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________________ पञ्चमः सर्गः 143 संयोगिनो येऽपि च केऽपि ते ते स्वस्वार्थलीना न परस्य हानौ / वृद्धौ च तेषां भवतीति हानिद्धिर्यतः स्वस्थमिदं हि विश्वम् // 66 / / ___ अर्थ-जो स्त्री पुत्र मित्रादिक संयोगी पदार्थ हैं वे सब अपने अपने स्वार्थ में लीन हैं. पर की हानि में और वृद्धि में उनकी न हानि होती है और न वृद्धि होती है. क्यों कि यह विश्व अपने में ही स्थित है // 66 // " જે સ્ત્રી, પુત્ર, મિત્ર વિગેરે સગી પદાર્થ છે તે બધા પોતપોતાના સ્વાર્થમાં રચ્યાપગ્યા હોય છે. પરની હાની કે વૃદ્ધિમાં તેમની હાની કે વૃદ્ધિ થતી નથી કેમકે આ સમગ્ર विश्व पोतानामा स्थित छ. // 66 // न कोऽपि कस्मै च ददाति दुःखं सुखं च कमैव ददाति सर्वम् / सुखेप्सुभिनित्यमतो विधेयं शुभं विमुच्याशुभकर्मजीवैः // 67 // अर्थ-कोई भी जीव न किसी के लिये सुख देता है और न दुःख देता है जो कुछ देता है वह एक कर्म ही देता है. इसलिये जो सुग्वाभिलाषी जीव हैं उनका कर्तव्य है कि.वे अशुभ कर्मों को-कार्यों को-छोडकर शुभ-अच्छे लोकहितकारक-कार्य करें // 6 // કોઈ પણ જીવ કેઈને પણ સુખ આપતા નથી. અને દુઃખ પણ આપતા નથી. જે કંઈ સુખ દુઃખ થાય છે, તે કર્મ દ્વારા જ થાય છે. તેથી સુખેષ્ણુ પુરૂષનું કર્તવ્ય છે કે અશુભ કર્મોને છોડીને શુભ કર્મ જ કરવા. 67ii संयोगभाजश्च पदार्थसार्थाः स्वभाव संस्था नहि तेन्यरूपाः। भवन्त्य भूवश्च न भाविनस्ते तथा ह्यतस्त्वं स्वत एक एव // 6 // अर्थ-जितने संयोगी पदार्थ हैं वे सब अपने 2 स्वभाव में जब स्थित हैं तो फिर वे अन्य स्वरूप कैसे हो सकते हैं. अर्थात् नहीं हो सकते इस तरह पदार्थों का स्वरूप है और वह त्रिकालवर्ती है. तब यह मान्यता कि पदार्थ अन्य स्वरूप हो जावेंगे, पहिले अन्य स्वरूप हुए हैं, वर्तमान में होते हैं सर्वथा असत्य है. अतः अपना सुखःदुखादिकों का भोक्ता जीव आप स्वयं ही है दूसरा उनमें साझीदार न कोई होता है, न हुआ है और न आगे ऐसा होने वाला ही है. // 68 // જેટલા સંયોગી પદાર્થ છે તે બધા પોતપોતાના સ્વભાવમાં જયારે સ્થિત હોય તો પછી તેઓ બીજા સ્વરૂપે કેવી રીતે થઈ શકે ? અર્થાત ન જ થઈ શકે આ રીતે પદાર્થનું
SR No.004486
Book TitleLonkashah Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilalji Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1983
Total Pages466
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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