SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 7
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दिनों परम श्रद्धेय आचार्यश्री जवाहरलालजी महाराज के व्याख्यान सुने। इससे अहिंसा प्रेम और वैराग्यभाव ऐसा जगा कि बालक घासीलाल आचार्यश्री के साथ ही रहने लगा और संवत 1958 में मुनि-दीक्षा धारण कर ली। ऐसे भीतर से उपजे स्वाभाविक वैराग्य के धनी आगे चलकर इतने प्रख्यात हो गये कि दसों दिशाएँ आपकी कीर्तिगाथा से भर गयीं। प्रारंभमें तो चार दो श्लोक कंठस्थ करनेमें दस पाँच दिनों का समय लग जाता, किन्तु सतत अध्ययन, मनन और चिंतन तथा साथ ही उपवासादि तपस्या आदि से ज्ञानावरणीय कर्मबंध ऐसे हटे कि कोई श्लोक कंठस्थ होने के लिए एकबार पढ़ना काफी होने लगा और आगे चलकर आप एक महान पंडित हो गये / यह कोई चमत्कार नहीं है। जैन सिद्धान्तके अनुसार ज्ञान कहींसे ऊपरसे नहीं आता, वह भीतर ही है। ज्ञान जीवका मूल स्वभाव है / जैसे कर्मबंधों का क्षय होता जाता है, वैसे ज्ञानशक्ति प्रगट होती जाती है। ___ इस के बाद आपश्रीने समग्र जैन आगमों का एवं दूसरे मौलिक दार्शनिक ग्रंथों का ऐसा गहरा अध्ययन किया कि मानो सरस्वति आप की जिहवापर नाचने लगी। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, गुजराती, उर्दू आदि सोलह भाषाएँ आपको आती थी, और इसी कारण ज्ञानका खजाना इनमें से किसी भाषा में हो, वह आप की पहुँचके भीतर आ गया। . बहत्तर वर्षों के दीक्षा पर्यायमें आप अंतिम सोलह वर्ष अमदाबादमें स्थिर वासमें रहे। शेष 56 वर्षों में आपश्रीने कभी चैन की साँस नहीं ली। समाज प्रबोधन का ऐसा तगड़ा और तूफानी कार्य चलाया कि जिनका वर्णन शब्दातीत है। हिन्दी, मराठी, गुजराती, राजस्थानी आदि किसी भी भाषामें आपश्री का वक्तव्य अत्यंत प्रभावी एवं मुग्धकारी होता था। लोग बड़ी संख्यामें आते थे। अजैन भी आकर्षित होते थे। आपश्रीने अमदाबाद जैसे बड़े शहरों के साथ हिवड़ा, चिंचवड़ जैसे छोटे गाँवोंमें भी चातुर्मास किये। राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश एवं महाराष्ट्रमें दूर दूर तक विहार किया। आपकी दृष्टि * परम उदार थी। जातिवाद और उच्च नीचता का आपने सदा कट्टर विरोध किया। इसलिए तो करांची जैसे मुसलमान बहुल संभागमें भी आप का चातुर्मास अत्यंत प्रभावी, उपकारक एवं प्रशंसनीय रहा और उदयपुर के राणा साहब, कोल्हापुर नरेश, अनेक सरदार, ' ठाकुर एवं अधिकारी ऐसे अनेक अजैन भी प्रभावित हुए हैं तथा आचार्यश्री के कथना"नुसार अनेकबार अमारि हुक्म प्रसारित किये गये। आपश्री के उपदेश से अनेक स्थानोंके देवी देवताओं के सामने होनेवाली पशु-बलि-प्रथा बंद हुई। हिवड़ा (महाराष्ट्र ) क्षेत्रमें भयंकर अकाल की स्थितिमें हजारों भूखोंको आपश्रीने अन्नदान करवाया है। घोड़नदी
SR No.004486
Book TitleLonkashah Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1983
Total Pages466
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy