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________________ वाणी डूबसी गयी थी / योग साधना का दुरुपयोग होता था और चमत्कार, मंत्र, भेषमादि द्वारा राजा-महाराजा, सेठ-साहुकार, इत्यादि को लूटा जाता था / यति और मुखि उपाश्रय बनाकर रहने लगे अथवा चैत्यवासी हो गये / ये अपनी नवांगी पूजा तक करवाने लगे थे। आहार पानी लेने पालखी में बैठकर जाते, खूब घी चोपड़ और मेवे खाते तथा द्रव्य भी स्वीकारते / देखिए, इस संदर्भ में कितनी मार्मिक बात कही है ते निर्भयीभूय गजेन्द्र तुल्या इच्छानुकूलातविशिष्ट भक्ताः। वायुप्रकोपेन च पुष्टदेहा, इतस्ततो वा विचरन्त्यविज्ञाः // (सर्ग 13 गाथा 52) अर्थात् ये ( यति जन ) कि जिन्हें अपनी इच्छा के अनुकूल विशिष्ट आहार प्राप्त हो जाता था और बात के प्रकोप से जिनका शरीर स्थूल रहा करता था, निर्भय होकर गजराज की तरह विचरण करते थे। ___ इस तरह उस समय जैन मार्ग में आडंबर और शिथिलाचार की ऐसी अति हो गयी थी कि विवेकी मनुष्यों को घृणा होने लगे / और यह बात शत प्रतिशत सत्य है कि जब किसी बात की अति होती है, तो उस बात की स्वाभाविक प्रतिक्रिया उसके भीतर से ही निपजती है / क्रांतिकारी परिवर्तन की तीव्र संभावना निर्माण हो जाती है, और ऐसे समय साहस के कदम उठानेवाला कोई महा पुरुष जनमता है तो आमूलाग्र परिवर्तन आही जाता है। ___उस समय युग प्रवर्तक परमोद्धारक प. पू. श्री लोकाशाहने कार्य किया / रत्नों की परख-पहचान करनेवाले इस जौहरी ने बिगड़े समाज की नब्ज पहचान लो / ग्रंथों की नकल उतारते 2 आगम प्रणित सिद्धान्तों को गहराई से जान लिया / मुहम्मदशाह की मृत्यु के बाद उस घटना के कारण वैराग्यभाव जाग गया था और बादशाह का कोषाध्यक्षपद त्याग करके यति बन गये और अपने शास्त्रपूत विचार लोगों के सामने रखने लगे। ___ मंगलाचरण, तीर्थकर-गणधर-प्रणति, सज्जन दुर्जन प्रवृत्तियाँ आदि के बाद कविवर श्रद्धेय आचार्य श्री घासीलालजी म. सा. ने जैन भूगोल की दृष्टि से जम्बूद्वीप क्षेत्र और भरतक्षेत्र का जिक्र करते हुए राजस्थान गौरव का सुंदर एवं प्रभावी वर्णन चित्रात्मक ढंग से किया है। फिर कवि सिरोही संभाग और वहाँ के नगर वर्णन पर उतरते हैं और वहाँ के वैभव और धर्मानुराग से भरे प्रसन्न वातावरण का चित्र आकर्षक पद्धति से रखते हैं। इसके बाद कविश्रेष्ठ तर्तीय सर्ग के मध्य में युगान्तरकारी श्री लोकाशाड के माता-पिता गंगादेवी और सेठ हेमचंद्र का जीवन चित्रण करते हैं / इन दोनीमा रूप, परस्पर प्रेम, धर्मशील सदाचारी जीवन, गुरुदेव के प्रति अटूट श्रद्धा प्रवचन श्रवण, सामायिक और प्रति
SR No.004486
Book TitleLonkashah Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1983
Total Pages466
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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