________________ एकादशः सर्गः 335 वधूकरस्पर्श भवास्यतस्य तत्पाणिसंस्पर्शवशाच्च तस्याः / रोमोद्गमः प्रादुरभून्ममत्वभावोऽपि सार्ध प्रविवेश तत्र // 53 // / अर्थ-वधू के हाथ का स्पर्श पाकर और वर के हाथ का स्पर्श पाकर वरवधू के शरीर में रोमांच हो आया और उसी समय दोनों में-वर वधू में-एक ही साथ ममत्व भाव ने प्रवेश कर दिया. // 53 // વધૂના હાથને સ્પર્શ પામીને વરના અને વરના હાથને સ્પર્શ પામીને વધૂના શરીરમાં રોમાંચ થશે. અને એજ સમયે બન્નેમાં એકસાથે જ મમત્વભાવે પ્રવેશ કર્યો. આપણા * धर्मोक्तरीत्या च तयोर्बभूवुः परस्परं सप्तपदानि तत्र / पश्चाच्च पाणिग्रहणस्य जातः पूर्णस्तयोरेषविधिः प्रयुक्तः // 54 // अर्थ-धर्मोक्त विधि के अनुसार वर वधू की उस मंडप में आपस में सप्तपदी हुई. इस के बाद उन दोनों की पाणिग्रहण की प्रारंभ की गई विधि समाप्त हो गई // 54 // ધર્મોકત વિધિ પ્રમાણે એ મંડપમાં વર વધૂની સપ્તપદી વિધિ થઈ. તે પછી એ બન્નેની પાણિગ્રહણની વિધિ સમાપ્ત થઈ. પ૪ स्थापितायाः खलु वेदिकायाः प्रदक्षिणाप्रक्रमणाच्चकासे / मेरोरुपान्तेष्विव वर्तमानं शचीन्द्रयुग्मं मिथुनं तदेतत् // 55 // ___ अर्थ-पहिले से स्थापित वेदी की प्रदक्षिणा करते समय सुदर्शना और लोकचन्द्र इस प्रकार से शोभित हुए कि जिस प्रकार सुमेरु की प्रदक्षिणा करते समय शची और इन्द्र शोभित होते हैं // 55 // * પહેલેથી બનાવેલી વેઠીની પ્રદક્ષિણા કરવાના સમયે સુદર્શન અને લેકચંદ્ર એવી રીતે શોભિત થયા કે-જેમ સુમેરૂની પ્રદિક્ષિણા કરતી વખતે ઇન્દ્ર અને ઇન્દ્રાણી શોભિત या हता. // 55 // . . अखंडितं प्रेम लभस्व भर्त्त वर्धव पौत्रैश्च सुतादिभिश्च / मास्म प्रतीपं च गमः कदापि तस्य त्वमाराधय नित्यमाज्ञाम् // 56 // गुरुन् प्रसन्नान कुरु सेवयव भवन्ति नार्यः कुलदीपिकास्ताः / विलोक्य तत्रैव च तत्प्रभावं सुरा रमन्तेऽत्र रमाऽवलापि // 57 //