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________________ 408 लोकाशाहचरिते वैशाखे पासि पक्षे च सर्गोऽयं च महोज्ज्वलः / त्रयोदशभिधः पूर्णो विद्या गूर्वनुकम्पया // 107 / / अर्थ-विक्रम संवत्र 2029 में वैशाखमास के कृष्णपक्षमें अष्टमी के दिन धर्माचार्य की अनुकम्पासे यह 13 वां सर्ग समाप्त हुआ है / / 106-107 // વિક્રમ સંવત ર૦૬૯ના વૈશાખ માસના કૃષ્ણપક્ષની આઠમને દિવસે ધર્માચાર્યની અનુકમ્પાથી આ તેરમો સર્ગ સમાપ્ત થયે. d106-17 कामं ते जगतीह मेऽसमगुणा प्रथयन्त्ववज्ञां जनाः, तेभ्यो नास्ति भयं ममाल्पमपि यल्लोकस्य भिन्ना रुचिः / वर्तन्ते तु गुणानुरागहृदया ये धीधनाः समगुणाः, तेऽवश्यं परिवीक्ष्य मे श्रममिमं तुष्यन्ति नो संशयः // 10 // अर्थ-भले ही इस जगत में वे लोग कि जो असम गुण वाले हैं मेरी अवज्ञा करें मुझे उनसे थोडासा भी भय नहीं है. क्यों कि लोगों की रूचि एकसी नहीं होती है भिन्न होती है. परन्तु जिनका हृदय गुणों के अनुराग से भरा हुआ है ऐसे बुद्धिमान जन मुझे यह विश्वास है कि वे मेरे इस परिश्रम को देखकर अवश्य ही संतुष्ट होंगे // 108 // ભલે આ જગતમાં એ લોકો કે જેઓ અસમ ગુણવાળા છે, તેઓ મારી અવજ્ઞા કરે, તેમનાથી મને જરા પણ ડર નથી કેમકે લેકેની રૂચી એકસરખી હોતી નથી. જુદી જુદી હોય છે. પરંતુ જેમનું હૃદય ગુણોના અનુરાગથી ભરેલ છે. એવા વિચારશીલ મનુષ્ય મને એ ખાત્રી છે કે તેઓ મારા આ પરિશ્રમને જોઇને જરૂર સંતોષ પામશે. I108 यावद्वाजति शासनं जिनपते विच्च गंगाजलं, ___ यावच्चन्द्रदिवाकरौ वितनुतः स्वीयां गतिं चाम्बरे / तावद्राजतु मत्कृता कृतिरियं व्याख्यायमानाङ्गिनाम् ___प्राज्ञानां विदुषां समासु सततं मे भावनैवेदृशी // 109 // अर्थ-जबतक इस भूमंडल पर जिनेन्द्र देव का शासन चमकता रहे, गंगा जल बहता रहे एवं चंद्र और सूर्य आकाश में चलते रहे तबतक मेरी यह कृति विद्वान् पुरुषों की सभा में पढी जाकर चमकती रहे. यही मेरी भावना है // 109 //
SR No.004486
Book TitleLonkashah Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1983
Total Pages466
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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