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________________ है। येही हमारे महान गुरु है और हम जैनोंके सद्भाग्यसे ये हमें सहज प्राप्य है। हम इनके कहे अनुसार चलें तो जीवनका सोना हुए बगैर नहीं रहेगा। ___ हमारी आत्माका परमात्मास्वरूप प्रगट करवानेमें सतत प्रयत्नशील ये गुरु कोरा उपदेश नहीं करते / प्रत्येक सिद्धान्तको पहले अपने जीवनमें उतारते हैं और बादमें हमें कहते हैं / दूर क्यों जाएँ ? इसी ग्रंथमें कहा है रत्नत्रयं पंचमहाव्रतानि गुप्तित्रयं वा समितीस्त्रिकालम् / से पालयन्त्यादरतो मुनिस्तानाश्रित्य भव्या भवपारगास्ते॥ __ (सर्ग 13 गाथा 22) अर्थात् जो रत्नत्रयको, पाँच महाव्रतोंको, तीन गुप्तियोंको और पाँच समितियोंको निकाल-सदा-आदरपूर्वक धारण करते हैं, ऐसे मुनिजनोंका आश्रय पाकर वे भव्यजन भवसे पार हो जाते हैं। ऐसे ये मुनिवर्य-हमारे गुरु हमारे लिए महान मार्गदर्शक होते हैं। श्रेष्ठ आदर्श होते हैं। गुणरत्नोंका भंडार होते हैं / कबीरने ठीक ही कहा हे सात समुंदरकी मसि करूँ, लेखनि करूँ बनराय / सब धरती कागद करूँ, गुरु गुन लिखा न जाय॥ - इस प्रकार हमारे गुरुदेव, जोकि गुणोंके सागर हैं हमें भव सागर पार कराने में सक्षम होते हैं। हमें आत्मा और परमात्माके मानों सही रूपमें साक्षात्कार कराते हैं / इसलिए तो कबीर भगवानसे भी पहले गुरुको नमस्कार करना चाहते हैं / कहते हैं गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काकै लागू पाय ? बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय॥ हमारा महान् सद्भाग्य है कि इस चरित महाकाव्य द्वारा हमें श्वेताम्बर स्थानकवासी समाजके लुप्तप्राय मागेको पुन: प्रगट करने में पथ प्रदर्शक श्रेष्ठतम गुरुदेव श्री लोंकासाहके जीवन और कार्य का परिचय मिलेगा। संस्कृत काव्य मंदाकिनी द्वारा इस चरित्र का मधुर निर्मल जल प्रवाहित करनेवाले प. पू. आचार्य घासीलालजी महाराज हैं / आपकी योग्यता भी बहुत ऊँची थी। __आप का जन्म मेवाड़ प्रान्त के वैश्नव समाज का प्रसिद्ध तीर्थस्थल कांकरोली के समीप एवं राजसमुद्र के उत्तर में आठ मील की दूरी पर छोटासा 'बनोल' नामक गांव में वि. सं. 1941 में रामानंद संप्रदाय मानने वाले एक सामान्य ब्राह्मण प्रभुदत्त और विमलाबाई के कोख से हुआ था। बारह बरसके होते होते आप माता पिता विहीन अनाथ हो गये, तो एक सेठके यहाँ मामुली नोकरी करने लगे। इन्ही
SR No.004486
Book TitleLonkashah Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1983
Total Pages466
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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