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________________ लोकाशाहचरिते अथ त्रयोदशः सर्गः प्रारभ्यतेजिनेन्द्रचन्द्रं प्रणिपत्य मूर्ना धर्माचार्यश्च स्मरणं विधाय / प्रारभ्यते संप्रति सर्गहर्षः कान्तोज्ज्वलाभिश्च पदावलीभिः / अर्थ-मैं जिनेन्द्रचन्द्र को मस्तक झुका करके और धर्माचार्य का स्मरण करके अब यह '१३वां सर्ग कान्त एवं उज्ज्वल पदों द्वारा निर्मित करता हं / 1 / હું જીનેન્દ્રચંદ્રને મસ્તક નમાવીને તથા ધર્માચાર્યનું મરણ કરીને હવે આ 13 મા સર્ગને કાંત અને ઉજજવલ પદ દ્વારા નિર્મિત કરું છું. છેલ્લા तारुण्यलक्ष्म्याङ्कित चारुदेहः सुवर्णभासोज्ज्वलकान्तियुक्तः श्रीलोकचन्द्रोऽजनि साधुवृन्दवृन्दारकः श्रीपतिज्यपादः // 2 // अर्थ-जिनका सुन्दर शरीर तरुणाई की शोभा से युक्त बना हुआ था और जो सुवर्ण की जैसी कमनीय कान्ति से शोभित हो रहे थे ऐसे वे लोक-। चन्द्र साधूओं के बीच में ऐसे सर्वोत्तम साधू बनें कि जिनके चरणों की पूजा अच्छे २वैभवशाली मनुष्योंने की. // 2 // જેનું કાંત શરીર તરૂણાઈની શોભાથી સુશોભિત બનેલ છે, અને જે સેનાની જેવી ઉજજવલ કાન્તિથી શોભિત થઈ રહ્યા હતા એવા એ લેકચંદ્ર સાધુઓમાં એવા ઉત્તમ સાધુ બન્યા કે જેના ચરણોની પૂજા સારા સારા વૈભવશાલીઓએ કરી. રા तामिन्दिरां मंदिरमध्यवासां पतिप्रियां तां ललनां विहाय ! लोकेन्दुनाऽऽदापि यतेश्च दीक्षा बृहत्तरं कार्यमकार्यनेन // 3 // अर्थ-लोकचन्द्र ने घर में वसी हुई उस लक्ष्मी का और पति जिस को प्यारा है ऐसी उस पतिव्रता नारी का परित्याग करके जो यति दीक्षा धारण की सो यह उन्होंने बहुत बडा कार्य किया है. // 3 // લેકચંદ્ર ઘરમાં વસેલી એ લક્ષ્મીને અને પતિ જેને મારા છે, એવી એ પતિવ્રતા પત્નીને ત્યાગ કરીને જે યતિદીક્ષા સ્વીકારી તે તેમણે ઘણું જ ઉત્તમ કામ કરેલ છે. કા पुत्रं च मुक्त्वा परिहाय बन्धून् गृहं परित्यज्य विमुच्य संगम् / श्री लोकचन्द्रेण धृतं पवित्रं व्रतं यतेः कारणमन्तरेण // 4 // अर्थ-विना किसी वैराग्य के कारण के पुत्र को छोडकर बन्धुजनो से मुंह मोडकर परिग्रह का परित्याग कर और घर से निःसंग होकर लोकचन्द्र ने यति के पवित्र व्रतों को अंगीकार किया है // 4 //
SR No.004486
Book TitleLonkashah Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1983
Total Pages466
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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