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________________ वह इस लोक में और परलोक में भी सुखी हो सकता है।" इस प्रकार के संयमद्वारा संतोष धन पाकर तिजोरी के धन को त्यागना है। हिंसा छोड़ अहिंसा को अपनाना है / झूठ, फरेब आदि दुर्व्यवहारों को छोड़ना है। दुर्गुणों का कचरा फेंककर सद्गुणों को जीवन में उतार ता है मतलब कुछ लेना तो कुछ छोड़नाभी है / अगर कुछ ग्रहण करना है तो कुछ त्यागना पड़ेगाही / संत कबीरने कहा है चींटी चावल ले चली, बिचमें मिल गयी दाल / कहे कबीर दोऊ ना मिले, इक ले दूजी डार।। / हुआ यह कि एक चींटी चावल का कण लेकर चली थी / रास्ते में उसे दालका कण पड़ा दिखाई दिया / उसे वह कण लेने की इच्छा हुई। कबीर बोले-'अरी पगली ! तुझे दोनों नहीं मिल सकते / दाल लेना हो तो चावलको छोड़ना होगा / उसी प्रकार कषायों का कचरा फेंके बगैर हृदय में भगवान् को स्थान कैसे दिया जा सकेगा ? " एक भिखारी सम्राट के दरवाजे पर आया है / महादानी सम्राट अंजलीभर मोहरें देने को तैयार खड़ा है। भिखारी की झोली अगर पत्थरों से भरी हो, तो क्या वह मोहरें ले / सकेगा ? पहले झोली रिक्त करनी होगी, तबही मोहरें लेना संभव होगा। इसी तरह भगवान को हृदय में बसाना है तो साफ सफाई आवश्यक है। विषय कषायों से संपूर्ण रिक्त होना आवश्यक है। एक बार राधाने श्री कृष्णसे पूछा-'प्रिय, तुम्हें बाँसुरी मुझसे भी अधिक प्रिय क्यों है ? उसे तुम सदा पासमें रखते हो ? होंठों पर या कमर-बंधौ / ' श्री कृष्णने उत्तर दिया -'बाँसुरी पोली है, पूरीतरह रिक्त है / उसके पास अपना कोई सुर नहीं है / पूर्णत:मेरा मुर भर लेती है / इसलिए मुझे वह प्रिय है। सत्य है संयम और त्याग के आधार से आत्मा के विभावों को दूर करने सेही-बाँसुरी-वत् संपूर्ण रिक्त होने से ही-आत्मा स्वभाव में स्थिर हो सकेगी / परमात्मा बन सकेगी। लेकिन देवदुर्लभ मानव-जीवन पाकर भी भीतर बसेहुए को भूलकर मानव भटक गया है / काँटोंभरे भयानक जंगल में खो गया है। अब गुरुबिन कौन बतावे बाट ? फिर भी जरा भी चिंता करने की जरूरत नहीं है। हम जैनों के लिए गुरु दुर्लभ नहीं है। यह विश्वविख्यात है कि जैन साधुसंस्था की बराबरी करनेवाली तथा आचार, विचार और प्रचार इन तीनोंमें श्रेष्ठ संन्यस्त संघीयता विश्वमें दूसरी कोई नहीं है। केवल अपनी आत्माके कल्याणकी नहीं, परकल्याणकी-हमारे कल्याणकी भी इन्हें चिंता होती
SR No.004486
Book TitleLonkashah Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1983
Total Pages466
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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