________________ 208 लोकाशाहचरिते देहात्मनो नैक्यमसंभवित्वान्नोचेकथं तावक तत्त्वसिद्धिः। अतः पयः पावकयोखिात्र पार्थक्यमेवेत्यवधार्यमार्यैः // 56 // अर्थ-अतः देह आत्मा में असंभव होने के कारण एकता बन ही नहीं सकती है. यदि इस पर यों कहा जावे कि द्रव्यदृष्टि से दोनों में एकता बन जावेगी. सो ऐसी मान्यता में आपके यहां की तत्त्वचतुष्टय व्यवस्था सिद्ध नहीं हो सकेगी. अतः जैसे पय और अग्नि में लक्षणादि की भिन्नता से भिन्नता है उसी प्रकार देह और आत्मा में भी लक्षणादि की भिन्नता से भिन्नता है. ऐसा आप को निश्चय कर अपने चित्त में धारण करलेना चाहिये. // 56 // તેથી દેહ અને આત્મામાં અસંભવપણું હોવાથી એકતા બની જ શકતી નથી જો આ સંબંધમાં એમ કહેવામાં આવે દ્રવ્યદૃષ્ટિથી બેઉમાં એકતા બની જશે. તો એ માન્યતામાં આપની ચાર તત્વ સંબંધી વ્યવસ્થા સિદ્ધ થઈ શકશે નહીં. તેથી જેમ દૂધ અને અગ્નિમાં લક્ષણાદિના જુદાપણાથી જુદાપણું છે તેમ આપે નિશ્ચય કરીને પિતાના ચિત્તમાં વિચારી લેવું જોઈએ. 56 न भूतकार्य न तु जीव एषः न जीव कार्य खलु भूततत्त्वम् / व्यवस्थितः कारणकार्यभावः यतः सजातीयपदार्थसार्थे / 57 // ___ अर्थ-यह जीव भूत का कार्य नहीं है और पृथ्व्यादि भूत जीव के कार्य नहीं हैं, क्यों कि कार्य कारणभाव सजातीय पदार्थों में ही व्यवस्थित माना गया है // 57 // આ જીવ ભૂતસંબંધી કાર્ય નથી. અને પૃથ્વી વિગેરે ભૂત જીવસંબંધી કાર્ય નથી કેમકે કાર્ય કારણુભાવ સજાતીય પદાર્થોમાં જ વ્યવસ્થિત માનવામાં આવેલ છે. પછી यद्भूतकार्य भवतीन्द्रियैस्तद् ग्राह्यं यथैतद्व पुरादि नैतत् / / चैतन्यरूपं ननु केवलेनाऽनुमानतः स्वानुभवेन गम्यम् // 58|| अर्थ-जो भूतों-पृथिव्यादिक तत्वों का-कार्य होता है वह इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण करने में आता है जैसे अस्मदादिकों के शरीर आदि परन्तु चैतन्य रूप पदार्थ किसी भी इन्द्रिय से ग्राह्य नहीं है, वह तो केलियों को केवलज्ञान से, अस्मदादिकों को अनुमान ज्ञान से और तपस्वि मुनिराज आदिकों को स्वानु भव से गम्य होता है. // 58 //