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________________ 206 लोकाशाहचरिते भूतात्मक तत्व चतुष्टयं तच्चैतन्यरिक्तं कथास्थ युक्तम् / चैतन्यमा प्रतिकार गत्य विचारणीयं स्वयमेव सम्यक् // 51 // अर्थ-तुम्हें स्वयं ही इस बात का विचार करना चाहिये कि भूतात्मक जो चार सत्त्व हैं वे अचेतन हैं और जीव चेतन है. तो इस चेतन जीवरूप भाव के प्रति भूतचतुष्टय में कारणता कैसे बन सकती है. // 51 // તમારે પોતાની મેળે જ એ વાતનો વિચાર કરે જોઈએ કે ભૂતાત્મક જે ચાર તત્વ છે, તે અચેતન છે, અને જીવ ચેતન છે, તે આ ચેતન એવા જીવ પ્રત્યે ચાર મહાભૂતેમાં કારણ પણું કેવી રીતે બની શકે? 51 देहस्य नाशे यदि जीवनाशो भवेत्कथं संकलनात्मकं तत् / .. ज्ञानं यथाऽयं खलु देवदत्तः स एव कस्यापि भवेत्कथं वा // 52 // ___ अर्थ-देह के नाश होने पर यदि जीव का विनाश हुआ माना जावे तो फिर “यही वही देवदत्त है, ऐसा जो संकलनात्मक ज्ञान होता है. यह अब कैसे हो सकेगा // 52 // દેહને નાશ થવાથી જે જીવને પણ નાશ થશે તેમ માનવામાં આવે તે પછી આ એજ દેવદત્ત છે? એવું જે સંકલનાત્મક જ્ઞાન થાય છે, તે હવે કેવી રીતે થશે ?પરા कालान्तरा विस्मरणे निमित्ताद् बोधात् स्मृतिर्वानुभवो यदा स्तः। इदं तदा संकलनात्मकं तज्ज्ञानं इटित्यात्मनि जायते हि // 53 // अर्थ-जो वस्तु अवायज्ञान के द्वारा निश्चित की जा चुकी है उस घस्तु को कालान्तर में नहीं भूलने में जो हेतु है वह बोध धारणा नामका एक संस्कार है. इसी के प्रभाव से वस्तु की अनुपस्थिति में भी उसकी जीव को याद आती रहती है. याद आना इसका नाम स्मरण है. धारणा संस्कार इसका अव्यवहित कारण है. जब देखी हुई वस्तु पुनः देखने में आती है तो उसके देखते ही देखनेवाले को ऐसा ज्ञान होता है यह वही वस्तु है जिसे मैने पहिले देखा था. इसी ज्ञान का नाम प्रत्यभिज्ञान ज्ञान है. यह ज्ञान एक ही आत्मा में होता है-जिसने उसे पहिले देखा है. उसे ही उसका स्मरण होता है और पुनः उसके प्रत्यक्ष होने पर उसे ही यह वही वस्तु है जिसे मैंने पहिले राजगिरि नगर में देखा था. ऐसा संकलनात्मक प्रत्यभिज्ञान होता है-आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व के अभाव में ऐसा एका. धिकरक बोध नहीं हो सकता. // 53 //
SR No.004486
Book TitleLonkashah Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1983
Total Pages466
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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