________________ aus.. यथाप्रसिद्धं चरितं मर्यंतच्छ्रतं यथा वच्मि तथैव चाहम् / -श्रुतेऽनुभूते भवतीति भेदो ग्राह्या त्रुटि त्र भवेद्यदीह // . (सर्ग 1 गाथा 8) अर्थात्-जिस रूपसे यह चरित्र प्रसिद्ध है और जैसा इसे मैंने सुना है मैं उसीतहरसे इसे ग्रथित करूँगा। यदि कथनमें किसी तरहका अंतर प्रतीत हो तो इसमें मेरा कोई दोष नहीं मानना चाहिए, क्यों कि सुनी गई बातमें और देखी गई-अनुभव की गई-बातमें अंतर आही जाता है। . इससे भी महत्त्वपूर्ण कारण आपश्री का उच्च कोटि का समताभाव होना चाहिए / आपश्री बड़े सतके हैं कि कहीं निंदा झूठ आदि का दोष न लग जाय / दुष्ट शब्द जिहूवा पर न आवे, यहाँ तक कि ऐसे विचार दिमाग में तक न आया / मुहम्मदशाह की मृत्यु का दुष्टता भरा प्रसंग तथा उसी तरह का युग प्रवर्तक प. पू. लोकाशाह की / स्वर्गवास की घटना और उसके कारण इतिहास को ज्ञान होते हुए भी आपश्रीने इन प्रसंगों का उल्लेख तक नहीं किया। जो हुआ सो हुआ / कार्य महत्वपूर्ण है / उच्च शास्त्रोक्त मार्ग का अनुसरण महत्त्वपूर्ण है / शेष बातें भूलने की है / अभिमान का विषय है कि इस संदर्भ में ठीक भ० महावीर कीसी प्रवृत्ति प्रगट हुई है / भ० महावीर के समय 363 भिन्न भिन्न पंथ उपपंथ प्रचलित थे। यज्ञादि कर्मकाण्डों का प्रभाव तो जन जीवन पर बहुत था / धर्म के नाम पर निघण हिंसा हो रही थी। किन्तु भगवान महावीर ने कभी किसी की निंदा नहीं की / वे केवल अपनी बात कहते थे। कविश्रेष्ठ आचार्यप्रवर श्री घासीलालजी महाराज ने इस काव्य में जैन दर्शन के अनेक मूलतत्त्वों का निरूपण किया है। इसमें जीव अजीव आदि नौ तत्त्व, अजीव के भेद, जीव का स्वरूप और उसके भेद, प्रकृत्यादि बंध के चार प्रकार, प्रमाद योग, अविरति आदि बंधके पाँच कारण, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय आदि आठ प्रकृतिबंध एवं इनके भेद प्रभेद आदि अनेक तत्त्वों का सुस्पष्ट विवेचन प्रथित है / कर्मबंधों का बँधना और आराधना तप व्रतादि से उनका विरल होना बतलाते हुए आश्रय संवर, निर्जरा की प्रक्रिया का विवरण भिन्न भिन्न पहलुओं को लेकर अनेक बार आया है। हिंसा, झूठ, चोरी आदि पाँच पापों से और क्रोध, मान, मायादि चार कषायों से बचने के लिए वारंवार आवाहन किया गया है तथा कषायों को मंद करनेवाली तपस्या के लिए प्रोत्साहित किया गया है। तीन गुप्तियाँ, पाँच समितियाँ, उत्तम क्षमा आदि धर्मों से और एकत्व लोक बोधिदुर्लभ भावना आदि बारह भावनाओं से किस तरह आत्मशुद्धि