरनारकदेवास्तियश्चश्च // 11 // अर्थ-जिस जीव के कान सहित पूर्वोक्त चार इन्द्रियां होती है वह पंचेन्द्रिय जीव है. जैसे-मनुष्य, नारकी, देव और तिर्यश्च. // 114 // જે જીવને કાન સહિત પૂર્વોક્ત ચાર ઇંદ્રિય હેય તે પંચેન્દ્રિય જીવ છે. જેમકેમનુષ્ય, નારકી, દેવ અને તિર્યંચ 114 अमनस्का समनस्का जीवास्तु ते पंचेन्द्रिया द्विविधाः। . मनप्तो रहिताः प्रथपास्तेन युता भवन्ति ते परमाः // 115 // Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खतुर्दशः सर्गः अर्थ-पञ्चेन्द्रिय जीव अमनस्क-असंज्ञी और समनस्क-संज्ञी-ऐसे दो प्रकार के होते हैं जिनके मन नहीं होता वे अमनस्क और जिनके मन होता वे समनस्क हैं // 115 // પંચેન્દ્રિયજીવ અમનરક–અસંતી અને સમનસ્ક-સંજ્ઞી તેમ બે પ્રકારના હોય છે. જેને મન ન હોય તે અમન અને જેને મન હેય તેઓ સમનરક કહેવાય છે. 115 आस्रव बंधो पुण्यं पापं कर्मात्मनश्च संयोगात् / भवति च मोक्षान्तास्ते भावा आत्मोत्थ शुद्धथैव 1116 // अर्थ-आस्रव, बंध, पुण्य और पाप ये चार कर्म और आत्मा-जीव केसंयोग से होते हैं. तथा मोक्षान्तभाव-संवर, निर्जरा एवं मोक्ष ये तीन तत्व आत्मा को शुद्धि-कर्म और आत्मा के संयोग रूप विनाश से उत्पन्न होते हैं // 116 // આસવ, બંધ, પુણ્ય અને પા૫ આચાર કર્મ અને આત્મા-જીવના સંગથી થાય છે. તથા મોક્ષાન્તભાવ સંવર, નિર્જરા અને મોક્ષ આ ત્રણ તત્વ આત્માની શુદ્ધિ-કર્મ અને આત્માના સંગરૂપ વિનાશથી ઉત્પન્ન થાય છે. 116 जीवाजीवविशेषाश्च नव तत्त्वानि वित्त भोः। - अतः स्वरूपमेतेषां संक्षेपात्कथयाम्यहम् / 117 / / अर्थ-जीव एवं अजीव के ही ये नव तत्त्व-जीव, अजीव पुण्य, पाप आस्रव, संवर, बंध, निर्जरा और मोक्ष-विशेषरूप हैं. इसलिये मैं अब संक्षेप से इनका स्वरूप कहता हूं // 117 // જીવ અને અજીવ તે જ આ નવ તત્ત્વ-જીવ, અજીવ, પુણ્ય પાપ આસવ, સંવર બંધ નિર્જરા અને મોક્ષરૂપ છે. તેથી હવે હું સંક્ષેપથી તેનું સ્વરૂપ કહું છું. 11 आत्मनि येन भावेन ज्ञानावृत्त्यादि कर्मणाम् / भवत्यागमनं ज्ञेयः, आस्रवो द्विविधो हि सः // 18 // अर्थ-आत्मा में जिन भावों से ज्ञानावरणादि कर्मों का आगमन होता है वह आस्रव तत्त्व है. यह दो प्रकार का है- // 118 // આત્મામાં જે ભાવથી જ્ઞાનાવરણ વિગેરે કર્મોનું આગમન થાય છે. તે આસ્રવ તત્વ છે. તે બે પ્રકારનું છે. 118 मिथ्यागादि भावा ये भावासातया मताः / तैरावृतो यतोजीवः कर्षति कर्मपुद्गलान् // 119 // Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 446 लोकाशाहचरिते अर्थ-मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग इन से युक्त हुआ जीव कर्म होने योग्य पुद्गलों को-कामणवर्गणाओं को-खींचता है. सो ये ही जीव के भाव भावानव रूप हैं // 119 / / મિથ્યાદર્શન, અવિરતિ, પ્રમાદ, કષાય અને વેગથી યુક્ત થયેલ છવ કર્મ થવાને યોગ્ય પુદ્ગલેને-કાશ્મણ વર્ગણાઓને ખેંચે છે. તો એજ જીવના ભાવાભ્રવરૂપ ભાવ છે. 119 युग्मम्तेषां निमित्तमासाद्य जानतन्त्यत्र पुद्गलाः / ये, ते द्रव्यास्रवास्तेषां भुक्तान्नपरिपाकवत् // 120 // विभागो जायते ज्ञानावरणादिरनेकधा / तत्र स्थितिरनुभागश्च कषायासंपतत्यसौ // 121 / / अर्थ-उन योगआदि कों के निमित्त को लेकर जो कर्मपुद्गलों का आना होता है वह द्रव्यास्रव है. इनका ज्ञानावरणादिरूप विभाग खाये गये आहार के परिपाक को तरह होता है ज्ञानावरणादि कर्मों में जो स्थिति बंध और अनुभाग बन्ध होता है वह कषाय से होता है // 120-121 // એ વેગ વિગેરેના નિમિત્તને લઈને જે કર્મ પુણેલો આવે છે, તે દ્રવ્યાસ્ત્ર છે. તેના જ્ઞાનાવરણાદિરૂપવિભાગ ખાવામાં આવેલા આહારના પરિપાકની માફક થાય છે. જ્ઞાનાવરણાદિ કર્મોમાં જે સ્થિતિ બંધ અને અનુભાગ બંધ હોય છે, તેકષાયથી થાય છે. ૧૨૦-૧૨ના एक क्षेत्रावगाही यः कर्मजीवप्रदेशयोः / संबंधः स समाख्यातः बन्धःसोऽस्ति चतुर्विधः // 122 // अर्थ-कर्म एवं जीव के प्रदेशों का एक क्षेत्रावगाही जो संबंध है. वह बन्ध है, यह बंध चार प्रकार का कहा गया है. // 122 // કર્મ અને જીવના પ્રદેશનો જે એક ક્ષેત્રાવગાહી સંબંધ છે, તે બંધ છે. એ બંધ ચાર પ્રકાર કહેવામાં આવેલ છે. ૧રરા प्रकृत्याख्यः प्रदेशाख्यो बन्धो योगात्प्रजायते। ___ मूलरूपेण बन्धस्य द्रव्यभावाद्विरूपता // 123 // अर्थ-मन, वचन और काय के हलन चलनरूप योग से प्रकृतिबन्ध एवं प्रदेश बंध ऐसे ये दो बन्ध होते हैं, मूलरूप से बन्ध के द्रव्यबन्ध और भावबन्ध ऐसे दो भेद हैं // 123 // Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशः सर्गः 447 મન, વચન અને કાયના હલનચલનરૂપગથી પ્રકૃતિબંધ અને પ્રદેશબંધ એવા - આ બે બન્ધ થાય છે. મૂળરૂપથી બન્ધના દ્રવ્યબંધ અને ભાવબંધ એવા બે ભેદ થાય છે. ૧રવા रागद्वेषादि भावोत्थ कर्मणात्मा प्रबध्यते / भावबन्धस्तदेवासौ द्रव्यबंधस्ततोऽपरः // 124 // अर्थ-जिन राग द्वेष आदिरूप विभावों के द्वारा उत्पन्न हुए कर्मों के साथ जो आत्मा का बंधना है वह भावबन्ध है. द्रव्यबन्ध इससे भिन्न है। आत्मा के साथ जो कर्मबंधते हैं उस बंधने में आत्मा के राग द्वेष आदिरूप भाव कारण होते हैं / विना इनके हुए कर्मों का बंधन नहीं होता है / अतः ऐसे भाव ही भावबंध हैं और इनके होने पर जो पोद्गलिक कर्मबंधते हैं वे द्रव्य बंध हैं // 124 // - જે રાગદ્વેષ વિગેરે વિભા દ્વારા ઉત્પન્ન થયેલા કર્મોની સાથે આત્માનું જે બંધન છે તે ભાવબંધ છે. દ્રવ્યબંધ તેનાથી જુદુ છે. આત્માની સાથે જે કર્મ બંધાય છે, એ બાંધવામાં આત્માના રાગદ્વેષ વિગેરે ભાવે કારણ હોય છે. તે થયા વિના કર્મોન બંધ થતા નથી, તેથી એવા ભાવ જ ભાવબંધ છે. અને એ થાય ત્યારે જે પૌલિક કર્મ બંધાય છે. તે દ્રવ્ય બંધ છે. 124aa यथा दुग्धाम्भसोर्बन्धस्तथा कर्मात्मनोरपि / ..स चान्योन्य प्रवेशात्मा तथापि स्वस्थिति पृथक // 125 // " अर्थ-जिस प्रकार दूध और पानी आपस में एक दूसरे के साथ मिल हिल जाते हैं उसी प्रकार कर्म और आत्मा के प्रदेश आपस में एक दूसरे के साथ हिल मिल जाते हैं. परन्तु मिल जाने पर भी ये अपनी स्वरूप सत्ता नहीं छोडते हैं पृथक 2 ही रहते हैं // 125 // જેમ દૂધ અને પાણી પરસ્પર એકબીજાની સાથે હળીમળી જાય છે, એજ પ્રમાણે કર્મ અને આત્માના પ્રદેશો પરસ્પરમાં એકબીજાની સાથે હળીમળી જવા છતાં પણ તેઓ પિતાના સ્વરૂપની સત્તા છોડતા નથી. અલગ અલગ જ રહે છે. ૧૨પા कर्मास्रवनिरोधो यः संवरः कथितो बुधैः / सोऽपि द्विप्रकारोस्ति द्रव्यभावप्रभेदतः // 126 // अर्थ-कर्मों के आने का रुकजाना इसका नाम संवर है. यह संवर भी द्रव्यसंवर और भावसंवर के भेद से दो प्रकारका है / // 126 // Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 448 लोकाशाहचरिते કર્મોનું આગમન રોકાઈ જવું તેનું નામ સંવર છે. આ સંવર પણ દ્રવ્યસંવર અને भासवरना मेथी अनुछे. // 126 // आताना येन भावेन कर्मास्रवनिरोधनम् / जायते सैव विज्ञेयो भावाख्यः संवरो ध्रुवम् / / 127 // अर्थ-आत्माके जिन भावों से कर्मों का आना रुकजाता है वही आत्माका परिणाम भाव संवर है-॥१२७॥ આત્માના જે ભાવથી કર્મોનું આગમન રોકાઈ જાય છે. એજ આત્માનું પરિણામ ભાવસંવર છે. 127 कर्माणि निरुध्यन्ते तान्येव द्रव्यसंवरः। निर्जरा संचितानां तु तेषां देशोनसंक्षयः // 28 // अर्थ-कर्मो का आना इसका नाम द्रव्य संवर है तथा संचित हुए कर्मों का थोडा थोडा करके जो झरना है. क्षय होना है-उसका नाम निर्जरा है // 128 // કર્મોના આગમનનું નામ દ્રવ્યસંવર છે, તથા સંચિત થયેલા કર્મોનું થોડું થોડું થઈને ઝરવું થાય છે. એટલે કે ક્ષય થાય છે. તેનું નામ નિર્જરા છે. 128 निर्जरा द्विविधा प्रोक्ता द्रव्यभावप्रभेदतः सविणाका विपाकावनयोरस्त्यभिधान्तरम् // 129 // अर्थ-द्रव्यनिर्जरा और भाव निर्जरा के भेद से निर्जरा भी दो प्रकार कही गई है इनमें ज्ञानावरणादि कर्मों की जो निर्जरा है वह द्रव्य निर्जरा है और आत्मा के जिन भावों से यह निर्जरा होती है वह भावनिर्जरा है. सविपाक एवं अविपाक इन्हीं दोनों के नामान्तर हैं / द्रव्यनिर्जरा का नाम सविपाक और भावनिर्जरा का नाम अविपाक निर्जरा है // 129 // દ્રવ્ય નિર્જરા અને ભાવ નિર્જરાના ભેદથી નિર્જરા પણ બે પ્રકારની કહેવામાં આવી છે. તેમાં જ્ઞાનાવરણાદિ કર્મોની જે નિર્જરા છે, તે દ્રવ્યનિર્જરા છે. અને આત્માના જે ભાવથી આ નિર્જરા થાય છે, તે ભાવનિર્જરા છે. સવિપાક અને અવિપાક એ આ બેના નામાન્તર છે. દ્રવ્ય નિર્જરાનું નામ સવિપાક નિર્જરા અને ભાવ નિર્જરાનું નામ અવિપાક નિર્જરા છે. 129 प्रतिसायं कर्माणि क्षयंति संवरं विना / सविपाका न जीवस्य प्रोक्ता सेयै हितावहा // 130 // Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 449 चतुर्दशः सर्गः ___ अर्थ-संवर के विना प्रतिसमय जो कर्मों की निर्जरा होती रहती है वह सविपाक निर्जरा है. इससे जीव का हित नहीं होता है // 130 // સંવર વિના પ્રતિ સમયે જે કર્મોની નિર્જરા થતિ રહે છે, તે સવિપાક નિર્જરા છે. તેનાથી જીવનું હિત થતું નથી. 130 संवराढ्या तपोभिश्च कर्मणां या तु जायते / निर्जरा साविपाकाऽथ सैव प्रोक्ता हितावहा // 131 // अर्थ-संवर के परिपूर्ण जो निर्जरा कर्मों की नाना प्रकार के तपश्चरण से होती है वही अविपाक निर्जरा है. और यही निर्जरा जीव के हीत की साधक-मुक्ति प्रदान करने वाली है. // 131 // સંવથી જે અનેક પ્રકારના કર્મોની પરિપૂર્ણ નિર્જરા તપશ્ચરણથી થાય છે, તે અવિપાક નિર્જર છે. અને એજ નિર્જરા જીવની હિતસાધક-મુક્તિ આપનારી છે. 13 सर्वेषां कर्मणां तावत् आत्यन्तिकक्षयो मतः / - मोक्षःसोऽपि द्विविधःस्यात् द्रव्यभावप्रभेदतः // 132 // अर्थ-समस्त कर्मों का जो आत्यन्तिक क्षय है वह मोक्ष है. यह मोक्ष द्रव्यमोक्ष और भावमोक्ष के भेद से दो प्रकार का है // 132 // સમરત કર્મોને જે આત્યંતિક ક્ષય છે, તે મેલ છે. આ મેક્ષ દ્રવ્યમેક્ષ અને ભાવભેક્ષના ભેદથી બે પ્રકાર છે. ૧૩રા आत्मनो यः परिणामः कर्मपणकारकः। ज्ञेयोऽथभावमोक्षः स कर्मच्युतिननोऽपरः / / 133 // अर्थ-आत्मा का जो परिणाम ज्ञानावरणादिरूप कर्मों के क्षय का कारण होता है वही परिणाम भाव मोक्ष है. तथा ज्ञानवरणादि कर्मों का जो आत्मा से पृथक् हो जाना है वह व्यभोक्ष है. // 133 // આત્માનું જ પરિણામ જ્ઞાનાવરણારૂપ કર્મોને ક્ષયનું કારણ હોય છે, એ જ પરિણામ ભાવ મોક્ષ છે, તથા જ્ઞાનાવરણાદિ કર્મોનું જે આત્માથી અલગ થઈ જવું છે, તે દ્રવ્યમેક્ષ છે. 133 क्रमणां बंधसातत्यात् तेषामथ सदोदयात् / अभावः कथमेतेषां भवेन्मोक्षोऽपि वा कथम् // 134 // 57 Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 450 लोकाशाहचरिते अर्थ-शंका-संसारी जीव के कर्मों का बंध सदा होता रहता है और उनका उदय भी निरन्तर होता रहता है. तो फिर उनका अभाव कैसे हो सकता है कि जिससे जीव की मुक्ति हो सके. ? // 134 // શંકા–સંસારી જીવને કર્મોને બંધ સદો થતો રહે છે. અને તેને ઉદય પણ નિરંતર થતો રહે છે, તે પછી તેને અભાવ કેવી રીતે થઈ શકે છે, કે જેથી જીવની મુક્તિ થઈ શકે ? 134 नैवं वाच्यं यथा शत्रु क्षीणावस्थां गतं बली। हन्ति भव्यस्तथा हीयमानस्थित्यनुभागकम् // 135 // कर्मनाशयति भव्यः शुद्धः सन् परिनिवृत्तिं / प्राप्नोति जायते जन्मजरामरण दूरगः // 136 // अर्थ-ऐसा नहीं कहना चाहिये-क्यों कि जिस प्रकार क्षीणावस्था प्राप्त शत्रु को बली नष्ट कर देता है उसी प्रकार हीयमान स्थिति और अनुभाग वाले कर्मों को भव्य जीव नष्ट कर देता है और शुद्ध होता हुआ वह फिर निर्वाण को प्राप्त कर लेता है. एवं जन्म, जरा, मरण से बहुत दूर-सर्वथा रहित हो जाता है // 135-136 // | એ રીતે કહેવું ન જોઈએ-કેમકે જે પ્રમાણે ફીણાવસ્થા પ્રાપ્ત શત્રુને બળવાન નાશ કરે છે. એ જ પ્રમાણે હીયમાન સ્થિતિ અને અનુભાગવાળા કર્મોને ભવ્ય જીવ નાશ કરી દે છે. અને શુદ્ધ થયેલને પાછો નિર્વાણને પ્રાપ્ત કરી લે છે. તથા જન્મ, જરા, મરણથી ઘણે દૂર સર્વથા રહિત થઈ જાય છે. 135-13aa शुभ भावयुतो जीवः कर्मपुण्यमुपार्जयन् / अशुभाद्विरतो भूत्वा मोक्षमार्गमुपश्नुते // 137 // अर्थ-शुभ भावों से युक्त हुआ जीव पुण्य कर्म को उपार्जित करता है और अशुभ से विरक्त होकर वह मोक्षमार्ग की उपासना करने में लग जाता है. शुभ उपयोग रूप परिणाम का नाम शुभ भाव है-तथा-चोक्त मन्यत्र "उद्गम मिथ्यात्व विष, भावयदृष्टिं च कुरु परां भक्तिम्, भाव नमस्कार तो "ज्ञाने युक्तो भव सदापि”। पंच महाव्रतरक्षा कोपचतुष्कस्य निग्रहं परमम्, दुर्दान्तेन्द्रियविजयं तपः सिद्धिविधौ कुरूद्योगम्" // 137 // . શુભ ભાવોથી યુક્ત થયેલ છવ પુણ્ય કર્મ પ્રાપ્ત કરે છે. અને અશુભથી વિરક્ત થઈને તે મોક્ષ માર્ગની ઉપાસના કરવામાં લાગી જાય છે. શુભ ઉપગરૂપ પરિણા * Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशः सर्गः भतु नाम शुभमान छे. 'तथाचोकमन्यत्र' "उद्भवमिथ्यात्वविषं, भावय दृष्टिं च कुरु परां भक्तिम् ,भाव नमार तो 'ज्ञाने युक्तो भव सदापि" पञ्चमहाब तरक्षां कोपचतुष्कस्य निग्रहं परमम् , दुर्दान्तेन्द्रियविजयं तपः सिद्धिविधौ कुरूद्योगम् " // 137 // पुण्यं पापं च हेयं स सम्यग्दृष्टिस्तु मन्यते / कथं स्यात्पुण्यकृत्येऽयं सादरो ब्रूहि मे गुरो ! // 13 // ___ अर्थ-शंका-सम्यग्दृष्टि तो पुण्य और पाप को हेय-छोडने योग्य मानता है तो फिर वह पुण्य कार्यमें आदर सहित कैसे होगा ? आप गुरुदेव ! कहिये // 138 // શંકા--સમ્યગ્દષ્ટિ તો પુણ્ય અને પાપને હેય-છોડવા ગ્ય માને છે, તો પછી તે પુણ્યકાર્યમાં આદરયુક્ત કેવી રીતે થશે? તે આપ ગુરૂદેવ ! કહો. ./138 शृणुतावत्प्रवक्ष्यामि संक्षेपाच तवोत्तरम् / . शंकोद्भूतायतस्ते स्यान्निरस्ताऽशांति दायिनी // 139 // अर्थ-गुरुदेव ने कहा-सुनो-मैं तुम्हें संक्षेप से इसका उत्तर देता हूं इससे अशांति उत्पन्न करने वाली तुम्हारी शंका दूर हो जावेगी. // 139 // - ગુરૂદેવ કહે છે સાંભળો હું તમને સંક્ષેપથી અને ઉત્તર આપું છું, તેનાથી અશાંતિ ઉત્પન્ન કરવાવાળી તમારી શંકા દૂર થશે. 139 यथा कश्चिद्विवाहार्थी कन्या संबंधिनोजनान् / .. सत्करोति तथा चायं गुर्वाचार्यान सुसेवते / 140 // ___ अर्थ-जिस प्रकार विवाह का अर्थी पुरुष कन्या पक्षके सम्बधियों का सत्कार करता है उसी प्रकार यह सम्यग्दृष्टि मोक्षाभिलाषी होता हुआ भी गुणस्तवन आदि द्वारा निर्दोष चारित्र पालन करने वाले गुरुदेव आचार्यादिकों की भक्ति करता है. यह सब पुण्य कार्य है // 140 // જેમ વિવાહની કામનાવાળા અથ પુરૂષ કન્યા પક્ષને સંબંધિને સત્કાર કરે છે. એજ પ્રમાણે આ સફદષ્ટિ ક્ષેચ્છુ થઈને પણ ગુણસ્તવન વિગેરેથી નિર્દોષ ચારિત્રનું પાલન કરવાવાળા ગુરૂદેવ આચાર્યોની ભક્તિ કરે છે. આ તમામ પુણ્ય કાર્ય છે. 14 रत्नत्रयं च मोक्षस्य कारणं गदितं जिनैः / .. व्यवहारनयाज्जीवो निश्चयात्तत्त्रयात्मकः // 141 // अर्थ-मोक्ष का कारण जो रत्नत्रय कहा गया है वह व्यवहार नय से ही कहा गया है निश्चय नय से नहीं, क्यों कि निश्चय नय से इन तीनों Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ઉપર लोकाशाहचरिते से ओतप्रोत हुआ आत्मा हो-रत्नत्रयमय आत्मा ही मोक्ष का कारण कहा गया है // 141 // મેક્ષનું કારણ જે રત્નત્રય કહેલ છે, તે વ્યવહાર નયથી જ કહેવામાં આવેલ છે. નિશ્ચય નયથી નહીં, કેમકે નિશ્ચય નયથી આ ત્રણેથી ઓતપ્રેત થઈને આત્મા જ-રત્નત્રયમય આત્મા જ મોક્ષનું કારણ કહેવામાં આવેલ છે. 141 श्रद्धानं तत्त्वानां जीवादीनां तदेव सम्यक्त्वम् / तस्मिन् सत्येव यतो ज्ञानं संजागते सम्यक् // 142!! अर्थ-जीवादिक तत्त्वों का जो अद्धान है वही सम्यग्दर्शन है इसके होने पर ही ज्ञान में समीचीनता आती है. // 142 // જીવાદિ તનું જે શ્રદ્ધાન છે, એજ સમ્યદર્શન છે. તે હેય તે જ જ્ઞાનમાં સમીચીનપણું આવે છે. ૧૪રા पंचविंशतिदोषैश्च विहीनं दर्शनं मतम् / निर्मलं भवनाशाय समय जायते हि तत् // 143 // अर्थ-दोषों से रहित सम्यग्दर्शन निर्मल माना गया है ऐसा वह सम्यग्दर्शन ही जन्म रूप संसार के नाश करने में समर्थ होता है // 143 // પચીસ દોષ વિનાના સમ્યફદર્શનને નિર્મળ માનેલ છે, એવું એ સમ્યફદર્શન જ જન્મરૂપ સંસારને નાશ કરવામાં સમર્થ થાય છે. 143 दुरभिनिवेशविहीनं सम्यग्ज्ञानं स्वपर व्यवसायि।' सविकल्पं भेदैः स्वैर्मतिश्रुतादिभिरनेकविधम् // 144 / अर्थ-संशय विपर्यय और अनध्यवसायरूप जो दुरभिनिवेश है उस से रहित जो ज्ञान है वही सम्यग्ज्ञान है. यह सम्यग्ज्ञान स्व और पर का व्यवसाय करने वाला होता है-सविकल्प होता है और मतिज्ञान आदि अनेक भेदों वाला होता है // 144 // સંશય વિપર્યય અને અનવસાયરૂપ જે દુરભિનિવેશ છે, તેના વિનાનું જે જ્ઞાન છે, એજ સમ્યકજ્ઞાન છે. આ સમ્યફજ્ઞાન સ્વ અને પારને વ્યવસાય કરવાવાળું હોય છે. અર્થાત સવિકલ્પ હોય છે. અને મતિજ્ઞાન વિગેરે અનેક ભેદવાળું હોય છે. 144 अशुभक्रिया निवृत्तिः शुभक्रियायां च जायते सुरतिः। . सम्यक् चारित्रं तत् गदितं शास्त्रे महामुनिभिः // 145 // Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 453 - - - -- - - चतुर्दशः सर्गः ___ अर्थ-हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह रूप जो अशुभ क्रियाएं हैं उनसे जो जीव की निवृत्ति है एवं शुभ क्रियाओं में-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह में -जो जीव की प्रवृत्ति है उसका नाम सम्यक् चारित्र है ऐसा शास्त्र में महामुनियों ने कहा है // 145 / / હિંસા, ગૂઠ, ચેરી, કુશીલ અને પરિગ્રહરૂપ જે અશુભ ક્રિયાઓ છે, તેનાથી જીવની નિવૃત્તિ થવી અને શુભ ક્રિયાઓમાં એટલે કે અહિંસા, સત્ય અસ્તેય, બ્રહ્મચર્ય અને અપરિગ્રહમાં જીવની જે પ્રવૃત્તિ થવી તેનું નામ સહ્યારિત્ર છે. એ પ્રમાણે શાસ્ત્રોમાં મહામુનિએ કહેલ છે. ૧૪પા ___ तद् द्विविधं निर्दिष्टं मुनिश्रावकवृत्तभेदतस्तत्र / मुनिवृत्तं तत्सकलं श्रावकवृत्तं तु देशचारित्रम् // 146 // अर्थ-मुनिचारित्र और श्रावक चारित्र के भेद से वह चारित्र दो प्रकार है. इनमें मुनि चारित्र सकल चारित्र और श्रावक का चारित्र देश चारित्र है / / 146 // . મુનિચારિત્ર અને શ્રાવક ચારિત્રના ભેદથી ચારિત્ર બે પ્રકારનું છે, તેમાં મુનિચારિત્ર ससयात्रि सने श्रावस्तु यात्रि शियारिन छे. // 146 // हिंसादीनां पापानां संत्यागो मनोवचः कायैः / कृतकारितानुमतिभिः यावज्जीवं भवेत्सकलम् // 147 // - अर्थ-हिंसादि पांचों पापों का मन वचन काय और कृत कारित अनुमोदना इन नौ कोटियों से जो अच्छी तरह त्याग किया जाता है वही सकल चारित्र है- // 147 // હિંસા વિગેરે પાપને મન, વચન કાય, અને કૃતકારિત અને અનુમોદન આ નૌ કોટિથી જો સારી રીતે ત્યાગ કરવામાં આવે તેને જ સકલ ચારિત્ર કહે છે. ૧૪ળા एतेषां पापानां देशत्यागोऽस्ति देशचारित्रम् / चारित्रं खलु धर्म भवति निवृत्तिस्ततस्तेषाम् // 148 // अर्थ-इन पापों का एक देश से जो त्याग है वह देश चारित्र है चारित्र ही धर्म है क्यों की पापों की निवृत्ति इसी से होती है-॥१४८॥ - આ પાપને એક દેશથી જે ત્યાગ દેશ ચારિત્ર છે. ચારિત્ર જ ધર્મ છે. કેમકે-પાપની નિવૃત્તિ તેનાથી જ થાય છે. 148 Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकाशाहचरित . . .. . ... .. - -- - कर्मणां संचितानां च क्षयस्तावत्तश्स्ययां / नव्यानां च निरोधः स्यात् संवरेण हितैषिणा // 149 / / इत्यवगम्य बुधै र्भाव्यं स्वात्मकल्याणकांक्षिभिः / रत्नत्रयार्जने नित्यं सावधानैः स्वशक्तितः // 150 // अर्थ-संचित कर्मों का क्षय तपस्या से होता है और नये 2 कर्मों के आस्रव का रुकना हितैषी संवर से होता है ऐसा समझकर अपने आत्मकल्याण की इच्छावाले भव्यजनों द्वारा अपने शक्ति के अनुसार रत्नत्रय की प्राप्ति करने में सदा सावधान रहना चाहिये. // 149-150 // સંચિત કર્મોને ક્ષય તપસ્યાથી થાય છે. અને નવા નવા કર્મોના આસવનું રોકાવું હિતૈષી સંવરથી થાય છે. તેમ સમજીને પિતાના આત્મકલ્યાણની ઈચ્છાવાળા ભવ્યજનોએ પિતાની શક્તિ પ્રમાણે રત્ન પ્રાપ્ત કરવામાં સદા સાવધાન રહેવું જોઈએ. 148-15 पूर्णे च तस्मिन् स भवाद्विमुक्तः संजायते सैव च मुक्तिरस्य / मुक्तिं गतोनैव भवं कदापि गृह्णाति तत्रैव स सायनन्तः // 151 // अर्थ-रत्नत्रय के पूर्ण हो जाने पर वह जीव इस संसार से छूट जाता हैयही इस जीव की मुक्ति है. मुक्त हुआ जीव फिर कभी संसार में नहीं आता है. वह तो वहीं पर सादि होता हुआ भी अनन्त हो जाता है. // 151 // રત્નત્રય પૂર્ણ થઈ ગયા પછી એ જીવ આ સંસારથી છુટી જાય છે. એજ આ જીવની મુક્તિ છે. મુક્ત થયેલ છે તે પછી કયારેય સંસારમાં આવતો નથી. એ તે ત્યાં જ સાદિ થઈને અનંત થઈ જાય છે. 151 अर्हसिद्धाचार्योपाध्यायाः सर्वसाधवोलोके / संसारिणां जनानां सततं श्रेयः प्रकुर्वन्तु // 152 // अर्थ-समस्त संसारी जीवों का अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्व साधु महाराज सदा कल्याण करते रहें // 152 / / સઘળા સંસારી જીવનું અન્ન, સિદ્ધ, આચાર્ય, ઉપાધ્યાય અને સર્વ સાધુમહારાજ સદા કલ્યાણ કરતા રહે. ઉપર मूलोत्तरैर्गुणै सन्तो लसन्तो भूमिमण्डलम् / चन्द्रवदुज्ज्वलैः स्वीयरुपदेशैः पुनन्तु ते // 153 // Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशः सर्गः 455 ___अर्थ-मूल गुण और उत्तर गुणों से सुशोभित संयमी मुनि चन्द्रमण्डल के जैसे उज्ज्वल अपने उपदेशों द्वारा इस भूमण्डल को पवित्र करते रहें // 153 // મૂળગુણ અને ઉત્તર ગુણોથી સુશોભિત સંયમી મુનિ ચંદ્રમંડળ જેવા ઉજજવલ પિતાના ઉપદેશ દ્વારા આ ભૂમંડળને પવિત્ર કરતા રહે. 153 धर्मोपदेशं च तदीयमित्थं श्रुत्वा सभा सा भृशमादधेऽथ / आनन्दकन्द बहुभक्ति भारा नतागता तत्पदयोर्निपत्य // 154 / / अर्थ-इस प्रकार गुरुदेव के धर्मोपदेश को सुनकर वह धर्मसभा बहुत अधिक आनंदित हुई और भक्ति के भार से झुककर उनके चरणोंकी वन्दना करके चली गई // 154 // આ પ્રમાણે ગુરૂદેવના ધર્મોપદેશને સાંભળીને તે ધર્મસભા ઘણી જ આનંદિત થઈ. અને ભક્તિના ભારથી નમીને તેમના ચરણની વંદના કરીને વરસ્થાને ગઈ. ll154 एकोनत्रिंशता युक्ते द्विसहस्रे शुभे ह्यदः। विक्रमाब्देऽधिके मासे वैशाखे पूर्णतां गतम् // 155 // अर्थ-यह लोकाशाह महाकाव्य विक्रम संवत् 2029 के वैशाख के द्वितीयमासमें पूर्ण किया गया है // 15 // આ લેકશાહ મહાકાવ્ય વિક્રમ સંવત્ ૨૦૨હ્ના દ્વિતીય વૈશાખ માસમાં પૂર્ણ કરવામાં આવેલ છે. ૧૫પા घासिलाला मुनीन्द्रास्ते सन्तः सन्तु हितावहाः। * यच्छुभ प्रेरणां प्राप्य निर्मितं चरितं ह्यदः // 156 // ___ अर्थ-वे मुनिराज घासिलाल महाराज सब के हितकारक हों कि जिनकी शुभ प्रेरणा से यह चरित्र निर्मित किया गया है // 156 // એ મુનિરાજ ઘાસીલાલ મહારાજ સૌના હિતકારક થાવ કે જેની શુભ પ્રેરણાથી આ ચારિત્રનું નિર્માણ કરવામાં આવેલ છે. 156 यद दत्त द्रव्य साहाय्यात् कार्यमेतत् समाप्तिमत् / जाते ते चन्द्रान्ता महताबा महोदयाः // 157 // अर्थ-यह महाकाव्य का निर्माण कार्यश्री महताबचन्द्र के द्वारा की गई द्रव्य की सहायता से समाप्त हुआ है // 157 // આ મહાકાવ્યનું નિર્માણકાર્ય મહેતાબચંદ્ર કરેલ દ્રવ્ય સહાયતાથી થયેલ છે. જે હવે સમાપ્ત થાય છે. 1 પછા Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 456 लोकाशाहचरित कामं ते जगतीह मेऽसमगुणा प्रथयन्त्ववज्ञां जनाः , तेभ्यो नास्ति भयं ममाल्पमपि यल्लोकस्य भिन्ना रुचिः। वर्तन्ते तु गुणानुरागहृदया ये धीधनाः समगुणाः , तेऽवश्यं परिवीक्ष्य मे श्रनमिमं तुष्यन्ति नो संशयः // 158|| अर्थ-भले ही संसार में मेरे गुणों को सहन नहीं करने वाले जन मेरी निन्दा करे. इसकी मुझे थोडी सी भी चिन्ता नहीं है. क्योंकि मनुष्योंकी प्रकृति भिन्न होती है. परन्तु जो सज्जन हैं वे तो मेरे इस परिश्रम को देखकर अवश्य ही संतुष्ट होंगे-इसमें कोई संदेह की बात नहीं है // 158 // આ સંસારમાં મારા ગુણેને સહન ન કરવાવાળા મનુષ્ય મારી નિંદા ભલે કરે, તેની મને જરાસરખી પણ ચિંતા નથી. કેમકે માણસોની પ્રકૃતિ જુદી જુદી હોય છે. પરંતુ જેઓ સજજનો છે, તેઓ તે મારા આ પરીશ્રમને જોઈને જરૂર પ્રસન્ન થશે. તેમાં કંઈજ સંશય જેવું નથી. 158 यावदाजति शासनं जिनपतेर्यावच गंगाजलम् , यावच्चंद्रदिवाकरौ वितनुतः स्वीयां गतिं चाम्बरे / यावद्वा कविकोविदाः बहुविदो राजन्ति भूमण्डले , तावकाव्यमिदं मया सुरचितं लसतान्मनोमंदिरे // 159 / / अर्थ-जबतक जिनेन्द्र देव का शासन और गंगा का जल है जबतक चन्द्र एवं सूर्य आकाश में चमकते हैं तथा जबतक कविजन बहुश्रुतजन इन भूमिमण्डल पर विराजते हैं-तबतक मेरे द्वारा रचा गया यह महाकाव्य हर एक प्राणी के मनोमंदिर में चमकता रहे // 159 // જ્યાં સુધી જીનેન્દ્રદેવનું શાસન અને ગંગાનું જળ વિધમાન રહેશે, જ્યાં સુધી ચંદ્ર અને સૂર્ય આકાશમંડળમાં ચમકતા રહેશે, તથા જયાં સુધી કવિજને, બહુશ્રુતજને, આ ભૂમંડળમાં બિરાજમાન રહેશે ત્યાં સુધી મેં રચેલ આ મહાકાવ્ય દરેક પ્રાણીના મનમંદીરમાં ચમકતું રહે એજ અભિલાષા છે. 159 जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर श्रीघासीलाल व्रति विरचिते हिन्दीगुर्जरभाषानुवादसहिते लोकाशाह चरिते चतुर्दशः सर्गः समाप्तः // 13 // लोकाशाहचरितम् संपूर्णम् // Page #466 -------------------------------------------------------------------------- _