________________ इसके आगे का धर्मप्राण प. पू. लोकाशाह का अध्ययनादि द्वारा गंभीर एवं विशाल ज्ञान प्राप्त करना और उसके बाद का 30-35 वर्षों की अवधि में किया गया युगातरकारी कार्य, इनका समग्र वर्णन केवल 13 वें सर्ग की सीमा में समाया हुआ है। इसमें वे कैसे मोह माया को त्यागकर त्यागी-तपस्वी बने, कैसे खडतर जीवन और परिवहों से न डरनेवाले हुए, कितना और कैसा अध्ययन किया, कैसे समस्त विद्याएँ और उपविद्याएँ ग्रहण की और श्रेष्ठ विद्वान और चिंतक बने इसका विवरण आया है / आपश्री जैन यतियों का शिथिलाचार देखकर दुःखी हुए और फिर यतियों को समझाना प्रारंभ किया। मुनिदीक्षा के बाद पुनः गंभीर अध्ययन किया / आपके विचार धारा की पाटण में प्रसिद्धि फैलने लगी। आनेवालों की संख्या बढ़ने लगी और वे सब आपकी देशना चित्त में धारण करने लगे। फिर यतिवर्य अमदावाद पधारें। वहाँ झवेरीवाड में चातुर्मास किया / वहाँ का समस्त जन समुदाय आप का अनुरागी हो गया और वहाँ के सभी यति मुनिदीक्षा लेकर उत्तम आचारवान् बन गये। एक दिन अणहिलपुर पट्टण के लखमसीभाई नामक एक विद्वान श्रावक आये / धर्मोपदेश सुनां / एकान्त में बैठकर चर्चा भी की / अत्यंत हर्षित होकर देशना जनता समक्ष रखने की प्रार्थना की / इसके बाद एकबार भिन्न भिन्न स्थानों के नागजीभाई, रामजीभाई, दलीचन्द्रभाई, मोतीचंद्रजी ऐसे चार समाजमान्य मुखिया आये / इनके साथ और अनेक थे। देशना सुनकर सब मंत्रमुग्ध हो गये / सब अनुयायी बन गये। क्योंकि इत्थं स्वचित्ते परिभाव्य सर्वैस्तदैव तैतिमयं तपस्वी / अजेयशक्ति जिनमार्गगामी न चान्यथा वाद्यथ धर्मवेदी // ___ (सर्ग 13 गाथा 100) अर्थात इस प्रकार अपने चित्तमें विचार करके उन सबने जान लिया कि यह तपस्वी अजेय शक्तिवाला है, जिनमार्गगामी है, धर्मवेत्ता है और जिनसूत्र के विपरीत प्ररूपणा नहीं करते। . इसलिए आपको बहुत बड़े गुरु (आचार्य समान) मान लिया गया और संघ में अब इनकी आज्ञा प्रमाणभूत मानी जावेगी ऐसी घोषणा कर दी। प्रस्तुत चरित-काव्य-ग्रंथ में चरित्र विषयक तथ्यों का विवरण प्रायः यहाँ पूर्ण हो जाता है / आगे चौदहवें सन में केवल कुछ धर्मतत्त्वों की चर्चा है।