________________ श्री वीतरागाय नमः भूमिका श्री जैनधर्मदिवाकर, शास्त्रोद्धारक, पंडितरत्न न्यायालंकार प. पू. आचार्यदेव श्री घासीलालजी म. रचित लोकाशाहचरित नामक महाकाव्य जो अ. भा. श्वे. स्था. जैन शास्त्रोद्धार समिति ने प्रसिद्धि के उद्देश्य से छपवाया है उसकी भूमिका लिखने के लिए समिति के कार्यकर्ताओं ने मुझे विनंती करने से जब भूमिका लिखने की आवश्यकता उपस्थित हुई तो मन एकदम संकोच से भर गया मैं सोचने लगा कि सामान्य ज्ञानवान ऐसा मैं इतना महान् कार्य किस प्रकार कर सकूँगा ? परंच क्षणांतर में ही देवगुरु कृपाका सहारा याद आया / फिर यह भी विचार किया कि प्रस्तुत ग्रन्थ के अध्ययनकर मनन करने के साथ साथ गुरु गुणसंकीर्तन का मौका मिलेगा। इस प्रकार सोच समझकर ग्रन्थ को पढ़ा तो ऐसा रसप्रद लगा कि मानो मन काव्यमें डूबा जा रहा है। यह स्थिति निश्चित ही आत्महित साधक है। क्योंकि कवि विहारी ने कहा है या अनुरागी चित्सकी, गति समुझे नहीं कोय / ज्यों ज्यों बूड्तु शाम रंग, त्यों त्यों उज्जलु होय // ___ अर्थात इस अनुरागी चित्त की गति कोई समझ नहीं सकता, यह जैसे जैसे शाम रंग में डूबता जायेगा / वैसे वैसे उज्वल होता जायगा / डूबना शाम रंग में और होना शुभ्रातिशुभ्र / यहाँ कविने शाम-उज्वल ये दो विरोधी शब्द लेकर अलंकारिक चमत्कृति निर्माण की है। लेकिन शाम कृष्ण को भी कहते हैं। आशय यह है कि हमारा मन श्री कृष्णभक्ति के रंग में अर्थात् भगवत् भक्ति के रंगमें जितना अधिक लीन होगा, वैसे आत्मा अधिकाधिक उज्वल बनती जायगी। लेकिन यह आत्मा के उज्वलताकी साधना, उसके शुद्ध स्वरूपको उपलब्ध करना, उसे उसके स्वभाव में स्थिर करना इतना सरल नहीं है। इसके लिए सम्यग ज्ञान-दर्शन-चारित्र इन तीन महान् रत्नों को प्राप्त करना होगा और इसके लिए संयम और त्याग के मार्गपर चलकर तपःसाधना तक पहुँचना होगा। संयम का अर्थ है-स्वयंका स्वयंपर अंकुश लगाना / पाँचों इंद्रियों पर काबू पाना / तृष्णाको बाँधना / क्रोध,मान, माया, लोभ इन कषायों को लगाम लगाना / अहो ! संयम का महत्त्व कितना है ? भ०महावीर स्वामीने कहा है-"जो अपने मनको संयम की दिशा देता है,